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हिन्दुस्तान में क़ौमी यक-जेहती की रिवायात-आ’ली- बिशम्भर नाथ पाण्डेय

मुनादी

हिन्दुस्तान में क़ौमी यक-जेहती की रिवायात-आ’ली- बिशम्भर नाथ पाण्डेय

मुनादी

MORE BYमुनादी

    बंगाल के ख़ुद-मुख़्तार पठान सुल्तान बंगला ज़बान के बहुत बड़े हिमायती थे।सुलतान हुसैन शाह ने सरकारी ख़र्च पर महाभारत, रामायण, उपनिषद जैसी संस्कृत की मज़हबी किताबों का बंगला में तर्जुमा कराया।बंगला अदीबों को इनआ’म और इकराम दिए।उस ज़माने के बहुत बड़े मैथिली और बंगला ज़बान के शाइ’र विद्यापति ने हुसैन शाह की ता’रीफ़ में बहुत सी नज़्में लिखी हैं। मुसलमान बादशाहों ने बंगाल में बारह बड़े जागीर-दार मुक़र्रर कर दिए थे जो हर साल मुक़र्ररा ख़राज दिया करते थे, और बाक़ी अपनी रियासत का इंतिज़ाम करने में वो बिल्कुल आज़ाद थे। उन बारह जागीर-दारों में एक बीरभूम के जागीर-दार को छोड़कर सब हिंदू थे।

    मुर्शिद क़ुली ख़ान ने जिस ज़माना में वो बंगाल के अंदर औरंगज़ेब का वायसराए था, अपने सब अफ़सर और वज़ीर हिंदू ही मुक़र्रर किए। वो अपने इन हिंदू सलाह-कारों की राय से ही काम करता था। तेरहवीं सदी ई’स्वी से लेकर पलासी की लड़ाई तक मुस्लिम हुकूमत में बंगाल के हिंदूओं को कभी भी ये महसूस करने का मौक़ा’ नहीं मिला कि उनके ऊपर कोई बाहरी हुकूमत है।

    जो कैफ़ियत बंगाल की थी वही कैफ़ियत महाराष्ट्र की थी। बद-क़िस्मती से अंग्रेज़ी मोअर्रिख़ों ने छत्रपति शिवाजी के मुतअ’ल्लिक़ अपनी ग़लत-बयानियों के ज़रिआ’ बहुत सी ग़लत-फ़हमियाँ पैदा कर दी हैं। शिवाजी को इस्लाम और मुसलमानों का दुश्मन बताया गया, जबकि सच्चाई इसके बर-अ’क्स है। शिवाजी के दादा मालोजी अहमद नगर के दरबार में एक नामवर फ़ौजी कमांडर थे।शादी के दस बरस गुज़र जाने के बा’द जब उनके यहाँ कोई औलाद हुई तब उन्हें बेहद फ़िक्र हुई। उस ज़माने में ये बहुत अच्छा नहीं समझा जाता था कि किसी हिंदू के यहाँ बेटा पैदा हो।जबकि उनके छोटे भाई के आठ-आठ बेटे थे और मालोजी को कोई औलाद थी। उन्होंने बहुत तीर्थ बरत किए मगर कोई नतीजा निकला। किसी ने उन्हें सलाह दी कि अहमद नगर क़िले’ के बाहर शाह शरफ़ के मज़ार पर जाकर आप दुआ’ मांगें तो आपकी मुराद पूरी होगी। मालोजी ने यही किया। ख़ुदा के फ़ज़्ल से साल भर के अंदर उनके यहाँ बेटे का जन्म हुआ और दूसरे साल फिर एक बेटे का जन्म हुआ। मालोजी को चूँकि ये औलाद शाह शरफ़ की दुआ’ से मिली थी, इसलिए उन्होंने बड़े बेटे का नाम शाहजी रखा और छोटे बेटे का नाम शरफ़ जी।शिवाजी शाहजी के बेटे थे।

    शिवाजी ख़ुद केल्सी के बाबा याक़ूत सुहरवर्दी के बहुत बड़े मुरीद थे। बाबा याक़ूत हैदराबाद सिंध से आकर केल्सी में मुक़ीम हुए। बाबा का ए’तिक़ाद था कि ईश्वर अल्लाह एक है और कुल इन्सान आपस में भाई-भाई हैं। शिवाजी ने उन्हें 653 एकड़ ज़मीन ब-तौर-ए-जागीर अ’ता की और वहाँ एक ख़ानक़ाह ता’मीर करवाई। अपने फ़रमान में शिवाजी ने लिखा ‘हज़रत बाबा याक़ूत बहुत थोरवै’ या’नी बाबा याक़ूत बहुत बड़े संत और सूफ़ी हैं”। शिवाजी की मौत के साल भर बा’द बाबा याक़ूत भी इस दुनिया से कूच कर गए। जब भी शिवाजी किसी लड़ाई या जंग के लिए जाते तो हमेशा उनसे मुरादें मांग कर जाते।

    एक दूसरे मुस्लिम संत मोनी बावा थे। उनके ऊपर भी शिवाजी को बहुत ऐ’तिक़ाद था। वो पाड़ गाँव में रहते थे। कर्नाटक के मोर्चे पर जाने से पहले शिवाजी उनका आशीर्वाद लेकर गए।शिवाजी का निजी सिक्रेटरी मुल्ला हैदर था। शिवाजी की सारी खु़फ़ीया दस्तावेज़ें इसी के क़ब्ज़ा में रहती थीं।शिवाजी की सारी ख़त-ओ-किताबत उसी के सपुर्द थी। शिवाजी की वफ़ात तक उसने वफ़ा-दारी के साथ शिवाजी की नौकरी की। मगर शिवाजी के बेटे की बद-सुलूकी से मुल्ला हैदर दिल्ली चला गया।वहाँ मुग़ल दरबार ने उसे सद्र-ए-क़ाज़ी के ओ’हदे पर बिठाया।एक मुसलमान फ़र्राश मदारी शिवाजी के साथ आगरा गया और उसी की मदद से शिवाजी आगरे के क़िले’ से बच कर निकल सके। शिवाजी के अफ़सरों और कमांडरों में बहुत से मुसलमान थे।

    कुछ मराठा मुअर्रिख़ों ने ये साबित करने की कोशिश की है कि शिवाजी का मक़्सद हिंदू पादशाही क़ाएम करने का था। लेकिन “पूना महज़र” जिसमें शिवाजी के दरबार की कारवाइयाँ दर्ज हैं, उसमें सन 1657 ई’स्वी में शिवाजी के अफ़्सरों और जजों की तक़र्रुरी का भी ज़िक्र है। शिवाजी की नई सरकार ने जिन क़ाज़ियों को मुक़र्रर किया उनमें क़ाज़ी और नाएब क़ाज़ियों के नाम हैं। जब मुस्लिम रिआ’या के मुक़द्दमे पेश होते तो शिवाजी मुस्लिम क़ाज़ियों के मश्वरे से फ़ैसला देते। शिवाजी के मशहूर नेवल कमांडरों में दौलत ख़ाँ और दरिया ख़ाँ सहरंग थे। जिस वक़्त वो लोग पदम दुर्ग की हिफ़ाज़त में लगे हुए थे उस वक़्त फ़ौज ने उन्हें चारों तरफ़ से घेर लिया। शिवाजी ने अपने सूबेदार जीवाजी विनायक को उन्हें रसद और रुपय भेजने की हिदायत दी, जिसे उसने वक़्त पर नहीं भेजा।इस पर शिवाजी ने उसे बर्ख़ास्तगी और क़ैद का हुक्म देते हुए लिखा कि-

