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बिहारी-सतसई की प्रतापचंद्रिका टीका - पुरोहित श्री हरिनारायण शर्म्मा, बी. ए.

नागरी प्रचारिणी पत्रिका

बिहारी-सतसई की प्रतापचंद्रिका टीका - पुरोहित श्री हरिनारायण शर्म्मा, बी. ए.

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    रोचक तथ्य

    Bihari-Satsai ki Partapchandrika teeka, khand-10

    (प्रारंभ के कुछ अंश)

    श्रीगणेशाय नमः

    श्री महाराजाधिराज महाराजा श्रीसवाई प्रतापसिंह-चंद्रिका लिख्यते

    छप्पय

    श्री गनपति तुव चरन सरन द्विज वरुन करुन करि।

    देवन के दुष दरन करन सुष भरन भाव धरि।।

    अमरन पददानरन परन धारत बहु भागह।

    ररत नाम सुभ धरन तरन भवसागर लागह।।

    भागवत हरन जडता टरन मेधा करन बषान बर।

    भनि मनीराम कर जोरि कै जयति जयति सुत गवरि कर।।1।।

    अथ राजवंश वर्णन

    छप्पय

    सूरज कुल दसरत्थ सत्य देवन सहाय हुव।

    तिन रघुवर वर गत्थ पत्थ पालक समत्थ भुव।।

    लका कत्थ अकत्थ रत्थ सज्जै सब अगह।

    लत्थ वत्थ हुथ आथ जत्थ जच्छन सौ जगह।।

    नैरत्थ नत्थ दम मत्थ के सत्थ कट्टि सत्थह सरनि।

    भनि मनीराम नर नाग सुर को सक्कै तिह कुल बरनि।।2।।

    प्रथीराज तिन तनय भारमल तिन भगवत हुव।

    मानसिंह जगतेस तनय पुनि महासिंह भुव।।

    जय साहसु नृप राम कुँवर तिनके किसनेस सु।

    विसनसिंह जयसिंह सवाई माधव बेस सु।।

    परतापसिंह नरनाथ पति ध्रुव लौं भुव राजसु लहौं।

    भनि मनीराम नृपनाह क्रम सुवन भुवन जस कवि कहौं।।3।।

    प्रथु समान प्रथिराज राज भुव साज सुवारन।

    धरमराज सुभकाज लाज कूरम कुल धारन।।

    भूपन कौ जु समाज तहाँ सिरताज आज कहि।

    राजराज सम विभव बढ़त आवत अवाज लहि।।

    बरवाज राज गजराज अरु जटित साज नग जगमगत।

    भनि मनीराम कविराज जे लहत सुवे सनि जस जगत।।4।।

    प्रथीराज तन तेज भयउ कूरम-कुलमंडन।

    भूप भारमल सुभट सराहत हैं भुजदंडन।।

    डट्टन अरि को तेज अनी कट्टन भुव पट्टन।

    तिन पट्टन बेहाल भगत अग बट्टनि घट्टन।।

    पट्टन सुकृत्य बट्टन सुधन भट्टत जगजस जय ललनि।

    भनि मनीराम रघुवंश के को बरनै गुन के गननि।।5।।

    मृदुल गात जलजात-पात से अति मुरझाने।

    लगत बात जिमि घात जात मग पट उरझाने।।

    तात मात उच्चरत सात सुप आस नही फिरि।

    देव षात छिपि जात तजे तन जात बसी गिरि।।

    निदत विधात अकुलात यह बात ख्यात तिनकी जु तिय।

    भनि मनीराम भगवंत नै हनि अरात गुजरात लिय।।6।।

    मान नृपति कुल भान गॉन हिंदुवान नाथ वर।

    पुरासान हय सान देस मुलतान लियनु कर।।

    दिसि कुबेर कल कान थान तजि कैं परान अरि।

    ब्रह्मपुत्र वे मान दान दै तोरि आन तरि।।

    बस करि असाम किरवान लहि पान न्हान सागर कियौ।

    भनि मनीराम सतसठि समर जिन जित्तै सम को वियौ।।7।।

    लाज जजीरन जरे अरे इभ-से मतवारे।

    दुगा उगा ठाहत भुगा भूके भट भारे।।

    अति उदड भुजदड पड अरि के जु अमानै।

    चड मुड से चड बडे बलवड बपानैं।।

    ऐसे पठान जग जु जुरे सज्जि सैन बनि मान कौ।

    भनि मनीराम जगतेस नै ते पठए जम थान कौं।।8।।

    बैरिनु की बर बाल लाल तजि कै तन तूले।

    टूटी माल प्रवाल भाल के भूपन भूले।।

    बनत माल की डाल जाल जिन मैं छिपि जाहीं।

    दुप बिसाल बेहाल काल तिहिं सषि मग नाहीं।।

    जे हाल काल के गाल में परे सु ते सनमुष लरै।

    भनि मनीराम नरमाह श्री महासिह जस भू करै।।9।।

    विदित जगत जयसाह हिंद नरनाह बाह बल।

    सज सिपाह जिहि राह निकट करि दाह बलक हल।।

    करि उछाह चित चाह साह थप्पै रु उठावै।

    करत मीर सल्लाह पाह के आहन पावै।।

    अवगाह राह दिल्ली सदल ताहि सिवाहि सुषकरि लिय।

    भनि मनीराम साहहि दिपै जीवदान दिय छाँडि दिय।।10।।

    कूरम कुल अवतस हस के बस उजागर।

    रामसिंघ नरनाह सूग्ता जस कौ सागर।।

    जित्ति लई आसाम बाम निज नाम सुक्न्हिव।

    मार धार बस करिय हार बत्तर बर लिन्हव।।

    काबिन गुमान पट्टान हनि नृपति मान जिमि आन किय।

    भनि मनीराम सिवराज की साह पात तै कढिढ दिय।।11।।

    कुँवर किसनसिंष भए राम नृप कै सथ लायक।

    सिबकै भौ बिसनेस भांवती भू को नायक।।

    भुजॉ पान बलवान आन हिंदुन की राषै।

    दान विधान कृपान सबै जगती जस भाषै।।

    सुलतान पान मन भान ही नृपति आन हुकमी रहैं।

    भनि मनीराम कुल भान घर मान मौज सबही लहैं।।12।।

    प्रजापाल सुख जाल भयउ भुवपाल सवाई।

    श्री जयसिंघ दयाल भाल में अति अधिकाई।।

    हाल इहीं कलि काल चाल त्रेता की चालै।

    साल सत्रु को काल ढाल ह्वै धर्महि पालै।।

    लपि वेद भेद अति पेद करि अश्वमेद जज्ञ सु किए।

    भनि मनीराम रघुवंश की रीति दान विप्रन दिए।।13।।

    माधवसिंघ नरेस देस देसन में जाहर।

    श्री रघुबर की रीति बानविद्या नर नाहर।।

    सफतर जंग उमंग जंग दिल्ली सौं कीनौं।

