हज़रत बाबा फ़रीद के ख़ुलफ़ा
सियरुल-अक़्ताब के मुसन्निफ़ ने हज़रत बाबा फ़रीद के ख़ुलफ़ा की तादाद कसीर बताई है।मगर अमीर-ए-ख़ुर्द ने सिर्फ़ मुंदर्जा ज़ैल ख़ुल़फ़ा का हवाला दिया है।
1۔ शैख़ नजीबुद्दीन मुतवक्किल रहमतुल्लाहि अ’लैह
2۔ मौलाना बदरुद्दीन इस्हाक़
3۔ शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया
4۔ शैख़ अ’ली साबिर
5۔ शैख़ जमालुद्दीन हांसवी
6۔ शैख़ आ’रिफ़
7۔ मौलाना फ़ख़्रुद्दीन सफ़ाहानी
मुतअख़्ख़िरीन ने इस फ़िहरिस्त में चंद और नामों का इज़ाफ़ा किया है।शैख़ुल्लाह और मौलाना मुईनुद्दीन अ’ब्दुल्लाह(मुअल्लिफ़, मआ’रिजुलविलायत) ने शैख़ शम्सुद्दीन तुर्क पानीपत्ती शैख़ वहारू,शैख़ ज़ैनुद्दीन दिमश़्की, शैख़ अ’ली शकररेज़, शैख़ अ’ली शकरबार, शैख़ मोहम्मद सिराज, शैख़ जमाल कामिल. दाऊद पालही, मोहम्मद शाह ग़ौरी, मौलाना मुल्तानी, मौलाना अ’ली बिहारी, मोहम्मद नेशापुरी, मौलाना हमीदुद्दीन, शैख़ यूसुफ़, शैख़ मुंतजिबुद्दीन,शैख़ अ’ली लाहिक़ी और मौलाना तक़ीउद्दीन को भी हज़रत के ख़ुलफ़ा में शामिल किया है।मगर चूँकि मुतक़द्दिमीन में से किसी मुसन्निफ़ ने इसकी तौसीक़ नहीं की इसलिए मुतअख़्ख़िरीन की दी हुई इस फ़िहरिस्त को कोई अहमियत हासिल नहीं है।
हज़रत बाबा फ़रीद रहि• के चँद सर-बरआवुर्दा और मा’रूफ़ ख़लीफ़ा का तज़्किरा दर्ज-ज़ैल है-
हज़रत शैख़ जमालुद्दीन हांस्वी
आप बाबा फ़रीद के क़दीम-तरीन मुरीदों में से थे।हज़रत शैख़ जब अपने किसी मुरीद को ख़िलाफ़त-नामा अ’ता फ़रमाते तो शैख़ जमाल से उस पर दस्तख़त कराने की हिदायत फ़रमाते थे।अमीर-ए-ख़ुर्द ने एक बुज़ुर्ग का वाक़िआ’ बयान किया है जिन्हों ने किसी तरह बाबा फ़रीद से ख़िलाफ़त-नामा हासिल कर लिया था।लेकिन जब वो शैख़ जमाल के पास दस्तख़त कराने के लिए पहुँचे तो उन्होंने दस्तख़त करने से इंकार किया और ख़िलाफ़त-नामे को चाक कर दिया।शैख़ जमाल के इस फ़े’ल से आज़ुर्दा हो कर वो बाबा फ़रीद की ख़िदमत में आए।उन्होंने इस मुआ’मले में मा’ज़ूरी ज़ाहिर की और फ़रमाया:
“पार: कर्दा-ए-जमाल रा मा न-तवानेम दोख़्त”
(जमाल के फाड़े हुए को मैं नहीं सी सकता )
बाबा फ़रीद शैख़ जमाल पर पड़ी शफ़क़त और मोहब्बत फ़रमाते थे। कहते हैं कि बाबा फ़रीद ने महज़ इसी मोहब्बत-ओ-शफ़क़त की बिना पर हांसी में शैख़ जमाल के यहाँ बारह साल तक क़ियाम फ़रमाया था।फ़रमाते थे कि जमाल हमारा जमाल-ए-हुस्न है।एक रिवायत के मुताबिक़ शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया ने शैख़ जमाल के बदले में अपने तमाम मुरीदों को देने के लिए फ़रमाया था।बाबा फ़रीद ने जवाबन फ़रमाया कि इस तरह तबादला माल में तो मुम्किन है मगर जमाल(हुस्न) में मुम्किन नहीं।
बाबा फ़रीद के हल्क़ा-ए-इरादत में दाख़िल होते वक़्त शैख़ जमाल हांस्वी के ख़तीब थे।जैसा कि पहले तहरीर हुआ बाबा फ़रीद ऊँचे दर्जे के मुरीदों से इस बात का मुतक़ाज़ी होते थे कि वो हुकूमत-ए-वक़्त से अपने तमाम तअ’ल्लुक़ात बिल्कुल मुंक़ता’ कर लें। चूँकि ख़तीब का ओ’हदा रियासत के ज़ेर-ए-एहतिमाम होता था इसलिए शैख़ जमाल को भी ये ओ’हदा तर्क करना पड़ा।एक मर्तबा शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया अजोधन जाते हुए शैख़ जमाल के यहाँ क़ियाम-पज़ीर हुए।शैख़ जमाल ने उनसे इल्तिमास किया कि वो शैख़ फ़रीद को उनकी बद-हाली और उ’सरत से मुत्तला’कर दें।जब शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया ने ये पैग़ाम पहुँचाया तो शैख़ फ़रीद फ़रमाने लगे।
