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महाकवि सूरदासजी- श्रीयुत पंडित रामचंद्र शुक्ल, काशी।

नागरी प्रचारिणी पत्रिका

महाकवि सूरदासजी- श्रीयुत पंडित रामचंद्र शुक्ल, काशी।

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    रोचक तथ्य

    Mahabharat ka farsi anuwad, Khand-14

    हिन्दुओं के स्वांतत्र्य के साथ ही साथ वीर-गाथाओं की परंपरा भी काल के अँधेरे में जा छिपी। उस हीन दशा के बीच वे अपने पराक्रम के गीत किस मुँह से गाते और किन कानों से सुनते? जनता पर गहरी उदासी छा गई थी। राम और रहीम को एक बतानेवाली बानी मुरझाए मन को हरा कर सकी, क्योंकि उसके भीतर उस कट्टर एकेश्वर वाद का सुर मिला हुआ था, जिसका ध्वंसकारी स्वरूप लोग नित्य अपनी आँखों देख रहे थे। सर्वस्व गँवाकर भी हिन्दू जाति अपनी स्वतंत्र सत्ता बनाए रखने की वासना नहीं छोड़ सकी थी। इससे उसने अपनी सभ्यता, अपने चिर-संचित संस्कार भक्ति का स्त्रोत देश के एक कोने से दूसरे कोने तक फैल गया। जिस प्रकार वंग देश में कृष्ण चैतन्य ने, उसी प्रकार उत्तर भारत में वल्लभाचार्य्य जी ने परम भाव की उस आनन्द विधायिनी कला का दर्शन कराकर, जिसे प्रेम कहते हैं, जीवन में सरसता का संचार किया। दिव्य प्रेम-संगीत की धारा में इस लोक का सुखद पक्ष निखर आया और जमती हुई उदासी या खिन्नता बह गई।

    जयदेव की देववाणी की स्निग्ध पीयूष-धारा, जो काल की कठोरता में दब गई थी, अवकाश पाते ही लोक भाषा की सरसता में परिणत होकर मिथइला की अमराइयों में विद्यापति के कोकिल कंठ से प्रकट हुई और आगे चलकर ब्रज के करील-कुंजों के बीच फैल मुरझाए मनों को सींचने लगी। आचार्य्यों की छाप लगी हुई आठ वीणाएँ श्रीकृष्ण की प्रेम-लीला का कीर्तन करने उठीं, जिनमें सब से ऊँची, सुरीली और मधुर झनकार अँधे कवि सूरदास की वीणा की थी। ये भक्त-कवि सगुण उपासना का रास्ता साफ करने लगे। निर्गुण उपासना की नीरसता और अग्रह्यता दिखाते हुए ये उपासना का हृदयग्राही स्वरूप सामने लाने में लग गए। इन्होंने भघवान् का प्रेममय रूप ही लिया, इससे हृदय की कोमल वृत्तियों के ही आश्रय और आलंबन खड़े किए। आगे जो इनके अनुयायी कृष्ण-भक्त हुए, वे भी उन्हीं वृत्तियों में लीन रहे। हृदय की अन्य वृत्तियों (उत्साह आदि) के रंजनकारी रूप भई यदि वे चाहते, तो कृष्ण में ही मिल जाते, पर उनकी ओर वे बढ़े। भगवान् का यह व्यक्त स्वरूप यद्यपि एक-देशीय था- केवल प्रेममय था- पर उस समय नैराश्य के कारण जनता के हृदय में जीवन की ओर से एक प्रकार की जो अरुचि सी उत्पन्न हो रही थी, उसे हटाने में उपयोगी हुआ। मनुष्यता के सौन्दर्यपूर्ण और माधुर्य्यपूर्ण पक्ष को दिखाकर इन कृष्णोपासक वैष्णव कवियों ने जीवन के प्रति अनुराग जगाया, या कम से कम जीने की चाह बनी रहने दी।

    बाल्य काल और यौवन काल कितने मनोंहर हैं। उनके बीच की नाना मनोरम परिस्थितियों के विशद चित्रण द्वारा सूरदास जी ने जीवन की जो रमणियां सामने रखी, उसे गिरे हुए हृदय नाच उठे। वात्सल्य और श्रृंगार के क्षेत्रों का जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बंद आँखों से किया, उतना किसी और कवि ने नहीं किया। इन क्षेत्रों का कोना कोना वे झाँक आए। उक्त दोनों रसों के प्रवर्तक रतिभाव के भीतर की जितनी मानसिक वृत्तियों और दशाओं का अनुभव और प्रकटीकरण सूर कर सके, इतनी का और कोई नहीं। हिन्दी साहित्य में श्रृंगार का रस-राजस्व यदि किसी ने पूर्ण रूप से दिखाया, तो सूर ने।

    उनकी उमड़ती हुई वाग्धारा उदाहरण रचनेवेल कवियों के समान गिनाए हुए संचारियों से बँधकर चलनेवाली थी। यदि हम सूर के केवल विलक्षण श्रृंगार को ही लें, अथवा भ्रमर-गीत को ही देखें, तो जाने कितने प्रकार की मानसिक दशाएँ ऐसी मिलेंगी, जिनके नामकरण तक नहीं हुए हैं। मैं इसी को कवियों की पहुँच कहता हूँ। यदि हम मनुष्य-जीवन के सम्पूर्ण क्षेत्र को लेते हैं, तो सूरदासजी की दृष्टि परिमित दिखाई पड़ती है। पर यदि उनके चुने हुए क्षेत्रों (श्रृंगार और वात्सल्य) को लेते हैं, तो उनके भीतर उनकी पहुँच का विस्तार बहुत अधिक पाते हैं। उन क्षेत्रों में इतना अन्तर्दृष्टि-विस्तार और किसी कवि का नहीं। बात यह है कि सूर को गीत काव्य की जो परम्परा (जयदेव और विद्यापति की) मिली, वह श्रृंगार की ही थी। इसी से सूर के संगीत में भी उसी को प्रधानता रही। दूसरी बात है उपासना का स्वरूप। सूरदासजी वल्लभाचार्य्य जी के शिष्य थे, जिन्होंने भक्ति मार्ग में भगवान् का प्रेममय स्वरूप प्रतिष्ठित करके उसके आकर्षण द्वारा सायुज्य मुक्ति का मार्ग दिखाया था। भक्ति-साधना के इस चरम लक्ष्य या फल (सायुज्य) की ओर सूर ने कहीं कहीं संकेत भी किया है,

    जैसे-

    सीत उष्ण सुख दुख नहिं मानै, हानि भए कछु सोच राँचै।

    जाय समाय सूर वा निधि में बहुरि उलटि जगत में नाचै।।

    जिस प्रकार ज्ञान की चरम सीमा ज्ञाता और ज्ञेय की एकता है, उसी प्रकार प्रेम-भाव की चरम सीमा आश्रय और आलंबन की एकता है। अतः भगवद्भभक्ति की साधना के लिये इसी प्रेम-तत्व को वल्लभाचार्य्य ने सामने रखा, और उनके अनुयायी कृष्ण-भक्त कवि इसी को लेकर चले। गो. तुलसीदास जी की दृष्टि व्यक्तिगत साधना के अतिरिक्त लोक-पक्ष पर भी थी, इसी से वे मर्य्यादा-पुरुषोत्तम के चरित को लेकर चले, और उसमें लोकरक्षा के अनुकूल जीवन की और और वृत्तियों का भी उन्होंने उत्कर्ष दिखाया और अनुरंजन किया।

    उक्त प्रेमतत्व की पुष्टि में ही सूर की वाणी मुख्यतः प्रयुक्त जान पड़ती है। रति-भाव के तीनों प्रबल और प्रधान रूप-भगवद्विषयक पीताम्बर को, त्रिभंगी मुद्रा को, स्मित आनन को, हाथ में ली हुई मुरली को, सिर के कुंचित केश और मोर-मुकुट आदि को सामने रखता है। यह विन्यास वस्तु रूप में हुआ। इसी प्रकार का विन्यास यमुना-तट, निकुंज की लहराती लताओं, चंद्रिका, कोकिला-कूजन आदि का होगा। इनके साथ ही यदि कृष्ण के शोभा-वर्णन में घन और दामिनी, सनाल कमल आदि उपमान के रूप में वह लाता है, तो यही विन्यास अलंकार-रूप में होगा। वर्ण्य विषय की परिमिति के कारण वस्तु विन्यास का जो संकोच सूर की रचना में दिखाई पड़ता है, उसकी बहुत कुछ कसर अलंकार-रूप में लाए हुए पदार्थों के प्राचुर्य्य द्वारा पूरी हो जाती है। कहने का तात्पर्य्य यह कि प्रस्तुत रूप में लाए हुए पदार्थों की संख्या सूर में कम, पर अलंकार-रूप में लाए हुए पदार्थों की संख्या बहुत अधिक है। यह दूसरे प्रकार की (आलंकारिक) रूप-योजना या व्यापार योजना किसी और (प्रस्तुत) रूप प्रभाव को बढाने के लिये ही होता है, अतः इसमें लाए हुए रूप या व्यापार ऐसे ही होने चाहिएँ, जो प्रभाव में उन प्रस्तुत रूपों या व्यापारों के समान हों। सूर अलंकार-योजना के लिये अधिकतर ऐसे ही पदार्थ लाए हैं।

    सारांश यह कि यदि हम बाह्य दृष्टि से लिये रूपों और व्यापारों के सम्बन्ध में सूर की पहुँच का विचार करते हैं, तो यह बात स्पष्ट देखने में आती है कि प्रस्तुत रूप में लिए हुए पदार्थों और व्यापारों की संख्या परिमित है। उन्होंने कृष्ण और राधा के अंग प्रत्यंग, मुद्राओं और चेष्टाओं, यमुना-तट, वंशीवट, निकुंज, गो-चारण, वन-विहार, बाल-लीला, चोरी, नटखटी तथा कवि परिपाटी में परिगणित ऋतु-सुलभ वस्तुओं तक ही अपने को रखा है।

    इसके कारण दो हैं। पहली बात तो है कि इनकी रचना गीत-काव्य है जिसमें मधुर ध्वनि-प्रवाह के बीच कुछ चुने हुए पदार्थों और व्यापारों की झलक भर काफी होती है। गो. तुलसीदास जी के समान सूरसागर प्रबन्ध काव्य नहीं है, जिसमें कथा-क्रम से अनेक पदार्थों और व्यापारों की श्रृंखला जुड़ती चली चलती है। सूरदास जी ने प्रत्येक लीला या प्रसंग पर फुटकर पद कहे हैं। एक पद दूसरे पद से सम्बद्ध नहीं है। प्रत्येक पद स्वतंत्र है। इसी से किसी एक प्रसंग पर कहे हुए पदों को यदि हम लेते हैं, तो एक ही घटना से सम्बन्ध रखनेवाली एक ही बात भिन्न भिन्न रागिनियों में कुछ फेर फार के साथ बहुत से पदों में मिलती है, जिससे पढ़नेवाले का जी कभी कभी ऊब सा जाता है। यह बात प्रकृत-प्रबन्ध-काव्य में नहीं होती।

