चिश्तिया सिलसिला की ता’लीम और उसकी तर्वीज-ओ-इशाअ’त में हज़रत गेसू दराज़ का हिस्सा

चिश्तिया सिलसिला की ता’लीम और उसकी तर्वीज-ओ-इशाअ’त में हज़रत गेसू दराज़ का हिस्सा
ख़लीक़ अहमद निज़ामी
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अ’स्र-ए-हाज़िर का एक मशहूर दीदा-वर मुवर्रिख़ और माहिर-ए-इ’मरानियात ऑरनल्ड टाइन बी, अपनी किताब An Historians Approach To Religion (मज़हब मुवर्रिख़ की नज़र में) लिखता है कि तारीख़-ए-उमम ने मज़ाहिब-ए-आ’लम की इफ़ादियत और उनके असर-ओ-नुफ़ूज़ के जाएज़े के लिए एक मुवस्सिर अ’मली पैमाना बना लिया है, और वो है मुसीबत और मा’सियत में इन्सान की दस्त-गीरी की सलाहियत। वो लिखता है।
“All the living religions are going to be put to a searching practical test by their fruits. You shall know them the practical test of a religion, always and everywhere is to success or failure in helping human souls to respond to the challenges of suffering and sin”
हिन्दुस्तान में चिश्तिया सिलसिला की सारी ता’लीम और इस्लाह-ओ-तर्बियत का पूरा निज़ाम, उस आ’लमी मे’यार पर न सिर्फ़ पूरा उतरता है, बल्कि एक ऐसे लाइहा-ए-अ’मल की निशान-देही भी करता है जिसमें इन्सानियत की फ़ौज़-ओ-फ़लाह का राज़ मुज़्मर है। उसने अख़्लाक़-ए-इन्सानी की आ’ला क़दरों की हिफ़ाज़त की है और “आदम-गरी” को अपने जुह्द-ओ-सई’ का मेहवर बना कर इन्फ़िरादी और इज्तिमाई’ ज़िंदगी को संवारने का सलीक़ा सिखाया है और कहा है।
यही मक़्सूद-ए-फ़ितरत है, यही रम्ज़-ए-मुसलमानी
उख़ुव्वत की जहाँ-गीरी, मोहब्बत की फ़रावानी
इस बर्र-ए-सग़ीर का शाएद ही कोई ऐसा गोशा हो जहाँ चिश्ती सिलसिला का असर या उसके मशाइख़ न पहुँचे हों। आ’म तौर पर ये ख़याल किया जता है कि हिन्दुस्तान में सूफ़िया-ओ-मशाइख़, मुसलमानों के सियासी इक़्तिदार के क़याम के बा’द आने शुरूअ’ हुए, ये सही नहीं है। देहली, बदायूँ, अजमेर, क़न्नौज, बनारस वग़ैरा में मुसलमानों की नव-आबादियाँ उन इ’लाक़ों पर हुकूमत क़ाएम होने से पहले वजूद में आ गई थीं। हज़रत ख़्वाजा अजमेरी, पृथ्वी राज के अ’ह्द में अजमेर आकर बस गए थे।इसी तरह हज़रत गेसू-दराज़ के अज्दाद दिल्ली में उस वक़्त आए थे जब शहाबुद्दीन ग़ौरी की फ़ौजें यहाँ नहीं पहुँची थीं।ये ख़ामोश रुहानी ऐ’लान था इस बात का कि सिलसिला की नश्र-ओ-इशाअ’त सल्तनत के साया में नहीं, बल्कि अपनी अख़्लाक़ी और रुहानी क़ुव्वत की बिना पर होगी। फ़क़्र की निगहबानी दिल-ए-दर्द-मंद करेगा और मोहब्बत इक़्लीम-ए-दिल को फ़त्ह करेगी।
