Font by Mehr Nastaliq Web
Sufinama

शैख़ सा’दी का तख़ल्लुस किस सा’द के नाम पर है ?

एजाज़ हुसैन ख़ान

शैख़ सा’दी का तख़ल्लुस किस सा’द के नाम पर है ?

एजाज़ हुसैन ख़ान

MORE BYएजाज़ हुसैन ख़ान

    शैख़ सा’दी के मुआ’सिर शम्स बिन क़ैस राज़ी की तसनीफ़ अल-मो’जम फ़ी-मआ’इर-ए-अशआ’रिल अ’जम, मिर्ज़ा मुहम्मद बिन अ’ब्दुल वहाब क़ज़वीनी के तर्तीब-ओ-तहशिया से शाए’ हुई है, इस पर मिर्ज़ा साहब का एक बसीत आ’लिमाना मुक़द्दमा भी सब्त है।

    इस मुक़द्दमा में मिर्ज़ा साहब मौसूफ़ ने शैख़ सा’दी के तख़ल्लुस पर इस तक़रीब से नज़र डाली है कि इस मुआ’सिर किताब में सा’दी के शे’र क्यों नहीं हैं, और इस से ये नतीजा पैदा किया है कि शैख़ सा’दी का तख़ल्लुस अबू-बक्र बिन सा’द बिन ज़ंगी बादशाह-ए-फ़ारस के बेटे शाहज़ादा सा’द बिन अबू-बक्र के नाम से माख़ूज़ है, उस के दादा सा’द बिन ज़ंगी के नाम से नहीं , चुनांचे वो लिखते हैं;-

    “दरीं जा लाज़िम अस्त कि इशारा ब-ग़लती-ए-मशहूर दर बाब-ए-तख़ल्लुस-ए-सा’दी-ए-शीराज़ी ब-नुमाऐम,-ओ-आँ ईं अस्त कि बिस्यारे अज़ तज़किरा-नवीसान कि अव्वलीन –ए-शाँ दौलत शाह समरक़ंदी अस्त, गुफ़्त: अंद कि शैख़ अज़ मुद्दाहान-ए-अताबुक सा’द बिन ज़ंगी बूद: , तख़ल्लुस-ए-ऊ ब-सा’दी नीज़ अज़ नाम-ए-हमीं बादशाह माख़ूज़ अस्त, ईं अम्र ख़ता-ए-महज़ अस्त, चे अव्वलन दर तमाम-ए-कुल्लियात-ए-शैख़ मदहे या ज़िक्रे अज़ सा’द बिन ज़ंगी असलन-ओ- मुतलक़न नीस्त, सानियन मुसन्निफ़-ए-ईं किताब चुनां कि गुफ़्तेम दर पंज साल-ए-आख़िर-ए-सल्तनत-ए-सा’द बिन ज़ंगी -ओ-अवाइल-ए-सल्तनत-ए- अबू-बक्र बिन सा’द बिन ज़ंगी दर शीराज़-ओ-दर मुलाज़मत-ए-दो बादशाह-ए-मज़कूर बसरी बुर्द: अस्त, दरीं किताब (या’नी अल-मो’जम फ़ी-मआ’इर-ए-अशआ’रिल-अ’जम) अज़ अशआ’र-ए-ग़ालिब-ए-शो’रा-ए- मुतक़द्दिमीन-ओ- मुतअख़्ख़िरीन-ए-ख़ुद मानिंद कमालुद्दीन इस्माई’ल मुतवफ़्फ़ी दर सन360 हिज्री इस्तिशहाद आवर्द: अस्त-ओ-मआ’ हज़ा, हेच इशारा-ओ-ज़िक्रे अज़ सा’दी, नमी कुनद-ओ-गर शैख़ मुआ’सिर-ए-सा’द बिन ज़िंदगी बूद: या’नी दर अ’ह्द-ए-ऊ ब-शीराज़ इक़ामत दाश्त: ईं सुकूत-ए-मुसन्निफ़ अज़ू बा आँ कि हर दो बिना बरईं तक़दीर दर यक अ’स्र-ओ- यक शहर-ओ-दर ख़िदमत-ए-यक बादशाह बसर मी- बुर्द: अंद, हेच वज्हे-ओ- महले न-ख़्वाहिद दाश्त-ओ-सवाब क़ौल-ए-साहब-ए-तारीख़-ए-गुज़ीद: अस्त कि शैख़ अज़ मुलाज़िमान-ए-सा’द बिन अबू-बक्र बिन सा’द बिन ज़ंगी (कि दर साल-ए-658 दवाज़ादाह रोज़ बा’द अज़-ए-वफ़ात-ए-पिदरश वफ़ात याफ़्त) बूद: अस्त-ओ-तख़ल्लुस-ए-सा’दी नीज़ अज़ नाम-ए-हमीं शाहज़ादा माख़ूज़ अस्त-ओ-लिताब-ए-गुलसिताँ रा नीज़ ब-नाम-ए-हम आँ तालीफ़ कर्द: अस्त चुनाँ कि गोयद।

    अ’लल-ख़ुसूस कि दीबाच-ए-हुमायूनश

    ब-नाम-ए-सा’द अबू-बक्र सा’द बिन ज़ंगी अस्त

    व-ज़ाहिर आनस्त कि मुराजअ’त-ए-शैख़ अज़ सफ़रहा-ए- दूर-ओ-दराज़ ब-वतन-ए-ख़ुद-ओ-इस्तिक़रार-ए-वय दर शीराज़ दर अवाख़िर-ए-सल्तनत-ए-अबू-बक्र बिन सा’द बिन ज़ंगी बूद: अस्त,-ओ-दर हम आँ औक़ात किताब-ए-बोसतान रा ब-नाम-ए-आँ बादशाह दर सन –ए-655 तालीफ़ कर्द: अस्त चुनाँ कि गोयद।

    ज़े शश सद फुज़ूँ बूद पंजाह-ओ-पंच

    कि पुर-दुर्र शुद ईं नाम-ए-बर्दार-ए-गंज

    ओ- गुलसिताँ रा दर साल-ए-बा’द यानी सन-ए-656 चुनाँ कि गोयद।

    दर आँ मुद्दत कि मा रा वक़्त-ए-ख़ुश-बूद

    ज़े हिज्रत शश सद-ओ-पंजाह-ओ-शश बूद

    चूँ सल्तनत-ए-अबू-बक्र बिन सा’द बिन ज़ंगी मुद्दत-ए-सी साल या’नी अज़ सन-ए-1628 इला सन-ए-658 तवील कशीद मुनाफ़ाते न-दारंद कि शमस क़ैस –ओ-शैख़ सा’दी बा-वजूद आँ कि हर दो मुआ’सिरा-ए-बादशाह बूद: अंद ज़मान: -ए-यक दीगर रा दर्क न-कर्द: बाशंद चे शम्स क़ैस अवाइल-ए- अ’ह्द-ए-ऊ दर्क कर्द : बाशद-ओ-शैख़ सा’दी अवाख़िर-ए-आँ रा वल्लाहुलहादी इलस्सवाब।

    हमारी तहक़ीक़ में अगर शैख़ का तख़ल्लुस “सा’द के नाम से माख़ूज़ समझा जाये तो वो सा’द बिन ज़ंगी है जैसा कि दौलत शाह ने लिखा है कि सा’द बिन अबू-बक्र साहिब-ए-मुक़द्दमा ने दौलत शाह के क़ौल को ख़ता-ए-महज़ लिखा है, लेकिन हमारे ख़याल मैं ख़ुद साहिब-ए-मुक़द्दमा का बयान ख़ता-ए-महिज़ है, चूँकि ये दावा चंद दलाइल पर मबनी है, इसलिए नाज़िरीन पहले चंद उमूर-ए-तन्क़ीह-तलब की तसरीह-ओ-तशरीह को ब-ग़ौर मुलाहिज़ा फ़रमाएं, फिर अस्ल हक़ीक़त ख़ुद ब-ख़ुद बे-नक़ाब हो जाएगी।

    शैख़ सा’दी की मुआ’सरत सा’द बिं अबू–बक्र के साथ होना मुसल्लम है, मगर ये मुआ’सरत एक पीर –ए-कुहन-साल एक शहज़ादा-ए-जवां-साल के साथ थी या दोनों मुआ’सिर उ’म्र भी थे।

    शैख़ सा’दी की उ’म्र कितनी हुई, अगर सहीह उ’म्र का पता लग सके तो शैख़ के हालात-ओ-वाक़िआ’त से अंदाज़ा करना चाहिए जो उन्होंने अपने तसनीफ़ात में बयान किए हैं।

    शैख़ ने अताबुका न-ए-फ़ारस में से किस-किस बादशाह का ज़माना पाया।

    शाइ’र कब तख़ल्लुस इख़्तियार करता है।

    कुतुब-ए-तारीख़ और शैख़ के कलाम से साफ़ साफ़ ज़ाहिर होता है कि शैख़ कि मुआ’सिर शाहज़ादा सा’द के साथ एक पीर-ए-कुहन-साल और एक नौजवान साल की मुआ’सरत थी, शाहज़ादा सा’द अपने बाप अबू-बक्र बिन सा’द की वफ़ात के बारह दिन बा’द सन658 मैं इंतिक़ाल कर गया, बावजूद-ए-कोशिश मुझको शाहज़ादा की पैदाइश का सन मा’लूम हो सका, जिससे उसकी उ’म्र का अंदाज़ा होता लेकिन ये मा’लूम है कि बादशाह अबू-बक्र बिन साद ज़ंगी साठ और सत्तर बरस के दरमियान उ’म्र पाकर सन658 मैं मरा, उसका बेटा सा’द हालत-ए-नौजवानी में एक बच्चा छोड़ कर मरा, शैख़ सा’दी ने निहायत दर्दनाक मर्सिया उसकी वफ़ात की ख़बर पाकर लिखा है, जो उनके कुल्लियात में मौजूद है, इस मर्सिया के उन अशआ’र और तारीख़ के बा’द दूसरे हवालों से ये आश्कारा होता है कि शैख़ अपना तख़ल्लुस इस शाहज़ादा के नाम पर नहीं रख सकते थे, भला ये क्योंकर मुम्किन है कि एक पीर-ए-कुहनसाल शाइ’र एक नौ-उ’म्र शाहज़ादा के नाम पर अपने तख़ल्लुस की बुनियाद क़ाइम करे, शैख़ का कमाल और उनकी शाइ’री और उस की शोहरत शाहज़ादा की पैदाइश के पहले और बहुत पहले तमाम दुनिया में फैल चुकी थी।

    शैख़ की विलादत का साल किसी किताब में नज़र से नहीं गुज़रा, हयात-ए-सा’दी में एक यूरोपियन मुसन्निफ़ का क़ौल सन589 हिज्री नक़ल किया गया है, मगर ये महज़ ग़लत है, मौलाना हाली मरहूम ने भी इसकी तरदीद की है, मगर शैख़ की विलादत का साल मेरी तरह मौलाना हाली को भी मा’लूम हो सका, वफ़ात का साल सन691 हिज्री है, इस पर मुअर्रिख़ीन का इत्तिफ़ाक़ है, मगर साहिब-ए-तारीख़-ए- गुज़ीदा सन690 हिज्री लिखते हैं, जब विलादत का साल मा’लूम नहीं तो उ’म्र की तहदीद की तहक़ीक़ नहीं हो सकती, लेकिन बा’ज़ मुहक़्क़िक़ीन के नज़दीक शैख़ की उ’म्र एक सौ बीस बरस की हुई, मौलाना हाली इसी को सहीह जानते थे, हयात-ए-सा’दी में तहरीर फ़रमाते हैं:-

    “जहाँ तक हमारी तहक़ीक़ से साबित होता है उसने (शैख़ ने) एक सौ बीस बरस इस क़फ़स-ए-उंसरी में बसर किए हैं”

    अ’ल्लामा शिबली मरहूम ने शे’रुल-अ’जम में एक सौ बीस बरस की उ’म्र को खिलाफ-ए-क़ियास तहरीर फ़रमाया है, फ़रमाते हैं:

    “बा’ज़ तज़्किरों में शैख़ की उ’म्र120 लिखी है, अगर ये ख़ारिज अज़ क़ियास उ’म्र तस्लीम कर ली जाये तो और वाक़िआ’त की कड़ियाँ मिल जाएँगी लेकिन एक सख़्त दिक़्क़त फिर भी बाक़ी रहती है, वो ये कि शैख़ ने गुलिस्तान में लिखा है कि “जिस ज़माना में सुल्लतान महमूद ख़्वारिज़्म शाह ने ख़ता से सुल्ह की मैं काशग़र में आया सुल्तान महमूद सन589 मैं मरा है, इसलिए इस ज़माना में उनकी उ’म्र18 बरस की होगी, लेकिन वक़ात और क़राइन से मा’लूम होता है, कि शैख़ की शाइरी और कमालात ने कम-अज़-कम30- 40 बरस की उ’म्र में शोहरत पाई है, इसलिए या तो शैख़ ने ग़लती से अ’लाउउद्दीन तकश ख़्वारिज़्म शाह के बजाए महमूद ख़्वारिज़्म शाह का नाम लिख दिया है, या उनकी शाइ’री की शोहरत उनके शबाब ही में हो चुकी थी”