“ऊ रा ब-गो चूँ विलायत ब-कसे दादः-शवद ऊ रा वाजिब अस्त इस्तिमालत”
(उनसे कहो कि जब किसी को विलायत दी जाती है तो उस पर वाजिब है कि पूरी तरह अल्लाह की तरफ़ मुतवज्जिह रहे।)
शैख़ जमालुद्दीन ने अपने पीर-ओ-मुर्शिद को देखने की ग़रज़ से सात मर्तबा अजोधन का सफ़र किया।जब ख़राबी-ए-सेहत तवील सफ़र करने में माने’ हुई तो उन्होंने अपनी ख़ादिमा को ब-तौर-ए-क़ासिद रवाना किया।बाबा फ़रीद ने ख़ादिमा से दरयाफ़्त फ़रमाया मेरा जमाल कैसा है? ख़ादिमा ने जवाबन अ’र्ज़ किया। जब से ख़्वाजा आपके मुरीद हुए हैं उन्होंने अपने गाँव,जाइदाद मिल्कियत और ओ’हद-ए-ख़िताबत सब को ख़ैर-बाद कह दिया है।अब वो सख़्त फ़ाक़ा-कशी और मसाएब में मुब्तला हैं।बाबा फ़रीद इस इत्तिलाअ’से ख़ुश हुए और फ़रमाने लगे। अल्हम्दुलिल्लाहि जमाल अब ख़ुश है।
शैख़ जमाल बड़े जय्यिद आ’लिम थे।दो किताबें,एक दीवान (फ़ारसी) और एक अ’रबी तस्नीफ़ ‘मुल्हिमात’ आपसे याद-गार हैं।
शैख़ जमाल ने अपने पीर-ओ-मुर्शिद के हयात में ही विसाल फ़रमाया।
उनकी ख़ादिमा जो उम्मुल-मोमिनीन के नाम से मशहूर थीं, शैख़ जमाल के साहिबज़ादे मौलाना बुर्हानुद्दीन को हज़रत शैख़ की ख़िदमत में लेकर हाज़िर हुईं।मौलाना बुर्हानुद्दीन उस वक़्त सिग़र-ए-सिन थे। लेकिन इस नव-उम्री के बावजूद हज़रत ने उनको ख़िलाफ़त-ए-ताम्मा अ’ता फ़रमाया था और हिदायत फ़रमाई थी कि वो दिल्ली जाकर शैख़ निज़ामुद्दीन की सोहबत से इस्तिफ़ादा करें।ख़ादिमा हज़रत शैख़ की इस वसी’-उल-क़ल्बी पर मुतअ’ज्जिब हुईं कि किस तरह उन्होंने एक कम-सिन लड़के को ख़िलाफ़त से सरफ़राज़ फ़रमाया।ख़ादिमा ने अ’र्ज़ किया ख़्वाजा बुरहानुद्दीन बाला है(यानी महज़ एक नव उम्र लड़का है)।हज़रत ने जवाब दिया पूनम का चाँद भी बाला होता है।(यानी चौदहवीं का चांद भी पहले छोटा ही होता है)।
शैख़ बुर्हानुद्दीन कुछ अ’र्से तक शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया की सोहबत में रहे।लेकिन इस दौरान में उन्होंने किसी को मुरीद नहीं किया।फ़रमाया करते थे कि हज़रत निज़ामुद्दीन मोहम्मद की मौजूदगी में मेरे लिए किसी को मुरीद करना मुनासिब नहीं है। हज़रत शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया के मुम्ताज़-ओ-मा’रूफ़ मुरीद-ओ-ख़लीफ़ा शैख़ क़ुतुबुद्दीन मुनव्वर भी उन्हीं के साहिबज़ादे थे।
शैख़ नजीबुद्दीन मुतवक्किल
आप हज़रत शैख़ फ़रीद रहि• के हक़ीक़ी बिरादर-ए-ख़ुर्द थे।तहसील-ओ-तक्मील-ए-इ’ल्म की ग़रज़ से दिल्ली आए लेकिन बाद में यहीं मुस्तक़िल सुकूनत इख़्तियार कर ली।आपकी ज़िंदगी सख़्त फ़ाक़ा और उ’सरत में बसर होती थी।एक मर्तबा हज़रत शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया ने मज्मा-ए’-हाज़िरीन से फ़रमाया शैख़ नजीबुद्दीन 70 साल तक दिल्ली में मुक़ीम रहे।मगर उनके पास न तो कोई जाइदाद थी और न कोई वज़ीफ़ा मिलता था।वो अपने अहल-ओ-अ’याल के साथ अल्लाह की रज़ा पर राज़ी रह कर ख़ुशी के साथ ज़िंदगी गुज़ारते थे।मैंने शहर में उन जैसा कोई दूसरा शख़्स नहीं देखा।उनके पास एक छोटा सा मकान था जिसमें सिर्फ़ एक छोटा सा कमरा था और उसी में वो अपने बीवी बच्चों के साथ रहते थे।