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Sufinama

Krishna as a symbol in Sufism

बलराम शुक्ल

Krishna as a symbol in Sufism

बलराम शुक्ल

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    सूफ़ियों की समा में श्याम रंग

    भारत में इस्लाम केवल मुसल्लह ग़ाज़ियों के ज़रिये ही नहीं बल्कि तस्बीह–ब–दस्त सूफ़ियों के करामात से भी दाख़िल हुआ था। सूफ़ी ‘हमा अज़ ऊस्त’(सारा अस्तित्व उसी परमेश्वर से उत्पन्न हुआ है), तथा ‘हमा ऊस्त’(सम्पूर्ण अस्तित्व तथा परमेश्वर में कोई अन्तर नहीं है), की मान्यता के क़ायल रहे हैं। उन्हें तो हर देस में हर भेस में अपना महबूब ही दिखाई पड़ता है। जिस जगह धर्माचार्य पत्थर की मूरत भर देख पाता है वहीं प्रेम रंग में सराबोर सूफ़ी ख़ुदा का दीदार करता है। वे तो जल्लाद से डरते हैं वाइज़ से झगड़ते। वो समझे हुए हैं उसे जिस भेस में वो आये। यही कारण है कि भारत में आने पर यहाँ के हन्दुओं में पूर्व प्रचलित आध्यात्मिक प्रतीकों से उन्हें गुरेज़ नहीं हुआ। अजनबीपन और अपरिचय का डर तो उनको होता है जिनकी साधना कच्ची होती है। ऐसे लोगों का ईमान डावाडोल होता है माबूद (उपास्य) को खो देने का, दीन से ख़ारिज हो जाने का डर उनमें समा जाता है। हज़रत अली का क़ौल है–आदमी जिसको नहीं जानता उससे घृणा करने लगता है, या डरने लगता है (अन्नासु आदाउ मा जहिलू )। डरा हुआ आदमी प्रेम नहीं कर सकता वह तो दूसरों को भी डराता है। श्रीकृष्ण का कथन है कि मेरे प्रिय भक्त वे हैं जो डरते हैं और डराते हैं डरने वालों का महबूब की गली में कोई काम नहीं उनका तो वहाँ प्रवेश ही निषिद्ध है बर दरे माशूक़े मा तर्सन्देगान् रा कार नीस्त

    ईश्वरीय लोगों में यह सामर्थ्य होता है कि वे अहंकार के ज़ाहिरी पर्दे को हटा पाते हैं वे ईमान (मुखड़े) के साथ कुफ़्र (ज़ुल्फ़) को भी महबूब का जुज़्व (हिस्सा) ही समझते हैं क्योंकि उनके नज़दीक ग़ैरे महबूब किसी चीज़ का वजूद ही नहीं होता -ग़ैरे वाहिद हर चे बीनी आन् बुत अस्त उनका हृदय समन्दर की तरह विशाल होता हैँ जिसमें सारी नदियाँ एकमेक हो जाती हैं-बिना किसी पारस्परिक मतभेद के। उनके हृदय में सारी इकाइयां एक में विलीन हो जाती हैं सूफ़ियों की यही सार्वजनीननता उन्हें स्वीकार्य बनाती है।

    सूफ़ी मत का जन्म भले ही अरब में हुआ हो उसे सर्वाधिक अनुकूल वातावरण भारतवर्ष में प्राप्त हुआ। इसका कारण यह था कि भारतवर्ष में ऐसे अनेक सम्प्रदाय पहले से विद्यमान थे जिनमें सूफ़ियों जैसी मान्यतायें विद्यमान थीं। रिज़वी (२०१४: भूमिका१) के अनुसार

    प्राचीनकाल से ही भारतवर्ष में ऐसे संत होते आये हैं जो अपनी अमृतमयी

    वाणी के द्वारा सद्भावों तथा सद्विचारों के प्रचारक रहे हैं। इस वातावरण में

    इस्लामी तसव्वुफ़ अथवा सूफ़ीमत का रंगरूप और भी उज्ज्वल हो गया और

    सूफ़ियों ने मानव कल्याण के क्षेत्र में विशेष योग दिया।

    इसके अतिरिक्त सूफ़ियों के हमा–ऊस्त (अर्थात्, सब कुछ परमेश्वर है।) का सिद्धान्त पारम्परिक इस्लाम की अपेक्षा भारतीय दर्शन के अद्वैतवाद के साथ अधिक समान था साथ आने पर दोनों सिद्धान्तों ने एक दूसरे को प्रभावित किया तथा दोनों एक दूसरे से पुष्ट हुए। इस प्रकार का पारस्परिक आदान प्रदान जीवन्त संस्कृतियों का अभिलक्षण होता है। भारतीय सूफ़ी काव्य ने संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश की साहित्य परम्पराओं से कविता की संरचना तो ली ही उन्होंने अपने सिद्धान्तों को भारतीय परिप्रेक्ष्य में बयान करने तथा लोगों को समझाने के लिए भी भारत में युगों से प्रचलित सांस्कृतिक प्रतीकों का भरपूर उपयोग किया

