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Sufinama

SUFISM

 

सूफ़ी-संतों का पूरा इतिहास रंगों का सफ़र-नामा है। यह रंग जो आगे चलकर ख़ुद रंगरेज़ बन गया। प्रेम और भाईचारे का संदेश देते ये सूफ़ी दुनियाँ भर में जहाँ भी गये,उस क्षेत्र की संस्कृति को उन्होंने न सिर्फ़ नए रंग दिए बल्कि उसमें प्रेम और सहिष्णुता के ख़ूबसूरत बेल-बूटे भी लगाए।

सूफ़ी शब्द सूफ़-ई प्रत्यय के संयोग से बना है।सूफ़ का अर्थ ‘ऊन’ है अर्थात सूफ़ी शब्द से तात्पर्य ‘ऊन’ धारण करने वाला है।संतों की राय में सूफ़ी वह है जो अपने अंतःकरण में ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य का विचार न आने दे और अपनी ख़ातिर (तबीअ'त) को आलाइश-ए-संसार(सांसारिक गंदगी) से पवित्र रखे।

सूफ़ी शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में और भी कई मान्यताएँ प्रचलित हैं।एक मत के अनुसार सूफ़ी शब्द ‘सफ़’ से निकला है।फ़िरोज़-उल-लुग़ात के अनुसार सफ़ का अर्थ है क़तार,सिलसिला,बोरिया,नमाज़ियों की क़तार।अर्थात अपने आचरण और हृदय दोनों को पवित्र रखने के कारण जो लोग क़यामत के बा’द रोज़-ए-हश्र अल्लाह के सामने पहली क़तार में होंगे वो सूफ़ी हैं।

दूसरे मतानुसार सूफ़ी शब्द की व्युत्पत्ति ‘सफ़ा’ शब्द से निस्पन्न है।शैख़ फ़रीदुद्दीन अ’त्तार ने अपनी प्रसिद्ध किताब तज़किरात-उल-औलिया में सूफ़ी मत की सत्तर परिभाषाएँ दी हैं जिनमें तेरह में सफ़ा शब्द मिलता है।सफ़ा शब्द का अर्थ है-पाकिज़ा,खरा,निर्मल।अल-कुशैरी और हज़रत दाता गंज-बख़्श ने भी ज़ाहिरी और बातिनी जीवन की पवित्रता को सूफ़ी माना है। तीसरे मतानुसार सूफ़ी शब्द की व्युत्पत्ति ‘सुफ़्फ़:’ शब्द से मानी गई है।फ़िरोज़-उल-लुग़ात में सुफ़्फ़: शब्द का अर्थ चबूतरा,दरवाज़े के बाहर की जगह दिया गया है।इस मतानुसार हज़रत मुहम्मबद (PBUH) द्वारा ता’मीर की गई मदीना की मस्जिद के सामने एक चबूतरा था जिसे सुफ़्फ़: कहते थे।इस पर बैठने वाले कुछ लोग हमेशा ईश्वर की आराधना में लीन रहते थे।ये लोग अपना पूरा ध्यान नफ़्स-कुशी पर केंद्रित करते थे और संसार से विरक्त जीवन व्यतीत करते थे। इन्हें अहल-ए-सुफ़्फ़: कहा जाता था और यही आगे चलकर सूफ़ी कहलाए।

अन्य मतों के अनुसार सूफ़ी शब्द की व्यत्पत्ति सूफ़ा,सोफ़,सफ़्वतुल्लाह आदि शब्दों से भी मानी जाती है।

सूफ़ी शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में जितने भी मत हैं वह सभी किसी न किसी सत्यता के एक अंश को प्रकट करते हैं।प्रत्येक व्युत्पत्तिपरक शब्द एक नये अर्थ एवं भाव को प्रकाशित करता है।

सूफ़ी शब्द का प्रयोग कुरआन में नहीं हुआ है।इसकी जगह अन्य नाम आए हैं जिससे कम-ओ-बेश वही अर्थ प्रकट होते हैं। इनमें कुछ नाम हैं जैसे मुक़र्रिबीन, साबिरीन,मुख़लिसीन,आ’बिदीन एवं मुशाहिदीन इत्यादि।मुक़र्रिब शब्द का उल्लेख करते हुए कहा गया है-

‘उलाइकल-मुक़र्रिबून’ अर्थात ये लोग ही ईश्वर के क़रीब हैं।

साबिरीन शब्द का अर्थ है सब्र करने वाला।एक अन्य वृतांत में कहा गया है ‘वल्लाहु युहिब्बुस-साबिरीन’ अर्थात अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है।

हज़रत शैख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी के अनुसार सूफ़ी तीन प्रकार के होते हैं-

1. सूफ़ी- सूफ़ी वह है जो स्वयं को नष्ट करके ख़ुदा के साथ बाक़ी रहे और अपनी इच्छाओं का परित्याग करके हक़ में मिल जाये।