उस कमरा पर एक टूटा हुआ छप्पर पड़ा था जिसमें वो आने वाले लोगों से मुलाक़ात करते थे।एक मर्तबा ई’द के दिन चँद क़लंदर मुबारक-बाद देने के लिए उनकी ख़िदमत में हाज़िर हुए।शैख़ नजीबुद्दीन के घर में उनके ख़ातिर-मुदारात के लिए उस वक़्त कुछ भी नहीं था।शैख़ ने उनके ख़ुर्द-ओ-नोश के मुहय्या करने के लिए घर की किसी चीज़ को फ़रोख़्त करने का इरादा किया।पहले उन्होंने अपनी अहलिया के दामन पर नज़र डाली।मगर वो इतना शिकस्ता और पैवंद लगा हुआ था कि मा’मूली क़ीमत में भी फ़रोख़्त नहीं हो सकता था।फिर उन्होंने अपने मुसल्ले की तरफ़ देखा मगर उसकी हालत भी अच्छी नहीं थी।जब ख़ातिर के लिए कोई चीज़ मुयस्सर नहीं आई और तमाम कोशिशें नाकाम हो गईं तो शैख़ नजीब ने महज़ ठंडा पानी उनको पेश किया।देहली की एक मुत्तक़ी और फ़क़ीर-मनिश ख़ातून बीबी फ़ातिमा अक्सर शैख़ नजीब के फ़ाक़ा-ज़दा बीवी बच्चों की इम्दाद किया करती थीं।
हज़रत शैख़ फ़रीदुद्दीन ने उनको ख़िलाफ़त अ’ता फ़रमाई थी। मगर उनके मुरीद का कोई हाल महफ़ूज़ नहीं है।उन्होंने अपने बिरादर-ए-बुज़ुर्ग से मिलने की ग़रज़ से उन्नीस मर्तबा अजोधन का सफ़र किया।उन्नीसवीं मर्तबा जब वो शैख़ फ़रीद से मिलकर रुख़्सत होने लगे तो इस मर्तबा जैसा कि मामूल था हज़रत शैख़ ने फ़ातिहा के लिए हाथ नहीं उठाए और न ये दुआ’की कि बिरादर-ए-ख़ुर्द फिर मुझसे मिलने के लिए यहाँ आएं।शैख़ नजीब ने अपने बिरादर-ए-बुज़ुर्ग को फिर कभी नहीं देखा और हज़रत शैख़ के विसाल से चंद माह पेशतर ही राही-ए-मुल्क-ए-बक़ा हुए और मुंडा दरवाज़े के क़रीब शहर के बाहर मदफ़ून हुए। फ़वाइदुल-फ़ुवाद में दिए हुए दो हवालों से मा’लूम होता है कि आप अ’मली ज़ौक़ रखते थे।
मौलाना बदरुद्दीन इस्हाक़
आप दिल्ली के मशहूर-ओ-मुम्ताज़ आ’लिम थे।हज़रत शैख़ फ़रीद ने आपको निजी ख़िदमात पर मामूर फ़रमाया था।जमाअ’त-ख़ाने का कुल इंतिज़ाम और निगरानी आपके सुपुर्द थी। हज़रत शैख़ रहि• की जानिब से ता’वीज़ वग़ैरा भी आपही तहरीर फ़रमाते थे।इस के अ’लावा ख़िलाफ़त-नामों के मुसव्वदात तैयार और तहरीर करने की ख़िदमत भी आप ही अंजाम देते थे।हज़रत शैख़ बदरुद्दीन ने अपने पीर-ओ-मुर्शिद के हीन-ए-हयात में मलिक शर्फ़ुद्दीन कुबरा मक़्ता दीपालपुर के सिवाए के जिन को हज़रत शैख़ ने हल्क़ा-ए-बैअ’त-ओ-इरादत में दाख़िल करने का सरीह हुक्म फ़रमाया था।आपने किसी को भी बैअ’त नहीं किया।
शैख़ इस्हाक़ ने अ’रबी सर्फ़-ओ-क़वाइ’द पर एक इ’ल्मी किताब तस्नीफ़ की थी जिसका नाम तस्रीफ़-ए-बदरी था।शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया के पास इस किताब का एक दस्तख़ती नुस्ख़ा था।अब ये किताब नादिरुल-वजूद है।
हज़रत शैख़ फ़रीद ने अपनी साहिबज़ादी बीबी फ़ातिमा को आपके हिबाला-ए-अ’क़्द में दिया था।हज़रत शैख़ के विसाल के बाद उनके साहिबज़ादे शैख़ बदरुद्दीन सुलैमान के साथ शैख़ इस्हाक़ के तअ’ल्लुक़ात कुछ ना-ख़ुशगवार हुए थे।इसी वजह से सय्यद मोहम्मद किर्मानी की ईमा पर आप अजोधन की जामे’ मस्जिद में मुंतक़िल हो गए थे और वहाँ छोटे बच्चों को क़ुरआन-ए-मजीद का दर्स दिया करते थे।आपको अपने पीर-ओ-मुर्शिद से इतनी गहरी और रासिख़ अ’क़ीदत थी कि उनके विसाल के बा’द आप भी ज़्यादा अ’र्से तक ज़िंदा न रह सके।शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया आपकी बे-हद ता’ज़ीम-ओ-तकरीम फ़रमाते थे और आपके मम्नून-ए-करम थे।आपने शैख़ इस्हाक़ के अहल-ओ-अ’याल को देहली बुलाया था और उनके लड़कों की ता’लीम-ओ-तर्बियत में गहरा ज़ौक़ और ज़ाती दिल-चस्पी लेते थे।
शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया
आप हज़रत शैख़ फ़रीद के खलीफ़ा में सबसे ज़्यादा मुम्ताज़ और सर-बरआवर्दा थे। तक़रीबन निस्फ़ सदी तक देहली में मसरूफ़-ए-कार रहे। ब-क़ौल-ए-बर्नी आपकी ख़िदमत में हर क़िस्म के लोग हाज़िर होते और सुकून हासिल करते थे।आपकी ब-दौलत चिश्ती सिल्सिला मुंतहा-ए-उ’रूज तक पहुँचा।आपके फ़ैज़-याफ़्ता ख़लीफ़ा और मुरीदीन ने मुल्क के तक़रीबन तमाम बड़े और अहम हिस्सों में अ’मली तौर पर रुहानी मराकिज़ की बुनियाद क़ाएम की।हज़रत शैख़ फ़रीद के मुरीदीन के अख़्लाफ़-ओ-अहफ़ाद नीज़ ख़ुद शैख़ फ़रीद के आ’क़ाब ने आपको रुहानी पेशवा तस्लीम किया।
शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया को अवाएल-ए-उ’म्री ही से हज़रत शैख़ से वालिहाना मोहब्बत-ओ-अ’क़ीदत थी।एक दिन बदायूँ के मक्तब में आप एक ना’त पढ़ रहे थे कि अबू-बक्र नामी एक क़व्वाल जो मुल्तान और अजोधन का सफ़र कर चुका था आपकी ख़िदमत में हाज़िर हुआ और पंजाब के इस सफ़र के दिल-चस्प तजरिबात बयान करने लगा।अबू-बक्र ने सबसे पहले शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया की ख़ानक़ाह का हाल बयान करना शुरूअ’ किया।कहने लगा कि शैख़ की तो बांदियाँ तक हमा वक़्त ज़िक्र में मश्ग़ूल रहती हैं।वो तो अनाज पीसते वक़्त भी अस्मा-ए-इलाही का विर्द करती रहती हैं।मगर उन वाक़िआ’त को सुनकर हज़रत शैख़ निज़ामुद्दीन का क़ल्ब-ए-मुबारक बिल्कुल मुतअस्सिर नहीं हुआ।हाँ जब उसने शैख़ फ़रीद के तक़द्दुस और तक़्वे का ज़िक्र किया तो आपकी रूह-ए-मुबारक में जोश और तहर्रुक पैदा हो गया।आपको यक-लख़्त शैख़ फ़रीद से गहरी अ’क़ीदत-ओ-मोहब्बत हो गई।इस तरह कि आप हर नमाज़ के बाद शैख़ फ़रीद का नाम-ए-नामी ज़बान से दोहराते थे।हत्ता कि जब तक आप शैख़ का तसव्वुर नहीं कर लेते थे अपने बिस्तर पर सोने के लिए नहीं जाते थे।जब आपके अहबाब को इसका इ’ल्म हुआ तो एक मौक़ा’पर उन्होंने आपको हज़रत शैख़ फ़रीद से बैअ’त कर लेने का मश्वरा दिया।मुसलसल 4 साल यूँही बीत गए।जब आपका सिन 16 साल का हुआ तो तक्मील-ए-इ’ल्म के लिए आपने देहली जाने का क़स्द किया ताकि दारुस्सल्तनत के मशहूर-ओ-मा’रूफ़ उ’लमा-ओ-फ़ुज़ला की सोहबत में रह कर शरफ़-ए-तलम्मुज़ हासिल करें। औ’ज़ नामी एक मुअ’म्मर शख़्स आपके हम-राह थे।वो हज़रत शैख़ फ़रीद की रुहानी अ’ज़मत के क़ाइल थे और रासिख़ुल-ऐ’तिक़ाद थे।दौरान-ए-सफ़र जब कभी रह-ज़नों या वहशी जानवरों से ज़रा सा भी ख़तरा होता तो वो बे-साख़्ता ज़ोर से चिल्लाते:
‘ऐ पीर दौड़ो, अरे पीर हम आपके हिफ़ाज़त और निगह-दाश्त में आगे बढ़ रहे हैं’।
शैख़ निज़ामुद्दीन को ये इ’ल्म न था कि वो कौन से बुज़ुर्ग हैं जिनसे ये अ’र्ज़ कर रहे हैं। औ’ज़ से दर्याफ़्त किया तो उन्होंने बड़े अदब से शैख़ फ़रीद का नाम लिया।अजोधन के अ’ज़ीमुल-मर्तबत बुज़ुर्ग पहले ही आपके दिन का तसव्वुर और रात का ख़्वाब बुने हुए थे। औ’ज़ ने जब उनका हवाला दिया तो शैख़ निज़ामुद्दीन की अ’क़ीदत-ओ-जज़्बात के शो’ले और भी भड़क उठे।
