हज़रत ख़्वाजा नूर मोहम्मद महारवी - प्रोफ़ेसर इफ़्तिख़ार अहमद चिश्ती सुलैमानी
पैदाइश-ओ-ख़ानदान
क़िब्ला-ए-आ’लम हज़रत ख़्वाजा नूर मोहम्मद महारवी रहमतुल्लाहि अ’लैह की विलादत-ए-बा-सआ’दत 14 रमज़ानुल-मुबारक 1142 हिजरी 2 अप्रैल 1730 ई’स्वी को मौज़ा’ चौटाला में हुई जो महार शरीफ़ से तीन कोस के फ़ासला पर है। आपके वालिद-ए-गिरामी का इस्म-ए-मुबारक हिन्दाल और वालिदा-ए-मोहतरमा का नाम आ’क़िल बी-बी था।आपके वालिद-ए-गिरामी पहले मौज़ा’ चौटाला में रहते थे। आपके तीन भाई मलिक सुल्तान, मलिक बुर्हान और मलिक अ’ब्दुल थे।एक हम-शीरा थीं जिनकी शादी इस्लाम ख़ां बिन साहूका से हुई थी।
मादर-ज़ाद वली
आपकी पैदाइश से क़ब्ल आपकी वालिदा ने एक ख़्वाब देखा कि गोया एक ऐसा चराग़ मेरे घर में रौशन हो गया है जिसकी रौशनी आसमान से ज़मीन तक हर जगह जल्वा-फ़गन है और तमाम रू-ए-ज़मीन का इहाता किए हुए है।नीज़ तमाम घर एक ख़ास क़िस्म की ख़ुशबू से मुअ’त्तर है।आपने ये ख़्वाब एक बुज़ुर्ग शैख़ अहमद दूदी रहमतुल्लाहि अ’लैह को सुनाया।उन्होंने फ़रमाया मुबारक हो कि आपके घर में एक ऐसा चराग़ रौशन होगा कि तमाम जहान उसके नूर से मुनव्वर हो जाएगा।
इसी क़िस्म का एक और वाक़िआ’ भी है।आपकी पैदाइश रमज़ानुल-मुबारक में हुई।चुनांचे पैदाइश के बा’द आपकी वालिदा ने देखा कि आप दिन के वक़्त दूध नहीं पीते सिर्फ़ रात को पीते हैं ।आप फ़िक्र-मंद हुईं।इत्तिफ़ाक़न उन दिनों शैख़-ए-मज़कूर फिर चौटाला में आए।आपकी दादी साहिबा आपकी वालिदा को उनके पास ले गईं और दिन के वक़्त बच्चे के दूध न पीने का हाल बताया।आपने फ़रमाया ग़म न करो कि आपका बच्चा ग़ौस-ए-ज़माना है। ये सिर्फ़ एहतिराम-ए-रमज़ान की ख़ातिर दिन को दुध नहीं पीता,रोज़ा रखता है। फिर फ़रमाया उस घर की क़िस्मत का क्या कहना जहाँ ऐसा कुतुब-ए-ज़माना पैदा हो कि जिसकी ज़ात-ए-बा-बरकात से जहान को फ़ैज़ पहुँचेगा और दीन-ए-रसूल-ए-पाक सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम को ताज़गी हासिल होगी”।
ताबाँ चू गश्त मेहर ज़े-नूर-ए-मोहम्मदी।
पुर-नूर शुद शिपहर ज़े-नूर-ए-मोहम्मदी।।
पुर-फ़रह् गश्त मादर-ए-गेती ज़े-मक़दमश।
रौशन नुमूद चेहरः ज़े-नूर-ए-मोहम्मदी।।
ता’लीम-ओ-तर्बियत
आपने पाँच या छः बरस की उ’म्र में अपनी ता’लीम का आग़ाज़ क़ुरआन-ए-पाक से किया।हाफ़िज़ मोहम्मद मस्ऊ’द महार से क़ुरआन-ए-पाक पढ़ा और हिफ़्ज़ किया।उसके बा’द आपने मौज़ा’ बढेराँ, मौज़ा बबलाना, डेरा ग़ाज़ी ख़ाँ और लाहौर में ता’लीम हासिल किया।फिर मज़ीद तकमील की ख़ातिर आप दिल्ली की तरफ़ रवाना हुए।
दिल्ली पहुंच कर आपने नवाब ग़ाज़िउद्दीन ख़ाँ के मदरसा में हाफ़िज़ मियाँ बरख़ुर्दार जीव रहमतुल्लाहि अ’लैह से ता’लीम का आग़ाज़ किया।कुछ अ’र्सा बा’द ये सिलसिला मुंक़ता’ हो गया तो आप बहुत फ़िक्र-मंद हुए।एक दिन आपके एक दोस्त हाफ़िज़ मोहम्मद सालिह ने बताया कि एक बहुत अच्छे बुज़ुर्ग आ’लिम और पीर-ज़ादा दकन से आए हैं जो ता’लीम देते हैं। ये सुनकर आपने हज़रत मौलाना फ़ख़्रुद्दीन देहलवी रहमतुल्लाहि अ’लैह की ख़िदमत में हाज़िरी का इरादा किया। ख़ुलासतुल-फ़वाएद में उस पहली हाज़िरी का हाल आपकी अपनी ज़बान-ए-मुबारक से यूँ दर्ज है।