    “तुम समझते हो कि बरहमन हो, इसलिए मैं तुम्हें तुम्हारी इस दग़ा-बाज़ी के लिए मुआ’फ़ कर दूंगा? तुम बरहमन होते हुए भी दग़ा-बाज़ निकले और तुमने रिश्वत ले ली। लेकिन मेरे मुसलमान नेवल कमांडर कितने वफ़ादार निकले कि अपनी जान पर खेल कर एक मुसलमान सुल्तान के ख़िलाफ़ उन्होंने मेरे लिए बहादुराना लड़ाई लड़ी।”

    शिवाजी के दिल में औ’रतों, क़ुरआन शरीफ़ और मस्जिदों के लिए बे-हद इ’ज़्ज़त थी।एक मर्तबा शिवाजी का एक कमांडर सूरत शहर को लूट कर वहाँ के मुग़ल हाकिम की ख़ूबसूरत बेटी को क़ैद कर के ले आया।और उसे शिवाजी के दरबार में पेश करते हुए कहा कि महाराज मैं आपके लिए ये नायाब तोहफ़ा लाया हूँ”। इतना सुनना था कि शिवाजी की आँखों से अँगारे बरसने लगे। उन्होंने अपने सरदार से कहा ‘तुमने सिर्फ़ अपने मज़हब की तौहीन की बल्कि अपने महाराज के माथे पर कलंक का टीका लगाया’। फिर उस शहज़ादी की तरफ़ मुख़ातिब हो कर कहा ‘बेटी तुम कितनी ख़ूबसूरत हो, काश मेरी माँ भी तुम्हारी तरह ख़ूबसूरत होती तो मैं भी ऐसा ही ख़ूबसूरत होता”। उसके बा’द शिवाजी ने बहुत से तोहफ़े देकर शहज़ादी को उसके वालिदैन के पास फ़ौजी टुकड़ी की निगरानी में वापस भेज कर उस मुग़ल हाकिम से इस ग़लती के लिए मुआ’फ़ी का इज़हार किया।उसकी फ़ौज को सख़्त हुक्म था कि किसी मस्जिद को कोई नुक़सान पहुंचे और कहीं कोई क़ुरआन शरीफ़ मिले तो उसे बा-इ’ज़्ज़त मेरे पास लाओ।और इस तरह पाए गए क़ुरआन शरीफ़ को वो अक्सर मुसलमान क़ाज़ियों को भेंट के तौर पर दे दिया करते थे।

    वो ज़माना ऐसा था कि चाहे शिवाजी हो या औरंगज़ेब गोलकुंडा का सुल्तान हो या बीजापुर का, उनमें लगातार लड़ाइयाँ होती रहती थीं। दकन की जंग में औरंगज़ेब ने अपनी उ’म्र के आख़िरी बीस बरस सर्फ़ कर दिए, और ना-कामयाबी का सेहरा लेकर दकन में ही उसकी मौत हुई।उसके बड़े सिपह-सालारों ने उसका साथ छोड़ दिया था।उसे अपने बेटों से भी बहुत ख़ौफ़ था। वो समझता था कि जो सुलूक उसने अपने वालिद शाहजहाँ के साथ किया वही वो उसके साथ करेंगे।शिवाजी के पोते साहू को औरंगज़ेब ने आगरे के अपने महल में क़ैद कर रखा था लेकिन उसने पूरी तरह उस मा’सूम की मज़हबी ता’लीम का ख़याल रखा। हिंदू पंडितों को बुला कर उसे मज़हबी शास्त्रों की ता’लीम दी गई। अपने बाप संभाजी के मरने के बा’द साहू शिवाजी की सल्तनत का वारिस हुआ।औरंगज़ेब के एहसानों और मोहब्बत के एहसास से ग़म-ज़दा वो औरंगज़ेब के जनाज़ा के साथ ख़ुल्दाबाद तक गया।क़ब्र में मिट्टी डालते वक़्त उसकी आँखें आँसूओं से तर थीं।

    लगातार जंगों की वजह से शाही खज़ाने ख़ाली हो जाते तब फ़ौज को इजाज़त होती कि सल्तनत की सरहद से बाहर वो सेठों,साहूकारों को लूट कर अपनी तनख़्वाह वसूल कर लें। शिवाजी ने भी इस तरह की तक़्सीम मुल्की और ग़ैर मुल्की रिआ’या में की थी। ग़ैर मुल्की लोगों की लूट में ये फ़र्क़ नहीं किया जाता था कि वो हिंदू हैं या मुसलमान, लेकिन सल्तनत के अंदर हिंदू और मुसलमान दोनों महफ़ूज़ थे।

    जिस तरह शिवाजी के मुतअ’ल्लिक़ अंग्रेज़ मुअर्रिख़ों ने ग़लत-फ़हमियाँ पैदा की हैं उसी तरह औरंगज़ेब के मुतअ’ल्लिक़ भी। एक उर्दू शाइ’र ने बड़े सोज़ के साथ लिखा है:

    तुम्हें ले दे के सारी दास्ताँ में याद है इतना

    कि आ’लमगीर हिंदू-कुश था ज़ालिम था सितम-गर था

    बचपन में मैंने भी स्कूल कॉलिजों में इसी तरह की तारीख़ पढ़ी थी और मेरे दिल में भी इस तरह की बद-गुमानी थी।लेकिन एक दफ़्आ’ ऐसा वाक़िआ’ पेश आया जिसने मेरी राय क़तई’ बदल दी।मैं तब इलाहाबाद म्यूंसिपल्टी का चेयरमैन था।त्रिवेणी संगम के क़रीब सोमेश्वरनाथ महादेव मंदिर के पुजारी की मौत के बा’द मंदिर और मंदिर की जाएदाद के दो दा’वेदार खड़े हो गए।दोनों ने म्यूंसिपेल्टी में अपने नाम दाख़िल ख़ारिज की दरख़्वास्त दी।उनमें से एक फ़रीक़ ने कुछ दस्तावेज़ें भी दाख़िल की थीं।दूसरे फ़रीक़ के पास कोई दस्तावेज़ थी।जब मैंने दस्तावेज़ पर नज़र डाली तो मा’लूम हुआ वो औरंगज़ेब का फ़रमान था।उसमें मंदिर के पुजारी ठाकुर जी के भोग-ओ-पूजा के लिए जागीर में दो गाँव अ’ता किए गए थे।मुझे शुबहा हुआ कि ये दस्तावेज़ नक़ली हैं।औरंगज़ेब तो बुत-शिकन था।वो बुत-परस्ती के साथ कैसे अपने को वाबस्ता कर सकता था? मैं अपना शक दूर करने के लिए सीधा अपने चेम्बर से उठकर सर तेज़ बहादुर सप्रू के यहाँ गया।सप्रू साहिब फ़ारसी के आ’लिम थे।उन्होंने फ़रमान को पढ़ कर कहा ये फ़रमान असली हैं।मैंने कहा “डाक्टर साहिब” आ’लमगीर तो मंदिर तोड़ता था,बुत-शिकन था, वो ठाकुर जी के भोग और पूजा के लिए कैसे जाएदाद दे सकता था?