    सूफ़ी काव्यों में अपने प्रारम्भिक समय से ही अनेक प्रतीकों का प्रयोग शुरू हो गया था। इस प्रसंग में इस विषय पर विचार रोचक होगा कि रहस्यवादी काव्य में प्रतीक की आवश्यकता क्यों पड़ती है। वस्तुतः प्रतीक की आवश्यकता तब होती है जब हमारा वर्णनीय तत्त्व निर्गुण तथा सूक्ष्म हो। निर्गुण तत्त्व मानस की गति से परे है। उसकी उपासना सम्भव नहीं। परन्तु उपास्य की उपासना के बिना साधक की गति भी नहीं है। क्योंकि उसे जाने बिना संसार चक्र से छुटकारा नहीं मिलने वाला है। इस समस्या के समाधान के लिये विभिन्न सिद्धान्तियों ने अलग अलग मार्ग निकाले हैं। सूफियों की निर्गुण धारा ज्ञानमार्गियों की तरह नितान्त निर्गुण नहीं है। वहाँ परमेश्वर सगुण और निराकार है। ऐसे निराकार तत्त्व में स्थित गुणों के दिग्दर्शन के लिये सूफ़ियों को अपने प्रारम्भिक काल से ही भिन्न भिन्न प्रतीकों की कल्पना करनी पड़ी। फारसी तथा उससे प्रभावित उर्दू आदि काव्यों में हम एक प्रकार की सरस द्विकोटिकता का अनुभव करते हैं, इसका कारण उपर्युक्त प्रतीक प्रयोग ही है। इन काव्यों का अध्ययन करते हुए हम अनुभव करते हैं कि चर्चा ऐहलौकिक प्रियतम की हो रही है लेकिन अर्थ निराकार परमेश्वर में भी पर्यवसित हो रहा होता है। शृङ्गार रस तथा भक्ति–भाव का ऐसा मिला–जुला स्वरूप भारतीय साहित्य में मूलतः नहीं रहा। संस्कृत की कविता में शायद ही कोई ऐसा उदाहरण हो जिसमें नायिका की चर्चा करते हुए परमतत्त्व की बात की जा रही हो। इस स्पष्ट विभाजन का कारण है कि भारतीय धर्म ने परमेश्वर को स्वयं देहधारी स्वीकार कर लिया था अतः वह इन्द्रियों के द्वारा संवेद्य हो गया। उसके लिए किसी अन्य प्रतीक की आवश्यकता नहीं पड़ी

    प्रतीकों का उपयोग करके कवि निम्नलिखित लाभों को ग्रहण कर पाता है

    १. सूक्ष्म भावों को स्थूल रूप में प्रस्तुत कर पाना।

    २. अपरिचित वस्तु का किसी परिचित आधार पर परिचय देना।

    ३. अप्रस्तुत के वर्णन से प्रस्तुत के विषय में जिज्ञासा पैदा करना।

    ४. विषय वस्तु का ध्वनन।

    ५. दो विषयों का प्रतिपादन एक साथ करना।

    सूफ़ियों ने अलौकिक परमात्म–वस्तु का वर्णन करने के लिए लौकिक प्रतीकों का उपयोग किया है इसका कारण है भारतीय वैष्णव सन्तों की भाँति उनकी जगत् को देखने की अपूर्व दृष्टि। हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने इस प्रवृत्ति को वैष्णवों के चिन्मुखीकरण के समकक्ष रखा है (रिज़वी २०१४: प्राक्कथन ५–६)–

    …जगत् के समस्त क्रियाकलाप का चिन्मुखीकरण ही वैष्णव साधकों का

    और सूफ़ी साधकों का भी, प्रधान लक्ष्य है। संसार के जितने भी सम्बन्ध हैं

    वे सभी जडोन्मुख होकर यदि चिन्मुख हो जायँ तो मनुष्य के सर्वोत्तम

    पुरुषार्थ के साधक हो जाते हैं ।…..जो साधारण जगत् का जडविषयक राग

    वह चिन्मुख होकर श्लाघ्य हो जाता है। इसी बात को बताने के लिए लौकिक

    प्रतीकों की आध्यात्मिक व्याख्या की जाती है।

    इस्लाम के आने से पहले ही भारत में श्रीकृष्ण की रसराज के रूप में प्रतिष्ठा हो चुकी थी श्रीमद्भागवत के व्रजेन्द्रनन्दन कान्हा महाभारत के पराक्रमशील वीरवर श्रीकृष्ण की अपेक्षा हृदय के अधिक निकट लगते थे। लोक परम्परा में गोपियों से उनकी प्रेमगाथायें सर्वत्र व्याप्त थीं। रसीले लोकगीतों में उनके अतिरिक्त कोई और नायक हो भी नहीं सकता था। श्रीकृष्ण की प्रेम लीला के आध्यात्मिक अर्थ निकालने की परम्परा प्रारम्भ से ही वैष्णव सम्प्रदायों में विद्यमान थी। स्वयं श्रीमद्भागवत के अनुसार कृष्ण ने गोपियों के साथ ऐसे रमण किया जैसे कि कोई बच्चा अपने ही प्रतिबिम्ब के साथ खलने लगे–

    रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभिर्यथार्भकः स्वप्रतिबिम्बविभ्रमः। (श्रीमद्भागवतम् १०–३३–१६)

