महफ़िल-ए-समाअ’ और सिलसिला-ए-वारसिया
अ’रबी ज़बान का एक लफ़्ज़ ‘क़ौल’ है जिसके मा’नी हैं बयान, गुफ़्तुगू और बात कहना वग़ैरा।आ’म बोल-चाल की ज़बान में यह लफ़्ज़ क़रार, वा’दा या क़सम के मा’नी में भी इस्ति’माल किया जाता है।
अ’रबी और ईरानी ज़बान में लफ़्ज़-ए-क़ौल का स्ति’माल मख़्सूस तरीक़े से गाए जाने वाले शे’र के लिए होता है जिसमें अ’रबी इस्तिलाह और अ’रबी जुमला ज़रूरी तौर पर इस्ति’माल किया गया होता है। जनाब हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम का कोई भी क़ौल या क़ुरआन-ए-मजीद की किसी भी आयत को लय के साथ पढ़ना ही क़ौल कहलाता है।और इसी लफ़्ज़ से अक़वाल और क़व्वाली जैसे अल्फ़ाज़ वजूद में आए हैं।क़व्वाली का आ’म मा’नी है सूफ़िया या सूफ़ियाना गीत। जो क़व्वाली गाता है उसे क़व्वाल कहते हैं।
समाअ’ भी एक अ’रबी लफ़्ज़ है और ये लफ़्ज़ क़व्वाली गाने और सुनने के लिए मुक़र्रर किया गया है। इसका आ’म मा’नी समाअ’त करना या सुनना है। जिस मक़ाम या जिस कमरा में क़व्वाली की महफ़िल होती है उसे समाअ’-ख़ाना कहते हैं और जहाँ मुंअ’क़िद की जाती है उसे महफ़िल-ए-समाअ’ कहते हैं। लिहाज़ा बुज़ुर्गान-ए-दीन के मज़ारात से मुंसलिक समाअ’-ख़ाना भी होते हैं जहाँ क़व्वाली की महफ़िलें मुंअ’नक़िद की जाती हैं।
समाअ’ या क़व्वाली के लिए खास-तौर पर तीन मौज़ूआ’त तस्लीम किए गए हैं।अव्वल हम्द या’नी ख़ुदा की ता’रीफ़ से मुतअ’ल्लिक़ कलाम ।दोउम ना’त शरीफ़ या’नी हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम की ता’रीफ़-ओ-तौसीफ़ से मुतअ’ल्लिक़ कलाम और तीसरा मंक़बत या’नी सहाबा-ए-कीराम, औलिया-ए-किराम और सूफ़िया-ए-किराम की ख़िदमत में अ’क़ीदत और मोहब्बत भरे जज़्बात के इज़हार-ओ-बयान के साथ उनके मो’जिज़ात की पेश-कश वग़ैरुहम जिनका वाहिद मक़्सद अ’क़ीदत-मंदाना जज़्बात से सामिई’न हज़रात को क़ल्बी इत्मिनान-ओ-सुकून अ’ता करना है।
ज़माना-ए-क़दीम से ही सूफ़ियों के यहाँ महफ़िल-ए-समाअ’ का दस्तूर चला आ रहा है।तुलूअ’-ए-इस्लाम के बा’द अ’रब ही नहीं बल्कि ईरान, फ़ारस, बग़दाद और ग़ैर मुल्कों में भी जो उन दिनों इस्लामी इर्तिक़ा और तमद्दुन के मशहूर मराकिज़ थे, वहाँ सूफ़ियों की महफ़िलों में साज़-ओ-नग़्मा बड़ी शान-ओ-शौकत के साथ रिवाज पा चुके थे। हिन्दुस्तान में चिश्तिया-सिलसिले के सर-ताज ख़्वाजा ग़रीब-नवाज़ के साथ ही समाअ’ की आमद हुई और चिश्तिया-सिलसिले में उसका रिवाज रहा। मगर ये बात इश्तिबाह-आमेज़ है कि पूरे हिन्दुस्तान में इसकी तौसीअ’-ओ-इशाअ’त का सेहरा भी सिर्फ़ चिश्तियों के सर है। हदीस के एक ज़बर्दस्त आ’लिम शैख़ अ’ब्दुल-हक़ मुहद्दिस देहलवी ने अपनी तस्नीफ़ “अख़बारुल-अख़्यार” में तफ़्सील से बहस की है कि सुहरवर्दी सिलसिले के बानी शैख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी के बुज़ुर्ग क़ाज़ी हमीदुद्दीन नागौरी के सिलसिले में समाअ’ और वज्द का ख़ूब रिवाज था उसके अ’लावा हिन्दुस्तान में जितने भी सूफ़ी सलासिल रहे हैं उनमें बेश्तर समाअ’ की रिवायत के पाबंद रहे हैं और तमाम ने समाअ’ की तौसीअ’ और इशाअ’त में भरपूर तआ’ऊन दिया है।