    सप्रू साहिब ने अपने मुंशी को आवाज़ देकर कहा “मुंशी जी ज़रा बनारस के जंगम बाड़ शिव मंदिर की अपील की मिस्ल तो लाओ”।मुंशी जी मिस्ल लेकर आए तो डॉक्टर सप्रू ने दिखाया कि उसमें औरंगज़ेब के चार फ़रमान और थे जिनमें जंगमों को मुआ’फ़ी की ज़मीन अ’ता की गई थी।

    डॉक्टर सप्रू हिन्दुस्तानी कल्चर सुसाइटी के सद्र थे जिसके ओ’हदा-दारों में डॉक्टर भगवान दास, सय्यिद सुलौमान नदवी, पण्डित सुंदर लाल और डाक्टर तारा चंद थे।मैं भी उसका एक मेम्बर था।डॉक्टर सप्रू की सलाह से मैंने हिन्दुस्तान के ख़ास-ख़ास मंदिरों की फ़िहरिस्त मुहय्या की, और उन सब के नाम ये ख़त लिखा कि अगर आपके मंदिरों को औरंगज़ेब या मुग़ल बादशाहों ने कोई जागीर अ’ता फ़रमाई हो(ख़ुसूसन औरंगज़ेब)तो उनकी फ़ोटो कापियाँ मेहरबानी करके भेजें।दो तीन महीने के इंतिज़ार के बा’द हमें महाकाल मंदिर उज्जैन , बालाजी मंदिर चित्रकूट, कामाख्या मंदिर,गोहाटी,जैन मंदिर, गिरनार और दिलवाड़ मंदिर, आबू, गुरुद्वार राम राय,दोहरादून वग़ैरा से इत्तिलाअ’ मिली कि उनको जागीरें औरंगज़ेब ने अ’ता की थीं।मुअर्रिख़ों की तारीख़ के मुताबिक़ एक नया औरंजेब हमारी आँखों के सामने उभर कर आया।

    औरंगज़ेब ने उन मंदिरों को जागीर अ’ता करते हुए ये हिदायत दी थी कि ठाकुर जी से वो इस बात की दुआ’ मांगें कि उस के ख़ानदान में ता-क़यामत हुकूमत बनी रहे।

    इसी तरह टीपू सुल्तान के मुतअ’ल्लिक़ भी नई रौशनी मिली।सन 1928 में मैं टीपू सुल्तान के सिलसिले में इलाहाबाद में कुछ तारीख़ी छानबीन कर रहा था।एक दिन दोपहर को एंग्लो बंगाली कॉलेज के कुछ तलबा आए और उन्होंने ये दरख़्वास्त की कि मैं उनके हिस्ट्री एसोसीएशन का इफ़्तिताह कर दूँ।चूँकि वो कॉलेज से सीधे आए थे तो उनके साथ उनकी किताबें भी थीं।मैं उन किताबों में से हिन्दुस्तान की तारीख़ के वरक़ उलटने लगा।जब मैं टीपू सुल्तान के सबक़ पर पहुंचा तो उसमें देखा दर्ज था “तीन हज़ार बरहमनों ने इसलिए ख़ुद-कुशी कर ली थी कि टीपू सुल्तान उन्हें ज़बरदस्ती मुसलमान बनाना चाहता था।” मैंने मुअर्रिख़ का नाम देखा तो लिखा था कि महामहोपाध्याय,डॉक्टर हरि प्रसाद शास्त्री, कलकत्ता यूनीवर्सिटी के संस्कृत डिपार्टमेंट के सद्र।

    दूसरे दिन ही मैं ने उन्हें ख़त लिखा और उनसे इल्तिजा की कि मेहरबानी फ़रमाकर मुझे ये इत्तिलाअ’ दें कि ये वाक़िआ’ उन्होंने कहाँ से लिया।चार बार याद-दहानी के बा’द उन्होंने मुझे इत्तिलाअ’ दी कि ये वाक़िआ’ उन्होंने मैसूर गज़ेटियर से लिया है।

    मैसूर गज़ेटियर की कोई जिल्द इलाहालाबाद में मिली कलकत्ते में।मैंने डॉक्टर सप्रू के मशवरे से उसके मुतअ’ल्लिक़ मैसूर के दीवान सर मिर्ज़ा इस्माई’ल को ख़त लिखा।सर मिर्ज़ा इस्माई’ल ने मेरा ख़त यूनीवर्सिटी के वाइस चॉन्सलर सर बिर्जेन्दर नाथ सेल के पास भेज दिया।सेल साहिब ने मुझे इत्तिलाअ’ दी कि मेरा वो ख़त उन्होंने प्रोफ़ेसर श्री कान्त के पास भेजा है जो उस वक़्त मैसूर गज़ेटियर को एडीट कर रहे हैं।एक हफ़्ते के बा’द प्रोफ़ेसर श्री कान्त ने मुझे इत्तिलाअ’ दी कि मैसूर गज़ेटियर में ये वाक़िआ’ कहीं नहीं है।तारीख़ की वो किताब उत्तरप्रदेश, बिहार,उड़ीसा,बंगाल और आसाम के हाई स्कूल की टेक्स्ट बुक थी।लाखों मा’सूम लड़के हर साल इस किताब को पढ़ते हैं। इस वाक़िआ’ का उनके दिल पर क्या असर होता होगा?

    मैंने प्रोफ़ेसर श्री कान्त को लिखा कि वो मेहरबानी फ़रमा कर मुझे इत्तिलाअ’ फ़रमाएं कि टीपू सुल्तान में क्या तअ’स्सुब था? मुझे फिर इत्तिलाअ’ दी गई कि टीपू सुल्तान का सिपह-सालार कृष्णा राव बरहमन था और उसका वज़ीर-ए-आ’ज़म भी बरहमन। प्रोफ़ेसर कान्त ने 56 मंदिरों की फ़िहरिस्त भेजी जिन्हें टीपू सुल्तान हर साल तोहफ़े और चढ़ावा भेजा करता था। ख़ुद टीपू सुल्तान के क़िले’ के अंदर श्री रंगनाथ का मंदिर था जहाँ हस्ब-ए-मा’मूल रोज़ सुब्ह नाश्ते से पहले टीपू सुल्तान रंगनाथ स्वामी मंदिर की देख-रेख के लिए जाया करता था। मुझे श्री नगरी मठ के जगत गुरु शंकराचार्य के टीपू सुल्तान के नाम लिखे हुए एक दर्जन कन्नड़ ज़बान के ख़ुतूत की “फ़ोटो कापी’’ भेजी गई जिससे ज़ाहिर होता था कि शंकराचार्य और टीपू सुल्तान में बेहद मोहब्बत थी।अपने ज़माने के हिन्दुस्तान के राजाओं और नवाबों में टीपू सुल्तान और उसके वालिद ही ऐसे शख़्स थे जिन्हों ने अंग्रेज़ों के साथ मिलकर किसी को धोका नहीं दिया। टीपू सुल्तान के साथ अंग्रेज़ों की कई बार जंग हुई और आख़िर में एक बहादुर वतन-परस्त की तरह लड़ते हुए उसने शहादत हासिल की।ना मा’लूम लाशों के ढेर से जब उसे खोज कर निकाला गया तो अंग्रेज़ जनरल ने देखा कि उसने तलवार के मुठ को मज़बूती से पकड़ रखा था।

