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ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी - मुल्ला वाहिदी देहलवी

मुनादी

ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी - मुल्ला वाहिदी देहलवी

मुनादी

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    दिल्ली की जामा’ मस्जिद से साढे़ ग्यारह मील जानिब-ए-जनूब मेहरवली एक क़स्बा है जो बिगड़ कर मेहरौली हो गया है। दिल्ली वाले इसे क़ुतुब साहिब और ख़्वाजा साहिब भी कहते हैं। यहाँ बड़े-बड़े औलिया-अल्लाह मदफ़ून हैं। इनमें सबसे बड़े क़ुतुबुल-अक़ताब ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी रहमतुल्लाहि अ’लैहि हैं। यहीं क़ुतुब की नादिरुल-वजूद लाठ है। ये सुल्तान क़ुतुबुद्दीन ऐबक की मस्जिद क़ुव्वतुल-इस्लाम का मीनार है। यहीं दरवेश मनिश बादशाह शम्सुद्दीन अल्तमिश का मज़ार है और दिल्ली जिन बुज़ुर्गों की वजह से ‘बाईस ख़्वाजा की चौखट’ से मशहूर है उन बाईस में से अक्सर ख़्वाजगान इसी क़स्बा में आराम फ़रमा रहे हैं।

    मेहरौली सबसे बुलंद-पाया ज़ियारत-गाह भी है और सैर-गाह भी। मेरे ज़माने तक बरसात भर मेहरौली में लोगों का हुजूम रहता था।अब का हाल मा’लूम नहीं। मेहरौली की औलिया मस्जिद, मेहरौली का चेहल तन चेहल मन, मेहरौली का शम्सी तालाब, मेहरौली का झरना, मेहरौली की सैर-ए-गुल-फ़रोशाँ तारीख़ी चीज़ें हैं। ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी,सुल्तानुल-हिंद ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती अजमेरी (रहमतुल्लाहि अ’लैह) के जांनशीन थे।

    ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन का अस्ल वतन ओश था।ओश मावाराउन्नहर के क़रीब कोई जगह है। डेढ़ साल की उ’म्र में उनके वालिद का साया सर से उठ गया था। वालिदा ने परवरिश और पर्दाख़्त की।मौलाना अबू हफ़्स से क़ुरआन-ए-मजीद हिफ़्ज़ किया और ज़ाहिरी उ’लूम सीखे।

    ख़्वाजा मुई’नुद्दीन से ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन की पहली मुलाक़ात असफ़हान में शैख़ महमूद असफ़हानी के हाँ हुई थी। उस वक़्त ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बीस साल के थे। ख़्वाजा मुई’नुद्दीन की ज़ेर-ए-निगरानी कर ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन के जौहर खुल गए।

    ख़्वाजा मुई’नुद्दीन से फ़ैज़ पाने के बा’द ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन रहमतुल्लाहि अ’लैह ने बग़दाद का रुख़ किया और वहाँ मुतअ’द्दिद आ’रिफ़ीन के हम-नशीन रहे। शैख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी और शैख़ औहदुद्दीन किर्मानी (रहमतुल्लाहि अ’लैह) से ख़ुसूसियत के साथ फ़ाएदा उठाया।

    दौरान-ए-सियाहत ही शैख़ जलालुद्दीन तबरेज़ी (रहमतुल्लाहि अ’लैह) से सुना कि ख़्वाजा मुई’नुद्दीन (रहमतुल्लाहि अ’लैह) हिन्दुस्तान तशरीफ़ ले गए हैं ख़ुद भी हिन्दुस्तान चल पड़े और मुल्तान पहुँच कर शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया के पास ठहरे। बाबा फ़रीद ने मुल्तान में पहली दफ़ा’ उन्हें देखा और सिलसिला-ए-बैअ’त में मुंसलिक हो गए।

    मुल्तान से दिल्ली आए। सुल्तान नासिरुद्दीन क़ुबाचा हाकिम-ए-मुल्तान चाहता था कि मुल्तान ही में क़याम रखें। लेकिन अल्लाह तआ’ला ने शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया के वास्ते मुक़द्दर फ़र्मा दिया।

    दिल्ली पहुँच कर उन्होंने अजमेर शरीफ़ ख़त लिखा और हाज़िरी की इजाज़त माँगी। ख़्वाजा मुई’नुद्दीन ने जवाब दिया,तुम दिल्ली में ठहरो। हम थोड़े दिन में ख़ुद वहाँ आएँगे।

    ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन का क़याम दिल्ली शहर के अंदर नहीं था। दिल्ली के बाहर एक गाँव है कीलोकहरी जिसे अब कीलोखरी और तुलोखरी कहते हैं। सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमिश ने इसरार भी किया कि शहर के अंदर चलिए लेकिन उन्होंने फ़रमाया मैं यहीं ख़ुश हूँ। यहाँ पानी की इफ़रात है,सब्ज़ा है। शहर में मुझे तकलीफ़ होगी।

