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उस तरफ़ गया वाइ'ज़ शैख़ इस तरफ़ आयाबन गया हक़ीक़त में शाख़ का इमाला शैख़
शाख़ पर ख़ून-ए-गुल रवाँ है वहीशोख़ी-ए-रंग-ए-गुल्सिताँ है वही
हर शाख़ हर शजर से न था बिजलियों को लागहर शाख़ हर शजर पे मिरा आशियाँ न था
गो हमारा है आश्ना रे सजनतू न कर इस क़दर जफ़ा रे सजन
बरगद की इक शाख़ हटा करजाने किस को झाँका चाँद
छुपा नहीं जा-ब-जा हाज़िर है प्याराकहाँ दो-चश्म जो मारें नज़ारा
फिर सबा साया-ए-शाख़-ए-गुल के तलेकोई क़िस्सा सुनाती रही रात भर
शाख़-ए-शमशाद पे क़ुमरी से कहो छेड़े मलारनौनिहालान-ए-गुलिस्ताँ को सुनाए ये ग़ज़ल
शैख़-जी तशरीफ़ यूँ बहर-ए-ज़ियारत ले चलेलब पे तौब: उन बुतों की दिल में उल्फ़त ले चले
मिलेगी शैख़ को जन्नत हमें दोज़ख़ 'अता होगाबस इतनी बात है जिस के लिए महशर बपा होगा
बे-वफ़ा से दिल लगा कर रो पड़ेदिल पे एक चोट खा कर रो पड़े
शैख़-जी बैठ कर मय-कशों में तर्क-ए-मय का इरादा न करनाकुफ़्र है ऐसी ने'मत को पाकर शुक्र का एक सज्दा न करना
किसी शोख़ की जब नज़र हो गईख़ुदी से ख़ुदी बे-ख़बर हो गई
जो हम उजड़े हुओं पर मेहरबाँ हो चर्ख़ ऐ गुलचींबजाए बर्ग पैदा हों नशेमन शाख़-सारों में
सुनते हैं कि महशर में फिर जल्वा-गरी होगीक्या शाख़-ए-तमन्ना फिर इक बार हरी होगी
मैं ना'रा-ए-मस्ताना मैं शोख़ी-ए-रिंदानःमैं तिश्ना कहाँ जाऊँ पी कर भी कहाँ जाना
फूलों का क़ाफ़िला है कि उतरी है ये बरातहर शाख़-ए-गुल है पाँव उ'रूस-ए-बहार का
उड़ गया तो शाख़ का सारा बदन जलने लगाधूप रख ली थी परिंदे ने परों के दरमियाँ
हम उस को ही समझेंगे शाख़-ए-शजर-ए-उल्फ़तजो आब से सूखेगी आतिश से हरी होगी
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