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बक़ा-ए-इंसानियत के सिलसिला में सूफ़िया का तरीक़ा-ए-कार- मौलाना जलालुद्दीन अ’ब्दुल मतीन फ़िरंगी महल्ली

मुनादी

बक़ा-ए-इंसानियत के सिलसिला में सूफ़िया का तरीक़ा-ए-कार- मौलाना जलालुद्दीन अ’ब्दुल मतीन फ़िरंगी महल्ली

मुनादी

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    बात की इब्तिदा तो अल्लाह या ईश्वर के नाम ही से है जो निहायत मेहरबान और इंतिहाई रहम वाला है और सब ता’रीफ़ तो ईश्वर या अल्लाह की ही है जो सब जगतों का पालनहार है।जिसका कोई साझी नहीं है।जो निहायत रहम वाला मेहरबान है।उसका सलाम मोहम्मद सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम,आल-ए-मोहम्मद,अस्हाब-ए-मोहम्मद सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम और उनके रास्ते पर चलने वालों पर हो।

    ये तो सबने देखा कि कुछ लोग हैं जिनके पास अल्लाह की मख़्लूक़ जौक़ दर जौक़ चली रही है। मख़्लूक़ को उनके पास आने से एक तस्कीन होती है।ये ज़रूरी नहीं है कि जिस दुख-दर्द और मुश्किल से नजात पाने के लिए अल्लाह की मख़्लूक़ उन अल्लाह के बंदों की ख़िदमत में हाज़िर हुई है वो दुख दूर भी हो जाए और मुश्किलात का हल निकल आए।लेकिन होता ये है कि इन्सान को अल्लाह के बंदों के पास बैठ कर दुख-दर्द को बर्दाश्त करना जाता है।मुश्किलात में हरासाँ होने से नजात मिल जाती है।मुश्किलात में ज़िंदगी गुज़ारने की आ’दत होती है।उन सूफ़ियों,फ़क़ीरों और संतों ने अल्लाह की मख़्लूक़ के ग़म को अपना ग़म समझा और दुआ’ और दीगर तदाबीर से उन मुश्किलात के हल करने की कोशिश की।ये सूफ़ी और संत मख़्लूक़ को बता देते थे कि सारे मुआ’मलात अल्लाह के हाथ में हैं।वो क़ादिर-ए-मुतलक़, रहीम और करीम है।हो सकता है कि जिस ग़म को हम एक बड़ा ग़म समझ रहे हैं उसमें अल्लाह की कोई मस्लिहत हो।उस ग़म की वजह से इस दुनिया या आख़िरत में कोई भलाई हो।

    उन सूफ़ियों और संतों के पास बैठने से इन्सान की समझ में ये भी जाता है कि ख़्वाहिशों और आरज़ूओं का एक ला-मुतनाही सिलसिला है।कहाँ तक उनकी ख़्वाहिशात की तकमील होगी।ख़्वाहिशात पूरी होने की शक्ल में इन्सान मलूल हो जाता है।बा’ज़ मर्तबा तो ये होता है कि ख़्वाहिशों और आरज़ूओं के पूरा करने के लिए इन्सान जाएज़ और ना-जाएज़ वसीलों में इम्तियाज़ नहीं कर पाता है।ये ना-जाएज़ वसाएल इख़्तियार करने वाले हमेशा मुज़्तरिब और बे-चैन रहते हैं।ये अपनी ख़्वाहिशों के पूरा करने के चक्कर में पड़े रहते हैं।उन इन्सानों को इस से कोई मतलब नहीं होता है कि ख़ल्क़-ए-ख़ुदा पर क्या बीत रही है।भूक,इफ़्लास,रंज और ग़म की मारी दुनिया से उन्हें कोई मतलब नहीं होता है।ये अपनी दुनिया में ब-ज़ाहिर मगन रहते हैं लेकिन जिसे तमानियत-ए-क़ल्ब कहते हैं वो उन्हें हासिल नहीं होती।उनको ये मा’लूम नहीं होता कि तमानियत-ए-क़ल्ब तो सिर्फ़ अल्लाह के ज़िक्र से,ईश्वर की प्रार्थना करने,भगवान से लौ लगाने से ही हासिल होती है।फिर भी अगर ऐसे इन्सानों को सूफ़ियों और संतों के क़रीब आने का मौक़ा’ मिलता है और उनसे अ’क़ीदत पैदा हो जाती है तो रफ़्ता-रफ़्ता ये बुरे लोग अपने से कमतरों को देखकर सबक़ हासिल करते हैं।और एक अ’र्सा बा’द ये लोग अख़्लाक़ के आ’ला मे’यार के हामिल हो जाते हैं और अल्लाह की मोहब्बत की वजह से सारे इन्सानों से मोहब्बत करने लगते हैं

    सवाल ये है कि उन फ़क़ीरों और संतों के पास क्या ऐसी चीज़ है कि डाकू, ज़ालिम,बद-कार, शराबी जुवारी,ज़ालिम और बरसर-ए-इक़्तिदार लोग जब एक मर्तबा उनके पास आने जाने लगते हैं तो सब अपनी बुराइयों से तौबा कर लेते हैं।तमाम ख़ानवादे क़ादरी हों या चिश्ती, सुहरवर्दी हों या नक़्शबंदी सब के सब अपने मुरीद से तौबा कराते हैं,जिसको बैअ’त कहते हैं।उन मुरीदों से ये अ’हद लिया जाता है कि आइन्दा ये लग़्वियात से दूर रहेंगे और अगर उन्होंने इस अ’हद को तोड़ा तो सरासर उन्हीं का नुक़सान है।इस अ’हद-ए-वफ़ा को पूरा करने की शक्ल में मा’लूम नहीं इस दुनिया और उस दुनिया में कुछ भुगतना पड़े।और अगर अ’हद-ए-वफ़ा को उस्तुवार रखा तो अल्लाह ऐसे लोगों को बड़ा अज्र और बड़ा मर्तबा इ’नायत फ़रमाएगा।

    सूफ़ी तो फ़त्वा देता है कोई फ़रमान पेश करता है।उनके पास फ़ौज होती है हथियार। सूफ़ी आज-कल की तरह कोई मुनज़्ज़म तहरीक चलाते हैं।वो अपने खलीफ़ा और मुरीदों को लेकर गश्त लगाते हैं ये ग़लत-कारों से कहते हैं भई तुम बदमा’शियाँ छोड़ दो।न जुवारियों से जुआ छोड़ने पर इसरार करते हैं शराबियों को शराब पीने से रोकते हैं। बल्कि वो तो ये कहते हैं :

    “न क़ाज़ियम मुहद्दिस मोहतसिब फ़क़ीह

    मरा चे कार कि मनअ’-ए-शराब-ए-ख़्वार कुनम’’