न मुहताज-ए-सुल्ताँ, न मर्ऊ’ब-ए-सुल्ताँ
मोहब्बत है आज़ादी-ओ-बे-नियाज़ी
हज़रत गेसू-दराज़ को चिश्तिया की तारीख़ में जो अ’ज़्मत और अहमियत हासिल है वो मोहताज-ए-बयान नहीं।अ’हद-ए-जहाँगीरी के एक तज़्किरा-नवीस मोहम्मद ग़ौसी शत्तारी ने लिखा है कि चिराग़ देहली (रहि•) के सिलसिला को आफ़ताब की तरह फ़रोग़ उन्हीं की ज़ात से हुआ।चिश्तिया सिलसिला में उनका मक़ाम और उनके काम की नौइ’य्यत का अंदाज़ा लगाने के लिए बा’ज़ हक़ाएक़ पर नज़र होनी ज़रूरी है:
(1) अल्लाह तआ’ला ने उनको तवील उ’म्र अ’ता फ़रमाई थी।105 साल चिश्ती सिलसिला में किसी दूसरे बुज़ुर्ग की इतनी उ’म्र नहीं हुई। गो ख़्वाजा क़ुतुब साहिब को छोड़ कर सब मशाइख़ की उ’म्रें तवील हुई थी।कोई इन्सानी तहरीक वक़्त की रफ़्तार पर अपना नक़्श नहीं छोड़ सकती जब तक उसके दाई’ को काम करने की इतनी मोहलत न मिले कि वो इन्सानी ज़िंदगियों को अपनी ता’लीम के साँचे में काम-याबी के साथ ढाल सके।यही सबब था कि उनके अंदाज़-ए-इस्लाह-ओ-तर्बियत ने एक इम्तियाज़ी रंग इख़्तियार कर लिया और शैख़ मुहद्दिस को लिखना पड़ा कि
“ऊ रा मियान-ए-मशाइख़-ए-चिश्त मश्रबे ख़ास-ओ-दर-बयान-ए-असरार-ए-हक़ीक़त तरीक़े मख़्सूस अस्त” (अख़्बारुल-अख़्यार)
इस से मतलब ये न था कि उन्होंने चिश्तिया सिलसिला के बुनियादी फ़िक्री निज़ाम से हट कर कोई रविश निकाली थी बल्कि अपने मस्लक-ओ-रविश पर तवील अ’र्सा तक काम करते रहने के बाइ’स उनके निज़ाम में एक इन्फ़िरादी शान पैदा हो गई थी।
(2) हज़रत गेसू-दराज़ को एक ऐसे दौर में काम करना पड़ा था जब अफ़्क़ार-ओ-नज़रियात का ज़बरदस्त तसादुम मुल्क में बरपा था। मोहम्मद बिन तुग़्लक़ के अ’हद में इमाम इब्न-ए-तैमिया के असरात हिन्दुस्तान पहुँचे और तसव्वुफ़ की पूरी तहरीक उनकी ज़द में आ गई।सुल्तान उन नज़रियात से इस क़द्र मुतअस्सिर हुआ कि भरे दरबार में इमाम इब्न-ए-तैमिया के नुमाइंदे, मौलाना अ’ब्दुल अ’ज़ीज़ उर्दबेली के पैर चूम लिए। उनके नज़रियात के ज़ेर-ए-असर उसने सूफ़िया के ख़िलाफ़ बा’ज़ इक़दाम किए। उनके लिबास पर नुक़्ता-चीनी की, उनके तसव्वुर-ए-विलायत को बातिल टहराया, ख़ानक़ही निज़ाम को शुबहा की नज़र से देखा। दिल्ली के बहुत से सूफ़िया को जबरन गुजरात, दकन, कश्मीर भेज कर सिलसिला की ख़ानक़ाहों को बे-नूर-ओ-बे-चराग़ कर दिया।