    सार भार भुज भार राषि पतिसाह सलीनौं।।

    अस कूरम कुल मंडन बरहि कलस सुजस जगमग करत।

    भनि मनीराम मन काम के अरथनि दै सबको भरत।।14।।

    टूटत बन घन सरस सरित दीरघ जल सुक्कत।

    हय पुरतार पहार छार तैं दिनकर लुक्कत।।

    दुगा उगा दहलात दुवन आसा प्रति लग्गहि।

    तज माह ग्रह बाल जाल बेहाल सुमग्गहि।।

    आमेरिनाथ कूरम कलस सहजहि मृगया कों बढ़त।

    राजाधिराज परताप सिंघ मनीराम सुजस हि पढ़त।।15।।

    कवित्त

    कूरम कलस श्री सवाई परतापसिंघ,

    भूपनि की मनि मनीराम सुनि गत्थ है।

    गावत सुछद के प्रबध कवि वृ दवर,

    बिचरैं सुछद देस देस जस सत्थ है।।

    सुनि अरि इदन कै बाढ़ैं दुष दद बहु,

    मोद को निकद होत मानि सम पत्थ है।

    माधवेस नद ऐसौ बपत विलद भलो,

    आनँद कौ कद हिंदुपालक समत्थ है।।16।।

    अथ कविवश वर्नन

    दोहा

    अनँगपाल नृप बस के पूज्य सुरेषा राम।

    तिनके तनय मुकुद जू विद्या धन के धाम।।17।।

    मनीराम तिनके तनय राज इंद्रगिरि सेय।

    पाई विद्या मान धन सुजस सु कहत अमेय।।18।।

    विदित जगत आँबेरिपति राजन के राजासु।

    श्रीप्रतापसिघ हुकुम लहि बरनत हौं अब तासु।।19।।

    अथ ग्रंथप्रसंसा

    दोहा

    श्री जैसाहि सुनृपति कौ हुकुम बिहारी पाथ।

    सतसैंया ऐसो कियो रह्यो जगत में छाय।।20।।

    अनवरषाँ टीका कियो ताको प्रकरन लाय।

    मत जो काव्य प्रकास कौ सास्त्र अर्थ दरसाय।।21।।

    भंडारी अमरेस हो मारिवारि के राज।

    तिन टीका अच्छिर अर्थ कियो सुजस के काज।।22।।

    टीका और अनेक हैं किय अपनी रूचि पाय।

    अनवर को अरु अमर कौ सगति लेष लगाय।।23।।

    अनवर लेष जु दूसरौ दोहा का इकतीस।

    जो अनवर को तीसरौ अमर सोरूं छब्बीस।।24।।

    ऐसे खंड विहंड हैं दोहा सबही और।

    सास्त्र अरथ अच्छिर अरथ सो कीजै इक ठौर।।25।।

    अलंकार अर अर्थ जहँ सो उपजै अधिकाय।

    यों ग्रंथनि की सापि तै सोऊ लिषौं बनाय।।26।।

    सबल निबल दोऊन के अलंकार सम भाय।

    तेऊ धरिए ग्रंथ की ज्यों सोभा सरसाथ।।27।।

    अथ अलंकारप्रसंसा कविप्रियायां यथा

    दोहा

    जदपि सुजाति सुलच्छिनी सुवदन सरस सुवृत्त।

    भूषन बिना राजई कविता बनिता मित्त।।29।।

    भाषाभूषन टीकायां हरिकवि यथा

    दोहा

    शब्द अर्थ करि कहत हैं जो रस को उपकार।

    भूषन जैसे जीव कौं ते कहिए अलंकार।।30।।

    सुरगुरु सम कवि सम सुकवि महाराज कैं नेक।

    सबको समत लहि करत मनीराम सुविवेक।।31।।

    अलंकार प्राचीन कवि दुहुन धरे सुषदाय।

    ते प्रमान अब और हू लिषियत सो चित लाय।।32।।

    बहु संकर संसृष्टि बहु सुद्ध कहो इक ठौर।

    प्राचीनरु नूतन मिलैं लषौ सुकवि सिरमौर।।33।।

    अष्टादस व्यालीस (1842)भनि संवत माधव मास।

    सुकल पच्छ गुरु पंचमी किय चंद्रिका प्रकास।।34।।

    अथ ग्रंथ सूचनिका

    छप्पै

    प्रथम सुनृप नृपवस, द्वितिय साधारन जानौं।

    सिप नष तीजै, तुर्य भेद मुग्धादि बषानौं।।

    अष्ट नायका पँचै, छठै रूपादि गर्वितहि।

    सातै माननि सुरति, आठवै नव परकिय कहि।।

    दस दसा सात्विक, सुग्यारहै मद्य पान द्वादस कही।

    तेरहैं हाव, रस चौदहैं, पचदसै षट रितु लही।।35।।

    दोहा

    प्रस्ताविक अन्योक्ति ये षोडस प्रकरण जानि।

    मनीराम अनवर सुकृत सूचिनका उर आनि।।36।।

    सबद अरघ भूषन अधिक तिनकी सष्या जानि।

    भूपति भूप प्रताप अरु अमरु सु उत्तर मानि।।37।।

    अलेमान के बस में फलेमान अवतस।

    इगरेज एरीस अरु इसका चसुता अस।।38।।

    ईतलि आन अमान अति, सेवैरिया वरवानि।

    कास्तलि आन प्रमान किय इसपियोल मन मानि।।39।।

    रूसी और पुरुस है बल देज धरि चित्त।

    फेर वषानत हांबसा अरु गिरेग गनि मित्त।।40।।

    फरासीस रुस ईस है अरु अरमनी निहारि।

    दीनमार सुकेस कै कहत चतुर चित धारि।।41।।

    पुरतगेज सवतै सिरै अलगरावि तिन मांहिं।

    मासमवीक सु औरहू लषै फिरगी आंहिं।।42।।

    ऐसे जाति फिरगियन पुरतगेज इक बस।

    मालवेस देमीलवा नाम सुककुल अवतस।।43।।

    तिनके पुत्र सु पेदरू देसीलवा वषानि।

    विद्यानिधि नर मैं दया जीव मात्र रुज जानि।।44।।

    सावीयर देसीलवा तिनके सुत प्रगटेसु।

    अरबी और फिरंगि मैं और फारसी देसु।।45।।

    ज्योतिष न्यायरु व्याकरन साहित काव्य प्रकास।

    अंग सहित ताकौ सबै विलसत बुद्धि बिलास।।46।।

    महाराज कूरग कलस श्रीपरताप नरेस।

    जिनके है सुहकीम तो बिदित सबन ही देस।।47।।

    महाराज की चंद्रिका लषिकै बहु विस्तार।

    अलप बुद्धि साहित्य मैं तिनको यह उपगार।।48।।

    अब ऐसे यह कीजिए लक्ष जु दोहा देषि।

    जे लक्षन जानत सु वे क्यौं बोचैं यह लेषि।।49।।

    मनीराम लहिकैं हुकरा कीनौं लघु विस्तार।

    जे प्रवीन साहित्य में तिनकी है सुषसार।।50।।

    इति श्रीमहाराजधिराज महाराजा श्रीसवाई प्रतापसिंघ चंद्रिकायां राजवंस कविवंस वर्ननं नाम प्रथमो प्रकासः।।1।।