    तो मैं क़ाज़ी हूँ मुहद्दिस,न पुलिस वाला फ़क़ीह।मुझे क्या कि कोई शराब पिए,जूआ खेले या दीगर लग़्व काम करे।लेकिन होता ये है कि उन फ़क़ीरों के पास बैठने से इन्सान सारे ग़लत काम छोड़ देता है।पंजाब में तो क्या हिंदू क्या मुसलमान जो शराब इस्ति’माल करता हो,बुराइयों में मुब्तला हो उसे सूफ़ी कहते हैं।हमको आपको ये तो मा’लूम है कि हज़रत शाह वारिस अ’ली रहमतुल्लाह अ’लैहि के पास इतने लोग आए और इन्सान बन गए।हज़रत शाह फ़ज़्लुर्रहमान गंज मुरादाबादी के हाथ पर कितने बद-किरदार लोगों ने आकर तौबा की।

    मौलाना अ’ब्दूर्रज़्ज़ाक़ फ़िरंगी महल्ली के पास तवाइफ़ों ने आकर अपने पेशे से तौबा की।बद-अख़लाक़ नवाब और जागीरदारों ने आपकी ख़िदमत में हाज़िरी देकर अपने को पाक साफ़ कर लिया और अहलुल्लाह में शामिल हो गए।ये तो आज से डेढ़ सौ बरस के अंदर के हम-अ’स्र बुज़ुर्ग थे।इस से क़ब्ल एक ब-ज़ाहिर अन-पढ़ बुज़ुर्ग हज़रत सय्यिद शाह अ’ब्दुर्रज़्ज़ाक़ बाँसवी, कितनों को राह़-ए-रास्त पर ले आए।आ’लिमों के ग़ुरूर-ए-इ’ल्म को तोड़ना सबसे मुश्किल काम है।पढ़-लिखे जिनसे मुक़ाबला बहुत मुश्किल होता है, हमारे सय्यिद साहिब ने कितने उ’लमा का ग़ुरूर-ए-इ’ल्म तोड़ कर उनको सुरूर-ए-मोहब्बत से नवाज़ा।अभी हाल ही में काकोरी के हज़रत शाह हबीब क़लंदर ने मा’लूम नहीं कितने दिलों में शम्-ए’-मोहब्बत फरोज़ाँ कर के आ’ला अख़्लाक़ का हामिल बना दिया।

    ज़माना-ए-क़दीम के बुज़ुर्गों का ख़ाली नाम ही लिख दिया जाए तो एक ज़ख़ीम किताब तैयार हो जाएगी।हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया(रहि.), बाबा फ़रीद क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी और ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती ने तो पूरे हिन्दुस्तान को अपनी अख़्लाक़ी हुकूमत के दायरा में दाख़िल कर लिया है।शहाबुद्दीन सुहरवर्दी, हज़रत शैख़ अ’ब्दुल क़ादिर जीलानी,दातागंज बख़्श तो तसव्वुफ़ के बहुत बड़े सुतून थे।तमाम सिलसिले हज़रत अ’ली कर्रामुल्लाहु वज्हहु पर ख़त्म होते हैं।हज़रत अ’ली रज़ीयल्लाहु अ’न्हु को सिर्फ़ रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम से फ़ैज़ मिला था बल्कि वो सब कुछ जो रसूलुल्लाहि सल्लल्लाहु अ’लैहि व-आलिहि वसल्लम ने हज़रत अबू बक्र रज़ीयल्लाहु अ’न्हु, हज़रत उ’म्र रज़ीयल्लाहु अ’न्हु और उस्मान रज़ीयल्लाहु अ’न्हु को अ’ता फ़रमाया था वो सब उन लोगों ने हज़रत अ’ली रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु को मुंतक़िल कर दिया था।इसीलिए आपको जामे-ए’-विलायत-ए-मोहम्मदिया और ख़ातिम-ए-ख़िलाफ़त-ए-राशिदा का ख़िताब हासिल था।फिर आपकी औलाद और खलीफ़ा से ये सिलसिला जारी रहा।सिलसिला-ए-नक़्शबंदिया जो हज़रत अबू बक्र रज़ीयल्लाहु तआ’ला अ’न्हु से जारी हुआ उसके सबसे बड़े शैख़ हज़रत अ’ली रज़ीयल्लाहु अ’न्हु के पोते हज़रत इमाम जा’फ़र सादिक़ थे जिनका इ’ल्मी और रुहानी फ़ैज़ान हज़रत इमाम अबू हनीफ़ा रज़ीयल्लाहु अ’न्हु के ज़रिआ’ चार-दांग-ए-आ’लम में जारी है।ख़ुद हज़रत इमाम अबू हनीफ़ा तसव्वुफ़ के एक बहुत बड़े सुतून थे।आप इस वाक़िआ’ से अंदाज़ा लगाऐं कि आपके पड़ोस में एक शराबी रहता था जो रोज़ रात को ग़ुल मचाता था और बलवा करता था, जिसकी वजह से आपकी इ’बादत और इ’ल्मी मशाग़िल में ख़लल पड़ता था।एक मर्तबा रात को उसके शोर-ओ-ग़ुल की आवाज़ नहीं आई।सवेरे मा’लूम हुआ कि उसको पुलिस पकड़ ले गई है। आपने कोतवाली जाकर उस शराबी को छुड़ा लिया और कहा ये मेरा पड़ोसी है और मेरा जानने वाला है।आप सोचें कि क्या हालत हो गई होगी उस शराबी की।ये तो हज़रत इमाम अबू हनीफ़ा का बे-दाम ग़ुलाम बन गया और शराब तो क्या तमाम मआ’इब उस से दूर हो गया।

    इस फ़क़ीर के ख़याल में तो सबसे बड़े सूफ़ी ख़ुद रसूलुल्लाहि सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम थे।आपने जब अल्लाह की तरफ़ लोगों को बुलाना शुरूअ’ किया तो बावजूद ज़ाहिरी मुफ़्लिसी के ये काम खाना खिलाने से शुरूअ’ किया।चंद को छोड़कर अ’रब सरदारों ने आपकी सख़्त मुख़ालफ़त शुरूअ’ की और दर-पय-ए-आज़ार हो गए।ख़ुद आपके घर में हज़रत हम्ज़ा रज़ीयल्लाहु अ’न्हु,हज़रत जा’फ़र और हज़रत अ’ली के सिवा मक्का में कोई ईमान नहीं लाया।गोया कि बनू-हाशिम में कुल तीन, बनू उमय्या में सिर्फ़ हज़रत उ’स्मान रज़ीयल्लाहु अ’न्हु, ईमान लाए।चंद दूसरे क़बीलों के सर-बर-आवुर्दा लोगों में ख़ास नाम हज़रत अबू बक्र रज़ीयल्लाहु अ’न्हु और हज़रत उ’म्र रज़ीयल्लाहु अ’न्हु का है।हाँ ग़ुलाम,कमज़ोर मर्द और औ’रत और बे-सहारा लोग आपके गिर्द जम्अ’’ हो गए थे और अपने दुख-दर्द का मुदावा चाहते थे।अ’रब के सरदारों को अपने नसब पर ग़ुर्रा था।सरदारी का ग़ुरूर था।लेकिन ये मोहब्बत का जादू ऐसा था कि बा’द को रसूलुल्लाहि सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम के सदक़ा में ये सब भी राह़-ए-रास्त पर गए।