    परिमिति का दूसरा कारण पहले ही कहा जा चुका है कि सूरदास जी ने जीवन की वास्तव में दो ही वृत्तियाँ ली हैं- बाल वृत्ति और यौवन-वृत्ति। इन दोनों के अन्तर्गत आए हुए व्यापार क्रीड़ा, उमंग और उद्रेक के रूप में ही है। प्रेम भी घटनापूर्ण नहीं है। उसमें किसी प्रकार का प्रयत्न-विस्तार नहीं है, जिसके भीतर नई नई वस्तुओं और व्यापारों का सन्निवेश होता चलता है। लोक-संघर्ष से उत्पन्न विविध व्यापारों की योजना सूर का उद्देश्य नहीं है। उनकी रचना जीवन की अनेक रूपता की ओर नहीं गई है, बाल क्रीड़ा, प्रेम के रंग रहस्य और उसकी अतृप्त वासना तक ही रह गई हैं। जीवन की गंभीर समस्याओं से तटस्थ रहने के कारण उसमें वह वस्तु-गांभीर्य्य नहीं है, जो गोस्वामीजी की रचनाओं में है। परिस्थिति की गंभीरता के अभाव से गोपियों के वियोग में भी वह गंभीरता नहीं दिखाई पड़ती, सीता के वियोग में है। उनका वियोग खाली बैठे का काम सा दिखाई पड़ता है। सीता अपने प्रिय से वियुक्त होकर कई सौ कोस दूर दूसरे द्वीप में राक्षसों के बीच पड़ी हुई थी। गोपियों के गोपाल केवल दो चार कोस दूर के एक नगर में राजसुख भोग रहे थें। सूर का वियोग वर्णन वियोग-वर्णन के लिये ही है, परिस्थिति के अनुरोध से नहीं। कृष्ण गोपियों के साथ क्रीड़ा करते किसी कुंज या झाडो में जा छिपते हैं, या यों कहिए कि थोड़ी देर के लिये अंतर्द्धान हो जाते हैं। बस गोपियाँ मूर्च्छित हो कर गिर पड़ती हैं। उनकी आँखों से आँसुओं की धारा उमड़ चलती है। पूर्ण वियोग दशा उन्हें घेरती है। यदि परिस्थिति का विचार करें, तो ऐसा विरह-वर्णन असंगत प्रतीत होगा। पर जैसा कहा जा चुका है, सूरसागर प्रबन्ध-काव्य नहीं है, जिसमें वर्णन की उपयुक्तता या अनुपयुक्तता के निर्णय में घटना या परिस्थिति के विचार का बहुत कुछ योग रहता है।

    पारिवारिक और सामाजिक जीवन के बीच हम सूर के बाल कृष्ण को ही थोड़ा बहुत देखते हैं। कृष्ण के केवल बाल-चरित्र का प्रभाव नंद, यशोदा आदि परिवार के लोगों और पड़ोसियों पर पड़ता दिखाई देता है। सूर का बाललीला-वर्णन ही पारिवारिक जीवन से संबद्ध है। कृष्ण के छोटे छोटे पैरों से चलने, मुँह में मक्खन लिपटाकर भागने या इधर-उधर नटखटी करने पर नंद बबा और यशोदा मैया का कभी पुलकित होना, कभी सीखना, कभी पड़ोसियों का प्रेम से उलाहना देना आदि बातें एक छोटे से जन समूह के भीतर आनन्द का संचार करती दिखाई देती हैं। इसी बाल-लीला के भीतर कृष्णचरित का लोकपक्ष अधिकतर आया है, जैसे कंस के भेजे हुए असुरों के उत्पात से गोपों को बचाना, काली नाग को नाथकर लोगों का भय छुड़ाना। इन्द्र के कोप से डूबती हुई बस्ती की रक्षा करने और नंद को वरुण लोक से लाने का वृत्तांत यद्यपि प्रेमलीला आरंभ होने के पीछे आया है, पर उससे संबद्ध नहीं है। कृष्ण के चरित में जो यह थोड़ा बहुत लोकसंग्रह दिखाई पड़ता है, उसके स्वरूप में सूर की वृत्ति लीन नहीं हुई है। जिस शक्ति से उस बाल्यावस्था में ऐसे प्रबल शत्रुओं का दमन किया गया, उसके उत्कर्ष का अनुरंजनकारी और विस्तृत वर्णन उन्होंने नहीं किया है। जिस ओज और उत्साह से तुलसीदासजी ने मारीच, ताड़का, खरदूषण आदि के निपात का वर्णन किया है, उसे ओज और उत्साह से ............(पेज नं. 32 उपलब्ध नहीं है।)

    दुखी पृथ्वी की प्रार्थना पर भगवान् का कृष्णावतार हुआ, इस बात को उन्होंने केवल एक ही पद में कह डाला है। इसी प्रकार कामासुर, बक़ासुर, शकटासुर और आदि को हम लोक-पीड़कों के रूप में नहीं पाते हैं। केवल प्रलंब और कंस के बध कर देवताओं का फूल बरसाना देखकर उक्त कर्म के लोकव्यापी प्रभाव का कुछ आभास मिलता है। पर वह वर्णन विस्तृत नहीं है। सूरदास का मन जितना नद के घर की आनंद बधाई, बाल-क्रीड़ा, मुरली की मोहनी तान, रास-नृत्य, प्रेम के रंग रहस्य रसंयोग वियोग की नाना दशाओं में लगा है। उतना ऐसे प्रसंगों में नहीं। ऐसे प्रसंगों को उन्होंने किसी प्रकार चलता कर दिया है। कुछ लोग रामचरितमानस में राम के प्रत्येक कर्म पर देवताओं का फूल बरसाना देखकर ऊबते से हैं। उन्हें समझना चाहिए कि गोस्वामीजी ने राम के प्रत्येक कर्म को ऐसे व्यापक प्रभाव का चित्रित किया है, जिस पर तीनों लोको की दृष्टि लगी रहती थी। कृष्ण का गो-चारण और रास लीला आदि देखने को भी देवगण एकत्र हो जाते हैं, पर केवल तमाशबीन की तरह।

    सूरदास जी को मुख्यतः श्रृंगार और वात्सल्य का कवि समझना चाहिए, यद्यपि और रसों का भी एक आध जगह अच्छा वर्णन मिल जाता है, जैसे, दावानल के इस वर्णन में भयानक रस का---

    भहरात झहरात दावानल आयो।

    घेरि चहुँ ओर, करि सोर अंदोर बन धरनि आकास चहुँ पास छापो।

    बरत बन बाँस, थरहरत कुस काँस, जरि उड़त बहु झाँस, अति प्रबल धायो।

    झपटि झपटत लपट, फूल फूटत पटकि, चटकि लट लटकि द्रुम फटि नवायो।

    अति अगिनि झार भंभार धुधार करि उचटि अंगार झंझार छायो।

    बरत बनपात, भहरात, झहरात, अररात तरु महा धरनी गिरायो।।

    पर जैसा कहते रहे हैं, मुख्यता श्रृंगार वात्सल्य की ही है। पर इसमें संदेह नहीं कि इन दोनों रसों के वे सबसे बड़े कवि हैं।

    यहाँ तक तो सूर की रचना की सामान्य दृष्टि से समीक्षा हुई। अब इन महाकवि की उन विशेषताओं का थोड़ा बहुत दिग्दर्शन होना चाहिए, जिनके कारण हिन्दी साहित्य में इनका स्थान इतना ऊँचा है। ध्यान देना की सब से पहली बात यह है कि चलती हुई ब्रज भाषा में सब से पहली साहित्यिक कृति इन्हीं की मिलती है, जो अपनी पूर्णता के कारण आश्चार्य्य में डाल देती हैं। पहली साहित्यिक रचना और इतनी प्रचुर, प्रगल्भ और काव्यांगपूर्ण कि अगले कवियों की श्रृंगार और वात्सल्य की उक्तियाँ इनकी हठी जान पड़ती हैं। यह बात हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखनेवालों को उलझन में डालनेवाली होगी। सूरसागर किसी चली आती हुई परंपरा का-चाहे वह मौखिक ही रही हो- पूर्ण विकास सा जान पड़ता है, आगे चलनेवाली परंपरा का मूल रूप नहीं।

    यदि भाषा को लेकर देखते हैं, तो वह ब्रज की चलती बोली होने पर भी एक साहित्यिक भाषा के रूप में मिलती है, जो और प्रान्तों के कुछ प्रचलित शब्दों और प्रत्ययों के साथ ही साथ पुरानी काव्य भाषा था अपभ्रंश के शब्दों को लिए हुए हैं। सूर की भाषा बिल्कुल बोल चाल की ब्रज भाषा नहीं है। जाकों, तासों, बाको चलती ब्रज भाषा के रूपों के समान ही जेहि, तेहि आदि पुराने रूपों का प्रयोग बराबर मिलता है, जो अवधि की बोल चाल में तो अब तक हैं, पर ब्रज की बोलचाल में सूर के समय में भी नहीं थे। पुराने निश्चयार्थक पै का व्यवहार भी पाया जाता है, जैसे, जाहि लगै सोई पै जानै, प्रेम-बान अनियारो। गोड़, आपन, हमार आदि पूरबी प्रयोग भी बराबर पाए जाते हैं। कुछ पंजाबी प्रयोग भी मौजूद हैं, जैसे, महँगी के अर्थ में प्यारी शब्द। ये सब बातें एक व्यापक काव्य भाषा के अस्तित्व की सूचना देती हैं।

    अब हम संक्षेप में उन प्रसंगों को लेते हैं जिनमें सूर की प्रतिभा पूर्णतया लीन हुई है। कृष्ण-जन्म की आनंद-बधाई के उपरान्त ही बाल-लीला का आरम्भ हो जाता है। जितने विस्तृत और विशद रूप में बाल्य जीवन का चित्रण इन्होंने किया है, उतने विस्तृत रूप में और किसी कवि ने नहीं किया। शैशव से लेकर कौमार अवस्था तक के क्रम से लगे हुए जाने कितने चित्र मौजूद है। उनमें केवल बाहरी रूपों और चेष्टाओं का ही विस्तृत और सूक्ष्म वर्णन नहीं है, कवि ने बालकों की अन्तः प्रकृति में भी पूरा प्रवेश किया है और अनेक बाल्य भावों की सुंदर स्वाभाविक व्यंजना की है। देखिए, स्पर्द्धा का भाव, जो बालकों में स्वाभाविक होता है, इन वाक्यों से किस प्रकार व्यंजित हो रहा है-----

    मैया कबहिं बढ़ैगी चोटी।

    किती बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी।

    तू जो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वैहै लाँबी मोटी।।

    बाल-चेष्टा के स्वाभाविक मनोहर चित्रो का इतना बड़ा भांडार और कहीं नहीं है, जितना बड़ा सूरसागर में है। दो चार चित्र देखिए-

    (1) कत हौ आरि करत मेरे मोहन यों तुम आँगन लोटी?

    जो माँगहु सो देहुँ मनोहर यहै बात तेरी खोटी।

    सूरदास को ठाकुर ठाढ़ो हाथ लकुटि लिए छोटी।।

    (2) सोभित कर नवनीत लिए।

    घुटरुन चलत, रेनु तन मडित, मुख दधि लेप किए।।

    (3) सिखवत चलन जसोदा मैया।

    अरबराय करि पानि गहावत, डगमगाय धरै पैयाँ।

    (4) पाहुनि करि दै तनक मह्यौ।

    आरि करै मनमोहन मेरो, अंचल आनि गह्यो।

    व्याकुल मथत मगनियाँ रीती, दधि भ्वैं ढरकि रह्यो।।

    हार-जीत के खेल में बालकों के क्षोभ के कैसे स्वाभाविक वचन सूर ने रखे हैं----

    खेलत में को काको गोसैयाँ।

    हरि हारे, जीते श्रीदामा, बरबस ही कत करत रिसैयाँ।।

    जाति पाँति हमतें कछु नाहिं, बसत तुम्हारी छैयाँ।

    अति अधिकार जनावत यातें अधिक तुम्हारे हैं कछु गैयाँ।।

    अब यहाँ पर थोड़ा इसका भी निर्णय हो जाना चाहिए कि इन बाल-चेष्टाओं का काव्य-विधान में क्या स्थान होगा। वात्सल्य रस के अनुसार बालक कृष्ण आलम्बन होंगे और नंद या यशोदा आश्रय। अतः ये चेष्टाएँ अनुभाव के अन्तर्गत आती हैं, पर आलंबनगत चेष्टाएँ उद्दीपन के ही भीतर सकती है। इससे यह स्पष्ट है कि ऐसी चेष्टाओं का स्थान भाव-विधान के ही भीतर है। उन्हें अलंकार-विधान के भीतर घसीटकर स्वभावोक्ति अलंकार कहना मेरी समझ में ठीक नहीं।