हज़रत मौलाना साहिब रहमतुल्लाहि अ’लैह की ख़िदमत में पहली हाज़िरी
अगले दिन सुब्ह हम दोनों (आप और क़लंदर बख़्श) उनकी ख़िदमत में गए।जब हवेली के नज़दीक पहुंचे तो ख़ुश-हाल नाम ख़ादिम ने बताया कि हज़रत मौलाना साहिब ख़ानम बाज़ार तशरीफ़ ले गए हैं।हम दोनों वापस आ गए।दूसरे दिन ज़ुहर के वक़्त तन्हा गया।जब हवेली के दरवाज़े पर पहुंचा तो एक दर्बान बैठा था और लोग आ जा रहे थे।मैं आगे गया तो हवेली के अंदर एक दरवाज़ा था और दरवाज़ा के सामने एक दालान था।उस दालान में हज़रत मौलाना फ़ख़्रुद्दीन एक तख़्त-पोश पर तशरीफ़ फ़रमा थे जिस पर सफ़ेद चाँदनी बिछी हुई थी और बड़ा गाव-तकिया रखा हुआ था।इधर मेरी हालत ये थी कि कपड़े मैले और सर के बाल बढ़े हुए थे।मैं ने अपना हाल देखा और मुतफ़क्किर हुआ।इतने में हज़रत मौलाना साहिब की नज़र-ए-मुबारक मुझ पर पड़ी।बंदा को आगे तलब किया।
जब मैं नज़दीक गया तो आप उठे और मुआ’नक़ा किया फिर अपने पास ही तख़्त पर बिठा लिया और पूछा कि कौन सा वतन है।मैंने अ’र्ज़ किया कि पाक पत्तन के क़रीब।पाक पत्तन शरीफ़ का नाम सुनकर बहुत ख़ुश हुए।फ़रमाया हज़रत बाबा साहिब रहमतुल्लाहि अ’लैह की औलाद से हो।मैंने अ’र्ज़ किया कि नहीं।पूछा यहाँ कैसे आए हो।अ’र्ज़ किया कि मैंने सुना है कि आप ता’लीम देते हैं।मैं भी उम्मीदवार हूँ।पूछा पहले कहाँ पढ़ा है।मैंने अ’र्ज़ किया कि मियाँ बरख़ुर्दार जीव के पास। फ़रमाया हमारा पढ़ाना मुद्दत से मौक़ूफ़ है इसलिए बेहतर यही है कि अभी उन्ही से पढ़ो।फ़ारिग़ हो कर यहाँ तकरार के लिए आ जाया करो।मैंने अ’र्ज़ किया कि
‘अ’र्सा माबैन बिस्यार अस्त-ओ-मसाफ़त बई’द , वक़्त-ए-मा दरीं आमद-ओ-रफ़्त ज़ाए ख़्वाहद शुद’।
तर्जुमा
आपके और उनके मकान के दरमियान बहुत फ़ासला है। आमद-ओ-रफ़्त में वक़्त ज़ाए’ होगा।
आपने मुस्कुरा कर ये शे’र पढ़ा:
मा बरा-ए-वस्ल कर्दन आमदेम
ने ब-रा-ए-फ़स्ल कर्दन आमदेम
तर्जुमा
हम विसाल कराने के लिए आए हैं जुदाई डालने के लिए नहीं आए।
और फ़रमाया ख़ैर मेरे पास ही पढ़ो। फिर बड़ी नवाज़िश फ़रमा कर पढ़ाना शुरूअ’ कर दिया।हज़रत मौलाना साहिब की ख़िदमत में रह कर क़िब्ती का दर्स लेना शुरूअ’ किया।हज़रत मौलाना साहिब ने फ़रमाया ‘तुम अपना वक़्त इ’ल्म-ए-ज़ाहिरी में ज़ाऐ’ न करो।ज़रूरत के मुताबिक़ इतना इ’ल्म काफ़ी है अब उस इ’ल्म में मश्ग़ूल हो जाओ जिसके तुम लाएक़ हो। इस से ये मा’लूम होता है कि आपने क़िब्ती पर ही अपनी ता’लीम ख़त्म कर दी मगर मनाक़िबुल-महबूबीन में सियरुल-औलिया के हवाले से लिखा है कि आपने मज़ीद उ’लूम भी हासिल किए यहाँ तक कि हदीस की सनद ली।
बैअ’त