    इन सब सूफ़ियों,संतों,फ़क़ीरों,नबियों और रसूलों का तरीक़ा-ए-कार तो एक ही था।ये सब अपने मो’जिज़ात अपनी करामात और चमत्कारों को अपनी तरफ़ मंसूब नहीं करते थे।यहाँ तक बदमा’शों,डाकुओं,शराबियों और जुवारियों के मुतअ’ल्लिक़ ये समझते थे कि मा’लूम नहीं अल्लाह ने क्यूँ उनको आज़माइश में मुब्तला किया है।सूफ़ी बीमार को अच्छा करना चाहते थे।उन्हें बीमार से उलझन नहीं होती थी बल्कि ये बीमार से मोहब्बत करते थे।वो बीमारी ख़्वाह जिस्मानी हो या रुहानी सबको दूर करने की कोशिश करते थे।लेकिन ये नहीं समझते थे कि हम इ’लाज कर सकते हैं बल्कि उनका यक़ीन-ए-कामिल था कि जिस अल्लाह ने बीमारी दी है वही शिफ़ा अ’ता करने वाला है। सूफ़ियों के रुहानी जद्द-ए-आ’ला हज़रत इब्राहीम अ’ला नबीय्यिना अलै’हिस्सलातु व-स्सलाम फ़रमाते थे कि बीमारी भी अल्लाह की तरफ़ से है और शिफ़ा भी।अल्लाह ही ज़िंदगी बख़्शता है और वही मौत के आग़ोश में सुलाता है।ग़र्ज़ कि हर चीज़ की निस्बत ये सूफ़ी अल्लाह या ईश्वर ही की जानिब करते थे।तमाम मख़्लूक़ को अल्लाह की मख़्लूक़ समझते थे।अल्लाह की मोहब्बत की वजह से ही ये अल्लाह की तमाम मख़्लूक़ से मोहब्बत रखते थे।यहाँ तक कि ये सूफ़ी अल्लाह या ईश्वर ही का हक़ीक़ी वुजूद मानते थे।बाक़ी मौजूदात को मानते ही थे।उन सबको अल्लाह के मौजूद करने से आ’रिज़ी वुजूद मिला है और उसके फ़ना कर देने से सब फ़ना हो जाएंगे।दूसरे अल्फ़ाज़ में यूँ कहिए अल्लाह का वुजूद हक़ीक़ी है और सब मजाज़ी वुजूद रखते हैं जो हक़ीक़ी वुजूद का परतव है।

    हमारे सूफ़ी हरज़रात अल्लाह तआ’ला ही की निगाह से सब को देखते थे।मौत और हयात की तशरीह उनके यहाँ बिल्कुल दूसरी तर्ज़ पर थी।

    ‘ज़िंदगी कहते हैं किस को मौत किस का नाम है

    मेहरबानी आपकी ना-मेहरबानी आपकी’

    “हर ज़माँ मी-रवम-ओ-हर लहज़ा शवम ज़िंदा ब-जाँ

    गह ज़े-ख़ंदीदन-ए-तू गाह ज़े-रंजीदन-ए-तू”

    आपकी नाराज़गी मेरी मौत है और आपका मुझसे ख़ुश होना मेरी ज़िंदगी है।जैसा कि मैं कह चुका हूँ इस फ़क़ीर के ख़याल में सबसे बड़े सूफ़ी तो अहमद-ए-मुज्तबा मोहम्मद-ए-मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम हैं जिनसे अल्लाह ने फ़रमाया है कि क़ुल इन्ना सलाती व-नुसुकी व-मह्याया व-ममाति लिल्लाहि रब्बिल-आ’लमीन ला-शरीक लहु व-बिज़ालिका उमिर्तु व-अना अव्वलुल-मुस्लिमीन।

    रसूल आप कह दें कि मेरी नमाज़,मेरी क़ुर्बानी,मेरी ज़िंदगी,मेरी मौत सब अल्लाह के लिए है जो सब जहानों का पालनहार है।जिसका कोई साझी नहीं है और इसी बात का मुझे हुक्म दिया गया है।और मैंने इस बात को सबसे पहले तस्लीम कर लिया है।या’नी कहने का मतलब ये है कि नबियों, वलियों, सूफ़ियों ने अपने को बिल्कुल अल्लाह के सुपुर्द कर दिया था और उस शराब-ए-मा’रिफ़त से ख़ुद भी सैराब हुए और ख़ल्क़-ए-ख़ुदा को भी सैराब किया जिसकी वजह से बक़ा-ए-इंसानियत का दुनिया में बोल-बाला हुआ।

    यहूदयों,ई’साइयों और मुसलमानों के मुश्तरक बुज़ुर्ग हज़रत-ए-इब्राहीम थे।उनकी औलाद में हज़रत या’कूब थे और जिनके एक चहेते बेटे हज़रत-ए-यूसुफ़ अ’लैहिस्सलाम थे।मैं जो आगे क़िस्सा बयान करने वाला हूँ उस क़िस्सा से मुझे ये बतलाना मतलूब है कि सूफ़ी का तरीक़ा-ए-कार बक़ा-ए-इंसानियत के सिलसिला में क्या था।

