Sufinama

बक़ा-ए-इन्सानियत में सूफ़ियों का हिस्सा (हज़रत शाह तुराब अ’ली क़लंदर काकोरवी के हवाला से) - डॉक्टर मसऊ’द अनवर अ’लवी

मुनादी

बक़ा-ए-इन्सानियत में सूफ़ियों का हिस्सा (हज़रत शाह तुराब अ’ली क़लंदर काकोरवी के हवाला से) - डॉक्टर मसऊ’द अनवर अ’लवी

मुनादी

MORE BYमुनादी

    क़ुरआन-ए-मजीद में इर्शाद है ‘लक़द मन्नल्लाहु अ’लल-मोमिनीना-इज़ा-ब’असा-फ़ीहिम रसूलन मिन-अन्फ़ुसिहिम यतलू अ’लैहिम आयातिहि-व-युज़क्कीहिम-व-युअल्लि’मुहुमुल-किताबा-वल-हिकमत’.

    (आल-ए-इ’मरान)

    या’नी रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अ’लैहि-व-सल्लम की बि’सत का मक़्सद ये हुआ कि वो लोगों को अल्लाह तआ’ला की आयात-ओ-निशानियों से बा-ख़बर करें।उनके नुफ़ूस का तज़्किया-ओ-निशानियों से ज़िंदगियाँ निखारें और सँवारें और उन्हें किताब-ओ-हिक्मत का सबक़ पढ़ाऐं।

    जिस तरह पैग़म्बरों की बि’सत मख़्लूक़ पर एहसान-ए-अ’ज़ीम है उसी तरह सूफ़ियों, ऋषियों और ख़ुदा-तर्स-ओ-ख़ुदा-रसीदा हस्तियों का वुजूद भी अल्लाह तआ’ला का बड़ा इन्आ’म है। आ’लम-ए-इंसानियत की तारीख़ के सफ़्हात उन पाक-तीनत सूफ़ियों, ऋषियों मुनियों के ना-क़ाबिल-ए-फ़रामोश एहसानात के तज़्किरों से मुज़य्यन हैं जिन्हों ने इन्सानियत की बक़ा-ओ-सलामती के लिए अपनी ज़िंदगियाँ वक़्फ़ कर दीं।

    वो पैग़म्बरों के सच्चे पीर-ओ-जां-नशीन हुए हैं इसीलिए उन्होंने इन्सानियत की फ़लाह-ओ-बहबूद और कामरानी की हर मुम्किन कोशिश की।इन्सानियत को वो रिफ़्अ’त-ओ-मंज़िलत और बुलंदी बख़्शी की ‘लक़द ख़लक़-नल-इन्साना-फ़ी-अह्सनि तक़्वीम’ सच हो गया। अपने अख़्लाक़-ओ-किर्दार और अ’मल से लोगों के दिलों को मोह लिया।मख़लूक़-ए-ख़ुदा से ऐसी मोहब्बत की और उनको ऐसे फ़वाइद पहुंचाए कि पैग़ंबर-ए-इस्लाम का इर्शाद ‘ला-यूमिनु अहदुकुम हत्ता युहिब्बु लि-अख़ीहि मा-युहिब्बु लि-नफ़्सिहि’ (तुम में से कोई भी अल्लाह तआ’ला पर मुकम्मल ईमान लाने वाला हो ही नहीं सकता जब तक वो दूसरों के लिए वही पसंद करे जो वो अपने लिए पसंद करता है) सादिक़ गया। उन्होंने रोती बिलकती और सिसकती रूहों को कामरानी-ओ-कामयाबी से हम-कनार किया। गुनाहगारों और शर्मसार लोगों को सीने से लगाया और यक़ीन दिलाया कि अल्लाह तआ’ला तमाम जहानों का पालन-हार और पैग़म्बर-ए-इस्लाम रहमतुललिलआ’लमीन (तमाम दुनिया के लिए रहमत) हैं।