अ’जीब इत्तिफ़ाक़ है कि देहली पहुँच कर वो उसी सराय में ठहरे जो शैख़ फ़रीद रहि• के बिरादर-ए-ख़ुर्द शैख़ नजीब मुतवक्किल के बिल्कुल पड़ोस में वाक़े’थी।शैख़ निज़ामुद्दीन अक्सर शैख़ नजीब के मकान पर जाते थे और उनसे गहरे रवाबित पैदा कर लिए थे।
शैख़ निज़ामुद्दीन ने बड़ी मेहनत और दीदा-रेज़ी से ता’लीम हासिल की और जल्द ही देहली के इ’ल्मी हल्क़ों में अपना मख़्सूस-ओ-मुंफ़रिद मक़ाम पैदा कर लिया।एक दिन वो शैख़ नजीबुद्दीन के पास पहुँचे और कहा कि आप अल्लाह तआ’ला से दुआ’ कीजिए कि मेरा तक़र्रुर क़ाज़ी की हैसियत से हो जाए। शैख़ नजीबुद्दीन जिनको इस नव-उम्र आ’लिम की पेशानी पर रुहानी अ’ज़मत के आसार नज़र आ रहे थे बड़े अहम अंदाज़ में फ़रमाने लगे।ख़ुदा न करे कि तुम क़ाज़ी मुक़र्रर हो जाओ।
शैख़ नजीब रहि• की सोहबत में शैख़ निज़ामुद्दीन को हज़रत शैख़ फ़रीद रहि• से रोज़-अफ़्ज़ूँ मोहब्बत और अ’क़ीदत होती गई।एक दिन वो यक-लख़्त ब-ग़ैर किसी साज़-ओ-सामान के अजोधन के सफ़र के लिए तैयार हो गए।सन 655 हिज्री मुताबिक़ सन 1257 ई’स्वी किसी चहार-शंबा को उन्होंने हज़रत शैख़ रहि• से मुलाक़ात की। हज़रत शैख़ को उनकी शख़्सियत में अपना ही नहीं बल्कि ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी और दूसरे चिश्ती अस्लाफ़ का हक़ीक़ी रुहानी वारिस और जा-नशीन नज़र आया।आपने ये शेर पढ़ते हुए उनका इस्तिक़बाल किया।
ऐ आतिश-ए-फ़िराक़त दिल-हा कबाब कर्दः
सैलाब-ए-इश्तियाक़त जाँ-हा ख़राब कर्दः
शैख़ निज़ामुद्दीन जिनके क़ल्ब में जज़्बात का दरिया मौज-ज़न था, मुश्किल ही से ये बताने की हिम्मत कर सके कि हज़रत शैख़ से मिलने का उनको इश्तियाक़ था? शैख़ के रो’ब से आप कांप रहे थे। ब-मुश्किल तमाम ज़बान से ये जुमला अदा हो सका
इश्तियाक़-ए-पा-बोसी ग़ालिब बूदः अस्त
लिकल्लि -दाख़िलिन दह्शतुन(हर नए आनने वाले को घबराहट होती है) शैख़ ने तसल्ली देते हुए फ़रमाया।उसी दिन शैख़ निज़ामुद्दीन हज़रत शैख़ फ़रीद के हल्क़ा-ए-इरादत-ओ-बैअ’त में दाख़िल हुए और अपना सर मुंडवाया।
हज़रत शैख़ रहि• के जुमला मुरीदीन जो जमाअ’त-ख़ाने में रहते थे उ’मूमन ज़मीन पर ही सोते थे,मगर हज़रत शैख़ ने शैख़ बदरुद्दीन इस्हाक़ को हुक्म दिया कि वो देहली से आए हुए उस नव-जवान मुरीद के लिए चारपाई मुहय्या करें। इस तरह शैख़ ने उनकी इ’ज़्ज़त-अफ़ज़ाई फ़रमाई।शैख़ निज़ामुद्दीन को चारपाई पर सोने में बड़ा तअम्मुल हुआ क्यूँकि बहुत से उ’लमा-ओ-हुफ़्फ़ाज़ ज़मीन पर सो रहे थे। लेकिन शैख़ बदरुद्दीन ने कहा कि हज़रत शैख़ के हुक्म की ता’मील हर बात पर मुक़द्दम है।
बैअ’त होने के बाद शैख़ निज़ामुद्दीन ने अपने पीर-ओ-मुर्शिद से अ’र्ज़ किया क्या मुझे ता’लीम तर्क कर के इ’बादात और औराद-ओ-वज़ाइफ़ में मश्ग़ूल हो जाना चाहिए? शैख़ ने फ़रमाया मैं कभी किसी से इस बात का तालिब नहीं होता कि वो सिल्सिला-ए-ता’लीम मुंक़ता’कर दे।”दोनों को जारी रखो।आख़िर में जिसको ग़ालिब देखो उसी में मश्ग़ूल हो जाओ।दरवेश के लिए कुछ इ’ल्म हासिल करना भी ज़रूरी है।
एक और अहम और क़ाबिल-ए-क़द्र नसीहत जो शैख़ ने अपने नव-जवान मुरीद को की वो ये थी कि दुश्मनों को नर्म करने की कोशिश करनी चाहिए और हुक़ूक़ की अदाएगी में हर्गिज़ कोताही नहीं होनी चाहिए जब शैख़ निज़ामुद्दीन अजोधन से वापस आए तो सबसे पहले एक पार्चा-फ़रोश का क़र्ज़ा जो उन पर वाजिब था अदा किया।फिर एक किताब जो किसी से उन्होंने मुस्तआ’र ली थी और गुम हो गई उसकी क़ीमत अदा की।
