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कलाम
जो दम ग़ाफ़िल सो दम काफ़िर मुर्शिद एह पढ़ाया हूसुणया सुख़न गइयाँ खुल अक्खीं चित्त मौला वल लाया हू
सुल्तान बाहू
कलाम
इल्मों बाझ जे फ़क़र कमावे, काफ़िर मरे दीवाना हूसै वर्हयाँ दी करे इबादत अल्लाह थीं बेगाना हू
सुल्तान बाहू
कलाम
तुम को गर ख़ुद से जुदा समझूँ तो मैं काफ़िर हूँमैं अगर ग़ैर-ए-ख़ुदा समझूँ तो मैं काफ़िर हूँ
अज्ञात
कलाम
काफ़िर-ए-’इश्क़ हूँ मैं बंदा-ए-इस्लाम नहींबुत-परस्ती के सिवा और मुझे काम नहीं
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
कलाम
क्या कहें मिल्लत-ओ-दीं कुफ़्र है ईमाँ अपनापेश-ए-बुत-ए-सज्दा है और दैर है ऐवाँ अपना
तसद्दुक़ अ’ली असद
कलाम
उस बुत-ए-काफ़िर के दर पे अब तो जाना ही पड़ाहो गया है बस ख़फ़ा मुझ को मनाना ही पड़ा
नियाज़ वज़िरबादी
कलाम
बीत गया हंगाम-ए-क़यामत रोज़-ए-क़यामत आज भी हैतर्क-ए-तअल्लुक़ काम न आया उन से मोहब्बत आज भी है