    बाल-लीला के आगे फिर बस गो-चारण का मनोरम दृश्य सामने आता है, जो मनुष्य जाति की अत्यन्त प्राचीन वृत्ति होने के कारण अनेक देशों में काव्य का प्रिय विषय रहा है। यवन देश (यूनान) के पशु-धारण काव्य का मधुर संस्कार युरोप की कविता पर अब तक कुछ कुछ चला ही जाता है। कवियों को आकर्षित करनेवाली गोप-जीवन की सब से बड़ी विशेषता है- प्रकृति के विस्तृत क्षेत्र में विचरने के लिये सब से अधिक अवकाश। कृषि, वाणिज्य आदि और व्यवसाय जो आगे चलकर निकले, वे अधिक जटिल हुए- उनमें उतनी स्वच्छन्दता रही। कविश्रेष्ट कालिदास ने अपने रघुवंश काव्य के आरम्भ में दिलीप को नंदिनी के साथ बन धन फिराकर इसी मधुर जीवन का आभास दिखाया है। सूरदास जी ने जमुना कि कछारो के बीच गो-चारण के बड़े सुन्दर सुन्दर दृश्यों का विधान किया है। यथा---

    मैया री! मोहि दाऊ टेरत।

    मोकों बनफल तोरि देत हैं, आपुन गैयन घेरत।

    यमुना तट पर किसी बड़े पेड़ की शीतल छाया में बैठकर कभी सब सखा कलेऊ बाँटकर खाते हैं, कभी इधर उधर दौड़ते हैं। कभी कोई चिल्लाता है----

    द्रुम चढ़ि काहे टेरत, कान्हा, गैयाँ दूरि गई।

    धाई जाति सबन के आगे जे बृषभान दई।।

    “जे बृषभान दई” कहकर सूर ने पशु-प्रकृति का अच्छा परिचय दिया है। नए खूँटें पर आई हुई गाएँ बहुत दिनों तक चंचल रहती हैं और भागने का उद्योग करती हैं। इसी से बृषभानु की दी हुई गाएँ चरते समय भी भाग खड़ी होती हैं, और कुछ दूसरी गाएँ भी स्वभावानुसार उनके पीछे दौड़ पड़ती हैं।

    बृंदावन के उसी सुखमय जीवन के हास-परिहास के बीच गोपियों के प्रेम का उदय होता है। गोपियाँ कृष्ण के दिन दिन खिलते हुए सौन्दर्य्य और मनोहर चेष्टाओं को देख मुग्ध होती चली जाती हैं, और कृष्ण कौमार अवस्था की स्वाभाविक चपलता-वश उनसे छेड़छाड़ करना आरम्भ करते हैं। हास-परिहास और छेड़छाड़ के साथ प्रेम व्यापार का अत्यन्त स्वाभाविक आरम्भ सूर ने दिखाया है। किसी की रूप-चर्चा सुन, या अकस्मात् किसी की एक झलक पाकर हाय हाय करते हुए इस प्रेम का आरम्भ नहीं हुआ है। नित्य अपने बीच चलते फिरते, हँसते बोलते, बन में गाय चराते देखते देखते गोपियाँ कृष्ण में अनुरक्त होती हैं और कृष्ण गोपियों में। इस प्रेम को हम जीवनोत्सव के रूप में पाते हैं, सहसा उठ खड़े हुए तूफान या मानसिक विप्लव के रूप में नहीं, जिसमें अनेक प्रकार के प्रतिबन्धों और विघ्न-बाधाओं को पार करने की लंबी चौड़ी कथा खड़ी होती है। सूर के कृष्ण और गोपियाँ पक्षियों के समान स्वच्छंद हैं। वे लोक-बन्धनों से जकड़े हुए नहीं दिखाए गए हैं। जिस प्रकार स्वच्छंद समाज का स्वप्न अँगरेज़ कवि शेली देखा करते थे, उसी प्रकार का यह समाज सूर ने चित्रित किया है।

    सूर के प्रेम की उत्पत्ति में रूप-लिप्सा और साहचर्य्य दोनों का योग है। बालक्रीड़ा के सखा-सखी आगे चलकर यौवन क्रीड़ा के सखा सखी हो जाते हैं। गोपियों ने उद्धत से साफ़ कहा है- “लरिकाई को प्रेम कहौ, अलि, कैसे छूटै?” केवल एक साथ रहते रहते भी दो प्राणियों में स्वभावतः प्रेम हो जाता है। कृष्ण एक तो बाल्यावस्था से ही गोपियों के बीच रहे, दूसरे सुन्दरता में भी अद्वितीय थे। अतः गोपियों के प्रेम का क्रमशः विकास दो प्राकृतिक शक्तियों के प्रभाव से होने के कारण बहुत ही स्वाभाविक प्रतीत होता है। बालक्रीड़ा इस प्रकार क्रमशः यौवन क्रीड़ा के रूप में परिणत होती गई है कि सन्धि का पता ही नहीं चलता। रूप का आकर्षण बाल्यावस्था से ही आरम्भ हो जाता है। राधा और कृष्ण के विशेष प्रेम की उत्पत्ति सूर ने रूप के आकर्षण द्वारा ही कही है।

    (क) खेलन हरि निकसे ब्रज खोरी।

    गए श्याम रवि-तनया के तट, अंग लसति चंदन की खौरौ।।

    औचक ही देखी तहँ राधा, नैन विसाल भाल दिए ररी।

    सूरश्याम देखत ही रीझे, नैन नैन मिलि परी ठगोरी।।

    (ख) बूझत श्याम, कौन तू, गोरी!

    कहाँ रहति, काकी तू बेटी? देखी नाहि कहूँ ब्रज-खोरी।।

    “काहे को हम ब्रज तन आवति? खेलति रहति आपनी पौरी।

    सुनति रहति श्रवनन नँद ढोटा करत रहत माखन दधिचोरी”।।

    तुम्हरी कहा चोरि हम तैहैं? खेलन चलौ संग मिलि जोरी।

    सूरदास प्रभु रसिक-सिरोगनि बातम भुरइ राधिका गोरी।।

    इस खेल ही खेल में इतनी बड़ी बात पैदा हो गई है, जिसे प्रेम कहते हैं। प्रेम का आरम्भ उभय पक्ष में सम है। आगे चलकर कृष्ण के मथुरा चले जाने पर उसमें कुछ विषमता दिखाई पड़ती है। कृष्ण यद्यपि गोपियों को भूले नहीं हैं, उद्धव के मुख से उनका वृत्तान्त सुनकर वे आँखों में आँसू भर लाते हैं, पर गोपियों ने जैसा वेदनापूर्ण उपालम्भ दिया है, उससे अनुराग की कमी ही व्यंजित होती है।

    पहले कहा जा चुका है कि श्रृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में सू रकी समता को और कोई कवि नहीं पहुँचा है। श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का इतना प्रचुर विस्तार और किसी कवि में नहीं मिलता। बृंदावन में कृष्ण और गोपियों का सम्पूर्ण जीवन क्रीड़ामय है और वह सम्पूर्ण क्रीड़ा संयोग-पक्ष है। उसके अन्तर्गत विभावों की परिपूर्णता, कृष्ण और राधा के अंग प्रत्यंग की शोभा के अत्यन्त प्रचुर और चमत्कारपूर्ण वर्णन में तथा बृंदावन के करील-कुँजों, लोनी तलाओं, हरे भरें कछारों, खिली हुई चाँदनी, कोकिल-कूजन आदि में देखी जाती है। अनुभावों और संचारियों का इतना बाहुल्य और कहाँ मिलेगा? सारांश यह कि संयोग-सुख के जितने प्रकार के क्रीड़ा-विधान हो सकते हैं, वे सब सूर ने लाकर इकट्ठे कर दिए हैं। यहाँ तक कि कुछ ऐसी बातें भी गई हैं- जैसे, कृष्ण के कंधे पर चढ़कर फिरने का राधा का आग्रह- जो कम रसिक लोगों को अरुचिकर स्रैणता प्रतीत होंगी।

    सूर का संयोग-वर्णन एक क्षणिक घटना नहीं है, प्रेम-संगीतमय जीवन की एक गहरी चलती धारा है, जिसमें अवगाहन करनेवाले को दिव्य माधुर्य्य के अतिरिक्त और कहीं कुछ नहीं दिखाई पड़ता। राधा कृष्ण के रंग रहस्य के इतने प्रकार के चित्र सामने आते हैं कि सूर का हृदय प्रेम की नाना उमंगों का अक्षय्य भांडार प्रतीत होता है। प्रेमोदय काल की विनोद-वृत्ति और हृदय-प्रेरित हावों की छटा चारो ओर छलकी ............(पेज नं. 40 उपलब्ध नहीं है।)

    आलंबन की रूप-प्रतिष्ठा के लिये कृष्ण के अंग प्रत्यंग का सूर ने जो सैकड़ों पदों में वर्णन किया है, वह तो किया ही है, आश्रय-पक्ष में नेत्र-व्यापार और उसके अद्भुत प्रभाव पर एक दूसरी ही पद्धति पर बड़ी ही रम्य उक्तियाँ और बहुत अधिक हैं। रूप को हृदय तक पहुँचानेवाले नेत्र ही हैं। इससे हृदय की सारी आकुलता, अभिलाष और उत्कंठा का दोष इन्हीं रूप-वाहकों के सिर मढ़कर सूर ने इनके प्रभाव-प्रदर्शन के लिये बड़े अनूठे ढंग निकाले हैं। कहीं इनकी बुझनेवाली प्यास की परेशानी दिखाई हैं, कहीं इनकी चपलता और निरकुंशता पर इन्हें कोसा है। पीछे बिहारी, रामसहाय, गुलाम नबीं और रसनिधि ने भी इस पद्धति का बहुत कुछ अनुकरण किया, पर यहाँ तो भांडार भरा हुआ है। इस प्रकार के नेत्र-व्यापार वर्णन आश्रय पक्ष और आलंबन पक्ष दोनों में होते हैं। सूर ने आश्रय-पक्ष में ही इस प्रकार के वर्णन किए हैं, जैसे-----

    मेरे नैना बिरह की बेलि बई।

    सींचत नीर नैन के सजनी मल पताल गई।।

    बिगसति लता सुभाय आपने, छाया सघन भई।

    अब कैसे निरुवारौं, सजनी! सब तन पसरि छई।।

    आलंबन पक्ष में सूर के नेत्र-वर्णन उपमा-उत्प्रेक्षा आदि से भरी रूप-चित्रण की शैली पर ही हैं, जैसे----

    देखि, री! हरि के चंचल नैन!