    मैंने ये तमाम ख़त-ओ-किताबत कल्कत्ता यूनीवर्सिटी के वाइस चांसलर को भेजी और उनसे दरख़्वास्त की कि अगर वो इस ख़त-ओ-किताबत से मुत्मइन हैं कि शास्त्री की किताब में दिया हुआ वाक़िआ’ ग़लत है तो उस पर कार्रवाई करें, वर्ना ये ख़त-ओ-किताबत मुझे वापस कर दें। बहुत जल्द सिर्फ़ वाइस चांसलर का जवाब आया बल्कि उसके साथ साथ उनका हुक्म-नामा भी आया कि शास्त्री की तारीख़ की किताब हाई स्कूल से ख़ारिज की जाती है।

    इसी तरह राणा प्रताप और अकबर की हल्दी घाटी की जंग को हमारे मुल्क की एक जमाअ’त मज़हबिय्ययत का रंग देती है।मगर कैफ़ियत ये है कि अकबर की फ़ौज के सालार राजा मान सिंह थे।अकबरी फ़ौज के ज़्यादा-तर सिपाही राजपूत थे।दूसरी तरफ़ राणा प्रताप की फ़ौज के सालार राना के अ’लावा हकीम ख़ान सूर थे।जालौर के ताज ख़ान भी एक हज़ार पठान फ़ौज के साथ महाराणा प्रताप का साथ देने के लिए पहुंच गए थे।पठानों ने मुग़लों के छक्के छुड़ा दिए।हल्दी घाटी की लड़ाई किसी तरह भी फ़िर्क़ावारियत की लड़ाई थी मज़हबी।

    इसी तरह सिखों के गुरू गोबिंद सिंह के सैकड़ों मुसलमान मददगार थे।नबी ख़ान, ग़नी ख़ान और जनरल सय्यिदद बेग ने बड़े नाज़ुक मौक़’ओं पर गुरु गोबिंद सिंह की मदद की।सैकड़ों मुसलमान सिपाही गुरु गोबिंद सिंह की फ़ौज में भर्ती हुए और बहादुरी से लड़ते हुए अपनी जान क़ुर्बान कर दी।

    बदरुद्दीन जिन्हें, पीर बोध शाह भी कहते हैं, गुरु के लिए अपने चार बच्चों और भाईयों और एक हज़ार पठान फ़ौजियों के साथ मैदान-ए-जंग में शहीद हो गए।

    हिन्दुस्तान के मँझले ज़माने में बड़े-बड़े सूफ़ियों और संतों का सिलसिला मिलता है।कबीर, दादू, तुक्काराम, नानक,चैतन्य, मुई’नुद्दीन चिश्ती, बाबा फ़रीद, मीराबाई, निज़ामुद्दीन औलिया, संत रविदास, बुल्ले शाह सब इस सिलसिले के मशहूर संत और सूफ़ी हैं।इन लोगों का कलाम, इनकी बानी पढ़ कर आदमी सिर्फ़ ऊंचे उसूलों को नहीं जान जाता बल्कि सच्ची और नेक ज़िंदगी और रूहानियत की तरफ़, उसकी तवज्जोह होती है।इन संतों के कलाम में यक-जेहती का ख़याल कूट-कूट कर भरा हुआ है।कबीर कहते हैं:

    भाई रे दूबे जगदीश कहाँ ते आया, कहो कौने भरमाया

    अल्लाह, राम करीमा, केसव, हरी हज़रत नाम धराया

    वही महादेव, वही मोहम्मद ब्रह्मा आदम कहिए

    को हिंदू को तुर्क कहावे एक ज़मीन पर रहिए

    पूरब दिसा हरि को बासा पच्छिम अल्लाह मक़ामा

    दिल ही खोज दिल ही भाखो जो ये है करीमा रामा

    संत पलटू दास ने इसी ख़याल को ज़ाहिर करते हुए कहा है:

    पूरब में राम है पच्छिम ख़ुदाए है

    तू उत्तर और दक्खिन कहो कौन रहता

    साहब वो कहाँ है कहाँ फिर नहीं है

    हिंदू और मुसलमान तूफ़ान करता

    संत दादू कहते हैं :

    दोनों भाई नैन हैं दोनों भाई कान

    सब घट एकई आत्मा क्या हिंदू मुसलमान

    इन सूफ़ी संतों के उपदेश का अ’वाम के ऊपर गहरा असर पड़ा।

    एक फ़क़ीर बटाले में रहते थे। उनका नाम था सिब्ग़तुल्लाह।कुछ अ’र्से के बा’द उन्होंने अपने माथे पर तिलक,गले में जनेऊ डाला और पंडित का रहन सहन अपनाया और अपना नाम भी रंगी राम रखा। एक दिन एक दूसरा मुसलमान फ़क़ीर उनसे मिलने बटाले आया और रंगी राम को देखकर पूछा। ये क्या हाल बना रखा है। उन्होंने कहा सिब्ग़त के मा’नी हैं रंग और अल्लाह की जगह राम। ये सुनकर फ़क़ीर ने कहा कि: “तुमने इस्लाम और हिंदू-मज़हब में क्या फ़र्क़ देखा कि जो एक से निकल कर दूसरे में जा पहुंचे। अगर निकलना था तो दोनों ही से निकलते। हम तो समझते थे कि तुम मुवह्हिद हो। तुम तो अभी हिंदू मुसलमान के फेरे में पड़े हो”

    सूफ़ियों के नज़्दीक मौलाना रूम की मसनवी की बड़ी क़द्र थी। ख़ास तौर पर गडरिए की हिकायत की। जब वो उसे पढ़ते तो लोगों की आँखों से टप-टप मेंह की तरह आँसू बरसने लगते।

    तू बराए वस्ल कर्दन आमदी

    ने बराए फ़स्ल कर्दन आमदी

    हिंदियाँ रा इस्तिलाह-ए-दीगर अंद

    सिंधियाँ रा इस्तिलाह-ए-दीगर अंद

    मज़हब-ए-इ’श्क़ अज़ हम: मिल्लत जुदास्त

    आ’शिक़ाँ रा मज़हब-ओ-मिल्लत ख़ुदास्त

    रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अ’लैहि-व-सल्लम की एक मशहूर हदीस है:

    “लोगों से उनकी समझ के मुताबिक़ बात करो”।

    इसी सिलसिले में मौलाना जलालुद्दीन रूमी की मसनवी में ये एक बड़ी दिलचस्प कहानी आती है।लिखा है कि:

    हज़रत-ए-मूसा अ’लैहिस्सलाम एक दिन किसी पहाड़ पर से उतर रहे थे।उन्होंने देखा कि एक गड़रिया नीचे को मुँह किए पड़ा है।गडरिए का कम्बल, उसकी चप्पल और उसकी लकड़ी बराबर में पड़ी है।गडरिया पड़े-पड़े कुछ बड़बड़ा रहा है।मूसा अ’लैहिस्सलाम दबे पाँव गडरिए के पीछे जाकर खड़े हो कर सुनने लगे।गडरिया कह रहा था मेरे अल्लाह तू कहाँ है? तू मुझे क्यों नहीं मिलता है? तू अगर मुझे मिल जाए और अगर तेरे पाँव थके हों तो मैं तेरी ख़ूब मुट्ठी चापी करूँ, जिससे तेरी थकान दूर हो जाए।अगर तेरी चप्पल फट गई तो मैं अपने हाथ से तेरी चप्पल गाँठ दूं। तेरे कम्बल में चीलर पड़ गए होंगे, मैं एक एक चीलर बीन कर फेंक दूँ।रात को मैं तेरे लिए ऐसा अच्छा बिस्तर बिछा दूँ जिसमें एक सिल्वट हो।उस पर जंगल से फूल लाकर डाल दूँ।सुब्ह मैं ताज़ा शहद का प्याला लाकर तुझे पिलाऊँ।ओ अल्लाह! तू कहाँ है? तू मुझे क्यों नहीं मिलता?

    गडरिया अपने प्रीतम अल्लाह के प्रेम में टपा-टप आँसू बहा रहा था।हज़रत मूसा गडरिए के सामने खड़े हो गए।उन्होंने गडरिए से पूछा ‘तू किस से बातें कर रहा था? गडरिए ने जवाब दिया मूसा मैं उस अल्लाह से बातें कर रहा था जिसने तुझे और मुझे दोनों को पैदा किया’।

    मूसा ने फिर कहा- गडरिए अल्लाह की शान में ऐसी बातें कहना बहुत बड़ा कुफ़्र है और गुनाह है।

    गडरिए ने फिर पूछा- मूसा क्या मुझसे कोई गुनाह हो गया ?

    मूसा :- तुझसे इतना बड़ा गुनाह हो गया है जिसका कोई कफ़्फ़ारा नहीं।

    गडरिया ! “सच-मुच मेरे गुनाह का कोई कफ़्फ़ारा नहीं! ग़म और ना-उम्मीदी से भरा हुआ गडरिया उट्ठा।उसने अपना कम्बल कंधे पर डाला, लकड़ी हाथ में ली और भेड़ें पीछे छोड़कर बयाबान जंगल की तरफ़ निकल गया।

    गडरिया जब निगाहों से ओझल हो गया तो मूसा बड़े फ़ख़्र के साथ पीछे मुड़े।उसी वक़्त आसमान से आवाज़ आई।अल्लाह ने मूसा से कहा- ऐ,मूसा ये तूने क्या किया? तूने हमारे प्रेमी को हमसे अलग कर दिया? तुझे हमने दुनिया में मिलाने के लिए भेजा था अलग करने के लिए नहीं।

    तू बरा-ए-वस्ल कर्दन आमदी

    ने बराए फ़स्ल कर्दन आदमी

    तू समझता है तू हमारी ज़ात और सिफ़ात के मुतअ’ल्लिक़ उस गडरिए से ज़्यादा वाक़िफ़ है ? तेरा ये समझना ग़लत है। हम तक पहुंचने का रास्ता दिल है दिमाग़ नहीं। हमने अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग तरीक़ा बना रखा है।

    हिंदियाँ रा इस्तिलाह-ए-दीगर अंद

    सिंधियाँ रा इस्तिलाह-ए-दीगर अंद

    मूसा अ’क़्ल वालों के आदाब और होते हैं और वो सच्चे आ’शिक़, जिनके अंदर इ’श्क़ की आग लगी होती है दूसरे होते हैं।

    मूसा इ’श्क़ का मज़हब सब दीनों से अलग है। जो सच्चे आ’शिक़ हैं उनके लिए मज़हब और मिल्लत सब हम हैं।

    मज़हब-ए-इ’श्क़ अज़ हम: मिल्लत जुदास्त

    आ’शिक़ाँ रा मज़हब-ओ-मिल्लत ख़ुदास्त

    मूसा ने घबरा कर पूछा !अल्लाह मुझसे ग़लती हो गई, अब मैं क्या करूँ?

    अल्लाह ने जवाब दिया: मूसा जा उस गडरिए को ढूंढ और उसे ये ख़ुश-ख़बरी दे कि वो ठीक था और तू ग़लत। उसके लिए अल्लाह की तरफ़ से सब मुआ’फ़ है।

    हज़रत-ए-मूसा उस गडरिए की खोज में निकल पड़े।बरसों के बा’द वो उन्हें कहीं जंगल में अकेला खड़ा हुआ दिखाई दिया।मूसा ने गडरिए को ख़ुश-ख़बरी दी कि तू ठीक था और मैं ग़लत।तेरे लिए सब मुआ’फ़ है।

    गडरिए ने अब मुस्कुरा कर जवाब दिया।ऐ मूसा अब तुम किस से बात कर रहे हो? अब मैं आप पहली जगह से हज़ारों साल का फ़ासला तय कर चुका हूँ।अब तो मैं अपनी ख़ुदी को मार कर उस ख़ुदी के ख़ून में लिथड़ा पड़ा हूँ:

    मन हज़ाराँ साल सोज़ाँ गश्तः-अम

    मन कनूं दर ख़ून-ए-दिल आग़श्तः-अम

    यक-जेहती की रिवायत के सिलसिले में ज़बान के मसले पर भी कुछ कहना चाहता हूँ। ज़बान-ए-उर्दू जब दकन से चल कर दिल्ली आती है तो मुग़लिया सल्तनत कमाल के उ’रूज तक पहुंच कर बड़ी तेज़ी के साथ नीचे उतर रही थी। भाईयों के दरमियान तख़्त-ओ-ताज की ख़ातिर ख़ाना-जंगी और ईरानी, तूरानी अमीरों की खींच-तान सल्तनत की बुनियादों को हिला रही थी। मराठे और अफ़ग़ानी ऐसे धक्के दे रहे थे कि दीवारें और छतें गिरने लगीं थीं।अ’जब समां था।अकबर और शाहजहाँ के नाम-लेवा लाल-क़िले’ में मसरुफ़ थे तबलों की थाप, घुँघरूओं की झंकार और शराब के प्याले चल रहे थे।उधर सल्तनत के हिस्से हिस्से हो रहे थे।सूबे ख़ुद-मुख़्तार, सूबेदार एक दूसरे के ख़ून के प्यासे थे।मराठे, राजपूत, जाट और सिख एक दूसरे से जूझ रहे थे।सल्तनत के लाशे पर पुर्तगाली, फ़्रांसीसी और अंग्रेज़ गिधों की तरह मंडला रहे थे। राजाओं और नवाबों की ऐ’श-परस्ती सैकड़ों शरीफ़ ख़ानदानों की तबाही,जनता की बर्बादी और मुल्क की ग़ारत-गरी ने लोगों को मायूस कर दिया था। उस फ़ज़ा में दकन से उर्दू आती है और शाही दरबार से वाबस्ता हो जाती है। यहाँ फ़ारसी माहौल था।दरबार की ज़बान फ़ारसी, दफ़्तर की ज़बान फ़ारसी, ओ’हदे-दारों की ज़बान फ़ारसी, उ’लमा की ज़बान फ़ारसी। उर्दू फ़ारसी रंग में ड़ूब गई। हिंदी नुमायाँ थी।

    दिल्ली के ईरानी नस्ल के अमीरों और फ़ारसी ज़बान के माहिरों के कानों पर हिंदी लफ़्ज़ भारी मा’लूम हुए। मतरुकात का सिलसिला जारी हो गया।मज़हर जान-ए-जानाँ ने पहल की।आ’तिश और नासिख़ ने तहरीक को तेज़ किया। उर्दू हिंदी से दूर होने लगी। दकन में जिसे दकनी और हिंदी कहते थे दिल्ली में वो ज़बान उर्दू-ए-मुअ’ल्ला के नाम से मशहूर हुई।सन 57 ई’स्वी की आंधी के बा’द अंग्रेज़ों ने उर्दू को मुसलमानी ज़बान बना दिया और सन1857 ई’स्वी के हंगामों को मुसलमानों के सर थोपा। मुसलमानों को नीचा दिखा ने की कारवाइयाँ जारी हुईं। बिहार के अंग्रेज़ गवर्नर ने शहरों का दौरा किया। उर्दू के ख़िलाफ़ धुआँ-धार लेक्चर दिए।अंग्रेज़ आ’लिमों ने हिन्दुस्तानी ज़बानों की ग्रामर लिखी और साबित करने की कोशिश किया कि उर्दू किसी इ’लाक़े की ज़बान नहीं। मुल्की भाषा तो ब्रज-भाषा, राजस्थानी, अवधी वग़ैरा है।अंग्रेज़ी सियासत का जादू चल गया।उर्दू मुसलमान की ज़बान और हिंदी हिंदूओं की ज़बान क़रार पाई।

    सन1872 ई’स्वी के बा’द से अंग्रेज़ों की सियासत बदली। मुसलमानों को सरकार की चहेती बीवी और हिंदूओं को सौतन का दर्जा मिला। सन 1892 ई’स्वी में उत्तरप्रदेश में मैकडोनिल की गवर्नरी के ज़माने में हिंदी-उर्दू का झगड़ा बढ़ा। फ़िर्क़ा-वाराना जज़्बात की ज़हरीली हवाएं चलने लगीं।

    मरज़ बढ़ता गया जूँ-जूँ दवा की

    अब हमारे बुनियादी दस्तूर या संविधान ने हुक्म-ए-फ़ैसल दे दिया है। हिंदी को सरकारी ज़बान के मर्तबे पर पहुंचा दिया है। उर्दू को मुल्की ज़बान की फ़िहरिस्त में शामिल कर लिया है। वक़्त गया है कि तअ’स्सुब से दूर हट कर हक़ीक़त को सामने रखा जाए।

    पहली बात तो ये है कि उर्दू और हिन्दी दर अस्ल दो जुदा-जुदा ज़बानें नहीं हैं। इ’ल्म-ए-लिसानियात की कसौटी पर परखिए तो कोई उसूली फ़र्क़ नज़र नहीं आता। ज़बान की हस्ती तीन चीज़ों पर क़ाएम है।आवाज़ या धुन, रूप, और लफ़्ज़। उर्दू और हिंदी लफ़्ज़ों की तरकीब एक तरह की आवाज़ से हुई है। दोनों की ग्रामर एक है। दोनों एक ही ख़ानदान से तअ’ल्लुक़ रखती हैं। दोनों आरयाई ज़बान हैं। लफ़्ज़ों के इस्ति’माल में हमेशा हेर-फेर होता है। फ़िर्दोसी के शाह-नामे की ज़बान का ख़ाक़ानी के क़सीदों की ज़बान से मुक़ाबला कीजिए, ज़मीन आसमान का फ़र्क़ नज़र आएगा। यही कैफ़ियत नस्र की है। माईकल मधु सूदन दत्त की बंगला पर संस्कृत छाई हुई है। टैगोर की ज़बान जनता की बोल-चाल की ज़बान है और नज़रुल-इलाम की शाइ’री पर फ़ारसी का साया है।

    हिंदी उर्दू का भी यही हाल है। नागरी प्रचारणी सभा बनारस की हिंदी डिक्शनरी में छः हज़ार फ़ारसी अ’रबी के लफ़्ज़ हैं। लुग़त-ए-आ’सफ़िया में 75 फ़ीसदी से ज़्यादा वो उर्दू के अल्फ़ाज़ हैं जिंका माख़ज़ संस्कृत हैं। हिंदी और उर्दू की पैदाइश दोनों की एक जगह हुई और दोनों एक माँ की बेटियाँ हैं। हाँ, अब दोनों की अलग-अलग मुस्तक़िल और अदबी हैसियत है। हैरत की बात है कि बा’ज़ लोग कहते हैं कि उर्दू अजनबी ज़बान है, जिसका मुल्क में कोई ठिकाना नहीं। वो भूल जाते हैं कि उर्दू खड़ी बोली का अदबी रूप है और खड़ी बोली उस इ’लाक़े की ज़बान है जिसका मरकज़ दिल्ली है।

    ये कहना कि उर्दू का कोई मस्कन नहीं और ये कि वो किसी इ’लाक़े की ज़बान नहीं है, एक खुली हुई हक़ीक़त से इंकार करना है।जो बच़्चे उस इलाक़े में रहते हैं जहाँ खड़ी बोली राइज है और वो बच्चे जिनके घर में खड़ी बोली बोली जाती है , क़ानूनी हक़ रखते हैं कि अपनी मादरी ज़बान में इब्तिदाई ता’लीम हासिल करें और उस हक़ से इंकार देश के बुनियादी क़ानून की तौहीन है।

    उर्दू को मुसलमानों के साथ निस्बत दी जाती है। इस ख़याल का बीज अंग्रेज़ों ने बोया। मुस्लिम लीग ने इस पौदे को सींचा और परवान चढ़ाया। अ’रबी को अगर इस्लामी ज़बान कहें तो बजा समझा जाएगा। हालाँकि ये भी सही नहीं है। इस्लाम के ज़ुहूर से पहले ग़ैर मुस्लिम अ’रबों की ज़बान अ’रबी थी। लाखों ई’साई जो लबनान, सीरिया, मिस्र, वग़ैरा मुल्कों में रहते हैं, अ’रबी ज़बान बोलते हैं।अ’रबी में बाइबिल पढ़ते हैं। दुनिया में कौन सी ज़बान है जो मुसलमान की मादरी ज़बान नहीं? चीन के करोड़ों मुसलमान चीनी, इंडोनेशिया के मलय, बंगाल के बंगला,मद्रास के तानिल, केरल के मलयाली, गुजरात के गुजराती और महाराष्ट्र के मराठी ज़बान बोलते हैं।अ’रबी बोलने वाले मुसलमान तो दुनिया में शायद दस फ़ीसदी से ज़्यादा नहीं मिलेंगे। उर्दू तो इसी सर-ज़मीन की पैदावार है जिसे गंगा जमुना की नदियाँ सैराब करती हैं। ये सही है कि मुसलमान सूफ़ियों, दरवेशों ने और शाइ’रों ने उर्दू का सिंगार किया, लेकिन सैंकड़ों हिंदू अदीबों ने भी उर्दू को संवारने में हिस्सा लिया।अगर उर्दू में इस्लामी मज़हब और कल्चर पर किताब लिखी गई तो आपको हिंदू मज़हब और कल्चर की भी उर्दू में काफ़ी किताबें मिलेंगी। उपनिषद, भगवत गीता, भागवत पुराण, काली दास के नाटक, बैताल पचीसी , सिंहासन बतीसी, पदमावत, क़िस्से कहानियाँ, लीलावती, हिसाब, नुजूम, वैदिक ग़र्ज़ मुश्किल से कोई हिंदू मज़हब और अदब का शो’बा होगा जिसमें उर्दू की किताबें हों।