हज़रत शैख़ के ज़माना-ए-हयात में शैख़ निज़ामुद्दीन तीन मर्तबा अजोधन हाज़िर हुए।दूसरी मर्तबा जब वो हाज़िर हुए तो हज़रत शैख़ से छः पारे क़ुरआन-ए-मजीद के तज्वीदन पढ़े। पाँच बाब अ’वारिफ़ुल-मआ’रिफ़ के और दूसरी किताबें पढ़ीं।
जमादिउल-ऊला सन 664 हिज्री मुताबिक़ 1265 ई’स्वी में निज़ामुद्दीन आख़िरी मर्तबा अपने पीर-ओ-मुर्शिद की ख़िदमत में हाज़िर हुए। हज़रत बड़ी शफ़क़त से पेश आए और बहुत सी दुआ’एं। दीं। “फ़रमाया मैंने दोनों जहान तुम्हें बख़्श दिए हैं। जाओ और हिंदुस्तान की बादशाहत हासिल कर लो”
13 रमज़ानुल-मुबारक सन 664 हिज्री मुताबिक़ 1265 ई’स्वी को हज़रत शैख़ फ़रीद ने शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया को ख़िलाफ़त- नामा अ’ता फ़रमाया जिन्हों ने ता-हयात चिश्ती सिल्सिले की ता’लीमात नीज़ तसव्वुफ़-ओ-दरवेशी के उसूल की इशाअ’त को अपना शिआ’र बनाए रखा।बर्नी ने हज़रत शैख़ निज़ामुद्दीन की शोहरत और मक़्बूलियत और असरात का जो मुफ़स्सल तज़्किरा किया है वो पूरा नक़्ल करने के क़ाबिल है।
शैख़ निज़ामुद्दीन का दरवाज़ा हर ख़ास-ओ-आ’म के लिए खुला हुआ था। हर क़िस्म के अश्ख़ास ख़्वाह वो बड़े हों या छोटे, अमीर हों या जाहिल, शहरी हों या देहाती, सिपाही हों या जंग-जू, आज़ाद हों या ग़ुलाम आपके हल्क़ा-ए-बैअ’त-ओ-इरादत में शामिल हो सकते थे।ये लोग मम्नूअ’और ना-जाइज़ बातों से एहितराज़ करते थे क्यूँकि वो अपने को हज़रत शैख़ का मुरीद तसव्वुर करते थे और अगर किसी से कोई गुनाह सर-ज़द हो जाता तो वो उसका ऐ’तराफ़ करता था और इताअ’त का अज़ सर-ए-नव अ’ह्द करता था। अ’वामुन्नास इताअ’त-ओ-इ’बादत की तरफ़ माएल नज़र आते थे।मर्द और औ’रतें, जवान और बूढ़े दूकान-दार और मुलाज़िम, बच्चे और ग़ुलाम सब के सब नमाज़ अदा करने आते थे।उनमें बहुत से जो हज़रत शैख़ के हम-राह रोज़ाना नमाज़ अदा करने आते थे, चाश्त और इश्राक़ भी पढ़ते थे। शहर से ग़्यासपुर जाते हुए रास्ता में बहुत से ऐसे चबूतरे बनाए गए थे जिन पर छेर पड़ा हुआ था। बहुत से कुँवें खुदवाए गए, पानी के बर्तन रखे गए, फ़र्श बिछाए गए और हर चबूतरे पर एक हाफ़िज़ और ख़ादिम मुक़र्रर किया गया ताकि हज़रत शैख़ से मिलने वालों को नमाज़ अदा करने में कोई दुशवारी न हो।पीर-ओ-मुर्शिद के अदब-ओ-एहतिराम की वजह से गुनाह से मुतअ’ल्लिक़ कोई बात करने की मजाल न थी।अब मौज़ू-ए’-गुफ़्तुगू मा’सियत न था बल्कि नमाज़-ए-अव्वाबीन, चाश्त और तहज्जुद के बारे में लोग बातें करते नज़र आते थे।या’नी ये कि उन नमाज़ों में कितनी रकअ’तें होती हैं। हर रकअ’त में कौन सी सूरत पढ़ी जाती है और उन नमाज़ों के बाद कौन-कौन सी दुआ’एं पढ़ी जानी चाहिए ? हज़रत शैख़ हर रात कितनी रकअ’त नमाज़ अदा फ़रमाते हैं और हर रकअ’त में क़ुरआन-ए-मजीद की कौनसी सूरत और कौन सा दुरूद शरीफ़ पढते हैं? शैख़ बख़्तियार और शैख़ फ़रीद का क्या मा’मूल था? जदीद मुरीदीन पुराने मुरीदों से इस क़िस्म के सवालात करते थे, वो नमाज़, रोज़ा और तक़्लील-ए-अ’ज़ा के बारे में दर्याफ़्त करते थे।बहुत से लोगों ने क़ुरआन शरीफ़ हिफ़्ज़ करना शुरूअ’ कर दिया था।हज़रत शैख़ अपने नए मुरीदों को पुराने मुरीदों के सुपुर्द फ़रमाते थे।