    अल्लामा मौसूफ़ जैसे वसी-उ’न-नज़र-ओ-दक़ीक़ा-रस मुहक़्क़िक़ का इस तरह लिखना सिवाए सहव-ए-फ़िक्र के और क्या हो सकता है, क़ुदमा की तारीख़ और उनकी तसानीफ़ में जो बाज़ अकाबिर-ए-सलफ़ की उ’म्रें एक सौ बीस बरस की लिखी हुई हैं, या इस से ज़ियादा कही गई हैं, उनसे क़त-ए’-नज़र कर के मैं अपने ज़ऐडा माना में ही ऐसे बुज़ुर्गों के नाम बता सकता हूँ जिनकी उ’म्रें एक सौ बीस बरस या इस से ज़ियादा हुईं, हज़रतुल उस्ताज़ मौलाना अल-हाफ़िज़ अल-सैयद फ़र्ज़ंद अली नक़्शबंदी मुजद्ददी देहलवी सुम्मल मदनी अलैहिर्रहमा के शैख़-ए-तरीक़त हज़रत-ए-अक़दस सय्यद मुहम्मद हबीबुल्लाह शाह साहब अलैहिर्रहमा की उ’म्र एक सौ तेईस बरस की हुई, आप अपने पीर के बारे में तहरीर फ़रमाते हैं जो किताब ख़ज़ीनतुल-बरकात में मरक़ूम है-

    ”अज़ फ़ज़ाइल-ओ-करामात-ओ-बरकात-ए-इशां हमीं क़दर नविश्त: मी-शवद कि बावजूद-ए-ज़ोफ़-ए-क़ुवा-ओ-किबर-ए-सिन कि यक सद-ओ-पांज़दह ता ईं तारीख़ कि सन हज़ार-ओ-सेह सद-ओ- नोह हिज्री अस्त रसीद: क़ियाम ब-कसरत-ए-नवाफ़िल-ओ-ताआ’त-ओ-इख़्तियार-ए-अज़ीमत बर रुख़्सत-ओ-इस्तिक़ामत बर शरीअ’त-ओ-इत्तिबा-ए-सुन्नत मी-दारंद।

    इस किताब ख़ज़ीनतुल-बरकात की तसनीफ़-ओ-इशा’अत के बरसों बा’द हज़रत का इंतिक़ाल तारीख़27 मुहर्रम सन1318 में हुआ, इस हिसाब से हज़रत की उ’म्र सन1318 में एक सौ बाईस बरस की या उस के लग भग मगर एक सौ बाईस बरस से यक़ीनन ज़ियादा हुई, हज़रत मौलाना फ़ज़्लुर्रहमान अलैहिर्रहमा की दराज़ी-ए-उ’म्र पोशीदा नहीं, अगर तलाश-ओ-तजस्सुस से काम लिया जाये तो उस वक़्त भी ऐसे मुअ’म्मरीन मिलेंगे जिनकी उ’म्रें सौ बरस और सौ बरस से ज़ियादा होंगी, होश-ओ-हवास की के साथ क़ुव्वत-ए- रफ़्तार-ओ-गुफ़्तार भी होगी, ज़ार-ओ-आग़ा तुर्क का हाल अंग्रेज़ी और हिन्दुस्तानी अख़बारों में छपा था, उसकी उ’म्र सन1931 में एक सौ सत्तावन साल की थी, राक़िमुल-हुरूफ़ भी एक सौ बीस बरस से ज़ियादा उ’म्र के आदमी को देखा है, और सौ बरस के लगभग या इससे ज़्यादा उ’म्र के चंद अश्ख़ास को देखने की नौबत आई है, मेरे मख़दूम और हज़रतुल-उस्ताज़ के हमनाम मौलाना शैख़ फ़र्ज़ंद अ’ली साकिन सरैया ज़िला’ दरभंगा जो उनके पीर भाई थे सतानवे बरस की उ’म्र में बावजूद इस के कि एक-बार फ़ालिज का मरज़ हो गया था, इससे बिलकुल सेहत पाकर अक्सर सैर-ओ-सियाहत में मसरूफ़ रहते थे, मेरे ग़रीब-ख़ाना पर भी बारहा तशरीफ़ लाते थे, उनको देखकर यक़ीन होता था कि अकाबिर-ए-सलफ़ की दराज़ी-ए-उ’म्र-ओ-सेहत-ए-क़ुवा का जो ज़िक्र किताबों में लिखा है वो बिलकुल सच है, अगर ख़ालिक़-ए-काएनात ने उनकी उ’म्र एक सौ बीस बरस की मुअ’य्यन की होती तो उस उ’म्र को पहुंच कर भी वो ऐसे ही क़वी और सहीह रहते, मगर अफ़्सोस कि सौ बरस तक पहुंच सके कलकत्ता के सफ़र से वापस आने पर मरज़-ए-फ़ालिज दुबारा होने पर इंतिक़ाल कर गए, रहिमहुल्लाहु अ’लैह, ख़ुद शैख़ ने एक अ’जमी के मुतअ’ल्लिक़ गुलिस्तान में एक हिकायत बयान की है कि वो जामे-ए-दमिश्क़ में बैठे चंद उ’लमा के साथ बह्स में मशग़ूल थे कि एक जवान आया उसने कहा:

    “दरमियान-ए-शुमा कसे हस्त कि ज़बान-ए-फ़ारसी दानद, इशारा ब-मन कर्दंद, गुफ़्तम ख़ैर अस्त, गुफ़्त पीरे सद-ओ-पंजाह साल: दर हालत-ए-नज़ा’अस्त-ओ-चीज़े मी-गोयद कि मफ़्हूम नमी-गर्दद, अगर ब-करम क़दम-रंज: फ़रमाई मुज़्द याबी, अलख़।

    शैख़ ने अपने ख़ानदान के एक पीर-ए-कुहन-साल का ज़िक्र एक क़िता’ में किया है जो उनके दीवान में मौजूद है, दो शे’र उस क़िता’ के यहाँ पर लिखे जाते हैं:

    पीरे अंदर क़बील:-ए-मा बूद

    कि जहाँ-दीद: तर ज़े अ’न्क़ा बूद

    सद-ओ- पंज: बज़ीस्त बा सद-ओ-शस्त

    बा’द अज़ां पुश्त-ए-ताकतश ब-शिकस्त

    मालू’म होता है कि शैख़ के क़बीला के अ’लावा और लोगों की उ’म्रें भी इ’राक़-ए-अ’जम में ज़ियादा हुई हैं, शहर-ए-शीराज़ जो शैख़ का जन्म-भूम था इस में एक पीर-ए-कुहनसाल का ज़िक्र ज़िमनन बोसतान की एक हिकायत में गया है, फ़रमाते हैं

    शनीदम ज़े पीरान-ए-शीरीं-सुख़न

    कि बूद अन्दरीं शहर पीर-ए-कुहन

    बसे दीद: शाहाँ-ओ-दौरान-ए-अम्र

    सर-आवुर्दा उ’म्रे ज़े तारीख़-ए-अ’म्र

    अ’मर से अ’मर बिन लैस मुराद है, जो सफ़ारियों में नामी बादशाह गुज़रा है, इसकी जामे-ए-अ’तीक़ शीराज़ में मशहूर इ’मारत थी, उसकी वफ़ात तीसरी सदी हिज्री के अख़ीर में हुई, अब ग़ौर करना चाहिए कि शैख़ के ज़माना से अ’मर लैस के ज़माना के दरमियान तीन सदियाँ हैं, इन तीन सदियों के दरमियान सिर्फ़ दो पीरान-ए-कुहनसाल का वास्ता पड़ता है, यानी एक पीर-ए-कुहन-साल वो है जिसने इस पीर-ए-कुहन-साल का हाल बयान किया जिसने बहुत से बादशाहों और उनकी हुकूमतों को देखा था, ख़ासकर अ’मर बिन लैस की तारीख़ पर एक उ’म्र सर्फ़ की थी, अगरचे साफ़ तौर पर नहीं लिखा है, मगर शे’र पढ़ने से मुतबादिर यही होता है कि उसने अ’मर बिन लैस का ज़माना देखा था, उसके हालात उस को बहुत याद थे, अब इन दोनों बूढूँ की उ’म्रें क़ियास करो क्या होंगी, फिर शैख़ की उ’म्र पर ग़ौर करो कि जिस वक़्त ये रिवायत शैख़ ने सुनी होगी शैख़ की क्या उ’म्र होगी, अगरचे शैख़ की उ’म्र का पता तो नहीं चल सकता किस उ’म्र में उन्होंने सुना मगर इन दोनों बुड्ढों की उ’म्रें यक़ीनन एक सौ बीस बरस से बहुत ज़ियादा हुई होंगी।

    इन हवालों से ये साबित होता है कि शैख़ का एक सौ बीस की उ’म्र पाना मुहाल-ओ-ना-क़ाबिल-ए-यक़ीन नहीं।

    शैख़ के हालात में दौलत शाह समरक़ंदी ने लिखा है कि वो हज़रत ग़ौसुल-आ’ज़म सय्यदना अ’ब्दुल-क़ादिर जीलानी के मुरीद थे, मौलाना हाली इसको ग़लत समझते हैं , मैं मानता हूँ कि दौलत शाह ने ग़ौर-ओ- तहक़ीक़ कर के ये तज़्किरा नहीं लिखा है,मगर इस के साथ ये भी गुमान नहीं कर सकता कि दौलत शाह ने क़सदन झूट तसनीफ़ कर के हालात लिखे हैं, उसने किसी से सुनकर या किसी तज़्किरा में देखकर लिखा होगा वो लिखता है”। दर सोहबत-ए-शैख़ अ’ब्दुल क़ादिर अ’ज़ीमत-ए-हज नमूद-ओ-बा’द अज़ां गोयन्द चहार नौबत हज कर्द: बेशतर पियादा ब-ग़ज़ा-ओ-जिहाद ब-तरफ़-ए-रुम-ओ-हिन्द रफ़्त: मौलाना हाली के ग़लत समझने की वजह ये हुई है कि हज़रत की रेहलत सन561 हिज्री में हुई थी, अगर हज़रत की मुलाक़ात शैख़ के साथ मान ली जाये , तो फिर शैख़ की उ’म्र को एक सौ बीस बरस से बहुत ज़ियादा मान लेना पड़ेगा, इसलिए इस बात का यक़ीन कर के शैख़ की उ’म्र एक सौ बीस बरस से ज़ियादा नहीं हुई थी, इस वाक़िआ’ का इन्कार किया है, फ़िल-हक़ीक़त अगर शैख़ की उ’म्र एक सौ बीस बरस से ज़ियादा साबित हो सके तो बेशक इस वाक़िआ’ का इन्कार दुरुस्त होगा, और दौलत शाह की रिवायत ग़लत होगी मगर तहक़ीक़ करने से ये बात पाया-ए-सुबूत को पहुंच जाएगी कि शैख़ की उ’म्र एक सौ बीस बरस से ज़ियादा थी, इसके अ’लावा ये भी ग़ौर करना चाहिए कि ख़ालिक़-ए-काएनात ने इन्सान की उ’म्र की हद मुक़र्रर नहीं की है जिस तरह उसको अशरफ़-उल-मख़्लूक़ात बनाया है उसी तरह बा’ज़ ख़साइस ख़ास अ’ता फ़रमाए हैं, जो दूसरे जानदारों को नहीं दिए, मिन-जुमला इन ख़साइस के ये भी है कि इसकी उ’म्र की कोई हद मुक़र्रर नहीं की है, कोई कम-उ’म्री में मरता है कोई बड़ी उ’म्र पाता है कोई इतनी बड़ी उ’म्र पाता है कि दूर दूर उसका जवाब नहीं मिलता।

    मैंने गुलिस्तान के जितने क़लमी नुस्खे़ देखे सिवाए दो एक के सब नुस्ख़ों में इस तरह लिखा है, “अ’ब्दुल-क़ादिर गिलानी रहमतुल्लाह अ’लैह दीदम,एक नुस्ख़ा 1002 का है , उसमें भी यही लिखा हुआ है ,क़दीम–रीन नुस्ख़े में भी यही लिखा देखा है, मत्बुआ’त-ए-मुख़्तलिफ़ा में भी यही छपा देखा है, मगर एक नुस्ख़ा क़दीम-तर ज़माना का है जो अस्ल शैख़ के दस्त-ए-ख़ास के क़लमी नुस्ख़ा की नक़ल है, इसमें “दीदंद लिखा है। मैं बचपन में गुलिस्तान अपने उस्ताद मौलवी हकीम सय्यद मीर लखनवी मरहूम से पढता था, मुझे ख़ूब याद है कि इस में भी दीदंद’ लिखा था, मैंने यही पढ़ा था, इस के अ’लावा नुस्ख़ा मतबूआ निज़ामी में भी दीदंद’’ लिखा है, क़दीम मत्बूआत में ग़ालिबन दीदंद’’ छपा है, मगर जितने क़लमी और मत्बूआ’ ईरानी ख़त या बंबई के मत्बूआ’ नुस्खे़ देखने में आए सब में दीदम है,मैं इस दीदम की क़िराअत को सहीह नहीं मानता मगर ये ख़याल करना चाहिए कि मैं हज़रत शैख़ की मुलाक़ात की रिवायत को ग़लत समझता हूँ, हाँ गुलसिताँ में जो हिकायत लिखी है, उस में दीदंद को सहीह और “दीदम’’ को ग़लत ख़याल करता हूँ, इस मौक़ा’ पर शैख़ की मुलाक़ात हज़रत से साबित नहीं होती।

    अ’ल्लामा शिबली मरहूम को एक सौ बीस बरस की उ’म्र ख़िलाफ़-ए-क़ियास मा’लूम हुई, इस वजह से शैख़ की तरफ़ इस ग़लती को मंसूब किया कि शैख़ ने बजाय अ’लाउद्दीन तकश ख़्वारिज़्म शाह, महमूद ख़्वारिज़्म शाह का नाम लिखा है, हालाँकि महमूद शाह ख़्वारिज़्म का नाम ही लिखना शैख़ का (बशर्ति के इस नाम का बादशाह ख़्वारिज़्म शाहिया बादशाहों में गुज़रा हो) इस बात की दलील है कि शैख़ की उ’म्र ज़ियादा हुई थी क्योंकि कोई सादिक़ुल-क़ौल शख़्स इक़रार करे कि मैंने फ़ुलां बादशाह का ज़माना पाया, उस को देखा और कोई मुहाल-ए- अक़्ली दरमियान हो तो इस से इन्कार करने की कोई वजह नहीं, इसको मानना ही पड़ेगा मगर हक़ीक़त ये है कि इस नाम का कोई बादशाह ख़्वारिज़्म शाहियों में नहीं मा’लूम होता है, तारीख़-ए-गुज़ीदा में किसी ख़्वारिज़्म शाही बादशाह का नाम महमूद शाह ख़्वारिज़्म नहीं लिखा है, इस तारीख़ का मुसन्निफ़ ख़्वारिज़्म शाहियों के क़रीबुल-अ’हद ज़माना में गुज़रा है, अगर कोई बादशाह इस नाम का होता तो ज़रूर लिखता।