    खंजन मीन मृगज चपलाई नहिं पटतर एक सैन।

    राजिवदल, इंदीवर, शतदल कमल कुशेशय जाति।

    निसि मुद्रित, प्रातहि वै बिगसत, ये बिगसत दिन राति।।

    अरुन असित सित झलक पलक प्रति को बरनै उपमाय।

    मनौ सरस्वति गंग जमुन मिलि आगम कीन्हो आय।।

    आलंबन में स्थित नेत्र क्या क्या करते हैं, इसका वर्णन सूर ने बहुत ही कम किया है। पिछले कुछ कवियों ने इस पक्ष में भी चमत्कार-पूर्ण उक्तियाँ कही हैं। जैसे, सूर ने तो “अरुन, असित सित झलक” पर गंगा, यमुना और सरस्वती की उत्प्रेक्षा की है, पर गुलाम नबी (रसलीन) ने उसी झलक की यह करतूत दिखाई है-----

    अमिय हलाहल मद भरे स्वेत, स्याम, रतनार।

    जियत, मरत, झुकि झुकि परत जेहि चितवत इक पार।।

    मुरली पर कही हुई उक्तियाँ भी ध्यान देने योग्य हैं, क्योंकि उनमें प्रेम की सजीवता टपकती है। यह वह सजीयता है, जो मरे हुए हृदय से छलककर निर्जीव वस्तुओं पर भी अपना रंग चढ़ाती है। गोपियों की छेड़छाड़ कृष्ण ही तक नहीं रहती, उनकी मुरली तक भी- जो जड़ और निर्जीव है- पहुँचती है। उन्हें वह मुरली कृष्ण के सम्बन्ध से कभी इठलाती, कभी चिढ़ाती और कभी प्रेममर्य दिखायी जान पड़ती है। उसी सम्बन्ध भावना से ये उसे कभई फटकारती है, कभी उसका भाग्य सराहती हैं, और कभी उससे ईर्ष्या प्रकट करती हैं----

    (क) माई री! मुरली अति गर्व काहू मरति नहिं आज।

    हरि केमुख-कमल देसु पायो मुखराज।।

    ............................................(उपलब्ध नहीं है।)।

    के सम्बन्ध में कहे हुए गोपियों के वचन से दो मानसिक तथ्य उपलब्ध होते हैं- आलंबन के साथ किसी वस्तु की सम्बन्ध-भावना का प्रभाव तथा अत्यंत अधिक या फालतू उमंग के स्वरूप। मुरली-सम्बन्धिनी उक्तियों में प्रधानता पहली बात की है, यद्यपि दूसरे तत्व का भी मिश्रण है। फालतू उमंग के बहुत अच्छे उदाहरण उस समय देखने में आते हैं, जब कोई स्त्री अपने प्रिय को कुछ दूर पर देख कभी ठोकर खाने पर कंकड़ पत्थर को वो चार मीठी गालियाँ सुनाती हैं, कभी रास्ते में पड़ती हुई पेड़ की टहनी पर भ्रूभंग सहित झुँझलाती है, और कभी अपने किसी साथी को यों ही ढकेल देती है।

    यह सूचित करने की आवश्यकता तो कदाचित् हो कि रूप पर मोहित होना, दर्शन के लिये आकुल रहना, वियोग में तड़पना आदि गोपियों के पक्ष में जितना कहा गया है, उतना कृष्ण-पक्ष में नहीं। यह यहाँ के श्रृंगारी कवियों की- विशेषतः फुटकर पद्य रचनेवालों की- सामान्य प्रवृत्ति ही रही हैं। तुल्यानुराग होने पर भी स्त्रियों की प्रेमदशा या काम-दशा का वर्णन करने में ही यहाँ के कवियों का मन अधिक लगा है। पुराने प्रबन्ध काव्यों में तो यह भेद उतना लक्षित नहीं होता, पर पीछे के काव्यों में यह स्पष्ट झलकता है। वाल्मीकिजी ने रामायण में सीता-हरण के उपरान्त राम और सीता दोनों के वियोग दुःख वर्णन में प्रायः समान ही शब्द-व्यय किया है। कालिदास ने मेघदूत का आरम्भ यक्ष की विरहावस्था से करके उत्तर-मेघ में यक्षिणी के विरद्द का वर्णन किया है। उनके नाटकों में भी प्रायः यही बात पाई जाती है। अतः मेरी समझ में श्रृंगार में नायिका की प्रेम-दशा या विरह-दशा का प्राधान्य श्रीमद्भागवत और ब्रह्मवैवर्त्तपुराण की कृष्णलीला के अधिकाधिक प्रचार के साथ हुआ, जिसमें एक ओर तो अनन्त सौन्दर्य्य की स्थापना की गई और दूसरी ओर स्वाभाविक प्रेम का उदय दिखाया गया।

    पुरुष आलंबन हुआ और स्त्री आश्रय। जनता के बीच प्रेम के इस स्वरूप ने यहाँ तक प्रचार पाया कि क्या नगरों में, क्या ग्रामों में, सर्वत्र प्रेम के गीतों के नायक कृष्ण हुए और नायिका राधा। बनवारी या कन्हैया नायक का एक सामान्य नाम सा हो गया। दिल्ली के पिछले बादशाह मुहम्मद शाह रँगीले तक को होली के दिनों में कन्हैया बनने का शौक हुआ करता था।

    और देशों की फुटकर श्रृंगारी कविताओं में प्रेमियों के ही विरह आदि के वर्णन की प्रधानता देखी जाती है। जैसे एशिया के अरब, फ़ारस आदि देशों में, वैसे ही युरोप के इटली आदि काव्य संगीत-प्रिय देशों में भी यही पद्धति प्रचलित रही। इटली में पीट्रार्क की श्रृंगारी कविता एक प्रेमिक के हृदय का उद्धार है। भारत में कृष्ण-कर्या के प्रभाव से नायक के आकर्ष रूप में प्रतिष्ठित होने से पुरुषों की प्राधान्य-वासना की अधिक तृप्ति हुई। आगे चलकर पुरुषत्व पर इसका कुछ बुरा प्रभाव भी पड़ा। बहुतेरे शौर्य्य, पराक्रम आदि पुरुषोचित गुणों से मुँह मोड़ चटक मटक लटक लाने में लगे- बहुत जगह तो माँग पट्टी, मुरमे, मिस्सी तक की नौबत पहुँची! युरोप में, जहाँ स्त्री प्रधान आकर्षक के रूप में प्रतिष्ठित हुई, इसका उलटा हुआ। वहाँ स्त्रियों के बनाव सिंगार और पहनावे के खर्च के मारे पुरुषों के नाकों दम हो गया।

    सूर के संयोग-वर्णन की बात हो चुकी। इनका विप्रक्षंप भी ऐसा ही विस्तृत और व्यापक है। वियोग की जितनी अन्तर्दशाएँ हो सकती हैं, जितने टंगों से उन दशाओं का साहित्य में वर्णन हुआ है और सामान्यतः हो सकता है, वे सब उसके भीतर मौजूद हैं। आरंभ वात्सल्य रस के वियोग-पक्ष से हुआ है। कृष्ण के मथुरा से लौटने पर नंद और यशोदा दुःख के सागर में मग्न हो गए हैं। अनेक दुःखात्मक भाव-तरंगें उनके हृदय में उठती है। कभी यशोदा नंद से खीझकर कहती हैं-

    छाँड़ि सनेह चले मथुरा, कत दौरि चीर गह्यो।

    फाटि गई बज्र के छाती, कत यह सूल सह्यो।।

    इस पर नंद यशोदा पर उलट पड़ते हैं----

    तब तू मारिबोई करति।

    रिसनि आगे कहै जो आवत, अब लै भाँड़े भरति।।

    रोस कै कर दाँवरी लै फिरति घर घर घरति।

    कठिन हिय करि तब जो बाँध्यो, अब बृथा करि मरति।।

    यह झुँझलाहट वियोग-जन्य है, प्रेम भाव के ही अन्तर्गत है और कितनी स्वाभाविक है! सुख-शान्ति के भंग का कैसा यथातथ्य चित्र है!

    आगे देखिए, गहरी उत्सुकता और अधीरता के बीच विरक्त (निर्वेद) और तिरस्कार-मिश्रित खिझलाहट का यह मेल कैसा अनूठा उतरा है। यशोदा नंद से कहती हैं----

    नंद! ब्रज लीजै ठोकि बजाय।

    देहु बिदा मिलि जाहि मधुपुरी जहँ गोकुल के राय।

    ‘ठोकि बजाय’ मे कितनी व्यंजना है! ‘तुम अपना ब्रज अच्छी तरह सँभालो, तुम्हे इसका गहरा लोभ है, मैं तो जाती हूँ।’ एक एक वाक्य के साथ हृदय लिपटा हुआ आता दिखाई दे रहा है। एक वाक्य दो दो तीन तीन भावों से लदा हुआ है। श्लेष आदि कृत्रिम विधानों से मुक्त ऐसा ही भाव-गुरुत्व हृदय को सीधे जाकर स्पर्श करता है। इसे भाव-शवलता कहे या भाव-पंचामृत, क्योंकि एक ही वाक्य “नन्द! ब्रज लीजै ठोंकि बजाय” मे कुछ निर्वेद, कुछ तिरस्कार और कुछ अमर्ष इन तीनों की मिश्र व्यंजना-जिसे शवलता ही कहने से सन्तोष नहीं होता- पाई जाती है। शवलता के प्रदत्त उदाहरणों में प्रत्येक अलग शब्दो या वाक्यों द्वारा निर्दिष्ट किया जा सकता है, पर उक्त में यह बात नहीं है।

    ......................................(पेज नं. 46 उपलब्ध नहीं है।)।

    सबै बात बदली”। ब्रज में पहले सायंकाल में जो मनोहर दृश्य देखने में आया करता था, वह अब बाहर नहीं दिखाई पड़ता, पर मन से उसकी स्मृति नहीं जाती—

    एहि बेरियाँ बन तें ब्रज आवते।

    दूरहिं तें वह बेनु अधर धरि बारंबार बजावते।।

    संयोग के दिनों में आनंद की तरंगे उठानेवाले प्राकृतिक पदार्थों को वियोग के दिनों में देखकर जो दुःख होता है, उसकी व्यंजना के लिये कवियों में उपालंभ की चाल बहुत दिनों से चली आती है। चन्द्रोपालम्भ-सम्बन्धिनी बड़ी सुन्दर कविताएँ संस्कृत साहित्य में है। पर देखिए, सागर-मथन के समय चंद्रमा को निकालनेवालों तक, इस उपालम्भ में, किस प्रकार गोपियाँ अपनी दृष्टि दौड़ाती हैं----

    या बिनु होत कहा अब सूनो?

    लै किन प्रगट कियो प्राची दिसि, बिरहिनि को दुख दूनो।

    सब निरदय सुर, असुर, शैल सखि! सायर सर्प समेत।।

    धन्य कहौं वर्षा ऋतु, तमचुर कमलन को हेत।

    जुग जुग जीवै जरा बापुरी मिलै राहु अरु केत

    इसी पद्धति के अनुसार वे वियोगिनी गोपियाँ अपने उजड़े हुए नीरस जीवन के मेल में होने के कारण बृंदावन के हरे भरे पेड़ों को कोसती हैं-----

    मधुबन! तुम कत रहत हरे?

    बिरह-वियोग श्यामसुंदर के ठाढ़े क्यों जरे?

    तुम हौ निलज, लाज नहिं तुमको फिर सिर पुहुप धरे।

    ससा स्यार और बन के पखेरू धिक धिक सबन करे।

    कौन काज ठाढ़े रहे बन में, काहे उकठि परे?

    इसी प्रकार रात उन्हें साँपिन सी लग रही हैं। साँपिन की पीठ...................(पेज नं. 48 उपलब्ध नहीं है।)।

    अपनी अन्तर्दशा को ऋतु-सुलभ व्यापारों के बीच बिंब-प्रतिबिंब रूप में देखना भाव-मग्न अन्तःकरण की एक विशेषता है। इसके वर्णन में प्रस्तुत अप्रस्तुत का भेद मिट सा जाता है। ऐसे वर्णन पावस के प्रसंग में सूर ने बहुत अच्छे के है। “निसि दिन बरसत नैन हमारे” बहुत प्रसिद्ध पद है। विरहोन्माद में भिन्न भिन्न प्रकार की उठती हुई भावनाओं से रंजित होकर एक ही वस्तु कभी किसी रूप में दिखाई पड़ती हैं, कभी किसी रूप में। उठते हुए बादल कभी तो ऐसे भीषण रूप में दिखाई पड़ते हैं----

    देखियत चहुँ दिसि तें घन घोरे।

    मानौ मत्त मदन के हथियन बल करि बंधन तोरे।।

    कारे तन अति चुवत गंड मद, बरसत थोरे थोरे।।

    रुकत पवन-महावत हू पै, मुरत अंकुस मोरे।।

    कभी अपने प्रकृत लोक-सुखदायक रूप में ही सामने आते हैं और कृष्ण की अपेक्षा कहीं दयालु और परोपकारी लगते हैं----

    बरु ये बदराऊ बरसन आए।

    अपनी अवधि जानि, नँदनंदन! गरजि गगन घन छाए।।

    कहियत है सुरलोक बसत, सखि! सेवक सदा पराए।

    चातक कुल की पीर जानि कै, तेउ तहाँ तें धाए।।

    तृण किए हरित, हरषि वेली मिलि, दादुर मृतक जिवाए।

    बरु और बदराऊ के में कैसी व्यंजना है! बादल तक—जो जड़ समझे जाते हैं- आश्रितों के दुःख से द्रवीभूत होकर आते हैं!