ग़र्ज़ ये कि सूफ़िया-ए-किराम हर ज़माने में और हमेशा ही समाअ’ की क़द्र-ओ-मंज़िलत करते चले आए हैं और यही लोग उसके अस्ल मिज़ाज-आश्ना भी रह चुके हैं साथ ही उसकी तब्लीग़ भी उन्हीं लोगों की मरहून-ए-मिन्नत रही है।बल्कि इस सिलसिले में ये कहना ग़लत न होगा कि समाअ’ की जा-ए-पैदाइश भी सूफ़िया-ए-किराम की ख़ानक़ाहें ही रही हैं। ये वहीं पली है और परवान चढ़ती रही है।
फ़ी ज़मानिना दुनिया में जितने भी सलासिल हैं उनमें बेशतर सिलसिलों में महफ़िल-ए-समाअ’ का चलन राइज है मगर बा’ज़ बा’ज़ सिलसिलों में इसका दस्तूर नहीं भी है बल्कि उन सिलसिलों ने इसकी मुख़ालफ़त भी की है।
मैं जिस सिलसिला की निस्बत ज़िक्र कर रहा हूँ वो सिलसिला-ए-वारिसिया है जिसके बानी हज़रत हाजी हाफ़िज़ सय्यद वारिस अ’ली शाह आ’ज़मल्लाहु ज़िक्रहु देवा शरीफ़, ज़िला’ बाराबंकी (यूपी) हैं।इस वसीअ’ वारसी सिलसिला में समाअ’ की क़दीम रिवायत रही है और बहुत वज़्अ’-दारी के साथ इसका इंइक़ाद किया जाता रहा है और हनूज़ उसका दस्तूर क़ाएम है। ग़र्ज़ ये कि इस सिलसिला में महफ़िल-ए-समाअ’ को एक ख़ास अहमियत हासिल है।
सिलसिला-ए-वारसिया की मुस्तनद अहम किताबों के मुतालआ’ से ये बात वाज़ेह हो चुकी है कि ख़ुद हज़रत वारिस-ए-पाक के कलाम में मज़ाक-ए-सुख़न का पहलू भी जल्वा-गर था। आपको कलाम-ए-मंजूम-ओ-अश्आर से भी ख़ास लगाव था।आप ख़ुद भी ख़ुश-इलहान थे और आ’शिक़ाना ग़ज़लें ख़ुद भी पढ़ा करते थे।फ़न्न-ए-शे’र से आपको ऐसा ज़ौक़ था कि अ’रबी, फ़ारसी, हिन्दी और उर्दू ग़ज़लियात को रग़बत से सुनते और उनके हर क़िस्म के निकात इर्शाद फ़रमाते जिससे ये मा’लूम होता था कि आप अव्वल दर्जा के सुख़न-फ़ह्म हैं और फ़न्न-ए-शाइ’री में कमाल रखते हैं।जब कभी अपनी ज़बान से अश्आ’र सुनाते तो अहल-ए-बज़्म पर अ’जीब हालत तारी हो जाती थी और ख़ुद भी मुकय्यफ़ हो जाते थे।चूँकि आप इ’श्क़-ओ-मोहब्बत की मुजस्सम तस्वीर थे और आ’शिक़ाना जज़्बात के अश्आ’र ख़ुसूसन अमीर ख़ुसरो रहमतुल्लाहि अ’लैहि का कलाम बहुत पसंद फ़रमाते थे। यही वजह है कि आपकी महफ़िल में सूफ़ियाना कलाम और मंक़बत-ख़्वानी का ज़्यादा चर्चा था। लिहाज़ा इन बातों से ये पता चलता है कि हज़रत वारिस-ए-पाक महफ़िल-ए-समाअ’ के बेहद शैदाई थे।