    मेरी तहक़ीक़ में ये बादशाह मुहम्मद बिन तकश ख़्वारिज़्म शाह है, शैख़ ने भी गुलिस्तान में मुहम्मद ख़्वारिज़्म शाह लिखा है, ये वही बादशाह है जिसने सन614 में नासिर ख़लीफ़ा-ए-बग़दाद पर चढ़ाई की थी, उसका इरादा था कि अ’ब्बासी ख़ानदान के इ’वज़ एक सय्यद आ’ली ख़ानदान अ’ला-उल-मुल्क तिरमिज़ी को ख़लीफ़ा बनाए, मगर रस्ता में इस क़दर बर्फ़ पड़ी कि लश्कर को सख़्त नुक़्सान पहुंचा, उस को वापस होना पड़ा, उसके थोड़े ज़माना के बा’द फ़ितन-ए-तातार का आग़ाज़ हुआ, शैख़ गुलिस्तान में यूं फ़रमाते हैं-

    दर साले कि सुल्तान मुहम्मद ख़्वारिज़्म शाह ब-ख़ता बरा-ए-मस्लहते सुल्ह इख़तियार कर्द, ब-जामे-ए- काशग़र दर-आमद पिसरे दीदम अलख़’’

    अब देखना चाहिए कि ये सुल्ह किस सन में हुई, इस सुल्ह का ज़िक्र तारीख-ए-जहाँ-कुशा-ए-जोवैनी में इस तरह लिखा है:-

    “दर अस्ना-ए-आँ ख़बर रसीद कि लश्कर-ए-ख़ताए ब-दर-ए-समरक़ंद आमद:-अस्त,-ओ- समरक़ंद रा हिसार दाद: -अंद, सुल्तान (मुहम्मद ख़्वारिज़्म शाह) हम अज़ जुन्द बदाँ तरफ़ मुतवज्जिह शुद-ओ-ब-जवानिब-ए- मुल्क रसूलान फ़रिस्ताद-ओ-तमामत-ए-लश्कर-हा रा कि दर अतराफ़ दाशत बाज़ ख़्वांद–ओ-अज़ ममालिक-ए-हश्र ख़्वास्त-ओ-मुतवज्जिह-ए-समरक़ंद शुद-ओ-लश्करख़ताए मुद्दतहा बर दर-ए-समरक़ंद बर आब-ए रूद-ख़ाना-ए-लश्कर-गाह साख़्त:-बूदंद-ओ-हफ़्ताद नौबत-ए-जंग कर्द: बैरून-ए-यक नौबत कि ग़ालिब गश्त: बूदंद-ओ-लश्कर-ए-समरक़ंद रा दर शहर रांद: मक़हूर बूद:-अंद-ओ-लश्कर-ए-इस्लाम मंसूर… (तारीख़-ए-जहाँ- कुशा-ए-जोवैनी मत्बूआ’ ब्रेल लीडन सफ़हा86 जिल्द-ए-सानी)

    जहाँ-कुशा के मुसन्निफ़ अ’लाउद्दीन अ’ता मलीक जोवैनी ने जो शैख़ सा’दी के ममदूह भी हैं, अपनी किताब में अक्सर मवाक़े’ पर सन नहीं लिखा है, नहीं मा’लूम हो सकता है कि किस सन में सुल्ह वुक़ू’ में आई मगर क़ियास ये है कि ये मुसालहत सन606 और614 सन के दरमियान किसी साल वाक़े’ हुई हुई होगी, क्योंकि सन606 के पहले ख़्वारिज़्म शाह ने गुरू ख़ान के एलची को उसकी गुस्ताख़ी पर क़त्ल कर दिया था, बिना-ए-मुख़ासमत-ए-ख़ान ख़ता गुरू ख़ान से यही हुई थी, इसके बाद लड़ाई और सुल्ह हुई होगी, ग़ालिबन ये सुल्ह सन607 या सन608 में हुई तो शैख़ का वुरूद काशग़र में उसी साल में हुआ होगा, अगर शैख़ की उ’म्र एक सौ बीस बरस यक़ीन कर ली जाये तो उस वक़्त शैख़ की उ’म्र छत्तीस सैंतीस36،37 साल होगी, मगर मेरा क़ियास है कि इस से ज़्यादा उ’म्र होगी।

    किसी साहिब-ए-कमाल का अ’हद-ए-शबाब में शोहरत-पज़ीर होना चंदाँ हैरत की बात नहीं, इसकी नज़ीर कुतुब-ए-तारीख़ में मिलेगी, शैख़ की अ’ज़मत और शाइ’री की शोहरत उनके ज़माना में ऐसी आ’लमगीर हुई कि एशिया का वो हिस्सा जहाँ की ज़बान फ़ारसी नहीं थी वहाँ भी शैख़ की ज़ात आफ़ात की तरह मशहूर थी कि मदरसा के लड़के बच्चे उनसे वाक़िफ़ थे, अलबत्ता ये सख़्त तअ’ज्जुब की बात है कहाँ शीराज़ कहाँ काशग़र, इस हिकायत से ये भी साबित होता है कि उस ज़माना का मज़ाक-ए-इ’ल्मी कितना बुलंद था कि इ’ल्म-ओ-अदब-ओ-शाइ’री का ज़ौक़ हर तालिब-ए-इ’ल्म के रग-ओ-पै में सरायत कर गया था, दर-हक़ीक़त उस वक़्त के मुसलमानों का ये बड़ा कारनामा है कि मुल्क पर क़ब्ज़ा काफ़िरों ,बुत परस्तों का था, तरह तरह की मुसीबतों के साथ आए दिन तब्दीली-ए-हुकूमत होती रहती थी जिससे अमन-ओ-अमान जो ज़रीया’ इतमीनान-ओ-तरक़्क़ी का है वो मफ़क़ूद था, फिर भी मुसलमान अपनी मज़हबी ज़बान की हिफ़ाज़त अपनी जान-ओ-माल से बढ़कर रते रहते थे, इसी वजह से उनका तमद्दुन –ओ-मज़हब क़ाइम रहा, और सिर्फ़ क़ाइम रहा बल्कि काफ़िरों बुत-परस्तों ने उनका मज़हब-ओ-तमद्दुन इख़्तियार किया, और इस्लाम और मुसलमानों की तरक़्क़ी के ख़्वाहाँ रहे।

    सुल्ह-ए-ख़ताए-ओ-ख़्वारिज़्म शाह का ज़िक्र इसलिए किया गया कि शैख़ का उस ज़माना में काशग़र में पहुंचना मुसल्लम है, मेरे नज़दीक ये वाक़िआ’ सन607،या सन608 में तस्लीम किया जाये तो ये भी तस्लीम करना पड़ेगा कि शैख़ की शाइरी की शोहरत और अ’ज़मत उस ज़माना में हो चुकी थी, जिस ज़माना में सा’द बिन अबू-बक्र पैदा भी नहीं हुआ था, बल्कि अताबुक अबू-बक्र आ’लम-ए-तिफ़्ली-ओ-शाहज़ादगी में था ऐसी हालत में शैख़ का तख़ल्लुस शाहज़ादा सा’द बिन अबू-बक्र के नाम पर रखना बिल्कुल मुहाल है, ग़ालिबन शैख़ ने इसी सुल्ह के मुतअल्लिक़ इस शे’र में इशारा किया है-

    सुल्हस्त मियान-ए-कुफ़्र-ओ-इस्लाम

    बा मा तू हनूज़ दर नबर्दी

    दूसरा वाक़िआ’ जिससे शैख़ की उ’म्र का अंदाज़ा होगा वो अ’ल्लामा अबुल-फ़र्ह इब्न-ए-जौज़ी का तलम्मुज़ है, अ’ल्लामा इब्न-ए-जौज़ी ने सन597 हिज्री में इंतिक़ाल किया था ज़ाहिर है कि उनकी वफ़ात से बहुत पहले उनसे शरफ़-ए-तलम्मुज़ शैख़ को हासिल हुआ शैख़ ने अपना वाक़िआ’ गुलिस्तान में इस तरह पर तहरीर फ़रमाया है:-

    चंदां कि मरा शैख़-ए-अजल्ल अबुल-फ़र्ह इब्न-ए-जौज़ी रहमतुल्लाह अ’लैह बी-तर्क-ए-समाअ’ फ़र्मूदे –ओ-ब-ख़ल्वत-ओ-उ’ज़्लत इशारत कर्दे ‘उंफ़ुवान-ए-शबाबम ग़ालिब आमदे-ओ-हवा-ओ-हवस् तालिब नाचार ब-ख़िलाफ़-ए-राय मुरब्बी क़दमे चंद ब-रफ़्ते-ओ-अज़ समाअ-ओ-मुख़ालतत हज़्ज़े बर-गिरफ़्तमे-ओ-चूँ नसीहत-ए-शैख़म याद आमदे गुफ़्तमे

    क़ाज़ी गर बा मा नशीनद बर फ़िशानद दस्त रा

    मुहतसिब गर मय ख़ुरद मा’ज़ूर दारद मस्त रा

    फिर आगे चल कर क़व्वाल की बद-आवाज़ी की मुज़म्मत की है, फिर फ़रमाते हैं:

    बामदादां ब-हुक्म-ए-तबर्रुक दस्तार अज़ सर-ओ-दीनार अज़ कमर ब-कुशादम पेश मुग़न्नी ब-निहादम दर कनार गिरफ़्तम व-बे शुक्र गुफ़्तम याराँ इरादत-ए-मन दर हक़-ए-वय ब-ख़िलाफ़-ए-आ’दत दीदंद-ओ-बर ख़िफ़्फ़त-ए-अ’क़्लम निहुफ़्त: ब-ख़न्दीदंद, यन के अज़ां मियान ज़बान-ए-तअर्रुज़ दराज़ कर्द-ओ-मलामत कर्दीदन आग़ाज़ कि ईं हरकत मुनासिब-ए-राय ख़िरदमंदान न-कर्दी कि ख़िर्क़ा-ए-मशाइख़ ब-चुनीन मुतरिबे दादन कि हम: उ’म्रश दिरमे दर कफ़ न-बूद: अस्त-ओ-क़राज़ा दर दफ़्।

    गुफ़्तम ज़बान-ए-तअ’र्रुज़ मस्लहत आनस्त कि कोताह कुनी ब-हुक्म आँ कि मर करामत-ए-ईं शख़्स ज़ाहिर शुद, गुफ़्त बर कैफ़ियत-ए-आँ वाक़िफ़ गर्दां ता हम चुनीन तक़र्रुब नुमाईम-ओ-बर ख़ताईस्त कि कर्दम इस्तिग़फ़ार कुनम गुफ़्तम ब-इल्लत आँ कि शैख़-ए-अजल्लम बारहा ब-तर्क-ए-समाअ’ फ़र्मूद: अस्त-ओ-मौइतज़हा-ए-बलीग़ गुफ़्ता…

    ये हिकायत शैख़ ने अपने अय्याम-ए-जवानी की बयान की है जिसमें साठ सत्तर बरस का ज़माना गुज़र चुका था, इस हिकायत के हर जुमला पर ग़ौर किया जाए तो ज़ाहिर होगा कि शैख़ पर अ’ल्लामा इब्न-ए- जौज़ी की ख़ास नज़र-ए-शफ़क़त-ओ-मेंहरबानी थी जिस तरह शफ़ीक़ और मुदब्बिर उस्ताद तलबा की जमाअ’त में से जिन तालिब-इल्मों को लाइक़-ओ-साहिब-ए-मज़ाक़-ए-सलीम जानता है, उन पर तवज्जोह ज़ियादा करता है, रोक-टोक से उनके अख़्लाक़ को दुरुस्त करता रहता है, यही मुआ’मला अ’ल्लामा इब्न-ए-जौज़ी का शैख़ के साथ था, ये भी यक़ीन होता है कि इस वाक़िआ’-ए-समाअ’ के वक़्त शैख़ का ज़माना तालिब-इ’ल्मी की हद से गुज़र चुका था,उनका शुमार तबक़ा-ए-मशाइख़ में हो चुका था, जब भी उनके दोस्तों ने ख़िर्क़ा देने पर ए’तराज़ किया ये दस्तूर मशाइख़ का है कि जब क़व्वाल की क़व्वाली से महज़ूज़ होते हैं और वो वक़्त समाअ’ का ख़ुश गुज़रता है तो साहिब-ए-वज्द-ओ-हाल अपना लिबास क़व्वाल के नज़्र करता है कि उस की बदौलत वक़्त ख़ुश गुज़रा और फ़ैज़-ए-रुहानी ब-वसीला-ए-क़व्वाल हासिल हुआ।

    शैख़ ने अपनी दस्तार दूसरे ख़्याल से क़व्वाल को इनाय’त फ़रमाई कि ऐसे मुरब्बी उस्ताद की नसीहत का कुछ असर हुआ मगर क़व्वाल की बद-आवाज़ी की बदौलत समाअ से तौबा करनी पड़ी, और उस का शुक्रिया अदा करना पड़ा, इस हिकायत से ये भी साबित होता है कि शैख़ और अ’ल्लामा के दरमियान ज़माना-ए-दराज़ तक राबता सोहबत-ओ-नसीहत का क़ाइम रहा होगा, मुम्किन है कि ये वाक़िआ’ अ’ल्लामा मौसूफ़ को ज़िंदगी में शैख़ के साथ गुज़रा हो, जुमला “बारहा फ़र्मूद: अस्त” हमारे इस ख़याल की ताईद करता है।