    (जुर्म और गुनाह से तो नफ़रत ज़रूर करो मगर गुनाह-गार-ओ-ख़ता-कार से नहीं) पर सख़्ती से क़ाएम रहना, एक दूसरे के मज़्हबी जज़्बात-ओ-एहसासात को समझना और उनकी इज़्ज़त करना सिखाया। वज़ा’दारी, पास-ए-आदाब-ए-वफ़ा, ख़ैर ख़्वाही, दोस्तों और दुश्मनों से यकसाँ सुलूक और बे-नफ़्सी-ओ-बे-ख्वेशी जैसी सिफ़ात पर अ’मल-पैरा हो कर दिखाया और अपने हाशिया-नशीनों और हलक़ा-ब-गोशों को उसकी दिल-नशीं ता’लीम दी। ऐसी दिल-नशीं ता’लीम कि उन्होंने इसके अ’लावा कुछ सोचा ही नहीं। आदमियत को इन्सानियत का लिबास पहनाया वो इन्सानियत जिसके हुसूल के लिए आदमियत हमेशा सर-गर्दां रही।

    ‘आदमी को भी मुयस्सर नहीं इन्साँ होना’

    हिन्दुस्तान में सिल्सिला-ए-चिश्ती के मशाइख़ और सूफ़ियों ने इस सिल्सिला में बड़ा ही अहम किर्दार अदा किया है। उन्होंने तसव्वुफ़ को एक अ’वामी तहरीक की शक्ल दी। उन अक़्दार को फ़रोग़ दिया जिनसे इन्सानियत की बक़ा-ओ-तर्वीज और उस की सत्ह बुलंद हो। ये आ’ला अक़्दार रहम-दिल्ली, भाई-चारा, मोहब्बत-ओ-उल्फ़त, तमाम इन्सानों को यक-रंगी से देखना, बुग़्ज़-ओ-अ’दावत,कीना-ओ-हसद, हिर्स-ओ-हवा, तकब्बुर-ओ-ख़ुद-पसंदी और ख़ुद-बीनी से अपने को पाक रखना, अपने मुख़ालिफ़ीन और दुश्मनों की भी ख़ैर-ख़्वाही और उनसे हुस्न-ए-सुलूक करना, अपने में क़ूव्वत-ए-बर्दाश्त, वज़ा’-दारी, रवा-दारी, दिल-आसाई और दिल-गीरी, जैसी सिफ़ात पैदा करना है। इन अक़्दार की अ’दम-मौजूदगी इन्सानियत का गला घोंटती और मौजूदगी उसे बक़ा-ए-दवाम से हम-कनार करती है।

    इन्सानियत के सबसे बड़े मुह्सिन पैग़ंबर-ए-इस्लाम सल्लल्लाहु अ’लैहि-व-सल्लम ने क्या प्यारी बात फ़रमाई है। ‘अल-ख़ल्क़ु-कुल्लुहुम अ’यालुल्लाहि फ़-अहब्बुहुम इलैहि-अन्फ़उ’हुम लि-अ’यालिहि’ (दुनिया की तमाम मख़्लूक़ ख़्वाह वो किसी मज़्हब-ओ-मिल्लत की हो अल्लाह तआ’ला का कुम्बा है)। उस के नज़दीक सबसे ज़्यादा महबूब-ओ-प्यारा वही शख़्स है जो उसके कुम्बा के लिए सबसे ज़्यादा नफ़ा’-बख़्श हो।

    इसी बिना पर सूफ़िया तमाम इन्सानों को वहदत की आँख से देखते हैं।

    बनी-आदम आ’ज़ा-ए-यक दीगरन्द

    कि दर आफ़रीनिश ज़े-यक़ जौहरंद

    (हज़रत-ए-आदम की औलाद में तमाम लोग एक दूसरे के हिस्से हैं,क्योंकि अपनी पैदाइश के ए’तबार से सब एक ही अस्ल हैं)।