    इस स्थिति में यह असम्भव था कि कृष्ण भारतीय सूफ़ी कवियों के लिए प्रतीक के रूप में उपयुक्त नहीं होते। सूफ़ी काव्य में श्रीकृष्ण की उपस्थिति की चर्चा हम सबसे पहले ख़ुदावन्दगार मौलाना जलालुद्दीन रूमी तथा उनके माशूक और मुर्शिद शम्सुद्दीन तबरेज़ी से शुरू करते हैं। मौलाना के भारत के साथ परिचय के सबसे प्रमुख साधन बने थे उनके गुरु एवं परम प्रेमास्पद–शम्सुद्दीन तबरीज़ी। अनेक विद्वानों का मानना है कि शम्स का सम्बन्ध भारत से था दौलतशाह, जो कि मौलाना के प्राचीन जीवनी लेखक हैं, उनके अनुसार शम्स के पिता नौ–मुसलमान (अर्थात् धर्मपरिवर्तक) थे तथा उनका नाम खोविन्द जलालुद्दीन था। Dr. Rasih Guven ने अपने लेख Maulana Jalal ul Din and ShamsTabrizi ने प्रबल सम्भावना जताई है कि उनका नाम गोविन्द रहा होगा जो एक भारतीय नाम है। उनके पूर्वज भारत से तबरीज़ व्यापार किया करते थे तथा कालान्तर मे मुसलमान हो गये थे। स्वयं मौलाना शम्स (अर्थात् सूर्य) का सम्बन्ध पूर्व से जोड़कर अनेक बार काव्यात्मक चमत्कार उत्पन्न करते हैं इससे भी यह पता चलता है कि शम्स मूलतः तबरीज के नहीं थे क्योंकि तबरीज ईरान के पश्चिम में है पूरब में नहीं मौलाना भारतीय कहानियों तथा दर्शनों से बहुत अधिक परिचित लगते हैं। उन्होंने पंचतन्त्र की अनेक नीतिकथाओं का आध्यात्मिकीकरण अपनी मसनवी में दर्शाया है सैयद अमीर हसन आबिदी ने अपने लेख में मौलाना की जन्मभूमि बल्ख़ में हिन्दू तथा बौद्ध सभ्यताओं के अवशेषों से उनके प्रभावित होने को अच्छी तरह से इंगित किया है। रूमी अगर अपनी मसनवी की शुरूआत बिना हम्द या नात या मनक़िबत के सीधे बंसुरी के बयान–नैनामा–के साथ शुरू कर रहे हैं, तो उस समय उनके मन में कहीं कहीं श्रीकृष्ण की बाँसुरी है

    बिश्नव अज़ नै चून् हिकायत मी कुनद व,ज़ जुदाई–हा शिकायत मी कुनद आदि।

    पारम्परिक व्याख्या में बाँसुरी आदमी के गले की प्रतीक है। वह उसके जीवात्मा की आवाज़ है जिसके खाली छिद्रों के शुरुआती सिरे पर परमात्मा के होंठ हैं। उसी की फूँकी गयी वायु से बाँसुरी गुंजायमान है। ध्यातव्य है कि सूफ़ियों ने ईश्वर की साधना के रूप में संगीत–नृत्य आदि ललित कलाओं का उपयोग किया। ललित कलाओं की विशेषता है कि वे हमारे चित्त की रागात्मक वृत्तियों को उभारती हैं। द्रवित चित्त में कभी उत्तेजनात्मक वृत्तियाँ नहीं सकती। किसी के प्रति भी कठोर होने के लिये हमें पहले अपने को कठोर बनाना पड़ता है। इस प्रकार गीत संगीत चित्त को ईश्वराराधन के योग्य बनाता है। वैष्णवों के यहाँ संगीत प्रारम्भ से ही ईश्वराराधन के साधन के तौर पर मान्य है। संगीत की निस्बत से भी श्रीकृष्ण का सूफ़ियों के प्रतीक के रूप में उपस्थित होना स्वाभाविक हो जाता है।

    सूफ़ियों को भी कृष्ण कथा के आध्यात्मिक अर्थ से ही स्वाभाविक रूप से अधिक रुचि थी। श्रीकृष्ण तथा राधा की प्रेम कथायें सूफियों को भी अलौकिक रहस्यों से परिपूर्ण ज्ञात होती थीं। इनके लीला से सम्बन्धित पद तत्कालीन जनता के मानस में बसे हुए थे जिनका प्रयोग करके सूफ़ी सामान्य जनता के निकट हो सकते थे तथा अपने सन्देश को प्रसारित कर सकते थे। उन्होंने इन कविताओं का प्रयोग अपनी आध्यात्मिक महफिलों में शुरू किया। इन कविताओं का समा में गाया जाना मुल्लाओं को अच्छा नहीं लगता रहा होगा। शुद्धतावादियों की इस प्रकार की असहमति को हक़ायक़े हिन्दी में बिलग्रामी ने पूर्वपक्ष के रूप में उठाया है–

    यदि कोई कहे कि अपवित्र काफ़िरों का नाम आनन्द लेकर सुनना एवं शरअ के विरुद्ध

    साहित्य पर आवेश में आकर नृत्य करने लगना कहाँ से उचित हो गया तो हम कहेंगे

    उमर बिन ख़त्ताब से लोगों ने सुनकर यह बात कही कि (क्या) क़ुरान में शत्रुओं का

    उल्लेख तथा काफ़िरों के प्रति सम्बोधन नहीं है?