    शैख़ की उ’म्र एक सौ बीस बरस इसी वजह से बा’ज़ मुहक़्क़िक़ीन ने क़ुबूल करली है कि अ’ल्लामा इब्न-ए-जौज़ी की शागिर्दी बग़ैर इस हद तक उनकी उ’म्र क़ुबूल किए दुरुस्त नहीं मानी जा सकती, मगर एक दिक़्क़त ये है कि शैख़ की उ’म्र अ’ल्लामा इब्न-ए-जौज़ी के साल-ए-वफ़ात तक जो सन597 है26 बरस की ठहरती है, और ये उ’म्र तालीम-ओ-तर्बियत-ओ- अख़्ज़-ए-फ़ैज़-ए-सोहबत के लिए काफ़ी समझी जा सकती है, लेकिन ये मानना ज़रा मुश्किल है कि अ’ल्लामा इब्न-ए-जौज़ी की वफ़ात के दस बरस बा’द वो काशग़र में जाते हैं और वहाँ अपनी शोहरत –ओ-अ’ज़मत बच्चा बच्चा के दिल में पाते हैं, इतनी क़लील मुद्दत में इतनी शोहरत दूर दूर मुल्कों में क्यूँ-कर हो सकती है, ला-मुहाला उन की उ’म्र अ’ल्लामा इब्न-ए- जौज़ी की वफ़ात के वक़्त सन597 में26 बरस से ज़ियादा होगी।

    अब शैख़ का एक और वाक़िआ जो निहायत अहम है ख़ुद शैख़ की ज़बान से लिखता हूँ जिससे ज़ाहिर होगा कि शैख़ सलीबी लड़ाईयों के ज़माना में ई’आईयों की क़ैद में पड़ गए थे, हलब के एक रईस ने उनको पहचाना, और कुछ फ़िद्या देकर उनको क़ैद-ए-फिरंग से नजात दिलाई, गुलिस्तान में तहरीर फ़रमाते हैं:-

    “अज़ सोहबत-ए-यारान-ए- दिमशक़म मलामते पदीद आमद: बूद, सर दर बयाबान-ए-क़ुद्स निहादम-ओ- बा हैवानात उन्स गिरफ़्तम, ता-वक़्ते कि असीर-ए-क़ैद-ए-फिरंग शुदम,-ओ-दर ख़ंदक़-ए-तराबुलूस मरा बा-जहूदां ब-कार-ए-गिल दाश्तनद यके अज़ रुऊसा-ए-हलब मरा कि बा साबिक़ा मारिफ़ते बूद गुज़र कर्द –ओ-ब-शनाख़्त, गुफ़्त ईं चे हालत अस्त कि मूजिब-ए-मलामत अस्त गुफ़्तम चे गोयम।

    हमी-गुरेख़्तम अज़ मर्दुमाँ ब-कोह-ओ-ब-दश्त

    कि अज़ ख़ुदाए न-बूदम ब-दीगरे पर्दाख़्त

    क़ियास कुन कि चे आ’लिम-ए-बूद दरीं साअत

    कि दर तवील-ए-नामर्दुमाँ ब-बेहतरदद साख़त

    बर हालत-ए-मन रहमत आवुर्द-ओ-ब-दह दीनार अज़ क़ैद-ए- फिरंगम बाज़ ख़रीद-ओ- बा-ख़्वेशतन ब-हलब बुर्द।

    शैख़ ने जिस ज़माना में शहर-ए-दमिश्क़ को छोड़कर बियाबान में रहना शुरू’ किया था ग़ालिबन ये वही ज़माना होगा, जबकि मुसलमानों और ई’साइयों में जंग जारी थी, तरफ़ैन के आदमी अगर मुख़ालिफ़ फ़रीक़ के नज़र पड़ जाते होंगे तो वो उनको क़ैद कर लेता होगा, इसी वजह से शैख़ ने आबादी को छोड़कर बियाबान में रहना पसंद किया, मगर इस से बदतर हालत हो गई कि दुश्मन की क़ैद में पड़ गए, शैख़ को जो रुहानी तकलीफ़ इस कैद-ए- फ़िरंग से पहुँचती थी वो क़िता’-ए-मज़कूर से ज़ाहिर है, सलीबी ई’साइयों के ज़ुल्म-ओ-सितम से तारीख़ के औराक़ भरे पड़े हैं, ख़ुद ई’साई मुअर्रिख़ीन इन ई’साई जंगजूयों की सख़्त मज़म्मत करते हैं, डाक्टर लीबान मशहूर मुस्तश्रिक़ फ़्रांसीसी ने अपनी बेनज़ीर किताब तारीख़-ए-तमद्दुन-ए- अ’रब में जहाँ पर सलीबी ई’साइयों की शक़ावत और बद-अफ़आ’ली का हाल लिखा है वहाँ पर लिखते हैं कि शैख़ सा’दी ने उन्हीं की निस्बत कहा है कि उन्हें आदमी कहना इन्सानियत के लिए आ’र है, उल-ग़र्ज़ जंग-ए-सलीबी के मशहूर फ़ातेह सुल्तान सलाहुद्दीन जब बैतुल-मुक़द्दस को ब-तारीख़27 रजब सन583 हिज्री फ़त्ह करने के बा’द दूसरे शहरों को फ़त्ह करता रहा और ई’सइयों के पास सिर्फ़ सवाहिल और शाम का कुछ हिस्सा रह गया था, तो ई’साइयों ने सुल्ह कर ली, सुल्ह के बा’द फ़रीक़ैन के लोग एक दूसरे फ़रीक़ के मुल्क में आमद-ओ-रफ़्त करने लगे, और दोनों फ़रीक़ (यानी ई’साइयों और मुस्लमानों के)शहर अमन-ए-सलामती में एक समझे जाने लगे तो फिर ये मुसीबत जाती रही, ये सुल्ह बुध के दिन22 शा’बान सन588 मैं हुई, क़ाज़ी इब्न-ए-ख़ुलक़ान जो शैख़ सा’दी के मुआ’सिर, लेकिन उ’म्र में शैख़ से बहुत छोटे हैं, अपनी मशहूर तारीख़ में लिखते हैं:-

    हासिल ये कि दोनों के दरमियान सुल्ह हो गई, और इस सुल्ह का इतमाम22 शा’बान सन588 को हुआ, और मुनादी ने इसका ए’लान किया कि अब इस्लामी और ई’साई मुल्क अमन और सुल्ह में बराबर हैं तो जिस फ़रीक़ का जो आदमी चाहे, दूसरे फ़रीक़ के मुल्क में बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर जा सकता है, ये दिन ख़ास हैसियत का था, जिसमें फ़रीक़ैन को वो ख़ुशी हुई जिसका अंदाज़ा अल्लाह तआ’ला फ़रमा सकता है,

    इस इ’बारत को पढ़ने के बा’द यक़ीन होता है कि शैख़ को ये मुसीबत22 शा’बान सन588 से पहले जंग के ज़माना में पेश आई होगी।

    इस वाक़िआ’ को जिस तरह मैंने लिखा है इस पर ये ए’तराज़ हो सकता है कि शैख़ की विलादत सन871 और उनकी उम्र ब-क़ौल अक्सर मुहक़्क़िक़ीन एक सौ बीस बरस बावर करने पर शैख़ की उ’म्र सुल्ह के ज़माना में सन588 सोलह सतरह बरस की ठहरती है जो मुस्तबइ’द-ओ-ख़िलाफ़-ए-क़ियास मा’लूम होती है, मेरा ख़्याल है कि इसी वजह से मौलाना हाली मरहूम ने इस वाक़िआ’ को सातवीं सदी हिज्री और बारहवीं सदी ई’सवी के वस्त में क़ुबूल किया है, मैं कहता हूँ कि उस वक़्त सात सौ बरस पहले के वाक़िआ’त को इस तरह पर फ़ैसल करना जिस तरह आजकल के वाक़ियाआ’त या आज से सौ पच्चास बरस पहले के वाक़िआ’त को फ़ैसल करते हैं, मुहाल है, इसलिए ब-यक़ीन नहीं कह सकते कि ये वाक़िआ’ छठ्ठी सदी के अख़ीर ज़माना का है या सातवीं सदी आग़ाज़ का. तारीख़-ए-गुज़ीदा मतबूआ’-ए-यूरोप चाप-ए- अक्स इस वक़्त मेरे पेश-ए-नज़र है, इस में इसी क़दर लिखा है:

    व-हुवा मुशर्रफ़-उद्दीन मुस्लेह अल-सहीराज़ी –ओ-ब-अताबुक सा’द बिन अबी बक्र सा’द बिन ज़ंगी मंसूब अस्त, ब-शीराज़ दर साबे’ उशर ज़ील-हिज्जा सन-त तिसईन-ओ-सित्ता मेअह दर गुज़श्त, मर्दे साहिब-ए-वक़्त बूद, नज़्म-ओ-नस्र-ए- ख़ूब दारद,-ओ-शहरते तमाम, शेव:-ए-ग़ज़ल बर तमाम शुद।

    “मंसूब से मुराद ये है कि शाहज़ादा सा’द की सरकार से उनको तअ’ल्लुक़ होगा या कुछ वज़ीफ़ा मिलता हो, इस से ये हरगिज़ मुराद नहीं कि उनका तख़ल्लुस शाहज़ादा के नाम से हो, क्या ऐसा मुम्किन है कि एक शाइ’र तो उ’म्र-भर शे’र कहता रहा हो, उसकी शोहरत दुनिया में अच्छी तरह फैल चुकी हो, मगर उसने कोई तख़ल्लुस अपना नहीं रखा हो, अख़ीर उ’म्र में अगर एक नौजवान शहज़ादा के नाम से अपना तख़ल्लुस बनाए ये ना-मुमकिन है, शाइ’र जब शे’र कहने लगता है उसी वक़्त अपना कोई तख़ल्लुस भी रख लेता है, हाँ ऐसा हुआ है कि बा’ज़ शो’रा ने तख़ल्लुस पीछे बदल दिया है, तो जो तख़ल्लुस पहला था, उस को साबिक़ ग़ज़लों भी उसी तरह रहने दिया है, असातिज़ा के कलाम में दोनों तख़ल्लुस वाले अशआ’र मौजूद हैं।

    अ’ब्दुल –वहाब क़ज़वेनी साहिब-ए-मुक़द्दमा ने ये भी लिखा है कि अ’ल्लामा शम्स क़ैस ने कोई शे’र शैख़ का अपनी किताब अल-मो’जम में नहीं लिखा, दूसरे मुआ’सिरीन का शे’र लिखा है, अव्वल तो कमालुद्दीन इस्माई’ल अस्फ़हानी (जो ख़ल्लाक़ुल-मआ’नी के लक़ब से मशहूर है) के सिर्फ़ एक दो शे’र लिखे हैं, अलबत्ता उन के वालिद का एक मुसम्मत जो ना’त में बे-मिस्ल है पूरा नक़ल किया है, शैख़ के कलाम को इस्तिशहादन नहीं लिखने की ये वजह होगी कि शैख़ उस ज़माना में शीराज़ से बाहर रहे, इसको साहिब-ए-मुक़द्दमा ने भी क़ुबूल किया है, लेकिन दूसरी वजह ये है कि ब-वज्ह-ए-मुआ’सिरत के भी एक दूसरे की क़द्र नहीं करते, रश्क की ये कैफ़ियत बड़े बड़े अकाबिर में नुमायाँ होती थी, और अब भी है, शाइ’रों को कौन पूछता है, साहिब-ए-किताबुल-मो’जम ने भी बहुत ही कम मुआ’सिरीन का कोई शे’र लिखा है, जमालूद्दीन अ’ब्दुर्रज़्ज़ाक़ असफ़हानी का मुसम्मत इस वजह से नक़ल क्या होगा कि वो किताब की तहरीर के वक़्त आ’लम-ए-हयात में होंगे, शाइ’रों के रश्क का तो ये हाल है कि शैख़ की शाइ’री और उसकी क़ुबूलियत बे-मिस्ल होने पर भी उस वक़्त के बा’ज़ शाइ’रों ने मज्द हमगर से पूछा कि सा’दी-ओ- इमामी में कौन बड़ा शाइ’र है, मज्द हमगर ने कहा-

    अगरचे ब-नुत्क़ तूती-ए-ख़ुश-नफ़सेम

    बर शकर गुफ़्त:-हा-ए-सा’दी-ए-मगसेम

    लेकिन दर शाइ’री ब-इज्मा’-ए-उमम

    हरगिज़ मन-ओ-सा’दी ब-इमामी न-रसेम

    शैख़ ने इस फ़ैसला को सुनकर फ़रमाया:

    हमगर कि ब-उ’म्र-ए-ख़ुद न-कर्दस्त नमाज़

    शक नीस्त कि हरगिज़ ब-इमामी न-रसद

    पस्त-मज़ाक़ी कि हद हो गई कि शैख़ के कलाम का मुक़ाबला इमामी से किया जाये जिनको आज कोई जानता भी नहीं, वो तो अपने वक़्त में भी ग़ैर मशहूर थे, शैख़ से उनको क्या निस्बत, मगर इस पस्त- मज़ाक़ी और तअ’स्सुब का बाइ’स वही मुआ’सरत-ओ-हम-ज़नामी थी कि एक दूसरे की लियाक़त का अंदाज़ा नहीं कर सकते थे, या करते थे तो ज़बान से उसका ए’तराफ़ नहीं करते थे, हमगर के सिवा हुमाम तबरेज़ी जो हमगर की तरह शैख़ के मुआ’सिर थे और बड़े शाइ’र थे उनको भी इसका रश्क था कहते हैं:

    हुमाम रा सुख़ने दिलफ़रेब-ओ-शीरीनस्त

    वले चे सूद कि बेचार: नीस्त शीराज़ी

    उनको बा’ज़ असातिज़ा ने शैख़ का हम-पल्ला क़रार दिया है मगर आख़िर-कार शैख़ को तर्जीह देना पड़ी, अल-ग़र्ज़ मुआ’सरत की वजह से भी शैख़ का कलाम मुम्किन है कि किताबुल-मो’जम में लिखा गया हो, और अ’क़्ल इसको बावर नहीं करती कि शैख़ का शोहरा तमाम दुनिया में हो और शीराज़ में उनको कम लोग जानते हों जिसकी वजह से साहिबुल-मो’जम को उनकी शाइ’री-ओ-कमाल का इ’ल्म नहीं हुआ।

    शैख़ का नाम मुशर्रफ़ुद्दीन बा’ज़ ने शरफ़ुद्दीन बा’ज़ ने मुस्लेहुद्दीन लिखा है, शैख़ ने सिर्फ़ अपना तख़ल्लुस अपने नाम के इ’वज़ लिखा है, कहीं अपना नाम नहीं लिखा, अहल-ए-कमाल हमेशा अपने लक़ब से और शो’रा अपने तख़ल्लुस से मशहूर होते हैं, उ’न्सुरी, फ़िर्दौसी, मनूचेहरी, निज़ामी, अनवरी, वग़ैरा वग़ैरा का नाम कोई जानता नहीं, ये सब अपने तख़ल्लुस से शोहरा-ए-आफ़ाक़ हुए, इसी तरह शैख़ भी अपने तख़ल्लुस से मशहूर हैं, उनके नसब का हाल किसी किताब से मुझको नहीं मिला,अक्सर अहल-ए-कमाल बावजूद आ’ली-नसब होने के अपने नसब को बयान नहीं करते, उस पर फ़ख़्र करते, शैख़ ने भी कहीं उसका इज़हार नहीं किया, मगर गुमान-ए-ग़ालिब बल्कि यक़ीन ये है कि अ’रबी-उल-नस्ल थे, उनका एक शे’र अ’रबी-उल-नस्ल होने पर दलालत करता है-

    शायद कि ब-पादशह ब-गोऐद

    तुर्क-ए-तू ब-रेख़्त ख़ून-ए-ताजीक

    ताजीक अस्ल में ताज़ीक है जो अ’रबी अ’जम में आकर रह गया, उसकी औलाद को अहल-ए-अ’जम ताजीक कहते थे, इसी बिना पर शैख़ ने आपको ताजीक कहा है।

    उनके ख़ानदान के लोग आ’लिम-ओ-फ़ाज़िल थे, फ़रमाते हैं

    हम: क़बील:-ए-मन आलिमान-ए-दीन बूदंद

    मररा मुअ’ल्लिम-ए- इ’श्क़ तू शाइ’री आमोख़्त

    उनके वालिद-ए-बुजु़र्गवार उन पर निहायत मेहरबान थे, हमेशा उनको साथ रखते थे, एक-बार ये अपने वालिद के साथ ई’द के दिन बाहर निकले, उस वक़्त ये बहुत बच्चा थे, इस हिकायत को बोस्तान में यूं बयान किया है:

    हमी याद दारम ज़े अ’हद-ए-सिग़र

    कि ई’दे बुरूँ आमदम बा पिदर

    ब-बाज़ीच: मशग़ूल-ए-मर्दुम शुदम

    वज़ आशोब-ए-ख़ल्क़ अज़ पिदर गुम शुदम

    बर-आवुर्दम अज़ हौल-ओ-दहशत ख़रोश

    पिदर नागहानम ब-मालीद गोश

    कि शोख़-चश्म आख़िरत चंद-बार

    ब- गुफ़्तम कि दस्तम ज़े दामन मदार

    ब-तन्हा न-दानद शुदन तिफ़्ल-ए-ख़ुर्द

    कि मुश्किल तवाँ राह-ए-ना-दीद: बुर्द

    तू हम तिफ़्ल राही ब-सई फ़क़ीर

    बरू दामन-ए-नेक मरदां ब-गीर

    उनके वालिद बड़े मुदब्बिर और तर्बीयत-ओ- अख़्लाक़ के बड़े माहिर थे।रोक-टोक के साथ उनकी तबीअ’त की शगुफ़्तगी-ओ-दिल-चस्पी का भी ख़याल रखते थे कि बशाशत तर्बीयत की रूह है, उस्ताद को शागिर्द की तबीअ’त का भी ख़्याल रखना ज़रूर होता है, उनके लिए लौह-ओ-दफ़्तर ख़रीद किए तो उनको एक अँगूठी सोने की इनाय’त की, उस ज़माना में भी ये बहुत कम-सिन थे, फ़रमाते हैं:

    ज़े अ’हद-ए-पिदर याद दारम हमी

    कि बारान-ए-रहमत ब-रह बुर्दमी

    कि दर ख़ुर्दियम लौह-ओ-दफ़्तर ख़रीद

    ज़े बहरम यके ख़ातिम-ए-ज़र ख़रीद

    शैख़ अपने वालिद की सोहबत में ज़ोहद-ओ-इ’बादत की तरफ़ बहुत माइल थे, अपने वालिद के साथ रातों को उठकर इ’बादत करते, गुलिस्तान में है:

    ‘’याद दारम कि दर अय्याम-ए-तुफ़ूलियत मुतअ’ब्बिद बूदम शब-ख़ेज़-ओ-मूले-ए-ज़ोहद-ओ-परहेज़ ता-शबे दर ख़िदमत-ए-पिदर नशिस्त: बूदम-ओ-हम: शब दीद: बर हम नज़द: -ओ-मुस्हफ़-ए-मजीद दर किनार गिरफ़्त:-ओ-ताइफ़:ए-गिर्द-ए-मा ख़ुफ़्त: अलख़ (बाब-ए-दोउम)

    बोस्तान में लिखते हैं:

    ब-तिफ़ली दिलम रग़बत-ए-रोज़: ख़ास्त

    न-दानिस्तमे चप कुदास्त–ओ–रास्त

    मगर अफ़सोस कि शैख़ की कम-सिनी में उनके वालिद का इंतिक़ाल हो गया, अपनी यतीमी का हाल बोस्तान में यूं लिखते हैं:

    मन आंगह सर-ए-ताजवर दाश्तम

    कि सुर दर किनार-ए-पिदर दाश्तम

    अगर बर वजूदम निशस्ते मगस

    परेशां शुदे ख़ातिर-ए-चंद कस

    मरा बाशद अज़ दर्द-ए- तिफ़्लाँ ख़बर

    कि दर तिफ़्ली अज़ सर बरफ़्तम पिदर

    गुलिस्तान की एक हिकायत से मा’लूम होता है कि आग़ाज़-ए-जवानी तक शीराज़ में रहे।

    ”वक़्ते ब-जह्ल-ए-जवानी बाँग बर मादर-ए-पीर ज़दम, दिल-आज़ुर्दा ब-कुंजे नशिस्त-ओ-गिरयां हमी-गुफ़्त मगर अय्याम-ए-ख़ुर्दी फ़रामोश कर्दी कि दुरुश्ती मी–कुनी , अलख़ (बाब-ए-शुशम)

    क़रीन-ए-क़ियास ये है कि वाक़ियआ’ शीराज़ से बाहर जाने के पहले का होगा, वर्ना ‘अक़्ल क़ुबूल नहीं करती कि आ’लिम और सूफ़ी हो कर जब शीराज़ वापस आए होंगे तब ऐसी गुस्ताख़ी की होगी।

    शीराज़ इ’ल्म-ओ-दानिश में हमेशा से शोहरा-ए-आफ़ाक़ था, इस शहर का लक़ब दारुल–इ’ल्म था, उनके ख़ानदान में सब आलिम-ओ-फ़ाज़िल थे, बाप कम-सिनी ही में मर चुके थे, माँ ने लाड प्यार से पाला होगा, इब्तिदाई ता’लीम अपने घर में पाई होगी, फिर बग़दाद गए होंगे, उस ज़माना में बग़दाद ऐसा था जैसा इस ज़माना में लंदन, पैरिस या बर्लिन, बग़दाद पहुंच कर मदरसा निज़ामिया में दाख़िल हुए, मदरसा से वज़ीफ़ा मुक़र्रर हुआ, चूँकि निहायत ज़हीन थे, मिज़ाज में ग़ैर-मा’मूली जुर्अत-ओ-हिम्मत थी, इ’ल्म-ओ-तहक़ीक़ का शौक़ फ़ित्री था, तालिब-इ’ल्मों से बहस-ओ-तकरार ख़ूब रहती थी, फ़रमाते हैं:

    मरा दर निज़ामिया रा बूद

    शब-ओ-रोज़ दर बहस-ओ-तकरार बूद

    मर उस्ताद रा गुफ़्तम पुर ख़िरद

    फ़ुलाँ यार बर मन हसद मी-बुरद

    बग़दाद वग़ैरा इराक़-ए-अ’रब-ओ-बिलाद-ए-शाम-ओ- अफ़रीक़ा में ज़ियादा हिस्सा अय्याम-ए-जवानी का बल्कि ज़िंदगानी का सर्फ़ हुआ गुलिस्तान बोसतान वग़ैरा में जो हिकायतें ख़ास कर आप-बीती लिखी हैं वो अक्सर उसी इ’लाक़ा की हैं, दूसरे मुल्कों जैसे हिन्दोस्तान तुर्किस्तान वग़ैरा की भी हैं मगर कम हैं, ममालिक-ए-इस्लामिया इ’राक़-ओ-बिलाद-ए-शाम में निहायत इ’ज़्ज़त के साथ रहते थे बावजूद अ’जमी (यानी अजम में पैदाइश-ओ-बूद बाश) होने के ममालिक-ए-अ’रबिया में तब्लीग़-ओ-वा’ज़ कहते ,अहल-ए-अ’रब गोश-ए-दिल से सुनते, मुलूक-ए-अ’रब उनकी ख़िदमत में हाज़िर हो कर तालिब-ए-दुआ’ होते, ये उन को नसीहत करते चूँकि सय्याही का दाइरा बहुत वसीअ’ था, सैर-ओ-सियाहत में मुख़्तलिफ़ हालतें उन पर गुज़रतीं, अ’हद-ए-सलीबी में कैद-ए-फ़िरंग की मुसीबत झेली, कभी पाँव में जूते नहीं तो नंगे-पाँव फिरे, कभी मो’तकिफ़ हो कर गोशा-नशीं हुए, कभी क़ाज़ी की मज्लिस में इ’ल्मी मुबाहिसा में शरीक हो कर अपने हुस्न-ए-तक़रीर से दाद-ए-फ़साहत-ओ-बलाग़त दी और उ’लमा-ए-मलिस पर ग़ालिब हुए, कभी हिन्दोस्तान में आए तो सोमनात के मंदिर रहे, कभी सूफ़ियों के हल्क़ा में रहे, मज्लिस-ए-समाअ’ में शरीक रहे, उनके ज़माना में बड़े बड़े अकाबिर-ए-फ़न मौजूद थे, ग़ालिबन सबसे उनसे मुलाक़ातें रही होंगी, मगर किसी का नाम नहीं लिखा, अपने असातिज़ा में से सिर्फ़ अ’ल्लामा इब्न-ए-जौज़ी का नाम लिखा है, जिनका ज़िक्र गुलिस्तान में है, अपने पीर का भी नाम लिखा है फ़रमाते हैं:-

    मरा पीर-ए-दाना-ए-मुर्शिद शहाब

    दो अंदर्ज़ फ़रमूद बर रू-ए-आब

    यके आँ कि बर ग़ैर बद-बीं म-बाश

    दिगर आँ कि बर ख़्वेश ख़ुद-बीं म-बाश

    इन दो बुज़ुर्गों के सिवा और किसी का नाम नहीं लिखा है, जिससे उनसे मुलाक़ात होने का यक़ीन किया जाए हज़रत ग़ौसुल आ’ज़म के मुतअ’ल्लिक़ ऊपर लिखा जा चुका है, ये भी नहीं मा’लूम होता कि किस मुल्क में कितनी बार आमद-ओ- रफ़्त का इत्तिफ़ाक़ हुआ मगर ये ज़ाहिर होता है कि एक मुद्दत-ए-दराज़ के बा’द शैख़ ने घर की तरफ़ रुख किया, जब घर पहुंचे हैं तो उस वक़्त अबू-बक्र बिन सा’द ज़ंगी बादशाह था,आपने ये क़िता’ कहा जिसमें मुजमल तौर पर गोया तमाम दुनिया की सैर का मुख़्तसर ज़िक्र कर दिया है, वो क़िता’ ये है-