    दूसरे इन्सानों की तकलीफ़, कुल्फ़त-ओ-परेशानी और मुसीबत उनकी अपनी परेशानी होती है। वो दूसरों की चोट पर इसलिए तिलमिला उठते हैं कि ये चोट उनकी अपनी होती है। वो दूसरों के ग़म में इस वजह से बिलबिला उठते हैं कि वो उनका अपना ग़म होता है। वो दूसरों की मुसीबत पर इस सबब से तड़प जाते हैं कि ये मुसीबत उनकी अपनी ज़ात से वाबस्ता होती है। फिर ग़म-ए-दौरां, ग़म-ए-जानाँ में बदल जाता है और ये सब इसलिए होता है।

    दिल जब एहसास की आँचों में पिघल जाता है

    ग़म-ए-दौरां ग़म-ए-जानाँ में बदल जाता है

    इन्सान-ओ-इन्सानियत से यही मोहब्बत-ओ-शेफ़्तगी तो थी जो सुल्तानुल-मशाइख़ हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया महबूब-ए-इलाही जैसी अ’ज़ीमुल-मर्तबत मुक़द्दस हस्ती को रातों को बेचैन कर जाती थी। बशरी तक़ाज़ों की ख़ातिर कई कई रोज़ के बा’द जब ज़रूरत-ए-ग़ज़ा का लुक़्मा तोड़ते मुँह तक ले जाते तो आँखों से आँसू रवां हो जाते और आह भर कर लुक़्मा हाथ से ये फ़रमाते हुए रख देते कि इस वक़्त भी दिल्ली में जाने अल्लाह के कितने बंदे ऐसे होंगे जो एक वक़्त की रोटी को तरस रहे होंगे।

    यूँ तो सूफ़ियों की ता’लीमात और बक़ा-ए-इन्सानियत के सिल्सिले में उनकी कोशिशों की मा’नवियत-ओ-ज़रूरत हर दौर में रही है मगर बीसवीं सदी के इस माद्दा-परस्त दौर में इसकी अहमिय्यत कुछ और ज़्यादा हो गई है। मोहब्बत-ओ-आश्ती, सुल्ह-ए-कुल माहौल और सालिह मुआ’शरा की तश्कील-ओ-ता’मीर के सिल्सिला में अब ये बात ना-गुज़ीर हो चुकी है कि सूफ़िया-ए-किराम और उनकी ता’लीमात से मुतअ’ल्लिक़ इ’ल्मी मुज़ाकरात कराए जाएं और अ’वामी सतह पर उनके अफ़्क़ार की तब्लीग़-ओ-इशाअ’त की जाए ताकि आज की दुनिया इन्सान-ओ-इन्सानियत के सही मफ़्हूम से आश्ना हो सके।

    हमारे पुराने बुज़ुर्ग और हिन्दुस्तानी सूफ़ी संत हज़रात भी चूँकि फ़ित्रत के बड़े नब्ज़-शनास बल्कि माहिर और हिन्दुस्तानी माहौल से पूरी तरह वाक़िफ़ थे इसलिए उन्होंने इन्सानियत का सबक़ पढ़ाने और पैग़ाम-ए-इन्सानियत से पूरी तरह रु-शनास कराने के लिए ऐसी ज़बान अपनाई जो एक तरफ़ बड़ी रसीली, मीठी और सुरीली थी तो दूसरी तरफ़ अ’वाम-ओ-ख़्वास की मुश्तरका ज़बान थी और ये थी ब्रज-भाषा और मा’मूली से फ़र्क़ के साथ अवधी। आदमी की फ़ित्रत का ख़ास्सा हमेशा से ये रहा है कि उसे मुश्किल से मुश्किल बात अगर आसान ज़बान, सादा अल्फ़ाज़ और सुरीले बोलों में समझाई जाए तो वो दिल में उतर जाती है और वो बहुत जल्द उसका अ’सर क़ुबूल कर लेता है।