    हज़रत या’क़ूब अ’लैहिस्सलाम के 12 बारह बेटे थे।दस बेटे एक माँ से दो छोटे बेटे एक माँ से थे।ये दोनों छोटे बेटे बूढ़े बाप की तवज्जोह के काफ़ी ज़ियादा मुस्तहिक़ थे।उनमें से एक बेटे का नाम यूसुफ़ था जो बाप के ज़ियादा चहेते थे।एक दिन नन्हे यूसुफ़ ने बाप से कहा कि अब्बा मैंने रात को ख़्वाब में देखा है कि ग्यारह सितारे चाँद और सूरज मुझे सज्दा कर रहे हैं।बाप ने यूसुफ़ से कहा कि बेटा ये ख़्वाब किसी से बयान करना।शैतान जो इन्सान का अज़ली दुश्मन है उसके बहकावे में आकर तुम्हारे बड़े भाई कहीं तुम को कोई नुक़सान पहुंचावें।मा’लूम होता है तुम्हारे रब ने तुमको उस ने’मत से नवाज़ा है जो पहले इब्राहीम और आल-ए-इब्राहीम,इस्हाक़ अ’लैहिस्सलाम, इस्माईल अ’लैहिस्सलाम और या’क़ूब अ’लैहिस्सलाम को मिली थी।और तुमको ख़्वाब की ता’बीर का भी इ’ल्म दिया गया है।इधर तो बाप बेटे में ये बातें हो रही थीं उधर बड़े भाईयों का जल्सा हो रहा था कि हम बड़े हैं, हम ताक़त-वर हैं लेकिन वालिद यूसुफ़ और उसके भाई को ज़ियादा चाहते हैं ।उन पर ज़ियादा तवज्जोह देते हैं ।वालिद सठिया गए हैं।अब इसका इ’लाज ये है कि यूसुफ़ को क़त्ल कर दिया जाए सब ने वालिद से कहा कि यूसुफ़ घर पर पड़े पड़े घबराता होगा।हम मवेशी चराने जाते हैं हमारे साथ जंगल में भेज दिया कीजिए। जंगल की साफ़ हवा और सब्ज़े में ये खेलेगा और परवान चढ़ेगा।वालिद ने जवाब दिया तुम लोग खेती बाड़ी में मसरूफ़ होगे।मवेशियों की देख-भाल कर रहे होगे।मुझे डर है कि कहीं कोई भेड़िया यूसुफ़ को उठा ले जाए।भाई बोले हमारे ऐसे ज़िम्मेदार ताक़त-वरों के सामने क्या मजाल कि कोई भेड़िया यूसुफ़ अ’लैहिस्सलाम को कोई नुक़सान पहुंचा सके।ग़र्ज़ कि नन्हा यूसुफ़ भाईयों के साथ जंगल जाने लगा। एक दिन यूसुफ़ को ये भाई बहुत दूर एक अंधे कुँवें के पास ले गए और यूसुफ़ की क़मीज़ उतरवाकर उन्हें कुँवें में ढकेल दिया।शाम को क़मीज़ नोच-नाच उस पर झूटा ख़ून छिड़क बाप के पास रोते पीटते आए कि यूसुफ़ कहीं जंगल में निकल गया था,उसे भेड़िया उठा ले गया।ढूंडते ढूंडते ये ख़ून-आलूद क़मीज़ मिली है।उधर अल्लाह तआ’ला ने हज़रत-ए-या’क़ूब को आगाही दे-दी थी लेकिन वालिद ने लड़कों को झुठलाया नहीं सिर्फ़ इतना कहा अल्लाह मदद-गार है उस मुआ’मला में जो तुम बयान कर रहे हो”

    यही तरीक़ा-ए-कार है सूफ़ियों का।वो हर मुआ’मला को अल्लाह के सुपुर्द कर देते हैं।बा’द को ये बहकी हुई मख़्लूक़ अगर अल्लाह की मर्ज़ी होती है तो राह़-ए-रास्त पर जाती है।अल-क़िस्सा उस अंधे कुँवें के पास कोई क़ाफ़िला गुज़र रहा था जिसको मा’लूम था कि ये कुँआं अंधा है।पानी की तलाश में किसी ने उसमें डोल डाला। उस में एक छोटे लड़के को देखकर वहीं से चिल्लाया अम्माँ देखो तो इस कुँवें में तो एक प्यारा बच्चा है।क़ाफ़िला वालों को मुफ़्त का माल मिला तो खोटे सिक्कों के ए’वज़ उसे बेच दिया कि जो मिले सो ग़नीमत है।एक से दूसरे तक बिकते बिकते आख़िर-कार शाही महल के लिए यूसुफ़ ख़रीद लिए गए। वहाँ वो ख़ूब परवान चढ़े और रुहानी तरक़्कियाँ भी होती रहीं।ख़्वाब की ता’बीर का इ’ल्म भी अल्लाह ने अ’ता फ़रमाया। यूसुफ़ ख़ूबसूरत तो थे ही जवान हो कर मर्दाना हुस्न का एक मुकम्मल नमूना बन गए। यूसुफ़ के मर्दाना हुस्न पर मलिका का दिल गया। यूसुफ़ को ख़ल्वत में बुलाया। यूसुफ़ ने बचना चाहा। छीना-झपटी शुरूअ’ हुई। यूसुफ़ भागे। मलिका ने दामन पकड़ा।दामन फटा।आवाज़ सुनकर महल की मुंतज़िमा गई। मलिका ने कहा ये ग़ुलाम मेरी बे-इ’ज़्ज़ती करना चाहता था। यूसुफ़ ने कहा उल्टा चोर कोतवाल को डाँट रहा है।ये औ’रत मुझे वर्ग़ला रही थी। मुंतज़िमा ने फ़ैसला किया कि यूसुफ़ के कपड़े देखे जाएं। सामने का दामन अगर फटा होगा तो यूसुफ़ गुनाहगार है।पीछे का दामन फटा होगा तो मलिका ग़लत-कार है। देखा गया तो पीछे का दामन तार तार था। यूसुफ़ की बे-गुनाही साबित हुई लेकिन शाही महल की इ’ज़्ज़हुईत के मुक़ाबला में एक ग़ुलाम की क्या हक़ीक़त। मुआ’मला दबा दिया गया।मलिका को वार्निंग दे दी गई।यूसुफ़ को धमकाया गया कि बस अब इस मुआ’मला को ख़त्म करो।बात छुपाए से कहीं छुपती है।महल की बेगमात में चे-मीगोइय़ाँ शुरूअ’ हुईं कि मलिका को क्या हो गया है कि वो एक ग़ुलाम पर लट्टू हो गई हैं।मलिका के कानों तक औ’रतों की चे-मीगोइयों की ख़बर पहुंची।मलिका ने शहर की मुअ’ज़्ज़ज़ बेगमात की दा’वत की।सब जब जम्अ’ हो गईं तो उनके हाथों में छुरियां दी गईं।उनसे नीबू कांटे को मलिका ने कहा।उधर पर्दे के पीछे यूसुफ़ थे।उनको आवाज़ देकर बुलाया।ये बेगमात यूसुफ़ के हुस्न-ओ-जमाल को देखकर हैरान हो गईं।बजाय नीबू काटने के अपनी उंगलियाँ काट लीं ।कहने लगीं ये तो मलकूती हुस्न है।मलिका बोली क्यों इसी के लिए तुम सब मुझे ला’नत मलामत करती थी।अगर यूसुफ़ ने मेरी बात नहीं मानी तो मैं उसको ज़लील कर के जेल में डाल दूँगी।

