हज़रत बाबा साहिब की दरगाह-मौलाना वहीद अहमद मसऊ’द फ़रीदी
दरगाह का दरवाज़ा जानिब-ए-मशरिक़ बुलंद-ओ-रफ़ी’ है।उसके सामने अंदर को रौज़ा है।जाते हुए सीधे हाथ को समाअ’-ख़ाना है। रौज़ा के अंदर जगह मुख़्तसर है। इस के मशरिक़ी दरवाज़े में दाख़िल होते ही पहला मज़ार हज़रत बदरुद्दीन सुलैमान (रहि•) का है। उस के क़रीब बराबर को दूसरा मज़ार हज़रत-ए-वाला का है। मज़ार के मग़रिब में काफ़ी जगह है कि लोग बैठ सकें,क़ुरआन की तिलावत कर सकें और नमाज़ पढ़ सकें। क़ुब्बा-ए-मुबारक में औ’रतों के दाख़िला की मुमानअ’त है। वो शिमाली दीवार की जाली से बाहर खड़े हो कर फ़ातिहा पढ़ती हैं। जुनूबी दीवार में जो दरवाज़ा है वो बहिश्ती दरवाज़ा है। ये हमेशा बंद रहता है। महज़ उ’र्स के अय्याम में खोला जाता है। छट्ठी मुहर्रम को दोपहर तक जुमला ज़ाएरीन शहर-बदर कर दिए जाते हैं और बाहर कैंप में जम्अ’ होते हैं। महज़ ख़्वास को अंदरून-ए-आबादी रहने के लिए इजाज़त-नामे मिल जाते हैं।
शाम को अपनी कचहरी से दीवान साहिब हल्क़ा में जुलूस के साथ रवाना होते हैं और रौज़ा के क़रीब पहुँचते पहुँचते ख़्वास का इज़्दिहाम हो जाता है। मशरिक़ी दरवाज़ा से रौज़ा में दाख़िल होते हैं और फ़ातिहा पढ़ने के बा’द उसी से बाहर आते हैं और घूम कर बहिश्ती दरवाज़ा पर पहुँच कर उस तरफ़ से पुश्त कर के खड़े हो जाते हैं और जुमला रुसूम अदा करते हैं जो सुल्तानुल-मशाइख़ ने क़ाएम की थीं। चुनाँचे इस मौक़ा’ पर क़व्वाली होती है। सज्जादा साहिब कौड़ियाँ फेंकते हैं। फिर तीन मर्तबा ताली बजा कर बहिश्ती दरवाज़े का क़ुफ़्ल खोलते हैं और क़ुब्बा के अंदर दाख़िल हो जाते हैं। चंद अ’ज़ीज़-ओ-अ’क़ारिब उनके साथ जाते हैं और दरवाज़ा बंद कर लिया जाता है। अंदर पहुँच कर शर्बत भरी कलहियों पर शोहदा-ए-कर्बला की फ़ातिहा दी जाती है और शर्बत अंदर के हाज़िरीन में तक़्सीम किया जाता है। फिर लौह-ए-मज़ार पर दीवान साहिब ज़ा’फ़रान पीसते हैं और नाँद में भीगी हुई पगड़ियों को उस ज़ा’फ़रान से रंगते हैं। पहली दस्तार अपने सर पर बाँधते हैं। उस के बा’द मरातिब के लिहाज़ से ख़ानदानी हज़रात को दस्तार देते हैं। अब क़ुब्बा के मशरिक़ी दरवाज़ा से निकल कर समाअ’-ख़ाना की तरफ़ रवाना होते हैं। चोब-दार मोर की दुम का झंडा लिए हुए आगे होता है और क़व्वाल क़व्वाली सुनाते हुए चलते हैं। आधी दूर जा कर ये सुल्तानुलमशाइख़ मज़ार की तरफ़ तीन मर्तबा वापस आते हैं। उस के बा’द समाअ’-ख़ाना जाते हैं।