    अ’जब आ’लम है उनकी वज़्अ’ सादी शक्ल भोली है।

    खपी जाती है दिल में क्या रसीली नर्म बोली है॥

    चुनांचे हिन्दुस्तान में पयाम-ए-इन्सानियत की तर्वीज-ओ-इशाअ’त और बक़ा में इन दोनों ज़बानों से बड़ी मदद मिली है। इस सिल्सिला की एक अहम कड़ी अवध के मशहूर-ओ-तारीख़-साज़ मर्दुम-ख़ेज़ क़स्बा काकोरी की हज़रत शाह मोहम्मद काज़िम क़लंदर अ’लवी, बानी-ए-ख़ानक़ाह-ए-काज़मिया क़लंदरिया थे जिन्हों ने तमाम उ’म्र इन्सानियत की बक़ा की कोशिशें कीं। अपने हिन्दी कलाम के ज़रिआ’ अ’वाम-ओ-ख़्वास में एक नई रूह फूंक दी ।ऐसी रूह जो उनके तमाम शो’बाहा-ए-ज़िंदगी में जारी-ओ-सारी हो गई। वो अपने अ’ह्द के एक बा-कमाल सूफ़ी-ओ-ख़ुदा-रसीदा बुज़ुर्ग थे। उनकी ख़ानक़ाह अमीर-ओ-ग़रीब, बादशाह-ओ-गदा, ख़्वास-ओ-आ’म, हिंदू, मुसलमान सभी की आमाज-गाह थी। एक तरफ़ महाराजा टिकैत राय दीवान-ओ-वज़ीर नवाब आसिफ़ुद्दौला बहादुर, लाला मज्लिस राय, लाला बीनी राम, लाला शिताब राय जैसे लोग दस्त-बस्ता खड़े नज़र आते हैं तो दूसरी जानिब मुफ़्ती ख़लीलुद्दीन ख़ान अ’ल्वी सफ़ीर-ए-शाह-ए-अवध, हुकूमत-ए-बर्तानिया के पहले चीफ़ जस्टिस नजमुद्दीन अ’ली ख़ाँ साक़िब, अमीर आशिक़ अ’ली अ’ल्वी सफ़ीर-ए-शाह-ए-अवध और मुंशी फ़ैज़-बख़्श अ’ल्वी मुवर्रिख़-ए-अवध-ओ-मीर मुंशी बहू बेगम जैसी नामवर-ओ-बा-कमाल मुक़्तदिर शख़्सिय्यतें भी मुअद्दब नज़र आती हैं।

    हज़रत शाह तुराब अ’ली क़लंदर काकोरवी ने 1768 ई’स्वी में ऐसी ही बा-कमाल-ओ-ख़ुदा-रसीदा बुज़ुर्ग के घर में आँख खोली। आग़ोश-ए-पिदर-ओ-मादर इ’ल्म-ओ-मा’रिफ़्त का गहवारा थी। विलाएत-ओ-कमाल की निशानियाँ बचपन से ही ज़ाहिर थीं। ज़माना के दस्तूर के मुताबिक़ 4 साल की उ’म्र से ज़ाहिरी ता’लीम भी शुरू’ हुई और अपने वक़्त के नामवर उ’लमा से मंक़ूलात-ओ-मा’क़ूलात का इक्तिसाब किया और वालिद-ए-गिरामी ने भी ज़ाहिरी-ओ-बातिनी ता’लीम दी और हमा-वक़्त अपने साथ ख़ानक़ाह पर रखा। उठते बैठते मसाएल-ओ-रुमूज़-ए-तसव्वुफ़ से आगाह किया। मुश्किल-तरीन अज़्कार-ए-क़लंदरिया ख़ुद कराए और उनकी मुदावमत कराई और ऐसी बे-नज़ीर तर्बियत फ़रमाई कि लाएक़-ओ-फाएक़ साहिब-ज़ादा निखर कर कुन्दन बन गए फ़र्ज़द-ए-अ’ज़ीज़ ने1086 ई’स्वी में वालिद-ए-गिरामी के विसाल के बा’द तक़रीबन 54 साल तक उनके सज्जादा को ज़ीनत बख़्शी। अपनी ब-कसरत तसानीफ़ फ़ारसी-ओ-उर्दू हिन्दी शाइ’री के ज़रिआ’ मुर्दा-दिलों में ज़िंदगी की रूह फूंकी। लोगों को अख़्लाक़-ओ-किर्दार की ने’मत से माला-माल किया और मा’लूम कितनों को दौलत-ए-बाक़ी से बहरायाब किया।