हज़रत मौलाना साहिब सन1165 हिजरी सन 1751 ई’स्वी में औरंगाबाद से हिजरत कर के दिल्ली में मुस्तक़िल क़याम के लिए तशरीफ़ लाए थे।उनकी तशरीफ़-आवरी के छः माह बा’द आप उनसे बैअ’त हुए।जब आपने बैअ’त के लिए अ’र्ज़ किया तो हज़रत मौलाना साहिब ने फ़रमाया कि पहले इस्तिख़ारा करो उस के बा’द बैअ’त होगी।आपने इस्तिख़ारा किया। रात को ख़्वाब में देखा कि किसी ने खाने का तबक़ आपके हाथ में दे दिया और हज़रत मौलाना साहिब का जुब्बा आपकी गर्दन में डाल दिया।हज़रत मौलाना साहिब आगे आगे चल रहे हैं और आप उनके पीछे पीछे जा रहे हैं।सुब्ह को आपने रात की हक़ीक़त बयान की।फ़रमाया अब चंद दिन कलिमा-ए-इस्तिग़्फ़ार पढ़ो।इस से फ़राग़त हुई तो हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी के मज़ार-ए-मुबारक के क़रीब ले जा कर बैअ’त फ़रमाया।
पाक-पतन शरीफ़ का सफ़र
दिल्ली में तशरीफ़-आवरी के कुछ अ’र्सा बा’द हज़रत मौलाना साहिब ने पाक-पत्तन शरीफ़ का सफ़र-ए-मुबारक इख़्तियार किया।आप भी हज़रत मौलाना साहिब के साथ थे।मीलों का ये तवील सफ़र हज़रत मौलाना साहिब रहमतुल्लाहि अ’लैह ने पा-पियादा तय किया।पाँव में छाले पड़ जाते तो आबलों में मेहंदी लगाते।थक जाते तो कहीं शब-बाशी कर लेते।अभी मुकम्मल आराम न करते कि फिर रवाना हो जाते।दिल्ली से पहले पानीपत आए और हज़रत शैख़ शरीफ़ुद्दीन बू-अ’ली क़लंदर की दरगाह शरीफ़ में क़याम किया।फिर लाहौर पहुंचे और वहाँ आठ दिन क़याम किया।यहाँ से रवाना हो कर पाक पत्तन से कुछ दूर एक गाँव में ठहरे।पिछले-पहर जब आप बेदार हुए तो हज़रत मौलाना साहिब को न पाया।बहुत तश्वीश हुई।तलाश किया तो सिर्फ़ ना’लैन-ए-मुबारक पड़ी हुई थीं। आख़िर पता चला कि वो अकेले ही नंगे-पाँव पाक-पत्तन शरीफ़ रवाना हो गए हैं और हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन गंज-शकर के एहतिराम में जूते इस जगह उतार गए हैं।आप भी फ़ौरन पाक-पत्तन गए।
हज़रत मौलाना साहिब पाक-पत्तन शरीफ़ पहुंचे तो दीवान साहिब हज़रत ख़्वाजा मोहम्मद यूसुफ़ साहिब ने जो उस वक़्त सज्जादा-नशीन थे बहुत तवाज़ो’ की।हज़रत मौलाना साहिब मज़ार-ए-मुबारक के क़रीब एक हुजरा में क़याम-पज़ीर हो गए और आपको हुक्म दिया कि महार-शरीफ़ जाओ और अपनी वालिदा के पास क़याम करो।आप महार-शरीफ़ तशरीफ़ लाए। वालिदा की क़दम-बोसी की और दीगर अ’ज़ीज़-ओ-अक़ारिब से मिले और वहाँ मस्जिद-ए-महार में शब-ओ-रोज़ इ’बादत में मश्ग़ूल हो गए।कुछ अ’र्सा क़याम के बा’द आप पाक-पत्तन शरीफ़ हज़रत मौलाना साहिब की ख़िदमत में हाज़िर हो गए। हज़रत मौलाना साहिब ने आपको बुर्ज-ए-निज़ामी में इ’बादत में मश्ग़ूल रहने का हुक्म दिया।उस ज़माना में जो शख़्स भी मुरीद होने के लिए आता हज़रत मौलाना साहिब उसको आपकी ख़िदमत में भेज देते और फ़रमा देते कि उनकी बैअ’त हमारी बैअ’त है।चुनांचे बहुत से लोग उस साल आप से बैअ’त हुए।उ’र्स-ए-मुबारक ख़त्म होने के बा’द हज़रत मौलाना साहिब ने पाक पत्तन शरीफ़ में मज़ीद क़याम किया।आपने ये अ’र्सा अपने पीर-ओ-मुर्शिद के हुक्म के मुताबिक़ महार शरीफ़ में गुज़रा।जब वापस आए तो अपने असातज़ा-ए-अ’ज़ीज़-ओ-अक़रिबा और बिरादरान का एक क़ाफ़िला भी हज़रत मौलाना साहिब से बैअ’त के लिए आपके साथ आया।ख़ुलासतुल-फ़वाइद में है कि हज़रत मौलाना साहिब ने पाक-पत्तन शरीफ़ में दो महीने ग्यारह दिन क़याम किया और फिर वापस दिल्ली तशरीफ़ ले गए।आप भी अपने पीर-ओ-मुर्शिद के साथ दिल्ली चले गए।
