बाबा फ़रीद के मुर्शिद और चिश्ती उसूल-ए-ता’लीम-प्रोफ़ेसर प्रीतम सिंह
तर्जुमा:अनीस अहमद फ़रीदी फ़ारुक़ी एम-ए (अ’लीग )
हज़रत शैख़ फ़रीदुद्दीन मसऊ’द गंज शकर रहमतुल्लाहि अ’लैह पंजाबी बुज़ुर्ग हैं जिन्हों ने ख़ानवादा-ए-आ’लिया चिश्तिया की मसनद-ए-सदारत को ज़ीनत बख़्शी। आप उन चंद नुफ़ूस-ए-क़ुदसिया में से एक हैं जिनकी मंज़ूमात को सिखों के मुक़द्दस सहीफ़े में बा-इ’ज़्ज़त मक़ाम दिया गया है। बाबा फ़रीद को पंजाबी शाइ’री का बावा-आदम भी माना जाता है।इसलिए कि आप ही ने सबसे पहले पंजाबी ज़बान को इज़हार-ए-ख़याल का ज़रिआ’ बनाया है।
इस मज़मून में एक ना-मुकम्मल सी कोशिश की गई है कि पहले ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी के सवानिही हक़ाएक़ के बिखरे हुए मोतियों को एक लड़ी में पिरो लिया जाए और फिर उन हक़ाएक़ से अख़्ज़ कर्दा निकात की रौशनी में मुरीद और मुर्शिद के उस बाहमी रिश्ते से मुतअ’ल्लिक़ बुनियादी और ज़रूरी बातों को समझा जाए जिसको क़ुरून-ए-वुस्ता में हिन्दुस्तान के सूफ़ी बुज़ुर्गों ने एक बेहतरीन तंज़ीम याफ़्ता सिलसिला के ज़रिआ’ क़ाएम किया था।
शैख़ क़ुतुबुद्दीन के सवानिही हक़ाएक़ को तैयार करने के लिए इस मज़मून-निगार को सिर्फ़ तीन किताबों या’नी अमीर हसन की ‘फ़वाइदुल-फ़ुवाद’, मौलाना हमीद क़लंदर की ‘ख़ैरुल-मजालिस’ और अमीर ख़ुर्द किरमानी की जामे’ तस्नीफ़ ‘सियरुल-औलिया’ पर इक्तिफ़ा करना पड़ा।
मज़ीद ये कि इन माख़ज़ में से कोई क़ुतुब-साहिब का हम-अ’स्र नहीं मा’लूम होता।‘फ़वाइदुल-फ़ुवाद’की तालीफ़ सन 1308 ई’स्वी में शुरूअ’ हुई और सन 1322 ई’स्वी में तक्मील को पहुँची।शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया(रहि.) जो इस किताब की मरकज़ी शख़्सियत हैं और जिन्हों ने कहीं-कहीं हज़रत शैख़ क़ुतुबुद्दीन का तज़्किरा बड़े एहतिराम से किया है, अपने मुर्शिद-ए-आ’ज़म को उनके ज़माना-ए-हयात में एक मर्तबा भी नहीं देख सके।हक़ीक़त ये है कि जिस वक़्त शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया(रहि.) ने अपने मुर्शिद शैख़ फ़रीदुद्दीन से पहली बार मुलाक़ात की है उस वक़्त शैख़ काकी (रहि.) का विसाल हो चुका था।
” ख़ैरुल-मजालिस’’ सन 1354 और सन 1355 ई’स्वी के दरमियान लिखी गई है।‘सियरुल-औलिया’ उस से भी बा’द को मुकम्मल हुई।
बहर-कैफ़ इन तीनों किताबों के मुसन्निफ़ीन को उनकी काविशों का अगर कोई सिला दिया जा सकता है तो वो ये है कि उन्होंने माख़ज़ तक रसाई में उ’मूमन बड़ी एहतियात, इंतिख़ाबी शुऊ’र और दियानत-दारी का सुबूत दिया है।
