हाजी वारिस अ’ली शाह का पैग़ाम-ए-इन्सानियत - डॉक्टर सफ़ी अहमद काकोरवी
उन्नीसवीं सदी का दौर है। अवध की फ़िज़ा ऐ’श-ओ-इ’श्रत से मा’मूर है। फ़ौजी क़ुव्वतें और मुल्की इक़्तिदार रू ब-ज़वाल हैं। मगर उ’लमा-ए-हक़ और सूफ़िया-ए-पाक-तीनत का फ़ुक़दान नहीं है। उन सूफ़िया-ए-साफ़ बातिन ने अ’वाम-ओ-ख़्वास और अपने हाशिया-नशीनों को इन्सानियत का मफ़्हूम समझाया। उन्हों ने आ’ला अक़्दार इस तरह लतीफ़ पैराए में उनके ज़िहन-नशीन कराए कि वो उनकी ज़ात में रच बस गईं। पैग़म्बरों, ऋषियों ,मुनियों और औतारों की बि’सत का मक़्सद ही यही होता रहा कि आदमी को इन्सानियत का लिबास पहनाएं। आपसी मेल-ओ-मोहब्बत, यक-जह्ती, दूसरों के साथ हुस्न-ए-सुलूक-ओ-ख़ैर-ख़्वाही और जज़्बा-ए-ईसार-ओ-क़ुर्बानी से अपनी ज़ात को मुज़य्यन करें। ज़िला बाराबंकी के एक छोटे से क़स्बा में एक बुज़ुर्ग बैठे हैं।उनके इर्द-गिर्द मुस्लिम-ओ-ग़ैर मुस्लिम शैदाइयों का एक जम्म-ए-ग़फ़ीर है। एक साहिब एक छोटा सा मगर इख़्तिलाफ़ी सवाल कर देते हैं कि हुज़ूर हदीस शरीफ़ में आया है कि क़ियामत तक मेरी उम्मत (73)तिहत्तर फ़िर्क़ों में बट जाएगी जिसमें एक फ़िर्क़ा नजात-याफ़्ता होगा और बाक़ी बहत्तर (72) गुमराह। वो नजात-याफ़ता फ़िर्क़ा कौन होगा?किसी मौलवी या आ’लिम से ये सवाल किया जाता तो वो न मा’लूम कितनी लंबी चौड़ी तक़रीर कर बैठता। मगर वो सूफ़ी बुज़ुर्ग बड़े इत्मीनान और सुकून नीज़ बड़े दिल-कश अंदाज़ से फ़रमाते हैं कि हुरूफ़-ए-तहज्जी के लिहाज़ से हसद के आ’दाद जोड़ो। हिसाब लगाकर जोड़ते हैं तो बहत्तर72 निकलता है (ह के8,स के60 द के4 (72)।फ़रमाते हैं बस जो फ़िर्क़ा हसद से ख़ाली है वही नाजी या नजात-याफ़्ता है। मह्फ़िल में मौजूद तमाम हाज़िरीन उसी वक़्त हसद के ख़्याल तक से पनाह मांग लेते हैं। सूफ़िया-ए-किराम का यही तरीक़ा-ए-तब्लीग़ रहा है।
आपको शायद ये मा’लूम होगा कि ये सूफ़ी बुज़र्ग़ हज़रत हाजी हाफ़िज़ शाह वारिस अ’ली हैं और वो बस्ती देवा शरीफ़ है। इस नशिस्त में इन्सानियत की पैग़ाम्बर ऐसी हस्ती के बारे में मुख़्तसरन गुफ़्तुगू होगी।
आपका सिल्सिला-ए-नसब छब्बीस वासतों से हज़रत इमाम हुसैन तक पहुंचता है।
औलाद है ये ख़ास शह-ए-मश्रिक़ैन की
छब्बीसवीं है पुश्त जनाब-ए-हुसैन की
इन नजीबुत्तरफ़ैन हुसैनी सय्यिद के मुरिस-ए-आ’ला सय्यिद अशरफ़ अबू तालिब हलाकू के हमलों के दौरान नेशापुर छोड़कर हिन्दुस्तान आए और क़स्बा कंतोर ज़िला बाराबंकी में इक़ामत-पज़ीर हो गए। बा’द-अज़ाँ तक़रीबन चार-सौ साल बा’द इनकी औलाद में सय्यिद अ’ब्दुल-अहद ने देवा ज़िला’ बाराबंकी को मुस्तक़िल अपना वतन बना लिया। उस वक़्त से उनकी औलाद देवी कहलाई जाने लगी।