ख़िलाफ़त
पाक-पत्तन शरीफ़ से वापसी के बा’द ये दस्तूर रहा कि आप छः माह के क़रीब दिल्ली रहते थे और छः माह महार शरीफ़। ख़ज़ीनतुल-अस्फ़िया में मर्क़ूम है कि एक दिन हज़रत मौलाना साहिब ने आपसे फ़रमाया।ऐ नूर मोहम्मद मख़्लूक़ को आपसे काम पड़ेगा।आपने अ’र्ज़ किया कि “मैं एक कम-तरीन पंजाबी हूँ।किस तरह इस आ’ला मर्तबा के लाएक़ समझा गया हूँ।” हज़रत मौलाना साहिब रहमतुल्लाहि अ’लैह ख़ामोश रहे। चंद दिनों बा’द ख़िलाफ़त अ’ता फ़रमा कर महार-शरीफ़ में क़याम का हुक्म दे दिया।मन्क़ूल है कि आपके महार-शरीफ़ चले जाने के बा’द हज़रत मौलाना साहिब ये पढ़ा करते थे-
‘मक्खन ले गया पंजाबी छाछ पियो संसार’
गुलशन-ए-अबरार में है कि जब हज़रत मौलाना साहिब आपको ख़िलाफ़त-ओ-इजाज़त अ’ता फ़रमा कर महार-शरीफ़ की तरफ़ रुख़्सत फ़रमाया तो पाँच वसीयतें फ़रमाईं।
1۔ अगर मेरी वफ़ात की ख़बर मिले तो दिल्ली न आना
2۔ इस मुल्क में हिन्दुस्तानी लिबास न पहनना
3۔ अगर तुम्हें कोई शख़्स तकलीफ़ पहुंचाए तो दर गुज़र करना और उसके साथ भलाई करना
4۔ तुम्हारे पास उस इ’लाक़ा के उ’लमा सादात और हज़रत गंज शकर रहमतुल्लाहि अ’लैह की औलाद रुजूअ’ करेंगे उनकी ता’ज़ीम-ओ-तकरीम करना
5۔ एक अमीर तुम्हारे दामन से वाबस्ता होगा उसकी निगहदाश्त करना।
हज़रत क़िब्ला-ए-आ’लम रहमतुल्लाहि अ’लैह ने इन वसीयतों को दिल-ओ-जान से क़ुबूल किया।
महार शरीफ़ में क़याम
महार शरीफ़ में क़याम के बा’द आपने रुश्द-ओ-हिदायत के काम का आग़ाज़ किया।जल्द ही चारों अतराफ़ से मख़्लूक़-ए-ख़ुदा आने लगी जिनमें हर तबक़ा के अफ़राद थे।उलमा-ओ-फ़ुज़ला भी थे,शाह-ओ-उमरा भी और दरवेश-ओ-मसाकीन भी।हर एक यक्साँ फ़ैज़-याब होता था।आपकी सोहबत अ’जब तासीर रखती थी।जो उस ख़ानक़ाह में पहुंच जाता उसकी ज़िंदगी में इन्क़िलाब आ जाता।हज़रत ख़्वाजा शाह मोहम्मद सुलैमान तौंस्वी रहमतुल्लाहि अ’लैह फ़रमाते थे कि मेरे पीर-ओ-मुर्शिद के दस्त-ए-मुबारक में अ’जब तासीर थी।जो कोई भी आपका हाथ पकड़ लेता उसकी ज़िंदगी बदल जाती।आपका ज़्यादा वक़्त रुश्द-ओ-हिदायत में गुज़रता और मज्लिस हर वक़्त गर्म रहती।
मा’मूलात-ओ-ख़साइल
आप शरीअ’त के सख़्ती के साथ पाबंद थे।सफ़र-ओ-हज़र में नमाज़-ए-बा-जमाअ’त अ’दा फ़रमाते।ता’दील-ए-अर्कान और आदाब-ए-नमाज़ में बहुत ग़ुलू फ़रमाते।हत्ता कि आपसे मुस्तहब भी तर्क न होता।वुज़ू में ज़्यादा पानी सर्फ़ न फ़रमाते।आ’म तौर पर किसी दूसरे शख़्स से वुज़ू न करवाते। हर वुज़ू के साथ मिस्वाक करते।नमाज़-ए-तहज्जुद की बहुत ताकीद फ़रमाते।