    यूसुफ़ दिल ही दिल में अल्लाह से दुआ’ कर रहे थे, रब मुझे जेल अ’ज़ीज़ है लेकिन जिस तरफ़ मलिका मुझे बुला रही उससे अल्लाह तू मुझे बचा ले।अल्लाह ने यूसुफ़ की दुआ’ सुन ली।और उन्हें जेल में डाल दिया गया।जेल में यूसुफ़ अ’लैहिस्सलाम ने अपना सूफ़ियाना काम शुरूअ’ कर दिया।लोगों की दिल-जूई की। मुसीबत में हरासाँ होना, लोगों को ख़्वाब की ता’बीर बताना, ये थे वो काम जो जेल में हज़रत-ए-यूसुफ़ अलैहिस्सलाम अंजाम दे रहे थे।एक दिन दो क़ैदी हज़रत यूसुफ़ के पास अपने अपने ख़्वाबों की ता’बीर पूछने आए।एक ने कहा कि मैंने देखा कि मेरे सर पर कुछ है जिसे परिंदे नोच-नोच कर खा रहे हैं।दूसरे ने कहा कि मैंने ख़्वाब देखा कि मैं शराब कशीद कर रहा हूँ।हज़रत यूसुफ़ ने कहा अभी खाना तक़्सीम होने में कुछ देर है।खाना आने से पहले तुम्हें ख़्वाब की ता’मीर बता दूंगा।यूसुफ़ ने कहा देखो ये जो ख़ाब की ता’बीर का इ’ल्म है ये मुझे अल्लाह ने ही अ’ता फ़रमाया है।मैंने उन लोगों का तरीक़ा छोड़ दिया जो अल्लाह पर यक़ीन नहीं रखते हैं और आख़िरत का इंकार करते हैं।मैंने तो अपने बाप-दादा इब्राहीम,इस्हाक़ और या’क़ूब का मज़हब इख़्तियार कर लिया है।मेरे लिए ये हरगिज़ मुनासिब नहीं कि मैं अल्लाह या ईश्वर का कोई साझी मान लूँ।ये जो कुछ मुझे हासिल हुआ है उसमें मेरी कोई ख़ूबी नहीं है।ये तो अल्लाह का फ़ज़्ल-ओ-करम है जो हम पर और दूसरे अहल-ए-यक़ीन पर है लेकिन अक्सर लोग अल्लाह का ना-शुक्रा-पन करते हैं।

    देखा आपने एक सूफ़ी किस तरह अपनी बड़ाई ,अपनी इ’बादत यहाँ तक अपने ईमान को अपनी तरफ़ नहीं मंसूब करता है बल्कि उसको अल्लाह का फ़ज़्ल-ओ-करम ही कहता है।ख़ैर यूसुफ़ ने फिर उन क़ैदियों से कहा क्यों भाई तुम्हारा क्या ख़याल है।एक अल्लाह की परस्तिश बेहतर है या हज़ार ख़ुदाओं को मानना ठीक है।और ये जो ईश्वर को छोड़-कर हज़ारों की परस्तिश होती है जिनके लिए तुमने और तुम्हारे बाप दादाओं ने फ़र्ज़ी नाम रख छोड़े हैं ईश्वर ने तो इनके मुतअ’ल्लिक़ कोई दलील उतारी नहीं है।हुक्म तो ईश्वर ही का चलता है जिसने यही हुक्म दिया है कि उस एक ईश्वर को छोड़ कर किसी की इ’बादत करो।यही धर्म है,यही मज़हब है।यही मज़बूत अ’क़ीदा है।बहुत से लोग इस मुआ’मला में अल्लाह या ईश्वर से बिल्कुल बे-गाना हैं।ऐ क़ैदी भाईयो जिसने अपने आपको को शराब कशीद करते हुए देखा है उस की ता’बीर ये है कि वो बादशाह का साक़ी बनेगा और उसका मुक़र्रब हो जाएगा।जिसने अपने सर पर रखी हुई चीज़ों को देखा है कि उसे परिंदे खा रहे हैं उसकी ता’बीर ये है कि उसको फांसी पर लटकाया जाएगा और उसका भेजा परिंदे खाएँगे।बस ये थी तुम्हारे ख़्वाब की ता’बीर।

    देखा आपने एक सूफ़ी जिसको ख़्वाब की ता’बीर का इ’ल्म अल्लाह तआ’ला फ़रमाता है वो अपनी बड़ाई जताने के लिए उसे इस्ति’माल नहीं करता है बल्कि लोगों को भटकने से बचाने के लिए अपनी उन तमाम ताक़तों को इस्ति’माल करता है जो अल्लाह ने उसे अ’ता फ़रमाई हैं।ग़र्ज़ कि जिसके मुतअ’ल्लिक़ यूसुफ़ को यक़ीन था कि वो बादशाह का मुक़र्रब होगा और उसे कहा कि मेरे मुआ’मला को तुम बाशाह से बयान करना और मेरी बे-गुनाही को बताना।

    यहाँ भी देखिए इतनी अ’ज़ीम रुहानी ताक़त हज़रत यूसुफ़ अ’लैहिस्सलाम को अल्लाह ने अ’ता फ़रमाई थी लेकिन अपने मुआ’मला के लिए यूसुफ़ अ’लैहिस्सलाम ने उसे नहीं इस्ति’माल किया। उसके लिए ज़ाहिरी तदबीर ही इख़्तियार की।ये बड़ा मुश्किल काम है जो एक अ’ज़ीम सूफ़ी ही अंजाम दे सकता है।ये क़ैदी जब बादशाह का मुक़र्रब बन गया तो यूसुफ़ अ’लैहिस्सलाम को भूल गया।एक रात बादशाह ने ख़्वाब में देखा कि सात दुबली गायें सात मोटी गायों को खाएँगे।ये मोटी गायें तर-ओ-ताज़ा थीं और दुबली गायें बिल्कुल सुखी।बादशाह ख़्वाब से बेदार हुआ तो बहुत मुतवह्हिश था।उसने दरबार बुलाया और दरबारियों से उस ख़्वाब की ता’बीर पूछी।दरबारियों ने अ’र्ज़ किया ये सब ख़्वाब-ए-परेशाँ हैं। ख़्वाब-ओ-ख़याल की बातों की ता’बीर हम नहीं जानते हैं।अब बादशाह के मुक़र्रब साक़ी को ख़्वाब की ता’बीर की बात पर यूसुफ़ अलैहिस्सलाम याद आए।वो दौड़ा दौड़ा यूसुफ़ अ’लैहिस्सलाम के पास आया और कहने लगा यूसुफ़ तुम सच्चे।तुम्हारी ता’बीरें सही। अब बताओ बादशाह ने ऐसा ख़्वाब देखा है।इसकी ता’बीर क्या है? यूसुफ़ अ’लैहिस्सलाम ने फ़रमाया ता’बीर इस ख़्वाब की ये है कि सात साल तक ग़ल्ला ख़ूब पैदा होगा फिर सात साल सख़्त क़हत पड़ेगा यहाँ तक कि अच्छी फ़स्ल का जम्अ’ शूदा ग़ल्ला सब ख़त्म हो जाएगा और बड़ा सख़्त ज़माना आएगा।लोग दाना-दाना को मोहताज हो जाएंगे। ये मुक़र्रब, साक़ी बादशाह के पास गया।पिछले वाक़िआ’त और जो यूसुफ़ अ’लैहिस्सलाम ने उस ख़्वाब की ता’बीर बताई थी वो सब बातें बादशाह को सुना दीं ।बादशाह ने कहा अच्छा यूसुफ़ को बुलाओ।हज़रत-ए-यूसुफ़ ने कहा कि जब तक मेरी बे-गुनाही क़ानूनन साबित हो जाएगी मैं जेल से बाहर आने का नहीं।देखिए क्या किरदार अल्लाह ने यूसुफ़ अ’लैहि वसल्लम को अ’ता फ़रमाया था।

