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खुमाणरासो का रचनाकाल और रचियता- श्री अगरचंद नाहटा

नागरी प्रचारिणी पत्रिका

खुमाणरासो का रचनाकाल और रचियता- श्री अगरचंद नाहटा

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    रोचक तथ्य

    Khumanraso ka rahcnakal or Rahciyata, Anka-1, khand-20, 1944

    हिंदी के प्राचीन साहित्य का गंभीर अन्वेषण अभी तक बहुत कम हुआ है। फलतः उसके संबंध में बहुत सी भ्रांत बातें प्रचलित हैं एवं कई बातें अनिश्चित रूप से पड़ी है। उदाहरण के लिये, हिंदी-साहित्य के वीरगाथा-काल की जितनी भी रचनाएँ कही जाती हैं उनमें से अधिकांश तो अब अनुपलब्ध हैं। जो उपलब्ध हैं उनकी भाषा इतनी विकृत अवस्था में है कि उन्हें उस समय की रचना जानकर हिंदी-साहित्य का जैसा वैज्ञानिक अनुसंधान हम करना चाहते हैं उसके लिये वे सर्वथा अनुपयुक्त हैं। कई कृतियों को तो कथित समय की रचना मानना सर्वथा प्रमाण-रहित है। अतएव सारा वीरगाथा-काल ही डाँवाडोल प्रतीत होता है अर्थात् भाषाशास्त्र एवं ऐतिहासिक दृष्टि से उसका कोई निश्चित महत्व या मूल्य नहीं ठहरता। मेरा मत है कि जब तक हमारे हिंदी-साहित्यसेवी एवं भाषाशास्त्र के विद्वान जैन भाषाग्रंथों पर पूरा ध्यान नहीं देंगे तब तक भाषा के क्रमिक विकास का पूरा पता मिलना असंभव हैं। वीरगाथा-काल की जैनेतर रचनाएँ मौखिक रूप से अधिक समय तक रही हैं, अतः उनकी भाषा अब भूल रूप में सुरक्षित नहीं है। जैन ग्रंथों के संबंध में यह बात नहीं है।

    इधर वीरगाथा-काल के ग्रंथत्रय (खुमाणरासो, पृथ्वीरासो और बीसलदेवरासो) पर मैंने कुछ अन्वेषण एवं विचार किया है। यहाँ खुमाणरासों के विषय में कुछ प्रकाश डाला जाता है।

    दलपतिविजय के खुमाणरासो को बाबू श्यामसुंदरदासजी ने वीरगाथा-काल का सबसे प्राचीन ग्रंथ माना है और पं. मोतीलाल मेनारिया ने राजस्थान का सबसे पहला कवि दलपतविजय को बतलाया है। उनका कथन कहाँ तक ठीक है, एवं खुमाणरासो का वास्तविक रचनाकाल क्या है? यही इस निबंध में विचार्य है।

    बाबू श्यामसुंदरदासजी ने अपने हिंदी भाषा और साहित्य नामक ग्रंथ के (परिवर्द्धित एवं संशोधित संस्करण) पृ. 223 में वीरगाथा-काल के सबसे प्राचीन ग्रंथ का वर्णन करते हुए इस प्रकार लिखा हैः-----

    “हिंदी की वीरगाथाओं में प्रबंध रूप से सबसे प्राचीन ग्रंथ, जिसका उल्लेख मिलता है, दलपतविजय का खुमाणरासो है। ऐसा कहा जाता है कि इसमें चित्तौड़ के दूसरे खुम्माण (वि. सं. 870-900) के युद्धों का वर्णन है। इस समय इस पुस्तक की जो प्रतियाँ मिलती हैं उनमें महाराणा प्रतापसिंह तक का वर्णन हैं। संभव है कि यह प्राचीन पुस्तक परिवर्धित संस्करण हो अथवा उसमें पीछे के राणाओं का वर्णन परिशिष्ट रूप से जोड़ा गया हो। इस पुस्तक के संबंध में अभी तक बहुत कुछ जाँच पड़ताल की आवश्यकता है।“

    पं. रामचंद्रजी शुक्ल ने अपने ‘हिंदी-साहित्य का इतिहास’ नामक ग्रंथ के पृ. 25 में लिखा हैः---

    “खुम्माण ने 24 युद्ध किए और वि. सं. 869 से 893 तक राज्य किया। यह समस्त वर्णन दलपतविजय नामक किसी कवि के रचित खुमानरासो के आधार पर लिखा गया जान पड़ता है। फिर इस समय खुमानरासो की जो प्रति प्राप्त है, वह अपूर्ण है और उसमें महाराणा प्रतापसिंह तक का वर्णन है। यह नहीं कहा जा सकता कि इस समय जो खुमानरासो मिलता है, उसमें कितना अंश पुराना है। उसमें महाराणा प्रतापसिंह तक का वर्णन मिलने से यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जिस रूप में यह ग्रंथ अब मिलता है वह उसे वि. सं. की सत्रहवीं शताब्दी में प्राप्त हुआ होगा। यह नहीं कहा जा सकता कि दलपतविजय असली खुमानरासो का रचयिता था अथवा उसके पिछले परिशिष्ट का।”

    पं. मोतीलाल मेनारिया का राजस्थानी साहित्य की रूपरेखा नामक ग्रंथ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। उसके पृ. 27 में लिखा हैः------

    “राजस्थान का सबसे पहला कवि, खुमाणरासो का रचयिता दलपतविजय नामक कोई भाट कहा जाता है। खुमाणरासो में मेवाड़ के राजा खुंमाण (दूसरे) के साथ खलीफा अलमामूँ के युद्ध का वर्णन है। खुंमाण ने वि. सं. 870 से 900 तक मेवाड़ पर राज्य किया था। अतः यही समय दलपतविजय का भी समझना चाहिए। परंतु खुमाणरासो की आजकल जो प्रतियाँ मिलती हैं उनमें महाराणा प्रतापसिंह तक के राजाओं का वर्णन है, इसलिये इसकी प्रामाणिकता के संबंध के बाद का वृत्तांत दलपतविजय के वंशवालों ने जोड़ा हो, पर जब तक इस विषय की पूरी तौर से छानबीन हो जाय, निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है।”

    ‘राजपुताने का इतिहास’ पृ. 424 में श्रद्धेय ओझाजी लिखते हैः- (उदयपुर राज का इतिहास भा. 1 पृ. 110)

    “दौलत (दलपत) विजय-रचित खुमाणरासो की एक अपूर्व प्रति 1 देखने में आई, उसमें महाराणा प्रतापसिंह तक का तो वर्णन है और आगे अपूर्ण है, इससे इसकी रचना का समय वि. सं. 17वीं शताब्दी या उसके पीछे माना जा सकता है।”

    इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि खुमाणरासो के विषय में विद्वानों का अभी तक निश्चित एकमत नहीं है। बाबू श्यामसुंदरदासजी से इस संबंध में पूछने पर उत्तर मिला कि “दलपतिविजय के खुमानरासो के विषय में आप पं. गौरीशंकर हीराचंद ओझा से पूछें। मुझे उन्हीं से उसके विषय में बातें ज्ञात हुई थीं।”

    मेरा जहाँ तक खयाल है, ओझाजी के अतिरिक्त उपर्युक्त विद्वानों में से किसी ने भी मूल ग्रंथ की प्रति को देखा नहीं, केवल एक दूसरे के अनुकरण रूप में अनिश्चित सी बातें लिख दी हैं और भिन्न भिन्न प्रकार के अनुमान कर लिए हैं। ग्रंथ को स्वयं देखने वाले ओझाजी जैसे विद्वान् जब इसकी रचना स्पष्ट रूप से 17वीं शताब्दी या उसके बाद की बतलाते हैं तब उनसे उसके संबंध में बातें ज्ञात कर विद्वानों ने उपलब्ध खुमाणरासो को सबसे प्राचीन ग्रंथ कैसे बतला दिया, आश्चर्य है।

    ‘खुमाणरासो’ का सबसे पहरले पता मुझे जैन साहित्य के महारथी श्रीयुत मोहनलाल दलीचंद देशाई, बी. ए., एल्-एल. बी. द्वारा संपादित जैन गुज्जर कविओ भाग 1, पृ. 165 से चला। उसमें सोलहवीं शताब्दी के जैन भाषा कवियों के प्रसंग से इस ग्रंथ का एवं इसके रचियता का परिचय इस प्रकार दिया हैः-------

    120 दोलतविजय (त. सुमति साधुवंशे पद्मविजय-जयविजय-शांतिविजय शि.)

    214 खुमाणराज

    इसके पश्चात् प्रारंभ की 12 गाथाएँ और दूसरे खंड की समाप्ति के कुछ अंश का अवतरण देकर अपनी ओर से लिखा है कि “यह राम राजस्थानी-मारवाड़ी भाषा में है, इसमें चित्तौड़ के राणा खुमाण और उनके वंशजों आदि का चारणशाही इतिहास है। इसकी प्रति दक्कन कालेज लायब्रेरी में है। इसका नं. 258, सन् 1882-83, पत्र 139 है और यह अपूर्ण है। जैन साधु राजदरबारों में रहकर राजाओं का चित्तरंजन करते थे, यह इस रास से विदित होता है और इसके लिये गणेश की वंदना की गई है। इसकी प्रति डेक्कन कालेज लायब्रेरी (अब भांडारकर इंस्टीटयूट) पूने में है।”

    मैंने बीकानेर स्टेट के दीवान श्रीयुत सिरेमलजी बापणा की सर्टिफिकेट के द्वारा भांडारकर इंस्टीटयूट से मूल प्रति मँगवा ली। प्रति की प्राप्ति में सहायक श्रीमान् प्राइम मिनिस्टर साहब बीकानेर और भांडारकर इंस्टीटयूट के क्युरेटर साहब का मैं आभारी हूँ।

    खुमाणरासो की प्रति का परिचय

    उक्त प्रति के पत्र 139 है। प्रत्येक पृष्ठ में 15 पंक्तियाँ एवं प्रति पंक्ति में 42 के लगभग अक्षर है। अक्षर-सुंदर एवं सुपाठय हैं पर सर्दी के कारण कई पत्रों में स्याही उड़ गई है। अतः उन पत्रों का पाठ पढ़ने में कुछ कठिनाई पड़ती है। कहीं कहीं बीच में पत्र कुछ फट भी गए हैं। संभव है, पत्र सर्दी से चिपक गए हों और उन्हें खोलते समय वे फटे हों। प्रति काली स्याही से लिखी हुई है, पर गाथाओं के अंक, छंदों के नाम और मध्य मध्य में विषय का शीर्षक लाल स्याही से लिखा गया है। पत्रों के ठीक बीच में कुछ स्थान खाली छोड़ा हुआ है। पत्रांक बो 49 के मध्य में पीली स्याही से स्वस्तिक अंकित हैं एवं पत्रांक 50 में राजा और रानी पास में बैठे हुए हैं और रानी का हाथ राजा के कंधे पर रखा हुआ है, इस भाव का चित्र है। पत्रांक 57बी में एक वृक्ष की डाल को एक औरत पकड़े हुए खड़ी है और दो सखियाँ एक-दूसरे के वस्त्र को पकड़े हुए खड़ी हैं, इस भाव का चित्र है। पत्रांक 69 बी में बादशाह बैठा हुआ है, उसके पीछे की ओर एक सेवक चामर लिए हुए खड़ा है और सामने एक हिंदू राजा खड़ा है, ऐसे भाव का चित्र है। पत्रांक 78 बी में घमासान युद्ध का चित्र पूरे पत्र में है। पत्रांक 134 बिल्कुल खाली है जो या तो भूल से छूट गया है या चित्र अंकित करने के लिये रिक्त छोड़ा गया है।

    ग्रंथ-परिचय

    प्रारंभः-----

    ।।960।। श्रीअंबिकाय नमः।। सकल पंडितशिरोमणि पंडित श्री 108 श्री हिमत्त विजयगाचरणकमलेभ्यों नमः।।

    ।।गाहा।।

    ऊँ ऐं मंत्र अपारं, सारद प्रणमांमि माय सुषसन्नं।

    सिद्ध ऋद्ध बुद्धि सिरं, पूरे वर-वेद पडिपुन्नं।।1।।

    वर वेद पुत्थ हत्था, वीणा सुखद्द कमल कर विमण।

    हरणंखी हंश रूढ़ा, विज्जा वैजंतिया माला।।2।।

    दूहा

    कमलबदन कमलासना, कवी उरमुख के वास।

    वसे सदा वागेश्वरी, विध विध करे विलास।।3।।

    विद्या बुद्धि विवेक वर, वायक दायकवित्त।

    अरचे जो आइ तुने, चरण लगावे चित्त।।4।।

    सेवक सुँ सानिध करो, महरे करो महामाय।

    त्रिपुरा छोरु ताहरो, सानिध करो सहाय।।5।।

    आई द्यो अक्षर अबल, अधिकी बुध उकत्ति।

    दलपति सुं कीजे दया, सेवक जाँणी सकत्ति।।6।।

    कवित्त

    आव भाव अंबाव, भगति कीजे भारति।

    जाग जाग जगदंब, संत सानिध सकत्ति।

    सुप्रसन्न होय सुरराय, वयण वांचावर दीजे।

    बालक बेलें बाँह, प्रीतभर प्यालो पीजे।

    महाराज राज राजेश्वरी, दलपति सूँ कीजे दया।

    धन मोज महिर मातंगिनी, माय करो मोसूँ मया।।7।।

    दूहा

    शिव सुत सुंडालो सवल, सेवे सकल सुरेश।

    विघन वीडारण वर दीयण, गवरीपुत्र गणेश।।8।।

    कवित्त

    भृकुटि चंद भल हलें गंग खल हले समुज्जल।।

    एकहंत उज्जलो, सुंडल लवलें रुंडगल।।

    पुहप धूप प्रम्मले, सेस सल व्वले जीह लल।।

    धुम्र नेत्र परजले अंग, अक्कले अतुल बल।।

    यम वलें विघन दालिद अलग, चमर ढलें उज्जल कमल।।

    सुंडाल देव रिद्ध सिद्ध दीयण, समरी दल्ल गणपति भवल।।9।।

    दूहा

    वृषभ अंक वनिताधिपति, नाभिनंद सुखकंद।

    उर अंबुज भामर प्रभु, चित्त चकोर जिन चंद।।10।।

    अलि हुवैं ऊलि इलिका, सगत सागति सुदेत।

    प्रारस सुगुरु परमेश्वरु लोह हेम कर लेते।।11।।

    ज्ञान ज्योति सुप्रकास गुरु कर धरी सासत्र कत्थ।

    त्रिभुवन में तारण तरण, सहू वातां समरत्थ।।12।।

    सुभा माँहि जपें सुहम, नवरस सरस बखाँण।

    गाण सुण रीझें गणपती, मणिग्गर महीराँण।।13।।

    साहसीक आषाढ सिद्ध, खित्री मोड खुमांण।

    गाहडमल्ल दातार गुर अनमी अबली बांण।।14।।

    उदोय ज्युँ उदया चलें, भल हल तेजें भांण।

    रायजादो रघुवंश रिधु प्रगटयो पुन्य प्रमांण।।15।।

    चरित तास सग पई, अधिक भाव अधिकार।

    सुण्यां घणी सुख संपजै, सयणां सुभा मंझार।।16।।

    चोपई

    चित्रकोट चउरासी सरै, पर्वत मोटो धर उपरें।

    च्यारे दिस सरीखो चउसाल, बसुधा तिलक वण्यो सुविसाल।।1।।

    पत्रांक 20 प्रथम खंड समाप्त। गाथा 507

    अतः----इति श्री दोलतविजय विरचिते बापा रों अधिकार संपूर्ण श्रीरघुवंशान्वये बापा तें खुमांण विचे आठ पेढीथई हिवै खुमांण रावल रो अधिकार कहे छै।।1।।श्री।।6।।प्रथमखंड।

    पत्रांक 33बी में द्वितीय खंड समाप्त। गाथांक 897 में समाप्त।

    अंतः—इति श्री चित्रकोटाधिपती श्री रघुवंशे बापा खुमांण चरित्रे रतिसुंदरी अभीग्रहकरण चित्रकारिकाचरित्ररमण राजकुँआरि पाँणीग्रहण पंच सहेली चित्रगढ़ मिलण दोलतविजय विरचिते द्वितीय खंड संपूर्णम्।।

    पत्रांक 61 तृतीय खंड गाथांक 1456 पर समाप्त।

    अंतः—इति श्री रघुवंशे चित्रकोटिधिपति बापारावल पट्टालंकरा रावल करण तनुज खुमांणचरित्रे लाखांगृहे तिलोत्तमा आगमण धीगा गवरी पुनरपीटेटन मृतसंजीवन एकतमिलन सामांत वनिसाष्ट नायका भावन वरसविलास त्रितृयोखंड संपूर्णम्।।

    पत्रांक 82बी गाथांक 2111 पर समाप्त।

    अंतः—इति श्री सूर्यवंश बापारावल पट्टालंकार करण खुमांणचरित्र संदे,मोचन पुनः प्रीयतेडण चित्रगढ़ आगमन गंजनीपति महमद पातसाह चित्रगढ़ आगमनं सामंत जुधकरणं सामंत नायक जुद्ध करणं। पातसाह गुहेंमोचन कांनउदे कसामोड रतीसुंदरी देवलदे इत्यादि चरित्रे पं. दोलतविजय विरचिते नवरसविलासग्रंथस्य चतुर्थखंडमिती संपूर्णम्।.4।.

    पत्रांक 94बी पाँचवा खंड गाथांक 2421 पर समाप्त।

    अंतः- इति श्री चित्रकोटाधिपति सूर्यान्वये बापारावल पट्टालंकार करण खुमांण संताने रांणा राहप अधिकारें पं. दोलतविजय विरचिते आलण्सी रावल समरसींघ रावल अधिकारे पंचमखंड संपूर्णम् लि.। हेतविजय।।

    पत्रांक 113 बी छठा खंड गाथांक 2862 पर समाप्त।

    इति श्री चित्रकोटाधिपति बापा खुमांणन्वने रांणा रतनसेन पदमणी गोराबादल संबंध किंचित् पूर्वोक्तं किंचित् ग्रंथाधिकारेण पं. दोलतविजय ग. विरचितोयंधिकार संपूर्णम्।।

    पत्रांक 127 सातवाँ खंड गाथांक 3251 पर समाप्त।

    अतः—इति श्री दलपती विरचितोयं बापाखुमांण वंसान्वने खंड सप्तमो समाप्तं।।

    आठवें खंड का गाथांक 3575।।तक पत्र 139 में आया है। इसके बाद ग्रंथ अपूर्ण रह जाता है।

    ग्रंथ समाप्ति

    ओझाजी आदि सभी विद्वानों ने इस ग्रंथ की अपूर्ण प्रति में महाराणा प्रताप तक के वर्णन होने का उल्लेख किया है। पर ग्रंथ पढ़ने पर विदित हुआ कि इस प्रति में उसके बाद भी अमरसिंह, कर्णसिंह, जगतसिंह के पुत्र राजसिंह का भी वर्णन है और राजसिंह के गंगत्रिवेणी गोमती-राजसमुद्र को बँधाने की तैयारी करने तक का वर्णन आकर ग्रंथ अपूर्ण रहा है। यथाः-----

    रांणो इक दिन राजसी, सहलें चढया शिकार।

    गंगत्रिवेणी गोमती, अनड विचे अपार।।74।।

    नदी निरखी नागडहो, चितइ राजडरांण।

    नदी बंधाउं नाम कर तो हुं सही हींदवांण।।75।।

    तुरत मजधर तेडिया, दीधा त्या शिरपाव।

    तीन नदी बां------

    ग्रंथ-रचना-काल

    इससे पूर्व राजसिंह का मुसलमान की माँग (यातिक कन्या) के विवाह का वर्णन है। इन दोनों घटनाओं का समय श्रीयुत ओझाजी के उदयपुर राज्य के इतिहास भा. 2 (पृ. 542।571) के अनुसार सं. 1717।18 है। अतः ग्रंथ-रचना इसके बाद की निश्चित है। यह ग्रंथ-रचना की पूर्व अवधि हुई। अंत अवधि का निर्धार आगे किया जायगा।

    प्रति का लेखन-काल

    पाँचवें खंड के अंत में लेखक का नाम हेतविजय आता है। लेखन के प्रारंभ में लेखक ने हिमतविजय को नमस्कार किया है। अतः वह हिमतविजयजी का शिष्य जान पड़ता है। प्रति पूरी मिलने के कारण लेखनकाल निश्चित नहीं किया जा सकता। फिर भी अन्वेषण करने पर इन्हीं हेतविजय का लिखा हुआ एक दूसरे ग्रंथ का पता जैनगुज्जर कविओ भा. 2 पृ. 244 से चला है। उसके पुष्पिका-लेख का सारांश यह हैः----

    “सं. 1720 के फाल्गुन शुक्ला 6 भृगुवार को मोहिनगर में मेवाड़ाधिपति अरिसिंह के राज्य में विक्रमादित्य 5 छत्र चौपइ सुजाणविजयजी के शिष्य हिमतविजय के शिष्य हेतविजय ने लिखी।”

    इस पुष्पिका लेख से हेतविजय का समय सं. 1820 के आस-पास का निश्चित हो जाता है और खुमाणरास का लेखक वही है, अतः उसका लेखन-समय भी इसी के लगभग सिद्ध हो जाता है।

    कवि परिचय

    ग्रंथ पूरा मिलने से कवि का एवं ग्रंथ-रचनाकाल आदि का पूरा परिचय तो प्राप्त नहीं होता, फिर भी द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ खंड के अंत में कवि ने अपनी परंपरा आदि का जो उल्लेख किया है वह इस प्रकार हैः----

    द्वितीय खंड के अंत में-----

    त्रिपुरा सगततणें सुपसाय, रच्या खंड दूजो कविराय।

    तप्पगछ गिरूआ गणधार, सुमती साधु वंसे सुखकार।।96।।

    पंडित पद्मविजय गुरुराय, पटोदया गिरि रवि कहवाय।

    जय बधु शांति विजयनो शीश, जो पै दोलत मनह जगीस।।97।।

    तृतीय खंड के अंत में----

    सोहे तपगछ कुल सिणगार पंडित पद्मविजय सिरदार।

    जयविजें पंडित जयकार, शिसूतस शांतिविजय सुखकार।।

    तास तनुज उलट चितधरी, सेवें शगत त्रिपुरसुंदरी।

    किलकायम कवीयण दोलती गुणरचीयो गुणवेधकवती।।56।।

    चतुर्थ खंड के अंत में-----

    जय सीस शांति सुधिराजसुत, करजोर दलपति कहैं।

    उपर्युक्त अवतरणों से स्पष्ट है कि खुमाणरासो के कवि तपागच्छ के सुमतिसाधु के वंश में पद्मविजय के शिष्य, जयविजय के शिष्य और शांतिविजय के शिष्य (तनुज) थे। त्रिपुरासुंदरी देवी का इन्हें इष्ट था, दलपत नाम गृहस्थ अवस्था का है, दीक्षा का नाम दौलतविजय है।

    यद्यपि कवि ने अपनी परंपरा की पूरी वंशावलि नहीं दी है, केवल सुमतिसाधु वंश ही लिख दिया है, पर जैनप्रशस्ति संग्रह के पृ. 266 में कवि के गुरु शांतिविजय की लिखी एक प्रति के पुष्पिका-लेख की नकल है। उसमें उन्होंने अपनी पूरी वंशावलि इस प्रकार दी हैः-----

    “सुमतिसाधु सूरि शि. चंद्रविजय शि. पद्मविजय शि. कमलविजय शि. श्रीविजय शि. चंद्रविजय शि. पद्मविजय शि. जयविजय शि. शांतिविजय, लि. सं. 1756 मि. सु. 5 रायपुरे लि.।”

    इन्ही शांतिविजयजी के लिखे एक और ग्रंथ का पता जैन गुज्जर कविओ भा. 1 पृ. 591 से चलता है। यह ग्रंथ सं. 1733 फा. सु. 15 को उदयपुर में शांतिविजय का लिखा है। अतः ग्रंथकार के गुरु शांतिविजयजी का समय सं. 1733 से 56 निश्चित होता है। यही समय लगभग दौलतविजय का है। अतः खुमाणरासो का रचना-समय सं. 1733 से 1760-70 के मध्य का होना चाहिए। निश्चित तो इस ग्रंथ की पूरी प्रति प्राप्त होने पर ही हो सकता हैं।

    उपर्युक्त विवेचन से निम्नोक्त बातें निश्चित हो जाती हैः------

    (1) इस ग्रंथ में बाप्पा से लगाकर राजसिंह तक का वृत्तांत है। पर राणा खुमाण का वृत्तांत विस्तार से होने के कारण ग्रंथ का नाम खुमाणरास रखा गया है।

    (2) इसकी भाषा राजस्थानी है।

    (3) इसके रचयिता तपागच्छीय जैन कवि दौलतविजय हैं जिनका दीक्षा से पूर्व का नाम दलपत था।

    (4) ग्रंथ-निर्माण-काल सं. 1730 से 1760 के मध्य का है।

    अतः खुमाणरासो तो वीरगाथा-काल का सर्वप्रथम ग्रंथ है, इसका रचयिता राजस्थान का आदिकवि है, इसमें प्रतापसिंह तक का ही वर्णन है, इसका रचनाकाल 16वीं शताब्दी है, यह प्राचीन पुस्तक का परिवर्द्धित संस्करण है, 800 वर्षो का परिमार्जित ग्रंथ, पीछे के राजाओं का वर्णन इसमें परिशिष्ट रूप से जोड़ा गया है और उपलब्ध रूप इसे सत्रहवीं शताब्दी में ही प्राप्त है। और भी एतद्विषयक भ्रांतियाँ उपर्युक्त विवेचन से दूर हो जाती है।

    उदयपुर-राज्य का इतिहास भा. 1 पृ. 120 से कर्नल टाड ने भी अपने ग्रंथ में खुमाणरासो का उपयोग किया पाया जाता है। अतः खोजने पर संभव है, इसकी पूर्ण प्रति भी कहीं उपलब्ध हो जाय। आशा है, अन्वेषण-प्रेमी विद्वान् उसे खोजकर विशेष प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे।

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