आप खाना बहुत कम खाते थे।तआ’म में हरगिज़ तकल्लुफ़ न करते। जो कुछ भी मयस्सर आता खा लेते।लिबास दरवेशाना और सादा था।आप फ़रमाते थे कि मुझे मेरे शैख़ से इस तरह फ़रमान हुआ था कि लिबास-ओ-ग़िज़ा लतीफ़ इस्ति’माल करना क्योंकि इस से दिल पर लतीफ़ अनवार वारिद होते हैं। आप हमेशा दो ज़ानू हो कर बैठते थे।मुरब्बअ’ हो कर कम बैठते थे।जब आख़िर-ए-उ’म्र में ज़ो’फ़ आ गया तो तकिया लगा कर बैठने लगे।हर किह वो मिह से मोहब्बत से पेश आते।तमाम लोगों की अ’र्ज़ सुनते। हर साइल को जवाब देते।हर एक की दिल-जोई फ़रमाते।बे-कसों पर शफ़क़त फ़रमाते। अक़रिबा से हुस्न-ए-सुलूक करते।उ’लमा की बहुत इ’ज़्ज़त करते।आपके लंगर शरीफ़ से हर ग़रीब-ओ-मिस्कीन को खाना मिलता था।आपका कलाम ख़ाली अज़ हिक्मत न होता था।मुतालआ-ए’-कुतुब का बहुत शौक़ था।लवाइहि, नफ़्ख़ातुल-उन्स, फ़ुक़रात, शरहुलमआ’त, अ’शरा-ए-कामिला और फ़ुसूसुल-हिकम अक्सर मुतालआ’ में रहतीं।
मुर्शिद की नज़र में
(1) एक दफ़ा’ हज़रत मौलाना साहिब वुज़ू करते वक़्त बहुत ख़ुश थे।आपसे पूछा कि तुम्हारे आबा-ओ-अज्दाद क्या कसब करते थे।आपने अ’र्ज़ किया कि ज़राअ’त करते थे और मवेशी चराते थे और उनका दूध दूहते थे।अलबत्ता अब जो आप हुक्म फ़रमाएं उस पर अ’मल करूँगा।हज़रत मौलाना साहिब ने क़दरे सुकूत के बा’द फ़रमाया।अब मैं तुम्हें अपना कसब सिखाऊंगा
(2) एक दफ़ा’ किसी ने हज़रत मौलाना साहिब से अ’र्ज़ किया कि लोग कहते हैं कि हज़रत सय्यिद रसूल रहमतुल्लाहि अ’लैह हर शख़्स से पाँच सौ रुपया नज़्र लेकर उसे आल-ए-हज़रत सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम की मज्लिस में दाख़िल कर देते थे।ये दुरुस्त है या नहीं।फ़रमाया दुरुस्त है।मगर हक़-तआ’ला ने हमें एक मुरीद दिया है जो ख़ुदा-नुमा है और बग़ैर नज़्र लिए ख़ुदा से मिला देता है और उस मुरीद से मुराद हज़रत क़िब्ला-ए-आ’लम रहमतुल्ल्हि अ’लैह थे।
(3) मौलवी दीदार बख़्श पाक-पत्तनी ख़ानदान-ए-चिश्तिया साबरिया के एक मश्हूर बुज़ुर्ग मियाँ साबिर बख़्श साहिब के हवाले से बयान करते हैं कि जब हज़रत मौलाना साहिब के विसाल के अय्याम क़रीब आए तो मैं और दीगर मशाइख़ जम्अ’ हो कर हज़रत मौलाना साहिब की ख़िदमत में हाज़िर हुए और अ’र्ज़ किया कि या हज़रत आपके विसाल के बा’द आपके ख़ुलफ़ा में से किसको आपके सज्जादा-ए-इर्शाद पर बिठाया जाए।फ़रमाया मुझे जिसको अपनी जगह ख़लीफ़ा-ओ-क़ाइम-मक़ाम बनाना था पहले ही बना चुका हूँ और उस काम से फ़राग़त पा चुका हूँ और वो मियाँ नूर मोहम्मद महारवी हैं।
(4) नवाब ग़ाज़ीउद्दीन ख़ान रहमतुल्ल्हि अ’लैह ने रिसाला-ए- अस्माउल-अबरार में लिखा है कि हज़रत मौलाना साहिब के ख़लीफ़ा मौलाना ज़ियउद्दीन जयपुरी फ़रमाते थे कि हम जैसे मुरीदों ने सख़्त मेहनत-ओ-मुजाहदा से नेअ’मत हासिल की। मगर हज़रत मौलाना साहिब ने अपनी नेअ’मत-ए-ख़ास ख़्वाजा नूर मोहमद साहिब को ख़ुद अ’ता फ़रमाई और वही हज़रत मौलाना साहिब रहमतुल्ल्हि अ’लैह के क़ाइम-मक़ाम हैं।