मुख़्तसर ये है कि इस मज़मून-निगार की इनसे ज़्यादा क़दीम और मो’तबर कुतुब तक रसाई नहीं हो सकी।
ज़ैल में शैख़ क़ुतुबुद्दीन के सवानिही तफ़सीलात से मुतअ’ल्लिक़ ज़रूरी बातों की एक सिलसिला-वार फ़िहरिस्त दी जाती है।उसको माख़ज़-ए-अव्वल या’नी फ़वाइदुल-फ़ुवाद के मुतालआ’ की रौशनी में तर्तीब दिया गया है:-
1۔ शैख़ ने अपने निकाह के तीन दिन के बा’द अपनी नई-नवेली बीवी को तलाक़ दे दी थी। शादी के ज़माने में बीवी से क़ुर्बत और उसका हुस्न आप पर इस तरह असर-अंदाज़ हुआ कि इ’बादत के मा’मूलात में ख़लल वाक़िअ’ हो गया था।और आपके असली मक़्सद-ए-हयात या’नी अज़्कार-ओ-अश्ग़ाल से तवज्जोह हटने लगी थी।
(मज्लिस 14/ रजब सन 413 हिज्री मुताबिक़ अक्तूबर सन 1313 ई’स्वी)
2- ग़ालिबन ज़ौजा-ए-सानिया के बत्न से आपके दो फ़र्ज़न्द एक साथ तव्वुलुद हुए थे।उनमें से एक तो कम-सिनी ही में इंतिक़ाल कर गया था, दूसरा बाप से मानूस नहीं हुआ और अ’लाहिदा रहने लगा था।
(मज्लिस 7/ ज़ीक़ा’दा सन 710 हिज्री मुताबिक़ मार्च सन 1311 ई’स्वी)
3- आपने क़ुबाचा को अख़लाक़ी इमदाद दी ताकि वो मुल्तान को ग़ैर-मुस्लिम हमला-आवारों (मंगोलों) की जारहियत से महफ़ूज़ रख सके।
(17/रजब सन 713 हिज्री मुताबिक़ अक्तूबर 1313 ई’स्वी)
4- आपने अपनी तदफ़ीन के लिए ख़ुद ही जगह मुंतख़ब की और मालिक को उस ज़मीन की पूरी क़ीमत अदा कर दी।
(17/ रमज़ान सन 722 हिज्री मुताबिक़ सितंबर 1321 ई’स्वी)
5-अवाख़िर-ए-उ’म्र में आप पूरा क़ुरआन-ए-मजीद हिफ़्ज़ करने में कामयाब हुए।
(2 शव्वाल सन 711 हिज्री मुताबिक़ फरवरी सन 1312 ई’स्वी)
6- हर रात को सोने से पहले तीन हज़ार मर्तबा दुरूद शरीफ़ पढ़ना आपके मा’मूलात में से था और उसकी मुवाज़बत फ़रमाते थे।
(14 रजब सन 713 हिज्री मुताबिक़ अक्तूबर सन 1313 ई’स्वी)
7- एक मर्तबा क़व्वालों की ज़बान से ये शे’र सुना:
कुश्तगान-ए-ख़ंजर-ए-तस्लीम रा
हर ज़माँ अज़ ग़ैब जाने दीगर अस्त
(या’नी रज़ा-ए-इलाही के ख़ंजर से क़त्ल किए गए लोग हर लम्हा ग़ैब से नई ज़िंदगी पाते रहते हैं)
इस से वज्द तारी हो गया।वज्द-ओ-कैफ़ियत का ग़लबा इस हद तक बढ़ा कि बेहोश हो कर गिर पड़े।मुतवातिर 4 दिन-रात आप इसी शे’र को बार-बार सुनते रहे।बिल-आख़िर वज्द-ओ-शौक़ के आ’लम में रक़्स करते हुए वासिल-ब-हक़ हुए।
(10 रमज़ानुल-मुबारक सन 715 हिज्री मुताबिक़ नवंबर सन 1315 ई’स्वी)