    महज़ हुकूमत के सरबराह के मुक़र्रब होने की बिना पर क़ानून के एहतिराम को तर्क नहीं किया। हज़रत-ए-यूसुफ़ ने कहा महल की मुंतज़िमा को बुलाया जाए जिसने मेरे पुश्त के फटे दामन से मेरी बे-गुनाही मान ली थी।उन बेगमात को भी बुलाया जाए जिन्हों ने अपनी उंगलियाँ काट ली थीं।और जिनके सामने मलिका ने कहा था यूसुफ़ ने अब तक तो अपने को बचाया है आइन्दा उसने अगर मेरी बात नहीं मानी तो मैं उसे ज़लील कर के जेल में डाल दूंगी।ये सब बातें देखकर मलिका ने अपने क़ुसूर को ए’तिराफ़ किया कि हाँ मैंने उसे ख़ल्वत में बुलाना चाहा था मगर उसने अपने आपको बचा लिया।इस पर यूसुफ़ अ’लैहिस्सलाम ने फ़रमाया मैंने ये सब इसलिए किया कि मा’लूम हो जाए कि मैं ख़यानत का मुर्तकिब नहीं हूँ और अल्लाह ख़यानत-कारों की साज़िशों को ज़ाहिर कर देता है।और मेरी बे-गुनाही का जहाँ तक तअ’ल्लुक़ है तो हर इन्सान का नफ़्स-ए-अम्मारा उसको बुराई की तरफ़ ले जाता है।अल्लाह जिस पर रहम करता है वो अपने को बचा लेता है और अल्लाह ही मुआ’फ़ करने और रहम फ़रमाने वाला है।

    देखिए यहाँ यूसुफ़ अ’लैहिस्सलाम ने मलिका के ख़िलाफ़ कोई गु़स्सा,किसी नफ़रत का इज़हार नहीं किया।अपनी बे-गुनाही को अल्लाह के करम पर मब्नी क़रार दिया।इस तरह सही मा’नी में मलिका ने दिल से तौबा की वर्ना भेद खुल जाने पर ऊपरी दिल से मलिका तौबा कर लेती।लेकिन दिल कैसे पाकीज़ा हो जाता है यही उस्वा-ए-यूसुफ़ी ब-वास्ता-ए-उस्वा-ए-मोहम्मदी सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम सूफ़िया को अ’ता फ़रमाया था।इसी तरीक़ा-ए-कार से वो दुश्मनों के दिलों में घर कर लेते थे।बे-ईमानों के दिल ईमान से रौशन होजाते थे। बद-किरदार साहिब-ए-किरदार हो जाते थे।ज़ालिम मज़लूमों के पासबान बन जाते थे।मिटती हुई इन्सानियत फिर से ज़िंदा-ओ-तवाना हो जाती थी।

    वो अदा-ए-दिल-बरी हो कि नवा-ए-आ’शिक़ाना

    जो दिलों को फ़त्ह कर ले वही फ़ातेह-ए-ज़माना

    बादशाह ने यूसुफ़ अ’लैहिस्सलाम की ईमानदारी और हुस्न-ए-किरदार,अ’क़्ल-मंदी और ज़ेहानत की बिना पर अपना मुक़र्रब कर लिया और हाकिम बनाना चाहा। यूसुफ़ अ’लैहिस्सलाम ने इस शर्त के साथ उस ओ’हदे को क़ुबूल किया कि वो मालियात वग़ैरा पर मुकम्मल और बा-इख़्तियार हाकिम होंगे।जिसे बादशाह ने मंज़ूर कर लिया।अल्लाह का इर्शाद है कि अच्छे आ’माल का सिला ज़ाए’ नहीं होता है और आख़िरत में जो सिला मिलेगा वो इससे कहीं ज़ियादा है।ज़माना गुज़रता गया।सात साल ख़ुश-हाली के ख़त्म हो चुके।क़हत की सख़्तियाँ अपनी इंतिहा पर पहुँच चुकीं।यूसुफ़ अ’लैहिस्सलाम ने एक क़िस्म की राशनिंग शुरूअ’ कर दी।देहातों से लोग ग़ल्ला के तलाश में शहर की तरफ़ अपनी अपनी पूँजियाँ लेकर उमँड आए।यूसुफ़ अ’लैहिस्सलाम के भाई भी बाल बच्चों की परेशानियों और भूक के इ’लाज के लिए अपनी पूँजी लेकर शहर में सरकारी महल के सामने अपनी बारी का इंतिज़ार कर रहे थे।यूसुफ़ अ’लैहिस्सलाम बज़ात-ए-ख़ुद राशन के काम की निगरानी कर रहे थे।अपने सामने ग़ल्ला तक़्सीम करवा रहे थे और देहात का हाल भी दरयाफ़्त करते जाते थे। यूसुफ़ अ’लैहिस्सलाम ने भाईयों को देखा और पहचान लिया। भाई पहचान पाए। हज़रत-ए-यूसुफ़ ने तक़्सीम-ए-ग़ल्ला के वक़्त भाईयों से घर के हालात मा’लूम किए।थोड़ा सा ग़ल्ला दिया और कहा कि अपने छोटे भाई को लाओगे तब ही तुम्हें पूरा राशन मिलेगा।भाई गाँव वापस आए।सामान खोला तो देखा कि पूँजी सब वापस कर दी गई है।वालिद से कहा आप छोटे भाई को साथ कर दें तो पूरा ग़ल्ला मिलेगा।वालिद ने कहा मैं तुम पर इस बच्चे के सिलसिला में कोई भरोसा नहीं कर सकता।