    शहर से दूर रहने के बा-वजूद ख़िल्क़त का इज़्दिहाम रहता था और बादशाह हफ़्ता में दो मर्तबा हाज़िर-ए-ख़िदमत होता था। शैख़ नज्मुद्दीन सोग़रा शैख़ुल-इस्लाम को उनका असर-ओ-रुसूख़ ना-गवार गुज़रा। ख़्वाजा मुई’नुद्दीन दिल्ली तशरीफ़ लाए तो रुजूआ’त और बढ़ गई। दिल्ली में हलचल मच गई। जो है पीर और मुरीद की ज़ियारत के लिए चला रहा है। शैख़ नज्मुद्दीन सोग़रा इन बातों से ख़फ़ा थे कि ख़्वाजा मुई’नुद्दीन उनसे मिलने नहीं गए और ख़्वाजा मुई’नुद्दीन (रहमतुल्लाहि अ’लैह) ने फ़रमाया नज्मुद्दीन तुम्हें क्या हो गया है मिज़ाज में इस क़दर तग़य्युर। शाएद शैख़ुल-इस्लामी का असर है। शैख़ नज्मुद्दीन सोग़रा (रहमतुल्लाहि अ’लैह) ने सर झुका लिया और कहा-मुझे मुआ’फ़ कीजिए लेकिन इतना अ’र्ज़ करने का हक़ नियाज़-मंद को ज़रूर है कि क़ुतुबुद्दीन आपके मुरीद हैं तो मैं आपका मुख़्लिस हूँ। मेरी शैख़ुल-इस्लामी की उनके मुक़ाबले में एक पत्ते के बराबर क़ीमत नहीं रही है। ख़्वाजा मुई’नुद्दीन ने कहा घबराएं नहीं। हम क़ुतुबुद्दीन को अजमेर ले जाऐंगे।

    हज़रत ख़्वाजा मुई’नुद्दीन ने नज्मुद्दीन सोग़रा के हाँ से आकर हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन से फ़रमाया।तुम्हारी इ’ज़्ज़त-ओ-शोहरत से लोगों को दुख पहुंचता है। तुम मेरे हमराह अजमेर चलो। हज़रत ने अ’र्ज़ किया जो हुक्म। मगर रवानगी के वक़्त अहल-ए-शहर ने वो आह-ओ-बुका की कि दोनों बुज़ुर्ग परेशान हो गए। शहर मातम-कदा बन गया। रुख़्सत करने वाले अपने सरों पर ख़ाक डाल रहे थे।ख़्वाजा मुई’नुद्दीन ने राय बदल दी और कहा, बाबा क़ुतुबुद्दीन तुम्हारे पीछे इन बेशुमार लोगों का ख़ुदा जाने क्या हाल हो जाए। मैं एक दो आदमियों की ख़ातिर इतने आदमियों को नहीं सता सकता।इन्हें तुम्हारी जुदाई बहुत शाक़ है। मैं तुम्हें अल्लाह की हिफ़्ज़-ओ-अमान में यहीं छोड़ता हूँ और दिल्ली तुम्हारे हवाले करता हूँ।

    काकी ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तयार (रहि•) के नाम का जुज़्व नहीं है। लक़ब है।रिवायत मशहूर है कि बावजूद इस रुजूआ’त के कि बादशाह मुरीद था और ख़िल्क़त जान फ़िदा करती थी ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन इ’शरत की ज़िंदगी बसर फ़रमाते थे। ख़ास ख़ास अहबाब के सिवा किसी से नज़्र नहीं लेते थे। एक मर्तबा बादशाह ने अशर्फ़ियों की थैलियाँ भेजीं।आपने इसे वापस कर दिया और कहला भेजा कि बादशाह मैं तो तुम्हें दोस्त समझता था, तुम मेरे साथ दुश्मनी करनी चाहते हो। एक और मौक़ा’ पर बादशाह ने छः गाँव पेश किए। फ़रमाया मेरे बुज़ुर्गों का ये शेवा नहीं रहा। उनके रास्ते से हट कर मैं उन्हें क्या मुँह दिखाऊँगा। ज़रूरत-मंद बहुतेरे हैं उन पर इन गावों की आमदनी सर्फ़ कीजिए।

    पड़ोस में शर्फ़ुद्दीन एक बक़्क़ाल का घर था। उसकी बीवी ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन के हाँ आती-जाती थी।ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन की अहलिया उस से कभी-कभी आटा दाल क़र्ज़ मंगा लेती थीं। एक रोज़ बक़्क़ाल की बीवी ने ता’ना दिया कि अगर मैं हूँ और तुम्हारी हाजत-रवाई करूँ तो तुम फ़ाक़ा कर के हलाक हो जाओ। ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन की अहलिया पर इस का जो असर होना चाहिए था वो हुआ और उन्होंने ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन से ज़िक्र कर दिया कि बक़्क़ाल की बीवी ये बातें कहती थी। फ़रमाया आइंदा क़र्ज़ का नाम मत लेना। हुज्रे के ताक़ में काक रखे मिल जाया करेंगे। बिस्मिल्लाह कह कर ज़रूरत के मुताबिक़ उठा लिया करो। चुनाँचे घर की ज़रूरत भी उन काकों से पूरी होने लगी और मेहमानों की ख़ातिर-तवाज़ो’ में भी यही काक काम देने लगे। काक के मा’नी मीठी रोटी के हैं।ग़ालिबन काक ही का अंग्रेज़ी में केक हो गया है।

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