    वजूदम ब-तंग आमद अज़ जोर-ए-तंगी

    शुदम दर सफ़र रोज़गार-ए-दोरंगी

    जहाँ ज़ेर-ए-पे चूँ सिकन्दर बुरीदम

    चूँ याजूज ब-गुज़श्तम अज़ सद्द-ए-संगी

    चू बाज़ आमदम किश्वर आसूद: दीदम

    ज़े गुरगां बदर रफ़्त: आन तेज़-ए-चंगी

    ख़त-ए- माहरूयाँ चू मुश्क-ए-ततारी

    सर-ए-ज़ुल्फ़-ए-ख़ूबाँ चू दर्अ’-ए-फ़िरंगी

    ब- गुफ़्तम कि ईं किश्वर आसूद: के शुद

    कसे गुफ़्त सा’दी चे शोरीद: रंगी

    चुनाँ बूद दर अ’हद-ए-अव्वल कि दीदी

    जहाने पुर-आशोब-ओ-तश्वीश-ओ-तंगी

    चुनीं शुद दर अय्याम-ए-सुल्तान-ए-आ’दिल

    अताबुक अबू-बक्र बिन सा’द ज़ंगी

    ये तो मा’लूम नहीं हो सकता कि अबू-बक्र बिन सा’द ज़िंदगी के ज़माना में कब शैख़ शीराज़ पहुंचे थे, लेकिन उनके कलाम और उस ज़माना के हालात पर ग़ौर करने से ज़ाहिर होता है कि बग़दाद की तबाही के बा’द भी शीराज़ आए हैं, बग़दाद की तस्ख़ीर के इरादा से हलाकू ख़ान अवाइल-ए-मुहर्रम सन655 में लाओ लश्कर के साथ चला है, ये उस वक़्त कहाँ थे, इस का पता नहीं लगता लेकिन बोस्तान उन्होंने माह ज़ीका’दा सन655 मैं तमाम की, इब्तिदा में शीराज़ आने का हाल लिखा है, अबू-बक्र की मदह भी है।इसलिए यक़ीन करना पड़ेगा कि सन655 हिज्री के माह-ए-ज़ीका’दा में वो अपने शहर में थे, एक शे’र अबू-बक्र बिन सा’द की ता’रीफ़ में है, जिससे पाया जाता है कि हलाकू और अबू-बक्र बिन सा’द में इत्तिफ़ाक़ हो गया है, अबू-बक्र ने रुपए और तहाइफ़ भेज कर अपनी फ़रमां-बर्दारी का इज़हार किया है, इस सबब से हलाकू ने अबू-बक्र बिन सा’द के ममालिक-ए-मक़बूज़ा को हाथ नहीं लगाया। ये हालात तो कुतुब-ए-तारीख़ से मा’लूम होते हैं, शैख़ ने सिर्फ़ इस शे’र में इशारा कर दिया है, कहते हैं-

    तुरा शुद याजूज कुफ़्र अज़ ज़रस्त

    रूईं चू दीवार-ए- अस्कंदरस्त

    मतलब कि सिकन्दर ने लोहे की दीवार बना कर लोगों को याजूज से बचाया था तूने याजूज कुफ़्र (यानी चंगेज़ी कुफ़्फ़ार के बादशाह हलाकू) से बचाया है, फ़िल-हक़ीक़त आ’म मुसलमान उमरा,सुलहा और अशराफ़ के लिए मामन-ओ-मलजा सिर्रफ़ शीराज़ था,या हिन्दोस्तान, मगर हिन्दोस्तान बहुत दूर था, आ’म मुसलमान शीराज़ वग़ैरा ममालिक ज़ेर-ए-हुकूमत-ए-अबू-बक्र बिन सा’द ज़ंगी में पनाह लेते थे,शैख़ ने इसी वजह से ता’रीफ़ की है, अल-ग़र्ज़ ये ठीक पता नहीं लग सकता कि शैख़ किस ज़माना में कहाँ रहे, बोस्तान के बा’द गुलिस्तान सन656 में लिखी, इन दोनों किताबों के तमाम करने के वक़्त वो यक़ीनन शीराज़ में थे लेकिन शैख़ ने अ’रबी में क़सीदा बग़दाद की तबाही पर लिखा है, इस से ये क़ियास करना पड़ता है कि बग़दाद की तबाही या’नी तातारियों के हमला के वक़्त वो बग़दाद में या उसी तरफ़ के किसी शहर या क़र्या में रहे होंगे, मर्सिया के अशआ’र से ये ज़ाहिर होता है कि शाइ’र ख़ुद उसकी बर्बादी देख रहा है, उस वक़्त बग़दाद वग़ैरा की दर्दनाक हालत को किसी क़दर तफ़्सील से लिखा है, इसलिए ये फ़ैसला करना दुश्वार है कि शैख़ बोस्तान और गुलिस्तान लिखते वक़्त यानी655 और सन656 के दरमियान कब तक कहाँ रहे, बहर-हाल ये यक़ीन करना ज़रूरी है कि अपनी दोनों मशहूर-ओ-मक़बूल तसनीफ़ के वक़्त वो अपने वतन शीराज़ में थे, और हमला-ए-तातारी के वक़्त वो बग़दाद में या उसके क़ुर्ब-ओ-जवार में थे, इसका मानना तो ज़रूर है कि सैर-ओ-सफ़र में मुद्दतें गुज़र जाती थीं, तब ये वापस घर की तरफ़ क़दम रख करते थे, बोस्तान में शातिर सिपाहानी की हिकायत है, उस के चंद शे’र लिखता हूँ, जिसमें से कुछ उनके सफ़र-ओ-वापसी-ओ-इम्तिदाद-ए-ज़माना का हाल क़ियास में सकता है, वो अशआ’र ये हैं:

    मरा दर सिपाहाँ यके यार बूद

    कि जंग आवर-ओ-शोख़-ओ-अ’य्यर बूद

    सफ़र नागहम ज़ां ज़मीं दर रबूद

    कि बेशम दराँ बुक़आ’ रोज़ी न-बूद

    क़ज़ा नक़ल कर्द अज़ इराक़म ब-शाम

    ख़ुश-आमद दराँ ख़ाक-ए-पाकम मक़ाम

    दिगर पुर शुद अज़ शाम पैमान:-अम

    कशीद आरज़ू मंदी ख़ान: अम

    शबे सर फ़िरौ बुर्द अंदेश:-उम

    बदल बरगुज़श्त आँ हुनर पेश:-अम

    अलख़।

    इस हिकायत से साफ़ ज़ाहिर होता है कि शैख़ अपने बहादुर जंगजू दोस्त को पहली मुलाक़ात के वक़्त जवान देख चुके थे, जब इस्फ़िहान से शाम आए तो इतने ज़माना दराज़ के बा’द शाम से घर की तरफ़ लौटे और रास्ता में इस्फ़िहान पहुंच कर अपने दोस्त से मुलाक़ात की है कि उस वक़्त उनके दोस्त अज़ कार रफ़्ता बुड्ढे फूस हो गए थे और उनसे जंग तातार का हाल बयान किया, जिसमें वो ख़ुद शरीक हुए थे, ये भी मा’लूम होता है कि शैख़ उस ज़माना में बिलाद-ए-शाम में थे, कि वहाँ से वापसी में जंग के हालात उनको अपने दोस्त से मा’लूम हुए जो अपने पर गुज़रे थे।

    एक मौक़ा’ पर वो शीराज़ आए हैं तो एक क़िता’ लिखा जिसके चंद अशआ’र लिखे जाते हैं, पूरा क़िता’ कुल्लियात में मौजूद है-

    सादी ईनक ब-क़दम रफ़्त-ओ-बसर बाज़ आमद

    मुफ़्टी-ए-मिल्लत-ए-अरबाब-ए-नज़र बाज़ आमद

    तू म-पिन्दार कि आशुफ़्तगी अज़ सर ब-निहाद

    बाज़ बेहोशी-ओ- मस्ती-ओ-ख़बर बाज़ आमद

    दिल बेख़्वेशतन–ओ-ख़ातिर-ए-शोर-अंगेज़श

    हमचुनाँ यादगी-ओ-तन ब-हज़र बाज़ आमद

    सालहा रफ़्त मगर अ’क़्ल-ओ-सुकून आमोज़द

    ता चे आमोख़्त कज़ आँ शेफ़्त:-तर बाज़ आमद

    ख़ाक-ए-शीराज़ हमेश: गुल सैराब देहद

    ला-जरम बुलबुल-ए-ख़ुश-गूए दिगर बाज़ आमद

    बुल-अ’जब बूद कि नफ़से ब-मुरादे ब-रसीद

    फ़लक-ए-ख़ीर-:कश अज़ जौर मगर बाज़ आमद

    अख़ीर उ’म्र में बराबर क़ियाम शीराज़ में रहा होगा, सुल्तान मुहम्मद ख़ान शहीद ने दो बार शैख़ की ख़िदमत में आदमी भेजे कि शैख़ शीराज़ से हिन्दोस्तान में तशरीफ़ लाकर क़ियाम फ़रमाएं, मगर शैख़ ने दोनों बार जो’फ़-ए-पीरी का उ’ज़्र कर के आने से इन्कार किया।

    शीराज़ में घर बनाया था तो ये क़िता’ लिखा:

    हक़ीक़तस्त कि दुनिया सराय आ’रियतस्त

    बरा-ए- नशिस्तन-ओ-बर-ख़ास्तन न-फ़रमायद

    मन ईं मक़ाम रा अज़ बहर-ए-आँ बिना कर्दम

    कि पंज रोज़: बक़ा ए’तिमाद रा शायद

    वज़ ईं क़द्र न-गुरज़स्त मुर्ग़-ओ-माही रा

    ब-क़द्र-ए-ख़्वेश हक़ीर आशियानाए शायद

    शादी उनकी रईस-ए-हलब की दुख़्तर से हुई थी जिसका ज़िक्र ऊपर गुज़र चुका है, फिर उसकी मुफ़ारक़त के बा’द दूसरी शादी की या नहीं, उस ज़माना में बहुत कम तजर्रुद का रिवाज था, फिर शादी ज़रूर की होगी, बोस्तान में एक जगह औ’रतों का ज़िक्र-ओ- मज़म्मत कर के फ़रमाते हैं:

    तू हम जौर बीनी-ओ-बारश कशी

    अगर यक ज़माँ दर किनारश कशी

    यमन के शहर सनआ’ में लड़का उनका मर गया तो उनको उसका ऐसा ग़म हुआ कि होश जाता रहा, ग़ायत-ए-इज़्तिराब में उसकी क़ब्र का पत्थर ऊखेड़ डाला, इस से यक़ीन होता है कि रईस-ए-हलब की दुख़्तर के सिवा और भी बीवी की होगी, पच्चास बरस का ज़माना गुज़रा कि मौज़ा नगर नहसा ज़िला’ पटना में एक ईरानी मआ’ अपनी ईरानी बीवी के कर मुक़ीम रहे, वहीं उनका इंतिक़ाल हो गया, वो अपने को शैख़ की नस्ल से कहते थे।

    शैख़ की तबीअ’त में जोश और बे-बाकी के साथ ख़ुद्दारी-ओ-परहेज़गारी आ’ला दर्जा पर थी, अय्याम-ए-जवानी की बा’ज़ नक़लें अपनी निहायत सफ़ाई से लिखी हैं, उनसे ये ख़साइल-ए-हमीदा साफ़ ज़ाहिर होते हैं, एक हिकायत अपनी इस तरह शुरू’ की है-

    “दर उ’न्फ़ुवान-ए-जवानी चुनाँ कि उफ़्तद दानी बा-शाहिदे सरे-ओ-सिर्रे दाश्तम ब-हुक्म आँ कि ख़ुल्क़े दाश्त तीबुल-अदा।। इत्तिफ़ाक़न ब-ख़िलाफ़-ए-तबा’ अज़ वय हरकते दीदम दामन अज़ दूर कशीदम

    ब-रो हर चे मी-बायदत पेश गीर

    सर-ए-मा न-दारी सर-ए-ख़्वेश गीर

    अलख़ (बाब-ए-पंजुम)

    अगर शाइबा हव-ओ-हवस का होता तो उसकी एक हरकत से इतना ख़फ़ा होते कि दोस्ती तर्क कर देते, दूसरी हिकायत ये है:

    रफ़ीक़े दाश्तम कि सालहा बाहम सफ़र कर्द: बूदेम-ओ- नमक ख़ूर्द:-ओ-हुक़ूक़-ए-ने’मत-ए-बेकराँसाबित शुद: आख़िर ब-सबब अंदके नफ़ा’ अज़ ख़ातिर-ए-मन रवा दाश्त-ओ-दोस्ती सि सिपरी शुद-ओ-बा ईं हम: अज़ हर दो तरफ़ दिलबस्तगी बूद अलख़।

    इन दोनों हिकायतों से ज़ाहिर है कि दोस्ती के पक्के थे, सच्ची मुहब्बत के साथ ख़ुद्दारी थी, मगर दूसरों का मुआ’मला उनके साथ ऐसा था, ग़ालिबन यही वजह थी कि बा-वजूद शोहरत-ओ-अ’ज़मत के कि किसी शाइ;र को नसीब नहीं हुई और शौक-ए-सफ़र-ओ-सियाहत के कि बहुत कम सय्याह शैख़ के बराबर गुज़रे हैं, आ’म लोगों से मिलते-जुलते कम थे, ख़ुद फ़रमाते हैं:

    ब-गोयन्द अज़ीं हर्फ़-गीराँ हज़ार

    कि सा’दी अहलस्त-ओ-आमेज़गार

    शैख़ ने अपनी उ’म्र में अ’जाइब-ओ-ग़राइब-ए-आ’लम-ओ-इंक़िलाब-ए-रोज़गार बहुत देखे, इन सब में फ़ित्ना -ए-चंगेज़ सबसे बड़ा इन्क़िलाब था, उसने ममालिक-ए-इस्लामिया को जो तमद्दुन-ओ-इ’ल्म के मंबा’-ओ- मरकज़ थे, सबको तबाह-ओ-बर्बाद कर दिया, उसकी आग ने तर-ओ-खुश्क सब जला दिया, शैख़ का शहर शीराज़ भी गर्दिश-ए-आसमानी से ना बच सका, ख़ानदान-ए-सलग़रया की तबाही के बा’द तातारी हुकूमत शीराज़ में भी हो गई, मगर शैख़ की अ’ज़मत चंगेज़ियों के दिल में थी, शीराज़ के हाकिम को जो चंगेज़ी था, एक नसीहत-नामा लिखा है, जो शैख़ की कुल्लियात में मौजूद है, मा’लूम होता है वो ख़ुद शैख़ से नसीहत सुनने का ख़्वाहिश-मंद था, शैख़ ने उसकी इरादत-ओ-अ’क़ीदत देखकर उसके नाम से क़सीदा लिखा है, उस के चंद अशआ’र ये हैं:

    जहाँसालार-ए-आ’दिल अनकियानो

    सिपहदार-ए-इ’राक़-ओ-युर्क-ओ-देलम

    कि रोज़-ए-बज़्म बर तख़्त-ए-क्यानी

    फ़रीदूनस्त-ओ-रोज़-ए-रज़्म-ए-रुस्तम

    चंगेज़ ख़ान और उसकी औलाद की सल्तनत में ये अ’जीब बात थी कि उसकी सल्तनत में उ’लमा-ओ- फ़ुज़ला-ए-अहल-ए-इस्लाम बड़े बड़े ओ’हदों पर थे, शम्सुद्दीन साहिब-दीवान-ए-वज़ीर-ए-आ’ज़म थे, दार-ओ-मदार सल्तनत का उन पर था, उनके छोटे भाई अलाउ’द्दीन अ’ता बग़दाद वग़ैरा इ’राक़ अ’रब के गवर्नर थे, इन दोनों भाईयों की ब-दौलत अहल-ए-इ’ल्म-ओ-हुनर की हालत दुरुस्त हो गई, ये दोनों बड़े आलिम-ओ-शाइ’र, हुनर-दोस्त, इ’ल्म-परवर, साहिब-ए-जूद-ओ-करम थे, इन दोनों भाईयों को शैख़ से बड़ी अ’क़ीदत थी, एक-बार शम्सुद्दीन साहिब-ए- दीवान ने शैख़ को ख़त लिखा उस में पांस सवाल किए ये पाँचों सवाल –ओ-जवाब ज़ैल में लिखे जाते हैं:

    साहिब-ए-दीवान ने पाँच सौ दीनार और एक दस्तार भी शैख़ को भेजी थी, साहिब-ए-दीवान का मुलाज़िम जब चला और इस्फ़िहान पहुंचा तो उसने डेढ़ सौ दीनार लेकर किसी ताजिर के पास रख दिए, शीराज़ पहुंच कर हुज़ूर में ख़त और तीन सौ पच्चास दीनार रख दिए, शैख़ को ख़त के मज़मून से हाल मा’लूम हो गया, नौकर से कहा कि कल आओ तो जवाब दूँगा, अब साहिब-ए-दीवान के पांचों सवाल लिखता हूँ-

    सवाल-ए-अव़्वल, देव बेहतर या आदमी, सवाल दोउम मरा दुश्मने हस्त कि बा मन दोस्त नमी-गर्दद, सवाल-ए-सेउम, हाजी बेहतर या ग़ैर-ए-हाजी, सवाल-ए-चहारुम, अ’ल्वी फ़ाज़िल तर या आ’मी, सवाल-ए- पंजुम, आँ कि ब-दस्त-ए- दारिंदा ख़त, दस्तारे अज़ बरा-ए-आँ पिदर मी-रसद-ओ-पांसद दीनार अज़ बरा-ए-उ’लूफ-ए-मुर्ग़ान-ए-आँ रा क़ुबूल फ़रमायंद

    जवाब अज़ शैख़ सा’दी

    शराइफ़-ए-औक़ात-ए-फ़र्ज़ंद-ए-अ’ज़ीज़ दाम बक़ाउहु, ब-वज़ाइफ़-ए-ताआ’त-ओ-ख़ैरात आरास्त: बाद

    कि पुर्सीदीम अज़ हाल-ए-नबी-आदम-ओ-देव

    मन जवाबत ब-गोयम कि दिल अज़ कफ़ ब-बुरद

    देव ब-गुरेज़द अज़ आँ क़ौम कि क़ुरआँ ख़्वानन्द

    आदमी-ज़ाद: निगह-दार कि क़ुरआँ ब-ब-बुरद

    दूसरे सवाल का जवाब

    अव्वलीन बाब तर्बीयत-ओ-पंदस्त

    दोयमीन नौब:-ए-ख़ान:-ओ-बंदस्त

    सेवमीन तोब:-ओ-पशेमानी अस्त

    चारुमीन शर्त-ओ-अ’हद-ओ-सौगंदस्त

    पंजुमीन गर्दनश ब-ज़न कि ख़बीस

    ब-क़ज़ाए-ए-बद आरज़ू मंदस्त

    तीसरे सवाल का जवाब

    या ज़ाल-अ’जब पियादा-ए-आ’ज चूँ अर्सा-ए-शतरंज बसर मी-बरद फ़र्ज़ीन मी-शवद या’नी बह अज़ आँ मी-शवद कि बुवद –ओ-पियाद:-ए-हाज बादिय: मी- पैमायद-ओ-बतर अज़ आँ मी-शवद कि बुवद

    अज़ मन ब-गोए हाजी-ए-मर्दुम-गज़ए रा

    कि पोस्तीन-ए-ख़ल्लक़ ब-आज़ार मी-दरद

    हाजी तू नीस्ती शुतुरस्त अज़ बराए आँ कि

    बेचार: ख़ार मी-ख़ुरद-ओ-बार मी-बरद

    चौथे सवाल का जवाब

    ब-उ’म्र ख़्वेश न-दीदम जुज़ हम-चुनीं अ’ल्वी

    कि ख़मर मी –ख़ुरद-ओ-का’बतैन मी-बाज़द

    ब-रोज़-ए-हश्र हमी तर्सम् अज़ रसूल-ए-ख़ुदा

    कि अज़ शफ़ाअ’त-ए-इशां ब-मा परदज़द

    पांचवां जवाब: दस्तार-ओ-ज़र के बारे में

    ख़्वाजा तशरीफ़म फ़िरिस्ता दी-ओ-माल

    मालत अफ़ज़ूँ बाद-ओ-ख़स्मत पाएमाल

    हर ब-दीनारियत साले उ’म्र बाद

    ता ब-मानी सी सद-ओ-पंजाह साल

    जब ये जवाबात साहिब-ए-दीवान को मिले तो उन्होंने ग़ुलाम की तंबीह की कि ऐसा तूने क्यों किया उसने कहा कि नरवार ख़रवार अशरफ़ी शैख़ को भेजते थे, वो क़ुबूल नहीं करते थे, ये अशर्फ़ियां तो उ’लूफ-ए-मुर्ग़ान के लिए थीं मैंने अपने को मुर्ग़ के मुक़ाबला में समझ कर एक सौ पच्चास दीनार ले लिए, साहिब-ए-दीवान ने अपने भाई को भेजा और एक चक ख़्वाजा जलालुद्दीन के नाम दस हज़ार दीनार की हवाला की कि उनसे अशर्फ़ियां लेकर शैख़ की ख़िदमत में पेश करें, और मा’ज़रत करें, हसब-ए-इत्तिफ़ाक़ उनके शीराज़ पहुंचने के छः दिन पहले ख़्वाजा जलालूद्दीन का इंतिक़ाल हो गया था, शैख़ को जब ये हाल मा’लूम हो गया तो चंद शे’र लिख कर भेज दिए, जब साहिब-ए-दीवान को ये हाल मा’लूम हुआ तो हुक्म दिया कि पच्चास हज़ार दीनार थैलियों में रखें और शैख़ की ख़िदमत में ले जाएं और सपारिश करें कि इन अशर्फ़ियों से शीराज़ में आने जाने के लिए एक बुक़्’आ बनाएँ, शैख़ ने बहुत इसरार-ओ-क़सम देने पर ये अशर्फ़ियां क़ुबूल कीं और इससे रबात या क़िला’ बनवाईं।

    अ’ल्लामा मिर्ज़ा क़ज़वीनी ने तारीख़-ए-जहाँ–ए-कुशा-ए-जोवैनी को निहायत मेहनत-ओ-जिगर कावी-ओ- जाँ -फ़िशानी से चंद नुस्ख़ों से मुक़ाबला कर के निहायत सेहत के साथ छपवाया है, इस से उनकी ग़ज़ारत-ए-इ’ल्मी-ओ-तबह्हुर-ए-आसार-ए-तारीख़ी-ओ-इस्तिहज़ार-ए-अशआ’र-ए-अ’रब-ओ-क़वानीन-ए-अदब ज़ाहिर-ओ- बाहिर हैं, तारीख़-ए-जहाँ-कुशा के मुतक़द्दिमीन ने इन वाक़िआ’त से इन्कार किया है, इस के साथ इस वाक़िआ’ से भी इन्कार किया है कि अबाक़ा ख़ान के सामने साहिब-ए-दीवान ने शैख़ की हद से ज़ियादा ता’ज़ीम की और शैख़ के हाथ पांव पर बोसा दिए, और उनके इसरार पर अबाक़ा ख़ान से शैख़ ने मुलाक़ात की और शैख़ ने उस को नसीहत की और अशआ’र-ए-नसीहत-आमेज़ पढ़े, अ’ल्लामा मौसूफ़ के अल्फ़ाज़ ये हैं:

    ब-अ’क़ीद:केद ईं ज़ई’फ़ आसार वज़्अ’-ए- कुल्लन-ओ-बा’ज़न अहवाल-ए-ईं दो हिकायत लाइह अस्त दर हर सूरत ख़ाली, अज़ मुबालग़ा-ओ-इग़राक़ नीस्त,-ओ-मख़्सूसन पंजाह हज़ार दीनार फ़िरिस्तादन-ए-साहिब-ए-दीवान बराए सा’दी-ओ-सौगंद दादन-ओ-शफ़ाअ’त नमूदन बरा- क़ुबूल-ए-आँ ओ-अज़ अस्प पियाद: शुदन-ए-,वय-ओ-रिरादरश दर हुज़ूर-ए-अबाक़ा ख़ान -ओ-सर दर क़दम-ए-शैख़ मालीदन-ओ-बोस: बर दस्त-ओ- पाए दादन, ता अंदाज़:-ए-मुनाफ़ात दारद बा-लहज:-ए-सवाल-ओ-तक़ाज़ाए कि ग़ालिबन सा’दी दर क़साइद-ए-ख़ुद दर मद्ह-ए-इन दो बिरादर ब-कार मी बुरद, मस्लन ईं बैत दर ख़िताब-ए-अलाउ’द्दीन

    तू कोह-ए-जूदी –ओ-मन दरमियान-ए-वर्त:-ए-फ़क़्र

    मगर ब-शर्त-ए-इक़बालत उफ़्तम ब-किरां

    ओ-ईं अबयात दर ख़िताब-ए-बहमू (या’नी अ’लाउद्दीन साहिब-ए-दीवान)

    अ’लल-ख़ुसूस कि सा’दी मजाल-ए-क़ुर्ब-ए-याफ़्त

    हक़ीक़तस्त कि ज़िक्रश मअ’ज़्ज़मान मांद

    तू नीज़ ग़ायत-ए-इम्कान अज़ दरेग़ म-दार

    कि आँ न-माँद-ओ-ईं ज़िक्र-ए-जावेदाँ मांद

    ईं बैत दर ख़िताब-ए-शम्सुद्दीन जोवैनी

    यक़ीनु क़ल्बी इन्नी अनालू मिन्का ग़िना

    वलायज़ालू यक़ीनी मिनलहवानि यक़ीनुन

    व-नह्वा ज़ालिक-ओ-हमचनीं दर ख़िताब बा बाक़ा ख़ान बादशाह-ए-मुग़ूल-ए-बुत-परस्त गुफ़्तन कि

    गर राई’-ए-ख़ल्क़स्त ज़हर-ए-मारश बाद

    कि हर चे मी ख़ुरद जिज़्य:-ए-मुसलमानीस्त

    बग़ायत मुस्तबिद अस्त वल्लाहु आ’लम बि-हक़ीक़तिलहाल”

    अ’ल्लामा मौसूफ़ के तअज्जुब-ओ-इन्कार की वजह उनके अल्फ़ाज़ से ये ‘मालूम होती है कि जब शैख़ ख़ुद तलब करते थे (यानी मद्हिया अशआ’र में उनके हुस्न-ए-तलब पाया जाता है) तो ऐसी हालत में शैख़ से इन्कार-ओ- बार बार इसरार-ओ-क़सम पर नुज़ूर के क़ुबूल की रिवायत ग़ैर-मा’क़ूल है, मैं कहता हूँ कि हुस्न-ए-तलब तो ज़रूर पाया जता है मगर ये हुस्न-ए-तलब मा’मूली शाइरी-पेशा लोगों की तरह नहीं है, जिसका ज़रीया-ए-मआ’श सिर्फ़ शाइ’री-ओ-मदह-सराई-ए-अग़्निया-ओ-मुलूलक है, बल्कि उनमें जो ग़ैरत-दार थे वो बादशाह तक की पर्वा नहीं करते थे, फ़िरदौसी को उनके दोस्तों ने कहा कि वज़ीर से मिला करो तो उन्होंने कहा-

    सू-ए-दर-ए-वज़ीर चरा मुल्तफ़ित शवम

    चूँ फ़ारिग़म ज़े बागह-ए-बादशाह नीज़

    फिर ऐसे शो’रा जिनका शुमार उ’रफ़ा-ए-कामिलीन में है, उनसे इब्तिज़ाल-ओ-दरयूज़ा-गरी क्यूँकर मुम्किन है, लेकिन बादशाह और उमरा उनकी ख़िदमत को अपनी सआ’दत जानते थे और इसरार कर के अपनी नज़्र को क़ुबूल कराते थे , ये लोग भी जब शे’र कहते तो आ’म शो’रा की तरह एक-आध शे’र या दो-चार इस क़िस्म की कह देते थे, ख़्वाजा निज़ामी उ’ज़्लत-नशीनी में मशहूर हैं, ख़ुद फ़रमाते हैं:-