हज़रत हाजी वारिस अ’ली शाह के बुज़ुर्गों ने बहुत पहले आपकी विलादत की पेशीन-गोई फ़रमा दी। चुनांचे रमज़ानुल-मुबारक1238 हिज्री में हज़रत क़ुर्बान अ’ली शाह के घर में रुश्द-ओ-हिदायत का ये अफ़्ताब तुलूअ’ हुआ जिसकी ज़िया- पाशियों से अ’वाम-ओ-ख़्वास, मुस्लिम-ओ-ग़ैर-मुस्लिम सभी अपने अपने ज़र्फ़ के मुताबिक़ अख़ज़-ए-फ़ैज़ करते रहे हैं। आपका नाम-ए-नामी वारिस अली और उ’र्फ़ियत मिट्ठन मियाँ, रखी गई मगर उ’र्फ़-ए-आ’म में आप हाजी साहिब के नाम से मशहूर हुए।
हदीस-ए-नबवी सलल्लाहु अ’लैहि-व-सल्लम मन सइ’दा सुइ’दा फ़ि बतनि उम्मतिहि (जो सई’द-ओ-ख़ुश-बख़्त होता है वो माँ के पेट ही से सई’द-ओ-ख़ुश-बख़्त होता है) के मिस्दाक़ आपके बचपन से ही विलाएत-ओ-बुजु़र्गी के आसार ज़ाहिर होने लगे थे। आप तीन साल की उ’म्र में वालिद-ए-मोहतरम के बा’द चंद दिनों में वालिदा-ए-मोहतरमा के आग़ोश-ए-तर्बियत-ओ-मोहब्बत से महरूम हो गए। अल्लाह तआ’ला ने आपकी नस नस में मोहब्बत का ख़ुमार भर दिया था। वालिदैन की रिह्लत के बा’द आपकी परवरिश आपकी दादी साहिबा ने अपने ज़िम्मा ले ली।5 बरस की उ’म्र में मक्तब में दाख़िल किए गए। ख़ुदा-दाद ज़िहानत की बिना पर सात बरस की उ’म्र में ही क़ुरआन-ए-मजीद हिफ़्ज़ कर लिया था। यतीम-ओ-यसीर तो थी ही सात बरस की उ’म्र में दादी साहिबा की भी वफ़ात हो गई। इस के बा’द आपके हक़ीक़ी बहनोई हाफ़िज़ सय्यिद ख़ादिम अ’ली शाह अपने हम-राह लखनऊ ले आए। वो ख़ुद बड़े ख़ुदा-तर्स और साहिब-ए-हाल बुज़ुर्ग थे। हाजी साहिब की फ़ित्री सलाहिय्यत और इस्ति’दाद उस पर बहनोई की तर्बियत-ओ-सोहबत सोने पर सुहागा साबित हुई। उन्होंने आपको ता’लीम-ए-बातिनी-ओ-ज़ाहिरी के साथ ही अज़्कार-ओ-अश्ग़ाल भी सिखाए और सिल्सिला-ए-क़ादरिया चिश्तिया में न सिर्फ़ अपना मुरीद फ़रमाया बल्कि इजाज़त-ओ-ख़िलाफ़त से भी सरफ़राज़ फ़रमाया आपकी उ’म्र15 बरस की थी कि आपके पीर-ओ-मुर्शिद ने विसाल फ़रमाया। चुनांचे पीर-ओ-मुर्शिद के सेउम के रोज़ उ’लमा-ओ-मशाइख़ के मज्मा’ में आपकी ख़िर्क़ा-पोशी हुई ।बचपन से ही माल-ए-दुनिया आपके लिए मार-ए-दुनिया के मिस्दाक़ था चुनांचे वालिदैन का मतरूका असासा-ओ-नक़्द रक़म तमाम का तमाम आपने ज़रूरत-मंद और ग़ुरबा में तक़्सीम कर दिया और गोया अस्सख़ीयु हबीबुल्लाह(सख़ी अल्लाह का दोस्त-ओ-महबूब होता है) का ताज पहन लिया। ज़रूरत-मंदों और नादारों की हाजत-रवाई और अपनी ज़रूरत पर दूसरों की ज़रूरत को तर्जीह देना आप का ए’न मस्लक-ओ-मश्रब था।