    प्रिय के साथ कुछ रूप-साम्य के कारण वे ही मेघ कभी प्रिय लगने लगते हैं----

    आजु घन श्याम की अनुहारि।

    उनै आए साँवरे ते सजनी! देखि, रूप की आरि।।

    (पेज नं. 50 उपलब्ध नहीं है।)।

    भाव की उमंग में उस भाव को सँभालनेवाले या बढानेवाले होकर खड़े हुए हैं या यों ही तमाशा दिखाने के लिये- कुतूहल उत्पन्न करने के लिये- ज़बरदस्ती पकड़कर लाए गए है। यदि ऐसे रूपों की तह में उनके प्रवर्त्तक या प्रेषक भाव का पत लग जाय तो समझिए कि कवि के हृदय का पता लग गया और वे रूप हृदय-प्रेरित हुए। अँगरेज़ कवि कालरिज ने, जिसने कवि-कल्पना पर अच्छा विवेचन किया है, अपनी एक कविता में ऐसे रूपावरण को आनन्द-स्वरूप आत्मा से निकला हुआ कहा है, जिसके प्रभाव से जीवन में रोचकता रहती है। जब तक यह रूपावरण (कल्पना का) जीवन में साथ लगा चलता है, तब तक दुःख की परिस्थिति में भी आनन्द-स्वप्न नहीं टूटता। पर धीरे धीरे यह दिव्य आवरण हट जाता है और मन गिरने लगता है। भावोद्रक और कल्पना में इतना घनिष्ट सम्बन्ध है कि एक काव्य-मीमांसक ने दोनों को एक ही कहना ठीक समझकर कह दिया है---- “कल्पना आनन्द है।”

    सच्चे कवियों की कल्पना की बात जाने दीजिए, साधारण व्यवहार में भी लोग जोश में आकर कल्पना का जो व्यवहार बराबर किया करते हैं, वह भी किसी पहाड़ को शिशु और पांडव कहनेवाले कवियों के व्यवहार से कहीं उचित होता है। किसी निष्ठर कर्म करने-वाले को यदि कोई हत्यारा कह देता है, तो वह सच्ची कल्पना का उपयोग करता है, क्योंकि विरक्ति या घृणा के अतिरेक से प्रेरित हो कर ही उसकी अन्तर्वृत्ति हत्यारे का रूप सामने करती है, जिससे भाव की मात्रा के अनुरूप आलम्बन खड़ा हो जाता है। हत्यारा शब्द का लाक्षणिक प्रयोग ही विरक्ति की अधिकता का व्यंजक है। उसके स्थान पर यदि कोई उसे बकरा कहे, तो या तो किसी भाव की व्यंजना होगी या किसी ऐसे भाव की होगी, जो प्रस्तुत विषय में मेल में नहीं। कहलानेवाला कोई भाव अवश्य चाहिए और उस भाव को प्रस्तुत वस्तु के अनुरूप होना चाहिए। भारी मूर्ख को लोग जो गदहा कहते हैं, वह इसी लिये कि मूर्ख कहने से उनका जी नहीं भरता- उनके हृदय में उपहास अथवा तिरस्कार का जो भाव रहता है, उसकी व्यंजना नहीं होती।

    कहने की आवश्यकता नहीं कि अलंकार-विधान में उपयुक्त उपमान लाने में कल्पना ही काम करती हैं। जहाँ वस्तु, गुण या क्रिया के पृथक् पृथक् साम्य पर ही कवि की दृष्टि रहती है, वहाँ वह उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि का सहारा लेता है, और जहाँ व्यापार समष्टि या पूर्ण प्रसंग का साम्य अपेक्षित होता है, वहाँ दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास और अन्योक्ति का। उपर्युक्त विवेचन से यह प्रकट है कि प्रस्तुत के मेल में जो अप्रस्तुत रखा जाय- चाहे वह वस्तु, गुण या क्रिया हो अथवा व्यापार-समष्टि के समन्वय में कवि की सहृदयता का जिस पूर्णता के साथ हमें दर्शन होता है, उस पूर्णता के साथ वस्तु, क्रिया आदि के पृथक् पृथक् समन्वय में नहीं। इसी से सुन्दर अन्योक्तियाँ इतनी मर्मस्पर्शिणी होती हैं। चुना हुआ अप्रस्तुत व्यापार जितना ही प्राकृतिक होगा- जितना ही अधिक मनुष्य जाति के आदिम जीवन में सुलभ दृश्यों के अन्तर्गत होगा-उतना ही रमणीय और अनुरंजनकारी होगा। सूरदास जी ने कई स्थलों पर अपनी कल्पना के बल से प्रस्तुत प्रसंग के मेल में अत्यन्त मनोरम व्यापार समष्टि की योजना की है। कोई गोपिका या राधा स्वप्न में श्रीकृष्ण के दर्शनों का सुख प्राप्त कर रही थी कि उसकी नींद उचट गई। इस व्यापार के मेल में कैसा प्रकृति-व्यापी और गूढ़ व्यापार सूर ने रखा है, देखिए---

    हमको सपनेहू में सोच।

    जा दिन तें बिछुरे नँदनन्दन ता दिन तें यह पोघ।

    मनौ गोपाल आए मेरे घर, हँसि करि भुजा गही।

    कहा करौं बैरिनि भइ निंदिया, निमिष और रही।

    ज्यों चकई प्रतिबिंब देखि कै आनंदी पिय जानि।

    सूर पवन-मिलि निठुर विधाता चपल कियो जल आनि।।

    स्वप्न में अपने ही मानस में किसी का रूप देखने और जल में अपना ही प्रतिबिंब देखने का कैसा गूढ़ और सुन्दर साम्य है। इसके उपरान्त पवन द्वारा प्रशान्त जल के हिल जाने से छाया का मिट जाना कैसा भूतव्यापी व्यापार स्वप्नभंग के मेल में लाया गया है!

    इसी प्रकार प्राकृतिक चित्रों द्वारा सूर ने कई जगह पूरे प्रसंग की व्यंजना की है। जैसे, गोपियाँ मथुरा से कुछ ही दूर पर पड़ी विरह से तड़फड़ा रही हैं, पर कृष्ण राज-सुख के आनंद में फूले नहीं समा रहे हैं। यह बात वे इस चित्र द्वारा कहते हैं-----

    सागर कूल मीन तरफत है, हुलसि होत जल पीन।

    जैसा ऊपर कहा गया है, जिसे निर्माण करनेवाली-सृष्टि खड़ी करनेवाली-कल्पना कहते हैं, उसकी पूर्णता किसी एक प्रस्तुत वस्तु के लिये कोई दूसरी अप्रस्तुत वस्तु-जो कि प्रायः कवि परंपरा में प्रसिद्ध हुआ करती है- रख देने में उतनी नहीं दिखाई पड़ती, जितनी किसी एक पूर्ण प्रसंग के मेल का कोई दूसरा प्रसंग-जिनमें अनेक प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों की नवीन योजना रहती है- रखने में देखी जाती है। सूरदास जी ने कल्पना की इस पूर्णता का परिचय जगह जगह दिया है, इसका अनुमान ऊपर उद्धृत पदों से हो सकता है। कबीर, जायसी आदि कुछ रहस्यवादी कवियों ने इस जीवन का मार्मिक स्वरूप तथा परोक्ष जगत् की कुछ धुँधली सी झलक दिखाने के लिये इसी अन्योक्ति की पद्धति का अवलम्बन किया है, जैसे-

    (पेज नं. 54 उपलब्ध नहीं है।)।

    इसी अन्योक्ति-पद्धति को कवीन्द्र रवीन्द्र ने आज फल अपने विस्तृत प्रकृति-निरीक्षण के बल से और अधिक पल्लवित करके जो पूर्ण और भव्य स्वरूप प्रदान किया है, वह हमारे नवीन हिन्दी साहित्य क्षेत्र में गाँव में नया नया आया ऊँट हो रहा है। बहुत से नवयुवकों को अपना एक नया ऊँट छोड़ने का हौसला हो गया है। जैसे भावों या तथ्यों की व्यंजना के लिये श्रीयुत रवीन्द्र प्रकृति के क्रीड़ास्थल से लेकर नाना मूर्त स्वरूप खड़ा करते हैं, वैसे भावों को ग्रहण करने तक की क्षमता रखनेवाले बहुतुरे ऊटपटाँग चित्र खड़ा करने और कुछ असम्बद्ध प्रलाप करने को ही छायावाद की कविता समझ अपनी भी कुछ करामात दिखाने के फेर में पड़ गए हैं। चित्रों के द्वारा बात कहना बहुत ठीक है, पर कहने के लिये कोई बात भी तो हो। कुछ तो काव्य-रीति से सर्वथा अनभिज्ञ, छंद अलंकार आदि के ज्ञात से बिल्कुल कोरे देखे जाते हैं। बड़ी भारी बुराई यह है कि अनपे को एक नए सम्प्रदाय में समझ अहंकारवश वे कुछ सीखने का कभी नाम भी नहीं लेना चाहते और अपनी अनभइज्ञता को एक चलते नाम की ओट में छिपाना चाहते हैं। मैंने कई एक से उन्हीं की रचना लेकर कुछ प्रश्न किए, पर उनका मानसिक विकास बहुत साधारण कोटि का-कोई गंभीर तत्व ग्रहण करने के अनुपयुक्त-पाया। ऐसों के द्वारा काव्य क्षेत्र में भी, राजनीतिक क्षेत्र के समान, पाषंड के प्रचार की आशंका है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि रहस्यवाद का प्रकृत स्वरूप और उसका इतिहास आदि साहित्य-सेवियों के सामने रखा जाय तथा पुराने और नए रहस्यवादी कवियों की रचनाओं की सूक्ष्म परीक्षा द्वारा रहस्य वाद की कविता के साहित्यिक स्वरूप की मीमांसा की जाय। इस विषय पर अपने विचार मैं किसी दूसरे समय प्रकट कहूँगा, इस समय जो इतना कह गया, उसी के लिये क्षमा चाहता हूँ।

    यहाँ तक तो सूर की सहृदयता की बात हुई। अब उनकी साहित्यिक निपुणता के सम्बन्ध में भी दो चार बातें कहना आवश्यक है। किसी कवि की रचना के विचार के सुबीते के लिये हम दो पक्ष कर सकते हैं- हृदय-पक्ष और कला पक्ष। हृदय-पक्ष का कुछ दिग्दर्शन हो चुका। अब सूर की कला-निपुणता के, काव्य के बाह्यांग के, सम्बन्ध में यह समझ रखना चाहिए कि वह भी उनमें पूर्ण रूप से वर्तमान है। यद्यपि काव्य में हृदय-पक्ष ही प्रधान है, पर बहिरंग भी कम आवश्यक नहीं है। रीति, अलंकार, छंद ये सब बहिरंग विधान के अन्तर्गत हैं, जिनके द्वारा काव्यात्मा की अभिव्यक्ति होती है। जायसी में हृदय-पक्ष की प्रधानता है, कला-पक्ष में (अलंकारो का बहुत कुछ व्यवहार होते हुए भी) त्रुटि और न्यूनता है। केशव में कला-पक्ष ही प्रधान है, हृदय-पक्ष न्यून हैं।