सुल्तानुल-मशाइख़ समाअ’-ख़ाना यूँ तशरीफ़ ले गए थे कि वहाँ हज़रत बदरुद्दीन सुलैमान (रहि•) उनके इस्तिक़बाल के मुंतज़िर थे।फिर रौज़ा के मशरिक़ी दरवाज़ा के क़रीब बुलंद मक़ाम पर दीवान साहिब इसलिए बैठ जाते हैं कि ज़ाएरीन बहिश्ती दरवाजज़ा से आ कर बा’द-ए-फ़ातिहा बाहर निकलें और उन्हें छोटी पगड़ियाँ जो नाँद में भीगी होती हैं तबर्रुक के तौर पर दें। जिस वक़्त ताली बजाकर बहिश्ती दरवाज़ा खोला जाता है उसी वक़्त तोप दाग़ी जाती है और कैंप से पुलिस की निगरानी में लोग क़तार लगा कर अंदर आते हैं और बहिश्ती दरवाज़ा में से गुज़रते हैं। बहिश्ती दरवाज़े के सामने आकर जोश में जब ज़ाएरीन एक दूसरे से पहले दाख़िल होने की कोशिश करते हैं तो पुलिस के अफ़सरान बाँस मार-मार कर उन्हें क़ाए’दे में लाते हैं। ये क़िस्सा रात-भर रहता है। बहिश्ती दरवाज़े में से निकलने वालों में मुसलमानों से ज़्यादा सिखों की ता’दाद हुआ करती थी।अब तक़्सीम-ए-मुल्क के बा’द की ख़बर नहीं। ये दरवाज़ा फ़ज्र के वक़्त बंद हो जाता है। फिर शाम को रात-भर के लिए दुबारा खोला जाता है लेकिन दूसरे दिन वो ज़ोर-शोर नहीं होता और पुलिस की निगरानी भी कड़ी नहीं होती।गोश्त,पूड़ी,चने की दाल और ख़मीरी रोटी लंगर में तक़्सीम की जाती है जो लज़ीज़ होती है।
रौज़ा के जुनूबी जानिब हुज्रों की क़तार है।उन हुज्रों में मग़रिबी सम्त को हुज्रा-ए-साबरी है।रौज़ा के शिमाल-ओ-मग़रिब में मस्जिद है। मस्जिद और रौज़ा के दरमियान एक हुज्रा है।बा’द-ए-विसाल हज़रत –ए-वाला इसी जगह सुपुर्द-ए-ज़मीन किए गए थे।फिर रौज़ा बन जाने पर सुल्तानुल-मशाएख़ ने उस जगह मुंतक़िल किया जहाँ अब मज़ार है।रौज़ा की हर ईंट पर एक क़ुरआन दम किया गया था।उस हुज्रे के अंदर मग़रिब की तरफ़ हज़रत गंज अ’लम (रहि•) और दीवारों के दरमियान दीवान फ़त्ह मोहम्मद (रहि•) का मज़ार है।फिर वही मस्जिद है। रौज़ा के मशरिक़ी-ओ-शिमाली जानिब एक आ’ली-शान गुंबद है।यहाँ हज़रत अ’लाउद्दीन आसूदा-ए-ख़ाक हैं और अहल-ए-ख़ानदान के मज़ार हैं। उस में मशरिक़ की तरफ़ ख़ानदानी मस्तूरात की क़ब्रें हैं और पर्दा हाएल है जिसकी वजह से मर्द फ़ातिहा पढ़ने उधर नहीं जाया करते।रौज़ा-ओ-गुंबद के दरमियान में जो गली शिमाल को जाती है उस पर संग-ए-मरमर की एक मुख़्तसर सी हद-बंदी है। और ये औलिया-मस्जिद कहलाती है।दरगाह के बाहर मशरिक़ में क़िला’-नुमा पुश्ता के ऊपर दीवान साहिबान के मकानात हैं और “कचहरी” है जहाँ हज़रत-ए-वाला का सज्जादा लिपटा हुआ रखा रहता है।
क़स्बा की बुलंदी पर एक शहीदी दरवाज़ा है। उस से आगे बढ़कर जो मक़बरा है उसें मौलाना बदरुद्दीन इस्हाक़ आराम फ़रमा रहे हैं और क़रीब में मस्जिद है। उनके उ’र्स के मौक़ा’ पर घड़ा-घड़ा की रस्म क़ाबिल-ए-दीद होती है। उ’र्स यकुम या शशुम जमादी-उल-आख़िर को हुआ करता है। पाक-पटन के बाहर मग़रिब की जानिब निस्फ़ फ़र्लांग पर शैख़ अ’ब्दुल्लाह मा’सूम का गुंबद है।ये हज़रत बी-बी ख़ातून के बत्न से सबसे छोटे साहिब-ज़ादे थे। एक मस्जिद उसके क़रीब भी है। उस मस्जिद के मग़रिब में एक चार-दीवारी है जिसका दरवाज़ा संदल का है।
जब बहिश्ती दरवाज़ा संग-ए-मरमर का बनाया गया तो वहाँ से ये किवाड़ और चौखट ला कर यहाँ लगा दिए गए। यही वो जगह है जहाँ हज़रत-ए-वाला सबसे पहले अजोधन आकर तशरीफ़ फ़रमाए थे तो इसी जगह “अपनी गुदड़ी सिया करते थे। लिहाज़ा इसी जगह चार दिवारी का नाम “गुदड़ी” हो गया। उसके क़रीब हाफ़िज़ क़ाएम नौशाही का मज़ार है। शरीफ़ुत्तवारीख़ (क़लमी) जो सिलसिला-ए-नौ-शाहिया की मब्सूत तारीख़ है उस में मर्क़ूम है कि जब हाफ़िज़ साहिब ने बाबा साहिब के मज़ार पर मो’तकिफ़ हो कर बे-हद रियाज़त की और फ़ैज़ हासिल न हुआ तो मज़ार-ए-मुबारक पर हाथ मार कर बाहर आ गए। रात को ख़्वाब में हज़रत बाबा साहिब की ज़ियारत हुई और हज़रत–ए-वाला ने फ़रमाया कि तुम क़ुरआन बहुत अच्छा पढ़ते थे इसलिए तुम्हारी क़ुर्बत-ओ-सोहबत अ’ज़ीज़ थी।तुम्हारा हिस्सा शैख़ पीर मोहम्मद सचयार के पास है। लिहाज़ा आप बाबा साहिब के ईमा से पीर मोहम्मद सचयार के मुरीद हुए।
मशहूर है कि फ़ातिह-ए-सिंध मोहम्मद बिन क़ासिम के साथियों में हज़रत ख़्वाजा अ’ज़ीज़ मक्की रज़ी-अल्लाहु तआ’ला अ’न्हु’ और उनके छः असहाब भी थे जिनकी शहादत अजोधन की जंग में हुई थी। कहते हैं कि ख़्वाजा अ’ज़ीज़ मक्की रज़ी-अल्लाह अ’न्हु सर्किट जाने के बा’द मसरूफ़-ए-पैकार रहे। उस इहाता में एक लंबी क़ब्र है और दूसरी छोटी क़ब्र जो है वो उनके सर और धड़ की है।मशहूर है कि हज़रत बाबा साहिब ने उनके सातों मुजाहिदीन के मज़ारात अज़ रू-ए-कश्फ़ मुशाहदा किए थे या ब-रिवायत उन हज़रात ने ख़ुद मुशाहदा कराए थे। हज़रत अ’ज़ीज़ मक्की रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु के मुतअ’ल्लिक़ मुख़्तलिफ़ रिवायात हैं कि ये मिन-जुमला सहाबा-ए-रसूल थे। उ’म्र तवील हुई और पाक-पटन में आकर शहीद हुए। ये बुज़ुर्ग वही अ’ज़ीज़ मक्की हैं जिनसे सिलसिला-ए-क़लंदरिया मक्किया का इजरा हुआ। उनके ख़लीफ़ा हज़रत ख़िज़्र रूमी (रहि•) ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी के यहाँ आ कर मेहमान हुए थे और दोनों साहिबान ने एक दूसरे को अपना ख़िर्क़ा दिया था और अपने सिलसिलों की इजाज़त दी थी। उसी सिलसिला-ए-क़लंदरिया मक्किया के दरख़्शाँ माहताब मेरे मुर्शिद हज़रत सय्यिद मक़बूल मियाँ साहिब क़िबला ख़ैराबादी (रही•) थे।जिनसे हमारे ज़माना को नुमायां तौर पर फ़ैज़ पहुंचा। हज़रत ख़िज़्र रूमी (रहि•) का ही क़ौल है कि “चिश्तियाँ ख़ुदा रा मुफ़्त याफ़तंद”
तैमूर लंग हज़रत सई’द बर्क़ी का मुरीद था। उस का मज़ार उसके मुर्शिद के बराबर है। तैमूर ने ने’मतुल्लाह शाह वली को जिनकी पेशीन-गोइयाँ अज़ क़सम पैदा शुद वग़ैरा आ’म तौर पर मशहूर हैं।अपने दारुस्सुल्तनत शहर-ए-सब्ज़ से निकाल दिया था क्योंकि वो उनको मोहमल समझता था। ये ने’मतुल्लाह वली शीआ’ थे।चनाँचे उनकी एक रुबाई’ से इसका सुबूत मिलता है।
ख़्वाही कि ज़े दोज़ख़ ब-रिहानी दिल-ओ-तन
इस्ना-अ’शरी शुद: गुज़ीं मज़हब-ए-मन
दानी सेह मोहम्मद बूद-ओ-चार अ’ली
या मूसा-ओ-जा’फ़र-ओ-हुसैन-ओ-दो हसन
शहंशाह अकबर ने अजोधन में हाज़रियाँ दीं और अजोधन का नाम पाक-पट्टन रखा।
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.