    अथ बिहारी कृत सतसई टीका लिख्यते

    दोहा

    मेरी भव बाधा हरौ राधा नागरि सोय।

    जा तन की झॉई परै स्याम हरित दुति होय।।1।।

    टीका- आसीर्वादत्मक मंगलाचरन है। यामैं देवरति भाव ध्वनि।। विपमालंकार शलेषाभाव है।। कारन को रंग और ही कारज औरै रंग। यह विषमालंकार कौ वियौ भेष छबि संग।। अमर।। प्रथम मंगलाचरन यह कवि की विनती जानि। प्रगटत अपनी अधमता अधिकाई धुनि आनि।। जितौ अधण तितनी बड़ी भवबाधा यह अर्थ। उहि हरिबे कों चाहिए कोऊ बड़ो समर्थ।। नर बाधा कौं सुर हरत सुरै बाधा ब्रह्मादिं। ब्रह्मादिक की बाध कौं हरत जु स्याम अनादि।। लषि राधा तिन स्याम की बाधा हरति कोय। थातै मो बाधा हरौ राधा नागरि सोय।। जिनके इक छिन बिरह मैं स्याम विकल बिलपात। पुनि तिन तन झॉई परै होत डहडहो गात।। बाबा त्रिभुवननाथ की हरन जोग जे आहि। तेई मोसे अधम की बाधा हरौ निबाहि।। इहिं बिधि सरतोषर परम इष्ट जानि सुष कर्म। यातैं इनहीं कौ धरयौ प्रथम मंगलाचर्न। अलंकार इहि अर्थ मैं काव्यलिंग है जानि। अब ताकौ लच्छन सुनौं प्रथम गत चित आनि।। काव्यलिग सामर्थता जहँ दृढ़ करत प्रवीन। ह्यॉ भवबाधा हरन की द्रढ़ समर्थता कीन-द्वितीय अर्थ-मेरी भव बाधा हरौ राधा नागरि सोय। कैसी हे तिनकै सुनौ इमि बखान कवि लोय।। जा तन की झॉई परै नैक ध्यान मैं आय। दूरि होय स्यामत्व तम दुति जु सत्व अधिकाय।। इहॉ हू सामर्थता द्रव्य दिषाई यातै काव्यलिंग है।।--तृतीय अर्थ—वे राधा बाधा हरौ पीत रग उद्योत। जिनकी तन झॉई परै स्याम हरित रँग होत।। यहां हेत अलंकार है ताकौ लक्षण। हेत सहित कारज जहॉ कहैं हेत कविराज। प्रिया पीत रँग स्याम पिय हेतु हरिति रँग काज।। राधानागर यौं पाठ होय तौ श्रीकृष्णन अर्थ—वे मेरी बाधा हरौ राधानागर सोय। जिनके सुमिरत नैक ही इतौ महाफल होय।। जिन तन की झॉई परै स्याम ध्यान मैं आइ। हरि के तत्षुत होय वह सारूपहि कौ पाय।। इहा तद्गुणालंकार लक्षण। तदगुन निज गुन तजि जहॉ औरै गुन लपटाय। हरि झॉई तै हरि भयौ अपनौ रूप नसाय। औरहु अर्थ अनेक विधि करन मंगलाचर्न। कहे भय विस्तार कै सुनहु सुकवि सुपकर्न।। श्रीप्रताप- अनवर नै देवरति भाव-ध्वनि लिषी ताकौ यह भेद। जो कवि की प्रतीति देवता को अथवा राजा कौ मुनि कौ इत्यादिक कै वर्नन होय सो भावध्वनि कहिए यह भेद। और श्लेष भास लिष्यौ है सो आभास वाकौं कहिए। दीसै अरु होय नहीं। मो यहाँ भव शब्द में श्लेषाभास है। भव के अर्ध बहुत है। भा संकर संसार भव, भव कहिए कल्यान। भव जु जनम, जब सफल तब भजि लीजे भगवान।। असरे------- बह्रिर्जन्सहरौ भवौ। काव्यलिंग अलंकार अमर ने लिष्यौ सो हैही। विषमालंकार हू जाय नहीं।।1।।

    साधारण नायिका वर्णन

    दोहा

    लहलहाति तनु तरनई लफि लगलौं लचि जाय।

    लगै लाँक लोयन भरी लोयन लेत लगाय।।2।।

    टीका- उक्ति नायक की स्मृति संचारी, उपमालंकार, कोमलावृत्ति है। अरु लोयन लगाय या पद मैं लक्षण है।। उपमान रु उपमेय पुनि ध्रम रु बाचक होय। ये चारों होवैं जहाँ पूरन उपमा होय।। जहॉ वृत्य अनुप्रास में गुन माधुर्य प्रकास। तहाँ कोमला वृत्य है बरनत बुद्धिविलास।। कोमला परुषा उपनागरिका वृत्यानुप्रास ही मैं होय, छेका में नहीं।। द्रवै चित्त जाके सुनत अति आनंद प्रधान। सु है मधुरता रसुन क्रम प्रथम सरसई ऑन-अमर-पूरनोपमालंकार। लक्षण। उपमेय सु लोयनभरी लग उपमान विचारि। लौ वाचक लफनौं धरम पूरन उपम निहारि।। लोइन शब्द दोय बार कह्यौ तातैं जमकालंकार हू होय है। अर्थ भिन्न है। लोइन नेत्र।। लोइन लावन्य। श्रीप्रताप- लोयन लगाय या पद मैं लक्षण है। अनवर मैं लिषी है सो लक्षण वासौं कहैं हैं। अक्षरन को अर्थ बनै और मिलतौ अर्थ बनाय लीजिए। सो लोयन लगायवौ नहीं संभवै है सो नेत्रन को चाह ही रहै है देषवे की। यह अर्थ संभव है।।2।।

    दोहा

    तज भूषन अंजन द्रगनि पगन महावर रंग।

    नहिं सोभा कौं साजियत कहि एहो कौ अंग।।3।।

    टीका- जो सषी की उक्ति होय तौ स्तुति-व्यंग। जो नायका की उक्ति होय तौ रूपगर्विता। जो नायक की उक्ति होय तौ गुन कथन व्यंग। वक्रिबोधव्य है। मीलति अलंकार है। सदृश वस्तु मैं भेद लहै, जिहि थल कविजन मीलति कहैं। मीलतिसम इनकौ एक बाचकानुप्रवेस सकर। तुल्यथोगिता की ससृष्टि। अमर-रूप गर्विता के बचन सोभा कहिबे माहिं। कहि एहो के अग तौ अग सुहागिल ठाहिं।। मीलति अलंकार।। श्रीप्रताप-तन भूषन तुल्य योगिता। सम। हमही सौं। लक्षण। अलंकार-रत्नाकरे-होय अवर्न्यक वर्न्य कौं एकै धर्म समान। नहिं सोभा कौ साजियत धर्म की समता (मान)।। अलंकार सम तीन विधि जथा जोग को सग। तन भूषन इत्यादि तै जथाजोग को संग।।3।।