    यह तो आरम्भ में ही कहा जा चुका है कि सूर की रचना जयदेव और विद्यापति के गीत-काव्यों की शैली पर है, जिसमें सुर और लय के सौन्दर्य या माधुर्य्य का भी रस-परिपाक में बहुत कुछ योग रहता है। सूरसागर में कोई राग या रागिनी छूटी होगी, इससे वह संगीत-प्रेमियों के लिये भी बड़ा भारी खज़ाना है। संस्कृत के गीत-गोविन्द में कोलम-कान्त-पदावली और अनुप्रास की ओर बहुत कुछ ध्यान है। विद्यापति की रचना में कोमल पदावली का आग्रह तो है, पर अनुप्रास का उतना नहीं। सूर में चलती भाषा की कोमलता है, वृत्ति-विधान और अनुप्रास की ओर झुकाव कम है। पर इससे भाषा की स्वाभाविकता में बाधा नहीं पड़ने पाई हैं। भावुक सूर ने अपना शब्द शोधन दूसरी ओर दिखाया है। उन्होंने चलते हुए वाक्यों, मुहावरों और कहीं कहीं कहावतों का बहुत अच्छा प्रयोग किया है। कहने का तात्पर्य्य यह कि सूर की भाषा बहुत चलती हुई और स्वाभाविक है। काव्य-भाषा होने से यद्यपि उसमें कहीं कहीं संस्कृत के पद, कवि के समय से पूर्व के परंपरा गत प्रयोग तथा ब्रज से दूर दूर के प्रदेशों के शब्द भी मिले हैं, पर उनकी मात्रा इतनी नहीं है कि भाषा के स्वरूप में कुछ अन्तर पड़े या कृत्रिमता आवे। श्लेष और यमक कूट पदों में ही अधिकतर पाए जाते हैं।

    अर्थालंकारों की अलबत पूर्ण प्रचुरता है, विशेषतः उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि सादृश्य-मूलक अलंकारो की। यद्यपि उपमान अधिकतर साहित्य-प्रसिद्ध और परम्परागत ही हैं, पर स्वकल्पित नए नए उपमानों की भी कमी नहीं है। कहीं कहीं तो जो प्रसिद्ध उपमान भी लिए गए हैं, वे प्रसंग के बीच बड़ी ही अनूठी उद्भावना के साथ बैठाए गए हैं। स्फुटिक के आँगन में बालक कृष्ण घुटनों के बल चल रहे हैं और उनके हाथ पैर का प्रतिबिम्ब पड़ता चलता है। इस पर कवि की उत्प्रेक्षा देखिए----

    फटिक भूमि पर कर-पग-छाया यह शोभा अति राजति।

    करि करि प्रति मनो बसुधा कमल बैठकी साजति।।

    रूप या अंगो की शोभा के वर्णन में उपमा उत्प्रेक्षा की भरमार बराबर मिलेगी। इनमें बहुत सी तो पुरानी और बँधी हुई हैं और कुछ नवीन भी हैं। उपमा उत्प्रेक्षा की सब से अधिकता हरिजू की बाल छवि के वर्णन में पाई जाती है, यों तो जहाँ जहाँ रूप वर्णन है, सर्वत्र ये अलंकार भरे पड़े हैं। उपमान सब तरह के हैं, पृथ्वी पर के भी और पृथ्वी के बाहर के भी- सामान्य प्राकृतिक व्यापार भी और पौराणिक प्रसंग भी। पिछले प्रकार के उपमानों के उदाहरण इस प्रकार के हैं----

    (क) नील स्वत पर पीत लाल मनि लटकन माल रुराई।

    सनि, गुरु, असुर, देवगुरु मिलि मनो भौम सहित समुदाई।।

    (ख) हरि कर राजत माखन रोटी।

    मनौ बराह भूधर सह पृथिवी धरी दसनन की कोटी।।

    अग-शोभा और वेश भूषा आदि के वर्णन में सूर को उपमा देने की झक सी चढ जाती है और वे उपमा पर उपमा, उत्प्रेक्षा पर उत्प्रेक्षा कहते चले जाते हैं। इस झक में कभी कभी परिमाण या मर्यादा का विचार नहीं रह जाता, जैसे, ऊपर के उदाहरण (ख) में कहाँ मक्खन लगी हुई छोटी सी रोटी और कहाँ गोल पृथ्वी। हाँ, जहाँ ईश्वरत्व या देवत्व की भावना से किसी छोटे व्यापार द्वारा अत्यन्त बृहद् व्यापार की ओर संकेत मात्र किया है, वहाँ ऐसी बात नहीं खटकती, जैसे इस पद में---

    मथत दधि मथनी टेकि रह्यो।

    आरि करत मटकी गहि मोहन बासुकि सभु डरयो।।

    मदर डरत, सिंधु पुनि काँपत फिरि जनि मथन करै।

    प्रलय होय जनि गहे मथानी, प्रभु मर्य्याद टरै।।

    पर उक्त दोनों उदाहरणों के सम्बन्ध में तो इतना बिना कहे नहीं रहा जाता कि ऐसे उफमान बहुक काव्योपयोगी नहीं जँचते। काव्य में ऐसे ही उपमान अच्छी सहायता पहुँचाते हैं, जो सामान्यत प्रत्यक्ष रूप में परिचित होते हैं और जिनकी भव्यता, विशालता या रमणीयता आदि का संस्कार जनसाधारण के हृदय पर पहले से जमा चला आता है। शनि का कोयले सा कालापन ही किसी ने आँखों देखा है, बराह भगवान का दाँत की नोक पर पृथ्वी उठाना। यह बात दूसरी है कि केशव ऐसे कुछ प्रसिद्ध कवियों ने भी “भानु मनो शनि अक लिए” ऐसी उत्प्रेक्षा की ओर रुचि दिखाई हैं।

    हमारे कहने का यह तात्पर्य्य नहीं की ज्ञान विज्ञान के प्रसार से जो सूक्ष्म से सूक्ष्म और बृहत् क्षेत्र मनुष्य के लिये खुलते जाते हैं, उनके भीतर के नाना रमणीय और अद्भुत रूपों और व्यापारों का-जो सर्वसाधारण को प्रत्यक्ष नहीं है- काव्य में उपयोग करके उसके क्षेत्र का विस्तार किया जाय। उनका प्रयोग किया जाय, कवि की प्रतिभा द्वारा वेगोचर रूप में सामने लाए जायँ, पर दूसरे प्रकार की रचनाओं में लाए जायँ, केवल अंग आभूषण आदि की उपमा के लिए नहीं। ज्योतिर्विज्ञान द्वारा खगोल के बीच जाने कितने चक्कर खाते, बनते बिगड़ते, रंग बिरंग के पिंड़ों, अपार ज्योतिःसमूहों आदि का पता लगा है जिनके सामने पृथ्वी किसी गिनती में नहीं। कोई विश्व-व्यापिनी ज्ञान दृष्टिबाला कवि यदि विश्व की कोई गंभीर समस्या लेकर उसे काव्य रूप में रखना चाहता है, तो वह इन सब को हस्तामलक बनाकर सामने ला सकता है।

    सूरदास जी में जीतनी सहृदयता और भावुकता है, प्रायः उतनी ही चतुरता और वाग्विदग्धता भी है। किसी बात को कहने के जाने कितने टेढ़े सीधे ढंग मालूम थे। गोपियों के वचन में कितनी विदग्धता और वक्रता भरी है! वचन-रचना की उस वक्रता के सम्बन्ध में आगे विचार किया जायगा। यहाँ पर हम वैदग्ध्य के उस उपयोग का उल्लेख करना चाहते हैं जो आलंकारिक कुतूहल उत्पन्न करने के लिये किया गया है। साहित्य-प्रसिद्ध उपमानों को लेकर सूर ने बड़ी बड़ी क्रीड़ाएँ की हैं। कहीं उनको लेकर रूपकातिशयोक्ति द्वारा “अद्भुत एक अनूपम बाग” लगाया है, कही, जब जैसा जी चाहा है, उन्हें संगत सिद्ध करके दिखा दिया है, कहीं असंगत। गोपियाँ वियोग में कुढ़कर एक स्थान पर कृष्ण के अंगों के उपमानों को लेकर उपमा को इस प्रकार न्याय-संगत ठहराती हैं----

    ऊधो! अब यह समुझि भई।

    नंदनँदन के अंग अंग प्रति उपमा न्याय दई।।

    कुंतल कुटिल भँवर भरि भाँवरि मालतिभुरै लई।

    तजत गहरु कियो कपटी जब जानी निरस गई।।

    आनन इंदुबरन सम्मुख तजि करखे तें नई।

    निरमोही नहिं नेह, कुमुदिनी अंतहि हेम हई।।

    तन घनश्याम सेइ निसिबासर, रटि रसना छिजई।

    सूर विवेक-हीन चातक-मुख बूँदौ तौ सई।।

    इसी प्रकार दूसरे स्थान पर वे अपने नेत्रों के उपमानों को अनुपयुक्त ठहराती हैं----

    उपमा एक नैन गही।

    कविजन कहत कहत चलि आए, सुधि करि करि काहू कही।।

    कहे चकोर, मुख-बिंधु बिनु जीवन, भँवर न, तहँ उड़ि जात।

    हरिमुख-कमलकोस बिछुरे तें ठाले क्यों ठहरात?

    खंजन मनरंजन जन जौ पै, कबहुँ नाहिं सतरात।

    पंख पसारि उड़त, मंद ह्वै समर समीप बिकाते।।

    आए बंधन व्याध ह्वै ऊधो, जौ मृग क्यों पलाय।

    देखत भागि वसै घन बन में जहँ कोउ संग धाय।।

    ब्रजलोचन बिनु लोचन कैसे? प्रति छिन अति दुख बाढ़त

    सूरदास मीनता कछू इक, जल भरि संग छाँड़त।।

    दोनों उदाहरणों में उपमानों की उपयुक्तता और अनुपयुक्ता का जो आरोप किया गया है, वह हृदय के क्षोभ से उत्पन्न है, इसी से उसमें सरसता है, काव्य की योग्यता है। यदि कोई कठ-हुज्जती इन्हीं उपमानों को लेकर कहने लगे- “वाह! नेत्र भ्रम कैसे हो सकते हैं? भ्रमर होते तो उड़ जाते। मृग कैसे हो सकते है? मृग होते सो ज़मीन पर चौकड़ी मरते।” तो उसके कथन में कुछ काव्यत्व होगा।

    उपमानों की आनंद-दशा का वर्णन करके इसी प्रकार सूर ने अप्रस्तुत प्रशंसा द्वारा राधा के अंगों और चेष्टाओं का विरह से श्रुतिहीन और मंद होना व्यंजित किया है---

    तप्त तें इन सबहिन सचुपायो।

    जब तें हरि संदेस विहारो सुनत ताँवरी अहते।।

    फूले व्याल दुरेतें प्रगटे, पवन पेट भरि खायो।

    ऊँचे बैठि विहंग-सभा बिच कोकिल मंगल गायो।।

    निकसि कंदरा तें केहरिहूँ माथे पूँछ हिलायो।

    अनगृह तें गजराज निकसि कै अँग अँग गर्व जनायो।।

    चेष्टाओं और अंगों का मंद और श्रीहीन होना कारण है, और उपमानों का आनंदित होना कार्य्य है। यहाँ अप्रस्तुत कार्य्य के वर्णन द्वारा प्रस्तुत कारण की व्यंजना की गई है। गो. तुलसीदासजी ने जानकी के रहने पर उपमानों का प्रसन्न होना राम के मुख से कहलाया है—

    कुंदकली, दाड़िम, दामिनी। कमल, सूरदससि, अहि-भामिनी।।

    श्रीफल कनक कदलि हरपाहीं। नेकु सक सकुच मन माहीं।

    सुनु जानकी! तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू।।

    पर यहाँ उपमानों के आनन्द से केवल सीता के रहने की व्यंजना होती है।। सूर की अप्रस्तुत प्रशंसा में उक्ति का चमत्कार भी कुछ विशेष है और रसात्मकता भी।