हज़रत गेसू-दराज़ के मुर्शिद हज़रत चिराग़ देहलवी (रहि•) ने अपनी ख़ानक़ाह में सुल्तान की मुदाख़लत को क़ुबूल करने से साफ़ इंकार किया।उनकी दीनी ग़ैरत ने ये गवारा न किया कि जिस जगह उनके शैख़ उनको बिठा गए, उसको सुल्तान के कहने से छोड़ दें।सुल्तान का ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब एक तरफ़ था और उनका अ’ज़्म-ओ-इस्तिक़लाल दूसरी तरफ़।
ख़ुदी हो ज़िंदा तो है फ़क़्र भी शहनशाही
नहीं है संजर-ओ-तुग़रल से कम शिक्वा-ए-फ़क़ीर
कितने तूफ़ान आए और गुज़र गए लेकिन उनको अपनी जगह से न हटा सके।उनके मसाएब का हाल जब दकन में मौलाना बुर्हानुद्दीन ग़रीब ने सुना तो उन पर गिर्या तारी हो गया।उस ज़माना में हज़रत गेसू-दराज़ अपने शैख़ की ख़िदमत में थे। और जब हज़रत चिराग़ देहलवी (रहि•) को मोहम्मद बिन तुग़लक़ ने सिंध तलब किया तो हज़रत गेसू दराज़ (रहि•) ही को कुछ हिदायात देकर वो रुख़्सत हुए।
हज़रत चिराग़ देहलवी (रहि•) ने उस नए फ़िक्री सैलाब के ख़िलाफ़ बंध बाँधे, और जहाँ ज़रूरी समझा, वहाँ इस्लाह भी की।उन्होंने ये ऐ’लान कर के कि:
“मशरब-ए-पीर-ए-हुज्जत नमी-शवद, दलील अज़ किताब-ओ-सुन्नत मी–बायद”
तसव्वुफ़ की तहरीक को एक ऐसी महफ़ूज़ सतह पर पहुँचा दिया जहाँ कोई मौज-ए-हवादिस नहीं पहुँच सकती थी।उनके मुआ’सिरीन ने उनमें इमाम अबू हनीफा (रहि•) की जलालत-ए-इ’ल्म देखी और उनकी दीनी बसीरत के आगे सर झुका दिए।हज़रत गेसू दराज़ पर अपने शैख़ के जाँ-नशीन की हैसियत से ये ज़िम्मेदारी आ’एद हुई कि वो तसव्वुफ़ की तहरीक की निगह-बानी करें और चिश्तिया सिलसिला के उ’सूलों को बाद-ए-मुख़ालिफ़ के तेज़-ओ-तुंद झोंकों में रौशन रखें। “जवामिउ’ल-कलिम” का गहरी नज़र से मुतालआ’ इस हक़ीक़त को पूरी तरह वाज़ेह कर देता है की इसकी हर मज्लिस बदले हुए हालात और सिलसिला की बुनियादी ता’लीम पर मोहकम-यक़ीन की आईना-दार है
(3) मोहम्मद बिन तुग़लक़ के बा’द अफ़्क़ार का ये तसादुम, ख़यालात के इंतिशार में तब्दील हो गया।आज़ादी-ए-अफ़्क़ार और इंतिशार-ए-अफ़्क़ार के दरमियान फ़ासला तो थोड़ा ही है, लेकिन मआल और नताइज का ज़बरदस्त फ़र्क़ है।
‘ये दिल की मौत ! वो अंदेशा-ओ-नज़र का फ़साद’