8-विसाल के वक़्त आपके ख़लीफ़ा-ए-मजाज़ शैख़ फ़रीदुद्दीन मौजूद नहीं थे।लेकिन आपने वसिय्यत फ़रमा दी थी कि मेरे इंतिक़ाल के बा’द ख़िलाफ़त की निशानियाँ या’नी ख़िर्क़ा,अ’सा,जा-नमाज़ और ना’लैन शैख़ फ़रीदुद्दीन को दी जाएं।
(18/ रबीउ’ल-अव्वल सन 718 हिज्री मुताबिक़ मई सन 1318 ई’स्वी)
इस क़लील मा’लूमात में ‘ख़ैरुल-मजालिस’ ने जो इज़ाफ़ा किया है वो दर्ज ज़ैल हैः
(1) शैख़ क़ुतुबुद्दीन तुर्किस्तान के क़स्बा ओश से कूच कर के यहाँ तशरीफ़ लाए थे।
(32वीं मज्लिस)
(2) अपने वालिद के इंतिक़ाल के वक़्त आप महज़ एक तिफ़्ल-ए-मकतब थे।
(33वीं मज्लिस)
(3) आप शैख़ फ़रीदुद्दीन मसऊ’द से मुल्तान में उस वक़्त मिले जब वो एक मस्जिद में दर्स-ए-किताब के मुतालआ’ में मशग़ूल थे।बा’द को वहीं आपने उनको अपना ख़लीफ़ा-ओ-जानशीन मुक़र्रर किया।
(65) वीं मज्लिस)
‘सियरुल-औलिया’ शैख़ की सवानिही तफ़सीलात से मुतअ’ल्लिक़ मुन्दर्जा ज़ैल मा’लूमात का इज़ाफ़ा करती है :-
(1) आप इतने ग़रीब थे कि इ’ब्तिदाई ज़माने में आपको अपने ख़ुर्द-ओ-नोश के लिए क़र्ज़ लेना पड़ता था।लेकिन बा’द में महज़ तवक्कुल और फ़ुतूह पर गुज़र बसर कर थे।
(2) आप माह-ए-रजब सन 522 हिज्री मुताबिक़ जुलाई सन 1138 ई’स्वी में बग़दाद की मस्जिद ‘इमाम अबुल-लैस समर्कंदी’ के अंदर ख़्वाजा मुई’नुद्दीन सिज्ज़ी (रहि.) के हल्क़ा-ए-बैअ’त-ओ-इरादत में शामिल हुए थे।
(3) आप हम-अ’स्र सियासी हुक्मरानों से बिल्कुल मेल-जोल नहीं रखते थे।आपने कई मर्तबा इल्तुतमिश का दरबारी बनने से इंकार किया। सिर्फ़ एक मर्तबा आपने ये अ’हद तोड़ा और वो उस वक़्त जबकि एक सरकारी ओ’हदा-दार ने ख़्वाजा मुई’नुद्दीन के फ़र्ज़न्दों को ईज़ा पहुँचाई तो आपने बल्बन के दरबार में जाकर उसको बर तरफ़ करा दिया।
(4) ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन की ख़िदमत में इस कसरत से लोग रुजूअ’ होने लगे कि शैख़ुल इस्लाम नज्मुद्दीन सुग़रा की शोहरत और वक़ार को ज़वाल होने लगा।ये देखकर शैख़ सुग़रा ने अपने क़दीम दोस्त और ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन की मुर्शिद ख़्वाजा मुई’नुद्दीन से सख़्त शिकायत की। ख़्वाजा मुई’नुद्दीन ने ये तय किया कि वो शैख़ सुग़रा की हैसियत को बरक़रार रखेंगे और ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन के मरकज़ को दिल्ली से अजमेर की तरफ़ मुंतक़िल कर देंगे।इस पर सुल्तान शम्सुद्दीन इल्तुतमिश और हज़ारों साकिनान ने गुजारिश की कि आप को दिल्ली ही में रहने दिया जाए।बिल-आख़िर हज़रत ख़्वाजा मुई’नुद्दीन को अपना इरादा मुल्तवी करना पड़ा और आपने उस शहर को शैख़ क़ुतुबुद्दीन की पनाह में छोड़ दिया।