जब क़िब्ला-ए-आ’लम रहमतुल्ल्हि अ’लैह को हज़रत मौलाना साहिब ने बैअ’त से मुशर्रफ़ फ़रमाया और रोज़ ब-रोज़ आपका क़ुर्ब-ए-ज़ाहिरी-ओ-बातिनी बढ़ने लगा तो मौलाना साहिब के देरीना ख़ुद्दाम रश्क करने लगे।चुनांचे एक दिन उन्होंने हज़रत मौलाना साहिब की ख़िदमत में अ’र्ज़ किया कि हज़रत ये पंजाबी शख़्स क़ौम-ए-खरल से है।उस क़ौम का एक शख़्स मिर्ज़ा नाम झलग के एक ज़मींदार की साहिब-ए-जमाल लड़की साहबाँ को अपने साथ वर्ग़ला कर ले गया था।ऐसे शख़्स का आपकी ख़िदमत में रहना मुनासिब नहीं।हज़रत मौलाना साहिब ने फ़रमाया कि मिर्ज़ा खरल ने तो सिर्फ़ एक साहबाँ को अपने इ’श्क़ में मुब्तला किया था।इंशा-अल्लाहु तआ’ला हमारा ये पंजाबी एक जहान को अपने इ’श्क़ में मुब्तला करेगा और अपने साथ जन्नत में ले जाएगा।नीज़ फ़रमाया कि अगर ये पंजाबी मेरे पास न आता तो मैं इस दुनिया से अपने अरमान अपने दिल में ही लेकर चला जाता।
ता’लीमात
महार-शरीफ़ में आपकी क़ायम-कर्दा ख़ानक़ाह ता’लीम-ओ-तर्बियत का एक मिसाली मरकज़ थी।अंदाज़-ए-ता’लीम सादा भी था और हकीमाना भी। हज़रत ख़्वाजा नूर मोहम्मद महावरी दीन की ता’लीम पर ख़ास ज़ोर देते थे। उ’लमा का एहतिराम करते थे और उनके साथ दीनी-ओ-इ’ल्मी मसाएल पर मज्लिस गर्म रखते थे। अपने ख़ास-ख़ास ख़लीफ़ा को ख़ुद भी ता’लीम देते।
(1) ता’लीम-ए-कुतुब के साथ साथ आप दुरुस्ती-ए-अख़्लाक़ का सबक़ भी देते थे।आपके मल्फ़ूज़ात में जगह-जगह दुरुस्ती-ए-अख़्लाक़ पर-ज़ोर दिया गया है।साहिब-ए-तारीख़-ए-मशाइख़-ए- चिश्त लिखते हैं कि उन्होंने अपनी अख़्लाक़ी ता’लीम में ख़ास तौर से इन तीन बातों पर ज़ोर दिया था:
(1) यक आँ कि ग़ुस्सा बर कसे न-कुनद कि ग़ुस्सा जौहरे अस्त दर बातिन-ओ-इज़्हार-ए-आँ नूर-ए-मा’रिफ़त रा मी-रानद
तर्जुमा:एक ये कि किसी पर ग़ुस्सा न करे कि ग़ुस्सा इन्सान के बातिन में एक ऐसा जौहर है जिसका इज़्हार नूर-ए-मा’रिफ़त को दूर कर देता है।
(2) दोउम आँ कि अगर कसे दर हक़ अहदे शिकायत कुनद
आँ रा मा दल-ल बिल-ख़ैर बायद नुमूद।
तर्जुमा:दूसरे ये कि अगर कोई शख़्स किसी के हक़ में कोई शिकायत करे तो उसे ख़ैर पर महमूल करना चाहिए।
(3) मुहासबा दर उमूर न-बायद कर्द
तर्जुमा:उमूर-ओ-मुआ’मलात में मुहासबा या’नी ज़्यादा छान-बीन नहीं करनी चाहिए।
इन तीन हिदायतों में अख़्लाक़ी दुरुस्ती के बे-पनाह राज़ मुज़्मर थे।तमाम अख़्लाक़ी ज़िंदगी जहाँ तक वो दूसरों से मुतअ’ल्लिक़ है, इनके गिर्द घूमती है”।
(2) आप अपनी ता’लीमात में इब्तिदा-ए-शरीअ’त की ख़ास तलक़ीन फ़रमाया करते थे। शरीअ’त का ख़ुद भी एहतिराम करते थे और अपने ख़ुल़फ़ा-ओ-मुरीदीन को भी इस की ख़ास ताकीद फ़रमाते थे। फ़रमाया करते थे कि ज़ाहिर-ओ-बातिन को शरीअ’त के मुताबिक़ आरास्ता करना चाहिए क्योंकि अ’वाम-ओ-ख़ास से उस दिन या’नी हिसाब किताब के दिन सबसे पहले शरीअ’त के बारे में पुर्सिश होगी।