    सूफ़ी साधना के इसी प्रकार के भारतीयकरण का एक प्रसंग बिलग्रामी से भी पहले शैख नूर क़ुत्बे आलम ( मृत्यु १४१५) के ख़ानक़ाह से सम्बद्ध भी लिखित मिलता है इन्हीं कारणों से लोक में प्रचलित श्रीकृष्ण परक पदों को अपने साधना हेतु स्वीकार करने के साथ सूफ़ियों ने इनमें प्रयुक्त प्रतीकों की अपने सम्प्रदायों के अनुरूप विभिन्न आध्यात्मिक (=मजाज़ी) व्याख्यायें प्रस्तुत कीं। अकबर के समय लिखी अपनी पुस्तक हक़ायक़े हिन्दी में मीर अब्दुल वाहिद बिल्गिरामी (जन्म १५०९ ई॰ ) ने कृष्ण सम्बन्धी प्रतीकों से सूफ़ियों द्वारा लिये जाने वाले अर्थों के भिन्न भिन्न आयामों का विस्तार से वर्णन किया है। वस्तुतः इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक में लेखक ने “हिन्दी ध्रुपद और विष्णुपद गानों में लौकिक शृंगार के वर्ण्य विषयों को आध्यात्मिक रूप में समझने की कुंजी दी है” इस पुस्तक से सूफी साधकों की उस उदार दृष्टि का पता चलता है जिससे उन्होंने हिन्दू और मुसलमान धर्म की एकता को खोज निकाला था। बिलग्रामी ने क़ुर्आन और हदीस से प्रमाण देकर अपने आध्यामिक संकेतों की प्रामाणिकता सिद्ध की है। इससे उनकी गम्भीर निष्ठा अद्भुत भक्ति और नितान्त उदार दृष्टि का सन्धान मिलता है। उन्होंने केवल शब्दों के आध्यात्मिक संकेत बताकर ही विश्राम नहीं लिया बल्कि इन शब्दों का आश्रय करके जो विचार बन सकते हैं और बनते हैं उनको भी समझाने का प्रयत्न किया है

    बिलग्रामी के अनुसार–

    “यदि हिन्दवी वाक्यों में कृष्ण अथवा उनके अन्य नामों का उल्लेख हो तो उससे रिसालत पनाह सल्लम (मुहम्मद साहब ) की ओर संकेत होता है। और कभी इसका तात्पर्य केवल मनुष्य से होता है। कभी इससे मनुष्य की वह वास्तविकता समझी जाती है जो परमेश्वर के ज़ात की वहदत से सम्बन्धित होती है। कभी इबलीस से भी तात्पर्य होता है। कभी उन अर्थों की ओर संकेत होता है जिनका अभिप्राय बुत, तर्साबचा, तथा मुग़बचा से होता है”

    (मूल फ़ारसी) गर दर कलिमाते हिन्दवी ज़िक्रे किशन या आन् चे असामी ऊस्त वाक़ेअ शवद किनायत कुनन्द अज़ जनाबे रिसालत पनाह सल्ल,ल्लाहु अलैहि सल्लम गाह बर इंसानो गाह बर हक़ीक़ते ब–ऐतिबारे अह्दिय्यते ज़ात गाह बर इब्लीसो गाह हम्ल कुनन्द बर आन् मा,नी कि अज़् बुतो तर्साबचे मुग़बचे इरादत मी कुनन्द।