    दूद-ए- आह-ए- सीना-ए-सोज़ान-ए-मन।

    सोख़्त ईं अफ़सुर्दग़ान-ए-ख़ाम रा॥

    (मेरे क़ल्ब-ए-सोज़ाँ की आहों के धुवें ने उन अफ़सुर्दगान ख़ाम लोगों को जला डाला है)

    यहाँ मुख़्तसरन सिर्फ़ आपकी उर्दू शाइ’री पर रौशनी डालना मक़्सूद है कि किस तरह आपने अपने दौर के मुआ’शरा की अख़्लाक़ी सतह बुलंद की। ऐ’श-ओ-निशात में डूबी अवध की फ़िज़ा को एक ऐसे ज़ेहनी-ओ-फ़िक्री इन्क़िलाब से दो-चार किया कि हर शख़्स ये कहता नज़र आया।

    फिर हो सरगर्म-ए-तकल्लुम उसी अंदाज़ के साथ।

    हुस्न को देने लगे शो’ला आवाज़ के साथ॥

    आपका कलाम अ’मल-ओ-ख़ैर का एक मुवस्सिर पैग़ाम है। मजाज़ी मज़ामीन, इस्तिआ’राती ज़बान सबकी दाख़िली रौ हक़ीक़त ही हक़ीक़त है। तसव्वुफ़ के दकी़क़-तरीन मसाएल पानी की तरह हल फ़रमाए।ख़ानक़ाह-ए-काज़िमिया क़लंदरिया के बुज़ुर्गों की आज तक यही रविश रही है।

    ख़ुश्तर आँ बाशद कि सिर्र-ए-दिलबराँ

    गुफ़्त: आयद दर हदीस-ए-दिगराँ

    (दिलबरों के बेहतरीन असरार वही हैं जो दूसरों के लब-ओ–लिह्जा में बयान किए जाएँ)।

    अंदाज़-ए-बयान इस क़दर सादा सलीस और दिल-नशीं-ओ-आ’म-फ़हम है कि दिल पर नक़्श हो जाता है। शाइ’री इस्लाही भी है मगर ख़ास बात ये है कि तब्लीग़-ओ-इस्लाह और मुआ’शरा-ओ-सूसाइटी की अख़्लाक़ी सतह बुलंद करने और वा’ज़-ओ-पंद-ओ-नसाइह के बावजूद ज़बान बोझल और उकता देने वाली नहीं है। पूरी पूरी आ’शिक़ाना ग़ज़लें हैं मगर कमाल ये है कि मक़्ता’ में कोई ऐसी बात कह जाते हैं कि क़ल्ब-ए-इन्सानी मजाज़ से यकसर हक़ीक़त की तरफ़ मुड़ जाता है।

    तकब्बुर-ओ-अनानियत से बचने और ख़ाकसारी की कैसी दिल-फ़रेब तलक़ीन फ़रमाते हैं।

    तीनत आदम की ख़ाकसारी है।

    जो तकब्बुर करे वो नारी है॥

    ऐ’ब-जोई, ग़ीबत-ओ-बद-गोई और बद-ख़्वाही से बचने की तर्कीब ये है कि इन्सान अपने नफ़्स का मुहासबा करे और दूसरों के ऐ’बों पर नज़र डाले और उनकी बुराई से अपनी ज़बान आलूदा करे बल्कि अपने को दूसरों से कम-तर समझे कि इसी में बड़ाई है।

