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सुनो ऐ मोमिनों रमज़ान 'अज़्मत का महीना हैयक़ीनन ख़ैर-ओ-बरकत और रहमत का महीना है
गेसुओं को चेहरे पर आप ने बिखेरा हैबादलों के साए में चाँद का बसेरा है
भुलाता लाख हूँ लेकिन बराबर याद आते हैंइलाही तर्क-ए-उल्फ़त पर वो क्यूँ कर याद आते हैं
रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमामदहका हुआ है आतिश-ए-गुल से चमन तमाम
चुपके चुपके रात-दिन आँसू बहाना याद हैहम को अब तक आशिक़ी का वो ज़मानः याद है
निगाह-ए-यार जिसे आश्ना-ए-राज़ करेवो अपनी ख़ूबी-ए-क़िस्मत पे क्यूँ न नाज़ करे
बला-कशान-ए-ग़म-ए-इंतिज़ार हम भी हैंख़राब-ए-गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार हम भी हैं
कैसे छुपाऊँ राज़-ए-ग़म दीदा-ए-तर को क्या करूँदिल की तपिश को क्या करूँ सोज़-ए-जिगर को क्या करूँ
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