पुराने मुरीदों का मश्ग़ला इ’बादत और रियाज़त के सिवा कुछ न था। दुनिया से बे-तअ’ल्लुक़ हो कर अ’क़ाइद से मुतअ’ल्लिक़ किताबें या बुज़ुर्गों की सवानिह-हयात का मुतालआ’ करते थे।ख़ुदा न करे कि वो दुनियावी मुआ’मलात से मुतअ’ल्लिक़ गुफ़्तुगू करें या दुनिया-दारों के घरों की तरफ़ रुख़ करें।क्यूँकि इन बातों को वो ग़लत समझते थे और गुनाह जानते थे। ज़ाइद या नफ़्ल नमाज़ों की मुदावमत में इस दर्जा ग़ुलू था कि सुल्तान के दरबार के बहुत से ओमरा, मुहासिब, मुंशी, मुहाफ़िज़, और शाही ग़ुलाम हज़रत शैख़ से बैअ’त हो गए थे।ये लोग चाश्त और इश्राक़ तक अदा करते थे।हर क़मरी महीने की 13,14 और 15 तारीख़ को (यौम-ए-बीज़) में रोज़ा रखते थे।नीज़ ज़िल-हिज्जा के अ’शरा-ए-अव्वल में रोज़ा रखते थे।शहर का कोई गोशा ऐसा बाक़ी न था जिसमें सोलहा-ओ-अत्क़िया का मज्मा’ हर बीस रोज़ में या हर माह में न होता हो और उस में सूफ़याना अश्आर न सुनाए जाते हों और लोगों पर रिक़्क़त तारी न होती हो।शैख़ के अक्सर मुरीदीन मस्जिदों में या घरों में नमाज़-ए-तरावीह अदा करते थे।जो लोग क़ाइमुल-लैल थे वो रमज़ान के पूरे महीने में जुमा’ के दिन और अय्याम-ए-हज में अक्सर पूरी रात इ’बादत में मसरूफ़ रहते थे। ज़रा बड़े मर्तबे के मुरीदीन तमाम साल रात की तिहाई या तीन चौथाई हिस्से तक बेदार रह कर इ’बादत करते थे। बा’ज़ ऐसे भी थे जो इ’शा के वुज़ू से फ़ज्र की नमाज़ अदा करते थे।इस ता’लीम का ये असर हुआ कि कुछ मुरीदीन ने इ’बादत के ज़रिऐ’अपना मुंफ़रिद रुहानी मक़ाम हासिल कर लिया।
हज़रत शैख़ के ज़ेर-ए-असर मुल्क के अक्सर मुस्लमानों का रुजहान तसव्वुफ़, तर्क-ए-दुनिया और इ’बादत-ओ-रियाज़त की तरफ़ हो गया वो शैख़ से गहरी अ’क़ीदत-ओ-इरादत रखने लगे। शहंशाह अ’लाउद्दीन और उसके अह्ल-ए-ख़ाना की रासिख़ अ’क़ीदत इस सिल्सिले में क़ाबिल-ए-ज़िक्र है।आ’माल-ए-सालिहा की बरकत से लोगों के दिलों में खूबियाँ जल्वा-गर होने लगीं।शराब, जुआ और दूसरी हराम चीज़ों का ज़िक्र भी भूल कर भी उनकी ज़बान पर न आता था। गुनाहों और दूसरी बुराइयों से लोगों को इतनी नफ़रत हो गई थी कि वो इसको कुफ़्र और ना-फ़रमानी समझते थे।एक दूसरे लिहाज़ की वजह से लोग इहतिकार (ज़ख़ीरा-अंदोज़ी) से एहतिराज़ करते थे। ख़ौफ़ की वजह से दूकानदारों ने झूट बोलना कम या ग़लत तौलना और लोगों को धोका देना छोड़ दिया था।अक्सर उ’लमा-ओ-फ़ोज़ला जो हज़रत शैख़ की सोहबत में हाज़िर रहते थे महज़ तसव्वुफ़-ओ-अ’क़ाइद ही की किताबों का मुतालआ’ करते थे। को क़ुव्वतुल-क़ुलूब, इह्याउल-उ’लूम और उसका तर्जुमा अ’वारिफ़, कश्फ़ुल-महजूब, शर्ह-ए-तअ’र्रुफ़, रिसाला-ए-क़ुशैरी, मिर्सादुल-इ’बाद, मक्तूबात-ए-ऐ’नुल-क़ुज़ात नीज़ क़ाज़ी हमीदुद्दीन नागौरी की तसानीफ़ लवाइह और लवामे’ जैसी किताबों के बहुत से ख़रीदार नज़र आते थे।इसी तरह अमीर हसन की फ़वाइदुल-फ़ुवाद हज़रत शैख़ के मल्फ़ूज़ात और अक़्वाल का मज्मुआ’होने की वजह से ब-कसरत फ़रोख़्त होने लगी।लोग कुतुब-फ़रोशों से अ’क़ाइद से मुतअ’ल्लिक़ किताबों को दर्याफ़्त करते थे।कोई भी रूमाल ऐसा न था जिसमें मिस्वाक और कंघी बंधी हुई नज़र न आती हो।नमाज़ियों की तादाद इतनी बढ़ी कि पानी और चमड़े की मश्कों की क़ीमतों में इज़ाफ़ा होने लगा।मुख़्तसर ये है कि ख़ालिक़-ए-अकबर ने हज़रत शैख़ रहि• को ज़माना-ए-बा’द में शैख़ जुनैद और शैख़ बायज़ीद का हम-रुत्बा पैदा फ़रमाया था।और हज़रत को इस इ’श्क़-ए-हक़ीक़ी से मुज़य्यन फ़रमाया था जिसको अ’क़्ल-ए-इंसानी समझने से क़ासिर है।हज़रत शैख़ निज़ामुद्दीन जामे-ए-सिफ़ात-ओ-कमालात बुज़ुर्ग थे और जादा-ए-तसव्वुफ़ की रहनुमाई का फ़न आपकी ज़ात पर ख़त्म और मुकम्मल हो गया था।
