एकता का महत्व
“हर मज़हब और धर्म हमें आपसी मोहब्बत-ओ-इत्तिफ़ाक़ की ता’लीम देता है। मज़हब तो इसलिए है कि हम उसको अपना कर एक अच्छे इन्सान बन सकें और आपस में भाई चारा क़ाएम रखते हुए एक दूसरे को समझें, मोहब्बत करें और एक दूसरे के अक़ाइ’द की क़द्र करें क्यूँकि उस ख़ुदा ने हमको अलग-अलग रंग-ओ-रूप में इसलिए रखा है ताकि हम एक दूसरे को पहचानें और आपसी इत्तिहाद से मुआ’शरा में एक दूसरे के लिए सबब-ए-क़ुव्वत बन जाएं और इस के ज़रिआ’ ख़ुदा की मारिफ़त-ओ-क़ुर्ब हासिल करें। क़ुरआन-ए-मजीद हर किसी के लिए राह-ए हिदायत है।
इस में अल्लाह फ़रमाता है।
“और उसकी निशानियों में से आस्मानों और ज़मीन की तख़्लीक़ (भी) है और तुम्हारी ज़बानों और तुम्हारे रंगों का इख़्तिलाफ़ (भी) है, बेशक इस में अहल-ए-इ’ल्म (ओ-तहक़ीक़) के लिए निशानियाँ हैं”
(सूरा-ए-रुम, आयत 22)
नोटः- अब इस आयत से हमको ये दर्रस मिल रहा है कि ये आसमान-ओ-ज़मीं,तरह तरह की ज़बान और रंगत (गोरा-ओ-काला) ये सब उस ख़ुदा की निशानी है और अहल-ए-इ’ल्म (या’नी जिसको अल्लाह इ’ल्म अ’ता करे) ही उन निशानियों से उस ख़ुदा को ढूँडेगा और उसकी मा’रिफ़त हासिल करेगा।या’नी ख़ुदा ने हमको अलग-अलग ज़बानों और रंगों में इसलिए पैदा किया कि हम एक दूसरे को समझें और ख़ुदा की तख़्लीक़ को देखकर उस ख़ुदा को याद करें और एक और नेक बन कर रहें क्यूँकि अगर वो चाहता तो हमें एक ही तर्ज़ पे एक तरह की ज़बान-ओ-रंग में पैदा फ़रमा देता मगर उसने हमको हर तरह की क़ौमों और क़बीलों में इसलिए तक़्सीम किया ताकि हम उस ख़ुदा की निशानियों को देखकर एक दूसरे को पहचान सकें। और हर एक रंग-ओ-नस्ल को ख़ुदा की निशानी समझते हुए उस में ख़ुदा को देखने की कोशिश करें और एक दूसरे के अक़ाइ’द की भी इ’ज़्ज़त करें जैसा कि क़ुरआन-ए-मजीद में हैं।
“ऐ लोगो हमने तुम्हें एक मर्द और औ’रत से पैदा फ़रमाया और हमने तुम्हें (बड़ी-बड़ी) क़ौमों और क़बीलों में (तक़्सीम किया ताकि तुम एक दूसरे को पहचान सको। बेशक अल्लाह के नज़्दीक तुम में ज़्यादा बा-इ’ज़्ज़त वो है जो तुम में ज़्यादा परहेज़गार हो, बेशक अल्लाह ख़ूब जानने वाला, ख़ूब ख़बर रखने वाला है”
(सूरा-ए-अल-हुज्रात 13:49)
नोटः- ख़ुदा के नज़्दीक बा-इ’ज़्ज़त शख़्स वही है जो परहेज़गार है या’नी अपने दीन-ओ-मज़हब को मानते हुए अल्लाह के साथ तक़्वा इस तरह से रखे कि हर रंग-ओ-नस्ल-ओ-क़बीला के फ़र्द को ख़ुदा की निशानी जान कर हर मज़हब की इ’ज़्ज़त करे और हर एक से मोहब्बत-ओ-बाहमी इत्तिफ़ाक़ रखे सबको एक माँ और बाप (हज़रत-ए-आदम-ओ-बीबी हव्वा इलै’हिमस्सलाम) की औलाद जाने।