2. मुतसव्वफ़ - जो अपनी साधना और सरलता के द्वारा हम-मक़ाम की चेष्टा करें और अपने लक्ष्य पर दृढ़ हों।

3. मुतसव्विफ़ -जो दुनियावी ऐ’श-ओ-आराम के लिये सूफ़ी होने का ढोंग करे।

हज़रत हसरी के अनुसार सूफ़ी वह है जो मृत्यु के अनुसार जीवन की लालसा नहीं करता और उपस्थित होने के पश्चात मृत्यु की इच्छा नहीं करता अर्थात जो कुछ वह हासिल करता है उसे किसी भी स्थिति में नष्ट नहीं करता और जो नष्ट हो जाए उसे किसी भी स्थिति में पाने की लालसा नहीं करता।

तसव्वुफ़ की एक अन्य परिभाषा के अनुसार जो कुछ मस्तिष्क में हो उसे निकाल देना,जो अपने हाथ में हो,उसे दान कर देना,और जो अपने ऊपर घटित हो उससे पीछे न हटना ही तसव्वुफ़ है।

सूफ़ी का आमंत्रण अनोखा होता है।सूफ़ी कहता है आओ और देखो!वह यह नहीं कहता कि आओ और समझो! इसके लिए उसे बाह्य उपकरण की आवश्यकता नहीं होती।इसका आनंद केवल हृदय ही उठा सकता है।सूफ़ी के अनुभव व्यक्तिगत होते हैं।वह दूसरों द्वारा वर्णित अनुभव पर गर्व नहीं करते न वह किसी चीज़ की लालसा रखते हैं न उन्हें किसी का भय होता है।

सूफ़ी इस सृष्टि में परमात्मा को प्रतिबिम्बित देखता है।उसकी साधना उसी परम सत्ता में फ़ना हो कर बक़ा रहने के लिये होती है।इस मार्ग पर चलने वाला साधक(सालिक)यात्री होता है। मारिफ़त या परम ज्ञान प्राप्त करने के लिए वह तरीक़ के मार्ग पर अग्रसर हो कर कुछ मक़ामात को पार करके अपना लक्ष्य (फ़ना-फ़िल-हक़ीक़त)प्राप्त करता है और परम सत्ता में अपने अस्तित्व को लीन कर देता है।सूफ़ी साधना में गुरू का स्थान सर्वोपरि होता है।हज़रत अबू-यज़ीद के अनुसार-जिसका कोई गुरू नहीं होता,उसका गुरू शैतान होता है।सूफ़ी साधना में गुरू का इतना महत्तव है कि गुरू के बिना सूफ़ी साधना की कल्पना नहीं की जा सकती।सांसारिक प्रलोभनों से बचाए रखने में गुरू उसका सहायक होता है और सूफ़ी मार्ग की एक मंज़िल से दूसरी मंज़िल तक पहुँचने में उसकी निगरानी करता है।

मुरीदों के भी दो रूप बताये गये हैं-

1. रस्मी - रस्मी मुरीद वह है जिसे पीर इस प्रकार शिक्षित करे कि देखी हुई व्स्तु को अनदेखी और सुनी हुई को अनसुनी समझे।

2. हक़ीक़ी-  हक़ीक़ी मुरीद वह है जिसे पीर शिक्षा देकर कहे कि तुम मेरे सफ़र और एक स्थान पर ठहरने में मेरे साथ रहोगे।

प्रांरभिक युग में सूफ़ी समाज में प्रायः एक निश्चित स्थान पर नहीं रहते थे। उनका विचार था कि संसार से विरक्त रह कर उपासना करने से ही सांसारिक दुखों से छुटकारा प्राप्त हो सकता है।

आगे चल कर सांसरिक जीवन से हट कर एक अलग रियाज़तगाह की आवश्यकता ने जन्म लिया।धीरे धीरे रियाज़तगाहों की बुनियाद पड़ी।इन्ही मढों को वर्तमान रूप में ‘ख़ानक़ाह’ का नाम दिया गया। सूफ़ी जहाँ सम्मिलित हो कर अपनी साधना करते थे उस स्थान को रबात,ख़ानक़ाह,ज़ाविया,दायरा आदि विभिन्न नामों से पुकारा जाता है।इनकी व्यवस्था और संरचना में न्यूनाधिक अंतर होता था।ख़ानक़ाह में अलग-अलग हुजरे(कोठरी) होते थे जबकि जमाअ’त-ख़ाना में लोग एक बड़े कमरे में एक जगह रहते थे और साधना करते थे। चिश्तिया सिलसिले में जमाअ’त-ख़ाने का प्रचलन था जबकि सुहरावर्दिया सिलसिले में ख़ानक़ाहों का प्रचलन था।धीरे-धीरे इस भिन्नता को समाप्त कर दिया गया और सूफ़ियों के साधना स्थल को सामान्य रूप से ख़ानक़ाह ही कहा जाने लगा।आगे चल कर दरगाहों पर भी ख़ानक़ाहों का निर्माण होने लगा।

