बिहारी-सतसई-संबंधी साहित्य (बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर, बी. ए., काशी)
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रोचक तथ्य
Bihari-Satsai Sambandhi Sahitay, Khand-9े
सतसई के क्रम
बिहारी की सतसई की जो मूल अथवा, सटीक प्रतियाँ मिलती हैं, उनमें दोहों का पूर्वापर क्रम एक सा नहीं मिलता। किसी में एक दोहा किसी संख्या पर दिखलाई देता है तो अन्य में अन्य संख्या पर। इसका मूल कारण यही है कि बिहारी ने न तो अपने दोहे किसी साहित्यिक क्रम से बनाए ही और न उनकी यथेष्ट संख्या पूर्ण हो जाने पर, उनको किसी विशेष क्रम से स्वयं लगाया ही। जब जब उनके हृदय में जो जो काव्योपयुक्त भाव, कुछ देख सुन कर, उत्पन्न हुए, तब तब उन्होंने, उन भावों को, अपनी सुधार भाषा तथा प्रकृष्ट प्रतिभा के अनुसार, काव्य का स्वरूप देकर, भिन्न भिन्न दोहे बना डाले। ज्ञात होता है कि प्राकृत की गाथा-सप्तशती एवं संस्कृत की आर्या-सप्तशती तथा अमरुक-शतक इत्यादि, कोष काव्यों का अध्ययन तथा परिशीलन उन्होंने विधिपूर्वक किया था, अतः वे ग्रंथ उनके ध्यान पर भली भाँति चढ़े हुए थे, और यही कारण उनकी काव्य-भाषा के परम शुद्ध तथा एकरस होने का भी है। उन्हीं ग्रंथों के ढंग पर उन्होंने भाषा में मुक्तक दोहों का एक ग्रंथ, मिर्ज़ा राजा जयशाही के अनुरोध से, रचने का विचार किया और, जिस प्रकार उक्त ग्रंथों में कोई विशेष क्रम छंदों के पूर्वापर में नहीं है, उसी प्रकार उन्होंने भी अपनी सतसई में नहीं रखा।
एक यह भी बात यहाँ ध्यान देने योग्य है कि यदि बिहारी किसी विशेष क्रम से अपने दोहों की रचना करना चाहते तो, जिस उच्च कोटि तथा सौष्ठव-संपन्न दोहों के बनाने में वे कृतार्थ हुए, कदाचित् वैसे दोहे न बना सकते, क्योंकि उनको, क्रम के बंधन में पड़कर, किसी विशेष दोहे के पश्चात् किसी विशेष ही भाव के दोहे के बनाने की आवश्यकता पड़ती। ऐसी दशा में, विशेष संभावना यही थी कि, जैसे सुंदर तथा सूक्ष्म भाव उनके दोहों में भरे हैं वैसे न आ सकते, और न वैसी सुधर तथा सुष्ठु भाषा में उनकी व्यक्ति ही दो सकती, क्योंकि कवि की प्रतिभा एक ऐसी स्वतंत्र वस्तु है कि वह उसके इच्छानुसार कार्य करने पर बाधित नहीं की जा सकती। अभ्यास तथा शिक्षा के बल से, कवि कुछ न कुछ बना लेने में तो अवश्य समर्थ हो सकता है, पर जिन भावों का उसके हृदय में समयानुकूल स्वयं उद्गार होता है वे जैसे श्रेष्ठ तथा अलौकिक होते हैं, वैसे खींच-तानकर नहीं सकते, और न उनके प्रकाशित करने के निमित्त वैसे उत्तम शब्द तथा वाक्य विन्यास ही बन पड़ते हैं, क्योंकि खींचातानी के भावों के निमित्त शब्दों तथा वाक्य-विन्यासों का प्रयोग भी खींच-तान ही कर करना पड़ता है, अतः भावों तथा शब्दों में बहुधा वैषम्य आ जाता हैं। इसी कारण, प्रायः देखा जाता है कि बहुधा प्रबंध-काव्यों के अनेक स्थानों पर शिथिलता तथा अरोचकता आ जाती हैं, पर मुक्तक कविताओं के छंद, किसी क्रमादि का प्रतिबंध न होने के कारण, कवि की पूर्ण प्रतिभा तथा उसके अभ्यास एवं निपुणता से उत्पन्न हुए गुणों से संपन्न होते हैं।
हाँ, यह निस्संदेह संभव था कि बिहारी, अपने दोहों की यथेष्ट संख्या पूरी करने के पश्चात्, उनका कोई साहित्यिक अथवा वैषयिक क्रम लगा देते। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया और अपनी आदर्श सतसइयों की भाँति, अपनी सतसई को भी एक मुक्तक दोहों का क्रमरहित संग्रह ही रहने दिया। इसी से, उनके पश्चात्, उनकी कविता के गुण-ग्राहकों तथा टीकाकारों ने, यह समझकर कि एक एक प्रकार के दोहों को एकत्र कर देने से उनकी शोभा कुछ विशेष बढ़ जायेगी तथा उनके अर्थ समझने में भी कुछ सहायता प्राप्त होगी, अपनी अपनी रुचि के अनुसार उनके दोहों के क्रम लगा लिए, जैसा कि उनके प्रथम क्रमकर्ता कोविंद कवि ने अपने संवत् 1742 के बाँधे हुए क्रम की सतसई के अंत में लिखा है------
किए सात सै दोहरा सुकवि बिहारीदास।
बिनुहि अनुक्रम ए भए महिमंडल सुप्रकास।।
सतरह सै चालीस दुइ बरषे फागुन मास।
एकादंसि तिथि सेत पख बुरहनपुर सुख-बास।।
तहँ कोबिद सुभ ए लिखे भिन्न भिन्न अधिकार।
देखते ही कछु समुझियै जिन तैं अरथ-बिचार।।
और सतसई के दूसरे क्रमकर्ता, पुरुषोत्तमदास जी ने, अपने क्रम के अंत में यह दोहा लिखा है---
जद्यपि है सोभा सहज मुक्तनि तऊ सु देखि।
गुहैं ठौर की ठौर तैं लर मैं होति विसेषि।।
इसी कारण बिहारी की सतसई के दोहों के पूर्वापर क्रम कई भिन्न भिन्न प्रकार के दिखाई देते हैं। यदि बिहारी ने अपनी सतसई में कोई विशेष क्रम संगठित कर दिया होता तो उसके परिवर्तित करने का कदाचित् कोई समझदार साहस न करता। उन्होंने अपने दोहों का वही क्रम रहने दिया, जिस क्रम से वे बने थे, जैसा कि ऊपर उद्धृत किए हुए कोविंद कवि के प्रथम दोहे से प्रतीत होता है। इसी क्रम को बिहारी का निज क्रम कहना चाहिए। अब यह बात विचारने की है कि उक्तक्रम कौन सा है। हमारी समझ में, जो क्रम बिहारी-रत्नाकर में, नीचे लिखी पाँच पुस्तकों के आधार पर, स्वीकृत किया गया है, उसी को बिहारी का निज क्रम मानना समुचित हैं----
(1) जयपुर के निजी पुस्तकालय में विद्यमान सतसई की सबसे प्राचीन प्रति। इस पुस्तक के विषय में कहा तथा माना जाता है कि इसे, मिर्ज़ा राजा जयशाही के पुत्र कुमार रामसिंह जी के पढ़ने के निमित्त, बिहारी ने स्वयं लिख अथवा लिखवा दिया था। इसमें केवल 493 दोहे हैं, पर, बीच में कुछ अंकों की गड़बड़ के कारण, अंतिम दोहे पर अंक 500 का दिया है। इसके विषय में यह भी अनुमान किया जा सकता है कि जिस समय यह लिखी गई, उस समय तक केवल उतने ही दोहे बन पाए थे। उस पर जो कुमार रामसिंह जी के अक्षर जहाँ तहाँ हैं, वे नौ-दस वर्ष के लड़के के चीते हुए से प्रतीत होते हैं। रामसिह का जन्म संवत् 1694 में हुआ था, अतः इस पुस्तक का लिखा जाना संवत् 1703-4 में अनुमानित करना समीचीन है। हमारे अनुमान से बिहारी सतसई की रचना का आरंभ होना संवत् 1692 में तथा उसका समाप्त होना 1704-5 में ठहरता है। अतः संवत् 1703-4 में सतसई के पाँच सौ दोहों तक के बनने का अनुमान असंगत नहीं है।
(2) जयपुर के निजी पुस्तकालय में विद्यमान संवत् 1800 की लिखी हुई प्रति। यह पुस्तक बिहारी के किसी शिष्य की संवत् 1739 की लिखी प्रति की प्रतिलिपि है, जैसा कि इसके अंत के लेख से विदित होता है।
(3) विजयगछ वाले मानसिंह कवि की टीका के सहित संवत् 1772 की लिखी हुई प्रति, जो हमारे पास है। इस के अक्षर मारवाड़ी लेखकों के से हैं और इसके अंत के लेख से ज्ञात होता है कि यह अजमेर में लिखी गई थी, इसके आदि के कुछ पत्रे नहीं हैं, जिससे 250 दोहों की टीका खंडित है। इसकी एक अन्य प्रति भी हमको, प्रसिद्ध इतिहासज्ञ स्वर्गवासी श्रीमुंशी देवीप्रसाद जी मुंसिफ़ के द्वारा, जोधपुर से प्राप्त हुई है। वह पूरी है।
(4) पंडित शंभुनाथ के हाथ की लिखी संवत् 1789 की प्रति जो हमारे पास है। यह प्रति हमको अपने स्वर्गवासी मित्र श्रीपंडित गोविंदनारायण जी से प्रति हुई थी। इसके अक्षर भी मारवाड़ी ढंग के है।
(5) किसी लक्ष्मीरत्न नामक लेखक की लिखी संवत् 1796 की पुस्तक। यह पुस्तक अलवर की किसी राजकुमारी रत्नकुवरि जी के पठनार्थ लिखी गई थी। इसमें जहाँ तहाँ दोहों के भाव के चित्र भी बने हैं। अक्षर इसके भी मारवाड़ी छटा के हैं, पर स्पष्ट और सुंदर हैं। यह पुस्तक हमको स्वर्गवासी पूज्य पंडित लक्ष्मीनारायण जी, उपनाम कमलापति जी, कवि से, प्राप्त हुई थी, और हमारे पास विद्यमान है।
इन पाँचों पुस्तकों में से तीरी तथा पाँचवीं पुस्तकों में दोहों का पूर्वापर क्रम एक ही है। केवल दो दोहों के स्थानों में सामान्य अंतर है, अर्थात्, तीसरी पुस्तक के 189 तथा 486 अंकों के दोहे पाँचवी पुस्तक की 185 तथा 486 संख्याओं पर आए हैं और, इस अंतर के कारण, बीच के दोहों के स्थानों में एक एक संख्या का अंतर पड़ गया है।
पहली संख्या की पुस्तका में यद्यपि केवल 493 दोहे हैं, पर जो हैं उनका क्रम तीसरी तथा पाँचवी पुस्तकों के क्रम से बहुत मिलता है। कहीं कहीं दोहों में कुछ आगा-पीछा आवश्य हो गया है, पर 493 वाँ दोहा तीनों पुस्तकों में वही है। इससे यह व्यंजित होता है कि इस पुस्तक में बिहारी के चुने दोहों का संग्रह नहीं किया गया था, प्रत्युत यह सतसई की एक सिरे से प्रतिलिपि है। इसी से यह भी अनुमान होता है कि कदाचित् उस समय तक इतने ही दोहे बने थे।
2 संख्यक पुस्तक में भी दोहों का क्रम वास्तव में वही है जो पहली, तीसरी तथा पाँचवी पुस्तकों में। केवल भगवत् संबंधी कुछ दोहे, जो प्रथम, तृतीय, चतुर्थ तथा पंचम पुस्तकों में बीच बीच में आए हैं, उसमें अंत मं एकत्र रख दिए गए है, और 117, 301, 604 तथा 713 अंकों के दोहे उसमें नहीं है, और 786 दोहों के पश्चात् 73 दोहे उसमें अधिक लिखे हैं, जो बिहारी रत्नाकर के दूसरे उपस्करण के आदि में संगृहीत है। ये वास्तव में बिहारी के दोहे नहीं है।
4 अंक की पुस्तक में भी पूर्वापर क्रम वही है। केवल 5, 7 दोहे इधर से उधर हो गए हैं, जिसका कारण लेखक का प्रमाद मात्र समझना चाहिए। इस प्रमाद का कारण प्रायः यह होता है कि जब किसी लेखक से कोई दोहा लिखते समय छूट गया, और उसके पश्चात् के दो एक दोहे लिखने पर उसका ध्यान उस छूट पर गया, तो उसने छूटे हुए दोहे को उन दोहों के पश्चात् लिख दिया, और यदि उसका ध्यान सर्वथा उस छूट पर नहीं ही गया तो उस दोहे का लिखना ही रह गया। 464, 498 और 563 से 569 तक तथा 713 अंकों के दोहे उसमें नहीं हैं, और ये दो दोहे अधिक है------
मान छुटैगौ मानिनी पिय-मुख देखि उदोतु।
जैसै लागैँ धाम के पाला पानी होत।।7।।
प्यौ बिछुरत तअउ थकि रह्यौ लागि चल्यौ चितु गैल।
जैसैं चोर चुराइ लै चलि नहिं सकै चुरैल।।46।।
न्यूनता का कारण तो लेखक का छोड़ जाना तथा भूल से पत्रा उलट देना प्रतीत होता है और अधिकता का कारण यह हो सकता है कि कदाचित् किसी ने इनकी बिहारी के दोहे समझकर अपनी पुस्तक के पार्श्व-भाग पर लिख लिया हो, और इस प्रतिलिपि के लेखक ने लिखते समय उनको भी बीच में लिख दिया हो। इन दो दोहों में से मान छुटैगौ, इत्यादि दोहा अमरचंद्रिका में भी मिलता है।
इन पाँचों प्राचीन पुस्तकों के अतिरिक्त, दो और सटीक पुस्तकें भी हमकों, अपनी टीका समाप्त करने के पश्चात् मिलीं, जिनका विशेष वर्णन अन्य टीकाओं के साथ किया जाएगा। उनमें से एक पुस्तक ब्रजभाषा-टीका-सहित है जिसका कृष्णलाल की टीका होना संभावित है। उस पुस्तक में भी दोहों का क्रम वस्तुतः वही है जो ऊपर लिखी हुई पाँच पुस्तकों में। केवल 678 संख्यक दोहा उसमें नहीं है, और यह दोहा अधिक है------
सिसुता-अमल-तगीर सुनि भए और मिलि मैन।
हौं होत है कौन के ए कसबाती नैन।।96।।
यह अधिक दोहा सतसई की और किसी प्रति में नहीं मिलता। इस पुस्तक में भी पाँच, सात दोहों के स्थानों में तीसरी तथा पाँचवीं पुस्तकों के क्रम से कुछ भेद पड़ता है।
दूसरी पुस्तक श्री जोशी आनंदीलाल जी की फ़ारसी-टीका-सहित है। ये महाशय अलवर राजसभा के फारसी-कवि थे। इनकी पुस्तक में केवल 640 दोहे हैं जिनका पूर्वापर क्रम, पाँच-सात दोहों का आगा-पीछा छोड़कर, वही है जो 3 तथा 5 अंक की पुस्तकों में। इसमें बिहारी रत्नाकर के 640 तक के दोहों में से 116 तथा 492 से 497 तक के अंकों के दोहे नहीं हैं और अंत के 66 दोहे छूटे हुए हैं। उक्त पंडित जी को जो प्रति सतसई की मिली थी कदाचित् उसमें ये ही 640 दोहे थे। उसमें 116 वाँ दोहा तो लेखक की भूल से छूटा हुआ ज्ञात होता है, और 492 से 497 तक के 6 दोहों के विषय में अनुमान होता है कि लेखक से लिखते समय पत्रा उलटने में प्रमाद हो गया। अंत के 66 दोहों की टीका के न होने का कारण या तो टीकाकार की प्रति का अंत में खंडित होना या स्वयं उसका उकता जाना प्रतीत होता है।
हमारी पाँचवीं अंक की पुस्तक अलवर की किसी राजकुमारी के निमित्त संवत् 1797 में लिखी गई थई। उसके क्रम से इस फ़ारसी टीकावाली पुस्तका का क्रम मिलता है जिससे प्रमाणित होता है कि अलवर में कोई प्राचीन प्रति सतसई की विद्यमान था जिससे ये दोनों प्रतियाँ उतारी गई। इस प्रति से भी बिहारी का निज क्रम वही प्रमाणित होता है जो हमने स्वीकृत किया है।
इन सातों पुस्तकों पर विचार करने से यही निर्धारित होता है कि ये किसी ऐसी प्रति की प्रति-लिपियाँ अथवा पारंपरिक प्रति प्रतिलिपियाँ हैं, जिसमें बिहारी के दोहें अपने रचना-क्रम के अनुसार संग्रहीत थे। इनके क्रमों में जो कहीं कहीं कुछ अंतर दृष्टि-गोचर होता है उसका कारण केवल लेखकों का प्रमाद अथवा छाँटने की चेष्टा मात्र है। इन पुस्तकों में से भी 3 तथा 5 अंकों की पुस्तकों में केवल दोही दोहों के स्थानों में अंतर होने के कारण, वे ही बिहारी के निज क्रम की मुख्य प्रतियाँ मानने के योग्य हैं, और उन दोनों में भी 3 अंक की पुस्तक सटीक होने के कारण विशेष मान्य है। इसी कारण बिहारी रत्नाकर के क्रमस्थापन में वही आधार मानी गई है।
इस क्रम में किसी साहित्यिक अथवा वैषयिक क्रम के लेश मात्र का भी दर्शन नहीं होता। कहीं मुग्धा का एक दोहा है तो उसी के पश्चात् कोई दोहा प्रौढ़ा का, कहीं श्रृंगार रस के दोहे के पास ही कोई नीति का दोहा दिखाई देता है, और बीच बीच में भगवत-संबंधी, शांत-रस-पूरित तथा नृपस्तुति-विषयक दोहे मिश्रित है। किसी अन्य व्यक्ति को इस प्रकार के क्रम के स्थापित करने का कोई कारण नहीं हो सकता था, अतः यह अनुमान करना कि बिहारी का निज क्रम यही है, सर्वथा संगत तथा उचित है।
यह बात भी ध्यान देने के योग्य है कि, 3 अंक की पुस्तक, संवत् 1772 में, अजमेर में लिखी गई थी, और उसने मानसिंह विजयगछ वाले की टीका भी है, और 5 अंक की पुस्तक, संवत् 1796 में, अचलगढ़ (अलवर) में, रतनकुँवरि नामक किसी राजकन्या के पढ़ने के लिए। इतने देश तथा काल के अंतर होने पर भी, इन दोनों प्रतियों के क्रमों में साम्य होना इस बात को पूर्णतया प्रमाणित करता है कि ये दोनों ही किन्हीं ऐसी प्रतियों से लिखी गई हैं जिनका आदि मूल एक ही प्रति थी। यह बात इससे भी प्रमाणित होती है कि, इन दोनों प्रतियों के पाठों में भी बहुत साम्य है। इसके अतिरिक्त मानसिंह ने जो अपनी टीका के अंत में लिखा है कि बिहारी ने 713 दोहे बनाए, वे ही 713 दोहे इन दोनों पुस्तकों में मिलते भी हैं। मानसिंह की टीका का बनना हमने संवत् 1730 तथा 1735 के बीच में अनुमानित किया है, जिसका कारण यथास्थान लिखा जायगा। अतः यह संभव है कि बिहारी उक्त टीका के लिखते समय जीवित रहे हों। यह एक किवदंती भी है कि मानसिंह बिहारी से परिचित थे। अतः मानसिंह का क्रम तथा उनका यह लेख कि बिहारी ने 713 दोहे बनाए, माननीय ज्ञात होता है, विशेषतः ऐसी दशा में जब कि उनके क्रम तथा संख्या का ठीक होना 5 संख्यक पुस्तक से भी प्रमाणित होता है, और 1 संख्या की पुस्तक भी उसके क्रम के ठीक होने की साक्षी दे रही है।
यह एक बात भी इस अनुमान को पुष्ट करती है कि कोविदकवि ने जो संवत् 1742 में क्रम लगाया उसमें जो 709 दोहे रखे हैं वे इन्हीं 713 दोहों में से हैं यद्पि कम उन्होंने अपने मत के अनुसार बाँधा है।
यद्यपि बिहारी ने सतसई में अधिकांश दोहों का पूर्वापर क्रम तो वही रहने दिया, जिस क्रम से उनकी रचना हुई थी, तथापि प्राचीन पुस्तकों के देखने से प्रतीत होता है कि, उनके हृदय इनका क्रम स्थापित करने की अभिलाषा अवश्य थी कि प्रति दस दस अतवा बीस बीस दोहों के पश्चात् एक एक भगवत्-संबंधी, अथवा नीति-विषयक, दोहे आ जायँ। ज्ञात होता है कि, बनाने समय भी उन्होंने इस बात पर ध्यान रखा था, पर रचना-काल में, भावों के उद्गार पूर्ति उन्होंने ग्रंथ समाप्त होने पर कर दी, अर्थात् जहाँ जहाँ दस दस अथवा बीस बीस पर भगवत् संबंधी अथवा नीति-विषयक दोहे नहीं पड़े, वहाँ वहाँ नए दोहे बनाकर अथवा अन्य स्थानों से उठाकर, रखने का प्रयत्न किया। बिहारी का यह अभिप्राय 2 अंक की अर्थात् शिष्यवाली पुस्तक में भगवत् संबंधी कुछ दोहों के एकत्र कर देने से भी लक्षित होता है। इस कार्य में, ज्ञात होता है कि, उन्होंने अधिकांश ऐसे दोहों को तो अपनी चौपतिया के पार्श्वभाग पर, जिन स्थानों पर, जिन स्थानों पर ऐसे दोहे स्थापित होने चाहिए थे उनके संमुख, लिख दिया और किसी किसी दोहे के सामने केवल वह संख्या लिख दी, जिस पर उनको वह दोहा रखना अभीष्ट था। चौपतिया की प्रतिलिपि उतारनेवाले ने जो दोहे पार्श्वभाग पर लिखे थे। उनको, बिहारी का यह अभिप्राय न समझकर कि ऐसे दोहों का दस दस या बीस बीस पर रखना अभीष्ट है, कहीं कहीं उचित स्थानों से दो एक संख्या आगे पीछे लिख दिया, और जिन दोहों के सामने केवल अभीष्ट संख्या मात्र लिखी थी, कि यह दोहा अमुक स्थान पर जाना चाहिए, उनको प्रमाद से जहाँ का तहाँ रहने दिया, अर्थात् उनको बिहारी के अभीष्ट स्थान पर नहीं रखा। इन चूकों में से पहली चूक का कारण तो यह अनुमानित हो सकता है कि पार्श्वभाग में लिखे हुए दोहे एक ही दोहे के सामने नहीं समा सकते वरन् तीन चार दोहों के सामने पड़ जाते हैं, अतः ऐसे किसी लेखक का, जिसको इस बात का भाग न रहा हो कि पार्श्व भाग पर ये दोहे किस स्थान पर रखने के अभिप्राय से लिख दिए गए हैं, उनका उचित अंकों के दो चार अंक आगे पीछें समावेश कर देना पूर्णतया संभव और स्वाभाविक ही है। ऐसी चूकों के उदाहरण 11, 41, 61, 71, 91 इत्यादि अंकों के दोहों में दृष्टिगोचर होते हैं जो कि 3 तथा 5 संख्यक पुस्तकों में 10, 42, 62, 69, 87 इत्यादि अंकों पर लिखे मिलते हैं। दूसरी चूक का कारण, लेखक का पार्श्व टिप्पणी पर ध्यान न देने, अथवा यदि कोई दोहा पीछे से आगे आया है तो उस पीछे वाले दोहे के सामने की टिप्पणी का उचित स्थान के आस पास के दोहों के लिखते समय न देखना प्रतीत होता है। ऐसी चूकों के उदाहरण 121, 131, 181, 201, 401 इत्यादि अंकों के दोहों में दिखाई देते हैं, जो कि 3 तथा 5 अंकों की पुस्तकों में 52, 117, 162, 216, 369 इत्यादि अंकों पर हैं।
क्रमों के विषय में सामान्य बातें निवेदन करके, अब हम सतसई के भिन्न भिन्न क्रमों का वर्णन नीचे आरंभ करते हैं।
(2)
सतसई का प्रथम क्रम तो बिहारी का निज क्रम ही है, जिसका वर्णन ऊपर हो चुका है। इस क्रम पर अद्यावधि हमारे देखने में तीन प्राचीन टीकाएँ आई हैं। उनमें से एक टीका के कर्ता का नाम तो निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है, पर संभवतः वह कृष्णलाल की टीका है, जिसका लल्लूलालजी ने अपनी लालचंद्रिका की भूमिका में गिनाया है। दूसरी टीका मानसिंह विजयगछवाले की है और तीसरी टीका फ़ारसी भाषा में पंडित आनंदीलाल जोषी अलवरवाले की इन टीकाओं का विशेष वर्णन यथास्थान किया जायेगा। चौथी टीका इस क्रम पर अब बिहारी रत्नाकर नाम की हुई है, जो प्रकाशित होकर पाठकों के सामने उपस्थित हो चुकी है।
बिहारीरत्नाकर में हमने 3 अंक की पुस्तक के अनुसार बिहारी का निज क्रम ही रखा है। पर बिहारी का यह अभिप्राय लक्षित करके कि दस दस अथवा बीस बीस पर एक एक भगवत्-संबंधी अथवा नीति-विषयक दोहा रखा जाय, जहाँ जहाँ ऐसे स्थानों से अभीष्ट दोहे कुछ विचलित मिले, वहाँ वहाँ उनके स्थान अपनी बुद्धि के अनुसार ठीक कर दिए हैं। इस स्थान-संशोधन में यह संभावना अवश्य है कि जिस स्थान पर हमने कहीं दूर का कोई दोहा स्थापित किया है वहां के निमित्त बिहारी ने कोई अन्य दोहा सोचा रहा हो। इसी विचार से पुस्तकांत में जो दोहों के अकारादि क्रम की सूची लगाई गई है, उसमें एक कोष्ठ तीसरी पुस्तक, अर्थात् मानसिंह की टीका वाली प्रति, का भी रख दिया गया है, जिसमें पाठकों को यह बात विदित हो सके कि हमने किस किस दोहे के स्थान परिवर्तित करने का साहस किया है।
उक्त संस्करण में, रचना-काल के अनुसार दोहों के क्रम के रखने से यह भी लाभ संभावित है कि इससे रचनाकाल के भिन्न भिन्न समय पर कवि की मनोवृत्ति तथा उसकी प्रतिभा-शक्ति की प्रबलता तथा निर्बलता व्यंजित हो सकती है, और यदि किसी ऐतिहासिक विषय का वर्णन किसी दोहे में आ गया है तो उसके निश्चित समय से दोहे के निर्माण-काल का भी कुछ पता चल जाता है, और फिर दोहे के निर्माण-काल के अनुमान से उक्त ऐतिहासिक घटना के समय का कुछ मोटा मोटा पता लग सकता है। जैसे रहति न रन इत्यादि दोहा बिहारी के क्रम में 80 अंक पर पड़ता है, तो इस पर निम्नलिखित अनुमान निर्भर किए जा सकते हैं। बिहारी ने अपनी सतसई-रचना का प्रारंभ संवत् 1692 में किया था और समाप्ति संवत् 1704-5 में। यदि हमारा यह अनुमान ठीक हो तो, सतसई की रचना का काल 12-13 वर्ष ठहरता है। इस गणना से प्रति वर्ष में 50, 60 दोहों की रचना मानी जा सकती है। अतः 80 अंक के दोहे में वर्णित घटना भी संवत् 1694 की मानी जा सकती है। इस बात का कह देना यहाँ आवश्यक है कि, यद्यपि कवियों की कविता सदैव एक परिमित संख्या में प्रति वर्ष की गणना में नहीं बनती-कभी उनकी प्रतिभा थोड़े ही काल में अधिक कविता बना देती है और अभी कुछ काल तक सुषुप्ति अवस्था में पड़ी रहती है- तथापि सामान्यतः ऊपर कहा हुआ अनुमान कुछ विशेष अनुचित भी नहीं है।
सतसई के दोहों के सौष्ठव तथा उनकी सर्वकाव्य-गुण-संपन्नता से आकर्षित होकर समय समय पर, भिन्न भिन्न भाषा-काव्य-प्रेमी विद्वानों तथा राजाओं महाराजाओं ने उसका बड़े आदर तथा चाव से पठन-पाठन किया, और अनेक महाशयों ने, उसके दोहों में कोई साहित्यिक अथवा वैषयिक क्रम न पाकर, अपनी अपनी मति तथा बुद्धि के अनुसार, उसके दोहों के मूल पूर्वापर-क्रम में परिवर्तन करके, अपने अपने विशेष क्रम स्थापित किए। उनमें से जितने हमारे दृष्टिगोचर हुए है। इनका संक्षिप्त विवऱण नीचे लिखा जाता है।
(2)
कोविद कवि का क्रम
बिहारी के निज क्रम में परिवर्तन करके, सबसे पहले चंद्रमणि मिश्र, उपनाम कोविद कवि ने, संवत् 1742 में अपनी रुचि के अनुसार, सतसई का एक नया क्रम बाँधा। यह क्रम यद्यपि साहित्य दृष्टि से कुछ विशेष गौरव का नहीं है, तथापि इसको सतसई के प्रथम बाँधे हुए क्रम होने का गौरव प्राप्त है। इससे भी बिहारी के निज क्रम के वही होने का, जो हमने बिहारी रत्नाकर में ग्रहण किया है, पोषण होता है, क्योंकि इसमें, यद्यपि दोहों का पूर्वापर क्रम विषयानुरोध से परिवर्तित कर दिया गया है तथापि, जो 709 दोहे रखे गए हैं वे सब बिहारी के निज क्रम की प्रतियों में पाए जाते हैं, और जो बिहारी रत्नाकर में ग्रहण किए गए है। बिहारी रत्नाकर के स्वीकृत दोहों में से 50, 125, 141, 187, 389, 455, 551, 689 तथा 713 अंकों के नौ दोहे इस में नहीं पाए जाते। इन नौ दोहों में से पाँच तो लेखक की असावधानी से हमारी प्रति में छूट गए हैं जो कि बीच में अंकों की श्रृंखला के बिगड़ जाने से प्रमाणित होता है, और शेष चार दोहे इस क्रम में वस्तुतः नहीं लिए गए हैं। इसके अतिरिक्त इसके प्रति शीर्षक में जो दोहे आए हैं वे प्रायः इस क्रम से आए हैं कि जो दोहे बिहारी के निज क्रम में पहले पड़ते हैं वे पहले, और जो पीछे पड़ते हैं वे पीछे। यह बात पुरुषोत्तमदास जी के अथवा अन्य किसी क्रम में नहीं पाई जाती। अतः इससे इसका पुरुषोत्तमीय क्रम के पहले का क्रम होना निर्धारित किया जा सकता है। इस क्रम की अनुक्रमणिकों यहाँ दी जा सकती है। पर ऐसे ही सब क्रमों की अनुक्रमणिका देने से लेख के आकार के तो बहुत बढ़ जाने की आशंका है और पाठकों का कोई विशेष लाभ संभावित नहीं। अतः ऐसा नहीं किया जाता।
इस क्रम के अंत में क्रमकर्ता के ये दोहे पाए जाते हैं-----
किए सात सै दोहरा सुकवि बिहारीदास।
बिनुहिं अनुक्रम ए भए महि मंडल सु-प्रकास।।
सतरह सै चालीस दुइ बरषे फागुन मास।
एकादसि तिथि सेत पख बुरहनपुर सुखबास।।
तहँ कोबिद सुभ ए लिखे भिन्न भिन्न अदिकार।
देखते ही कछु समुझियै जिन तैं अर्थ-विचार।।
सुनि कबि के ए सुभ बचन अवगुन तजि गुन लेइ।
जग मैं सो नीकौ पुरष पुन्य-सीख जो देइ।।
इनसे विदित होता है कि यह क्रम कोबिद कवि ने संवत् 1742 में लगाया था, और वे बुरहनपुर के रहनेवाले थे। मिश्र बंधुविनोद में कोबिद कवि के विषय में लिखा है कि इनका नाम चन्द्रमणि मिश्र था और ये महाराजा पृथ्वीसिंह दताय नरेश तथा उदोतसिंह के यहाँ थे। इनका रचना-काल संवत् 1737 बतलाया है और इनके बनाए दो ग्रंथ लिखे है- (1) भाषा हितोपदेश तथा (2) राजभूषण। इनको सुकवि भी कहा है।
इस क्रम की केवल एक प्रति हमको पंडित दुलारेलाल जी भार्गव के द्वारा जयपुर-निवासी पंडित हनुमान शर्मा जी से प्राप्त हुई है, जिसके लिए हम उनके कृतज्ञ है। यह संवत् 1850 की लिखी हुई है। इस क्रम पर कोई टीका अद्यावधि हमको नहीं मिली है।
(3)
पुरुषोत्तमदास जी का क्रम
तीसरा क्रम पुरुषोत्तमदास जी का बाँधा हुआ है। इस क्रम की, मूल तथा सटीक, प्रतियाँ कई एक हमारे पास हैं। इनमें से हरिप्रकाश टीका के अतिरिक्त और किसी में भी यह नहीं लिखा है कि यह क्रम पुरुषोत्तमदास का लगाया हुआ है। केवल हरिप्रकाश टीका के आदि में यह लिखा है कि पुरुषोत्तम दास जी कौ बांध्यौ क्रम है ताके अनुसार टीका। हमारी मूल की प्रतियों में से सबसे प्राचीन प्रति अनुमान से 150 वर्ष की लिखी हुई ज्ञात होती है। यह हमको श्रीवृंदावन-निवासी पंडित केशवदेव जी से प्राप्त हुई थी। इसी प्रति के अनुसार हम इस क्रम का विवरण कहते हैं। इसमें 700 दोहे हैं, जिसमें से ये तीन दोहे बिहारीरत्नाकर में नहीं आए हैं-----
ताहि देखि मन तीरथनि बिकटनि जाइ बलाइ।
जा मृगनैनी के सदा बेनी परसति पाइ।।
पावस कठिन जु पीर अबला क्यौँ करि सहि सकै।
तेऊ धरत न धीर रक्तबीज-सम ऊपजे।
सपत बड़े फूलत सकुचि सब-सुख केलि-निवास।
अपत सु कैर फलै बहुत मन मैं मानि हुलास।।
और बिहारी रत्नाकर के 80, 139, 418, 503, 614, 619, 678, 692, 705, 707, 709, 710, 711, 712 तथा 713 अंकों के दोहे इसमें नहीं है। इस गणना से 713 दोहों का लेखा पूरा लग जाता है। अंत में क्रम-कर्ता के 12 दोहे दिए हैं। उनमें से अंत के दो दोहे ये हैं----
रस-सुख-दायक भक्तिमय जामैं नवरस-स्वाद।
करी बिहारी सतसई राधाकृष्ण-प्रसाद।।
जद्यपि है सोभा सहज मुक्तनि तऊ सु देखि।
गुहै ठौर की ठौर तैं लर मैं होति विसेषि।।
इनमें से दूसरे दोहे से बिहारी के दोहों का पहले बिना किसी साहित्यिक क्रम के होना तथा पुरुषोत्तम जी का उनको अपने मतानुसार एक क्रम में स्थापित करना व्यंजित होता है। इस क्रम की और प्रतियाँ जो हमारे पास हैं नमें दो चार दोहों का न्यूनाधिक्य तथा स्थान-परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है। पर यह 700 संख्या पुरुषोत्तमदास जी के क्रम ही की ज्ञात होती है, क्योंकि हरिचरनदास जी ने भी अपनी टीका के अंत में लिखा है कि “श्री बिहारी जी की करी प्राचीन पोथी है तामें 700 दोहें है। और दोहा बीच बीच में और लोगनि नै राखे हैं, तासौं बढ़यौ है।“
ज्ञात होता है कि हरिचरनदास जी को जो पुरुषोत्तमदास जी के क्रम की पुस्तक मिली थी, उसमें 700 ही दोहे थे। पर अन्य पुस्तकों में उनके देखने में इससे अधिक दोहे आए, जिसके कारण उन्होंने जहाँ तहाँ कुछ परिवर्तन तथा न्यूनाधिक्य कर के अपनी टीका में 712 दोहे ग्रहण किए, और अंत में पुरुषोत्तमदास जी की जद्यपि है “सोभा इत्यादि” दोहा लिख कर और कृष्ण कवि का “ब्रजभाषा बरनी इत्यादि” दोहा कुछ परिवर्तन रूप में कर ग्रंथ की समाप्ति की। हरिप्रकाश टीका का विशेष अन्य टीकाओं के साथ यथास्थान किया जायेगा।
पुरुषोत्तमदास जी महाराज छत्रसाल बुँदेला की सभा के कवि थे। शिवसिंह सरोज में इनका यह कवित्त भी छत्रसाल की प्रशंसा का दिया है—
कवि पुरुषोतम तमासै लगि रह्यौ भानु,
बीर छत्रसाल अदभुत जुद्ध ठाटे है।
बाहर नरेस के सवाद (?) रजपूत लरै,
मारैं तरवारैं गज बादर से फाटे हैं।
सिंधु लोहू कुंडनि गगन झुंडा-झुंडनि सौँ,
रिपु रुंडा-मुंडनि सौं खंड सबै पाटे हैं।
चरबी-चखैयनि की परबी समरबीच,
गरबी मगरबी सो करबी से काटे हैं।।
देवकीनंदन-टीका में बिहारी का छत्रसाल के यहाँ जाना तथा उनकी कविता का वहाँ आदर होना लिखा है। यदि यह बात सच है तो यह अनुमान करना चाहिए कि सतसई की कोई प्रति वहाँ रख ली गई थी, उसमें पुरुषोत्तमदास जी ने कोई क्रम न देखकर, अपनी मति के अनुसार यह क्रम बाँध डाला। यह क्रम साहित्यिक दृष्टि से विशेष गौरव का नहीं है। इसको भी कोविद कवि के क्रम के प्रकार का एक सामान्य क्रम समझना चाहिए।
इस क्रम की रचना का संवत् कहीं लिखा नहीं मिलता, पर, पुरुषोत्तमदास जी के महाराज छत्रसाल बुंदेला की सभा के कवि होने के कारण, हमने अनुमान से इस क्रम की रचना संवत् 1740 तथा 1750 के बीच में मानी है, क्योंकि लाल कवि के छत्रप्रकाश के अनुसार छत्रसाल ने संवत् 1728 में, जब कि वह 22 वर्ष के थे, अपना विजय-संग्राम आरंभ किया था। उनको प्रसिद्ध होने तथा इस प्रकार की शांति प्राप्त करने में, कि उनकी सभा के कवियों को सतसई के क्रम लगाने की सूंझे, पंद्रह बीस वर्ष अवश्य ही लगे होंगे। पर यह भी संभव है कि यह क्रम कोविद कवि के क्रम के पहले ही लगाया गया हो। क्योंकि यदि बिहारी का बुदेलखंड जाना सत्य है तो वह वहाँ संवत् 1930 के आस पास गए होंगे। इस अनुमान का यह कारण है कि उस समय उनकी अवस्था 75-80 वर्ष की रही होगी। पर ऊपर लिखे हुए कारण तथा कोविद कवि के क्रम में पुरुषोत्तमदास जी के क्रम की अपेक्षा बिहारी की निज क्रम की प्रतियों से अधिक मिलान पाकर, हमने पुरुषोत्तमदास जी के क्रम का समय कोविद कवि के समय के पश्चात् अनुमानित किया है।
इस क्रम पर 6 टीकाएँ हमारे देखने में आई हैं------ (1) अमरचंद्रिका, (2) हरिप्रकाश, (3) जुल्फकार खाँ की कुंडलिया (4) बिहारी-बोधिनी, (5) गुलदस्तए बिहारी तथा (6) श्री रामवृत्त शर्म्मा की टीका और यदि रस-चंद्रिका का क्रम हमारी प्रति का ठीक माना जाय तो वह भी। इन टीकाओं का विवरण अन्य टीकाओं के साथ यथास्थान किया जायगा।
(4)
अनवर-चंद्रिका का क्रम
सतसई का चौथा क्रम, संवत् 1771 में, अनवर-चंद्रिका टीका के कर्ताओं, शुभकरण तथा कमलनयन कवियों, ने बाँधा। यह क्रम रसनिरूपण-क्रम के अनुसार है, और इसको सतसई के सम्यक् साहित्यिक क्रम होने की प्रतिष्ठा प्राप्त है। अनवर-चंद्रिका को वास्तव में एक रस-निरूपण का ग्रंथ कहना चाहिए, जिसके उदाहरणों में बिहारी के दोहे रखे गए हैं। जहाँ जहाँ ग्रंथकर्ताओं को बिहारी के दोहों में, अपनी समझ के अनुसार, उपयुक्त उदाहरण नहीं मिले, अथवा ऐसे दोहे, जो उन स्थानों पर रखे जा सकते हैं, पर और विषयों के उदाहरणों में आ चुके थे, वहाँ वहाँ उन्होंने अन्य कवियों के अथवा अपने दोहे इत्यादि रख दिए हैं।
अनवर-चंद्रिका की भिन्न भिन्न प्रतियों में कई एक दोहों का न्यूनाधिक्य तथा कई एक दोहों के स्थानों में परिवर्तन दिखाई देते है। अतः हमने कई एक प्रतियों के आधार पर एख प्रति दोहों की संख्या तथा क्रम ठीक करके बनाई है। उसी के अनुसार अनवर-चंद्रिका के क्रम तथा संख्या के विषय में लिखा जाता है।
अनवर-चंद्रिका 16 प्रकाशों में विभक्त है, जिनका ब्योरा यह है-----
(1) प्रथम प्रकाश, प्रभुवंश-वर्णन, 13 छंद।
(2) द्वितीय प्रकाश, साधारण नायिका-वर्णन, 35 छंद।
(3) तृतीय प्रकाश, सिख-नख वर्णन, 87 छंद।
(4) चतुर्थ प्रकाश, मुग्धादि-त्रिविधनायिका-वर्णन, 21 छंद।
(5) पंचम प्रकाश, अष्टनायिका-वर्णन, 117 छंद।
(6) षष्ठ प्रकाश, गर्विता-वर्णन, 4 छंद।
(7) सप्तम प्रकाश, मानिनी-वर्णन, 44 छंद।
(8) अष्टम प्रकाश, परकीया-वर्णन, 26 छंद।
(9) नवम प्रकाश, परकीया-वर्णन, 138 छंद।
(10) दशम प्रकाश, दशदशा-वर्णन, 11 छंद।
(11) एकादश प्रकाश, सात्विकभाव-वर्णन, 9 छंद।
(12) द्वादश प्रकाश, मद्यपान-वर्णन, 6 छंद।
(13) त्रयोदश प्रकाश, हाव-वर्णन, 11 छंद।
(14) चतुर्दश प्रकाश, नवरसादि-वर्णन, 80 छंद।
(15) पंचदश प्रकाश, षट्ऋतु-वर्णन, 43 छंद।
(16) षोडश प्रकाश, अन्योक्ति-वर्णन, 72 छंद।
इन सोलह प्रकाशों में से प्रथम प्रकाश के 13 छंद तो स्वयं टीकाकारों के हैं। उनमें ग्रंथ की अवतरणिका कहीं गई है। शेष पंद्रह प्रकाशों में मुख्य ग्रंथ-भाग रचा गया है। इनमें 704 छंद संकलित किए गए हैं। इन 704 छंदों में 22 छंद तो ऐसे हैं जो बिहारी-रत्नाकर में नहीं आए हैं, और 31 दोहे बिहारी रत्नाकर के इनमें नहीं है। वे दोहे इन अंकों के हैं- 39, 47, 57, 92, 108, 126, 139, 170, 193, 234, 289, 356, 385, 416, 453, 503, 533, 568, 599, 611, 614, 642, 678, 692, 704, 705, 707, 709, 710, 712 तथा 713। इस प्रकार बिहारी रत्नाकर के 713 दोहों का लेखा लग जाता है। 22 छंद जो अनवर-चंद्रिका में बिहारी रत्नाकर से अधिक ठहरते हैं उनमें ये तीन छंद स्वयं ग्रंथकर्ता शुभकरण जी के हैं------
लखि दुर्जन नवर प्रबल कीन्यौ कोप कराल।
चढ़ीं भृकुटि फरके अधर भए नैन जुग लाल।।529।।
अनवर खाँ के खेत अरि-सिरदारनि सिर बए।
फिरि उपजे इहिँ हेत अरि-तिय-दृग जल थल भरत।।534।।
देखत अनवर खाँ बदन दुवन दवे हहरोइ।
बढ़वौ कंप रोवाँ उठे बदन गयौ पियराइ।।536।।
और यह एक बरवै खानखाना का है-----
बरि गइ हाथ उपरिया रहि गइ आगि।
घर की बाट बिसरि गइ गहनै लागि।।483।।
शेष 18 दोहे बिहारी-रत्नाकर के द्वितीय उपस्करण के 8, 76 से 82 तक तथा 133 से 142 तक के अंकों पर दिए हैं। उनमें से 8 तथा 133 से 142 तक के अंकों के 11 दोहे तो मतिराम के हैं और 7 दोहे संदिग्ध हैं। इन सात दोहों में से कई एक के स्वयं ग्रंथकार के होने की संभावना है।
आज तक जितने क्रम बिहीर सतसई के हमारे देखने में आए हैं उनमें, आज़मशाही क्रम को छोड़कर, अनवरचंद्रिका का क्रम, साहित्यिक दृष्टि से, सभों से उत्तम तथा सश्रृंखल है प्रत्युत किसी किसी बात में तो वह आज़मशाही क्रम से भी अच्छा है। इस क्रम पर चार टीकाएँ, हमारे देखने में आई है- (1) स्वयं अनवर चंद्रिका, (2) साहित्यचंद्रिका, (3) प्रतापचंद्रिका और (4) रणछोड़ जी दीवान की टीका। इन टीकाओं तथा इनके टीकाकारों का वर्णन अन्य टीकाओं के साथ आगे किया जायगा।
(5)
(आज़मशाही क्रम)
पाँचवाँ क्रम आज़मशाही कहलाता है। यह जौनपुर के रहने वाले हरजू नामक कवि ने आज़मगढ़ के तत्सामयिक अधिकारी, आज़म खाँ के अनुरोध से संवत् 1781 में लगाया था। यह क्रम विभावानुभावादि साहित्यिक श्रृंखला के अनुसार है, और अद्यावधि जितने क्रम हमारे देखने में आए हैं,उन सभों में श्रेष्ठ है। इस क्रमम की कई एक हस्तलिखित तथा छपी हुई, मूल एवं सटीक पुस्तकें हमारे पास है। लालचंद्रिका टीका इसी क्रम पर बनाई गई है। इस क्रम की सबसे प्राचीन पुस्तक जो हमारे पास है वह संवत् 1791, अर्थात क्रम बाँधे जाने के दस ही वर्ष पीछे की लिखी हुई है। वह हमको काशी निवासी पंडित चुन्नीलाल जी औदीच्य की कृपा से प्राप्त हुई है। उसी को प्रामाणिक मानकर, उक्त क्रम का विवरण नीचे लिखा जाता है।
इस क्रम के अंतिम दोहे पर 718 अंक है। इन 718 दोहों में एक दोहा अर्थात् यौं दल काढ़े इत्यादि तो दो बार आया है। उसके घटा देने पर जो 717 दोहे बच जाते हैं उनमें से 9 दोहे ऐसे है जो बिहारी-रत्नाकर में नहीं आए हैं, और बिहारी रत्नाकर के 170, 262, 324, 415 तथा 595 संख्याओं के दोहे इसमें नहीं आए हैं। पर लालचंद्रिका में ये पाँचों दोहे पाए जाते हैं, और इस क्रम की और किसी किसी प्रति में भी इनमें से कोई कोई मिलते हैं। इस प्रति के नौ अधिक दोहों में से 8 तो दूसरे उपस्करण के 79, 82 तथा 85 से 90 तक के अंकों पर समाविष्ट है, और एक दोहा, जो उक्त उपस्करण में छूट गया है, यह है-----
को कहि सकै बड़ेनु सौं बड़े बंस की खानि।
भलौ भलौ सब कोउ कहै धुवाँ अगर कौ जानि।।625।।
इस प्रति के अंत में ये तीन दोहे हैं------
जद्यपि है सोभा घनी मुक्ताहल मैं देखि।
गुहैं ठौर की ठौर तैं लर मैं होति बिसेषि।।
सतरह सै एकासिया अगहन पाँचैं सेत।
लिखि पोथी पूरन करी आज़म खाँ के हेत।।
धरवौ कछुक क्रम जानि कै नायिकादि-अनुसारि।
सहर जौनपुर मैं बसत हरजू सुकवि विचारि।।
इन तीनों दोहों में से पहला दोहा तो हरजू ने पुरुषोत्तमदास जी के क्रम की किसी प्रति से उद्धृत कर लिया है, और अवशिष्ट दो दोहे उनके अपने लिखे हैं।
एक यह बात यहाँ पर ध्यान देने योग्य है कि, संवत् अहससि जलधि इत्यादि, दोहा न तो इस प्रति में है और न इसके भी पूर्व की प्रति में ही है, जो प्रति भी उक्त पंडित चुन्नीलाल ही जी के पास है, और जो कि क्रमकर्ता के क्रम लगाते समय की पांडुलिपि (मस्वदा) प्रतीत होती है।
आज़मशाही क्रम के विषय में प्रायः लोगों की धारणा है कि यह बादशाह आरंगज़ेब के बेटे आज़मशाह ने, बहुत से कवियों को एकत्र करके, बँधवाया था। पर यह बात सर्वथा निर्मूल तथा अप्रामाणिक है। इस धारणा के प्रचार के मुख्य तथा आदि कारण लालचंद्रिका के कर्ता लल्लूलाल जी है। उन्होंने अपनी टीका की भूमिका के ग्रंथ-वर्णन शीर्षक के अंतर्गत यह लिखा है- क्योंकि आज़मशाह ने बहुत कवियों को बुलवाया, बिहारी सतसई को श्रृंगार के और ग्रंथों के क्रम से क्रम मिलाय लिखवाया। इसी से आज़मशाही सतसई नाम हुआ। लल्लूलाल जी ने आज़मशाह के विषय में, उसका औरंगज़ेब का बेटा, अथवा दिल्ली का बादशाह होना स्पष्ट रूप से तो नहीं लिखा है, तथापि शाह शब्द के प्रयोग और लिखने के ढंग से व्यंजित यही होता है। कदाचित् उनके इसी वाक्य से धोखा खा कर, सर जी. ए. ग्रियरसन साहब ने भी इसको आज़मशाह बादशाह ही का बँधवाया हुआ क्रम मान लिया, और लालचंद्रिका के निज संस्करण की भूमिका में यही बात लिख दी। ग्रियरसन साहब की देखादेखी, स्वर्गवासी साहित्याचार्य सुकवि पंडित अम्बिकादत्त व्यास जी ने भी, अपने बिहारी-बिहार की भूमिका में, यही मत स्वीकृत कर लिया।
वास्तव में आज़मशाही क्रम जौनपुर-निवासी हरजू कवि ने आज़मशाह के प्रांताधिपति आज़मखाँ के निमित्त, जो कि अपने भाई के डर से भाग कर बहुत दिनों तक जौनपुर में रहा था, बाँधा था। आज़मगढ़ के गज़ेटियर से ज्ञात होता है कि मुहब्बत खाँ नामक कोई व्यक्ति संवत् 1757 के आस पास आज़मगढ़ का प्रांन्तपति था। उसके पश्चात् उसका बेटा, इरादत खाँ, उपनाम अकबर शाह उसका स्थानापन्न हुआ। इरादत खाँ तीन भाई और थे जिनके नाम सूफ़ी बहादुर, जहाँगीर तथा हुसैन थे। सूफ़ी बहादुर तथा हुसेन के कोई संतान नहीं हुई। पर जहाँगीर के दो बेटे थे- आज़म और जहाँयार, और इरादत ख़ाँ के एक दासीपुत्र जहाँशाह था। इरादत खाँ के मरने के पश्चात् जहाँशाह को दासीपुत्र समझकर, आज़म खाँ अपना प्रभुत्व जमाने लगा। पहले तो इन दोनों का झगड़ा बटवारा होकर निबट गया, पर फिर जहाँशाह ने आज़म खाँ को भगा दिया और वह जौनपुर में जा रहा। यह घटना संवत् 1781 के 10-5 वर्ष। पूर्व की अनुमानित होती है, क्योंकि हरजू कवि ने अपना क्रम संवत् 1781 में बाँधा। आज़म खाँ के मरने का संवत् उक्त गज़ेटियर में 1828 लिखा है।
मिश्रबंधु-विनोद में लिखा है कि हरजू कवि आज़मगढ़ के ब्राह्मण थे। उन्होंने संवत् 1792 में भाषा-अमरकोष बनाया। उनके आश्रयदाता आज़मगढ़ाधीश आज़म खाँ थे।
शिवसिंहसरोज में, हरजू की उपस्थिति संवत् 1705 में लिखी है, और इनके कवित्तों का कालिदास के हज़ारे में होना बतलाया है। इस संवत् के उल्लेख में कुछ अशुद्धि प्रतीत होती है। इनका बनाया हुआ यह कवित्त भी शिवसिंह ने उद्धृत किया है-------
माया के निसान जे निसान अपकीरति के,
जानत जहान कहूँ कहूँ उसरन सोँ।
कुंज सी कुए ही अंग ऐबी गुमराही गुनी,
देखि अनखाइ पगे पाप ककुरन सों।।
हरजू सु कवि कहै बचन अमोलन के,
जाति कुरबान न बसाति असुरनि सोँ।
माँगत इनाम करतार पैं पुकारि कहौं,
परै जनि काम ऐसे सूम ससुरन सोँ।।
इस क्रम का आज़मशाही नाम भी धोखे का एक कारण है। वास्तव में इसका नाम आज़मखानी होना समुचित है, और इस क्रम के बाँधने वाले हरजू स्वयं लिखा भी है कि यह क्रम आज़म खाँ के लिए बाँधा गया। उन्होंने इसका नाम आज़मशाही कहीं नहीं कहा है। यह नाम इसको कदाचित् लल्लूलाल जी ही ने प्रदान किया हो तो आश्चर्य नहीं, अथवा उनके पूर्व भी, संभव है कि, यह क्रम इसी नाम से विख्यात रहा हो, क्योंकि आज़म खाँ के कई एक पूर्वज शाह भी कहलाते थे, अतः संभव है कि वह आज़मशाह भी कहलाता हो।
इस क्रम पर पाँच टीकाएँ हमारे पास हैं- (1) लल्लूलालजी की लालचंद्रिका, (2) पंडित ज्वालाप्रसाद मिश्र जी की भावार्थप्रकाशिका, (3) पंडित अंबिकादत्त व्यास जी की बिहारी बिहार टीका, (4) पंडित पद्मसिंहजी का संजीवन भाष्य, जो कि अभी पूरा नहीं हुआ है, तथा (5) पंडित परमानंद भट्ट जी की श्रृंगार-सप्तशती। इनका विवरण अन्य टीकाओं के साथ किया जायेगा।
(6)
कृषअणदत्त का क्रम
छठा क्रम कृष्णदत्त कवि ने संवत् 1782 में लगाकर उस पर कवित्तबंध टीका की। यह टीका नवलकिशोर प्रेस में कई बार छप चुकी है, पर ऐसी अशुद्ध तथा छोड़-छोड़ कर छपी है कि जिसका कुछ ठिकाना नहीं। हमने कई एक हस्तलिखित प्रतियों से अपनी प्रति यथासंभव शोध कर तथा क्रम ठीक कर के, बिहारीरत्नाकर के दोहों की सूची में उसी के अंक दिए हैं। पाठकोकं को यद्यपि ये अंक ज्यों के त्यों तो छपी हुई पुस्तक में न मिलेंगे तथापि इन अंकों के दस पाँच अंक आगे पीछे अभीष्ट दोहा मिल जायेगा। कृष्णकवि का क्रम उनकी छपी हुई पुस्तक में द्रष्टव्य है। शुद्ध की हुई प्रति के अनुसार उसका वर्णन यहाँ किया जाता है।
इस क्रम में 699 दोहे ग्रहण किए गए हैं, जिनमें से एक दोहा ऐसा है जो बिहारीरत्नाकर में नहीं आया है। वह दोहा बिहारी-रत्नाकर के दूसरे उपस्करण की 82 संख्या पर दिया गया है, और पंद्रह दोहे इसमें बिहारीरत्नाकर के नहीं आए हैं, जिनका ब्योरा बिहारीरत्नाकर की सूची से ज्ञात हो सकता है।
यह क्रम कोविद कवि तथा पुरुषोत्तमदास जी के क्रमों की भाँति वैषयिक ही है, और साहित्यिक दृष्टि से कुछ विशेष उपयोगी तथा गौरवान्वित नहीं है। इस क्रम पर तीन टीकाएँ हमारे पास हैं- (1) स्वयं कृष्णदत्त कवि की टीका, (2) प्रभुदयाल पांडेजी की टीका और (3) कवि सवितानारायण की गुजराती टीका। इनका विवरण अन्य टीकाओं के साथ किया जायेगा।
(7)
रसचंद्रिकाकार ईस्वी खाँ का क्रम
रसचंद्रिकाकार के विषय में पंडित अंबिकादत्त व्यास ने बिहारी-बिहार की भूमिका में लिखा है कि इसका क्रम सब से विलक्षण है, अर्थात् इसमें दोहे अकारादि क्रम से हैं। पर हमारे पास जो रसचंद्रिका की प्रति है उसमें दोहे पुरुषोत्तमदास जी के क्रम के अनुसार है। अतः हम इसके क्रम के विषय में कुछ विशेष नहीं कह सकते। यदि वास्तव में टीकाकार ने अकारादि क्रम से दोहे रखे है तो इस क्रम को सातवाँ क्रम मानना चाहिए, क्योंकि यह टीका संवत् 1809 में बनी थी। इस क्रम, टीका तथा टीकाकार का विशेष वर्णन अन्य टीकाओं के साथ किया जायेगा।
(8)
पंडित अंबिकादत्त-व्यास-वर्णित गद्य संस्कृत
टीका का कर्म
स्वर्गवासी साहित्याचार्य पंडित अंबिकादत्त व्यास ने बिहारीबिहार की भूमिका में एक गद्य-संस्कृत टीका का वर्णन किया है। उसकी जो प्रति उनको प्राप्त हुई थी उसमें उसके रचना-काल तथा रचयिता का नाम इत्यादि कुछ नहीं लिखा था। अतः उसके समय के विषय में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। पर व्यास जी को जो उसकी प्रति मिली थी वह संवत् 1844 की लिखी हुई थी। अतः हम उस क्रम के बाँधे जाने का काल संवत् 1844 के दस बीस वर्ष पूर्व मानकर उसको रसचंद्रिका के पश्चात्, अर्थात् आठवाँ स्थान देतें हैं।
यद्यपि व्यास जी ने इसके दोहों के अंक जो अपनी सूची में दिए हैं, उनके अन्वेषण से इसका क्रम ज्ञात हो सकता है तथापि हम उक्त पुस्तक को बिना देखे उसके क्रम के विषय में कुछ विशेष कहना समुचित नहीं समझते। व्यास जी ने जो इसके 25 अधिक दोहे बिहारी बिहार के अंत में लिखे हैं उनमें से दो तो बिहारी रत्नाकर में विद्यमान हैं और शेष 23 हमने बिहारीरत्नाकर के द्वितीय उपस्करण के 37, 85 तथा 91 से 111 तक के अंकों पर सन्निविष्ट कर दिए हैं।
इस क्रम पर केवल एक यही टीका हमको ज्ञात हुई हैं जिसका कुछ विवरण अन्य टीकाओं के साथ किया जायेगा।
(9)
आर्यगुंफ के कर्ता पंडित हरिप्रसाद का क्रम
नवाँ क्रम आर्युगुंफ में देखने में आता है। यह क्रम काशीराज महाराज चेतसिंह के सभा-पंडित हरिप्रसाद ने संवत् 1837 में लगा कर उसके एक एक दोहे का संस्कृत-अनुवाद एक एक आर्य छंद में किया था। यह पुस्तक स्वयं हमने नहीं देखी है। पर पंडित अंबिकादत्त व्यास जी ने जो इसके दोहों के अंक अपने बिहारी-बिहार के अंत में लिखे हैं, उनसे ज्ञात होता है कि ऊपर कहे हुए क्रमों से इसका क्रम कुछ पृथक् ही है, और इसमें सब मिलकर 658 दोहे रखे गए हैं। जो 8 दोहे अधिक हैं उनको तो हमने बिहारी-रत्नाकर के दूसरे उपस्करण के 89 एवं 112 से 118 तक के अंकों पर सन्निविष्ट कर दिया है, पर उक्त पुस्तक को बिना स्वयं देखे हम उसके क्रम के विषय में कुछ विशेष लिखना उचित नहीं समझते।
इस क्रम पर केवल एक इसी आर्यगुंफ टीका का विवरण हमको मिला है, जिसका वर्णन अन्य टीकाओं के साथ होगा।
(10)
देवकीनंदन की सतसैया वर्णार्थ टीका का क्रम
दसवाँ कर्म देवकीनंदन की टीका में मिलता है यह क्रम काशी के बाबू देवकीनंदनसिंह जी के कवि ठाकुर का बाँधा हुआ है। उन्होंने संवत् 1831 में यह क्रम लगाकर इस पर एक टीका भी की थी। ठाकुर कवि का वृत्तांत इस टीका के विवरण में द्रष्यव्य है।
इसका क्रम पुरुषोत्तमदास जी के क्रम से बहुत कुछ मिलता जुलता है। पर तो भी है पृथक् ही। इस क्रम को भी वैषयिक क्रम समझना चाहिए जिसको विशेष गौरव का क्रम नहीं कह सकते। इसमें सब 708 दोहे रखे गए हैं, जिनमें चार दोहे-दोहराकर आए हैं। शेष 704 दोहों में 8 दोहे ऐसे हैं जो बिहारीरत्नाकर में नहीं है, और बिहारीरत्नाकर के, 19, 139, 170, 262, 305, 324, 331, 345, 367, 415, 432, 481, 519, 531, 570, 595 तथा 914 अंकों के 17 दोहे इसमें नहीं है। बिहारीरत्नाकर से जो 8 दोहे इसमें अधिक रखे गए हैं, वे बिहारी-रत्नाकर के दूसरे उपस्करण के 82, 85, 86, 87, 88, 90, 119 तथा 120 अंकों पर दे दिए गए हैं।
इस क्रम पर दो टीकाएँ हमारे पास हैं- (1) यही देवकीनंदन की सतसैया-वर्णार्थ-टीका, तथा (2) संस्कृत गद्य टीका, जिनका वर्णन अन्य टीकाओं के साथ आगे किया जायेगा।
(11)
प्रेम पुरोहित का क्रम
ग्यारहवाँ क्रम प्रेम पुरोहित जी का बाँधा हुआ है। इसकी एक प्रति हमारे विद्याभूषण जी जयपुर से लाए थे। इसमें क्रम लगाने का समय नहीं दिया है, पर क्रम लगाने वाले का नाम प्रेम पुरोहित लिखा है, और आदि में जो 7 दोहे भूमिका-स्वरूप लिखे हैं उनसे इसके क्रम तथा क्रमकर्ता का कुछ वृत्तांत विदित होता है। पर उन दोहों में जो दोहों की गिनतियाँ लिखी हैं वे पुस्तक की गिनतियों से नहीं मिलतीं। उनमें से दूसरे तथा तीसरे दोहे ये हैं-----
विप्र बिहारी नाम हुव सोती ख्याति प्रबीन।
तिन कवि साढ़े सात सै दोहा उत्तिम कीन।।1।।
बीते काल अपार तैँ भए ब्यतिक्रम देखि।
करे अनुक्रम फेरि ते प्रोहित प्रेम बिसेषि।।2।।
इनसे प्रकट होता है कि बिहारी के बहुत दिनों पश्चात् प्रेम पुरोहित नामक किसि कवि ने यह क्रम बाँधा था।
सातवें दोहे का उत्तरार्ध यह है-----
करे अनुक्रम राम जू जातैँ समुझै छिप।।7।।
इससे ज्ञात होता है कि राम जू नामक किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के समझने के निमित्त यह क्रम लगाया गया था। इसमें जो मानकर इस क्रम के कर्ता का नाम राम जू तथा इस क्रम को टीका समझकर, मिश्रबंधुविनोद में 1984 अंक पर नाम जू को बिहारी सतसई का एक टीकाकर लिखा हैं, और उनका कविता-काल, संवत् 1901 माना है। पर ऊपर लिखे हुए दोहों से प्रतीत होता है कि, यह एक क्रम विशेष मात्र है, और इस क्रम लगाने वाले का नाम प्रेम पुरोहित था। यह भी विदित होता है कि यह क्रम किसी राम जू नामक प्रतिष्ठित पुरुष के समझने के निमित्त लगाया गया था। ये राम जू हमारे अनुमान से जयपुर के वे महाराज रामसिंह हो सकते हैं जो संवत् 1891 में सिंहासनारूढ़ हुए थे, और बड़े विद्यानुरागी तथा कविता के गुणग्राहक थे, क्योंकि यह राम जू मिर्ज़ा राजा जयशाही के पुत्र रामसिंह नहीं हो सकते। उनके समय में बिहारी को हुए अधिक दिन नहीं बीते थे, और इस पुस्तक के आरंभ के तीसरे दोहे से ज्ञात होता है कि इस क्रम के बाँधते समय बिहारी सतसई को बने हुए बहुत दिन हो चुके थे।
इस क्रम में 753 दोहे रखे गए हैं। उनमें से 7 दोहे तो दोहरा कर आए हैं, और शेष 746 दोहों में से 71 ऐसे हैं, जो बिहारीरत्नाकर में नहीं आए हैं। इनके निकाल देने पर 675 दोहे रह जाते हैं। बिहारीरत्नाकर के 38 दोहे इसमें नहीं हैं, जिनके मिला देने से 713 की संख्या पूरी हो जाती है। 71 दोहे जो इसमें बिहारीरत्नाकर से अधिक हैं, उनमें 3 तो ऐसे हैं जो अन्य किसी पुस्तक में देखने में नहीं आते। वे बिहारीरत्नाकर के द्वितीय उपस्करण में 113, 121 तथा 122 अंकों पर दिए हुए हैं। शेष 68 उन 73 दोहों मं से हैं जो हमारी 2 संख्यक प्राचीन पुस्तक में बिहारीरत्नाकर के दूसरे उपस्करण के आदि में रखे गए हैं। उक्त उपस्करण के 4, 10, 13, 50 तथआ 70 अंकों के दोहे इस पुस्तक में नहीं हैं। बिहारी रत्नाकर के इन अंकों के हैं,- 35, 48, 49, 64, 76, 89, 136, 181, 189, 197, 258, 259, 267, 270, 281, 311, 327, 397, 408, 456, 482, 511, 555, 584, 585, 586, 593, 599, 605, 614, 627, 634, 650, 959, 665, 692, 702 तथा 713। अधिक दोहों पर ध्यान देने से यह प्रतीत होता है कि यह संग्रह उस प्रति से किया गया है जो बिहारी के किसी शिष्य ने संवत् 1739 में लिखकर गुरुद्वारे में अर्पित की थी, और जिसकी प्रतिलिपि अद्यावधि जयपुर में विद्यमान है। उक्त पुस्तक के विषय में जयपुर में यह प्रसिद्ध है कि, संवत् 1739 में उसको, बिहारी के किसी शिष्य ने लिखकर श्री सम्राट जी नामक जयपुर के गुरुद्वारे के तत्कालीन अधिकारी को भेट किया था। अनुमान होता है कि प्रेम पुरोहित नामक कोई महाशय भी पीछे उक्त गुरुद्वारे के अधिष्ठाता हुए। उन्होंने उक्त प्रति से यह क्रम विषयानुक्रम के अनुसार महाराज रामसिंह के पढ़ने के निमित्त लगाया। इससे संवत् 1739 वाली प्रति का अस्तित्व तथा उसका प्रामाणिक होना प्रतीत होता है। इस क्रम में यह विलक्षणता है कि मंगलाचरण का दोहा मेरी भव-बाधा इत्यादि न होकर प्रगट भए द्विजराजकुल इत्यादि है। इस क्रम का संवत् 1891 के पश्चात् लगाया जाना अनुमानित करके यह स्थान इसको दिया गया है।
इस क्रम पर कोई टीका हमारे देखने में नहीं आई।
(12)
रसकौमुदी के कर्ता बाबा जानकीप्रसाद का क्रम
बारहवाँ क्रम रसकौमुदी में देखने में आता है। यह ग्रंथ श्री अयोध्या जी के कनक भवन नामक स्थआन के महंत, श्री प्यारेराम जी, के शिष्य बाबा जानकीप्रसाद जी ने संवत् 1927 में रचा था। इसमें 316 दोहों के अर्थ सवैयों तथा कवित्तों में विस्तृत किए गए हैं, और वे दोहे एक नवीन क्रम से रखे गए हैं। इन 316 दोहों में 11 दोहे ऐसे हैं जो बिहारीरत्नाकर में नहीं आए हैं। वे दोहे बिहारीरत्नाकर के द्वितीय उपस्करण में दिए हुए हैं। उनका ब्योरा बिहारीरत्नाकर के प्रथम उपस्करण से विदित हो सकता है। रसकौमुदी का विशेष अनय् टीकाओं के साथ किया जायेगा।
(ऊपर लिखे हुए क्रमों के अतिरिक्त दो और क्रमों की पुस्तकें हमारे पास हैं। पर इन पुस्तकों के आद्यंत में क्रम लगने का समय कुछ नहीं लिखा है, अतः हम इनका वर्णन अंत में करते हैं, यद्यपि ये क्रम संभवतः ऊपर लिखे हुए क्रमों में से कई एक के पूर्व के बाँधे प्रतीत होते हैं।)
(13)
कुलपति मिश्र के घराने वाली प्रति का क्रम
उक्त दोनों क्रमों में से एक क्रम की पुस्तक तो हमारे विद्याभूषण पंडित रामनाथ जी को कुलपति मिश्र जी के वंशज श्री पंडित प्यारेलालजी से जयपुर में प्राप्त हुई थी। इसके अंत में पुस्तक लिखे जाने का संवत् भी नहीं लिखा है। पर इसके अंत में सत्रह सै चालीस दुइ इत्यादि दोहा जो कोविद कवि के क्रमवालों पुस्तक के अंत में मिलता है, लिखा है। इससे प्रतीत होता है कि यह क्रम, कोविद कवि के क्रम वाली किसी प्रति से , उसी के क्रम में कुछ हेरफेर तथा न्यूनाधिक्य करके, लगाया गया है। यह अनुमान इस बात से भी पुष्ट होता है कि यह क्रमम कोविद कवि के क्रम से प्रायः मिलता है। आश्चर्य नहीं कि इस क्रम के बाँधने के निमित्त कुलपति मिश्र ने स्वयं ही कोविद कवि के क्रमवालों किसी प्रति पर द0हों के आगे पीछे करने के निमित्त कुछ चिन्ह कर दिए हों, और फिर लेखक ने प्रमाद से कोविद कवि का संवत् वाला होहा भी अंत में लिख दिया हो।
इस प्रति में सब 701 दोहे हैं, जिनमें 2 दोहे दोहराकर आए हैं। उनके निकाल देने पर इसमें 699 दोहें रह जाते हैं। बिहारीरत्नाकर के 39, 49, 50, 204, 221, 229, 327, 332, 345, 430, 451, 464, 467 तथा 679 अंकों के 14 दोहे इसमें नहीं आए हैं। इस गणना से 713 दोहों का लेखा पूरा हो जाता है। जो 14 दोहे बिहारीरत्नाकर के इसमें नहीं आए हैं, वे कदाचित् लेखक के प्रमाद से छूट गए हैं, क्योंकि कोविद कवि के क्रमवाली प्रति में पूरे 713 दोहे विद्यमान हैं। इस क्रम की दूसरी प्रति हमको पंडित दुलारेलाल जी भार्गव के द्वारा श्रीयुत रायबहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचंद जी ओझा से प्राप्त हुई है। इस प्रति के तथा कुलपति मिश्र जी के घरानेवाली प्रति के केवल दो चार दोहों में कुछ हेर फेर हैं। यह प्रति संवत् 1857 की लिखी हुई है, और इसके अंत में कोविद कवि का संवत् वाला दोहा नहीं है। यदि इस क्रम के कुलपति मिश्र के द्वारा लगाए जाने का अनुमान ठीक हो तो इस क्रम का लगाया जाना संवत् 1750 के आस पास मानना चाहिए, और इस गणना पर कालक्रम के अनुसार इसको दूसरा अथवा तीसरा क्रम मानना उचित है। इस क्रम के पुराने होने का एक यह भी प्रमाण है कि इसमें बिहारी के निजक्रम की प्रतियों के दोहों से अधिक दोहा कोई नहीं है।
कुलपति मिश्र आगरे के रहनेवाले प्रसिद्ध कवि श्री बिहारीदास जी के भानजे थे। संवत् 1727 में उन्होंने रस-रहस्य नाम का एक सुंदर रीति-ग्रंथ जयपुराधीश रामसिंहजी की आज्ञा से रचा। उसमें उन्होंने अपना परिचय यों दिया है-----
वसंत आगरे आगरे गुनियनु की जहँ रास।
बिप्र मथुरिया मिश्र हैं हरिचरननु के दास।।208।।
अभय मिश्र, तिन बंस मैं परसुराम जिमि राम।
तिनकैं सुत कुलपति कियौ रस-रहस्य सुखधाम।।209।।
जिते साज हैं कबित के मम्भट कहे बखानि।
ते सब भाषा मैं कहे रस-रहस्य मैं जानि।।210।।
संवत् सत्रह सौ बरस बीते सत्ताईस।
कातिक बदि एकादसी बार बरनि बानीस।।211।।
फिर संवत् 1733 में महाराज रामसिंह ही के कहने से उन्होंने संग्राम-सार नामक ग्रंथ बनाया। उक्त ग्रंथ में उन्होंने पंडितराज श्री जगन्नाथ त्रिशूली की वंदना की है जिससे विदित होता है कि वे उक्त पंडितराज के शिष्य एवं संस्कृत के भी पंडित थे।
सब्द, जोग, नय, सेस-नाग, गौतम, कनाद मुनि।
सांख्य कपिल, औ व्यास ब्रह्म-पथ, कर्मनु जैमुनि।।
बेद अंगजुत पढ़े सील-तप रिषि बसिष्ट-मम।
अलंकार-रस-रूप, अष्ट-भाषा-कबित्त-छम।।
तैलंग, बेलनाड़ीय द्विज जगन्नाथ तिरसूलि बर।
साहिज्जहान दिल्लीस किय पंडितराज प्रसिद्ध धर।।4।।
उनके पद कौ ध्यान धरि इष्ट-देव-सम जानि।
उकति जुकति बहु भेद भरि ग्रंथहिं कहौं बखानि।।5।।
अपनी संस्कृतज्ञ्ज्ञता के विषय में उन्होंने स्वयं भी यों कहा है-----
हुते तहाँ पंडित बहुत भाषा कब्यौ अनेक।
दुहूँ ठौर परबीन नृप देख्यौ कुलपति एक।।12।।
उसी ग्रंथ में उन्होंने अपने मातामह केशव का भी स्मरण किया है, और उनको किववर कहा है----
कबिबर मातामह सुमिरि केसौ केसौ-राइ।
कहौ कथा भारत्थ की भाषा-छंद बनाइ।।26।.
इस दोहे को बिहारी के सुप्रसिद्ध दोहे-----
प्रगट भए द्विजराज-कुल, सुबस बसे ब्रज आइ।
मेरे हरौ कलेस सब केसौ, केसौ राइ।।
से मिलने पर दोनों दोहों के केशव के एक ही होने की प्रतीति होती है, और कुलपति मिश्र के विषय में जो उनका बिहारी का भानजा होना कहा जाता है, उसकी पुष्टि यह केशव कौन थे, यह प्रश्न बड़ा गूढ़ है और इसके उत्तर पर बहुत कुछ निर्भर है। इसके विषय में बिहारी की जीवनी में यद्यपि विचार किया गया है, तथापि इसका संतोषजनक निर्णय अभी तक नहीं हो सका।
संवत् 1743 में कुलपति मिश्र ने जुगतितरंगिनी नामक दोहों का एक ग्रंथ बनाया। उसमें 704 दोहे हैं। ज्ञात होता है कि यह ग्रंथ उन्होंने बिहारी सतसई के जोड़ पर रचा। इसके आदि में उन्होंने संस्कृत तथा भाषा के सुप्रसिद्ध कवियों की वंदना की है। उन कवियों में केशवराय तथा बिहारी के नाम भी आए हैं। बिहारी का नाम केशव के पश्चात् ही आया है-----
जौ भाषा जान्यौ चहत रसमय सरल सुभाइ।
कबिता केसौराय की तौ साँचौ चितु लाइ।।29।।
भाँति भाँति रचना सरस देव गिरा ज्यौं ब्यास।
तौ भाषा सब कबिनु मैं बिमल बिहारीदास।।30।।
कुलपति मिश्र के समय तक सुप्रसिद्ध कवि केशवदास के अतिरिक्त और कोई कवि केशव नामधारी ऐसा विख्यात नहीं हुआ था जिसका नाम वे सूरदासादि के साथ गिनाते। अतः इस दोहे के केशवराय से तो अवश्य ही सुप्रसिद्ध कवि, ओरछेवाले केशवदास ही, जो कि अपने को प्रायः केशवराय भी लिखते थे, अभिप्रेत हैं। फिर यदि जिन केशव को कुलपति ने अपना नाना कहा है वे भी यही हों तो कुलपति मिश्र उन्हीं प्रसिद्ध केशवदास के दौहित्र ठहरते हैं और बिहारी उन्हीं के पुत्र। केशव तथा बिहारी के नामों का सान्निध्य भी इसी बात की झलक देता है। पर इस संबध के मानने में बाधा इतनी ही पड़ती है, जैसा कि बिहारी की जीवनी में कहा गया है कि केशवदास ने अपने को सनाढय लिखा है और कुलपति मिश्र ने अपने को माथुर विप्र। इसके अतिरिक्त बिहारी के विषय में भी जहाँ तहाँ माथुर विप्र ही लिखा मिलता है। यह सुना गया है कि चौबों में सनाढय भी होते हैं। यदि सनाढय चौबों में बिहारी के गोत्र इत्यादि भी होते हों तो, बिहारीं के सुप्रसिद्ध केशवदास के पुत्र तथा कुलपति मिश्र के उन्हीं के दौहित्र मानने में कोई बाधा नहीं पड़ती। जो हो, यह बात है अभी संशयात्मक ही, जैसा कि बिहारी की जीवनी में लिखा गया है।
संवत् 1749 में कुलपति मिश्र ने रामसिंह जी के पौत्र, विष्णुसिंह जी, की आज्ञा से दुर्गोभक्ति-चंद्रिका नामक ग्रंथ बनाया। यह संस्कृत दुर्गापाठ का अनुवाद-स्वरूप है। इसमें भी उन्होंने अपने को माथुर लिखा है।
कुलपति जी ने जो बिहारी-सतसई का क्रम लगाया है उस पर कोई टीका हमारे देखने सुनने में नहीं आई हैं।
(14)
केवलराम कवि का क्रम
इस क्रम की जो पुस्तक हमारे पास है उसमें भी क्रम बाँधने का कोई संवत् नहीं दिया है। अंत में पुस्तक लिखे जाने का संवत् 1912 लिखा है। सतसई आरंभ होने के पूर्व जो नौ दोहे क्रमकर्ता ने भूमिका-स्वरूप रखे हैं, उनमें से अंत के दो दोहों से विदित होता है कि इस क्रम के कर्ता केवलराम थे। वे दोहे ये हैं-----
वहै बचनिका-रचन-रँग रसिक रँगे जिहिँ सुष्ट।
जो रस कौँ पोषित करै केवल वह रस-पुष्ट।।8।।
केवल कहु केते कहित यह दयाल के हेत(?)।
बिबिध बिहारी-दोहरा बिलसत सुरस-समेत।।9।।
नवें दोहे के पूर्वार्ध का पाठ कुछ ऐसा अशुद्ध हो गया है कि उस से जिसके निमित्त यह क्रम लगाया गया उसका पता नहीं लगता। पर इस क्रम का बहुत प्राचीन होना इस बात से प्रमाणित होता है कि इसमें 711 दोहे तो वेही हैं जो बिहारी के निज क्रम की प्रतियों में मिते हैं, और बिहारीरत्नाकर के केवल दो दोहे अर्थात् “चलत देत आभारु इत्यादि”, तथा “हुकुमु पाइ जयसाहि इत्यादि” नहीं हैं, और केवल एक दोहा “सघन कुंज जमुहाति इत्यादि” बिहारीरत्नाकर से इसमें अधिक है। इस न्यूनाधिक्य की स्वल्पता से यह कहा जा सकता है कि इस क्रम के लगाते समय सतसई में विशेष न्यूनाधिक्य नहीं हो चुका था। इसके क्रम में भी यह विलक्षणता है कि पहला दोहा “मेरी भाव-वाश इत्यादि” न होकर, “सामाँसेन सयान इत्यादि” है।
इस क्रम पर कोई टीका हमारे देखने में नहीं आई हैं।
इन चौदह क्रमों के अतिरिक्त जिनका विवरण ऊपर हुआ है, (1) पठान सुल्तान की कुंडलिया, (2) राजा गोपालशरण सिंह की टीका, (3) कवि रघुनाथ बंदीजन की टीका, (4) सर्दार कवि की टीका, (5) धनंजय टीका, (6) गिरिधर की टीका, (7) रामबख़्श की टीका, (8) छोटू राम की वैद्यक टीका, (9) गंगाधर की उपसतसैया, (10) महाराज मानसिहं जोधपुरवाले की टीका तथा (11) बिहारी सुमेर, इन 11 अप्राप्त टीकाओं के क्रम अज्ञात हैं। संभव है कि इन टीकाओं में से कई एक में भिन्न ही भिन्न क्रम हों। इनके अतिरिक्त और टीकाओं तथा मूल के भिन्न क्रमों की और भी कतिपय पुस्तकों का अभी अज्ञात होना संभव हैं।
बिहारी सतसई की टीकाएँ
(1)
कृष्णलाल की टीका
बिहारीरत्नाकर लिखते समय हमारी धारणा था कि मानसिंह विजयगछ वाले की टीका ही, सतसई की प्रथम टीका है, क्योंकि उक्त टीका हमारे अनुमान से संवत् 1730 तथा 1734 के बीच की बनी हुई हैं, और उसमें दोहों का पूर्वापरकर्म भी वही है जो बिहारी के निज क्रम की प्रतियों में है। पर बिहारीरत्नाकर के मुख्यभाग के छप जाने पर, भूमिका आरंभ करने के पहले ही, हमको एक ऐसी टीका, पंडित दुलारेलाल जी भार्गव के द्वारा, जयपुर-निवासी श्री पंडित हनुमान श्रमा जी से प्राप्त हुई, जिसके देखने से हमारी वह धारणा जाती रही, और अब हम इस नव-प्राप्त टीका ही को सतसई की प्रथम टीका मानते हैं। इस टीका के निमित्त हम उक्त शर्म्मा जी के कृतज्ञ है। इस टीका में भी 5-7 दोहों के अतिरिक्त शेष दोहों का क्रम वही है जो बिहारी के निज क्रम की अन्य प्रतियों में है और जो क्रम कि बिहारीरत्नाकर में रखा गया है।
इसमें हुकुम पाइ जयसाहि इत्यादि दोहे के पश्चात् यह दोहा लिखा है-----
संबत, ग्रह, ससि, जलधि, छिति, छठ तिथि, बासर चंद।
चैत मास, पंख कृष्ण, मैं पूरन आनंदकंद।।
हम इस दोहे को टीकाकारकृत तथा टीका के रचने के संवत् का दोहा समझते हैं। सर जी. ए. ग्रियर्सन साहब, स्वर्गवासी पंडित अंबिकादत्त जी व्यास, मिश्रबंधु महाशयों, तथा इस समय के अन्य बिहारी पर लिखनेवालों ने इसको बिहारी सतसई ही की समाप्ति के संवत् का दोहा माना है। पर यह बात चिन्तनीय है। यह दोहा लालचंद्रिका को छोड़कर न तो किसी अन्य पुरानी आज़मशाही ही क्रम की पुस्तक में मिलता है और न अन्य किसी क्रम की पुस्तक ही में। हमारे देखने में आज तक जितनी मूल अथवा सटीक, हस्तलिखित अथवा छपी हुई सतसई की पुस्तकें आई हैं, उनमें से, लालचंद्रिका तथा इस पुस्तक को छोड़कर, केवल पाँच पुस्तकों में इसका दर्शन प्राप्त होता है, अर्थात् साहित्याचार्य सुकवि पंडित अंबिकादत्त व्यास के बिहारीबिहार, विद्यावारिधि स्वर्गीय पंडित ज्वालाप्रसाद मिश्र की भावार्थप्रकाशिका टीका, श्रीयुत प्रभुदयाल पांडे जी की टीका, श्रीयुत कविवर सवितानारयण जी की भावार्थप्रकाशिका गुजराती टीका, तथा श्रीयुत लाला भगवानदीन, जी की बिहारीबोधिनी टीका में। इनमें से बिहारी बिहार तथा ज्वालाप्रसाद जी की भावार्थप्रकाशिका में तो सर्वथा लालचंद्रिका के क्रम का अनुसरण किया गया है, अतः उनमें इस दोहे का लालचंद्रिका से लिया जाना सिद्ध ही है। श्रीयुत प्रभुदयाल पांडे जी ने अपनी टीका का क्रम, कृष्णदत्त की टीका के अनुसार रखा है, और कृष्णदत्त की टीका में यह दोहा है नहीं। अतः यह अनुमान करना पूर्णतया संगत है कि पांडे जी ने यह दोहा लालचंद्रिका से उद्धृत कर लिया है। श्रीयुत लाला भगवानदीन जी ने बिहारी-बोधिनी में हरिप्रकाश का क्रम रखा है, पर यह दोहा हरिप्रकाश टीका में हरिप्रकाश टीका में नहीं है। अतः बिहारी-बोधिनी के विषय में भी यही प्रमाणित होता है कि यह दोहा उसमें या तो लालचंद्रिका से उद्धृत किया गया है या पांडे जी की टीका से। कविवर सवितानारायण जी की भावार्थप्रकाशिका गुजराती टीका में भी कृष्णदत्त की टीका का क्रम है। उनकी भूमिका से ज्ञात होता है कि उन्होंने लालचंद्रिका, बिहारीबिहार तथा पांडे जी की टीका के ग्रंथ देखे थे, अतः उनके विषय में भी यह अनुमान किया जाता है कि उन्होंने यह दोहा इन्हीं में से किसी से उद्धृत कर लिया है। बस फिर इस दोहे के सतसई में प्रविष्ट होने तथा इसके बिहारी-रचित समझे जाने के उत्तरदाता श्रीयुत लल्लूलाल जी महाराज ही ठहरते हैं। अब इस बात का अनुसंधान करना आवश्यक है कि लल्लूलाल जी ने यह दोहा कहाँ पाया और इसका सन्निवेश सतसई में कैसे कर दिया। लालचंद्रिका की भूमिका में लल्लूलाल जी ने लिखा है कि हमने सात टीकाएँ देख विचार कर लालचंद्रिका टीका बनाई। उन टीकाओं के नाम उन्होंने ये लिखे हैं (1) अमरचंद्रिका (2) अनवरचंद्रिका, (3) हरिप्रकाश टीका, (4) कृष्ण कवि की टीका कवित्तवाली, (5) कृष्णलाल की टीका, (6) पठान की टीका कुंडलियों वाली और (7) संस्कृत टीका। इन 7 टीकाओं में से अमरचंद्रिका, अनवरचंद्रिका, हरिप्रकाश टीका तथा कृष्णकवि की टीका, इन चारों टीकाओं में तो इस संवत् वाले दोहे का पता मिलता नहीं, अतः पठान कुंडलियों वाली टीका तथा कृष्णलाल की टीका, इन दो ग्रंथों में से किसी में इस दोहे की प्राप्ति की संभावना रह जाती है। इनें से भी पठान सुल्तान की कुंडलियों वाले ग्रंथ में इस दोहे के होने की उतनी संभावना नहीं प्रतीत होती जितनी कृष्णलाल वाली टीका में होती है। अतः हमारा अनुमान है कि यह दोहा लल्लूलाल जी ने कृष्णलाल ही की टीका में देखकर, और उसके बिहारी-कृत समझकर, लालचंद्रिका में प्रविष्ट कर दिया। यदि हमारा यह अनुमान संगत समझा जाय, तो यह बात बिचारने की है, कि यह दोहा कृष्णलाल जी की टीका में कैसे आ गया, जब बिहारी की निज क्रमवाली और किसी प्रति में प्राप्त नहीं होता। इसका कारण यद्यपि यह भी हो सकता है कि बिहारी के निज क्रमवालों किसी विशेष प्रति में यह रहा हो, और वही प्रति कृष्णलाल जी के हाथ लगी हो, पर विशेष संगत यही अनुमान ज्ञात होता है कि यह दोहा किसी टीकाकर की टीका के रचने के संवत् का हो, चाहे वह टीकाकार स्वयं कृष्णलाल जी ही रहे हों, अथवा अन्य कोई, जिसकी टीका में यह दोहा पाकर कृष्णलाल जी ने अपनी टीका में रख लिया हो। बिहारी की सतसई के समाप्त होने का संवत् हमारे अनुमान से 1704-5 ठहरता है, जिसका विशेष वर्णन बिहारी की जीवनी में द्रष्यव्य है। यदि हमारा यह अनुमान ठीक हो तो भी यह संवत् दोहा या तो सतसई की किसी प्रति के लिखे जाने के समय का हो सकता है अथवा किसी टीका के रचना काल का। हमारी धारण इसके विषय में यही होती है कि यह दोहा इसी टीका के रचना-काल का है, क्योंकि इस टीका की भाषा बड़े पुराने ढंग की है और जो प्रति हमको प्राप्त हुई है वह संवत् 1850 की जयपुरी ढंग के नागरी अक्षरों में लिखी हुई हैं।
शिवसिंहसरोज में एक प्राचीन कृष्ण कवि का नाम पाया जाता है, और उनका यह कवित्त भी दिया है-----
काँपत अमर खलभल मचै ध्रुवलोक,
उड़गन-पति अति संकनि सकता हैं।
देस के दिनेस के गनेस सब काँपत है,
सेस के सहस फन फैलि-फैलि जात हैं।।
आसन डिगत पाकसासन सु कृष्ण कवि,
हालि उठैं दुग्ग बड़े गंध्रप के ख्यात हैं।
चढ़े तैँ तुरंग नवरंग साह बादसाह,
जिमीँ आसमान थर-थर थहरात है।।
इस कवित्त के तीसरे तुक का पाठ यद्यपि कुछ संदिग्ध है तथापि इसमें औरंगज़ेब की प्रशंसा का होना स्पष्ट है, जिससे कृष्ण कवि का औरंगजेब के समय में होना प्रमाणित होता है। इस कवित्त मं औरंगज़ेब के घोड़े पर चढ़ने के आतंक का वर्णन हैं, जिससे उस की अवस्था युवा ही प्रतीत होती है। औरंगज़ेब संवत् 1715-16 बादशाह हुआ था, अतः कृष्ण कवि का कविता-काल संव्त 1705 के पश्चात् मानना सर्वथा संगत है। इस अनुमान पर, जिस कृष्ण लाल की टीका का नाम लल्लूलाल जी ने लिखा है, वह यदि इन्हीं कृष्ण कवि की हो तो उसका रचना काल संवत् 1719 होना पूर्णतया संभावति है। इन बातों से यह धारणा स्वाभाविक ही उत्पन्न होती है कि यह टीका, जिसकी प्रति हमारे पास है, वही टीका है जिसको लल्लूलाल जी ने कृष्णलाल की टीका लिखा है, और संवत् ग्रह ससि इत्यादि दोहा इसी टीका के रचना-काल का दोहा है, जिसको लल्लूलाल जी ने बिहारी का दोहा समझकर अपनी टीका में सन्निविष्ट कर दिया है। हमारी प्रति के आद्यंत में टीकाकार का नाम इत्यादि कुछ नहीं लिखा है, पर संभव है कि लल्लूलाल जी के हाथ जो प्रति इसकी लगी हो उसके आदि अथवा अंत में कृष्णलालकृत टीका अथवा ऐसा ही कोई और शब्द रहा हो।
मिश्ररबंधुविनोद में राधाकृष्ण चौबे नामक एक कवि 1076 अंक पर पाए जाते हैं। इनका निवास चित्रकूट और ग्रंथ (1) बिहारी सतसइया पर पद्य टीका, तथा (2) कृष्णचंद्रिका, एवं कविता-काल संवत् 1850 के पूर्व लिखा है। कविता-काल के विषय में तो यह कहा जा सकता है कि जो प्रतियाँ मिश्रबंधु महाशयों को मिलीं उनमें उनके लिखे जाने के संवत् 1850 के आस पास के दिए थे, जिनसे उक्त महाशयों ने यह अनुमान स्वाभाविक ही कर लिया कि उक्त ग्रंथ संवत् 1850 के पूर्व के रचे हुए हैं। पर उन्होंने जो यह लिखा है कि उनकी टीका पद्यमय है उससे वह टीका इस टीका से भिन्न ही प्रतीत होती है। नाम जो उन्होंने राधाकृष्ण लिखा है, उसके विषय में तो यह कहा जा सकता है कि कृष्णलाल चौबे एक ही व्यक्ति थे, नाम के लिखने में या तो लल्लूलाल जी को भ्रम हो गया या मिश्रबंधु महाशयों को। यदि मिश्रबंधु महाशयों ने उस टीका को पद्य टीका न लिखा होता अतवा यदि पद्य शब्द को गद्य का अशुद्ध पाठ समझा जाय, तो उस टीका को तथा लल्लूलाल जी-लिखित कृष्णलाल की टीका को एक ही समझने में कोई आपत्त न होती। जो हो, हमारे पास जो टीका है और जिसमें संवत् ग्रह ससि इत्यादि दोहा लिखा है, उसके रचना-काल के संवत् 1719 मानने में कोई असंगति नहीं प्रतीत होती, और न उसके लल्लूलाल जी की कही हुई कृष्णलाल कवि की टीका ही होने में कोई असंभावना है।
संवत् ग्रह ससि इत्यादि, दोहे के विषय में यदि हमारा अनुमान ठीक है तो उसका अर्थ यह होता है- संवत् 1719 के चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की छठ को सोमवार के दिन (यह) आनंदकंद (टीका) पूर्ण (हुई)। इस तिथि तथा वार के मिलान के विषय में सर जी. ए. ग्रियर्सन साहब ने लिखा है कि यह तिथि सन् 1662 ईसवी की 24 जनवरी को पड़ी थी, जिस तारीख को गुरुवार था। पर इस गणना में उक्त साहब महोदय को कुछ भ्रम हो गया था, क्योंकि वास्तव में संवत् 1719 की चैत्र कृष्ण 6 सन् 1663 ई. की 18 फरवरी को पड़ी थी, और उस दिन बुधवार था। दोनों ही अवस्थाओं में इस दोहे में लिखे हुए तिथि तथा वार का मिलान नहीं होता। पर जयपुर प्रांत में अमांत मास मानने की प्रथा भी पूर्व काल में थी और अब भी कुछ लोग किसी किसी पांत में उक्त प्रथा का अनुसरण करते हैं। वल्लभ संप्रदाय के वैष्णवों में विशेषतः यह प्रथा कहीं कहीं प्रचलित है। इस प्रथा के अनुसार चैत्र कृष्ण 6 इस प्रांत की वैशाख कृष्ण 6 होती है। गणना करने से संवत् 1719 की वैशाख कृष्ण 6 सन् 1662 ई. की तारीख 31 मार्च चंद्रवार को पड़ती है। अतः टीकाकार को इस प्रथा का अनुयायी मानने पर उसके लिखे वार तथा तिथि का मिलान हो जाता है और टीकाकार को उक्त प्रथा का अनुयायी मानना किसी प्रकार असंगत भी नहीं है, प्रत्युत उसके जयपुर प्रांत का निवासी होने के कारण- जो कि उसकी भाषा से सिद्ध होता है- उसका इस शैली का अनुकरण करना पूर्णतया संगत तथा स्वाभाविक है।
ऊपर लिखी हुई बातों से हम इस टीका को संवत् 1719 में कृष्णलाल के द्वारा रची हुई टीका मानते हैं, और सतसई के पूर्ण होने के 14-15 ही वर्ष पीछे लिखे जाने, तथा इसके पूर्व की किसी टीका के न प्राप्त होने के कारण इसको सतसई की प्रथम टीका अनुमानित करते हैं।
इस टीका के अंत में यह दोहा लिखा है-
प्रथम देव बानी हुती फुनि नर बानी कीन।
लाल बिहारी कृत कथा पढ़ै सो होइ प्रबीन।।
इस दोहे का एक सामान्य अर्थ तो यह होता है, कि पहले देवबानी अर्थात् संस्कृत थी, पश्चात् लोगों ने नरबानी, अर्थात् ब्रजभाषा, इत्यादि की (बना ली)। लाल कहता है कि (उस नरबानी में) बिहारी की कथा (कविता) जो पढ़े वह प्रबीन हो जाय। दूसरा अर्थ इस दोहे का यह भी निकलता है कि पहले (सतसई) देवबानी (संस्कृत) में थी, पश्चात् नरबानी (ब्रजभाषा) में की है। हे लाल (कवि, ऐसी इस) बिहारी-कृत कथा (सतसई) को जो पढ़े वह प्रबीन हो। इस अर्थ से यह बात निकलती है कि बिहारी की सतसई पहले संस्कृत में थी, और फिर ब्रजभाषा में उसका अनुवाद किया गया। पर इस बात का कोई और प्रमाण नहीं मिलता, अतः यह अर्थ अग्राह्य है। तीसरा अर्थ इस दोहे का यह भी हो सकता है कि पहले (यह टीका) देवबानी (संस्कृत) में थी, फिर नर-बानी (ब्रजभाषा) में (अनुवादित) की गई। लाल कवि कहता है कि जो इस बिहारी-कृत कथा (सतसइया) को (इस टीका से) पढ़े वह प्रबीण हो। इस अर्थ की संगति इस टीका के पूर्व इस टीका से मिलती हुई किसी संस्कृत टीका के विद्यमान होने पर निर्भर है। हमारे पास जो प्राचीन संस्कृत टीका है, न तो उसका क्रम ही इस टीका के क्रम से मिलता है, और न उस टीका की कोई विशेष बात ही इस टीका में आई प्रतीत होती है। अतः जब तक कोई ऐसी संस्कृत टीका देखने में न आवे जो निश्चित रूप से इस भाषा टीका की आधारभूत मानी जा सके, तब तक यह तीसरा अर्थ भी अग्राह्य ही मानना चाहिए।
इस दोहे में जो लाल शब्द पड़ा है वह बिहारी के नाम का अंश नहीं प्रतीत होता, क्योंकि इस टीका के आद्यंत में बिहारीलाल शब्द न होकर बिहारीदास शब्द मिलता है। अतः यदि यह शब्द बिहारी के नाम के अंशरूप से आया होता, तो लाल बिहारी के स्थान पर दास बिहारी का होना अदिक संभावति था। अतः लाल शब्द को टीकाकार का उपनाम मानना चाहिए। ज्ञात होता है कि उनका नाम कृष्णलाल था, और वे कविता में कभी कृष्ण और कभी लाल छाप रखते थे।
इस संबंध में एक यह भी बात ध्यान में रखने की है कि जनश्रुति में बिहारी के बेटे का नाम कृष्ण कवि होना, और उसका सतसई पर एक टीका भी लिखना प्रसिद्ध है। इसी लोकवाद के आधार पर कई एक लेखक कृष्णदत्त चौबे को, जिसने सतसई पर कवित्तमय टीका बनाई है, बिहारी का पुत्र मानते हैं। पर उन कृष्णदत्त का बिहारी का पुत्र होना यदि असंभव नहीं तो दुःसंभव अवश्य है, क्योंकि कृष्णदत्त की कवित्तों वाली टीका संवत् 1782 में बनी थी। अतः बिहारी के रचना-काल तथा उन कृष्णदत्त के रचना-काल में बहुत अंतर है। इस गद्य टीकाकार कृष्णदत्त का बिहारी का पुत्र होना यदि कहा जाय तो समय की अनुकूलता उसके पक्ष में हो सकती है।
इस टीका में दोहों के पूर्वापर का क्रम, दो धार दोहों को छोड़कर, वही है जो बिहारी-रत्नाकर में ग्रहण किया गया है, और यह एक दोहा बिहारी रत्नाकर से अधिक है-----
सिसुता अमल तगीर सुनि भए और मिलि मैन।
कहौ होत हैं कौन के एक कसबाती नैन।।96।।
इस टीका की भाषा प्राचीन ढंग की जयपुरी मिश्रित है। इसमें अलंकारों तथा ध्वनि इत्यादि का झगड़ा नहीं उठाया गया है। केवल दोहों के वक्ता बोधव्य तथा अर्थ लिखे गए हैं। दोहों के भावार्थ समझाने में टीकाकार ने यथाशक्ति चेष्टा की है, यद्यपि भाषा तथा परिपाटी के वैलक्षण्य के कारण उसका अभिप्राय इस समय के पाठकों के लिये समझना कुछ कठिन है। निदर्शनार्थ एक दोहे की टीका नीचे लिखी जाती है------
दोहा
पारवौ सोरु सुहाग कौ इनु बिनु हीं पिय नेह।
उन दौंहीं अँखियाँ ककै कै अलसौँहीं देह।।662।।
टीका- मुग्धा स्वाधीनपतिका। सखी कौ बैन सखी सौ। हे सखी इन राधिका बिन हीं भरतार सौं नेह सुहाग कौ सोर पारवो है। सो कैसैक नायका के अलसोही देह करने तै नायक दोनु हीं अँखिया करिकै देखी सो चित चढ़ी।
इस टीका की प्रति जो हमारे पास है वह संवत् 1820 की लिखी हुई है।
इसके क्रम का विशेष वर्णन प्रथम क्रम के अंतर्गत द्रष्टव्य है।
(2)
मानसिंह कवि विजयगछ वाले की टीका
कालक्रमानुसार दूसरी टीका, जो हमारे देखने में आई है वह, उदयपुर के निकट विजयगछ ग्राम के रहनेवाले मानसिंह नामक कवि की है। इन्हीं कवि का बनाया हुआ एक ग्रंथ राजविलास भी है जो अब नागरीप्रचारिणी सभा के द्वारा प्रकाशित हो गया है। राज-विलास में उदयपुराधीश महाराणा राजसिंह के समय का वर्णन है। इसकी रचना संवत् 1734 में आरंभ हुई थी, और इसकी समाप्ति का संवत्, यद्यपि इसमें नहीं दिया है तथापि अनुमान से 1737-38 प्रतीत होता है। महाराणा राजसिंह संवत् 1708 में गद्दी पर बैठा थे और संवत् 1737 में उनका स्वर्गवास हुआ, जैसा कि राज-विलास से विदित होता है। मानसिंह कवि के विषय में सुना गया है कि उन्होंने जयपुर में जाकर बिहारी से साक्षात् किया था, और उनसे कुछ पढ़ा भी था। जयपुर से लौटते समय वे बिहारी के कुछ दोहे लिख ले गए थे। उदयपुर में पहुँचकर उन्होंने वे दोहे जहाँ तहाँ सरदारों को सुनाए और होते होते कुछ दोहे महाराणा के कान तक भी पहुँचे। बिहारी के दोहों की ख्याति उदयपुर में पहले ही पहुँच चुकी थी और वहाँ के सामन्त, सरदार इत्यादि उनको बड़े चाव और प्रसन्नता से पढ़ते सुनते थे। उन दोहों की उत्तमता पर महाराणा ने प्रसन्न होकर, मानसिंह को राजसभा में बुलाया और आज्ञा दी कि जयपुर जाकर तुम सतसई की पुस्तक प्राप्त कर लाओ। जब मानसिंह किसी प्रकार सतसई ले आए तो उसके दोहे बड़े कठिन देख पड़े। अतः महाराणा जी ने, मानसिंह को बिहारी का शिष्य समझकर, सतसई की टीका करन् की आज्ञा दी। मानसिंह को बिहारी का शिष्य समझकर, सतसई की टीका करने की आज्ञा दी। मानसिंह ने अपनी बुद्धि के अनुसार यह टीका उसी आज्ञा पर रचकर प्रस्तुत की। यद्यपि टीका तो बहु ही सामान्य श्रेणी की है, तथापि महाराणा ने प्रसन्न होकर मानसिंह को अपनी सभा के कवियों में समाविष्ट कर प्रसन्न होकर मानसिंह को अपनी सभा के कवियों में समाविष्ट कर लिया। फिर मानसिंह ने राज-विलास ग्रंथ की रचना आरंभ की। इस टीका में रचना-काल कुछ नहीं दिया है। पर, यदि ऊपर लिखे हुए जन-वाद में कुछ सार है तो, इस टीका का रचनाकाल संवत् 1734 के पूर्व समझना चाहिए।
इस टीका की प्रति जो हमारे पास है, वह प्रतापविजय नामक किसी व्यक्ति के द्वारा अजमेर में संवत् 1772 में लिखी गई थी। इस टीका के अंत में यह लिखा हुआ है-
इति श्री बिहारीदासकृत सतसई दोहरा संपूर्ण सतसहीरा टीका कृत विजैगछे कवि मानसिंह जू टीका कीनी उदयपुर मध्ये ग्रंथाग्रंथ 4505 इति संख्या संपूर्णः शुभं भवतुः।। श्री श्री संवत् 1772 वर्षे वैशाख बदि कृष्णपक्षे द्वितीयायां लिषतं प्रतापविजय लिपीकृते।। अजमेर मध्येः।। श्रीरस्तुः।।श्री।।
एक बात पर ध्यान देना यहां आवश्यक है कि इस टीका के अंत में टीकाकार का नाम मानसिंह लिखा है, पर राज-विलास के अंत में उसके कर्ता का नाम मान कवि पाया जाता है। इससे दोनों ग्रंथकारों के एक ही होने में कुछ संशय उपस्थित हो जाता है। पर यह भिन्नता लेखमात्र की प्रतीत होती है, क्योंकि टीका के अंत में उसका उदयपुर में रचा जाना तथा उसकी प्रतिलिपि का संवत् 1772 में अजमेर में लिखा जाना स्पष्ट ही कहा है। इस बात पर विचार करने से कि उस समय छापे का प्रचार नहीं था, और देश भर में, विशेषतः उदयपुर में, बड़ी अशांति फैली हुई थी, उक्त टीका के उदयपुर से अजमेर तक लिखते लिखाते पहुँचने में 40 वर्ष के अनुमान लग जाना परम संगत तथा स्वाभाविक था। अतः टीका का रचना-काल संवत् 1730 तथा 1734 के बीच में मानना अनुचित नहीं है। यदि यह अनुमान संगत समझा जाय, और उक्त टीका के उदयपुर ही में रचे जाने पर ध्यान दिया जाय और उसी के साथ जनश्रुति भी मिला ली जाय, तो दोनों ग्रंथकारों के एक ही होने में संशय नहीं रह जाता। मानसिंह ने अपने विषय में न तो सतसई की टीका ही में कुछ कहा है, और न राज-विलास ही में। इस विषय में दोनों ग्रंथकरों की प्रकृति भी एक ही प्रतीत होती है।
यह टीका बहुत सामान्य श्रेणी की है और इसमें भी टीकाकार ने अलंकार इत्यादि नहीं लिखे हैं, केवल दोहों के अर्थ अपनी समझ के अनुसार कर दिए हैं, और वे अर्थ भी कहीं कहीं सर्वथा अशुद्ध और अग्राह्य है। निदर्शनार्थ एक दोहे की टीका नीचे लिखी जाती है। दोहा-
पारयौ सोर सौहाग कौ इनु बिनु ही पिय-नेह।
इन दौही अँखियाँ ककै कै अलसोंही देह।।662।।
टी. षंडिता नायका श्रीराधा जू श्रीकृष्ण जू सों कहै है। पारयौ सोर. इनु बिनु इन पिय के नेह बिनु ही हमारौ ब्रजमंडल में यों ही झूठौ ही सुहाग कौ सोर पसारयौ है। इन दौही. कै अलसौ. इन दोनु अँखियाँ देखें ही कौ सुहाग है। अर कै अलसौंही नींद भरी देह कै हमारै घर आइ सोवन कौ सुहाग है इत्यर्थ।।662।।
इस टीका में दोहों का क्रम बिहारी के निज क्रम के अनुसार है जिसका वर्णन प्रथम क्रम के अंतर्गत हो चुका है।
(3)
चारणदास की टीका
मिश्र-बन्धु-विनोद में 529 अंक पर, किसी एक चारणदास नामक कवि ने बनाए हुए दो ग्रंथ- (1) नेहप्रकाशिका, तथा (2) बिहारी सतसई की टीका, लिखे हैं, और नेहप्रकाशिका का रचना-काल संवत् 1749 बतलाया है। अतः हम इस टीका का काल संवत् 1750 के आसपास अनुमानित करके इसको तीसरा स्थान देते हैं।
इस टीका के क्रम तथा उपयोगिता के विषय में हम कुछ नहीं कह सकते।
(4)
पठान मुलतान की कुंडलियों वाली टीका
इस ग्रंथ के विषय में प्रायः लोगों का अनुमान है कि यह ग्रंथ पूरा नहीं बना था, केवल कतिपय दोहों पर कुंडलियाँ पठान सुलतान के नाम से लगाई गई थी। पर लल्लूलाल जी ने लालचंद्रिका की भूमिका में इस ग्रंथ को देखना लिखा है, और शिवसिंहसरोज में चंद्र कवि के ये सोरठे दिए है-----
सुलताँमुहमद साह नाम नवाब बखानियै।
कविताई अति चाह करत रहत गढ़ नगर मैं।।1।।
देस मालवा माहिँ कुंडलियाँ करि सतसई।
हरि गुन अधिक सराहि चंद्र कवीसुर तिहिँ सभा।।2।।
इन दोनों बातों से पठान सुलतान की कुंडलियों वाले ग्रंथ का पूरा होना प्रमाणित होता है। पर यह ग्रंथ ऐसा दुर्लभ है कि इसकी दस ही पाँच कुंडलियाँ जहाँ तहाँ सुनने में आती हैं। स्वर्गवासी पंडित अंबिकादत्त जी व्यास को बड़े अनुसंधान से केवल पाँच कुंडलियाँ प्राप्त हो सकीं। उनको उन्होंने बिहारीबिहार की भूमिका में प्रकाशित कर दिया है। वे ये है----
मेरी भव-बाधा हरौ राधा नागरि सोइ।
जा तन की झाँई परैं स्यामु हरित-दुति होइ।।
स्यामु हरित दुति होइ कटै सब कलुष-कलेसा।
मिटै चित्त कौ भरमु रहै नहिं कछुक अँदेसा।।
कह पठान सुलतान कटै जम-दुख की बेरी।
राधा बाधा हरौ हहा बिनती सुनि मेरी।।1।।
नासा मोरि नचाइ जे करी कका की सौंह।
काँटे सी कसकैं ति हिय गड़ी कँटीली भौंह।।
गड़ी कँटीली भौंह केस निरवारति प्यारी।
चितवति तिरछे दृगनु मनौ हिय हनति कटारी।।
कह पठान सुलतान छक्यौ यह देखि तमास।
बाकौ सहज सुभाउ और कौ बुधि बल-नासा।।2।।
हा हा बदनु उघारि दृग सफल करैं सबु कोइ।
रोज सरोजनु कैं परै हँसी ससी की होइ।।
हँसी ससी की होइ देखि मुखु तेरौ प्यारी।
बिधिना ऐसी रची आपने करनु सँवारी।।
कह पठान सुलतान मेटि उर अंतर दाहा।
करि कटाच्छु मो और भोर बिनती सुनि हा हा।।3।।
सहज सचिक्कन स्यामरुचि सुचि सुगंध सुकुमार।
गनतु न मनु पथु अपथु लखि बिथुरे सुथरे बार।
बिथुरे सुथरे बार निरखि नागरि नवला के।
भ्रमत भँवर बहु बिपिन बनक बरनत कबि थाके।।
कह पठान सुलतान आन तजि हिय भयौ हिक्कने।
बार बार मनु बँधत बार लखि सहजु सचिक्कन।।4।।
भूषन-भार सँभारिहै क्यौं इहिं तन सुकुमार।
सूधे पाइ न धर परैं सोभा ही कैं भार।।
देत्यौ अनिलु उड़ाइ जौ न होती कुचपीनी।
कह पठान सुलतानं तासु अँग-अंग अदूषन।
नरी किन्नरी सुरी आदि तिय की तिय भूषन।।5।।
इनके अतिरिक्त चार पाँच कुंडलिया हमने और सुनी हैं।
पठान सुलतान के विषय में शिवसिंहसरोज में लिखा है कि इनका नाम सुल्तान-मुहम्मद खाँ था, और ये संवत् 1731 में राजगढ़, भूपाल ने नवाब थे। सर जी. ए. ग्रियर्सन साहब, साहित्याचार्य पंडित अंबिकादत्त व्यास तथा मिश्रबंधु महाशयों ने भी इनके विषय में यही लिखा है।
चंद कवि के विषय में शिवसिंह ने लिखा है कि ये कवि सुल्तान पठान नव्वाब राजगढ़ भाई बंदन बाबू भूपाल के यहाँ थे। इन्होंने बिहारी सतसई का तिलक कुंडलियाँ छंद में सुल्तान पठान के नाम से बनाया है। इनकी उपस्थिति संवत् 1749 में बताई है।
इन चंद के अतिरिक्त शिवसिंह जी ने चंद बरदाई को छोड़कर दो और चंद कवि लिखे हैं, उनमें से एक को तो सामान्य कवि बतलाया है, और उनकी कविता का यह उदाहरण दिया है—
मद के भिखारी मीन मास के अहारी रहें,
सदा अनाचारी चारी लिखते लिखावते।
नारी कुलधाम की न प्यारी परनारी आगैँ,
विद्या पढ़ि पढ़ि हू कुविद्या-मगि धावते।।
आँखिनि कौ काजर कलम सौं चुराइ लेत,
ऐसे काम करैं नैंक संक हू न लावते।
जो पै सिंहबाहिनी निबाहिनी न होती चंद,
कायथ कलंकी काकैं द्वार गति पावते।।
दूसरे चंद के विषय में उन्होंने लिखा है कि इन्होंने श्रृंगाररस में बहुत सुंदर कविता की है और हज़ारे में इनके कवित्त है। इनके ये दो कवित्त भी निदर्शनार्थ दिए हैं-----
लोचन मैन के बान बने, धनुही भृकुटी मुख चंद चही।
ओठनि मैं उपमा बर बिंब की दंत की पंगति कुंद सही।।
चंद कहै नवनीरद से कच, अंग सुहेमै की गौरि गही।
नाजुक हीन नई (?) मुख की उपमा नहिं एकहु जाति कही।।1।।
आस पास पुहिमि प्रकास के पगार सूझैँ,
बननि अगार दीठि ह्वै रही निबर तैँ (?)।
पारावार पारद अपार दसौँ दिसि बूडी,
चंद ब्रहमंड उतरात बिधु बर तैँ।।
सरद-जुन्हाई जन्हुधार सहसा सुधाई,
सोभा-सिंधु नव सुभ्र नव गिरिवर तैँ।
उमड़यौ परत जोति-मंडल अखंड सुधा-
मंडल मही पै विधु-मंडल बिबर तैँ।।2।।
मिश्रबंधु-विनोद में इन तीनों चंदों का एक ही होना अनुमानित किया है, और यह भी अनुमान किया है कि इन्होंने भाषा में एक महाभारत भी बनाया था।
पठान सुलतान की उपस्थिति संवत् 1761 के आसपास शिवसिंहसरोज में मानी गई है। अतः हमने इनके ग्रंथ को चौथा स्थान दिया है, क्योंकि मानसिंह की टीका तथा इस ग्रंथ के बीच के समय की बनी हुई कोई टीका हमारे देखने में नहीं आई हैं।
इसकी कुंडलियाँ जो मिलती हैं उनकी कविता बहुत मधुर और रोचक है, यद्यपि बिहारी के भावार्थ उद्घाटन में तो वे विशेष उपयोगी नहीं है।
इसके क्रम इत्यादि के विषय में हम कुछ नहीं कह सकते।
(5)
अनवरचंद्रिका टीका
पाँचवी टीका हमारे देखने में अनवरचंद्रिका आई है। इसकी रचना संवत् 1771 में शुभकरण तथा कमलनयन कवियों ने मिल कर नव्वाब अनवर खाँ की आज्ञा से की थी। मंगलाचरण के छप्पय में शुभकरण का नाम आया है, और अनवर खाँ की प्रशंसा के एक कवित्त में कौलनैन (कमलनयन) मिलता है। वे छप्पय तथा कवित्त ये हैं----
छप्पय
सुमुख, सुखद, ससि-धरन, धीर, हेरंब, अबं-सुत।
एक-दंत, गजकरन, सरन-दायक, सिंदुर-जुत।।
कपिल, विनायक, विकट, बिधन-नासक, गनाधिपति।
धूमकेतु-धर, धरम-धरम, दुखहरन, अगति-गति।।
प्रभु लंबोदर, बारन-वदन, विद्यामय, बुधि-वेद-मय।
सुभकरन-दास इच्छित करन, जय जय जय संकर-तनय।।
कवित्त
भोगी सीखैं भोग जासौं जोगी जोग सीखत है,
रागो सीखैं राग धागी बागिनि के भेव जू।
पंडिताई पंडित सुकवि कविताई सीखैँ,
रसिकाई सीखत रसिक करि सेव जू।।
सीखत सिपाही त्यौं सिपाहगरी कौलनैन,
कामतरु दान सीखै तजि अहमेव जू।
करै को जवा अनवर खाँ नबाब जू सौं,
और सब सिष्य एक आप गुरु देव जू।।
अपने विषय में टीकाकारों ने और कुछ नहीं लिखा है। मंलगाचरण के पश्चात तीन छंदों में नव्वाब अनवर खाँ की वंशावली और पाँच छंदों में प्रशंसा लिखकर, इन चार दोहों में अनवरचंद्रिका की रचना का कारण तथा काल इत्यादि लिखा हैं-----
अनवर खाँ जू कविन सौं आंयसु कियौ सनेहु।
कबित-रीति सब सतसया-मध्य प्रगट करि देहु।।10।।
ससि रिषि रिषि सखि लिखि लखौ संवतसर सबिलास।
जामैं अनवर-चंद्रिका कीन्यौ विमल बिकास।।।11।।
जु है बिहारी सतसया मैं कवि-रीति-विलास।
सो अब अनवर-चंद्रिका सब कौ करै प्रकास।।12।।
देखै अनवर-चंद्रिका पोथी जो चित लाइ।
ता नर कौ कवि-रीति मैं मोहतिमिर मिटि जाइ।।13।।
इन चारों दोहों पर टीकाकारों ने ग्रंथ का प्रथम प्रकाश समाप्त कर दिया है, और दूसरे प्रकाश से मुख्य ग्रंथारंभ करके सब सोलह प्रकाशों में समाप्त किया है, जिसका ब्योरा अनवर-चंद्रिका के क्रम-विवरण में दिया गया है।
टीकाकारों ने यद्यपि अनवर खाँ की वंशावली तो बड़ी लंबी चौड़ी दी है पर उनके स्थानादि तथा अपने परिचय के विषय में कुछ नहीं लिखा है। वंशावली वर्णन के दूसरे छंद से केवल इतना ज्ञात होता है कि अनवर खाँ से तेरह पीढ़ी पहले कोई यूसुफ़ खाँ गुर्देज़ी हुए थे, जिनका स्थान मुल्तान में था और जो ऐसे सिद्ध थे कि उनका हाथ नित्य क़ब्र से बाहर निकला करता था। वंशावली से यह भी प्रतीत होता है कि अनवर खाँ के पूर्वजों की गद्दी गृहस्थ फ़क़ीरों अर्थात् वीरज़ादों की थी, और उनके पिता का नाम सय्यद मुस्तफ़ा था। यद्यपि ये लोग गद्दीदार फ़क़ीर थे तथापि हिंदुओं के विरुद्ध युद्धकर्म में प्रवृत्त होना अपना परम धर्म समझते थे। यह बात मुसलमानों में स्वाभाविक है, यहाँ तक कि शेख़ सादी साहब भी, जो कि एक बड़े विरक्त तथा पहुँछे हुए फ़क़ीर माने जाते हैं, जिहाद (अन्य धर्मावलंबियों के विरुद्ध युद्ध) पर कटिबद्ध होकर गुजरात पर की चढ़ाई में आए थे। अनवर खाँ के विषय में लोगों की यह धारणा है कि वे पठान सुल्तान के भाई थे। पर यह बात सर्वथा अग्राह्य है, क्योंकि पठान सुल्तान पठान थे और ये सय्यद। हमारी समझ में इनको मुल्तान ही का मानना ठीक है जैसा कि टीकाकारों ने उसके पूर्वजों के विषय में कहा है। हाँ, यह बात संभव है कि वे या उनके कोई पूर्वज अपनी वीरता के कारण दिल्ली के किसी बादशाह के द्वारा किसी उच्च पद पर स्थापित हुए हों, और उन्होंने राजपूताने अथवा दक्षिण प्रदेश में कोई जागीर भी पाई हो और वहीं रहने लगे हो। अनवर खाँ के विषय में बादशाह के द्वारा किसी उच्च पद अथवा प्रांताधीशत्व पर नियुक्त होना ग्रंथकारों के एक कवित्त से लक्षित भी होता है। उस कवित्त का पहला चरण यह है-----
थापे हैं जु दिल्लीपति पुहुमि-पुरंदर के
कामना के दानि परिताप सबको हरैं।।
छत्रप्रकाश से विदित होता है कि अनवर खाँ नामक, दिल्ली का कोई सामंत एक बार छत्रसाल बुंदेला से लड़ने के निमित्त भेजा गया था, जिसको छत्रसाल ने भगा दिया था। संभव है कि वह अनवर खाँ, अनवरचंद्रिका वाले ही रहे हो। इस टीका में दोहों के अर्थ करने का यत्न नहीं किया गया है, केवल दोहों के वक्ता बोधव्य, अलंकार, ध्वनि इत्यादि, विषय कहे गए हैं। अतः यह टीका केवल साहित्य भेद जानने वालों के तो बड़े काम की है, पर अर्थ-जिज्ञासुओं के निमित्त सर्वथा व्यर्थ है। इसमें जो ध्वनि-भेद कहा गया है वह बड़े महत्व का विषय है, और सिवा इस टीका के और किसी में नहीं छेड़ा गया है। निदर्शनार्थ एक दोहे की टीका नीचे लिखी जाती है-----
दोहा
पारयौ सोरु सुहाग कौ इनु बिनु ही पिय नेह।
नहौँहोँ अँखियाँ ककै कै अलसौंही देह।।328।।
टीका- जौ याही नायिका कौ सखी की उक्ति है तौ याही कौ झूठी कहति है ताके आगे कहति है यह कि कोऊ टोकै नहीं। जौ सौति की कै बाकी सखी की उक्ति होइ तो समर्थ ईर्ष्या संचारी। विभावनालंकार प्रथम भेद----
कारन बिनहीं काज कौ उदै होइ जिहि ठौर।
पहिलौ भेद बिभावना कौ आवत सिर-भौर।।
इसके क्रम के विषय में चौथे क्रम का वर्णन द्रष्टव्य है।
(6)
राजा गोपालशरण की टीका
शिवसिंहसरोज में बिहारी की टीकाओं में राजा गोपालशरण की एक प्रबंधघटना नाम की टीका लिखी है, और राजा गोपालशरण का संवत् 1775 में विद्यमान होना बतलाया है, और यह भी कहा है कि इनके पद बड़े ललित होते थे। उसमें एक पद निदर्शनार्थ दिया भी है। ग्रियर्सन साहब तथा पंडित अंबिकादत्त व्यास ने भी इनकी टीका का नाममात्र गिना दिया है। मिश्रबंधु-विनोद में इनका जन्मकाल संवत् 1748 तथा कविता-काल संवत् 1775 बतलाया है और इनके बनाए तीन ग्रंथ लिखे हैं- (1) प्रबंधघटना (2) सतसई की टीका, तथा (3) पद। इससे ज्ञात होता है कि प्रबंधघटना उनकी टीका का नाम नहीं था, प्रत्युत कोई अन्य ही पुस्तक उनकी इस नाम की थी। हमारे देखने में यह टीका नहीं आई है, अतः हम इसके तारतम्य तथा क्रम के विषय में कुछ नहीं कह सकते। इसका रचना-काल संवत् 1770 तथा 1780 के बीच में मानकर, हम इसकी अनवरचंद्रिका के पश्चात् तथा कृष्ण कवि की टीका के पूर्व का स्थान देते हैं।
(7)
कृष्ण कवि की कवित्तबंध टीका
सातवीं टीका हमारे देखने में कृष्ण कवि की कवित्तबंध टीका आई है। इसके अंत में जो 35 दोहे कृष्ण कवि ने लिखे हैं उनसे उनका तथा उनके आश्रयदाता का कुछ वृत्तांत एवं रचना के कारण तथा काल का कुछ पता मिलता है। उनमें से 24 दोहे नीचे लिखे जाते हैं-----
रघुबंसी राजा प्रगट पुतुमि धर्मअवतार
विक्रमनिधि जयसाहि रिपु-तुंड-बिहंडन-हार।।11।।
सुकवि बिहारी-दास सौं तिन कीनौ अति प्यार,
बहुत भाँति सनमान करि दौलत दई अपार।।12।।
राजा श्री जयसिंह कै प्रकटयो तेज-समाज।
रामसिंह गुन राम सम नृपति गरीब-निवाज।।13।।
कृष्णसिंह तिनके भए केहिरि-राज-कुमार।
विस्नुसिंह तिनके भए सूरज के अवतार।।14।।
महाराज विसुनेस के धरम-धुरंधर धीर।
प्रगट भए जयसाहि नृप सुमति सवाई बोर।।15।।
प्रगट सवाई भूप कौ मंत्री-मनि सुखसार।
सागर गुन सत सील कौ नागर परम उदार।।16।।
आयामल्ल अखंडतप जग-सोहत-जस, ताहि।
राजा कीनौ करि कृपा महाराज जयसाहि।।17।।
मन वच क्रम साँचौ भगत, हरि भक्तनि कौ दास।
बेद-वचन निज धरम कौ जाकै दृढ़ विस्वास।।18।।
छत्री-कुल छिति पै भए बेरी जग विख्यात।
परदुख-बेरी-खंडनों मंडन-गुन-अवदात।।19।।
रामचंद्र तिनके भए निज कुल के अवतंस।।20।।
महाराज तिनके भए जिनकौ जस अवदात।
रायपंजाब सपूतमगि उपजे तिनके तात।।21।।
तिनके प्रगटे तीन सुत बिक्रम-बुद्धि-निधान।
रच्छक ब्राह्मन गाय के निपुत दान किस्वान।।22।।
राजा आयामल्ल जग-विदित राय सिवदाल।
लसत नरायनदास जस-पूरन पुहिमि-प्रकास।।23।।
लीला जुगल किसोर की रस कौ होइ निकेतु।
राजा आयामल्ल कौँ ता कबिता सौँ हेतु।।24।।
माथुर बिप्र ककोर-कुल लह्यौ कृष्न-कवि नावँ।
सेवक हौँ सब कबिनि कौ वसत मधुपुरी गावँ।।25।।
आयामल कबि कृष्न पर ढरयौ कृपा कैँ ढार।
भाँति भाँति बिपदा हरी दीनी लच्छि अपार।।26।।
एक दिना कबि सौ नृपति कही कहीं कौँ जात।
दोहा दोहा प्रति करौ कबित बुद्धि-अवदात।।27।।
पहिलैं हूँ मेरे यहै हिय मैं हुतौं बिचार।
करौं नायिका भेद कौ ग्रंथ सुबुधि-अनुसार।।28।।
जे कीने पूरब कबिनु सरस ग्रंथ सुखदाइ।
तिनहिँ छाँड़ि मेरे कबित को पढ़िहै मन लाइ।।29।।
जानि यहै अपने हियैं कियौ न ग्रंथ-प्रकास।
नृप कौ आयसु पाइ कै हिय मैं भयौ हुलास।।30।।
करे सात सौ दोहरा सुकबि बिहारीदास।
सब कोऊ तिनकौँ पढ़ै गुनै सुनै सबिलास।।31।।
बड़ौ भरोसौ जानि मैं गह्यौ आसरौ आइ।
यातैं इन दोहानि सँग दीने कबित लगाइ।।32।।
उक्ति जुक्ति दोहानि की अच्छर जोरि नवीन।
करे सात सै कबित मैं पढ़ै सुकबि परबीन।।33।।
मैं अति हीं ढीठयौ करयौ कबि-कुल सरस सुभाइ।
सतरह सै द्वै आगरे असी बरस रबिबार।
अगहन सुदि पाँचैं भए कबित बुद्धि-अनुसार।।35।।
इन दोहों से विदित होता है कि बिहारीदास उन राजा जयसिंह के पास थे जिनके बेटे रामसिंह और पौत्र कृष्णसिंह थे, और कृष्ण कवि उन जयसिंह के दीवान, राजा आयामल, के यहाँ थे, जो सवाई कहलाते थे। कृष्ण कवि ककोर वंशी माथुर ब्राह्मण मथुरा के रहनेवाले थे। उन्होंने यह ग्रंथ संवत् 1782 के अगहन मास की शुक्ल पंचमी, रविवार को समाप्त किया था। इन बातों के अतिरिक्त इन दोहों से और कुछ नहीं ज्ञात होता।
शिवसिंह जी ने इनको जयपुरवाले लिखा है, और कहा है कि ये बिहारीलाल कवि के शिष्य औ महाराजै जयसिंह सवाई के यहाँ नौकर थे, बिहारी सतसई का तिलक कवित्तों में विस्तारपूर्वक वार्तिक सहित बनाया है। जयसिंह की प्रशंसा का ह कवित्त भी उनका बनाया हुआ शिवसिंह-सरोज में दिया है-----
कूरम-कलस महाराज सुरलोक मैं अपार है।
रावरौ सुजस सुरलोक मैं अपार है।
कृष्ण कवि ताके कन सुंदर जलज जानि,
सुरनि की सुंदरीनि लीन्यौ भरि थार है।।
तिनही कैं संग कौ सरस तेरौ गुन लैकै,
हार पोहिबै कौं उन करतीं विचार है।
मोती जो निहारैं कहूँ रंध्र कौ न लवलेस,
गुन कौ निहारैं कहूँ पावत न पार है।।
इस कवित्त के देखने से कृष्ण कवि बहुत ही उच्च श्रेणी के कवि जान पड़ते हैं। खेद का विषय है कि उनके और कोई ग्रंथ अथवा फुटकर काव्य प्राप्त नहीं होते।
ग्रियर्सन साहब ने इनके विषय में कुछ विशेष नहीं लिखा है। साहित्याचार्य पंडित अंबिकादत्त व्यास ने इस विषय में बड़ा धोखा खाया है। वे बिहारी-बिहार की भूमिका में यह लिखते है-
यद्यपि बिहारी कवि का महाराज जयसिंह की सभा का कवि होना ही प्रसिद्ध है तथापि कृष्ण कवि ने जैसाह और उनके मंत्री आयामल्ल के विषय में यो लिखा है कि महाराज जयसिंह के रामसिंह, उनके कृष्णसिंह, उनके विष्णुसिंह और उनके जयसाहि हुए। यों ही छत्रिय कुल लालदास रामचंद्र, उनके महाराज, उनके राय पंजाब और उनके राजा आयामल्ल हुए। राजा आयामल्ल पूर्वोक्त सवाई जयसाह महाराज के मंत्री थे। सवाई जयसहि के पारम कृपापात्र बिहारी कवि ने सतसई बनाई और राजा आयामल्ल मंत्री की आज्ञा से कृष्ण कवि ने उन्हीं दोहों पर कवित्त और सवैए बनाए।
प्रतीत होता है कि व्यास जी ने मिर्ज़ा राजा जयसिंह का नाम जयसिंह तथा सवाई जयसिंह का नाम जयसाह समझा था और इसी से यह गड़बड़ उनकी समझ में पड़ी और भ्रम हुआ। वास्तव में बात यह ज्ञात होती है कि दोनों ही जयसिंह जयसाहि भी कहलाते थे। इनमें से प्रथम जयसिंह ने संवत् 1678 से 1724 तक राज्य किया, और वे मिर्ज़ा राजा भी कहलाते थे। दूसरे जयसिंह सवाई कहलाते थे। उन्होंने संवत् 1756 से 1800 तक राज्य किया। बिहारी वास्तव में मिर्ज़ा राजा जयशाही के कृपापात्र थे। उनकी सतसई संवत् 1704-5 में समाप्त हो गई थी और संवत् 1719 तथा 1730-34 में उनकी सतसई पर टीकाएँ भी लिखी जा चुकीं थीं। संवत् 1719 वाली टीका संभवतः वही टीका है जिसको लल्लूलाल जी ने कृष्णलाल की टीका कहा है और जिसका विशेष वर्णन हमने पहली टीका कहकर किया है। इनके अतिरिक्त बिहारी सतसई का कोविद कवि वाला क्रम तो अवश्य ही संवत् 1742 में लग चुका था, और उस क्रम में जयसिंह की प्रशंसा के दोहे जो सतसई में हैं, वे सबके सब विद्यमान हैं। उस समय तो सवाई जयसिंह का पता भी नहीं था, अतः उनमें से कोई दोहा भी उनकी प्रशंसा का नहीं माना जा सकता। कृष्ण कवि ने जो अपने कवित्तों में जयसिंह सवाई का नाम ठूँस दिया है, उसका कारण यह है कि वे जयसिंह सवाई ही के समय में थे, और, बिहारी के प्रशंस्य मिर्ज़ा राजा के भी जयसिंह अथवा जयशाही नाम होने का लाभ उठाकर, उन्होंने बिहारी के दोहों का अर्थ अपने प्रशंस्य जयसिंह सवाई पर लगा लिया।
कृष्ण कवि वास्तव में बहुत अच्छे कवि थे। उन्होंने बिहारी के दोहों के भावार्थ समझने में बड़ा प्रयत्न किया और उन पर बहुत अच्छे कवित्त लगाए। दोहों के वक्ता-बोधव्य तथा नायिका-भेद बतलाने के पश्चात्, धनाक्षरी अथवा सवैया में दोहों के अर्थों को खोलने की चेष्टा उन्होंने बड़े अच्छे ढंग से की है, और प्रति दोहे के पूर्व पिंगलानुसार उसकी जाति का नाम तथा लघु गुरु वर्णों की संख्याएँ भी दे दी हैं, जिनमें दोहों की पाठ-शुद्धि में सहायता मिलती है। पर उन्होंने दोहों के अलंकार इत्यादि नहीं लिखे हैं। निदर्शनार्थ एक दोहे की टीका नीचे लिखी जाती है-----
(नर। अक्षर 33। गुरु 15, लघु 18।)
दोहा
पारयौ सोरु सुहाग कौ इनु बिनु हीं पिय-नेह।
उनदौँहीं अँखियाँ ककै कै अलसौंहीं देह।।384।।
टीका-यह नायिका सौति कौं आलसबलित देखि अरु रसमसी आँखि देखि सखी सौं काकु ध्वनि करि कहति हैं। अन्य-संभोग-दुःखिता होइ। जो सखी नायिका सौँ कहै तो याकी रिस कौ निवारन होइ।
सवैया
सैं करि आँखि उनींदी करी अधऊनत सौं मुख बोल उचारयौ।
बारहीं बार जम्हाइ कै यौं ही खरौ तन आरस कैँ ढर ढारयौ।।
झूठी जताबति है सुखसेन जगी यह जामिनी जामनि चारयौ।
देखि तौ प्रीतम की बिन प्रीति सुहाग कौ सोर कितौ इहिँ पारयौ।।384।।
किसी किसी दोहे पर अपने कवित्त न बनाकर, दोहों के भावों से मिलते हुए अन्य कवियों के कवित्तों से भी कृष्ण कवि ने काम ले।
इस टीका के दोहों के पूर्वापर क्रम तथा संख्या इत्यादि के विषय में छठे क्रम का विवरण द्रष्टव्य है।
(8)
साहित्यचंद्रिका टीका
आठवीं टीका कर्ण कवि पन्नावाले की रची हुई, साहित्यचंद्रिका नाथ की है। शिवसिंह जी ने इनको ब्राह्मण लिखा है और राजा सभासिंह जी हृदयशाही पन्नानरेश के आज्ञानुसार साहित्यचंद्रिका का संवत् 1794 में रचा जाना बतलाया है। उन्होंने इनके छंद जो उद्धृत किया हैं, उनसे भी उनका कथन प्रमाणित होता है। वे छंद ये हैं------
दोहा- बिघनहरन पातकदन अरि-दल-दलन अखंड।
सुरसिच्छक रच्छाकरन गनपति-सुंडाडंड।।1।।
गौरी हियौ सिरावनौ बुद्धि-उदार उदंड।
जगत-विदित छबि-छावनौ गनपति-सुंडाडंड।।2।।
वेद खंड गिरि चंद्र गनि भाद्र पंचमी कृष्न।
गुरु बासर टीका करन पूरयौ ग्रंथ कृतष्न।।3।।
साहित्यचंद्रिका से संबंध रखनेवाले इन कर्ण कवि के ये तीन कवित्त भी शिवसिंह-सरोज में दिए हैं।
कवित्त
सीतल सुखद सुभ सोभा के सुभाय मढ़ी,
कढ़ी बाल पाय धनी दीपति अमाप तैं।
छाई हिमि गिरि पै जुन्हाई सी जगमगाति,
करन अनूप-रूप जागि उठयौ आप तैं।।
ऊजरी उदार सुधाधर सी धरनि पर,
पघिलि प्रबाह चल्यौ तरनि के ताप तैं।।
बरफ न होइ चारौँ तरफ़ निहारि देखौ,
गिरयौ गरि चंद अरबिन्दनि के साप तैं।।1।।
बड़े बड़े मोतिनि की लसति नथूनी नाक,
बड़े बड़े नैन पगे प्रेम के नसन सौ।
रूप ऐसी बेलिनि मैं सुंदर नवेली बाल,
सखिनि समूह-मध्य सोहति जसन सौं।।
काँकरी चलाई तहाँ दुरि कै करन कान्ह,
मुरकि तिरीछी चितै ओट दै बसन सौं।
नैक अनखानी सतरानी मुसक्यानी भौंह,
बदन कँपायौ दाबि रसना दसन सौं।।2।।
चंदन मैं बंदन मैं है न अरबिंदन मैं,
कुरुबिंद मैं न भानु-सारथी-बरन मैं।।
मोहर मनोहर मैं कौंहर मैं है न ऐसी,
गुंजनि की पीठि मैं मजीठ-अबरन मैं।।
जैसी छबि प्यारी की निहारी मैं तिहारी सोंह,
लाली यह करन चरन अधरन मैं।
है न गुलनार मैं गुलाब गुड़हुर हू मैं,
इंद्रवधू मैं न बिंब नारंगी-फरन मैं।।3।।
इन कवित्तों मैं से एक के विषय में यह आख्यायिका भी लिखी है----
“पहिले यह कवी काव्य पढ़िकै एक दिन सभा में राजा सभासिंह पन्नानरेश की गए। राजा ने यह समस्या ही (वदन कँपायो दाबि रसना दसन सो)। इसी के ऊपर कर्णजी ने (बड़े बड़े मोतिनि की लसति नथूनी नाक) यह कवित्त पढ़ा। राजा ने बहुत प्रसन्न होकर बहुत दान सन्मान किया।“
यह महाशय अपनी रचना से एक उच्च श्रेणी के कवि प्रतीत होते हैं, यद्यपि कृष्ण कवि की प्रतिभा तक नहीं पहुँच सकते। ग्रियर्सन साहब ने इनको कर्णभट्ट लिखा है, और इन्हीं की देखा देखी पंडित अंबिकादत्त व्यास जी ने भी। पर शिवसिंहसरोज में कर्णभट्ट नाम के एक दूसरे ही कवि बतलाए गए हैं, जो कि संवत् 1857 में पन्ना के राजा हिंदूपति जी के दरबार में उपस्थित थे। मिश्रबंधु-विनोद के लेख से इन दोनों कर्ण का एक ही होना प्रतीत होता है।
टीका के नाम से प्रतीत होता है कि इसमें साहित्य-विषयों का विशेष कथन होगा। निश्चय रूप से इसके संबंध में कुछ नहीं कहा जा सकता। हमको एक टीका वृन्दांवन निवासी पंडित केशवदेवजी से प्राप्त हुई है। वह प्रति संवत् 1881 की लिखी हुई है। पर खेद का विषय है कि उसके आरंभ के 47 पन्ने नहीं हैं, जिसके कारण उसके रचयिता तथा रचना-समय का कुछ पता नहीं चलता। उसमें दोहों के अर्थ कहने का प्रयत्न यथाशक्ति किया गया है, और अलंकार भी कहे गए हैं। कहीं कहीं उसमें व्यंग्यार्थ इत्यादि भी कुछ बतलाएं हैं। हमारी धारणा होती है कि आश्चर्य नहीं जो यह टीका साहित्यचंद्रिका ही हो। यह टीका अनवरचंद्रिका के जोड़ पर बनाई प्रतीत होती है, और अनवरचंद्रिका ही का क्रम भी इसमें ग्रहण किया गया है, यहाँ तक कि जो दोहे अनवरचंद्रिका में बिहारी-रत्नाकर से अधिक हैं उनमें से, 3 दोहों को छोड़कर, जो स्वयं अनवरचंद्रिका-कारों में से किसी के ज्ञात होते हैं, शेष के ही दोहे इसमें भी अधिक है, एवं जो दोहे इसमें दोहराए हुए हैं वे भी वे ही है जो अनवरचंद्रिका की भी कई एक प्रतियों में दुहराए हुए मिलते हैं। इसके अतिरिक्त प्रकरणों का पूर्वापर भी- एक आध प्रकरणों को छोड़कर वही है जो अनवरचंद्रिका का है। अनवरचंद्रिका में दोहों के अलंकार, ध्वनि-भेद तथा वक्ता-बोधव्य तो बतलाए गए हैं पर अर्थ करने का, जो कि सबसे आवश्यक बात है, प्रयत्न तक नहीं किया गया है। ज्ञता होता है कि इसी त्रुटि की पूर्ति के निमित्त इस टीका की रचना हुई है। पर ध्वनि का झगड़ा, जो कि, अनवरचंद्रिका का मुख्य विषय है, इस टीकाकार ने नहीं छेड़ा है। अपने ढंग की यह प्रथम टीका है, क्योंकि इसमें दोहों के अलंकार तथा अर्थ दोनों ही दिए हैं, जो बात कि इसके पूर्व की किसी टीका में नहीं है। निदर्शनार्थ एक दोहे की टीका नीचे लिखी जाती है------
दोहा
पारयौ सोरु सुहाग कौ इनु बिनु हीं पिय-नेह।
उनदौंहीं अँखियाँ ककै कै अलसौंहीं देह।।339।।
टीका- सखी कौ बचन सखी सौ। इस नाइका ने आँखैँ उनींदी करिकै औरु आलस भरी देह करिकै बिना नायक की प्रीति सुहाग कौ सोरु पारयौ है। इस कहनावति सों सुरतांत की व्यंगि करि लच्छिता होति है अथवा प्रेमगर्विता होति है।। विभावनालंकार।।339।।
इसके अंतिम दोहे पर 713 अंक हैं। इन 713 दोहों में से 7 दोहे तो दोहरा के आए हैं, और 19 दोहे ऐसे हैं, जो बिहारीरत्नाकर में नहीं हैं जिनका विशेष वर्णन अनवरचंद्रिका के क्रम के वर्णन में द्रष्टव्य है। शेष 687 दोहे रह जाते हैं। हमारी पुस्तक में आदि के 47 पृष्ठ नहीं हैं, अतः इस बात का पूरा ब्यौरा नहीं बतलाया जा सकता कि इसमें बिहारीरत्नाकर के कौन कौन दोहे नहीं है। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इसमें 26 दोहे बिहारीरत्नाकर के नहीं है।
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