(3) आप अपने मुरीदों और हाशिया-नशीनों को अ’वाम में रहने, उनके दुख-दर्द में शरीक होने और उनमें इस्लाही जिद्द-ओ-जहद की हमेशा हिदायत फ़रमाया करते थे।ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ आपकी नज़र में अहम-तरीन फ़रीज़ा था।वो अपने ख़लीफ़ा-ओ-मो’तक़िदीन को हमेशा समझाया करते थे कि आ’म लोगों में रह कर उनकी इस्लाह-ओ-तर्बियत की कोशिश करना और मुश्किलात में उनकी मदद करना सबसे बड़ी इ’बादत है।
तरीक़त ब-जुज़ ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ नीस्त।
ब-तस्बीह-ओ-सज्जाद:-ओ-दल्क़ नीस्त।
(4) एक दिन मस्नवी शरीफ़ के इस मिस्रा’:
‘गर गुल अस्त अंदेश-ए-तू गुल्शने’
की तशरीह में फ़रमाया कि इस अंदेशा में सिर्फ़ जानने से काम नहीं बनता, जब तक कि उस में मसरूफ़ हो कर अपने आपको मह्व ना करे।मसलन एक शख़्स हज का इरादा रखता है और ये भी जानता है कि मक्का-मुअ’ज़्ज़मा इस तरफ़ है मगर जब तक कमर बांध कर चल नहीं पड़ता,सफ़र की सुऊ’बतें बर्दाश्त नहीं करता और मंज़िलें तै नहीं करता उस मक़सद की तकमील नहीं कर सकता।लिहाज़ा सुलूक के रास्ता में मुजाहदा ज़रूरी है।मगर बा’ज़ लोग ये कहते हैं कि दुनियावी झंझट इस रास्ता में हमारी रुकावट बनते हैं। हालाँकि बात ये है कि ख़ुद ही अपने दिल को कुल्ली तौर पर दुनियावी कामों, खेती बाड़ी, औ’रतों और बच्चों में लगा रखा है लिहाज़ा ये चीज़ें रुकावट बनती हैं।चाहिए ये कि इन दुनयवी अ’लाएक़ को तर्क कर दिया जाए।फिर आपने ये शे’र पढ़ा:
मा फ़कीरां रा तमाशा-ए-चमन दर कार नीस्त।
दाग़हा-ए-सीनः-ए-मा कमतर अज़ गुलज़ार नीस्त।।
(तर्जुमा):हम फ़क़ीरों को बाग़ का तमाशा दरकार नहीं है।हमारे सीने के दाग़,बाग़ के फूलों से कम दर्जा नहीं रखते।
(5) एक दफ़ा’ आपकी मज्लिस में ये मस्अला पेश किया गया कि ग़ौसुल-आ’ज़म हज़रत शैख़ अ’ब्दुल-क़ादिर जीलानी ने ग़ुनियतुत्तालिबीन में लिखा है कि-
तआ’मुल-मुरीदि हरामुन अ’लश्शैख़।
(तर्जुमा):शैख़ पर मुरीद का तआ’म हराम है।
लिहाज़ा इस मस्अला की रू से मुरीदों की दा’वत क़ुबूल की जा सकती है या नहीं।हज़रत क़िब्ला-ए-आ’लम ने फ़रमाया कि दुनिया के तमाम मुरीदों में सहाबा-ए-किराम रज़ी-अल्लाहु अ’न्हुम से ज़्यादा किस का मक़ाम होगा और ख़ुद नबी अकरम सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम मशाइख़-ए-काइनात के सरदार हैं और कोई वलीयुल्लाह हुज़ूर सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम की ख़ाक-ए-पाक को भी नहीं पहुंच सकता।जब ख़ुद हुज़ूर सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम सहाबा किराम की दा’वत क़ुबूल फ़रमा लेते थे और उनका खाना खा लेते थे तो हमारे लिए यही हुज्जत काफ़ी है।
करामात