    हम: रा बुर्दम फ़िरिस्तादी

    मन नमी- ख़्वाहम तू मी-दादी

    मगर मद्हिया अशआ’र उसी तरह कहते हैं, जिस तरह आम शोरा-ए-वज़ीफ़ा-ख़्वार, दुनियादार कहते , ता’रीफ़ में आसमान ज़मीन के क़ुलाबे मिलाते, इसकी सैंकड़ों मिसालें कुतुब-ए-तारीख़ में मौजूद हैं, इसके अ’लावा ये भी तो देखना चाहिए कि शैख़ के और अशआ’र कैसे हैं, उनका तर्ज़-ए-अ’मल क्या था, उनको अग़्निया–ओ-मुलूक की सोहबत से सख़्त नफ़रत थी, उनका बादशाह अबू बक्र जिसकी मद्ह दोनों किताबों में मौजूद है, और फ़िल-हक़ीक़त उस वक़्त के बादशाहों में बहुत अच्छा था, उस के हाँ भी शैख़ बहुत कम जाते थे, अल-ग़र्ज़ शैख़ के अशआ’र हुस्न-ए-तलब को सिर्फ़ ऊपरी दिल से हसब-ए-दस्तूर-ए-शो’रा यक़ीन करना चाहिए, उनके क़साइद को ब-ग़ौर पढ़ा जाये तो मेरे इस ख़याल की ताईद होती है, अ’लाउ’द्दीन जोवैनी साहिब-ए-दीवान के शान में जो क़सीदा है उस में फ़रमाते हैं:

    अगर न-बंद:-नवाज़ी अज़ आँ तरफ़ बूदे

    मन ईं शुक्र न-फ़िरिस्तादमें ब-ख़ोज़िस्तान

    फिर दूसरे भाई शम्सुद्दीन साहिब-ए-दीवान वज़ीर-ए-आ’ज़म के शान में फ़रमाते हैं-

    अगर न-बंद:-नवाज़ी अज़ आँ तरफ़ बूदे

    कि ज़ुहरा दाशत कि दीबा बुरद क़ुस्तुंनतीन

    इन शे’रों से ज़ाहिर है कि इब्तिदा अख़्लाक़-ओ-तवाज़ो की साहिब-ए-दीवान के तरफ़ से हुई थी और यह दस्तूर अस्लाफ़ का था और राक़िम-उल-सुतूर के उ’न्फ़ुवान-ए-शबाब के ज़माना तक गाह गाह इसकी मिसाल मिल जाती थी कि जब कोई अहल-ए-इ’ल्म में से दर्जा-ए-इमारत-ए-सल्तनत पर पहुंच जाता था, तो चाहता था कि और उ’लमा-ओ-फ़ुज़ला में से जो गर्दिश-ए-रोज़गार से मजबूर हैं उनकी ख़िदमत की जाये और अगर वो क़ुबूल करें तो सल्तनत के तरफ़ से उनके लाइक़ ओ’हदा दिया जाये, जिससे इ’ल्म की शान बढ़े, और सल्तनत के काम भी निकलें, ख़ुसूसन जो उ’ज़्लत-नशीन हैं और मुतलक़ तवज्जोह दुनिया के उमूर के तरफ़ नहीं करते और किसी से कुछ लेना भी आ’र समझते हैं, उनकी ख़िदमत में ये उमरा हाज़िर हो कर दस्त-बस्ता अ’र्ज़ करते हैं और बहुत इल्हाह-ओ-इसरार पर नज़्र क़ुबूल कराते, यही वजह है कि ऐसे लोगों का नाम अलबत्ता ज़िंदा है, मेरा मुद्दआ’ इस तहरीर से ये है कि यही हाल दोनों साहिब-ए-दीवान का था, ये दोनों अपने वक़्त के बर्मकी थी, जिस तरह बरामिका की फ़य्याज़ी, इ’ल्म दोस्ती, और जूद-ओ-करम मशहूर था, इसी तरह इन दोनों की खूबियां उस ज़माना में मशहूर थीं, अल-ग़र्ज़ दोनों भाईयों की क़द्र-शनासी-ओ-अ’क़ीदत जो शैख़ के साथ थी, उसने शैख़ को मजबूर किया था, वर्ना शैख़ को किसी की परवाह नहीं थी, अ’लाउद्दीन साहिब-ए-दीवान की शान में जो क़सीदा है, उसके दो तीन शे’र लिखता हूँ जिससे शैख़ की तबीअ’त का अंदाज़ा मिलेगा, फ़रमाते हैं:

    ब-ख़ाक-ए-पा-ए-तू गुफ़्तम यमीन-ए-ग़ैर-ए-मुकफ़्फ़र

    कज़ आँ ज़मान कि ब-दानिस्तम अज़ यसार यमीं रा

    बरा-ए-हाजत-ए-दुनिया तमा’ ब-ख़ल्लक़ न-बुर्दम

    कि तंग-चशम तहम्मुल कुनद अज़ाब-ए-महीं रा

    पचनास हज़ार अशर्फ़ियां भेजने की रिवायत यक़ीनन सहीह मा’लूम होती है, इस रिवायत को वज़ई’ –ओ-जा’ली समझने के दो सबब हो सकते हैं, एक तो ये कि साहिब-ए-दीवान शम्सुद्दीन जोवैनी को इतना मक़दूर हो कि वो ज़र-ए-ख़तीर शैख़ के पास भेज सकते, या साहिब-ए-दीवान को बुख़्ल इतना हो कि किसी को कुछ देते हों , सो ये दोनोँ गुमान ग़लत हैं , ये दोनों भाई सलातीन-ए-मुग़ूल के वज़ीर-ओ-मुशीर थे, मुग़ूलों के बराबर कोई सल्तनत क़ुव्वत-ओ-शौकत-ओ-दौलत में नहीं थी, जागीर इनआ’म-ओ- ओ’हदा की ब-दौलत ये दोनों भी बड़े अमीर-ओ-दौलतमंद थे, इस के साथ बड़े आलि’म-ओ-फ़ाज़िल-ओ-शाइ’र थे, उनका दस्तूर था कि जब कोई आ’लिम किताब तसनीफ़ कर के पेश करता तो एक हज़ार अशरफ़ी इनआ’म दिया जाता, बहुत आ’लिमों ने किताबें लिखीं, इनआ’म एक हज़ार फ़ी किताब पाया, अलाउ’द्दीन अ’ता मलिक जोवैनी ने एक नहर नजफ़-ए-अशरफ़ तक निकाली,जिसका मब्दा शहर-ए-अंबार था, इस नहर के किनारे एक सौ पच्चास देहात आबाद किए, ग़रज़ इन दोनों भाईयों की फ़य्यज़याना खूबियां इतनी हैं कि ये दोनोँ अपने वक़्त के बरामका थे, मलिकुल-उ’लमा अ’ल्लामा नसीरुद्दीन तूसी ने भी किताब उनके नाम के साथ मु’अनवन की थी, ये दोनों इस्लाम, अहल-ए-इस्लाम अलल-ख़ुसूस अह्ल-ए- इ’ल्म-ओ-हुनर के लिए ने’मत-ए-ग़ैर मुतरक़्क़बा थे, शैख़ ने अपने क़साइद में जो मद्ह की है वो मुबालग़ा शाइराना नहीं है, यही वजह है कि इन दोनों की शान में जो क़साइद हैं वो बेहतर क़साइद हैं, इसलिए अशरफ़ियाँ भेजने की रिवायत ग़लत नहीं हो सकती, हाँ इसकी तरदीद मुम्किन थी कि क़िला’ फ़हन्दर के पास जो रबात बनाने की हिकायत अ’ली बिन अहमद जामे-ए-कुल्लियात-ए-शैख़ ने लिखी है, उसका वजूद होता मगर उसके वजूद का अ’ल्लामा मुहम्मद क़ज़वेनी ने इन्कार नहीं किया, किसी और मुसन्निफ़ ने इन्कार किया है, इसलिए यक़ीन करना चाहिए कि साहिब-ए-दीवान ने पच्चास हज़ार अशफ़ियाँ भेजीं और शैख़ ने क़ुबूल कीं, और इमारत (रबात)बनवाई वर्ना शैख़ के पास इतना माल कहाँ से आता जागीरदार थे, मंसब-दार जिसकी वजह से वो बनवाते, इमारत के वजूद की तौसीक़ अल्लामा मुहम्मद बिन बतूता मग़रिबी के सफ़रनामा से भी होती है वो अपने सफ़रनामा में लिखते हैं:

    ‘’शीराज़ से बाहर मज़ारों में शैख़ सा’दी की क़ब्रर बने वो अपने ज़माना के सबसे बड़े शाइ’र ज़बान-ए-फ़ारसी के थे, और कभी अपने फ़ारसी कलाम में अ’रबी अशआ’र भी मिला देते थे, उनकी ख़ानक़ाह जिसको उन्होंने बनाया है बहुत ख़ूबसूरत है, उस के अंदर ख़ुश-नुमा बाग़ है, ये ख़ानक़ाह नहर-ए-रुक्नाबाद के क़रीब है, शैख़ ने वहाँ पर संगमरमर के छोटे छोटे हौज़ कपड़े धोने को बनाए हैं, लोग शहर से उनकी ज़ियारत को जाते हैं, और उनके दस्तर-ख़्वान से खाना खाते हैं, और नहर से कपड़े धोते हैं, और लौट आते हैं, इसी तरह मैंने भी किया, ख़ुदा उन पर रहमत करे’’

    मुहम्मद बिन बतूता शैख़ के इंतिक़ाल के छत्तीस साल बा’द शीराज़ पहुंचे थे, उन्होंने शीराज़ की बहुत ता’रीफ़ की है इस सफ़रनामा से मा’लूम हुआ है कि फ़िल-हक़ीक़त शैख़ सा’दी ने जो शीराज़ की ता’रीफ़ की है वो बिल्कुल सहीह है, मुबालग़ा-ए-शाइ’राना नहीं है, नहर-ए-रुक्नाबाद की तारीफ़ ख़्वाजा हाफ़िज़ के पहले शैख़ सा’दी ने की थी, इब्न-ए-बतूता उस के बारे में लिखते हैं:

    अहदुहां अल-नहरुल-मा’रूफ़ बि-रुक्नाबाद वहू-वा अज़्बुल-मा शदीदुल-बर्द …सफ़हा121

    एक नहर रुक्नाबाद के नाम से मशहूर है , उस का पानी मीठा है, गर्मी में बहुत ठंडा और जारों में गर्म रहता है

    इससे बढ़कर पानी की क्या ता’रीफ़ हो सकती है।

    अब रहा ये कि साहिब-ए-दीवान ने शैख़ की ता’ज़ीम मा’मूल से जियादा की और बादशाह अबाक़ा ख़ान के सामने की इस पर भी शक करने की कोई वजह नहीं, क्योंकि मुग़ूल बादशाह बावजूद बे-दीन-ओ-बुत- परस्त होने के अकाबिर अहल-ए-इस्लाम की ता’ज़ीम-ओ-तकरीम करते थे, हर शख़्स मज़हब में आज़ाद था, इब्तिदा में आ’म मुसलमानों की भी बड़ी क़द्र करते थे, चंगेज़ ख़ान के क़ानुन में मुसलमानों का क़िसास (दियत) चालीस बालिशत और ख़ताईयों का एक दराज़-गोश था, इसी से क़ियास कर लेना चाहिए कि करोड़ों मुस्लमानों को ग़र्क़ाब-ए-फ़ना करने के बा’द भी इतनी इ’ज़्ज़त मुसलमानों की चंगेज़ियों की नज़र में थी, सैंकड़ों अह्ल-ए-इ’ल्म-ओ-फ़न उनकी सरकार में आ’ला मनासिब पर फ़ाइज़ थे, उन में अलाउ’द्दीन अ’ता मलिक साहिब-ए-दीवान वाली-ए-बग़दाद-ओ- इ’राक़-ओ-अ’रब थे, उन्होंने बग़दाद की ऐसी रौनक़ बढ़ाई जो मुतअख़्ख़िरीन ख़ुलफ़ा-ए-अ’ब्बासिया के ज़माना में भी नहीं थी, उन्होंने अपनी तारीख़ जहाँ कुशा में चंगेज़ ख़ान का हाल लिखा है।

    इन सब रिवायतों से ज़ाहिर होत है कि चंगेज़ी सारे ममालिक-ए-इस्लामिया को वीरान करने के बा’द रफ़्ता-रफ़्ता इस्लाम की तरफ़ रग़बत करने लगे, और इस्लाम और बानी-ए-इस्लाम की अ’ज़मत उन लोगों के दिलों में पहले से जा-गुज़ीं थी। तो ख़्याल करना चाहिए कि जब चंगेज़ ख़ान के बेटे ओकताई क़ाआन का ये हाल था तो फिर अबाका ख़ान जो चंगेज़ ख़ान का पड़पोता था उसके वक़्त में बहुत सी खूबियां इस्लाम की मुग़लों में फैल गई होंगी, और रुज्हान इस्लाम की तरफ़ रोज़-अफ़्ज़ूँ चंगेज़ ख़ान ही के वक़्त से शुरू’ हो गया था, यहाँ तक कि बा’ज़ लोगों ने चंगेज़ ख़ान के एक बेटे को मुसलमान लिखा है, तो अगर शैख़ सा’दी ने अबाक़ा ख़ान को मुसलमान बादशाहों की तरह मुख़ातिब किया तो कौनसी तअ’ज्जुब की बात है, दर-हक़ीक़त उस वक़्त के मुसलमानों का बड़ा कारनामा है कि जिस क़ौम ने करोड़ों मुसलमानों और सैंकड़ों इस्लामी शहरों को ग़ारत किया, उसी क़ौम को मुसलमानों ने अपनी हिक्मत-ए- इ’ल्मी और असर से मुसलमान बना लिया

    स्रोत :
    • पुस्तक : Monthly Ma'arif

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

    Get Tickets
    बोलिए