जैसा कि ये मा’लूम है कि हज़रत वारिस-ए-पाक ने अपने दौरान-ए-हयात में ही अपने वालिद-ए-बुजु़र्ग-वार हज़रत क़ुर्बान अ’ली शाह के उ’र्स का आग़ाज़ कराया था जो हिन्दी माह के करवा चौथ को मुनअ’क़िद किया जाता है और हनूज़ ये उ’र्स-ए-मुबारक उसी तारीख़ में होता है। ये उ’र्स मेला कार्तिक के नाम से भी मशहूर है। हाजी साहिब क़िबला की मौजूदगी में इस मौक़ा’ पर महफ़िल-ए-समाअ’ मुनअ’क़िद की जाती थी और वो ख़ुद भी क़व्वाल हज़रात के सूफ़ियाना-कलाम से महज़ूज़ होते और अहल-ए-महफ़िल पर भी एक ख़ास कैफ़िय्यत तारी रहती थी। चुनाँचे हज़रत वारिस के पर्दा फ़रमाने के बा’द भी इस वसीअ’ वारसी सिलसिला में महफ़िल-ए-समाअ’ का सिलसिला क़ाएम-ओ-दाएम है। ख़ुसूसन उ’र्स और उ’र्स मेला कार्तिक के मौक़ा’ पर हर साल आस्ताना-ए-औलिया के समाअ’-ख़ाना में महफ़िल-ए-समाअ’ का बा-ज़ाब्ता इनइ’क़ाद किया जाता है।हिन्दी चैत माह में फ़ुक़रा-ए-वारसिया की जानिब से सरकार वारिस-ए-पाक के उ’र्स के मौक़ा’ पर भी महफ़िल-ए-समाअ’ मुनअ’क़िद की जाती है। इन तीनों सालाना तक़ारीब उ’र्स के मौक़ा’ पर अंदरून-ए-मुल्क और बैरून-ए-मुल्क के मशहूर क़व्वाल हज़रात अपने सूफ़ियाना और आ’शिक़ाना कलाम से अहल-ए-महफ़िल को क़ल्बी सुकून अ’ता करते हैं।यही नहीं आज के रवाँ दौर में मुल्क के जिन-जिन शहरों और क़स्बों में फ़ुकरा-ए-वारिसिया के मज़ारात और ख़ानक़ाहें मौजूद हैं, वहाँ भी महफ़िल-ए-समाअ’ का इनइ’क़ाद लाज़िमी तौर पर किया जाता है।लिहाज़ा मैं कुछ अहम वारसी मज़ारात और ख़ानक़ाहों की एक मुख़्तसर फ़िहरिस्त पेश कर रहा हूँ जहाँ महफ़िल-ए-समाअ’ की रिवायत बर-क़रार है।अगर तफ़्सीलन इसका ज़िक्र किया जाए तो मज़मून काफ़ी तवील हो जाएगा।
फ़ुक़रा के अस्मा-ए-गिरामी, जा-ए-मज़ार-ओ-ख़ानकाह
(1) हज़रत बे-नज़ीर शाह वारसी, मानिकपुर (यूपी)
(2) हज़रत बाबा रज़ा शाह वारसी ,कलकत्ता (बंगाल)
(3) हज़रत बेदम शाह वारसी, देवा-शरीफ़ (यूपी
(4) हज़रत औघट शाह वारसी बछरायूँ, मुरादाबाद (यूपी)
(5) हज़रत अबुल-हसन शाह वारसी ,इटावा (यूपी)
(6) हज़रत आज़ाद शाह वारसी, कानपूर (यूपी)
(7) हज़रत ख़ादिम अ’ली शाह ,इहाता क्रिस्चन कॉलेज,लखनऊ (यूपी)
(8) हज़रत हाफ़िज़ प्यारी, देवा-शरीफ़ (यूपी)
(9) हज़रत झाड़ू शाह वारसी, बहराइच (यूपी)
(10) हज़रत रहीम शाह वारसी, गंगवारा, देवा-शरीफ़ (यूपी)
(11) हज़रत ज़हूर शाह वारसी, मुग़ल-सराय (यूपी)
(12) हज़रत मियाँ अ’ब्दूर्रज़्ज़ाक़ ख़ामोश शाह वारसी, बाढ़, ज़िला’ पटना
(13) जनाब हकीम अ’ब्दुल-अहद शाह वारसी,शाहू बीघा, ज़िला मुंगेर, मज़ार-ए-मुबारक शकूर-गंज, बुलंदशहर
(14) हज़रत फ़ैज़ू शाह वारसी, मौज़ा’ बहमा, सीतापुर (यूपी)
(15) हज़रत मोहब्बत शाह वारसी, मौज़ा न्यूहारा, बिज्नोर, (यूपी)
(16) हज़रत वली शाह वारसिया, अमरोहा (यूपी)