और इसी निस्बत से सबको एक जाने और माने बस यही ता’लीम हमारे मज़हब-ए-इस्लाम की है कि लोगों से मोहब्बत करो और अच्छा सुलूक करो ख़्वाह वो किसी मज़हब से तअ’ल्लुक़ रखने वाला हो।
हदीस –ए-पाक का मफ़्हूम है:
यज़ीद बिन असद ने बयान किया रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलै’हि व-आलिहि वसल्लम ने मुझसे कहा, ऐ यज़ीद, लोगों से ऐसी मोहब्बत करो कि जो तुम अपने लिए पसंद करते हो उनके लिए पसंद करो।
एक और रिवायत में नबी-ए-करीम ने फ़रमाया:
“लोगों के साथ ऐसा सुलूक करो जिस तरह से आप उनसे अच्छे सुलूक की उम्मीद करते हैं।
(मुस्नद अहमदः16220)
नोटः- (“या’नी लोगों के साथ अच्छा सुलूक करो ख़व्वाह वो किसी भी मज़हब से तअ’ल्लुक़ रखने वाले हों ।इस हदीस-ए-पाक में हम को हर एक से मोहब्बत के साथ अच्छा सुलूक करने की भी ता’लीम हो रही है क्यूँकि हम सब एक ही माँ बाप की औलाद हैं और उस ख़ुदा की निशानियों में से हैं।
हमारे सूफ़ी ने भी आपसी मोहब्बत-ओ-बाहमी इत्तिहाद-ओ-इत्तिफ़ाक़ के लिए बहुत अहम किर्दार अदा किया है और लोगों को आपस में मोहब्बत के धागे में ऐसा पिरो दिया है कि आज भी उनके आस्ताना-ए-मुक़द्दस पर सारे मज़ाहिब के लोग बड़ी अ’क़ीदत से जाते हैं और फ़ैज़-याब होते हैं ।उन्हीं सूफ़ी बुज़ुर्गों में से एक सूफ़ी बुज़ुर्ग जिनको उनके दौर के आ’रिफ़ीन ने ‘अ’लम-बर्दार-ए-इ’श्क़’ कहा और हर पण्डित ने ‘ईश्वर प्रेमी’ कहा वो मशहूर-ओ-मा’रूफ़ सूफ़ी आ’लम-ए-पनाह हज़रत हाजी वारिस अ’ली शाह आ’ज़मल्लाहु ज़िक्रहु (देवा शरीफ़) हैं।
हज़रत वारिस पाक ने फ़रमाया-
1- जो हमसे मोहब्बत करता है वो हमारा है।
2- हमारे हाँ मजूसी, ई’साई वग़ैरा सब मज़हब वाले बराबर हैं कोई बुरा नहीं।
3- हमारे हाँ तो मोहब्बत ही मोहब्बत है।
हुज़ूर वारिस-ए-पाक ने सबको अपनाया और नफ़रत की आग को बुझा दिया और सबको मोहब्बत के धागे में पिरो कर, जोड़ कर हर एक मज़ाहिब के फ़र्द को क़ुरआन-ओ-हदीस के मुताबिक़ एक कर के क़ुव्वत अ’ता फ़रमा दी।
और यही हमारा आज का मौज़ूअ’ है “क़ुव्वत-ए-इत्तिहाद’’ क्यूँकि जब आपस में मोहब्बत-ओ-इत्तिफ़ाक़-ओ-इत्तिहाद रहेगा तभी हमारा मुआ’शरा क़वी होगा।
“मोहब्बत करोगे नेक रहोगे एक रहोगे तभी मज़बूत रहोगे”
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