    दूर की सूझ या ऊहावाले चमत्कार-प्रधान पद भी सूर ने बहुत से कहे हैं- जैसे---

    (क) दूर करहु बीना कर धरिबो।

    मोहे मृग नाहीं रथ हाँक्यो, नाहिंन होत चंद को ढरिबो।।

    (ख) मन राखन को बेनु लियो कर, मृग थाके उडुपति चरै।।

    अति आतुर ह्वै सिंह लिख्यो कर जेहि भामिनी को करुन टरै।।

    राधा मन बहलाने के लिये, किसी प्रकार रात बिताने के लिये, बीणा लेकर बैठीं। उस वीणा या वेणु के स्वर से मोहित होकर चंद्रमा के रथ का हिरन अड़ गया और चंद्रमा के रुक जाने से रात और भी बढ़ गई। इस पर घबराकर वे सिंह का चित्र बनाने लगीं जिससे मृग डरकर भाग जाय। जायसी की पदमावती में भी यह उक्ति ज्यों ती त्यों आई हैं----

    नहिं दामिनि द्रुम-दवा शैल चढ़ी, फिरि बयारि उलटी झर लावति।

    नाहिंन मोर बकत पिक दादुर, ग्वाल-मंडली खगन खेलावति।।

    सूर को वचन-रचना की चतुराई और शब्दों की क्रीड़ा का भी पूरा शौक था। बीच बीच में आए हुए कूट पद इस बात के प्रमाण हैं, जिसमें या तो अनेकार्थवाची शब्दों को लेकर या किसी एक वस्तु को सूचित करने के लिये अनेक शब्दों की लंबी लड़ी जोड़कर खिलवाड़ किया गया है। सूर की प्रकृति कुछ क्रीड़ाशील थी। उन्हें कुछ खेल तमाशे का भी शौक़ था। लीला-पुरुषोत्तम के उपासक कवि में यह विशेषता होनी ही चाहिए। तुलसी के गंभीर मानस में इस प्रवृत्ति का आभास नहीं मिलता। अपनी इसी शब्द-कौशल की प्रवृत्ति के कारण सूर ने व्यवहार के गुछ पारिभाषिक शब्दों को लेकर भी एक आध जगह उक्तियाँ बाँधी हैं, जैसे----

    साँचो सो लिखवार कहावै।

    काया-ग्राम मसाहत करि कै, जमा बाँधि ठहरावे।

    मन्मथ करै कैद अपनो में, जान जहतिया लावै।।

    काव्य में इस प्रकार की उक्तियाँ ठीक नहीं होतीं।

    आचार्य्यों ने अप्रतीत्व दोष के अंतर्गत इस बात का संकेत किया है। सूर भी एक ही आध जगह ऐसी उक्तियाँ लाए हैं, पर वे प्रेम फौजदारी ऐसी पुस्तकों के लिये नमूने का काम दे गई हैं।

    यहाँ तक तो सूरदास जी की कुछ विशेषताओं का अनुसन्धान हुआ। अब उनकी सम्पूर्ण रचना के सम्बन्ध में कुछ सामान्य मत स्थिर करना चाहिए। पहले तो यह समझ रखना चाहिए कि सूरसागर वास्तव में एक महासागर है, जिसमें हर एक प्रकार का जल आकर मिला है। जिस प्रकार उसमें मधुर अमृत है, उसी प्रकार कुछ खारी, फीका और साधारण जल भी। खारी, फीके और साधारण जल से अमृत को अलग करने में विवेचकों को प्रवृत्त रहना चाहिए। सूरदास सागर में बहुत से पद बिल्कुल साधारण श्रेणी के मिलेंगे। एक ही पद में भी कुछ चरण तो अनूठे और अद्वितीय मिलेंगे और कुछ साधारण, और कभी कभी तो भऱती के। कई जगह वाक्य-रचना अव्यव स्थित मिलेगी और छंद या तुकान्त में खपाने के लिये शब्द भी कुछ विकृत किए हुए, तोड़े मरोड़े हुए, पाए जायेंगे, जैसे रहत के लिये राहत, जितेक के लिये जितेत, पानी के लिए पान्यों इत्यादि। व्याकरण के लिंग आदि का विपर्य्यय या अनियम भी कहीं कहीं मिल जाता है। जैसे, सूल शब्द कहीं पुल्लिंग आया है, कहीं स्त्री लिंग। साराँश यह कि यदि हम भाषा पर सामान्यतः विचार करते हैं, तो वह सर्वत्र तुलसी की सी गठी हुईष सुव्यवस्थित और अपरिवर्तनीय मिलेगी। कहीं कहीं वाक्य क्या किसी चरण तक को हम बदल दें, तो कोई हानि होगी। किसी किसी पद में कुछ वाक्य कुछ विशेष अर्थ-शक्ति नहीं रखते, चरण की पूर्ति करने का ही काम देते जान पड़ते हैं। बात यह है कि नित् यकुछ कुछ पद बनाना उनका नियम था। उन्होंने बहुत अधिक पद कहे हैं। फुटकर पद कहते चले गए हैं, इससे एक ही भाववाले बहुत से पद भी गए हैं, और कहीं कहीं भाषा भी शिथिल हो गई है। अंधे होने के कारण लिखे पदों को सामने रखकर काटने छाँटने या हरताल लगाने का उन्हें वैसा मौका था, जैसा तुलसीदास को।

    उपासना पद्धति के भेद के कारण सूर और तुलसी की रचना में जो भेद कहा जाता है, उस पर भी थोड़ा ध्यान देना चाहिए। तुलसी की उपासना सेव्य-सेवक भाव से कहीं जाती है और सूर की सख्य भाव से। यहाँ तक कि भक्तों में सूरदास जी श्रीकृष्ण के सखा उद्धव के अवतार कहे जाते हैं। यहाँ पर हमें केवल यह देखना है कि इस उपासना भेद का सूर की रचना के स्वरूप पर क्या प्रभाव पड़ा है। यदि विचार करके देखा जाय, तो सर में जो कुछ संकोच का अभाव या प्रगल्भता पाई जाती है, वह गृहीत विषय के कारण। इन्होंने वात्सल्य और श्रृंगार ही वर्णन के लिये चुने है। जिसे बालक्रीड़ा और श्रृंगार क्रीड़ा का अत्यन्त विस्तृत वर्णन करना है, वह यदि संकोच भाव छोड़ लड़कों की नटखटी, यौवन-सुलभ हास परिहास आदि का वर्णन करेगा, तो काम कैसे चलेगा? कालिदास ने भी कुमारासम्भव में पार्वती के अंग प्रत्यंग का श्रृंगारी वर्णन किया है। तो क्या उनकी शंकर की उपासना भी सख्य भाव की हुई और उनका वह वर्णन उसी सख्य भाव के कारण हुआ? थोड़ा सा ध्यान देने से ही यह जाना जा सकता है कि आरम्भ में सूर ने जो बहुत दूर तक विनय के पद कहे हैं, वे दीन सेवक या दास के रूप में ही कहे हैं। मिलान करने पर सूर की विनयावली और तुलसी की विनय पत्रिका में सखा और सेवक का कोई भेद पाया जायगा। विनय में सूर भी ऐसा ही कहते पाए जायँगे- “प्रभु! हौं सब पतितन को टीको।” यों तो तुलसी भी प्रेम भाव में मग्न होकर सामीप्य और घनिष्टता अनुभव करते हुए पूतरा बाँधने के लिये तैयार हो गए हैं और शवरी आदि को तारनेपर कहते हैं--- “तारेहु का रही सगाई?”।

    इसी साम्प्रदायिक प्रवाद से प्रभावित होकर कुछ महानुभावों ने सूर और तुलसी में प्रकृति-भेद बताने का प्रयत्न किया है और सूर को खरा तथा स्पष्टवादी और तुलसी को सिफारिशी, खुशामदी या लल्लो चप्पो करनेवाला कहा है। उनकी राय में तुलसी कभी राम की निन्दा नहीं करते, पर सूर ने “दो चार स्थानों पर कृष्ण के कामों की निन्दा भी की है,” यथा---

    (क) तुम जानत राधा है छोटी।

    हम सों सदा दुरावति है यह, बात कहै मुख चोटी पोटी।।

    नँदनंदन याही के बस है, विब्रस देखि बेंदी छबि चोटी।

    सूरदास प्रभु वै अति खोटे, यह उनहूँ तें अति ही खोटी।।

    (ख) सखी री! श्याम कहा हित जानै।

    सूरदास सर्बस जौ दीजै कारो कृतहि मानै।।“

    पर यह कथन कहाँ तक ठीक है, इसका निर्णय इस प्रश्न के उत्तर द्वारा झटपट हो सकता है। “सूरदास प्रभु वै अति खोटे,” “कारो कृतहि मानै” इन दोनों वाक्यों में वाच्यार्थ के अतिरिक्त संलक्ष्य असंलक्ष्य किसी प्रकार का व्यंग्यार्ध भी है या नहीं? यदि किसी प्रकार का व्यंग्य नहीं है तो उक्त कथन ठीक हो सकता है। पर किसी प्रकार का व्यंग्यार्थ होने पर ये दोनों वाक्य रसात्मक होंगे, इनमें कुछ भी काव्यत्व होगा। पर हमारे देखने में ये दोनों वाक्य असंलक्ष्य क्रम व्यंग्य के कारण रसात्म हैं। इन दोनों पदों पर साहित्यिक दृष्टि से जो थोड़ा भी ध्यान देगा, वह जान लेगा कि कृष्न ने तो वास्तव में खोटे कहे गए हैं, कलूटे कृतघ्न। प्रथम पद में जो सखी की उक्ति है, वह विनोद या परिहास की उक्ति है, सरासर गाली नहीं है। सखी का यह विनोद हर्ष का ही एक स्वरूप है और संचारी के रूप में प्रिय सखी राधा के प्रति रति भाव की व्यंजना करती है। इससे सखी के उस आनन्द का पता चलता है जो राधा कृष्ण के परस्पर प्रेम को देख उसे हो रहा है। इसी प्रकार दूसरा पद विरहाकुल गोपी का वचन है जिससे कुछ विनोद मिश्रित अमर्ष व्यंजित होता है। वह अमर्ष भी यहाँ रति भाव का व्यंजक है, इसके कहने की आवश्यकता नहीं। यह आरंभ में ही कहा जा चुका है कि कृष्ण और गोपियों का प्रेम लोक-मर्य्यादा से परे जीवनोत्सव या क्रीड़ा निवेदन है कि साम्प्रदायिक परिभाषाओं के चवर में साहित्यिक दृष्टि खो देनी चाहिए।

    तुलसी पर दूसरा इलज़ाम, जिससे सूर धरी किए गए हैं, यह है कि वे रह रहकर फझूल याद दिलाया करता हैं कि राम परमेश्वर हैं। ठीक है, तुलसी ऐसा जरूर करते हैं। पर कहाँ? रामचरित मानस में। पर रामचरित मानस तुलसीदास का एक मात्र ग्रंथ नहीं है। उसके अतिरिक्त तुलसीदासजी के और भी कई ग्रंथ है। क्या सब में यही बात पाई जाती है? यदि नहीं, तो इसका विवेचन करना चाहिए कि रामचरित-मानस में ही यह बात क्यों है। मेरी समझ में इसके कारण ये हैं----

    (1) रामचरित-मानस की कथा के वक्ता तीन हैं- शिव, याज्ञवल्क्य और काक-भुशुंडि। श्रोता हैं पर्वती, भरद्वाज और गरुड़। इन तीनों श्रोताओं ने अपना यह मोह प्रकट किया है कि कहीं राम मनुष्य तो नहीं है। तीनों वक्ता जो कथा कह रहे हैं, वह इसी मोह को छुड़ाने के लिये। इसीलिये कथा के बीच बीच में याद दिलाते जाना बहुत उचित है। गोस्वामी जी ने भूमिका में ही इस बात को स्पष्ट कर के शंका की जगह नहीं छोड़ी है।

    (2) रामचरित-मानस एक प्रबन्ध-काव्य है, जिसमें कथा का प्रवाह अनेक घटनाओं पर से होता हुआ लगातार चला चलता है। इस दशा में कथा-प्रवाह में मग्न पाठक या श्रोता को असल बात की ओर ध्यान दिलाते रहने की आवश्यकता समय समय पर उस कवि को अवश्य मालूम होगी, जो नायक को ईश्वरावतार के रूप में ही दिखाना चाहता है। फुटकर पद्यों में इसकी आवश्यकता प्रतीत होगी। सूरसागर की शैली पर तुलसी की गीतावली है। उसमें यह बात नहीं पाई जाती। जब कि समान शैली की रचना मिलती है, तब मिलान के लिये उसी को लेना चाहिए।

    (3) श्रीकृष्ण के लिये हरि जनार्दन आदि विष्णुवाचक शब्द बराबर लाए जाते हैं, इससे चेतावनी की आवश्यकता नहीं रह जाती। गोपियों ने कृष्ण के लिये बराबर हरि शब्द का व्यवहार किया है।

    इस प्रसंग को छोड़ने के पहले इतना और कह देना चाहता हूँ- ...............................