शायद ही हिन्दुस्तान की तारीख़ में इतने मुख़्तलिफ़ ज़ावियाहा-ए-फ़िक्र और मुख़्तलिफ़ुन-नौअ’ फ़िरक़े पैदा हुए हों जितने उस ज़माना में नुमूदार हुए। उस दौर की फ़ज़ा का अंदाज़ा फ़ीरोज़ शाह तुग़लक़ की तस्नीफ़ “फ़ुतूहात-ए-फ़ीरोज़ शाही” से होता है।जब फ़ज़ाएँ “अनल-हक़” की सदाओं से गूंज रही थीं, ख़ामकार सूफ़िया गुमराही के नए-नए दरवाज़े खोल रहे थे।इबाहती नज़रियात की मक़्बूलियत बढ़ती जा रही थी और पुराना अख़्लाक़ी निज़ाम दम तोड़ने पर आमादा नज़र आता था।हज़रत गेसू-दराज़ ने मज़हबी फ़िक्र के सारे तार-ओ-पौद को शरीअ’त-ओ-सुन्नत के दामन में समेट लिया और एक गिरते हुए ममुआ’शरा को तज्दीद-ओ-इहया की राह दिखाई।ये उनकी उस कोशिश का नतीजा था कि उस दौर में एक फ़िक्री थमाव की कैफ़ियत नज़र आने लगी।शरीअ’त, तरीक़त, हक़ीक़त में जो ख़लीज पैदा की जा रही थी उसकी उन्होंने शदीद मुख़ालफ़त की और ख़ात्मा में ऐ’लान किया कि जिस तरह बादाम में पोस्त, मग़्ज़ और रोग़न एक दूसरे से जुदा नहीं, उसी तरह शरीअ’त, तरीक़त, हक़ीक़त को भी जुदा नहीं किया जा सकता।उनकी सारी इ’ल्मी काविशों और तज़्किरों,तल्क़ीन का मक़्सद मुसलमानों की इज्तिमाई’ ज़िंदगी में उस तज़ाद को दूर करना था जिसने फ़िक्र के सोते मस्मूम और अ’मल की राहें पुर-ख़तर कर रखी थी।
(4) हज़रत गेसू दराज़ से चिश्तिया सिलसिला की अ’मली तारीख़ का एक नया बाब शुरूअ’ होता है।उनसे पहले चंद अहम किताबें उसूलुत्तरीक़ा, मुल्हिमात, तसरीफ़-बारी, मुख़-उल-मआ’नी, शरह-ए-मशारिक़ वग़ैरा ज़रूर लिखी गई थीं लेकिन मुख़्तलिफ़ उ’लूम-ए-दीनिया पर बा-क़ाइ’दा तसानीफ़ का सिलसिला शुरूअ’ नहीं हुआ था।हर चंद कि मुतक़द्दिमीन मशाइख़-ए-चिश्त बुलंद-इ’ल्मी मक़ाम रखते थे और बहुत से उ’लूम में उनकी नज़र मुज्तहिदाना थी। ख़ुद हज़रत महबूब-ए-इलाही (रहि•) की मुहद्दिसाना बसीरत ग़ैर-मा’मूली थी।उनके मुरीदों में मौलाना शम्सुद्दीन यहया, मौलाना फ़ख़्रुद्दीन ज़रादी वग़ैरा फ़िक़्ह पर गहरी नज़र रखते थे, लेकिन चिश्तिया सिलसिला की ता’लीम को बा-ज़ाब्ता सफ़हा-ए-क़िर्तास पर मुस्तक़िल करने की कोशिश नहीं की गई थी।हज़रत गेसू दराज़ ने उस मुहर-ए-ख़ामोशी को तोड़ा और तफ़्सीर, हदीस, फ़िक़्ह, तसव्वुफ़, सब मौज़ूआ’त पर किताबें लिखीं या इमला कराईं, इस तरह कि उनका सज्जादा-ए-मशीख़त “सुल्तानुल-क़लम” की मसनद बन गया। चिश्तिया सिलसिला की कोई फ़िक्री तारीख़ हज़रत गेसू दराज़ की तसानीफ़ के गहरे मुतालिए’ के ब-ग़ैर नहीं लिखी जा सकती।