    यूसुफ़ अ’लैहिस्सलाम के मुआ’मला में तुम पर भरोसा कर के क्या पाया? भाईयों ने कहा इतना सा ग़ल्ला तो चंद दिन के लिए भी काफ़ी नहीं है।हमारे बीवी बच्चे मर जाएंगे।हम आपको अल्लाह का वास्ता देते हैं कि अल्लाह के भरोसे पर इस छोटे भाई को हमारे साथ कर दें। इस को वापस लाकर आपके सामने पेश कर देंगे।जो कुछ हमने कहा अल्लाह को उस पर वकील बनाते हैं।अल्लाह का नाम आना था कि या’क़ूब ने सब मस्लहतों को भुला कर छोटे बेटे को साथ कर दिया और कहा कि देखो शहर में अलग-अलग दरवाज़े से दाख़िल होना।लड़के बाप के हुक्म के मुताबिक़ अलग-अलग दरवाज़े से दाख़िल हुए।एक दरवाज़े से छोटा भाई जब दाख़िल हुआ तो यूसुफ़ अ’लैहिस्सलाम ने अलग बुला कर उस से कहा कि मैं तुम्हारा भाई यूसुफ़ हूँ।जो कुछ तुम्हारे साथ किया जाए उससे तुम परेशान होना।जब सब भाई जम्अ’ हो गए तो उनको ग़ल्ला दे दिया गया और छोटे भाई के ग़ल्ला के झोले में अ’मला वालों ने नाप का प्याला छुपा दिया।सब भाई ख़ुशी-ख़ुशी रवाना हुए। अभी कुछ दूर ही गए हेंगे कि सरकारी अ’मला वाले पीछे से पुकारे क़ाफ़िला वालो तुम चोर हो।क़ाफ़िला वालों ने मुड़ कर देखा और कहा कि तुम्हें मा’लूम है हम ग़रीब देहात वाले चोर नहीं हैं।और ये तो बताओ कि क्या चीज़ चोरी हुई है।सरकारी अ’मला वालों ने कहा कि नाप का प्याला ग़ाएब है।यूसुफ़ के भाईयों ने कहा कि तलाशी ली जाए जिसके माल में प्याला बरामद होगा वही चोर है।तलाशी शुरूअ’ हुई।आख़िर में यूसुफ़ अ’लैहिस्सलाम के छोटे भाई के ग़ल्ला के थैले से नाप का प्याला बरामद हुआ और उसे पकड़ लिया गया।भाई कहने लगे कि इसने चोरी की है तो इसका भाई यूसुफ़ भी चोरी करता होगा।ग़र्ज़ कि छोटे भाई को पकड़ कर ले गए।सब भाई हाकिम से बोले हम में से किसी एक को इस छोटे भाई के ए’वज़ पकड़ लीजिए।हमारे वालिद बूढे हैं।इस बच्चा के ग़म में वो परेशान हो जाएंगे।

    हाकिम(यूसुफ़ अलैहिस्सलाम)ने कहा कि ये कैसे हो सकता है कि चोरी करे कोई पकड़ा जाए कोई।ये इन्साफ़ के ख़िलाफ़ है।जाईए अपने बाप से कहिए कि आपके बेटे ने चोरी की है।कोई शक हो तो क़ाफ़िला वालों से पूछ लिया जाए।वापस लौट कर यूसुफ़ के भाइयों ने वालिद से पूरा वाक़िआ’ बयान किया और कहा अल्लाह से बद-अ’हदी हमने नहीं की है।हज़रत–ए-या’क़ूब ने सब सुनकर कहा कि मेरा बेटा चोर है,ये कोई गढ़ी हुई बात मा’लूम होती है।बहर-हाल अल्लाह-वालों का तरीक़ा तो सब्र ही का है।अ’न-क़रीब सब साथ वापस आएँगे।अल्लाह बड़ा इ’ल्म वाला और मस्लहतों का जानने वाला है।और लड़कों की तरफ़ से अपना रुख़ फेर लिया और कहने लगे “हाय मेरा यूसुफ़।इस ग़म और सदमा से उनकी आँखों की रौशनी जाती रही।भाई कहने लगे अब्बा क्या यूसुफ़ के ग़म में आप अपने को हलाक कर लेंगे।हज़रत-ए-याक़ू’ब ने कहा मुझे तुमसे कुछ लेना देना नहीं है।अपना ग़म, अपना शिक्वा अपनी परेशानी सब कुछ मुझे अल्लाह ही से कहना है।

    बेटो ! अल्लाह की रहमत से मायूस नहीं होना चाहिए।अल्लाह की रहमत से तो अल्लाह को मानने वाले ही मायूस होते हैं।जाओ और अपने छोटे भाई की फ़िक्र करो।भाई यूसुफ़ अ’लैहिस्सलाम के पास आए।उनसे ये तो कहा कि हम अपने भाई को वापस लेने आए हैं। हो सकता है कि इस पर ख़ुश हों कि यूसुफ़ से छुटकारा मिल गया था अब उसके भाई से भी नजात मिली।ख़ैर हाकिम से कहने ले हमारे पास अब मा’मूली सी पूँजी है।आप सदक़ा ख़ैरात करें और हमें ग़ल्ला अ’ता फ़रमाएं। यूसुफ़ अ’लैहिस्सलाम ने कहा सुनो क्या तुम्हें याद है कि तुमने यूसुफ़ और उसके भाई के साथ क्या सुलूक किया था।अब भाईयों ने यूसुफ़ की तरफ़ देखा और कहा क्या आप यूसुफ़ हैं।यूसुफ़ अ’लैहिस्सलाम ने फ़रमाया हाँ मैं यूसुफ़ हूँ और ये मेरा भाई है।अल्लाह ने हम पर बड़ा करम किया है।जो अल्लाह से डरता है और सब्र करता है अल्लाह उसके हुस्न-ए-अ’मल को ज़ाए’ नहीं करता।जाओ तुम्हारी कोई सज़ा नहीं है।अल्लाह तुमको मुआ’फ़ करे।वो बड़ा ही रहम करने वाला है।