मियाँ नूर बख़्श महारवी से मंक़ूल है कि कोट मट्ठन के क़रीब एक क़ाज़ी साहिब रहते थे जो हज़रत क़िब्ला-ए-आ’लम के मुरीद थे। एक दफ़ा’ क़ाज़ी साहिब ने क़िब्ला-ए-आ’लम रहमतुल्लाहि अ’लैह से अ’र्ज़ किया कि हज़रत आपसे ये वा’दा चाहता हूँ कि जब मैं फ़ौत हो जाऊं तो आप मेरा जनाज़ा पढ़ाऐं।फ़रमाया इंशा-अल्लाह मैं ही तुम्हारा जनाज़ा पढ़ाऊंगा। क़ाज़ी साहिब मज़्कूर अभी हयात थे कि हज़रत क़िब्ला-ए-आ’लम का विसाल हो गया।क़ाज़ी साहिब को फ़िक्र लाहिक़ हुई कि आप हज़रत क़िबला-ए-आ’लम रहमतुल्लाहि अ’लैह मेरी नमाज़-ए-जनाज़ा कैसे पढ़ाएँगे।कुछ अ’र्सा बा’द क़ाज़ी साहिब फ़ौत हो गए।जब उनका जनाज़ा तैयार कर के सहरा की तरफ़ ले गए तो क्या देखते हैं कि एक घोड़ सवार घोड़ा दौड़ाता आ रहा है।जब वो सवार क़रीब आया तो सबने पहचान लिया कि हज़रत क़िब्ला-ए-आ’लम रहमतुल्लाहि अ’लैह हैं।
हाज़िरीन ने क़दम-बोसी की और भूल गए कि हज़रत क़िब्ला-ए-आ’लम का तो विसाल हो चुका है।आपने क़ाज़ी साहिब की नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ाई और नज़रों से ग़ाएब हो गए।उस वक़्त लोगों को एहसास हुआ कि हज़रत क़िब्ला-ए-आ’लम रहमतुल्लाहि अ’लैह तो विसाल पा चुके थे।यहाँ तो सिर्फ़ ईफ़ा-ए-अ’हद के लिए तशरीफ़ लाए थे।
(2) मियाँ नूर-बख़्श महावरी से मंक़ूल है कि मौलवी ज़ियाउद्दीन साहिब रहमतुल्लाहि अ’लैह हज़रत ख़्वाजा नूरुस्समद शहीद रहमतुल्लाहि अ’लैह के उस्ताद और हज़रत मौलाना साहिब के मुरीद थे।उन्हें हज़रत क़िब्ला-ए-आ’लम की विलाएत पर ज़्यादा ऐ’तिमाद न था।फ़क़त पीर भाई समझते थे।एक-बार उन्होंने हज का इरादा किया।हज़रत क़िब्ला-ए-आ’लम ने फ़रमाया मौलवी साहिब आपका यहाँ रहना बेहतर है कि चंद और लोग आपसे इ’ल्म हासिल करेंगे”।मगर उन्होंने सफ़र-ए-हज पर इसरार किया और रुख़्सत लेकर रवाना हो गए।रवांगी के वक़्त हज़रत क़िब्ला-ए-आ’लम ने फ़रमाया मौलवी साहिब सफ़र-ए-हज में कहीं अगर कोई मुश्किल पेश आए तो फ़क़ीर को याद कर लें।
मौलवी साहिब रवाना हो गए।दौरान-ए-सफ़र समुन्दर में तूफ़ान आ गया और जहाज़ ग़र्क़ होने लगा।मौलवी साहिब को हज़रत क़िब्ला-ए-आ’लम के अल्फ़ाज़ याद आगए।पस आपको याद किया और मदद की दरख़्वास्त की।उसी वक़्त मौलवी साहिब पर ग़ुनूदगी तारी हो गई।क्या देखते हैं कि हज़रत क़िब्ला-ए-आ’लम रहमतुल्लाहि अ’लैह जहाज़ में सवार हैं और फ़रमाते हैं मौलवी साहिब ग़म न करो मैं तुम्हारे साथ हूँ।जहाज़ ग़र्क़ नहीं होगा।आख़िर अल्लाह तआ’ला ने जहाज़ को ब-ख़ैर-ओ-आ’फ़ियत किनारे पर लगा दिया और सब सही-ओ-सलामत मक्का मुअ’ज़्ज़मा पहुंच गए।
अय्याम-ए-हज में मौलवी साहिब मैदान-ए-अ’र्फ़ात में थे।क्या देखते हैं कि ख़ुत्बा-ए-हज के वक़्त हज़रत क़िब्ला-ए-आ’लम भी उसी सफ़ में खड़े हैं जहाँ मौलवी साहिब थे।जब ख़ुत्बा ख़त्म हुआ तो ग़ाएब हो गए।मौलवी साहिब ने क़रीबी लोगों से पूछा कि वो बुज़ुर्ग कहाँ गए।कहने लगे अल्लाह ही बेहतर जानता है।हम इस पंजाबी बुज़ुर्ग को हमेशा ख़ाना-ए-काबा’ में देखते हैं और हर साल मौसम-ए-हज में भी यहाँ मौजूद होते हैं।मौलवी साहिब हज से वापस आए तो हज़रत क़िब्ला-ए-आ’लम के क़दमों में गिर गए।आपने उनकी ऐसी तर्बियत की कि ख़िलाफ़त-ओ-तकमील के दर्जे तक पहुंचा दिया।
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