तसव़्वुफ का अ’सरी मफ़्हूम - डॉक्टर मस्ऊ’द अनवर अ’लवी काकोरी
तसव्वुफ़ न कोई फ़ल्सफ़ा है न साइंस। ये न कोई मफ़रूज़ा है न हिकायत और न ख़्वाब कि जिसकी ता’बीरें और मफ़्हूम ज़मानों के साथ तग़य्युर-पज़ीर होते हों।यह एक हक़ीक़त है।एक न-क़ाबिल-ए-तरदीद हक़ीक़त।एक तर्ज़-ए-हयात है।एक मुकम्मल दस्तूर-ए-ज़िंदगी है जिसको अपना कर आदमी इन्सानियत की क़बा-ए-ज़र-अफ़्शाँ ज़ेब-तन करता है।तो आईए सबसे पहले ये देखा जाए कि इसका असली मफ़्हूम क्या है।हम क़ुरआन-ए-मजीद की तरफ़ रुजूअ’ करते हैं तो सूरा-ए-बय्यिना की आयत-ए-करीमा ‘व-मा उमिरू इल्ला लि-या’बुदुल्ला-ह- मुख़्लिसी-न-लहुद्दीन,हुनफ़ा-अ व-युक़ीमूनस्सला-त व-यूतूज़्ज़कात-व-ज़ालि-क दीनुल-क़य्यिमा’ इस का जवाब देती है।या’नी उन लोगों को सिर्फ़ और सिर्फ़ इस बात का हुक्म दिया गया है कि वो अल्लाह तआ’ला की ख़ातिर यकसूई-ओ-बे-ग़र्ज़ी के साथ सिर्फ़ उसी की इ’बादत करें मगर जन्नत-ओ-जहन्नम के तसव्वुर से बाला हो कर।न इस ख़्याल से गुनाहों से बचें कि जहन्नम से नजात मिलेगी और न इस बिना पर अच्छे-अच्छे नेक काम अंजाम दें कि उनके बदला जन्नतुल-फ़िरदौस में जगह मिलेगी।या’नी इ’बादत-ओ-रियाज़त और हुस्न-ए-मुआ’मलात से अज्र और सवाब का तसव्वुर भी ख़त्म हो जाए।
हज़रत राबिआ’ बसरी का मशहूर वाक़िआ’ है कि कैफ़ियत में एक हाथ में आग और दूसरे में पानी लिए जा रही थीं।हज़रत हसन बसरी ने पूछा राबिआ’ क्या इरादा है।बोलीं सोचती हूँ कि जन्नत को जलाकर राख कर दूँ और दोज़ख़ को बुझा डालूं,क्योंकि जिसे देखो जन्नत के लालच में नेक काम कर रहा है और दोज़ख़ के ख़ौफ़ से गुनाहों से बच रहा है।मौला की ख़ुशी के लिए कोई कुछ नहीं कर रहा है। या’नी जन्नत-ओ-दोज़ख़ इख़्लास के मुनाफ़ी हैं।मिर्ज़ा ग़ालिब ने ठीक ही तो कहा है:
ता’अत में ता रहे न मय-ओ-अंगबीं की लाग।
दोज़ख़ में डाल दे कोई लेकर बहिश्त को।।
पैग़ंबर-ए-इस्लाम अ’लैहिस्सल्लाम का इर्शाद-ए-गिरामी है ‘अल-एहसानु अन-ता’बुदल्ला-ह क-अन्ना-क तराहु फ़-इन-लम तकुन तराहु फ़-इन्नहु यराक’।
एहसान यही है कि तुम अल्लाह की इ’बादत इस तरह करो गोया तुम उसे देख रहे हो और अगर ये मुम्किन न हो तो ये यक़ीन करो कि वो तुमको देख रहा है।
इसी से हमारे क़ौल-ओ-फे’ल का तज़ाद और फ़र्क़ ख़त्म होता है और फ़िक्र-ओ-अ’मल में इख़्लास-ओ-लिल्लाहियत पैदा होते हैं। यही एहसान तसव्वुफ़ है।
हज़रत जुनैद बग़्दादी फ़रमाते थे कि तसव्वुफ़ ये है कि तुम अल्लाह तआ’ला के साथ बिला इ’लाक़ा रहो और वो तुमको तुम्हारी ख़ुदी से मुर्दा और अपनी ख़ुदी से ज़िंदा कर दे।नीज़ तसव्वुफ़ ख़यालात की सेहत का नाम है।या’नी अपने दिल को नफ़्सानी ख़्वाहिशात से पाक-ओ-साफ़ रखा जाए और बे-जा तमन्नाओं और आर्ज़ूओं को उस में घर न करने दिया जाए,क्योंकि ये चीज़ क़ल्ब-ए-इंसानी को ख़राब करती है।
दिल को ख़राब आर्ज़ू-ए-नफ़्स ने किया।
दिल साफ़ वो है जिसमें कोई आर्ज़ू ना हो।
बेजा ख़्वाहिशात और तमन्नाओं का दिल से रुख़्सत होना ही अस्ल चीज़ है।
हर तमन्ना दिल से रुख़्सत हो गई।
अब तो आ जा अब तो ख़ल्वत हो गई।।
तसव्वुफ़ अल्लाह के सिवा ग़ैर से तअ’ल्लुक़ तोड़ने का नाम है।मगर इसका ये मतलब हरगिज़ नहीं है कि इन्सान बे-अ’मली, तर्क-ए-दुनिया और रहबानियत की ज़िंदगी इख़्तियार कर ले।वो दुनिया में रहे मगर उसमें इस दर्जा डूब न जाए कि हराम-ओ-हलाल की तमीज़ उठ जाए और दुनिया और उसके अस्बाब की मोहब्बत दिल में बैठ जाए। रूमी (रहि.) फ़रमाते हैं:
चीस्त दुनिया अज़ ख़ुदा ग़ाफ़िल बुदन।
ने क़िमाश-ओ-नुक़रा-ओ-फ़रज़ंद-ओ-ज़न।।
दुनिया तो अल्लाह तआ’ला से ग़ाफ़िल होने का नाम है न कि लिबास-ओ-ज़र-ओ-जवाहरात और अहल-ओ-अ’याल से।इन्सान खाए पिए भी ।दुनियावी लवाज़िम से भी किनारा-कश न हो।अहल-ओ-अ’याल से भी बे-तवज्जुही-ओ-बे-तअ’ल्लुक़ी न करे। दुनिया से राह-ए-फ़रार न इख़्तियार करे।मगर अपने क़ल्ब को उन बखेड़ों में उलझाए नहीं और हज़रात-ए-सूफ़िया के ब-क़ौल ‘दिल ब-यार-ओ-दस्त ब-कार’पर अ’मल करे।शैख़ सा’दी फ़रमाते हैं:
ब-गीर रस्म-ए-तअ’ल्लुक़ दिला ज़े-मुर्ग़ाबी।
कि ऊ ज़े-आब चू बरख़ास्त ख़ुश्क-पर बरख़ास्त ।।
ऐ दिला तअ’ल्लुक़ की रस्म-ओ-रीत अगर तुझे सीखना है तो मुर्ग़ाबी से सीख़ कि पानी में रहने के बावजूद जब वो पानी से उड़ती है तो एक क़तरा पानी का असर भी उसके परों पर नहीं होता है।
‘बैठे हर महफ़िल में लेकिन झाड़ के उठे अपना दामन’
तसव्वुफ़ ये भी है कि इन्सान हर वक़्त अपने नफ़्स का मुहासबा करता रहे और एक लम्हा भी उस से ग़ाफ़िल न हो।इसीलिए सूफ़िया अपनी हर हर सांस का हिसाब रखते हैं क्यूँकि बा’ज़-औक़ात एक पल की ग़फ़्लत न जाने कहाँ ले जाती है।
रफ़्तम कि ख़ार अज़ पा कशम महमिल निहाँ शुद अज़ नज़र।
यक लख़्त ग़ाफ़िल गश्तम-ओ-सद साल: राहम दूर शुद।।
मैं अपने पैर से काँटा निकालने को झुका ही था कि महबूब का कजावा आँखों से ओझल हो गया।मैं तो एक ही लम्हा ग़ाफ़िल हुआ था मगर यहाँ तो सैकड़ों साल की मसाफ़त से दूर हो गया।
तसव्वुफ़ अपने में अख़्लाक़-ए-इलाही पैदा करने का नाम है।’तख़ल्लक़ू बि-अख़्लाक़िल्लाह’ या’नी अपनी ज़ात में अख़्लाक़-ए-इलाही को रचा बसा लो।इसका उसूल यह है कि अपने को अच्छे अख़्लाक़-ओ-आ’दात से आरास्ता करना।ये ज़ाहिर-ओ-बातिन में अख़्लाक़-ओ-इख़्लास का ये सबक़ देता है कि इन्सान दूसरों से अपने को कम-तर समझे। ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ को अपना शिआ’र बनाए। मज़हबी रवादारी, आपसी मेल मोहब्बत, वज़्अ’-दारी और सुल्ह-जोई की फ़ज़ा क़ाएम करे।दूसरों की तकलीफ़, परेशानी और मुसीबत को अपनी तकलीफ़-ओ-परेशानी समझे। दूसरों के दुख को अपना दुख गरदाने और ईसार-ओ-हमदर्दी को अपना नसबुल-ऐ’न बनाए।इसी वजह से सूफ़ी तबक़ाती और नस्ली तक़्सीम से बहुत दूर होता है।वो तमाम मख़्लूक़ को वहदत और इकाई में बाँधता है और नैरंगियों में यक-रंगी का मुतलाशी रहता है।
नेक-ओ-बद सब हैं ‘तुराब’ उसके ज़ुहूर-ए-अस्मा।
मुझको यक-रंग नज़र चाहिए हर फ़र्द के साथ।।
जिस तरह मौजें दरिया से अलग नहीं वैसे ही उसकी निगाह तमाम आ’लम में ऐ’न-हक़ है ग़ैर-हक़ नहीं।
जैसे मौजें ऐ’न दरिया हैं हक़ीक़त में ‘तुराब’
वैसे आ’लम ऐ’न हक़ है ग़ैर हक़ आ’लम नहीं
तसव्वुफ़ का मफ़्हूम ये भी है कि इन्सान हर अच्छी सिफ़त को इख़्तियार करे और बुरी सिफ़त से दूर हो जाए।मख़्लूक़ के साथ बिला तफ़रीक़-ए-मज़हब-ओ-मिल्लत अच्छे से अच्छा बरताव करे और अपने दुश्मनों तक के लिए हमेशा दुआ’-ए-ख़ैर करता रहे।सुल्तानुल-मशाइख़ हज़रत ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया अक्सर ये अश्आ’र पढ़ते थे।
हर कि मा रा यार न-बुवद एज़द ऊ रा यार बाद।
वाँ कि मा रा रंज दारद राहतश बिस्यार बाद।।
हर कि ऊ ख़ारे निहद दर रह ज़े राह-ए-दुश्मनी।
हर गुले कज़ बाग़-ए-उ’र्मश ब-शगफ़द बे-ख़ार बाद।।
जो कोई हमारा दोस्त न हो ऐ अल्लाह तू उसका भी दोस्त हो और जो हमको ई’ज़ा पहुंचाए उसके बदले उसको मज़ीद आराम-ओ-आसाइश अ’ता कर।हमसे दुश्मनी की ख़ातिर जो कोई हमारे रास्ते में काँटे बिछाए तो उसकी ज़िंदगी के बाग़ का हर फूल बे-ख़ार हो जाए।
हदीस शरीफ़ है ‘ला-यूमिनु अहदुकुम हत्ता युहिब्बु लि-अख़ीहि-मा युहिब्बु लि-नफ़्सिहि’।तुम में से कोई उस वक़्त तक अल्लाह पर मुकम्मल ई’मान वाला हो ही नहीं सकता जब तक वो दूसरों के लिए वही न चाहे जो वो अपने लिए पसंद करता है।चुनाँचे सियरुल-औलिया में है।
‘आँ चे बर ख़ुद रवा न-दारी बर ग़ैरे म-दार’
या’नी जो अपने लिए ना पसंद करो वो दूसरों के लिए भी ना पसंद करो।
आख़िर में ये अ’र्ज़ करूँगा कि तसव्वुफ़ अख़्लाक़ी सरफ़राज़ी, रुहानी बुलंदी, सरापा तहज़ीब-ओ-शाइस्तगी और अदब का नाम है।इसकी बुनियादी ता’लीमात तवाज़ुअ’-ओ-इन्किसार, ख़ुश-अख्लाक़ी-ओ-मिलनसारी,इख़्लास-ओ-लिल्लाहियत,ख़ुद-शनासी-ओ-ख़ुदा-शनासी, इ’ल्म-बा-अ’मल, दूसरों के उ’यूब की पर्दा-पोशी, अपने किर्दार-ओ-अ’मल और मोहब्बत से दूसरों को अपना बनाना,अल्लाह तआ’ला और साथ ही दूसरे इन्सानों से बेहतर रिश्ते क़ाएम करना वग़ैरा हैं।
हर दौर में तसव्वुफ़ का मफ़्हूम, इसकी मा’नवियत-ओ-इफ़ादियत और अहमियत एक सी रही है।मगर अ’स्र-ए-हाज़िर के मसाएल-ओ-हालात, इन्सानियत-कुश माहौल, बाहमी मुनाफ़रत-ओ-तअ’स्सुब,तबक़ाती तक़्सीम, नस्ली-ओ-क़ौमी इख़्तिलाफ़ात ने ये साबित कर दिया है कि तसव्वुफ़ ही वो नुस्ख़ा-ए-इक्सीर है जो हर ज़ख़्म के लिए मरहम और हर बीमारी का मुदावा है।उन पाक तीनत सूफ़ियों की पाकीज़ा ज़िंदगियों के मुतालआ’ और उनकी ता’लीमात के असरात को महसूस करने के बा’द ये यक़ीन हो जाता है कि तसव्वुफ़ ज़िक्र-ओ-फ़िक्र, मुराक़बा-ओ-मुजाहदा, कशफ़-ओ-करामात और कैफ़ियत का ही नाम नहीं है बल्कि वो हर दौर के लिए हयात-ए-नव का पैग़ाम है और यही इसका अ’स्री मफ़्हूम है।
आज अगर हम तसव्वुफ़ के मफ़्हूम को समझ कर उसे अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बना लें,उन पाक-तीनत सूफ़ियों की ता’लीमात पर अ’मल पैरा हो जाएं तो हमारे सारे दुख दूर हो कर हमारी ज़िंदगियाँ निखर सँवर जाएं।
हो अगर आज बराहीम का ईमाँ पैदा।
आग कर सकती है अंदाज़-ए-गुल्सिताँ पैदा।।
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