    दोहा

    पचरँग रँग वैंदी परी उठी ऊगि मुष जोति।

    पहरै चीर चिनौंठिया चटक चौगुनी होति।।4।।

    टीका- जो सषी की उक्ति होय तौ नायक सौं रुचि उपजावति है। जो नायक की उक्ति होय तौ गुनकथन। स्वभावोक्ति अलंकार। (लक्षण) जैसो जाकौ रूप रँग बरनौं तैसो साज। कोमलावृत्ति। द्रवैचित्त इति पूर्वांक्त। अमर प्रश्न-पचरँग रँग पुनि शब्दवटि इक यह प्रश्न सुजानि। दूजै चौगुनि घटक मिलि प्रश्न सुतीनि प्रमानि।। (परी चटक अरु चौगुनी प्रश्न सुतीनि प्रमानि)।। उत्तर- केहु तिय पिय सों रँग भयौ साज्यौ सरस सिंगार। तहँ सषि सौ सषि कौ वचन कहत सु इहि परकार।। इक मुष दुति दूजै परी भई रग पिय पाय। तीजै बैंदी चीर लहि चटक चौगुनी गाय।। इहां अनगुन अलंकार है। लक्षण। अनगुन जब संगति भयै पूरब गुन सरसाय। एक चटक सौं चौगुनी भई रंग पिय पाय।। प्रताप- वृत्यानुप्रास। भाषाभूषणे। प्रति अक्षर त्ति बहु वृत्ति तीनि विधि मानि। मधुर वृत्ति जामैं सबै उपनागरिका मानि।। उदाहरन रसरहम्ये। चद सौ आनन चाह सौ चूमै चलै चष चारु चौप चषाई। यामै चकार की बहुवेर वृत्ति आई। रँग रँगलाटा। ल.। भाषाभूषण। सो लाटानुप्रास जँहँ पद की आवृत्ति होय। सब्द अर्घ के भेद बिनु भिन्न भाव कछु होय।। उदाहरन। पीव निकट जाकैं नहीं घाग चाँदनी आहि। पीव निकट जाके नहीं धाम चाँदनी आहि।।4।।

    (मध्य से पृ. 93--)

    अथ माननी बनन

    (सप्तम प्रकासे)

    दोहा

    जद्यपि सुंदर सुधरकर सगुनौं दीपक देह।

    तऊ प्रकास करै जितौ भरिए तितौ सनेह।।1।।

    टीका- सखी की उक्ति नायका सौं। सिछा रूप बचन तैं बोध व्यंग करि मान व्यंजित होति है। ताकरि नायका कै अति मान धुनित है। याही सौं गुरुमान कहत हैं। अरु अर्थांतर संक्रमित धुनि कहत हैं।। जो यह उक्ति साध की होथ तौ सांत रस। ऐसे ही और ठौर संक्रमित धुनि ह्वै सकति है। वाच्य श्लेस रूपक कौं पोषत है। यातै अलंकार संकर है।। एक शब्द के अर्थ जहँ भा,त आइ अनेक। शब्द श्लेस सु कहत हैं जिनके बुद्धि विवेक। उपमान रु उपमेय में भेद परै नहिँ जानि। तासों रूपक कहत हैं सब कवि सुमति बखानि।। अमर-। इहॉ श्लेस रूपक संकर। सगुनौ पद सुश्लेस हैं रूपक दीपक देह। यो सलेस रूपकहि कौं, संकर जानहु एह।। श्रीप्रताप। सकार ते वृत्या। दीपक देहते छेका। लक्षण पूर्वोक्तं।।1।।

    दोहा

    तोही निरमोही लग्यौ, मोही यहै सुभाव।

    अन आयैं आवै नहीं, आयैं आवै आव।।2।।

    टीका- नाइका की उक्ति नाइक सौं। नाइका की मरजी पाइ सखी कहै है सखी द्वारा। माननी उपालंभ संचारी। अतिसयोक्ति अलंकार। (इहॉ नाइका कौं मध्यमान। बात कहत तियं और सौं देखहिँ केशोदास। उपजत मध्यम मान तहँ माननि कैं सबिलास। और नाइका नै इह बात कही तुम सौ। सो इह नाइका सुनि मान कियो। यह नाइक प्रति-सखीवचन। यह नाइका सडिता होउ)। (नाइक को आयवो कारन आको आयवो कारजये सग यातै अक्रमातिशयोक्ति)। -अमर प्रश्नः अन आए जो आय नहीं, तौ मति दसा विचार। फेरि आव आवै सुकिमि, बनै बनै बूचन निहार।। उत्तर और अर्थ। वार्ता। तो हिय निरमोहीहै। तो हिय सौ मोहिय लग्यो ताते सगति पाइ, यह निरमोही भयो, मोपै तेरे आइ बिन आवत नहीं। तातैं आव व्यगि करि बुलावति है। मोही मोही जमक हे। आये लाटानुप्रास है। श्रीप्रताप-। हकार अकार तैं वृत्या।।2।।

    दोहा

    रही पकरि पाटी सुरिस, भरे भौंह चित नैन।

    लखि सपने पिय आन रति, जगतहु लगति हियैं न।।3।।

    टीका- सखी की उक्ति सखी सौं। मध्यमान। भ्रांति अलंकार। भ्रम चित्त होय आय। भूषन सुभ्रांति गाय।। अमर। समै भाव तैं यह नाइका खंडिता। रतिभ्रमा है।। नाइका अनेक, यथा-देश काल वय भाव तैं केशव जानि अनेक। भ्रांति अलंकार पूर्वोक्त। श्रीप्रताप-। भरे पद तीन ठौर लाग्यो याते तुल्ययोगिता। लक्षण कठाभरने। वर्निकौ अथवा अवर्निनकौ एक धर्म्म तुल्ययोगिता त्रिबिधि विचारी है। फऊले सषा सषी नैन।।3।।

    दोहा

    तू मति मानै मुकतई, दिए कपट बित कोटि।

    जो गुन ही तो राषिए, ऑखिन माँहि अगोटि।।4।।

    टीका- जो उक्ति काहू साध की होइ तौ चित्त सो जानिए। वितर्क सचारी ने पोष्यौ निर्वेद स्थाई सो कथन अनुभाव से सात रस व्यगि।।-जो सखी की उक्ति होइ नाइक प्रति तो, ईर्षा सचारी। भेदोपाय ते मान जानिए। पर्यायोक्ति अलंकार। पर्योयोक्ति प्रकार द्वै कछु रचना सो बात। मिस करि कारज कीजिए जैसो चित हि सुहात। अमर-। नाइक सठ। तहां सखीं-बचन नाइका सौं। जो गुनही गुनहगार है तो आँखिन ही मैं राखि, कपट रूपी बित देइ तोऊ मुकतई छूटनो उनको मति मानि। संभावनलंकार। जौ तौ पद जहँ होइ। संभावना तँहँ जोइ। (कोटि सो कोट गढ़। तू मति के विषै सूँ मानै, सो मान को मुकतई सो दूरि करि।–कोटि कपट दिपै दुष्ट सवीतै योग्य नहीं। और जो योग्य ही है तो अंग सो पर्वतरूप श्रीकृष्ण तिनकों आंखिन मांहि अंगोट सो राखियै। अंग ओट ऐसो पद कह्यो। दीप थंभ गिर-गज, इति कविप्रियायाम्। और साधु की उक्ति में जो गुन सो भजन। साधन को और जोग जौ पौ पै नहीं बनि आवै तौ और अर्थ पूर्ववत्।।)-श्रीप्रताप-कपट कित रूपक। लक्षण रसरहस्ये। उपमान रु उपमेय को भेद परे नहिं जानि। समता व्यंगि रहै जहाँ रूपक ताहि वषानि।।4।।