हज़रत महबूब-ए-इलाही के ज़माना में तसव्वुफ़ की बहुत सी अहम किताबें मसलन क़ुव्वतुल-क़ुलूब, रिसाला-ए-कुशैरी, मक्तूबात-ए-ऐ’नुल-कुज़ात, वग़ैरा आ’म हो गई थीं और दिल्ली के बाज़ारों में कसरत से मिलती थीं। हज़रत गेसू दराज़ ने रिसाला-ए-कुशैरी, आदाबुल-मुरीदीन, तमहीदात, रिसाला-एग़ौसुल-आ’ज़म (रहि•) वग़ैरा की शरहें लिखें। इन शरहों की इम्तियाज़ी ख़ुसूसियत ये है कि इनमें जगह-जगह मशाइख़-ए-सिलसिला-ए-चिश्त की रविश, और उनके अक़वाल को दर्ज कर के उन सूफ़ी CLASSICS से उनकी मुताबक़त साबित की गई है। ग़ालिबन दकन में इस नौइ’यत का काम वक़्त का सबसे बड़ा तक़ाज़ा था।इस तरह सिलसिला की ता’लीम की जड़ें गहरी और मज़बूत हो गईं। शैख़ बुर्हानुद्दीन ग़रीब के मुरीद मौलाना हम्माद बिन इमादा काशानी ने अहसनुल-अक़्वाल में मशाइख़ की रविश और “बुर्हान” को नक़ल कर के इस तरह की कोशिश की थी लेकिन उनका काम एक ख़ास पस-मंज़र में और महदूद पैमाना पर था।गो उसके नताइज भी बहुत दूर-रस हुए।हज़रत गेसू-दराज़ ने ख़ात्मा (तर्जुमा-ए-आदाबुल-मुरीदीन) में बाबा साहिब महबूब-ए-इलाही (रहि•) चिराग़ देहलवी (रहि•) की रविश को जगह-जगह नक़ल किया है और मशाहीर सूफ़िया की तसानीफ़ को फ़िक्री ऐ’तबार से चिश्तिया सिलसिला की ता’लीम का जुज़्व बना दिया है। फ़िक़्ह-ए-हनफ़ी की तरफ़ भी उनकी तवज्जोह हुई और इमाम अबू हनीफ़ा (रही•) की फ़िक़्ह-ए-अकबर पर उन्होंने शरह लिख कर फ़िक़्ह-ओ-तसव्वुफ़ के दरमियान बो’द को दूर किया और अपने शैख़ की रविश पर मज़बूती से कार-बंद हुए।मसाइल-ए-तसव्वुफ़ पर उनकी दो तसानीफ़ “अस्मारुल-असरार” और “ख़ताएरुल-क़ुद्स” फ़िक्र की बुलंदी में अपना जवाब नहीं रखतीं। गो उनमें बा’ज़ मबाहिस इतने दकी़क़ और नाज़ुक हैं कि आ’म ज़ेहन उनको नहीं समझ सकते।
ग़ुलाम मुई’नुद्दीन अ’ब्दुल्लाह साहिब मआ’रिजुल-विलायत,जो दकन के रहने वाले थे और तसव्वुफ़ के लिट्रेचर पर ख़ासी नज़र रखते थे, लिखते हैं:
“अज़ ग़लबात-ए-शौक़ सुख़न रा अक्सर बे-पर्दा मी–गोयद, ओ-असरार-ओ-अनवार रा इफ़शा मी-नुमायद”
हज़रत गेसू दराज़ को ख़ुद इस का एहसास था।असरार-ओ-मआ’रिफ़ पर गुफ़्तुगू करते-करते बा’ज़-औक़ात एक दम चौंक उठते हैं और बे-इख़्तियार ज़बान पर आ जाता है।
“मोहम्मद हुसैनी बस कुन, चंद ख़ुद-नुमाई-ओ-चंद शीरीं सुख़नी-ओ-चर्ब ज़बानी” ( अस्मारुल-असरार सफ़हा 162)
अनीसुल-उ’श्शाक़ में फ़रमाते हैं:
“सय्यद गेसू दराज़ शुद सुख़न-ए-तू बुलंद कोतह कुनी चूँ कसे महरम-ए-असरार नीस्त” (सफ़हा 21)