    ऐ’ब-जोई ग़ैर की करना बुरा है मुद्दई’।

    ख़ुद नज़र करता नहीं अपने बुरे आ’माल तू॥

    तू सबसे आपको नाक़िस तुराब समझे जा।

    यही तो देखते हैं हम बड़ा कमाल तेरा॥

    बद वही हैं आप को जो जानते हैं सबसे नेक।

    आपको जो सबसे कम समझें वो सबसे बेश हैं॥

    ख़ुद-बीनी-ओ-अनानियत और ख़ुद-परस्ती से बचने की तलक़ीन यूं फ़रमाते हैं।

    जब तक ख़ुदी है तब ही तलक है ख़ुदा ख़ुदा।

    ग़ीबत गर आपसे हो तो हक़ का ज़ुहूर है॥

    क्यों हो वासिल ब-हक़ निकले जो आ’लम से तुराब।

    बंदा जब छूटे ख़ुदी से तो ख़ुदाई नक़्द है॥

    लिसानुल-ग़ैब हाफ़िज़ शीराज़ी फ़रमाते हैं

    मियान-ए-आ’शिक़-ओ-मा’शूक़ हेच हाएल नीस्त।

    तू ख़ुद हिजाब-ए-ख़ुदी हाफ़िज़ अज़ मियाँ बर-ख़ेज़॥

    आख़िर में इन्सानियत की अ’दम-ए-मौजूदगी पर फ़ैसला फ़रमा देते हैं।

    जिसमें इन्सानियत हो कुछ भी।

    वो तो हैवान ब-शक्ल-ए-आदम है॥

    हआ-ओ-हवस और हिर्स-ओ-तमा’ से परहेज़ की तलक़ीन इस तरह है।

    दिल को ख़राब आरज़ू-ए-नफ़्स ने किया।

    दिल साफ़ वो है जिसमें कोई आरज़ू हो॥

    नफ़्स की इस्लाह कर पहले रियाज़त से तुराब।

    बे-शिकस्त-ए-नफ़्स-ए-अम्मारा ज़फ़र मिलती नहीं॥

    एक सूफ़ी तमाम इन्सानों को आक़ाई की आँख से देखता है और यही चीज़ इन्सानियत की बक़ा के लिए ज़रूरी है। उस की नज़र में आ’लम ऐ’न हक़ है ग़ैर-ए-हक़ आ’लम नहीं। इन दोनों बातों की कैसी तर्जुमानी फ़रमाते हैं।

    नेक-ओ-बद सब हैं तुराब उस के ज़ुहूर अस्मा।

    मुझको यक-रंग नज़र चाहिए हर फ़र्द के साथ॥

    एक क़तरा भी पाया मैंने पानी के सिवा।

    जुज़्व ऐसा कौन है जिसमें वजूद-ए-कुल नहीं॥

    का’बा हो या बुत-कदा हो यारो।

    हैं दोनों उसी तरफ़ की राहें॥

    गर आँख खुले तो साफ़ देखो।

    डाले है गले में यार बाहें॥

    हज़रत मौलाना रूम फ़रमाते हैं।

    हर कसे रा बहर-ए-कारे साख़्तंद।

    मैल-ए-आँ अंदर दिलश अंदाख़्तंद॥

    (हर शख़्स को किसी किसी काम के लिए पैदा किया गया उस की चाहत उस के दिल में डाल दी गई)।