    देखा आपने ! हजरत-ए-यूसुफ़ ने ये नहीं कहा जाओ मैंने तुम्हें मुआ’फ़ किया बल्कि मुआ’फ़ी का तअ’ल्लुक़ और रहम का मुआ’मला अल्लाह से जोड़ दिया।और इस मुआ’मला में भाईयों का भी अल्लाह से तअ’ल्लुक़ क़ाएम करा दिया।ये है सूफ़ियों का तरीक़ा-ए-कार जिससे इन्सान का दिल पाक और साफ़ हो जाता है।अल्लाह ने अपने ऊपर यक़ीन रखने वालों पर इसका एहसान रखा है कि उसने मोहम्मद सल्लल्लाहि अ’लैहि वसल्लम को भेजा कि वो अल्लाह पर यक़ीन रखने वालों का तज़्किया-ए-नफ़्स कर देते हैं।ख़ैर।हज़रत-ए-यूसुफ़ ने अपनी क़मीज़ भाईयों के सुपुर्द की और कहा जाईए इसे वालिद की आँखों से लगाइए उस में रौशनी जाएगी।फिर आप सब वालिद वालिदा के साथ वापस जाईए।इधर ये क़ाफ़िला रवाना हुआ उधर गाँव में हज़रत-ए-या’क़ूब ने कहना शुरूअ’ किया “मुझे यूसुफ़ के पैराहन की ख़ुश्बू रही है। गाँव वालों ने कहा यूसुफ़ के ग़म ने आपके दिमाग़ पर-असर किया है। कहाँ यूसुफ़ कहाँ उनका पैराहन।क़ाफ़िला वापस गया।हज़रत-ए-या’क़ूब को हज़रत-ए-यूसुफ़ के ज़िंदा रहने की ख़ुश्ख़बरी दी गई और उनके चेहरे पर हज़रत-ए-यूसुफ़ का कुर्ता डाला गया।आँखों की रौशनी वापस गई।बड़े भाइयों ने कहा अब्बा हमें मुआ’फ़ करें हम बड़े ख़ता-कार हैं।उन्हों ने कहा मैं अल्लाह से तुम्हारे लिए मग़्फ़िरत तलब करूँगा और वही ग़फ़ूरुर्रहीम है।हज़रत-ए-यूसुफ़ ने वालिदैन को तख़्त पर बिठाया और सब सज्दा-रेज़ हो गए।हज़रत-ए-यूसुफ़ ने वालिद से कहा कि यही ता’बीर है उस ख़्वाब की जो मैंने बचपन में देखा था कि चाँद सूरज और तारे मेरे सामने सज्दा-रेज़ हैं।इस मक़ाला का मा-हसल ये चंद निकात हैं।

    अल्लाह वाले या’नी सूफ़िया चीज़ों की निस्बत अपनी तरफ़ नहीं बल्कि सिर्फ़ अल्लाह की तरफ़ करते हैं।ये बद-कारों से उनकी सत्ह पर कर बात करते हैं।उन पर अपनी बड़ाई नहीं जताते हैं।

    हर ख़ता-कार को शर्मिंदा करने के बजाय उसकी दिल-जूई करते हैं और उसकी ख़ता ज़ाहिर हो जाने पर उसके लिए मुआ’फ़ी तलब करने के बावजूद उसकी मुआ’फ़ी अल्लाह से तलब करते हैं।और बराह-ए-रास्त और अपने वसीला से उस बंदे को अल्लाह से मिला देते हैं।

    इन्सान के क़ल्ब की सफ़ाई,प्यार,मोहब्बत और सबसे ज़ियादा लिल्लाहियत के ज़रिआ’ कर के उसे इन्सानियत के में’राज तक पहुँचा देते हैं।

    फ़क़ीर ने इस मक़ाला में अंबिया को सूफ़ियों का सरदार लिखा है और मोहम्मद सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम को सूफ़िया का सरताज लिखा है।इस मुआ’मला को समझ लेना चाहिए कि अल्लाह पर यक़ीन रखने वाले चार तरह के होते हैं।

    सालिक: ये वो लोग हैं जो अल्लाह पर यक़ीन के साथ शरीअ’त पर अ’मल करते हैं।इम्कान भर अपने नफ़्स को कोताहियों से बचाते हैं और ग़लती हो जाने पर तौबा करते हैं।उनमें जज़्बा नहीं होता ये किसी दूसरे को फ़ाएदा नहीं पहुँचा सकते हैं।

    2- मज्ज़ूब: इन लोगों की जज़्बाती कैफ़ियत बढ़ी होती है और वो अल्लाह की मोहब्बत में इतने सरशार होते हैं कि वो मिस्ल पागलों के हो जाते हैं।इनसे आ’म आदमी को कोई दीनी फ़ाएदा नहीं पहुँचता है।

    सालिक-ए-मज्ज़ूब: इनमें जज़्बा कम होता है लेकिन होता है।ये मख़्लूक़ की रहनुमाई महदूद पैमाने पर करते हैं।

    4. मज्ज़ूब सालिक: ये अल्लाह की मोहब्बत में बिल्कुल सरशार होते हैं लेकिन मख़्लूक़ के सामने निहायत ख़ुश-अतवार,ख़ुश-मिज़ाज होते हैं ये अल्लाह की मख़्लूक़ से इंतिहाई मोहब्बत करने वाले होते हैं।यही सूफ़िया होते हैं। इनमें अफ़ज़लियत उम्मत-ए-मोहम्मदी सल्लल्लाहु वआलिहि वसल्लम को अ’ता हुआ है।मस्लन महबूब-ए-सुब्हानी हज़रत अ’ब्दुल क़ादिर जीलानी (रहि•) और महबूब-ए-इलाही हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया(रहि•) और वो सब सहाबा जो साबिक़ीन अव्वलीन में से थे।इनसे अफ़्ज़ल अंबिया-ए-किराम हैं जो अल्लाह के महबूब थे। ब-तुफ़ैल और महबूबियत-ए-मोहम्मद सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम उनको नबुव्वत और रिसालत भी अ’ता हुई है जिनके सदक़े में सबको महबूबियत मिली है।ख़ुद अहमद-ए-मुज्तबा मोहम्मद-ए-मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम सरताज-ए-सूफ़िया हैं।उनका क्या कहना कि वो तो अल्लाह के ऐसे नूर हैं जो बिला-विसातत अल्लाह ही से हासिल है।

    सवाल ये है कि इस्तिलाहात जो सूफ़िया में राइज हैं कहाँ से आई हैं। बात वैसी ही है कि जैसे ज़बान तो राएज होती है लेकिन क़वाए’द , नह्व-ओ-बलाग़त बा’द को मुरत्तब होते हैं और इस्तिलाहें बा’द को वज़्अ होती हैं। सूफ़िया तो हमीं से हैं लेकिन उनका नाम,उनके मर्तबे, उनके तरीक़ा-ए-कार के सिलसिला की इस्तिलाहें बा’द को वज़्अ की गई हैं।आख़िर बात फिर वही कहना है कि सब ता’रीफ़ तो अल्लाह या ईश्वर की है जो सारे जगतों का पालन-हार है। जिसका कोई साझी नहीं है जो निहायत रहम करने वाला मेहरबान है। जिसके सुपुर्द हम सब हैं लेकिन एहसास के साथ हमें अपने आपको उसके सपुर्द कर देना चाहिए। इसी में इन्सानियत की बक़ा है और बंदे की में’राज है

    (लखनऊ में मुनअक़िद होने वाले सेमिनार में पढ़ा गया)

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