    दोहा

    अहै कहै कहा कह्यौ, तोसों नंदकिसोर।

    बड़ बोली कत होति बलि, बड़े द्रगन के जोर।।5।।

    टीका- सखी की उक्ति मानिनी नायका सों। लोकोक्ति अलंकार। कहनावति है। लोक की उक्ति लोकोक्ति सोइ।।-अमर प्रश्न अकहै कहा बड़ बोल है इही प्रश्न इहि ठाम। उत्तर। अहै कहै जु नकार तू यहै बोल बड़ बाम। फेरि प्रश्न। सुतो नकार बोल बड़ जहॉ सुनो अरु अर्थ। तिया पियहि अपमान सौं बोली सुनो समर्थ।। तोसों नंदकिसोर कहि कह्यो यही बड़ वैन। तहॉ प्रश्न तो अहै पद, पिय प्रति शब्द बनै न। उत्तर। तिया सषी सौं कहति कछु धरै मान मन ऐन। कहै क्यों तू कहति है, इहि सों इहि बिध बैन। कहा कहयौ तोसौं सु मैं, कबहूँ नंदकिशोर। मों सो पूछति सुनि सखी, बोली जिय पिय ओर।। बड़ बोली कत होति है कहि सु अनादर बैन। तोसौं यौं कहि बोलियत, इनसो लहि बड़ नैन।। उत्तरालंकार।। प्रत्युत्तर जहँ होइ उत्तर कहिए सोइ। (सोह्यॉ नाइका की, सखी नाइक मौं पूछति है। नंदकिसोर तोसौं वा नायका ने कहा कह्यौ। जासों तू बतकवत हतौ। उत्तरार्द्व मैं उक्ति सषी की। सो नाइका की सखी कहै है। ता नाइका की सखी सौं तू तेरी नाइका के कहे सूँ तू करि बोलै है सो तेरी नाइका बडबोली है।।)-श्रीप्रताप-वकार ते वृत्या। लक्षण भाषाभूषने। वृत्य एक बहु वर्ग की बहु विर समता धारि। ललचाहैं चष सूँ ललन, चाहति चपला नारि।।5।।इति।

    (अत्य से- पृ. 187 से 198 तक में से)

    (प्रस्ताविक अन्योक्ति नामक षोडस प्रकास)

    दोहा

    गढ़ रचना वरुनी अलक चितवन भौंह कमान।

    आघवकाई ही बढै तरुनि तुरगम तान।।1।।

    टीका- सिच्छामति भाव धुनि। प्रस्ताविका दीपक। अमर-दीपकालकार। लक्षण। उपमान रु उपमेय सौं इक पद लागै होइ। गढ़ आदिक सब ठाँ लग्यै आघवकाई सोइ।। श्रीप्रताप-प्रस्ताविक अन्योक्ति के प्रकरन मैं अनवर अमर श्रीप्रताप कौ लेष एक सौ जानियै।।1।।

    दोहा

    अनियारे दीरघ दृगनि किती रुचि समान।

    वह चितवनि औरै कछू जिह पस होत सुजान।।2।।

    टीका- प्रस्तावी भेदकातिमयोक्ति। अमर-इहाँ व्यतिरेक भेदकातिसयोक्ति। सब पद मैं इक अधिकई व्यतिरेक की युक्ति। औरै पद जहँ होत अति वहै भेदकातिसयोक्ति।। दृग करि बहु तिय सम लसै पै यह अतिता एक। बसि सुजान करिवौ सगुन बरयम कद्दत अनेक।। और यह प्रगट ही द्दै यातै भदकातिसयोक्ति जानियै।।2।।

    दोहा

    गिरतैं ऊँचे रसिक मन, बूड़े जहाँ हजार।

    वहै सदा पशु नरन कौं, प्रेम पयोधि पगार।।11।।

    टीका- कह्यों रसिक बूड़न कठिन तरिवो सिंधु सरूप। सुगम कह्यौ पसु नरन कौं, है पगार के रूप।। यह असमंजस बात अरु, कह पगार को भाव। कढ़त नीकी भाँति ह्याँ अर्थ कहो कविराव।। उत्तर-। साधु गिरनता उच्चता, यातैं गिर उपमान। मूढ़न पसु उपमा प्रसिध जिनकौ अबुध बखान।। गिर सुभाव बूड़न सु ज्यौं, तरिबो पसुनि सुभाव। सो तहँ प्रेम पयोधि मैं, कहै दुहून के भाव।। ज्यौं बारिध मैं नीर पर धरै कोइ गिर लाइ। सो निहचै बूड़े लहै तरनि संग तरि जाइ।। जानै सिंधु महात मैं सीतल गति दुति देइ। जहॉ सु पसु जल मैं परै सो तरि तीरहि लेइ।। रतन संग महिमा जलधि, नहिं सीतलता ताहि। जैसैं रसिकन प्रेम रस लाभ बहुत विधि चाहि। रतन संग ज्यौं साधु सँग प्रभु महिमा रसलीन। मूढ़ सु प्रेम बखान ही रस भिद्यौ, हिय दीन।। रूप प्रेमपयोधि पसु नर इत्यादि (वृत्या)।। श्रीप्रताप-। संबंधातियसोक्ति। वृत्या लक्षण। संबंधातिसयोक्ति जो देत अजोगहि जोग। या पुर के मंदिर कहैं ससि तैं ऊँचे लोग। वृत्या पूर्वोक्तं।।11।।

    दोहा

    प्यासे दुपहर जेठ के थकें सबै जल सोधि।

    मरुधर पाथ मतीरहू, मारू कहत पयोधि।।21।।

    (पृ. 199)

    टीका- अवर काव्य। प्रस्ताविक दोहा। काव्यलिंग अलंकार। प्यासे दुपहर मैं पथिक पावत मधुर मतीर। तब वे मारू सौं कहत यह पयोधि है धीर।। वार्ता। पयोधि सब्द क्षोर-सागर व्यंगि। यह कि मतीर सौं भूख प्यास दोऊ पथिकन की गई। तातै पयोधि कह्यौ। तहॉ प्रश्न। पथिक कहाँ जान्यौ परै सब्द मॉहि इहि ठौर।। यहॉ कह्यौ मारू कहत पयनिधि अर्थ और।। उत्तर- सब जल सोधि फिरे तहाँ मारू जन ते नाहिं। वे तौ जल जानत बचन यातै पथिक लखॉहि।। महा प्यास मैं विरस जल सोऊ सुखदा होइ। इहॉ देस की श्रेष्ठता देत मधुर जल सोइ।। प्रहर्षन अलंकार। वांछित तै जहँ अधिक फल द्वितिय प्रहर्षन जानि। जल सोधत है तहँ लह्यो मधुर मतीर सु आनि।।21।।

    दोहा

    इक भीजै चहलै परैं, बूडे बह हजार।

    कितौ औगुन जग करै, वै नै चढती वार।।44।।

    (पृ. 193)

    टीका- प्रस्ताविक। रूपक ताकौ पोषक। दीपक अरु श्लेष हे याते यहॉ सकर कहिए। अमर प्रश्न-। नदी चढे के पीछे लगै भीजैं आदि निहारि। वय के चढै सु किम तहॉ, भीजनादि विधि च्यारि।। उत्तर- भीजनाद के रूप मैं है सुभ चारि प्रकार। उहा बैस की दरस सौं चारि प्रकार विचार।। श्रवण सुपन चित्र पुनि, प्रतच्छ लखत इहि भाइ। लगन क्रम क्रम सुद्दु, परनै पर अधिकाइ।। जिन वय सुनी सु दुख भयो भीजन कौ सो चाहि। जिँहिं सुपनै देखी सु छवि, चहलैं परै सुचाहि।। चित्र देखि बूडेन सम, दुख सु भयौ तन रूप। प्रतिछ माँहि बहिबौ सुदुख हे अपार जु सरूप।। इहॉ उल्लासालकार है ताको लच्छन। इक के गुन तैं दो। जँहँ सो उल्लास कवि भूष। नैवै को चढिवो सुगुन औरहि दोष सरूप।। श्रीप्रताप- किते औगुन जग करै कह काका। इति पस्ताविका-।।

    अथ अन्योक्ति

    दोहा

    मोरचंद्रिका स्याम सिर, चढि कत करत गुमान।

    लखवी पाइल पर लुठत, सुनियत राधा मान।।46।।

    (पृ. 193)

    टीका- अन्योक्ति अलंकार कहियै। जहां डारि सिर और के कहै और की बात। तासौं अन्योक्ति कहत हैं जे कविता सरसात।। अमर-प्रिया मान कीनौ कहूं सुधि प्रियहि तिहं बार। कोऊ मषि सुधि देत कहि, लखि हरि सजत सिंगार। निकट मशी तिहिं मौं कहति, मीतव बचन सुनाइ। गरब करत कत चंद्रिका लखवी परसत पाइ।। प्रश्न। गर्व सु क्योंकरि जानियै, कहो चंद्रिका मांहि उत्तर- यह गर्व निज उच्चता मानति सो सम नाहि। इहा द्वितिय पर्यायोक्ति अलंकार। लक्षण- पर्यायोक्ति सुजानियै कछु रचना सों बात। सूधै मान कह्यो न8हीं कह्यौ रचन सरसात। श्रीप्रताप-। स्याम सिर। कत करत। पाइन परत। छेका। अनवर ने अन्योक्ति लिखी सो उपादान लच्छिना करि सिद्ध भई। जैसेँ फूलन के गजरे लखौ खेलत चौपरि चारू। जहॉ अपनौं अर्थ बनायबे के लियै और अर्थ जानि लीजै सो उपादान लच्छना। इहा गजरेन वारे हाथ जानियै। तैसे ही मोर चंद्रिका तैं मोरचंद्रिका वारौ जानियै। इति रसरहस्ये। मोरचंद्रिका कौ गुमान करिबौ नहीं संभवै तातै मोरचंद्रिकावारौ जानियै।।

    दोहा

    नहिं पराग नहिं मधुरमधु, नहिं विकास इहि काल।

    अली कली ही सौं बिंध्यौ, आगे कौन हवाल।।52।।

    (पृ. 194)

    टीका-। अन्योक्ति। अमर प्रश्न-। अली कली सौं नहिं बँधत रसिकन सिसुता माहिं। कहियै विधि समझाइ कैं, दुऔ संभवित नाहिँ।।उत्तर-। नहिँ पराग माधुर्जता मधु जौ रसताहीन। नहिं विकास इहिं काल है लषियौ रसिक अधीन। अन्योक्ति स्पष्ट।।

    दोहा

    विषम वृषादित की तृषा, जिए मतीरन सोधि।

    अमित अपार अगाध जल, मारौ मूड़ पयोधि।।74।।

    (पृ. 197)

    टीका-। अन्योक्ति। अमर-। काहू कौ कार्ज लघु ही सिद्व भये। ताषैं अन्योक्ति।।

    दोहा

    इह द्वैही मोती सु गथ, तू नथ गर्व निसाक्त।

    जिंह पहिरै जग दृग दसत लसत हसत सी नाक।।75।।

    (पृ. 197)

    टीका-। अन्योक्ति। अमर-। काहू को कार्ज लघु ही तैं। इहॉ काव्यलिंग अलंकार है। ताकौ लच्छन। काव्यलिंग सामर्थता जहँ दृढ़ करी दिखात। मुकतन बढ़ि सामर्थता जिन सो नाक लसात। श्रीप्रताप-अन्योक्ति।।-(इति अन्योक्ति)

    दोहा

    मैं निज मति माफक कियौ, कविमत को परकास।

    लीजौ सुमति सुधारि कैं, जिन कै बुद्धि बिलास।।1।।

    यह लेख अनवर कौ। अनवर खॉ नै जे लिषे अलंकार चित लाइ। अमर नै सु तिनसौं अधिक लिषे अलंकृत पाइ।।2।। छेका-वृत्यानुप्रास ये षोडस षोडस जानि। लाटा तीन सु तेरहै, जमक लिखी अधिकानि।।3।। द्वै सत अरुव्यालीस ये अरथ अलंकृत देषि। सत्य सु अनवर नै लिष, ये हूँ सत्य सु लखि।।4।। अमरचंद्रिका ग्रंथ कौं पढ़ैं गुनै चित लाइ। बुधि प्रकास परवीनता ताहि देत हरिराइ।।5।। अनवरखॉ अरु अमर तैँ भूषन अधिक सु जोइ। श्री प्रताप का चंद्रिका विषै लिखै कवि जोइ।।6।। छेका पैंसठि वृत्य है एक सौ रु इकतीस। लाटा उनतीसैँ जमक द्वै अधिकी सुनि बीस।।7।। तीन सै रु त्रेसठि सु ये अरथ अलंकृत देखि। लीजे सु कवि विचारिकैँ जो वर बुद्धि विसेषि।।8।। प्राचीनन नैं जो लिखे सो है ही या माँहि। नूतन की सरया लिखी सो सु विचारहु आहि।।9।। नृप नाघ सु कै है सबै कवि पंडित समुदाय। मनीराम भूषन लिखैं तिनकी सिच्छा पाइ।।10।। कठाभरन, कविप्रिया, भाषाभूषन देषि। रसरहस्य रत्नाकर सु औरहु मतन विसेषि।।11।। नूतन भूषन सौं कहौं तिनकौं मतन विचारि। मनीराम विनती करै भूल्यो लेहु सुधारि।।12।।

    इति श्रीमन्महाराजधिराज महाराजा श्री सवाई प्रतापसिंह चंद्रिकायां प्रस्ताविक अन्योक्ति वर्नन षोडसो प्रकास।।16।।

    पुस्तक संपूर्णम्। श्रीरस्तु कल्याणमस्तु।

    श्री प्रतापचंद्रिका पर नोट

    यह हस्तलिखित ग्रंथ बिहारी-सतसई की पद्यात्मक सम्पूर्ण टीका है। इसके अंदर दोहों का क्रम अनवरचंद्रिका के अनुसार सोलह प्रकाशों में इस प्रकार है-----

    संख्या- प्रकाशनाम छंद-दोहा सोरठा संख्या-विशेष

    1 राजवंशवर्नन 50 कवित्त दोहे

    2 साधारण नायका वर्नन 35 दोहे की टीका इस प्रकास में राजवंश-

    3 सिखनख वर्नन 99 दोहे की टीका कविवंश-टीका का

    4 मुग्धादि नायका वर्नन। 21 दोहे की टीका उपोदघात- मनीराम

    5 स्वाधीनपतिका अष्टनायका। 115 दोहे की टीका कवि ने महाराज के

    6 रूपगर्वितादि नायका। 4 दोहे की टीका हुक्म से बनाई है।

    7 माननी नायका। 46 दोहे की टीका जिसका वर्णन इत्यादि।

    8 सुरति सुरतांस नायका। 29 दोहे की टीका टीका तो दूसरे प्रकास में है।

    9 परकीया नायका। 143 दोहे की टीका

    10 दसदसा वर्णन। 14 दोहे की टीका

    11 सात्विक भाव वर्नन। 10 दोहे की टीका

    12 मद्यपान वर्नन। 7 दोहे की टीका

    13 हाव वर्नन। 11 दोहे की टीका

    14 श्रृंगारादि नवरस तथा भाव 82 दोहे की टीका श्रृंगार वीर करुणादि।

    वर्नन।

    15 षटऋतु वर्नन। 43 दोहे की टीका

    16 प्रस्ताविक-अन्योक्ति की 75 दोहे की टीका प्रस्ताविक-नीति-अन्योक्ति।

    वर्नन।

    इन 15 प्रकासों में बिहारी के 723 (सात सौ तेईस) दोहे, सोरठे है। 700 से जो अधिक है इनकी छानबीन करना एक समय, परिश्रम और अनुष्ठान का कार्थ्य है। परंतु साधारणतया बिहारी के असल दोहे सब इसमें गए। प्रथम प्रकाश उपोद्यात रूप ही है। इसमें बिहारी कवि के रचे कोई छंद नहीं है। इसमें तो टीका के प्रधान निर्माता मनीराम कवीश्वर कृत ही 50 छंद है। यह मनीराम महाराज प्रतापसिंहजी की “कवि बाईसी में” से मुख्यों में एक थे। जैसे गणपतिजी कवीश्वर थे, जा गुरू भी माने गए थे।।

    इस टीका में (1) अनवरचंद्रिका और अमरचंद्रिका-इन दो टीकाओं-बिहारी सतसई की-से-प्रधानता उद्धरण लेकर फिर उस पर श्री प्रताप ऐसा लिखकर मनीरामजी ने अपनी टीका लिखी है, जिसमें जिन अलंकारों का उक्त दोनों टीकाओं में उल्लेख रह गया है उसको दिया है, कहीं उन टीकाओं पर टिप्पणी और समालोचना आदि हैं। अर्थ और भावार्थ के खोलने में प्राय कष्ट कहीं भी नहीं किया है। इससे यह प्रतीत होता है कि यह टीका केवल कवि-कोविदों के अधिकार और पात्रता भाव से की गई होगी। टीका में सर्वत्र अलंकारों पर दृष्टि विशेषता से, तथा नायक नायिका, रस, भाव आदि पर विधिपूर्वक है। अन्य रीति-ग्रंथों के प्रमाण भी दिए है। परंतु वे अर्थ के स्पष्टीकरण के निमित्त नहीं, अपितु अलंकार, सिद्धांत, वा विशेषता सिद्धि के निमित्त ही है।

    1 आदि (प्रकाश) में राजवंश वर्णन के अनतंर कवि के विशेष लक्ष्य (फरासीसी) पुर्तगाली विद्वान् हकीम मारटिन, डी सेलवा के कुल और उनकी योग्यता का भी वर्णन है। इन विज्ञ हकीमजी की भी इस टीका में सहायता रही है। इनके वर्णन में यूरोप की अन्य ईसाई जातियों वा देशों के नाम भी गए है। स्यात् ये नाम भी उक्त हकीमजी के बताएं हुए प्रतीत होते हैं।

    इस एक टीका से अन्य दो अतिप्रसिद्ध और सार भरी टीकाओं अनवरचंद्रिका और अमरचंद्रिका के दर्शन भी हो जाते हैं। और उभय कविता-सार-पारंगत विद्वानों की योग्यता का परिचय उत्तमता से हो जाता है। महाराज श्री प्रतापसिंहजी के साहित्य-मर्मज्ञ कविताप्रेमी और कवि-समादरकारी तथा विद्याप्रचारकारी होने का एक उज्ज्वल प्रमाण इस ग्रंथ के निर्माण कराने से ज्ञात हो जाता है। उनके समय में, उनके प्रताप से, सैकड़ों ग्रंथ बने हैं, ऐसा हमको प्रतिभावित हो गया है, जिसकी चर्चा समय समय पर यथासंभव इसी प्रकार की जायेगी। और स्वयं महाराज एक प्रसिद्ध आशु कवि साहित्य पारगामी कला-विशारद भगवद्भक्त विद्वान् थे। फिर उनके पास कवि और गुणिजनों का संघटन तो उचित ही था। उनकी कविबाईसी जैसी एक रत्नावली प्रख्यात है, ऐसे ही उनकी ग्रंथ-बाईसी अकीर्तित है। फिर उनकी परख से इस टीका में दो नामी टीकाकारों के उद्धरण वा हवाले के साथ अपने यहॉ के नामी कवि द्वारा परिशिष्ट टीका को देकर यह प्रतापचंद्रिका विहारी के काव्य के गौरव को स्पष्ट दिखाने में चंद्रिका की मानौं है, और उसका प्रकाश अन्य दो चंद्रिकाओं से और भी बढ़ गया है। दोहों की संख्या 723 होती है, जैसा कि ऊपर कहा है। अंत में अनवर का अभिप्राय लिखकर मनिराम कवि ने अपना अभिप्राय लिखा है। महाराज की सभा के अन्य कवियों की सम्पत्ति भी ली है जैसा कि “तिन सिच्छा पाई” से प्रगट होता है। तथा रसरहस्य (कुलपति मिश्र का), कविप्रिया (केशवदास की), भाषा-भूषन (म. जसवंतसिंहजी का), अलंकार रत्नाकर (कवि दलपति राय वंशीधर का), कवित्त-रत्नाकर (सेनापति का), कविकंठाभरण (कवि दूलह का), और इत्यादि शब्द से हरिकवि की टीका भाषा भूषण के ऊपर, आदि ग्रंथ तथा जिनके नाम तो दिए नहीं पर अभिप्राय लेकर लिख दिया है।

    यह प्रतापचंद्रिका जिसको कवि ने प्रतापसिंह चंद्रिका सा ही लिखा है, संवत् 1842 में बनी है। मनीराम कवि ने प्रांरभ के 34 वें छंद में लिखा है------

    दोहा

    अष्टादस व्यालीस (1842) भनि सबत माधव मास।

    सुकल पच्छ गुरु पचमी, किय चंद्रिका प्रकास।।34।।

    महाराजा सवाई प्रतापसिंह जी (कविता नाम ब्रजनिधि) अपने बड़े भाई प्रथीसिंहजी के परलोकगामी होने पर संवत् 1834 में राजगद्दी पर विराजे, और संवत् 1859 में बैकुंठवासी हुए। इससे यह टीका महाराज के राज्यकाल के (आठवें) वर्ष में बनी थी, जब महाराज की अवस्था 21-22 वर्ष की थी, अर्थात् पूर्ण युवावस्था थी, और ऐसी उत्कृष्ट कविता से उनको बडा ही प्रेम था, जिसमें भगवान् संबंधी श्रृंगार और प्रेम रस हो।

    टीकाकार मनीराम कवि की कविता के नमूने ऊपर दिए गए है। उन्होंने कोई अन्य स्वतंत्र ग्रंथ भी लिखा था या नहीं, इसका पता अब तक नहीं चला। परंतु यह कवि-बाईसी में थे यह प्रतीत होता है। यद्यपि इनकी कविता रीति ग्रंथकारों की सी तो नहीं है, तथापि अच्छी है। इस टीका को बनाकर उन्होंने बड़ा काम किया, और साथ ही अनवरचंद्रिका और अमरचंद्रिका टीकाओं को भी अमर कर दिया।

    इस हस्तलिखित पुस्तक का आकार 12X9 अंगुल का है। जयपुरी देशी कागज पर साधारण अंतरों से प्रायः शुद्ध लिखी हुई है। पन्ने 198 हैं (जिनके 296 पृष्ठ हुए), प्रति पृष्ठ पर प्रायः पंक्तियों और प्रति पंक्ति में 24-25 अक्षर हैं। यों अनुमानतः पाँच हजार चार सौ अनुष्टुप् संख्या का ग्रंथ है।

    परंतु बीच में 129 से 136 तक के 8 पन्ने नहीं है। यह कमी अवश्य है। जब तक दूसरी प्रति हो, पूर्ति नहीं हो सकती। इस टीका (प्रतापचंद्रिका) का उल्लेख नागरीप्रचारिणी पत्रिका भाग 9 अंक 3 के पृष्ठ 137-141 पर हुआ है। परंतु वह विवरण अपूर्ण है। कवि ने टीका-निर्माण का संवत् 1842 स्पष्ट लिख दिया है।

    अष्टादस व्यालीस (1842) भनि संवत् माधव मास।

    सुकल पच्छ गुरु पंचमी, किय चंद्रिका प्रकास।।34।।

    और कुछ कुछ अपना परिचय भी दिया है। इसके 15 प्रकरणों के जोड़ से 723 दोहे होते हैं। प्रथम प्रकाश में (अनवरचंद्रिका की नकल पर) राजवंश, कविवंश, ग्रंथप्रशंसा, संवत् आदि भी दिए हैं। फिर 15 प्रकाशों में प्रकरणबद्ध क्रम अनवरचंद्रिका का लिया है।

    यह कवि मनीराम तँवर (तोमर) राजपूतों का पुरोहित या गुरु या आश्रित होगा। महाराज प्रतापसिंहजी जयपुरवालों का यह कवि कुछ मनभॉवता और उनके प्रसिद्ध हकीम और मुसाहिब पुर्तगाली विद्वान् मारटीन डी सेलवा (DeSalva) का कृपापात्र प्रतीत होता है। अनंगपाल तँवर से जब दिल्ली छुटी तब उसने फिरता फिरता पाटन (राज्य जयपुर इलाका निजामत तौरावाटी हाल) में आकर राज्य किया था। तभी से यह इलाका तँवरापाटी कहाया, जो अब राज्य जयपुर में है। महाराज प्रतापसिंहजी के एक महाराणी तँवरजी भी थीं जो संपतसिंह तँवर पाटणवाले की बेटी थीं। इनका विवाह संवत् 1844 में पाटण ही में हुआ था। संभव है कि यह कवि पाटण से आया हुआ हो। परंतु यह विवाह, टीका के बन जाने से दो वर्ष पीछे हुआ है। टीका के प्रथम के छंद 18 (दोहे) में मनीराम ने इंद्रागिरि लिखा है। यह स्यात् इंद्रगढ़ हो, जो जयपुर के अधिकार में रहा है और अब तक इंद्रगढ़ का मामला (कर) राज्य जयपुर में रहा है। इंद्रगढ़ के राठौर राजा राजसिंह के भाई अणँदसिंह की बेटी राठोड़जी महाराजा माधोसिंहजी (जयसिंह सवाई के पुत्र) को ब्याही थी, अर्थात् यह राठोड़जी प्रतापसिंहजी की भाई मा थी। संभव है, इन सबंधों से यह तँवरों का ब्राह्मण कवि राज्य जयपुर में बसा हो और अपने संबंध वा गुण से राजा तक उसकी पहुँच हुई हो। निश्चित बात अधिक खोज से प्राप्त हो सकती है। ऊपर के (प्रथम प्रकाश के 17, 18) दोहों में कवि मनीराम ने अपने कुल का कुछ वर्णन किया है-----

    अनगलपाल नृप वंश के पूज्य सु रेखाराम।

    तिनके तनय मुकंदजू विद्याधन के धाम।।17।।

    मनीराम तिनके तनय राज इंद्रगिरि सेय।

    पाई विद्या मान धन सुजस सु कहत अमेय।।18।।

    इन दोहों में कवि का पिता मुकंद (राम) और प्रतिपा रेखाराम है और वे तँवर (अनंगपाल वंशज) राजपूतों के पूज्य (पुरोहित वा विद्यागुरु) थे। उनका धनवान्, विद्वान्, गुणवान और प्रतिष्ठान भी होना पाया जाता है। पाई विद्या शब्द स, कवि का जयपुर में विद्या पढ़कर गुणवान् होना लख पड़ता है। अतः इसका पिता था प्रपिता कोई पहले से जयपुर में आकर बसे होंगे। इंद्रगिरि सेय इंद्रगढ़ के निवास या आश्रय को प्रगट करता है। हमको इस मनीराम का अभी अधिक पता नहीं चल सका है। ढूँढ़ने पर मिल जायगा तो फिर इसके विषय में लिखेंगे। यह अटकल ही समझिए। इसको कोई महाराज का काव्य गुरु भी बताते हैं और कविबाईसी में होना तो प्रकट ही है।

    जयपुर के प्रख्यात विद्वान महामहोपाध्याय महोत्ववाग्मी महोपदेशक विद्यारत्न संस्कृत पाठशाला के प्रधानाध्यक्ष चतुर्वेदी श्रीगिरिधर शर्म्माजी के अधिकार से, उनकी कृपा से, यह टीका दृष्टिगोचर हुई। तदर्थ हार्दिक कृतज्ञता।

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