हर साल 5 मुहर्रम को जो हज़रत शैख़ुल-इस्लाम शैख़ फ़रीदुद्दीन रहमतुल्लाहि अ’लैह का यौम-ए-विसाल है।लोगों की बड़ी ता’दाद शहर से और हिन्दुस्तान के मुख़्तलिफ़ हिस्सों से आकर हज़रत शैख़ के मकान पर जम्अ’ हुई थी।।
हज़रत शैख़ फ़रीद ने फ़रमाया था निज़ामुद्दीन तुम एक ऐसा दरख़्त होगे जिसके सुकून-बख़्श साए में लोग आराम करेंगे।
हज़रत शैख़ निज़ामुद्दीन ने अपने पीर-ओ-मुर्शिद की इन तवक़्क़ुआ’त और उम्मीदों को सच्चा और पूरा दिखाया
शैख़ अलाउद्दीन अ’ली बिन अहमद साबिर:
आप चिश्ती सिल्सिले की साबरी शाख़ के बानी-ओ-मुवस्सिस थे।आपको शैख़ फ़रीद के मशहूर खल़िफ़ा में शुमार किया जाता है।मगर बद-क़िस्मती से इस अ’ज़ीमुल-मर्तबत बुज़ुर्ग का इब्तिदाई तज़्किरा कहीं दस्तयाब नहीं होता।किसी मुआ’सिर मुअर्रिख़ या तज़्किरा-नवीस ने किसी किताब में आपका हवाला नहीं दिया।शाहजहाँ के दौर-ए-हुकूमत से आपके बा’ज़ वाक़िआ’त कसरत से मिलते हैं।उसी ज़माने में सियरुल-अक़्ताब के मुसन्निफ़ ने आपका तज़्किरा किया है और उन हालात का ज़िक्र भी किया है जिनमें आपकी वफ़ात के साल-हा-साल बा’द आपके मज़ार का कलियर में पता चलाया था।बहर-हाल साबिरी सिलसिला तारीख़ की रौशनी में उसी वक़्त आया जब शैख़ अहमद अ’ब्दुल-हक़ (अल-मुतवफ़्फ़ा सन 837 हिज्री मुताबिक़ सन 1433 ई’स्वी )ने रुदौली ज़िला’ बारहबंकी में तसव्वुफ़ और रूहानियात का एक अ’ज़ीम मरकज़ क़ाएम फ़रमाया और इस सिल्सिले की ता’लीमात की इशाअ’त आ’म फ़रमाई।
शैख़ आ’रिफ़:
फ़वाइदुल-फ़ुवाद और सियरुल-औलिया में आपका सरसरी और इज्माली तज़्किरा किया गया है।हज़रत शैख़ ने उन को सीस्तान रवाना फ़रमाया था।एक मर्तबा उच्च के गवर्नर ने आपको एक सौ टंके सपुर्द किए और हज़रत शैख़ फ़रीद की ख़िदमत में पेश कर देने की हिदायत की।शैख़ आ’रिफ़ ने सिर्फ़ 50 टंके हज़रत शैख़ को पेश किए और बक़िया अपने पास रख लिए।जब वो शैख़ के पास पहुँचते तो शैख़ मुस्कुरा कर फ़रमाने लगे आ’रिफ़ तुमने उस रक़म की बिरादराना तक़्सीम की है। आ’रिफ़ ये अल्फ़ाज़ सुनकर बड़े पशेमान और नादिम हुए और पूरी रक़म शैख़ के सामने रख दी और मुआ’फ़ी चाही।बाबा फ़रीद ने उनको सर मुंडवाने की हिदायत फ़रमाई और इरादत की तज्दीद की गई।इस तौबा-ओ-तज्दीद के बाद शैख़ आ’रिफ़ गहरी अ’क़ीदत और इरादत की ज़िंदगी गुज़ारने लगे।हज़रत शैख़ उनको ख़िलाफ़त-नामा अ’ता फ़रमाया और दुबारा सीस्तान चले जाने का हुक्म फ़रमाया। ख़िलाफ़त-नामा हासिल करने के बा’द वो फिर शैख़ की ख़िदमत में हाज़िर हुए और अ’र्ज़ किया ये बड़ी ज़िम्मेदारी का काम है और अकाबिर शुयूख़ ही इसको अंजाम दे सकते हैं।मुझ जैसा कमज़ोर-ओ-नातवाँ इसकी अहलियत नहीं रखता।हज़रत शैख़ ने उनको मक्का मुकर्रमा जाने की इजाज़त अ’ता फ़रमाई जहाँ से वो फिर कभी वापस नहीं आए।
-(तर्जुमा जनाब अनीस अहमद फ़रीदी फ़ारूक़ी, एम.ए अ’लीगढ)
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