    उर्दू तो अस्ल में हिन्दुस्तान की ज़बान है। इसका माज़ी और हाल हिन्दुस्तान से अलग नहीं हो सकता। इसकी तारीख़ में हिंदू मुस्लमान के मेल-जोल की कहानी है। इसमें हिंदू मुसलमान संतों ने उपदेश दिया है। साधू दरवेशों ने ईश्वर प्रेम का संदेश दिया है। शाइरों ने इस में वतन के शहीदों के लिए आँसू गिराए। देश भगतों के दिलों को हिलाने वाले गीत गाए। इन्सान के दिल की गहराई की खोज की और उसकी उड़ान का अंदाज़ा लगाया।हुस्न और इ’श्क़ की तस्वीरें खींचीं। मोहब्बत के राग अलापे, कभी हंसाया कभी रुलाया। वो किस तरह हमसे जुदा हो सकती है? इसका मुस्तक़बिल हिन्दुस्तान से वाबस्ता है। पाकिस्तानी सूबों की बोल-चाल की ज़बान पंजाब में पंजाबी, सिंध में सिंधी, बलोचिस्तान में बलोची, सूबा-ए-सरहद में पश्तो है। वहाँ कहीं भी बोल-चाल की ज़बान उर्दू नहीं। बे-शक उतरप्रदेश और बिहार से जो लोग वहाँ गए हैं उनकी ज़बान उर्दू है। उर्दू हिन्दुस्तान की बेटी है। यहीं ये पैदा हुई।इस की रगों में संस्कृत और प्राकृत का ख़ून बहता है। ये यहीं फूली-फली।इस के बदन में लोच है। चाल में इठलाहट है। इसे देखकर लोग झूमते हैं। मुशाइ’रों में सुनने वाले इसके बोल सुनकर मस्त हो जाते हैं। सर धुनते हैं। इस के सामने एक सुंदर रौशन और बे-पायाँ मैदान है। हिन्दुस्तान की पंद्रह ज़बानों में ये अकेली वो ज़बान है जो हिंदू मुसलमानों की यक-जेहती की रिवायत की तर्जुमानी करती है।जो सही मा’नों में रवा-दारी के बुनियादी उसूलों पर क़ाएम है। इसे मुल्क की ख़िदमत करनी है, दिल को दिल से मिलाना है।शक-ओ-शुबहा के बद-नुमा दाग़ों को धोना है। हमारे क़ानून में जिस आज़ादी , बराबरी और बिरादरी का दा’वा है उसे क़ौम की ज़िंदगी में साबित करना है।

    बा’ज़ लोगों की ये भी तज्वीज़ है कि अगर उर्दू की क़ित़ाएं उर्दू रस्म-उल-ख़त के अ’लावा नागरी लिपि में भी छापी जाएँ तो पढ़ने वालों का दाएरा बहुत बड़ा हो जाएगा और उर्दू को हर दिल-अ’ज़ीज़ बनाने में बड़ी मदद मिलेगी।

    मैंने ख़ुद डॉक्टर तारा चंद और पंड़ित सुंदर लाल के साथ मिलकर इलाहाबाद से “नया हिंद” माहनामा रिसाले की एडिटिंग की ज़िम्मेदारी ली थी।उस में एक ही ज़बान में नागरी और उर्दू रस्म-उल-ख़त में सारे मज़ामीन बराबर के कालमों में छपा करते थे।मेरे पास हिन्दुस्तान के मुख़्तलिफ़ सूबों से इस तरह के ख़ुतूत आते थे कि “नया हिंद” से उन्हें उर्दू सीखने में बड़ी मदद मिली।इसी ख़याल से अपने उसी उसूल की वजह से मैंने तक़रीर के उस मज़मून को भी एक ही ज़बान लेकिन दो रस्म–उल-ख़त में पेश किया है।इसे अगर उर्दू ज़बान से ना-वाक़िफ़ आदमी भी पढेगा तो उसे फ़ैज़ पहुँचेगा।हिंदी और उर्दू की क़ुर्बत से यक-जेहती को बिला-शक मदद मिलेगा।

    ये सही है कि मुल्क में ज़बान के मसले को लेकर, इलाक़ाई सवालों को लेकर, ज़ात पात और फ़िर्क़ावारियत को लेकर, मुल्क के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में फ़सादात होते रहते हैं लेकिन उन फ़सादात के बीच से यक-जेहती की सूरत निकल आती है। जैसा नागालैंड, पंजाब, और दिल्ली में हुआ। इस की वजह ये है कि इस सर-ज़मीन को सूफ़ियों और संतों ने अपने यक-जेहती के पैग़ाम से इन्सानियत की फ़स्ल के लिए ज़रख़ेज़ बनाया। एक छोटे से वाक़िआ’ का ज़िक्र कर के मैं अपने इस मज़मून को ख़त्म करना चाहूँगा।

    अक्तूबर सन1969 में तमाम मुल्क में गांधी जी की पैदाइश का सौ साला जश्न मनाया गया।लेकिन हमारे मुल्क की एक फ़िर्क़ा-परस्त जमाअ’त ने उस मौक़ा’ को फ़िर्क़ावाराना फ़साद के लिए चुना और वो भी अहमदाबाद के शहर को, जहाँ गांधी ने सन1915 ई’स्वी में अपनी क़ौमी ख़िदमत की इब्तिदा की थी।उस वक़्त वहाँ जिस सुबाई पार्टी की सरकार बर सर-ए-इक़्तिदार थी वो मरकज़ी सरकार के असर से बाहर थी।दंगाई बे-ख़ौफ़ मकानों को जलाते रहे, दुकानों को लूटते रहे और मा’सूम इन्सानों का क़त्ल करते रहे।ऐसा महसूस होता था कि गांधी जी के साथ वाबस्ता इस शहर से इन्सानियत रुख़्सत हो चुकी है।मुहतरमा वज़ीर-ए-आ’ज़म ने मुझसे कहा कि “बहुत से लोग वहाँ गए हैं और लौट कर मुझे अपनी रिपोर्टें दी हैं, लेकिन मुझे तसल्ली नहीं हुई है। मैं चाहती हूँ कि आप वहाँ जाएं, शहर में गश्त करें और इस बात को देखें कि हैवानियत के बीच में क्या वहाँ इन्सानियत भी ज़िंदा है’’ ?

    मैं अहमदाबाद गया। क़रीब महीने भर वहाँ रहा। ज़ख़्मियों से अस्पताल में मिला। मज़्लूमों की दर्द-नाक कहानियाँ सुनकर उनके आँसू पोंछे। क़रीब छः हज़ार मकान जला दिए गए थे और वहाँ की सरकार के बयान के मुताबिक़ साढे़ तीन सौ आदमी, लेकिन फ़ौजी इंटेलीजेन्स के आँकड़ों के मुताबिक़ क़रीब दो हज़ार आदमी, इस फ़िर्क़ावाराना फ़साद में शहीद हुए। मज़लूमों की कसीर ता’दाद अक़ल्लियती फ़िर्क़े की थी। एक दिन गश्त करता हुआ मैं मेमू बाई की चाल में पहुँचा।वहाँ महलों को चाल कहते हैं।मेरे पहुँचने पर उस इ’लाक़े के सौ डेढ़ सौ आदमी जम्अ’ हो गए।चाल के सभी मकान जले हुए थे।दो-चार मकानों से अब भी धुआँ निकल रहा था।मैंने उनसे सवाल किया; क्यों भाइयो क्या ये सब के सब मकान मुसलमानों के थे?

    चालीस पैंतालीस बरस की उ’म्र के एक साहिब ने मेरी तरफ़ मुख़ातिब हो कर कहा,जी नहीं यहाँ पैंतीस घर मुसलमानों के थे और 120 घर हिंदूओं के थे”।

    मैंने पूछा आपका नाम? जवाब मिला मेरा नाम कल्याण सिंह है।

    मैंने फिर पूछा।तो क्या इस का मतलब ये है कि एक-बार मुसलमानों का मज्मा’ आया जो हिंदूओं के मकान जला गया और दुबारा हिंदूओं का मज्मा’ आया जो मुसलमानों के मकान जला गया? वो साहिब बोले,जी नहीं। मज्मा’ तो एक ही आया था और वो हिंदूओं का था।

    मैंने हैरान हो कर पूछा तो क्या हिंदूओं ने ही हिंदूओ का मकान जला दिए?”

    जवाब मिला, जी। मैंने कहा आपका घर कौन सा है? उन्होंने हाथ के इशारे से बताया।वो जिससे अब भी धुआँ निकल रहा है।उसमें मेरी रिहाइश भी थी और दुकान भी। दुकान मोटरों के टायरों और साइकिल के टायरों की थी।इसी वजह से धुवाँ अब भी निकल रहा है।”

    मैंने फिर पूछा। कल्याण सिंह जी कितने की मालियत रही होगी?

    जवाब मिला “मकान की मालियत तो क़रीब एक लाख ही होगी और दुकान की भी कम-ओ-बेश उतनी ही।

    मैंने हैरान हो कर पूछा! आख़िर हिंदूओं के मकान जलाने की वजह क्या थी?

    कल्याण सिंह ने कहा “मज्मा’ ने आकर हम लोगों से पूछा कि हमें ये बताओ कौन से मकान हिंदूओं के हैं और कौन से मुसलमानों के? हम हिंदूओं के मकानों को छोड़कर मुसलमानों के मकान जलाना चाहते हैं।हमने उन्हें ये बताने से इंकार कर दिया।इस पर वो बहुत ख़फ़ा हुए और लोगों से उन्होंने पूछा।सबने मेरी बात की ही ताईद की।भीड़ में लोगों ने चिल्ला कर कहा” तब हम सब मकान जाला देंगे”। हमने कहा “आपकी मर्ज़ी।उन्होंने सारे मकानों में पेट्रोल से आग लगादी।जब शो’ले पूरी तरह भड़क उठे तब यहाँ से रुख़्सत हुए”

    मैंने पूछा कल्याण सिंह तुमने अपनी दो लाख की मालियत ख़ाक में मिलवा दी।शायद ज़िंदगी-भर की कमाई। और ये बता क्यों नहीं दिया कि तुम हिंदू हो?”

    कल्याण सिंह ने पास खड़े हुए मुसलमानों से तआ’रुफ़ कराते हुए कहा। हम और ये दोनों राजस्थान के एक ही गाँव के रहने वाले हैं। पहले हम हिंदू यहाँ आकर बसे और हमने अपना कार-ओ-बार जमाया।उस के बरसों बा’द हमारे मुस्लिम पड़ोसियों ने हमसे कहा, क्या हम भी आपके साथ वहाँ चल सकते हैं और आपके ज़ेर-ए-साया दो रोटी कमा सकते हैं? हमने हामी भरी। वो हमारे भरोसे और इत्मीनान पर यहाँ आए।अच्छे कारीगर-ओ-हुनर-मंद थे।जल्दी उन्होंने अपना कार-ओ-बार खड़ा कर लिया और अपने घर भी बना लिए।तो जिन लोगों से हमारे सैकड़ों बरस के तअ’ल्लुक़ात थे, जो हमारे गाँव के लोग थे, जो हमारे भरोसे पर यहाँ आए थे और जिन्हें हम चचा, ताऊ, मामूं कह कर पुकारते हैं अगर हम अपने घर बचा कर उनके घर जलवा देते तो फिर ऊपर वाले को मुंह कैसे दिखाते?”

    मेरा दिल भर आया। मैं अपने को ज़ब्त कर सका। मैंने कहा!कल्याण सिंह जब तक तेरे जैसे आदमी हिन्दुस्तान में हैं तो इस मुल्क की बाहमी मोहब्बत और यक-जेहती की जड़ों को कोई हिला नहीं सकता।

    शायद इसी लिए बावजूद बड़ी-बड़ी कोशिशों के जिनमें अंदरूनी और बाहरी, हर तरह की ताक़तें शामिल हैं, हिन्दुस्तान के अ’वाम के दिलों से मोहब्बत और यक-जेहती की चाहत कोई मिटा नहीं पाया।क़ुरआन शरीफ़ में बार-बार ये दुहराया गया है कुल इन्सान एक ही वाहिद उम्मत हैं और कुल इन्सान की एक ही क़ौम है”।और ‘लकुम दीनुकुम व-लियदीन’।तुम्हारा मज़हब तुम्हारे लिए और हमारा मज़हब हमारे लिए है।

    “ला-इकराहा फ़िद्दीन’’ मज़हब के मुआ’मले में कोई ज़बरदस्ती नहीं”

    किसी सूफ़ी ने कहा है:

    फ़क़त तफ़ावुत है नाम ही का

    दर अस्ल सब एक ही हैं यारो

    जो आब-ए-साफ़ी की मौज में है

    उसी का जल्वा हबाब में है

    मौलाना रुम ने कितनी अच्छी बात ही है:

    तू बराए वस्ल कर्दन आमदी

    ने बराए फ़स्ल कर्दन आमदी

    आदमी को दुनिया में एक दूसरे को मेल और मोहब्बत के लिए भेजा गया है।लड़ाई और नफ़रत फैलाने के लिए नहीं।

    (ब-शुक्रिया ख़ुदा-बख़्श लाइब्रेरी जर्नल पटना)

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