सूफ़ीमत के विकास-क्रम में प्रसिद्ध सूफ़ियों के मुरीद (शिष्य) बनते गये और उन्होंने भिन्न भिन्न सिलसिलों और उप-संप्रदायों का रूप ले लिया।ये संप्रदाय धीरे-धीरे अन्य देशों में फैल गए।इन संप्रदायों का नामकरण सूफ़ी साधकों के नाम पर हुआ।ईसा की बारहवीं सदी तक इन संप्रदायों का स्वरूप स्पष्ट हो चुका था।

हिंदुस्तान सदियों से सांस्कृतिक चेतना एवं वैचारिक चिंतन की उर्वर भूमि रहा है।कोस-कोस पर बदलती भाषाएँ,पहनावे एवं मौसम इस संस्कृति की विविधता को जाने किस रंग में रंगते हैं कि दिलों में एकता और सद्भाव का रंग और गाढ़ा होता चला जाता है।हिंदुस्तान में सूफ़ियों का आगमन एक ख़ुश्बू की तरह हुआ था।वह ख़ुश्बू जो यहाँ की आब-ओ-हवा और इसकी संस्कृति में ऐसी घुली कि पूरा हिंदुस्तान आज भी इस साझी संस्कृति की ख़ुश्बू से महक रहा है। सुल्ह-ए-कुल औ भाईचारे का संदेश देते ये सूफ़ी हिंदुस्तान में नफ़रत की तलवार नहीं बल्कि प्रेम का सूई धागा लेकर दाख़िल हुए थे।हिंदुस्तान में सूफ़ियों का पूरा इतिहास इसी सूई धोग का इतिहास है।सूफ़ियों ने न सिर्फ़ हिंदुस्तान में गंगा-जमुनी तहज़ीब का पैरहन बनकर तैयार किया बल्कि ख़ुद गुदड़ी धारण करने वाले इन सूफ़ियों ने हिंदुस्तानी संस्कृति के पैराहन में अपने रंग-बिरंगे काव्य के जड़ी-गोटे भी लगाए।

बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब भारत में पहला सूफ़ी सिलसिला ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती द्वारा पहली दफ़अ' स्थापित हुआ वह काल हिंदुस्तान में वीरगाथा कवियों और नाथ सिद्धों का था।रासो -काव्य अपने चरम पर था।जहाँ एक तरफ़ चंदबरदाई जैसे कवि गीतगोविंद जैसे अमर काव्य रच रहे थे।सूफ़ी-संतों के भारत में पर्दापण से पहले ही तसव्वुफ़ आम जन में लोकप्रिय हो चुका था और लोग उन्हें बेहद सम्मान की दृष्टि से देखने लगे थे। हालाँकि तब तक सूफ़ी शाइरी के सारे बड़े नाम अ’रब,फ़ारस,मध्य एशिया और स्पेन से थे। हिंदुस्तान के सूफ़ियों में एक बड़ा नाम हज़रत दाता गंज-बख़्श का था जिनकी दरगाह लाहौर में स्थित है।उनकी कश्फ़-उल-महजूब भारतीय उप-महाद्वीप की पहली किताब मानी जाती है।

हिंदुस्तान में सूफ़ियों के आने का सबसे बड़ा प्रभाव यह पड़ा कि दो अलग-अलग महान संस्कृतियाँ आकर आपस में यूँ घुल-मिल गयीं कि एक साझी संस्कृति का ख़मीर तैयार हो गया,जिससे हमारी मौजूदा गंगा-जमुनी तहज़ीब का निर्माण हुआ।सूफ़ी भारत में फ़ारसी,तुर्की और अ’रबी बोलने आए थे,पंरतु हिंदुस्तान में बसने के पश्चात उन्होंने कई भारतीय भाषाओं में कलाम कहे और ग्रंथों की रचना की।सूफ़ियों ने आपसी सद्भाव और भाईचारे का न सिर्फ़ संदेश दिया बल्कि अपने जीवन की सादगी से भी हज़ारों को प्रभावित किया। हिंदुस्तान में सूफ़ियों के चार प्रमुख सिलसिले फले-फूले चिश्तिया,क़ादरिया, सोहरवर्रिया और नक़्शबंदिया।

हिंदुस्तान की खुली संस्कृति में सूफ़ीवाद ख़ूब फला-फूला।सूफ़ियों ने यहाँ की संस्कृति से कई तत्व ग्राह्य किये और उनहें प्रेम की चाशनी में डुबो कर नए आयाम दिये।सूफ़ियों की एक ऐसी ही देन क़व्वाली है।आज के भारतीय समाज के लिए क़व्वाली तसव्वुफ़ का पर्याय बन गई है।सूफ़ियो ने जहाँ साधना के नए तरीक़े विकसित किए वहीं संगीत को भी ईश्वर से जुड़ाव का एक माध्यम बनाया।

Sanjiv Saraf Founder

   

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

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