    श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व अकेला नहीं अपितु उनके साथ उनके पार्षद, उनका पूरा परिवार तथा उनकी लीलाएँ हैं बिलग्रामी ने हक़ायक़े हिन्दी नामक अपने ग्रन्थ के विष्णुपद नामक विभाग में आने वाले नामों की व्याख्या के सन्दर्भ में लगभग उन सभी आनुषङ्गिक नामों के सूफ़ियाना गूढार्थ बताये हैं। उदाहरण के लिये– गोपी या गूजरी का तसव्वुफ़ में तात्पर्य हो सकते हैं–१. फ़रिश्ता, २. मनुष्य जाति की वास्तविकता। कुबरी अथवा कुब्जा का अर्थ है दोषों और त्रुटियों से युक्त मनुष्य। ऊधो (उद्धव) का तसव्वुफ़ में तात्पर्य हो सकते हैं–१.मुहम्मद साहब, २. जिबरील, ३. ईमानदार ज़ामिन ब्रज अथवा गोकुल शब्दों से १. आलमे नासूत, २. मलकूत या ३. जबरूत ग्रहण किया का सकता है। गंगा या जमुना का अर्थ होता है– वहदत की नदी जो मारिफ़त के समुद्र की ओर बहती हैं। इनका अर्थ हुदूस और इमकान की नहर भी होता है, क्योंकि जन्म लेने वाली वस्तुएँ लहरों एवं नहरों की तरह होती हैं। मुरली अथवा बाँसुरी का तात्पर्य अदम से वुजूद का नमूदार होना होता है। हिन्दवी जुम्लों में अगर कंस का उल्लेख आता हो तो सूफ़ी उससे १. नफ़्स, २. शैतान ३. ख़ुदा के क़हर और जलाल वाले नाम ४. पिछले पैगम्बरों की शरीअत, आदि अर्थ प्रसंगानुसार लेते हैं। सर्प से उनका तात्पर्य नफ़्से अम्मारा से होता है। वृन्दावन, मधुपुरी, मधुवन आदि से सूफ़ी ईमन की वादी का मतलब निकालते हैं। मथुरा का तात्पर्य सूफ़ियों की अस्थायी मक़ाम है। नन्द से मुराद पैग़म्बर मुहम्मद तथा यशोदा ईश्वर की कृपा का द्योतक है हक़ायक़े हिन्दी में केवल व्यक्ति अथवा स्थानवाचक शब्दों का ही नहीं अपितु कृष्ण लीला के गीतों में आये विभिन्न अभिव्यक्तियों का आध्यात्मिक अर्थ भी बताया गया है। अनेक स्थानों पर कृष्ण आदि उत्तम पात्रों के इब्लीस आदि अर्थ लेने के कारण यह बिलकुल नहीं लगता कि इन प्रतीकात्मक अर्थों को लेने के पीछे उनकी उन पात्रों के प्रति कोई श्रद्धा बुद्धि है। उनका एकमात्र उद्देश्य यह है कि इन शब्दों की व्याख्या इस तरह से की जाये कि वे सूफ़ी सिद्धान्तों के वाचक हो जायें तथा उनका व्यक्तिगत भाव मिट जाये। उदाहरण के लिये कृष्ण द्वारा गोपियों का रास्ता रोकने के प्रसंग को वे इब्लीस द्वारा साधकों के मार्ग में विघ्न डालना अर्थ लेकर कृष्ण का तात्पर्य शैतान से लेना बताते हैं। जबकि इसका और अधिक सूफी सम्मत अर्थ यह हो सकता था पीरे कामिल प्रारम्भिक साधना पूरी हो जाने के बाद सालिक को ज़ाहिरी शरीअत के रास्ते से रोकता है। इन प्रकार के प्रसंगों से लगता है कि मीर अब्दुल वाहिद बिलग्रामी का प्राथमिक उद्देश्य केवल यह था कि हिन्दवी गीतों का सूफी सम्मत अर्थ लगाकर उन्हें स्वीकार्य बनाया जाय और उनका साधनात्मक लाभ लिया जाये।

    सूफ़ियों के ग्रन्थों में इस बात के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं कि अपनी रसमयी साधना के प्रसंग में वे पारम्परिक अरबी तथा ईरानी वस्तुओं की अपेक्षा भारतीय वातावरण के उपादानों में अधिक रम पाते थे। इसका साफ़ कारण, जिसको पहले भी बताया जा चुका है, यह था कि सूफ़ीवाद का यह स्वरूप हिन्दुस्तानी था, इसलिए स्वभावतः उसे यहाँ की वस्तुएँ अधिक हृदयावर्जक लगतीं। एक इसी तरह की घटना का ज़िक्र मुल्ला निज़ामुद्दीन ने किया है

    “एक बार सलोन के शैख़ पीर मुहम्मद (मृत्यु १६८७) की ख़ानकाह में समा

    चल रहा था तथा हिन्दवी गीत गाये जा रहे थे। उपस्थित लोग आनन्दातिरेक

    में मग्न थे। जब सूफ़ियों का नृत्य और वज्द समाप्त हुआ, वे उठे और बहुत सुन्दर

    कण्ठ से क़ुर्आन की आयत पढ़ी, लेकिन इसका उपस्थित लोगों पर कोई प्रभाव

    नहीं हुआ–न तो नृत्य ही वज्द। इसे देखकर शेख़ मुहम्मदी ने कहा– कितने

    आश्चर्य की बात है कि क़ुर्आन सुनने के बावजूद कोई उत्तेजित नहीं हुआ जबकि

    हिन्दवी कलाम जिनमें क़ुर्आन के विरुद्ध बाते हैं, सुनकर तुम उत्तेजित हो गये।

    इसे सुनकर सैयद अब्दुर्रज़्ज़ाक़ प्रसन्न हुए तथा उन्होंने शैख़ मुहम्मदी के इस

    आचरण का समर्थन किया ।”

    इस प्रकार की व्याख्यायें सूफ़ियों की उदार दृष्टि से अधिक उनकी जनवादिता तथा प्रचार प्रियता की परिचायक हैं। इस प्रकार की व्याख्या से उनकी जिस मानसिकता का द्योतन होता है, वे हैं–

    (क) कोई भी वस्तु ईश्वर से ख़ाली नहीं है इसलिये प्रत्येक वस्तु अथवा स्थान से ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। मौलाना रूमी का कथन है– मा,शूके तू हमसाया दीवार बे दीवार।

    अथवा हाफ़िज़- वीन् अजब बीन् कि चे नूरी ज़ कुजा मी बीनम

    (ख) कोई भी व्यक्ति ईश्वर की प्राप्ति की योग्यता से रहित नहीं है–

    आन् हीच सरी नीस्त कि सिर्री ज़ि ख़ुदा नीस्त (हाफ़िज़)

    (ग) सारे शब्दों तथा सारी पुस्तकों का तात्पर्य ईश्वर है, अतः सारी बातों की व्याख्या उसके पक्ष में की जा सकती है