(17) हज़रत ग़ालिब शाह वारसी, रामपुर (यूपी)
(18) हज़रत सूफ़ी सलमान शाह वारसी, बछरायूँ, अमरोहा (यूपी)
(19) हज़रत हसरत शाह वारसी,मेरठ (यूपी)
(20) हज़रत फ़रहाद शाह वारसी, मोहल्ला जहाँगीरी, रेल पार, आसंसोल (बंगाल)
(21) हज़रत अं’बर शाह वारसी (पाकिस्तान)
(22) हज़रत सत शाह वारसी, सोन नगरी औरंगाबाद (बिहार)
(23) हज़रत फ़क़ीर अकमल शाह वारसी, रावलपिंडी, (पाकिस्तान)
(24) हज़रत मुनव्वर शाह वारसी, लाहौर, (पाकिस्तान)
(25) हज़रत अल्लाह-मान शाह वारसी, नकराही,सुल्तानपुर (यूपी)
(26) हज़रत रौशन शाह वारसी, सैफ़ुल्लाह-गंज सुल्तानपुर (यूपी)
ऐसे शहरों और क़स्बों के नाम जहाँ वारसी अंजुमनें, वारसी मय-कदे और दीगर वारसी इदारे क़ाएम हैं जिनके ज़ेर-ए-एहतिमाम सरकार वारिस-ए- पाक का माहाना और सालाना क़ुल और साथ ही महफ़िल-ए-समाअ’ के प्रोग्राम होते हैं।
(1) अंजुमन मुख़्लिसीन-ए-वारसिया, जगदीशपुर (भोजपुर)
(2) वारसी कोटी-देवा नगरी, रांची (झारखंड)
(3) वारसी आश्रम रेड़िया, बिक्रम-गंज (रोहतास)
(4) अंजुमन-ए-वारसी, सँभल, मुरादाबाद (यूपी)
(5) ख़ुद्दाम-ए-वारसिया, मेरठ (यूपी)
(6) वारसी सोसाइटी, शाहजहाँपुर (यूपी)
(7) काशाना-ए-वारिस,अ’लीगढ़ (यूपी)
(8) मय-कदा-ए-वारसी, देवा-शरीफ़
(9) मय-कदा-ए-वारसी, ग्वालियार, (छत्तीसगढ़)
(10) प्रेम कोटि मिशन, कलकत्ता (बंगाल)
(11) मय-कदा-ए-वारसी, भिवानी-मंडी झाला (राजस्थान)
(12) काशाना-ए-वारिस ,शाहजहाँपुर (यूपी)
(13) वारसी मेरठ, दिलदार-नगर (यूपी)
(14) अंजुमन इत्तिहाद-ए-वारसिया, लाहौर (पाकिस्तान)
(15) अंजुमन इत्तिहाद-ए-वारसिया, कराची (पाकिस्तान)
(16) अंजुमन इत्तिहाद-ए-वारसिया, लाल-कुँआं (दिल्ली)
(17) वारसी आश्रम, रस्सी बगान, आरा (भोजपुर)
कुछ जगहों पर जश्न –ए-वारिस-ए-पाक की तक़रीबात के मौक़ा’ पर भी महफ़िल-ए-समाअ’ मुनअ’क़िद की जाती है।मस्लन
(1) जश्न-ए-वारिस-ए-पाक,पार्क सर्कस, (कलकत्ता)
(2) जश्न-ए-वारिस-ए-पाक,अंजुमन इस्लामिया,हाल, पटना
(3) जश्न-ए-वारिस-ए-पाक,गया(बिहार)
(4) जश्न-ए-वारिस-ए-पाक डहरी,आंसोन (रोहतास)
(5) जश्न-ए- वारिस-ए-पाक सहसराम (रोहतास) वग़ैरा
यही नहीं मुल्क के गोशे-गोशे में जहाँ सिलसिला-ए-वारसिया के अ’क़ीदतमंदान मुक़ीम हैं उनके यहाँ भी माहाना क़ुल-ओ-फ़ातिहा के साथ-साथ महफ़िल-ए-समाअ’ भी आरास्ता की जाती है।
ग़र्ज़ ये कि दौर-ए-जदीद में बेश्तर समाअ’ की महफ़िल इसी सिलसिला से मुंसलिक हैं और जितने भी फ़ुक़रा-ए-वारसिया के मज़ारात और ख़ानक़ाहों का ज़िक्र किया गया है वहाँ हर साल उ’र्सों के मौक़ा’ पर महफ़िल-ए-समाअ’ का एहतिमाम-ओ-इनइ’क़ाद कर के सरकार वारिस-ए-पाक की ख़िदमत में ख़राज-ए-अ’क़ीदत पेश किया जाता है।
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