आपने मुतक़द्दिमीन सूफ़िया की तरह सख़्त रियाज़तें-ओ-मुजाहिदे किए। सात पा-पियादा हज किए। यही नहीं बल्कि हज्ज-ए-बैतुल्लाह के वक़्त जो लिबास ज़ेब-तन फ़रमाया तो मुद्दतुल-उ’म्र उसी क़िस्म के लिबास (एहराम) में और बरहना- पा रहे और फिर कभी पलंग तक पर न आराम फ़रमाया बल्कि हमेशा ज़मीन पर इस्तिराहत फ़रमाते। नफ़्स-कुशी की ख़ातिर तमाम अस्बाब-ओ-लज़्ज़ात-ए-दुनयवी से मुकम्मल इह्तिराज़ किया और तमाम-उ’म्र मुजर्रद रहे और शादी न की नीज़ तमाम ज़िंदगी कम ख़ुर्दन , कम ख़ुफ़्तन-ओ-कम गुफ़्तन पर अ’मल पैरा रहे।
एक तवील अ’र्सा तक मख़लूक़-ए-ख़ुदा को अपने फ़ैज़-ए-सोहबत-ओ-पैग़ाम-ए-इन्सानियत से सरफ़राज़-ओ-फ़ैज़याब कर के1905 ई’सवी को सुब्ह-ए-सादिक़ के वक़्त जब आफ़्ताब मशरिक़ से तुलूअ’ होने वाला था ये आफ़्ताब-ए-अन्फ़ुसी ग़ुरूब हो कर अपने मालिक-ए-हक़ीक़ी से जा मिला और अपने हस्ब-ए-वसिय्यत उसी जगह जहाँ दरगाह शरीफ़ है क़ियामत तक के लिए रु-पोश हो गया। दरगाह शरीफ़ आज भी मर्जा’-ए-ख़ास -ओ-आ’म है और हर मज़्हब-ओ-मिल्लत के लोग अपने अपने ज़र्फ़ के मुताबिक़ आज भी उसी तरह फ़ैज़याब होते रहते हैं। हर साल तारीख़-ए-विसाल पर एक शानदार उ’र्स भी लगता है।
हाजी वारिस अ’ली शाह की ता’लीम निहायत आ’म-फ़हम, दिलों को मोह लेने वाली और क़ुलूब में उतर जाने वाली होती है।आ’म तौर पर सूफ़िया-ए-किराम की तरह आपकी ता’लीमात का मक़्सद भी तमाम इन्सानों को एक इकाई में जोड़ने और उन्हें अल्लाह तआ’ला का कुंबा समझने समझाने का होता। आपकी नज़र में तमाम इन्सानों की तख़्लीक़ का एक ये भी मक़्सद था कि वो आपसी मेल मोहब्बत और इत्तिहाद-ओ-इत्तिफ़ाक़ क़ाइम रखें क्योंकि
सूरत में तफ़र्क़ा है हक़ीक़त में कुछ नहीं
तमाम आ’लम ऐ’न हक़ है इसके सिवा कुछ नहीं
हज़रत शाह तुराब अ’ली क़लंदर काकोरवी क्या प्यारी बात फ़रमाते हैं:
जैसे मौजें ऐ’न-ए-दरिया हैं हक़ीक़त में ‘तुराब’
वैसे आ’लम ऐ’न-ए-हक़ है ग़ैर-ए-हक़ आ’लम नहीं
आपकी तमाम-तर ता’लीम और तलक़ीन का मर्कज़ मोहब्बत था।इसी से आदमी इन्सान बनता है और अपने मालिक और आक़ा को पहुंचाँता है और यही अस्ल है।
मिल्लत-ए-इ’श्क़ अज़ हम: दींहा जुदास्त
आ’शिक़ाँ रा मज़्हब-ओ-मिल्लत ख़ुदास्त
आपके मोहब्बत-ओ-इन्सानियत के इसी दर्स ने हिंदू मुसलमान सब के दिल ऐसे मोह लिए कि वो आपके हल्क़ा-ब-गोश हो गए। एक ग़ैर-मुस्लिम को किस तरह तलक़ीन फ़रमाते हैं। अ’द्ल-ओ-इन्साफ़ किया करो। अपने पैदा करने वाले को मोहब्बत के साथ याद किया करो, फिर फ़रमाया”मोहब्बत है तो सब कुछ है और मोहब्बत नहीं तो कुछ नहीं जैसा कि मौलाना रुम फ़रमाते हैं:
अज़ मोहब्बत मुर्द: ज़िंद: मी-शवद
वज़ मोहब्बत शाह बंद: मी-शवद
(मोहब्बत वो चीज़ है जो मुर्दे में जान डाल देती है और बादशाह को बंदा बना देती है)।
एक दूसरे मुरीद को नसीहत फ़रमाई। अल्लाह की तमाम मख़्लूक़ से हम-दर्दी और अच्छा सुलूक सिर्फ़ इस ख़याल से किया करो कि ये अल्लाह के बंदे और उस की कारी-गरी की निशानियाँ हैं। तुमको इसी तरह उसकी मोहब्बत नसीब होगी। यही अस्ल तरीक़त है।
मुअ’ल्लिम-ए-इन्सानियत शैख़ सा’दी इसी बात को यूँ कहते हैं।
तरीक़त ब-जुज़ ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ नीस्त
ब-तस्बीह-ओ-सज्जादा-ओ-दल्क़ नीस्त
(तरीक़त मख़्लूक़-ए-ख़ुदा की ख़िदमत के सिवा कुछ नहीं न कि सिर्फ़ गुदड़ी पहन कर और तस्बीह लेकर मुसल्ले पर बैठ जाया जाये।
फ़रमाते थे कि अगर अल्लाह तआ’ला से मोहब्बत और उसकी मख़्लूक़ से उल्फ़त नहीं तो इ’बादत रियाज़त बेकार चीज़ें हैं।
ज़ोह्द में कुछ भी न हासिल हुआ निख़्वत के सिवा
शुग़्ल बे-कार हैं सब उनकी मोहब्बत के सिवा
फ़रमाते थे कि इन्सानियत ये है कि तमाम इख़्तिलाफ़ात को मिटाकर और फ़ुरूई’ झगड़ों से बुलंद हो कर ज़िंदगी गुज़ारी जाए और आपसी इत्तिहाद और मेल-ओ-मोहब्बत को फ़रोग़ दिया जाए गोया इन्सान की पैदाइश का मक़्सद यही है।
तू बरा-ए-वस्ल कर्दन आमदी
ने बराए फ़स्ल कर्दन आमदी
(तुम्हारा मक़्सद-ए-पैदाइश तो ये है कि तुम आपसी मेल-ओ-मोहब्बत की फ़िज़ा क़ाएम करो ख़ालिक़-ओ-मख़्लूक़ से नाता जोड़ो न कि इख़्तिलाफ़ की आड़ में आपसी तफ़र्क़ा और जुदाई पैदा करो)।
आपका इर्शाद है कि मज़्हबी रवादारी और इन्सानियत की अक़्दार में ये चीज़ भी ज़रूरी है कि किसी का कभी बुरा न चाहो न उसको बद-दुआ’ दो और न उसके मज़्हब को बुरा कहो क्योंकि ख़ुदा-तलबी के रास्ते मुख़्तलिफ़ हैं।
हर क़ौम रास्त राहे दीने-ओ-क़िब्ला-गाहे
ये था पैग़ाम-ए-इन्सानियत की अ’लम-बर्दार एक मुक़द्दस हस्ती हज़रत हाजी सय्यद वारिस अ’ली शाह की हयात और ता’लीमात का मुख़्तसर-सा ख़ाका। इस माद्दियत, नफ़्सी-नफ़्सी और इख़्तिलाफ़ात के दौर में इन बुज़ुर्गों के दर्स-ए-इन्सानियत और आफ़ाक़ी पैग़ाम पर अ’मल कर के न मा’लूम और कितनों की ज़िंदगियाँ निखर और सँवर सकती हैं।
आज भी हो जो इब्राहीम का ईमाँ पैदा
आग कर सकती है अंदाज़-ए-गुल्सिताँ पैदा
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