    बिलग्रामी ने उद्धृत किया है–जिसकी रूह तजल्ला में रहती है उसके लिये समस्त संसार ईश्वर की पुस्तक है। तथा ज़ाहिर और बातिन सभी वस्तुओं को हस्ती समझ ले। और सभी वस्तुओं को क़ुरान और उसकी आयतें समझ ले।

    इस प्रकार सूफ़ियों ने भारत की सांकृतिक धरोहर का इनकार या उसकी तक्फीर करके उनका सूफीकरण किया तथा उन्हें और समृद्ध ही किया। बाहमी रवादारी, असंघर्ष, अनिराकरण तथा यदृच्छालाभ द्वारा सन्तुष्ट रहकर निरन्तर परमेश्वर के ध्यान में मग्न रहना ही उनकी सबसे बड़ी विशेषता है–

    आशिक़ान् दर दैर रुह्बान् अन्दो दर मस्जिद इमाम

    हर कि बा इश्क़ आशना शुद हीच जा बीकार नीस्त

    (आशिक़ मन्दिर में पुजारी और मस्जिद में इमाम बन जाते हैं। जो भी प्रेम से परिचित हुआ

    वह कहीं भी बेरोज़गार नहीं रहता॥)

    सूफ़ी कवियों में ईरान से ही प्रेम गाथाओं की आध्यात्मिक व्याख्या की रिवायत मौजूद थी। लैला मजनूँ, खुसरौ–शीरीन्, यूसुफ़–ज़ुलैख़ा आदि पौराणिक प्रेम गाथाओं पर विश्वप्रसिद्ध मसनवियाँ लिखी जा चुकी थीं। इसी परम्परा से परिचित सूफ़ियों ने भारत में भी प्रचलित लोकगाथाओं के मजाज़ी स्वरूप का वर्णन करके हक़ीक़ी अर्थों का दिग्दर्शन कराने की चेष्टा की ऐहलौकिक प्रेम हेय नहीं है, बल्कि वह तो उस पुल का पहला सिरा है जिसके आख़िरी सिरे पर पारलौकिक सत्य है–لمجاز قنطرة الحقیقة उत्तर तथा दक्षिण भारत में सूफ़ी प्रेमाख्यान काव्यों की बड़ी समृद्ध परम्परा है। इसे हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने भक्तिकाल की निर्गुण शाखा के प्रेममार्गी सन्तकाव्य के अन्तर्गत रखा है। इसमें प्रमुख कवि हैं उत्तर में मुल्ला दाउद (चन्दायन १३७८–७९) तथा जायसी (१५४०–४२) से लेकर कवि नसीर (प्रेमदर्पण–१९१७–१८) तक, तथा दक्षिण में निज़ामी–(कदमराव पदमराव १४५६ ई॰) से लेकर सिराज औरंगाबादी (बूस्ताने ख़याल १७४९ ई॰) तक इन हिन्दुस्तानी सूफ़ी प्रेमाख्यान गायकों में सबसे प्रसिद्ध जायसी हैं। इन्होंने पद्मावत के अतिरिक्त श्रीकृष्ण को नायक बनाकर एक काव्य कन्हावत की रचना भी की है। जायसी ने कृष्ण की कथा को प्रेम के वर्णन के लिये सर्वोत्कृष्ट कथा मानी है–

    अइस प्रेम कहानी दोसरि जग महँ नाहिं। तुरुकी अरबी फारसी सब देखेउँ अवगाहि॥

    (कन्हावत पृ॰ १२ दोहा १४)

    इसमें ऊपरी तौर पर तो कृष्ण की लोकप्रसिद्ध गाथा का वर्णन है लेकिन साथ ही उन्होंने कई स्थलों पर कृष्ण कथा के सूफ़ी मतानुसार आध्यात्मिक अर्थों की ओर भी संकेत किया है–

    परगट भेस गोपाल गोबिन्दू। गुपुत गियान तुरुक हिन्दू॥ (कन्हावत)

    कन्हावत के अतिरिक्त अपनी दूसरी कृति पद्मावत में भी जायसी ने कृष्ण के ऐतिहासिक प्रतीक का बार बार उपयोग किया है–

    ले कान्हहिँ अकरूर अलोपी कठिन बियोग जियहिँ किमि गोपी॥ (पद्मावत)

    श्रीकृष्ण के प्रतीकों का सुन्दर उपयोग हमें काकोरी के क़लन्दरिया ख़ानक़ाह के संस्थापक हज़रत तुराब काकोरवी (मृत्यु १८०६) के हिन्दवी काव्यों में मिलता है। जब वे श्रीकृष्ण को अपने पीर या महबूब की शक्ल में पेश कर पाते हैं तो इसमें उनका वही विशाल हृदय और मज़बूत ईमान दीख पड़ता है जहाँ ज़ाहिद को कुफ़्र दीखता है वहीं शाहिद अपना महबूब ढूँढ लेता है।श्रीकृष्ण तथा उनसे सम्बद्ध प्रतीकों का प्रयोग उनके काव्य में कृष्णमार्गी वैष्णव कवियों की तरह ही है और यह महत्त्वपूर्ण विशेषता उन्हें सभी निर्गुण सन्त कवियों, चाहे वे प्रेममार्गी हों या ज्ञानमार्गी, से पृथक् करती है।

    हज़रत तुराब काकोरवी फ़ारसी, अरबी आदि भाषाओं में सिद्धहस्त थे तथा इन सबकी काव्य परम्पराओं से सुपरिचित। उनके कलाम फ़ारसी भाषा में भी उपलब्ध होते हैं परन्तु उर्दू कवियों के विपरीत अपनी हिन्दी कविता में उन्होंने फ़ारसी जगत् के काव्य प्रतीकों या रूढियों गुलो–बुलबुल, शीरीं–फरहाद आदि का प्रयोग नहीं किया है उनके यहाँ तो बसन्त है, होरी है, वर्षा है, हिंडोला है, कोयल है, पपिहे की पियु पियु है, दादुर (मेढक) का शोर है और हिन्दुस्तान की अपनी विशेषता रिश्तों की अहमियत ननद तोरा बिरना, नन्द के लाला, जसमत के लंगरवा ये सभी प्रचुर मात्रा में हैं इससे उनका काव्य ठेठ हिन्दुस्तानी सौंधी गन्ध से सुवासित हो गया है और इसी में तुराब की तुराबिय्यत है इसी क्रम में दिव्य अथवा लौकिक प्रेम को व्यञ्जित करने के लिये उनके उपमान लैला मजनूँ, शीरीं फ़रहाद आदि नहीं बल्कि भारतीय रसिक जनों के प्राणभूत राधा– कृष्ण हैं जिनका बहाना लेकर भक्ति तथा रीति काल के हिन्दी कवियों ने अपने भक्ति और शृङ्गार सम्बन्धी उद्गार प्रकट किये हैं भारतीय जनमानस इनसे एक विशेष प्रकार की निकटता का अनुभव करता है, चाहे वह किसी वर्ग या धर्म से सम्बन्धित हो। श्रीकृष्ण का साँवला रङ्ग भारतीय उपमहाद्वीप का प्रतिनिधि रङ्ग है उनकी सरस बातें, तिरछी चितवन, रंगारंग बानक भारतीय जनसमूह के हृदय में धँस गया है और कवियों का उपजीव्य स्रोत बन चुका है हज़रत के काव्य में श्रीकृष्ण पूर्णतः रस्य तथा अनुभव कर सकने की सीमा तक वर्णित हुए हैं यह वर्णन कबीरदास के “केसौ कहि कहि कूकिये”, गुरुग्रन्थसाहब के “साँवर सुन्दर रामैया मोर मन लागा तोहे” तथा कवीन्द्र रवीन्द्र के “एशो श्यामल शुन्दर” की अपेक्षा अधिक सरस, रंगीन तथा अनुभाव्य है। ऊपर उद्धृत काव्य केवल कृष्ण के नाम तथा प्रतीकमात्र का उपयोग करते हैं इनमें कृष्ण अपने सर्वसामान्य रूप में नहीं आते और निर्गुण ब्रह्म की एक छवि उन पर हावी हो रहती है वस्तुतः श्रीकृष्ण की छवि इस क़दर रंगीन है कि वे सगुणता की प्रतिमूर्ति ही प्रतीत होते हैं यही कारण है कि भक्तिकालीन निर्गुण धारा के कवियों में परब्रह्म के प्रतीक के रूप में जितना राम का उपयोग किया गया है उतना कृष्ण का नहीं क्योंकि उन कवियों का लक्ष्य अन्ततः निर्गुण तत्त्व ही था। इसके विपरीत तुराब के कृष्ण केवल ध्यानगम्य ही नहीं हैं बल्कि अपने पूरे सौन्दर्य के साथ सपार्षद विद्यमान हैं उनके पास काली कामर (कम्बल), पिछौरी पाग (मोरपंख का मुकुट) है, मोहनी मूरत–सोहनी सूरत है और आँखें रसीली और लाजभरी हैं वे ढीठ हैं, लंगर हैं एक बार उनकी नज़र किसी पर लग गयी फिर छोड़ते नहीं यहाँ जसमत (यशोमती) भी हैं,नन्द भी हैं,राधा बृषभान किशोरी भी हैं, दूध–दही का बेचना भी है उनसे रूठना है– जासो चाहें पिया खेलें होरी– मोसे नहीं कछु काम री गुइयाँ; मनाना है, उनके कठोर व्यवहार के लिये उलाहना देना है, उनकी जबरदस्ती के लिये उन्हें गालियाँ देना हैं उनकी बेवफ़ाई का बखान है

    तोरी प्रीत का कौन भरोसा– एक से तोरे एक से जोड़े सौतिया डाह है फाग मा भाग खुले सौतन के रीझे हैं उन पर श्याम री गुइयाँ पछतावा है दई नाहक पीत करी राधा का विरह में पीला पड़ना है कान्ह कुँवर के कारण राधा तन से भई पियरी दुबरी इन पुष्ट तथा सरस सचित्र वर्णनों के कारण तुराब के कृष्ण का निर्गुण ब्रह्म में पर्यवसान बहुत अन्त में हो पाता है

    तुराब के काव्य में कृष्ण के लौकिक तथा पारलौकिक अनेक प्रकार के रंग हैं वह अधिकतर स्थानों पर पीरे कामिल (परिपूर्ण गुरु) के रूप में प्रकट होकर आये हैं गुरु, शिष्य के अहंकार की चिरसञ्चित मटकी को फोड़ कर उसकी अन्तरात्मा को प्रेम रस में सराबोर कर डालता है बिल्कुल वही जो कृष्ण गोपियों के साथ करते हैं ज़बरदस्ती साधना के फाग में प्रेम का रंग लगाता है वह अबीर घूँघट खोल कर मलता है दूध–दही बेचने नहीं देता जैसे गुरु सांसारिक कार्यों से साधक को कुन्द कर देता है –फगवा माँगत रार करत है कस कोई बेचे दूध दही वह लाज हर लेता है ताली बजावत धूम मचावत गाली सुनावत लाज हरत है ,बिलकुल मौलाना रूम के साक़ी की तरह बरख़ीज साक़ी बिया दुश्मने शर्मो हया

    अनेक बार कृष्ण को परब्रह्म के प्रतीक के रूप में भी देखा जा सकता है वह अपना मुख सबसे बचाये रखता है कुंज़ुन् मख़्फ़ीयुन् (کنج مخفی) की तरह और रसिकों के मुँह पर अबीर मलता है। वह कान्ह कुँवर रूपी ब्रह्म ही है जिसके विरह में राधा रूपी जीवात्मा तन से पीली और दुबली हो जाती है।

    बाद के अनेक उर्दू कवियों ने भी श्रीकृष्ण को उपने काव्य का विषय बनाया है जिसमें अधिकतर तो चरितकाव्य अथवा श्रद्धास्पद की तरह हैं। इन वर्णनों में सूफ़ियों जैसी द्विकोटिकता का अभाव है। लेकिन यह कहा जा सकता है कि श्रीकृष्ण को उर्दू की परम्परा में चरितनायक के रूप में वर्णन करने का साहस तथा प्रेरणा पूर्वोक्त सूफ़ियों की काव्य परम्परा के कारण ही मिल पाया है। अनेक स्थलों पर उर्दू कवियों ने भी श्रीकृष्णपरक प्रतीकों का सूफ़ियाना उपयोग भी किया गया है। कुछ प्रमुख उदाहरण प्रस्तुत हैं–

    मुंशी बनवारीलाल शोला–

    तु ही है हुस्ने रुखसारे हक़ीक़त तु ही है परदा बरदारे हक़ीक़त॥

    अलग कब तुझसे तेरी गुफ़्तो गू है। गरज इक तू ही तू है तू ही तू है॥

    गोपीनाथ अम्न–

    कोई पीताम्बर या जामा एहराम में आये

    मुहम्मद की गली या कूचा घनश्याम में आये

    ख़ुदा शाहिद कि सर झुकता है अहले दिल के क़दमों पर

    मये साफ़ी से मतलब है किसी भी जाम में आये

    हसरत मोहानी

    पैग़ामे हयाते जाविदाँ था हर नग़्मा किशन बाँसुरी का

    वो नूरे सियाह या कि हसरत सरचश्मा फ़रोग़े आगही का

    निहाल स्योहारवी–

    गया फिर हुस्न दुनिया अजल आबाद पर

    ज़िन्दगी मथुरा पे बरसी आले ईजाद पर

    कायनाते जुज़्व कुल का राज़दाँ पैदा हुआ

    मुख़्तसर ये है कि आक़ा जहाँ पैदा हुआ।

    उपर्युक्त शाइरों के उदाहरणों में सीमाब अकबराबादी, निहाल स्योहारवी, नज़ीर बनारसी आदि के कृष्ण परक कलाम काबिले गौरो जिक्र हैं। श्रीकृष्ण की लीलाओं के गान के लिये नजीर अकबराबादी बहुत ही प्रसिद्ध हैं। कृस्न कन्हैंया का बालपन, जनम कन्हैयाजी और हरि की तारीफ़ में आदि कथात्मक कवितायें कृष्ण लीला की उज्ज्वल तस्वीर खींचते हैं। लेकिन सबसे रहस्यात्मक नातिया कलाम मोहसिन काकोरवी का है जिसमें ज़ाहिरी तौर पर श्रीकृष्ण को मुहम्मद साहब के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया गया है। क़सीदे के शुरुवाती शेर हैं–

    सम्ते काशी से चला जानिबे मथुरा बादल

    अब्र के दोश पे लाती है सबा गंगाजल

    देखिये होगा सिरीकृष्न का दरशन क्यूँकर

    सीना–ए–तंग में दिल गोपियों का है बेकल

    ध्यान देने की बात है कि जिस राधा कृष्ण के प्रतीक को लेकर हिन्दी के रीतिकालीन कवियों ने मुख्यतः शृंगारिक रचनायें की सूफ़ी कवियों ने इन्हीं प्रतीकों का उपयोग अपने सम्प्रदाय की आध्यात्मिक व्याख्या के लिए किया। इस प्रकार उन्होंने कृष्ण परक इन प्रतीकों को अर्थों के नये आयाम प्रदान किये तथा फ़ारसी काव्य की चिर परिचित द्विकोटिकता (=मजाज़ी तथा हक़ीक़ी) की पंक्ति में इन भारतीय प्रतीकों को भी जोड़ दिया।

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