    दोस्त का काम फ़ायदा पहुंचाना, दुश्मन का काम तकलीफ़-ओ-बदी में सरगर्दां रहना है। इन्सानियत की अक़्दार में ये चीज़ भी है कि दुश्मन की बदी और ईज़ा-रसानी पर लब-कुशाई भी की जाए। उस का मुआ’मला पैदा करने वाले पर छोड़ा जाए और उसके बदला में बुराई कर के अपनी ज़बान आलूदा की जाए बल्कि ख़ामोशी इख़्तियार की जाए।

    शैख़ सा’दी फ़रमाते हैं।

    गर गज़ंदत रसद ज़े-ख़ल्क़ म-रंज।

    कि राहत रसद ज़े-ख़ल्क़ रंज॥

    गर्चे तीर अज़ कमाँ हमी गुज़्रद।

    अज़ कमान-दार बीनद अह्ल-ए-ख़िरद॥

    (अगर तुमको लोगों से कोई तकलीफ़ पहुंचे तो रंज मत करो क्योंकि उनसे आराम मिलता है और तकलीफ़। अगर्चे तीर कमान से निकलता है मगर साहिब-ए-अ’क़्ल कमान खींचने वाले की तरफ़ से उसे समझता है)।

    हज़रत रहमतुल्लाहि अ’लैह बड़ी सलीस ज़बान में नसीहत फ़रमाते हैं।

    यारो दुश्मन की बदी पर मुँह खोलो चुप रहो।

    ऐ’ब उस को करने दो तुम कुछ बोलो चुप रहो॥

    कह ले जो चाहे मुख़ालिफ़ हर्फ़-ए-नामौज़ूँ तुम्हें।

    सुनके दिल को सब्र की मीज़ाँ पे तोलो चुप रहो॥

    हम तो बद-ख़्वाह नहीं अपने मुख़ालिफ़ के तुराब।

    जो बदी हमसे करे उस की ख़ुदा ख़ैर करे॥

    हदीस शरीफ़: ‘इमाततुल-अज़ा-अ’नितरीक़ि सदक़तुन’। तक्लीफ़-देह चीज़ का रास्ता से हटा देना कार-ए-सवाब है की तर्जुमानी फ़रमाते हैं।

    दफ़्-ए’-ईज़ा जिस क़दर हो आपसे करते रहो।

    दूर कर दो गर पड़ा हो राह में ख़ार-ए-बबूल॥

    इन्सानियत की बक़ा के लिए ये भी ज़रूरी है कि इन्सान माद्दी चीज़ों पर तकिया करे ।उनके पीछे जान दे जान ले क्योंकि दुनिया चंद रोज़ा है। इन्सान को बे-सबाती-ए-रोज़गार का यक़ीन रखना चाहिए। फ़ना हर एक के लिए मुक़र्रर है।

    फ़ना की सैर जिसको देखना हो।

    तमाशा बाग़ का देखे ख़ज़ाँ में॥

    चश्म-ए-इ’ब्रत से हमने देखा ख़ूब।

    इस जहाँ का ऐ’ब आ’लम है॥

    फूल हँसता है और कली चुप है।

    मुँह पर दोनों के रोती शबनम है।

    चंद रोज़ा है ये दुनिया इस की क्या बुनियाद है।

    जो ग़ुरूर इस पर करे फ़िरऔ’न है शद्दाद है॥

    इस जहाँ पर रंज-ओ-राहत का नहीं कुछ ए’तबार।

    एक दम में जो यहाँ ख़ुश है वही नाशाद है॥

    ग़र्ज़ कि जिस तरह इन्सानियत के अक़्दार की मा’नवियत-ओ-ज़रूरत हर दौर में रहेगी उसी तरह हज़रत शाह तुराब अ’ली क़लंदर काकोरवी के कलाम की मक़बूलियत-ओ-मा’नवियत भी हर ज़माना में बाक़ी रहेगी और आपका ये शे’र हमेशा याद रहेगा।

    रहेगा ज़िक्र मिरा क़िस्सा-ओ-फ़साना में।

    मुझे भी याद करेंगे किसी ज़माना में॥

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए