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बाबा फ़रीद के श्लोक- महमूद नियाज़ी

मुनादी

बाबा फ़रीद के श्लोक- महमूद नियाज़ी

मुनादी

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    गुरु ग्रंथ साहिब में बाबा फ़रीद के श्लोक के नाम से एक अ’लाहिदा बाब है जिसमें मुल्तानी ज़बान के 112 श्लोक हैं। इन श्लोकों को हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन मसऊ’द गंज शकर रहमतुल्लाहि अ’लैह से मंसूब किया जाता है।इन श्लोकों के बारे में लोगों ने तरह-तरह की क़यास-आराइयाँ की हैं।कोई तो इनको शैख़ इब्राहीम फ़रीद सानी रहमतुल्लाहि अ’लैह का बताता है और किसी के नज़दीक ये किसी और शैख़ इब्राहीम नामी बुज़ुर्ग के हैं।और कुछ लोगों का ख़याल है कि इन श्लोकों में शैख़ इब्राहीम फ़रीद सानी और बाबा फ़रीद रहमतुल्लाहि अ’लैह दोनों का कलाम मिला हुआ है।चुनाँचे मशहूर पंजाबी मुसन्निफ़ बाबा बुध सिंह का भी ख़याल है कि ग्रंथ साहिब में हज़रत ख़्वाजा फ़रीदुद्दीन मसऊ’द गंज शकर और शैख़ इब्राहीम फ़रीद सानी का कलाम मख़लूत है। इस ग़लत-फ़हमी को फैलाने वाला एक यूरोपी मुवर्रिख़ मैकॉल्फ़ है। इसने लिखा है कि ग्रंथ साहिब में बाबा फ़रीद रहमतुल्लाहि अ’लैह की पाइआँ और शैख़ इब्राहीम के श्लोक हैं।इसी बुनियाद पर हमारे यहाँ के तज़्किरा-निगारों और मुवर्रिख़ों ने भी शुकूक का इज़हार किया है।चुनाँचे प्रोफ़ेसर निज़ामी अपनी अंग्रेज़ी किताब में लिखते हैं:

    “हमें मुआ’सिरीन की एक शहादत भी मिल सकी कि हज़रत बाबा साहिब ने इतनी बड़ी ता’दाद में श्लोक छोड़े हैं।बाबा साहिब के मुतअ’ल्लिक़ हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया और उनके जांनशीनों ने तमाम हालात तफ़्सील से दिए हैं जिनमें उनकी रोज़ाना ज़िंदगी के मा’मूलात और अदबी मशाग़िल की तफ़्सील भी शामिल है।अगर हक़ीक़त में इतने बड़े बुज़ुर्ग का ये काम होता तो उसको आसानी से नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता था।”

    प्रोफ़ेसर साहिब आगे चल कर ये भी तहरीर फ़रमाते हैं “इन श्लोकों में तख़ल्लुस फ़रीद इस्ति’माल हुआ है लेकिन बाबा साहिब ने अपना तख़ल्लुस मसऊ’द रखा है फ़रीद नहीं।”

    ग्रंथ साहिब में जो कलाम भी शामिल है वो गुरू नानक साहिब का जम्अ’ किया हुआ है और वो उनकी “बीजक” में भी शामिल था। लेकिन इस कलाम को गुरू अर्जुन देव साहिब ने सन 1581 ई’स्वी से सन 1606 तक तर्तीब दिया है। साहिब-ए-गुलज़ार-ए-फ़रीदी ने गुरू नानक साहिब और शैख़ इब्राहीम फ़रीद सानी की मुलाक़ात का ज़िक्र किया है और ये भी लिखा है कि शैख़ इब्राहीम फ़रीद सानी की इजाज़त से ये कलाम ग्रंथ साहिब में शामिल किया गया था।इजाज़त की ज़रूत इसलिए थी कि हज़रत बाबा साहिब के वारिस और जानशीन शैख़ इब्राहीम फ़रीद सानी (रहि•) थे।

    अब हमको ये देखना है कि हज़रत बाबा साहिब ने अ’रबी-ओ-फ़ारसी के अ’लावा मक़ामी ज़बानों में भी कोई कलाम छोड़ा था या नहीं और ऐसे कलाम में उन्होंने अपना तख़ल्लुस मसऊ’द इख़्तियार किया या ‘फ़रीद’।इस सिलसिले में हमें सबसे मुस्तनद शहादत हज़रत मलिक मोहम्मद जाइसी रहमतुल्लाहि अ’लैह की मिलती है।शर्ह-ए-अखरौती में आप तहरीर फ़रमाते हैं:

    “हज़रत ख़्वाजा गंज शकर दर ज़बान-ए-हिन्दी-ओ-पंजाबी बा’ज़े अश्आ’र फरमूदंद चुनाँकि दर मर्दुम मशहूर अंद। अश्आ’र अज़ दोहरा-ओ-सूरत-ए-अम्साल-ए-आँ नमूदः”

    हज़रत जाइसी के क़ौल से दो अहम बातें मा’लूम होती हैं। पहली बात तो ये है कि हज़रत बाबा साहिब (रहि) ने मक़ामी ज़बानों में भी शे’र फ़रमाए थे और वो आ’म तौर पर लोगों में मशहूर थे। और दूसरी बात ये है कि ये अश्आ’र दोहों की क़िस्म के थे। इस से ये नतीजा निकल सकता है कि हज़रत बाबा साहिब ने जो कुछ उ’लमा और ख़्वास के लिए इर्शाद फ़रमाया वो तो तारीख़ों और तज़्किरों में महफ़ूज़ हो गया लेकिन आपका कलाम जो मक़ामी ज़बानों में अ’वाम के लिए था वो अ’वाम के सीनों में ही महफ़ूज़ रहा।ये भी मुम्किन है कि तज़्किरा-निगारों और मुवर्रिख़ों को तमाम श्लोक ब-यक-वक़्त मिल सके हों या उन्होंने मक़ामी ज़बान होने की वजह से नज़र-अंदाज कर दिए हों।

    हज़रत बाबा साहिब ने काफ़ी अर्सा मुल्तान में क़याम फ़रमाया था।क्योंकि आप 17-18 साल की उ’म्र में तक्मील-ए-उ’लूम-ए-ज़ाहिरी के लिए मुल्तान के क़दीम-तरीन मदरसा मिनहाजुद्दीन में दाख़िल हुए।और साहिब-ए-सियरुल-आ’रिफ़ीन के क़ौल के मुताबिक़ जब तक ता’लीम पूरी हुई आपका क़याम मुल्तान में ही रहा।इन श्लोकों की ज़बान भी मुल्तानी है।इसलिए यक़ीन के साथ कहा जा सकता है कि ये श्लोक आपने मुल्तान में अपने ज़माना-ए-क़याम में ही तस्नीफ़ फ़रमाए थे जो वहाँ के लोगों तक ही महदूद रहे।और जब चार-सौ बरस के बा’द ग्रंथ साहिब की तालीफ़ हुई तो उन श्लोकों को एक लड़ी में पिरो कर शामिल-ए-ग्रंथ कर लिया गया।उस ज़माने के सूफ़िया-ए-किराम की ता’लीम-ओ-तल्क़ीन का तरीक़ा भी यही था कि वो अ’वाम तक अपना पैग़ाम पहुँचाने के लिए अ’वामी ज़बान को ही पसंद करते थे।इन श्लोकों के अ’लावा भी हज़रत बाबा साहिब का कलाम मुल्तानी ज़बान में दस्तियाब है।

    मक़ामी ज़बानों में आपने जो भी अश्आ’र फ़रमाए उनमें तख़ल्लुस फ़रीद ही मिलता है।चुनाँचे बाबा-ए-उर्दू मौलवी अ’ब्दुल हक़ मरहूम ने शैख़ फ़रीद का “झूलना” के उ’न्वान से जो नज़्म नक़ल की है उसमें फ़रीद ही तख़ल्लुस है।उस नज़्म के आख़िरी दो शे’र मुलाहज़ा हों:

    चली याद की करना हर घड़ी, यक तिल हुज़ूर सूँ टलना नहीं

    उठ बैठ में याद सूँ शाद रहना गवाह-दार को छोड़ के चलना नहीं

    पाक रख तूँ दिल को ग़ैर सती आज साईं फ़रीद का आवता है

    क़दीम क़दीमी के आवे सीं, ला-ज़वाल दौलत कूँ पावता है

    निज़ामिया सिलसिला और ख़ुसूसन फ़रीदियों में मुतअ’द्दिद आ’माल मक़ामी ज़बानों में बाबा साहिब से मंसूब हैं और आ’म तौर पर राइज हैं।मसलन बाबा फ़रीद की दस्तक के नाम से जो अ’मल सैंकड़ों बरस से चला रहा है उसमें भी तख़ल्लुस फ़रीद ही इस्ति’माल हुआ है मसऊ’द नहीं।मुलाहज़ा हो:

    ‘फ़रीदा’ चले बन को क़ुतुब देव बहाओ

    साँप चोर बाग भेड़िया चारों डाढ़ बंधाओ

    मोहमद चले दसावरी अव्वल पाँचा बंद

    साँप चोर बाग भरया चारों रस्ते बंद

    शैख़ इब्राहीम का लक़ब ‘फ़रीद’ सानी था कि नाम। इसलिए उनका कलाम जहाँ भी नक़ल किया जाए उसको ये किस तरह कहा जा सकता है कि ये शैख़ फ़रीद का कलाम या बाबा फ़रीद की पाइयाँ हैं। शैख़ इब्राहीम से ये तवक़्क़ोअ’ हरगिज़ नहीं हो सकती है कि वो अपने पीरान-ए-पीर और मुरिस-ए-आ’ला से इस्म-ए-गिरामी को अपने तख़ल्लुस के तौर पर इस्ति’माल करें और उन्होंने ऐसा किया होगा।

    हज़रत बाबा साहिब की काठ की रोटी मशहूर है।जिसके मुतअ’ल्लिक़ ये रिवायत है कि हज़रत बाबा साहिब अपने मुसलसल रोज़ों का इफ़्तार अपने लकड़ी के प्याले को घिस कर करते थे जिससे उस प्याले के तमाम किनारे ख़त्म हो गए थे और उसने रोटी की मानिंद शक्ल इख़्तियार कर ली थी।मशहूर है किसी दरगाह में आज तक ये रोटी मौजूद है।अब एक श्लोक देखिए जिसमें रोटी की तल्मीह वाज़ेह तौर पर मौजूद है।क्या इस शे’र को शैख़ इब्राहीम से मंसूब किया जा सकता है।

    फरीदा रोटी मेरी काठ की लावणु मेरी भुख

    जिना खाधी चोपड़ी घणे सहनिगे दुख

    हज़रत बाबा साहिब का लक़ब शकर गंज है। साहिब-ए-‘सियरुल-औलीया’ ने इस लक़ब के मुतअ’ल्लिक़ लिखा है कि हज़रत बाबा साहिब मुतवातिर रोज़े रखते और संग-रेज़ों से रोज़ा इफ़्तार करते।क्योंकि कोई चीज़ रोज़े के इफ़्तार के लिए मयस्सर ही होती थी।दहन-ए-मुबारक में वो संग-रेज़े पहुँच कर शकर में तब्दील हो जाते थे।इसके अ’लावा शकर के सौदा-गर वाला क़िस्सा भी मा’रूफ़ है जिसको बैरम ख़ाँ ने भी नज़्म किया है।

    कान-ए-नमक जहान-ए-शकर शैख़-ए-किब्र-ओ-बर

    आँ कज़ शकर नमक कुनद अज़ नमक शकर

    एक रिवायत ये भी मशहूर है कि हज़रत बाबा साहिब को बचपन से ही शकर और मिठास का शौक़ था।आपकी वालिदा मोहतरमा तर्ग़ीब-ए-नमाज़ के लिए आपसे फ़रमाईं “जो बच्चे सुब्ह की नमाज़ पाबंदी से पढ़ते हैं अल्लाह तआ’ला उनको शकर देता है।” अपनी बात को निभाने के लिए वो रात के वक़्त रोज़ाना काग़ज़ की पुड़िया में शकर रखकर मुसल्ले के नीचे रख देती थीं और ये पुड़िया सुब्ह को नमाज़ के बा’द बाबा साहिब को मिल जाती थी। जब हज़रत की उ’म्र दस बारह बरस की हो गई और नमाज़ की तर्ग़ीब से रोज़ाना शकर मिलती रही। हज़रत बाबा साहिब को शीरीनी का शौक़ इस दर्जा था कि आपकी फ़ातिहा मूंग की मीठी खिचड़ी या हल्वे पर होती है। अब एक श्लोक मुलाहज़ा हो जिसमें सकर खंड (शकर-गंज) की तल्मीह वाज़ेह तौर पर मौजूद है।

    फरीदा सकर खंडु निवात गुड़ु माखिओ मांझा दुधु

    सभे वसतू मिठीआं रब पुजनि तुधु

    इस क़िस्म के मुतअ’द्दिद श्लोक मौजूद हैं जिनमें शकर, गुड़, मिस्री और दूसरी मीठी चीज़ों का ज़िक्र किया गया है।इस से मा’लूम होता है कि ये श्लोक हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन मसऊ’द गंज शकर के अ’लावा किसी और के नहीं हो सकते हैं।

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