असरार-ओ-मआ’रिफ़ पर इस अंदाज़ में गुफ़्तुगू का भी एक पस-मंज़र था।वहदतुल-वजूद पर बाज़ार-ओ-ख़ानक़ाह में गुफ़्तुगू होने लगी थी। जिन किताबों को मशाएख़ ने अ’वाम की दस्त-रस से दूर रखा था, और अगर उन पर हाशिए भी लिखे थे तो अ’रबी ज़बान में, उस वक़्त हर कस-ओ-ना-कस के हाथ में थीं। एक मर्तबा जब ये नज़रियात अ’वाम तक पहुँच गए तो उनसे मुतअ’ल्लिक़ ग़लत-फ़हमियों को दूर करने के लिए उन मबाहिस की वज़ाहत भी ज़रूरी थी।
अ’लावा अज़ीं, हज़रत गेसू-दराज़ को जिन लोगों में काम करना पड़ा था उनका तमद्दुनी, ज़ेहनी, समाजी पस-मंज़र बहुत मुख़्तलिफ़ था। उनमें सूफ़िया भी थे, उ’लमा भी, दस्तार-बंदान भी, बरहमन भी, जोगी भी, और मक़ामी क़बाइल के लोग भी। ग़र्ज़ हर ज़ेहनी सतह और फ़िक्री मे’यार के लोग शामिल थे।उनसे गुफ़्तुगू करने के लिए एक दीगर मज़ाहिब और तरीक़ाहा-ए-फ़िक्र से बराह-ए-रास्त वाक़्फ़ियत ज़रूरी थी तो दूसरी तरफ़ तख़ातुब के मुख़्तलिफ़ अंदाज़-ओ-मे’यार भी ज़रूरी थे।उनकी तसानीफ़ के मुतालआ’ के वक़्त इस हक़ीक़त को पेश-ए-नज़र रखना ज़रूरी है। ख़ुद लिखते हैं:
“हिम्मत-ओ-ग़ैरत जाएज़ नहीं रखती कि बिला तमीज़-ए-अहल-ओ-ना-अहल कलाम किया जाए” (ख़ात्मा)
संस्कृत ज़बान और क़दीम हिन्दुस्तानी तहज़ीब से उनको बराह-ए-रास्त आगाही थी। फ़रमाते हैं:
“मन किताब-ए-संस्कृत-ए-ईशाँ ख़्वांदा-अम –ओ-अफ़्साना-हा-ए-ईशाँ मी-दानम” (जवामिउ’ल-कलिम)
इन हालात में कोई तअ’ज्जुब नहीं कि उन्होंने दकनी और क़दीम उर्दू में अपने ख़यालात का इज़हार ज़रूरी समझा।उनकी जो तसानीफ़ ज़ाए’ हो गईं उनकी ता’दाद इनसे कहीं ज़्यादा है जो दस्तियाब होती हैं। वो अ’रबी और फ़ारसी ज़बानों के माहिर, संस्कृत से वाक़िफ़ और दकनी ज़बान में बोल-चाल की क़ाबलियत रखते थे।उनकी शरहों के मुतालए’ से ये एहसास मोहकम हो जाता है कि ये किताबें महज़ शरहें नहीं हैं बल्कि उन्होंने इस FRAMEWORK में बहुत से नए अफ़्क़ार-ओ-नज़रियात पेश किए हैं।उनकी फ़ितरत की ORIGINALITY यहाँ नुमायाँ नज़र आती है।
(5) हज़रत गेसू दराज़ की ज़ात चिश्तिया सिलसिला की अख़्लाक़ी और रुहानी ता’लीम की मुकम्मल आईना-दार थी।इ’ल्मी और इक्तिसाबी पहलू से क़त्अ’-नज़र, उनकी रग-रग में मशाएख़-ए-सिलसिला की मोहब्बत इस तरह समा गई थी
‘शाख़-ए-गुल में जिस तरह बाद-ए-सहर-गाही का नम’
उनके बाप और नाना दोनों हज़रत महबूब-ए-इलाही (रही•) के दामन-ए-तर्बियत से वाबस्ता रहे थे।हज़रत महबूब-ए-इलाही से मोहब्बत उनको विर्सा में मिली थी और ख़ून-ए-ज़िंदगी की तरह उनकी रगों में दौड़ती थी। यही वजह है कि हज़रत महबूब-ए-इलाही (रहि•) की जितनी मुकम्मल दिल-कश और जीती-जागती तस्वीर उनके मल्फ़ूज़ात में मिलती है किसी दूसरे तस्नीफ़ या मल्फ़ूज़ात में नहीं मिलती।
इस फ़िक्री और समाजी पश-मंज़र में चिश्तिया सिलसिला के बुनियादी उसूलों को, जो तसव्वुर-ए-दीन, समाजी ख़िदमत और अख़्लाक़ी सलाह-ओ-तर्बियत से मुतअ’ल्लिक़ थे, हज़रत गेसू दराज़ ने ग़ैर-मा’मूली रुहानी बसीरत के साथ फैलाया।
मशाएख़-ए-चिश्त के समाजी और अख़्लाक़ी नज़रियात की परवरिश उनके तसव्वुर-ए-दीन और नज़रिया-ए-काएनात के साया में हुई थी। हज़रत महबूब-ए-इलाही फ़रमाया करते थे कि इ’बादत दो तरह की होती है, लाज़िमी और मुतअ’द्दी। रोज़ा, नमाज़, हज वग़ैरा लाज़िमी इ’बादत है। इस का फ़ाएदा करने वाले की ज़ात को पहुँचता है।इ’बादत-ए-मुतअ’द्दी ये है कि दूसरों की चारा-साज़ी की जाए, उनके दुखः-दर्द में मदद की जाए।फिर फ़रमाते हैं कि इ’बादत-ए-मुतअ’द्दी का सवाब इ’बादत-ए-लाज़िमी से ज़्यादा है।चिश्तिया सिलसिला की तारीख़ में ये जुमला आब-ए-ज़र से लिखने के क़ाबिल है।इ’बादत के इस इन्क़िलाबी तसव्वुर ने इन्सानी फ़िक्र-ओ-अ’मल की दुनिया को सिर्फ़ वसीअ’ से वसीअ’-तर ही नहीं बनाया बल्कि उस में ज़िंदगी की एक नई लहर, अ’ज़्म की एक नई तपिश, और मक़्सद का एक नया वलवला बेदार कर दिया।मज़हब का कोई मक़्सद और इ’बादत का कोई तसव्वुर इस ताअ’त-ए-मुतअ’द्दी से आगे नहीं बढ़ सकता। इस से चिश्तिया सिलसिला के निज़ाम में मक़्सदियत की वो क़ुव्वत और अफ़्क़ार की वो बुलंदी पैदा हुई जिसने क़ुलूब-ए-इन्सानी को एक रिश्ता-ए-उल्फ़त में पिरोने में मदद दी और इज्तिमाई’ ज़िंदगी के लिए ये फ़ौज़-ओ-फ़लाह की एक बशारत बन गया।चिश्तिया सिलसिला के ऐ’तिक़ाद-ओ-अ’मल की सारी इ’मारत इसी उसूल पर क़ाएम थी कि दिल-नवाज़ी-ए-मख़्लूक़ ही के ज़रिआ’ ख़ालिक़-ए-काएनात तक रसाई हो सकती है। ख़ुदा से मोहब्बत की राह उसके बंदों की मोहब्बत में से हो कर गुज़री है।किसी दिल को राहत पहुंचाना, आ’ला-तरीन इ’बादत है।
‘दिल ब-दस्त-आवर की हज्ज-ए-अकबर अस्त’
ख़्वाजा अजमेरी (रहि•) से एक-बार पूछा गया कि बेहतरीन इ’बादत क्या है? फ़रमाया
“मज़लूमों और आ’जिज़ों की फ़रियाद को पहुँचना, ज़ई’फ़ों और बेचारों की हाजत-रवाई करना भूकों का पेट भरना। दर-मान्द्गान रा फ़रियाद रसीदन-ओ-हाजत-ए-बे-चारगान रवा कर्दन-ओ-गुर्संगान रा सैर गर्दानीदन” (सियरुल-औलिया सफ़हा 46)
इब्न-ए-बतूता ने लिखा है कि दिमश्क़