(5) 14 रबीउ’लअव्वल सन 633 हिज्री मुताबिक़ नवंबर सन 1335 को शैख़ क़ुतुबुद्दीन का विसाल हुआ।
इन माख़ज़ से ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन से मुतअ’ल्लिक़ चंद और निकात की वज़ाहत होती है –
(1) आप नमाज़ के सख़्ती से पाबंद थे।हत्ता कि जब ज़ो’फ़-ओ-नक़ाहत से ग़शी तारी रहने लगे और नज़ाअ’ का वक़्त क़रीब आ पहुँचा, उस वक़्त भी बर-वक़्त नमाज़ की अदाएगी से ग़ाफ़िल नहीं रहे।
(2) आप पर इस्तिग़राक़ का इस क़दर ग़लबा था कि आपको अपने फ़र्ज़न्द की सेहत-याबी के लिए भी दुआ’ करने का ध्यान नहीं आया। हालाँकि बा’द में आप फ़रमाते थे कि अगर मैं उसके लिए ख़ुदा से ज़िंदगी तलब करता तो ज़रूर मिलती। शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया(रहि.) ने बड़ी हैरत और तअ’ज्जुब से कहा कि ये कैसी मश्ग़ूलियत थी हक़ीक़ी दोस्त के साथ कि आपने अपनी औलाद की ज़िंदगी और मौत तक को भुला दिया था।
(3) अवाख़िर-ए-उ’म्र में जब लोग आपसे मुलाक़ात करने आते तो थोड़ी देर के बा’द आप उनसे मा’ज़रत चाहते और फिर याद-ए-इलाही में मह्व हो जाते थे।
(4) एक दर्जा ऐसा आया कि”आप नींद से बे-ज़ार हो गए और हमा-वक़्त बेदार रहने लगे।आपने दिन और रात को बिल्कुल इ’बादत और याद-ए-इलाही के लिए वक़्फ़ कर दिया।
(5) आप सौम-ए-दवाम (मुतवातिर रोज़ा रखने) के क़ाइल न थे।शैख़ निज़ामुद्दीन (रहि.) फ़रमाते थे कि अगर ऐसा होता तो शैख़ फ़रीदुद्दीन अवाइल-ए-ज़िंदगी में ही उस पर अ’मल करते।दर-हक़ीक़त शैख़ क़ुतुबुद्दीन ने एक मर्तबा बाबा फ़रीद को भी चिल्ला करने से रोक दिया था क्योंकि ऐसा करने से शोहरत होती है।
यहाँ ख़्वाजा मुई’नुद्दीन के वो मुख़्तसर और जामे’ अल्फ़ाज़ याद आते हैं जो आपके लब-ए-मुबारक से उस वक़्त निकले थे,जब ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन के दिल्ली से अजमेर को हिज्रत करने के ख़िलाफ़ दिल्ली के अ’वाम के एहतिजाज करने से आपकी शोहरत और मक़्बूलियत मुसल्लम हो गई थी।शैख़ मुई’नुद्दीन ने देहली ही को मरकज़ बनाने की इजाज़त अ’ता फ़रमाई।मगर उस वक़्त इशारतन फ़रमाया था कि “उ’ज़्लत-गुज़ीनी को तर्जीह दी जाए”।शैख़ क़ुतुबुद्दीन ने जवाबन आपको यक़ीन दिलाया कि उनको न तो रिया-कारी और ज़ाहिर-दारी पसंद है और न शोहरत कमाने की हवस है।
शैख़ क़ुतुबुद्दीन ने बाबा फ़रीद को तैय के रोज़े रखने की हिदायत फ़रमाई और ये कि जो कुछ ग़ैब से मिले उसी से रोज़ा इफ़्तार किया जाए।
(6) कहते हैं कि शैख़ क़ुतुबुद्दीन (रहि.) ने बाबा फ़रीद को चिल्ला-ए-मा’कूस करने की हिदायत फ़रमाई थी। ये बड़ी सख़्त रियाज़त थी जो चालीस दिन तक जारी रही थी।ये वाज़ेह नहीं होता कि आया शैख़ क़ुतुबुद्दीन ने हज़रत बाबा फ़रीद की क़ुव्वत-ए-सब्र-ओ-बर्दाश्त, अहलियत और जमई’यत-ए-ख़ातिर का इम्तिहान लेने की ग़रज़ से ये हिदायात दी थीं या ये उन सलाहियतों और ख़ूबियों को उनके अंदर पैदा करने का एक ज़रिआ’ था।
(7) बयान किया जाता है कि अभी शैख़ नौ-जवान ही थे और क़स्बा-ए-ओश से बाहर निकले भी न थे कि आपने कोई वज़ीफ़ा मुक़र्ररा ता’दाद में किसी मख़्सूस मक़ाम पर इस नियत से पढ़ना शुरूअ’ किया था कि ख़्वाजा ख़िज़र अ’लैहिस्सलाम से आपकी मुलाक़ात हो जाएगी।लेकिन इस वज़ीफ़ा का हरगिज़ ये मक़्सद नहीं था कि इसके ज़रिआ’ माल-ओ-दौलत हासिल हो जाए ताकि उनका क़र्ज़ा जल्द अदा हो सके।
बा’द में जब आप सिन-ए-बुलूग़ को पहुँचे तो मलिक इख़्तियारुद्दीन ऐबक अमीर-ए-हाजिब ने कुछ नक़्द रक़म ब-तौर-ए-नज़राना आपको पेश की।मगर आपने उसको क़ुबूल नहीं फ़रमाया।
‘सियरुल-औलिया’ के मुसन्निफ़ ने आपकी क़नाअ’त और इस्ति़ग़्ना का बयान करते हुए ये करामत भी बयान की है कि हाजिब ने जब आपके मुसल्ले के नीचे नज़र डाली तो सोने की नहर जारी नज़र आई।
आपको मौसीक़ी का आ’ला ज़ौक़ था और फ़न्न-ए-शाइ’री के क़द्र-दान थे।
(8) यहाँ शैख़ क़ुतुबुद्दीन रहमतुल्लाहि अ’लैह के कश्फ़-ए-बातिन की दो मिसालें दी जाती हैं।एक तो बाबा फ़रीद को अपना ख़लीफ़ा-ओ-जानशीन मुक़र्रर करते वक़्त आपने उस सलाहियत का मुज़ाहरा किया।दूसरे जब शैख़ जलालुद्दीन तबरेज़ी रहमतुल्लाहि अ’लैह आपके मकान की तरफ़ आ रहे थे और ग़लती से एक तंग और कज-मज रास्ता पर चल पड़े थे तो आपने उनको आगाह किया था।
(9) अल्लाह तआ’ला ने आपको क़ुव्वत-ए-मुमिय्य्ज़ा और क़द्र-शनासी की सलाहियत से नवाज़ा था।
शैख़ बदरुद्दीन ग़ज़नवी जो आपके क़दीम रासिख़ुल-ए’तिक़ाद और ज़ी-इ’ल्म मुरीदों में से थे और हमेशा आपकी सोहबत में रहा करते थे आपके फ़रमाने पर बाबा फ़रीद के हक़ में दा’वा-ए-ख़िलाफ़त-ओ-जानशीनी से दस्त-बरदार हो गए।हालाँकि बाबा फ़रीद महीना का सिर्फ़ एक अ’श्रा अपने मुर्शिद-ओ-मुअ’ल्लिम की ख़िदमत में गुज़ारते थे और बक़िया अय्याम में देहली से बाहर रहते थे।
(10) आपकी तबीअ’त में लतीफ़ मिज़ाज भी था।आप एक ही मर्तबा सुल्तान शम्सुद्दीन इल्तुतमिश से मुलाक़ात करने तशरीफ़ ले गए। आपको देखकर अवध के हाकिम रुकनुद्दीन हलवाई ऐसी जगह बैठ गए जो आपकी निशस्त-गाह से बुलंद थी।उनकी इस हरकत पर सुल्तान को ग़ुस्सा आ गया मगर आपने ब-तौर-ए-मज़ाह फ़रमाया जब कभी काक (रोटी) और हल्वा एक जगह जम्अ’ होते हैं तो हल्वे को हमेशा रोटी के ऊपर ही रखा जाता है”।
मज़्कूरा बाला मा’लूमात अगर्चे क़लील है लेकिन ये अंदाज़ा लगाने के लिए काफ़ी है कि चिश्ती तरीक़ा-ए-ता’लीम की एक इम्तियाज़ी ख़ुसूसियत ये थी कि उसमें मुअ’ल्लिम या मुर्शिद को मरकज़ी हैसिय्यत हासिल थी।शागिर्द या मुरीद के लिए वो सब कुछ था और उसको कुल्ली इख़्तियारात हासिल थे।मुअ’ल्लिम या मुर्शिद ही निसाब-ए-ता’लीम मुतअ’य्यन करता था। वही कुतुब-ए-दरसिया तज्वीज़ करता था।वही मुरीद या शागिर्द के लिए अ’मली इम्तिहानात की अक़साम और उनकी मुद्दत मुक़र्रर करता था।और वही हक़ीक़ी मा’नों में ता’लीम का काम अंजाम देता था और उसकी निगरानी करता था।तमाम इम्तिहानात का तरीक़ा वही तज्वीज़ करता था।सज़ा देना और इ’नआ’म की तक़्सीम भी उसी के हाथ में थी।तरक़्क़ी या तनज़्ज़ुली के अहकाम भी वही जारी करता था।मुर्शिद को ये भी इख़्तियार था कि वो तहसील-ओ-तक्मील-ए-इ’ल्म की निशानी या’नी दस्तार-ओ-ख़िलअ’त पहनने का मजाज़ करे और सनद अ’ता कर के ए’ज़ाज़ में इज़ाफ़ा करे।अल-ग़र्ज़ मुर्शिद के इख़्तियारात तालिबान-ए-राह-ए-सुलूक-ओ-तसव्वुफ़ पर ऐसे अहम,नागुज़ीर, अफ़ज़ल और आ’ला थे कि उनका कोई दूसरा मुक़ाबला नहीं कर सकता था।
मुरीद को इस तरह तर्बियत दी जाती थी कि वो मुर्शिद के वजूद की ज़रूरत और जवाज़, लियाक़त और सलाहियत पर कामिल-ओ-रासिख़ अ’क़ीदा रखे और उसका एहतिराम करे।उससे उम्मीद की जाती थी कि वो मुर्शिद की मुताबअ’त या इताअ’त को बे-चूँ-ओ-चरा क़ुबूल करेगा।मुर्शिद की मुकम्मल रहनुमाई उसी शख़्स को हासिल हो सकती थी जो बद-ज़ौक़, नुक्ता-चीन, मो’तरिज़ और मुफ़सिद न हो।किसी बद-अ’क़ीदा, गुमराह या इख़्तिलाफ़ करने वाले को ख़ानक़ाह में दाख़िल करना ख़ानक़ाह के आदाब और तंज़ीम के मुनाफ़ी तसव्वुर किया जाता था।
चिश्ती तरीक़ा-ए-ता’लीम की एक और अ’हम ख़ुसूसियत ये थी कि उसमें मुर्शिद और मुरीद के दरमियान गहरे और क़रीबी रिश्ते और राब्ते पर ज़ोर दिया जाता था।ख़ानक़ाह में दाख़िल होने वाले अक्सर उम्मीदवार अपना पूरा वक़्त वहीं रह कर गुज़ारते थे।उसका नतीजा ये होता था कि मुर्शिद बड़ी आसानी के साथ मुरीदों की ता’लीमी रफ़्तार और ज़ेहनी रुजहान पर नज़र रखता था और उनके रोज़-मर्रा मा’मूलात और बरताव को बड़े क़रीब से देख सकता था।जब मुर्शिद को मुरीद की अहलियत-ओ-सलाहियत पर पूरा ए’तिमाद हो जाता था कि अब ये अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है तो उसको मदरसा तर्क कर देने की इजाज़त दी जाती थी और हिदायत की जाती थी कि वो अपनी ख़ुद तर्बियत करे।मगर शर्त ये थी कि मुरीद वक़्तन फ़-वक़्तन मुर्शिद को अपनी तरक़्क़ी के बारे में मुत्तला’ ज़रूर करता रहे।
चूँकि सिलसिला-ए-ता’लीम मुद्दतुल-उ’म्र जारी रहता था इसलिए जब मुरीद का मुर्शिद से रिश्ता क़ाएम हो जाता था तो वो हमेशा बाक़ी रहता था।मुर्शिद और मुरीद ज़िंदगी में एक ऐसी मुमताज़-ओ-मुंफ़रिद हैसियत रखते थे कि उनके जुमला हुक़ूक़-ओ-फ़राइज़ महफ़ूज़ रहते थे।मुरीद ख़ाह मुर्शिद के घर ही का आदमी क्यों न हो इस बात को मलहूज़ रखता था कि ख़ल्वत-ओ-जल्वत में मुर्शिद के और उसके दरमियान फ़र्क-ए-मरातिब और इम्तियाज़ रहे और उसका अदब किया जाए।
चिश्ती ता’लीम का रुजहान,उसूल और उस पर ज़ाती अ’मल की तरफ़ था और तरीक़ा-ए-ता’लीम मिसाली और वाक़िआ’ती था। मुतक़द्दिमीन-ए-शुयूख़ की ज़िंदगी के मा’मूली वाक़िआ’त से भी अख़लाक़ी दर्स हासिल किया जाता था।मुर्शिद ख़ुद एक माहिर मुक़र्रिर होता था और उसकी तक़रीर से उन वाक़िआ’त की असर-अंगेज़ी में और भी इज़ाफ़ा होता था।
मुर्शिद के ज़ेहन में ये बात वाज़ेह और रौशन होती थी कि जो ता’लीम-ओ-तर्बियत मुरीद को दी जा रही है उसका मक़्सद मुरीद के बातिन में अक़दार-शनासी का ऐसा जौहर पैदा करना होता है जिसके ज़रिआ’ वो बातिनी या हक़ीक़ी के मुक़ाबले में ज़ाहिरी की बाक़ी के मुक़ाबले में फ़ानी की और रुहानी के मुक़ाबला में माद्दी और जिस्मानी क़द्रों की नफ़ी कर सकेगा।ये कोई मामूली नसबुल-ऐ’न न था और न इसका हासिल करना इतना सहल था।इसलिए मुर्शिद ने निज़ाम-ए-ता’लीम को कुछ इस तरह क़ाएम किया था कि उसके ज़रिआ’ मुरीद का जिस्म-ओ-दिमाग़, अ’क़्ल,दिल और रूह ब-यक वक़्त मसरूफ़-ए-कार रहते थे।क़ुरआन-ए-मजीद का दक़ीक़ मुतालआ’, मुजव्वज़ा कुतुब-ए-दरसिया मस्लन अ’वारिफ़ुल-मआ’रिफ़ का दर्स,अ’रबी और फ़ारसी ज़बानों में लियाक़त, फ़िक़्ह-ओ-हदीस की तहसील, कस्ब-ए-हलाल,बे-लौस ख़िदमत,ज़ुहद-ओ-तक़्वा, सौम-ओ-सलात, रियाज़ात-ओ-मुजाहिदात, अज़्कार-ओ-अश्ग़ाल, तवज्जोह-ओ-मुराक़बा समाअ’ और शाइ’री ऐसे ज़राए थे जिनकी बदौलत तज़्किया-ए-नफ़्स और तस्फ़िया-ए-क़ल्ब का अ’मल जारी रहता था।यही अ’मल जुज़ को बेदार कर के कुल से वासिल होने की तरफ़ रहनुमाई करता था।इसी नफ़्सियाती दर्जा तक पहुंचने के बा’द मुर्शिद का इरादा मुरीद के इरादे में ज़म हो जाता था और यही वो मंज़िल है जिसके बयान से अल्फ़ाज़ आ’जिज़ हो जाते हैं।
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