    (पेज नं. 68 उपलब्ध नहीं है।)।

    उत्कृष्ट रचना की है। यह बात सूर में नहीं है। सूरसागर की पद्धति पर वैसी ही मनोहारिणी और सरस रचना तुलसी की गीतावली मौजूद है, पर राचमचरित मानस और कवितावली की शैली की सूर की कोई कृति नहीं है। इसके अतिरिक्त मनुष्य-जीवन की जितनी अधिक दशाएँ, जितनी अधिक वृत्तियाँ, तुलसी ने दिखाई हैं, उतनी सूर ने नहीं। तुलसी ने अपने चरित्रचित्रण द्वारा जैसे विविध प्रकरा के ऊँचे आदर्श खंड किए हैं, वैसे सूर ने नहीं। तुलसी की प्रतिभा सर्वतोमुखी है और सूर की एक-मुखी। पर एक-मुखी होकर उसने अपनी दिशा में जितनी दूर तक की दौड़ लगाई है, उतनी दूर तक की तुलसी ने भी नहीं, और किसी कवि की तो बात ही क्या है। जिस क्षेत्र को सूर ने चुना है, उस पर उनका अधिकार अपरिमित है, उसके वे सम्राट् है।

    सूर की विशेषताओं के इस संक्षिप्त दिग्दर्शन को समाप्त करने के पहले इतना और कह देने को जी चाहता है कि सूर में साम्प्रदायिकता की छाप तुलसी की अपेक्षा अधिक है। अष्टछाप में वे थे ही। उन्होंने अपनी अनन्य उपासना के अनुसार कृष्ण या हरि को छोड़ और देवताओं की स्तुति नहीं की है। ग्रंथारंभ में भी प्रथानुसार गणेश या सरस्वती को याद नहीं किया है। पर तुलसीदासजी की वंदना कितनी विस्तृत है, यह रामचरित मानस और विनय पत्रिका के पढ़नेवाले मात्र जानते हैं। उनमें लोक-संग्रह का भाव पूरा पूरा था। उनकी दृष्टि लोक विस्तृत थी। जान समाज के बीच- या कम से कम हिन्दू समाज के बीच-परस्पर सहानुभूति और सम्मान का भाव तथा सुखद व्यवस्था स्थापित देखने का अभिलाष भी उनमें बहुत कुछ था। शिव और राम को एक दूसरे का उपासक बनाकर उन्होंने शैवों और वैष्णवों में भेद बुद्धि रोकने का प्रयत्न किया था। पर सूरदासजी का इन सब बातों की ओर ध्यान नहीं था।

    जो तुलसीदास जी के ग्रंथों को पढ़ता है, वह इन्हें देवताओं से उदासीन भी नहीं समझता, उनका शत्रु और द्रोही समझना तो दूर रहा। इतने पर भी कुछ लोगों ने वनवास के करुण-प्रसंग के भीतर अथवा राम के महत्व आदि की भावना में लीन करनेवाले किसी पद में “सूर स्वारथी” आदि शब्द देखकर यह कहना बहुत ज़रूरी समझा है कि “सूर ने तुलसी के समान देवताओं को गालियाँ नहीं दी है”। इस पर यही समझ कर रह जाना पड़ता है कि यह मत विलक्षण्य के महत्व का युग है।

    सूर की विशेषताओं पर स्थूल रूप से इतना विचार करने के उपरान्त अब हम उनकी उस संगीत-भूमि में थोड़ा प्रवेश करते हैं, जो भ्रमरगीत के नाम से प्रसिद्ध है और जिसमें वचन की भाव-प्रेरित वक्रता द्वारा प्रेम-प्रसूत जाने कितनी अन्तर्वृत्तियों का उद्धाटन परम मनोहर है। भ्रमरगीत का प्रसंग इस प्रकार आया है। श्रीकृष्ण अक्रूर के साथ कंस के निमंत्रण पर मथुरा गए और वहाँ कंस को मारकर अपने पिता वसुदेव का उद्धार किया। इसी बीच में कुव्जा नाम की कंस की एक दासी को उसकी सेवा से प्रसन्न होकर उन्होंने अपने प्रेम की अधिकारिणी बनाया। जब अवधि बीत जाने पर भी वे लौटकर गोकुल आए, तब नंद, यशोधा तथा सारे ब्रजवासी बड़े दुखी हुए। उन गोपियों के विरह का क्या कहना है जिनके साथ उन्होंने इतनी क्रीड़ाएँ की थीं। बहुत दिनों पीछे श्रीकृष्ण ने ज्ञानोपदेश द्वारा गोपियों को समझाने बुझाने के लिये अपने सखा उद्धव को ब्रज में भेजा। उद्धव ही को क्यों भेजा? कारण यह था कि उद्धव को अपने ज्ञान का बड़ा गर्व था, प्रेम या भक्ति मार्ग को वे उपेक्षा करते थे। कृष्ण का उन्हें गोपियों के पास भेजने में यह अभिप्राय था कि वे उनकी प्रीति की गूढ़ता और तन्मयता देखकर शिक्षा-ग्रहण करें और सगुण भक्ति मार्ग की सरसता और सगुमता के सामने उनका ज्ञान गर्व दूर हो----

    जदुपति जानि उद्धव रीति।

    जेहि प्रगट निज सखा कहियत करव भाष अनीति।।

    बिरह-दुख जहँ नाहिं जामन, नाहिं उपजतं प्रेम।

    रेख, रूप बरन जाके यह धरयो वह नेम।

    त्रिगुण तन करि लखत हमको, ब्रह्म मानत और।

    बिना गुण क्यो मुहुति उधरै, यह करत मन डौर।।

    बिरह-रस के मंत्र कहिए क्यों चलै संसार।

    कछु कहत यह एक प्रगटत, अति भरयो हंकार।

    प्रेम भजन नेकु याके, जाय क्यों समझाय?

    सूर प्रभु मन यहै आनी, ब्रजहि देहुँ पठाय।।

    “त्रिगुण तन करि लखत हमको, ब्रह्म मानत और” इसी भ्रम का निवारण कृष्ण चाहते थे। जगत से ब्रह्म को सदा अलग मानना, जगत की नाना विभूतियो में उसे स्वीकार करना भक्ति-मार्गियों के निकट बड़ी भारी भ्रान्ति है। “अहमात्मा गुडाकेश, सर्वभऊताशयस्थित” इस भगवद्वाक्य को मन में बैठाए हुए भक्जन गीता के इस उपदेश के अनुसार भगवान् के व्यक्त स्वरूप की ओर आकर्षित रहते हैं---

    क्लेशोअधिकतरस्तें पामव्यक्तासक्त चेतसाम्।

    अव्यक्ताहि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।।

    उद्धव बात बात में “एक प्रगटत”- अद्वैतवाद का राग अलपाते थे। पर “विरह-रस के मंत्र कहिए क्यों चल सकता है?”- रस-विहीन उपदेश से लोक-व्यवहार कैसे चल सकता है? रस-विहीन उपदेश किस प्रकार असर नहीं करते, यही दिखाने को भ्रमरगीत की रचना हुई है।

    उद्धव के ब्रज में दिखाई पड़ते ही सारे ब्रजवासी उन्हें घेर लेते है। वे नंद यशोदा से सँदेसा कह चुकने के उपरान्त गोपियों की ओर फिरकर कृष्ण के संदेश के रूप में ज्ञान-चर्चा छेड़ते हैं। इसी बीच में एक भौंरा उड़ता उड़ता गोपियों के पास आकर गुनगुनाते लगता है----

    यहि अंतर मधुकर इक आयो।

    निज सुभाव अनुसार निकट होइ सुंदर शब्द सुनायो।।

    पूछन लागी ताहि गोपिका “कुपजा तोहिं पठायो।

    कैधौं सूर श्यामसुन्दर को हमैं सँदेसो लायो?”।।

    फिर तो गोपियाँ मानो उसी भ्रमर को संबोधन करके जो जो जी में आता है, खरी खोटी, उलटी सीधी सब सुना चलती हैं। इसी से इस प्रसंग का नाम “भ्रमरगीत” पड़ा है। कभी गोपियाँ उद्धव का नाम लेकर कहती हैं, कभी उसी भ्रमर को संबोधन करके कहती हैं, विशेषतः जब पुरुष और कठोर बचन मुँह से निकालना होता है। श्रृंगार रस का ऐसा सुन्दर “उषालैम्भ काव्य” दूसरा नहीं है।

    उद्धव को देखते ही गोपियों को सम्बन्ध-भावना के कारण कृष्ण के मिलने का सा सुख हुआ----

    ऊधो! पालागौं भले आए।

    तुम देखे जनु माधव देखे, तुम त्रय ताप नसाएँ।।

    प्रिय के सम्बन्ध से बहुत सी वस्तुएँ प्रिय लगने लगती हैं। यही बात यहाँ अपने स्वाभाविक रूप में दिखाई गई है। इसी को बढ़ाकर बिहारी कुछ और दूर तक ले गए हैं। उनकी नायिका को नायक के भेजे हुए पंखे की हवा लगने से उलटा और पसीना होता है। यह एक तमाशे की बात जरूर हो गई है----

    हित करि तुम पठयो, लगे वा बिजना की बाय।

    टरी तपनि तन की तऊ चली पसीने न्हाय।।

    सूर ने भी प्रिय की वस्तु पाकर “सात्विक” होना दिखाया है, पर तमाशे के रूप में नहीं, अत्यन्त स्वाभाविक और मर्मस्पर्शी रूप में तथा अत्यन्त अर्थ प्राचुर्य्य के साथ। उद्धव के हाथ से श्याम की पत्री राधा अपने हाथ में लेती हैं और-----

    निरखत बंक श्यामसुन्दर के बार बार लगावति छाती।

    लोचन-जल कागद-मसि मिलि कै झै गइ श्याम श्याम की पाखी।।

    आँसुओं से भींगकर स्याही के फैलने में सारी चिट्टी काली हो गई, इससे कृष्ण-सम्बन्ध की भावना के कारण प्रबल प्रेमोद्रेक सूचित हुआ। आगे देखिए तो इस प्रेमोद्रेक की तीव्रता व्यंजित करने के लिये अंक और श्याम शब्दों में श्लेष कैसा काम कर रहा है। पत्री पाकर वैसा ही प्रेम उमड़ा, जैसा कृष्ण को पाकर उमड़ता। कृष्ण की पत्री की उनके लिये कृष्ण हो गई। जैसे वे कृष्ण के अंत (गोद अर्थात शरीर) को पाकर आलिंगन करती, वैसे ही कृष्ण के लिखे अंक (अक्षर) देखकर वे पत्री को बार बार हृदय से लगाती हैं। यहाँ भावाधिपति सूर ने भाव का और आधिक्य व्यंजित करने के लिये शब्द-साम्य की सहायता ऐसे कौशल से ली है कि एक बार शब्दों का साधारण अर्थ (अक्षर और काला) लेने से जिस भाव की अधिकता सूचित हुई, फिर आगे उनका श्लिष्ट अर्थ (गोद और श्रीकृष्ण) लेने से उसी भाव की और अधिकता व्यंजित हुई। इससे जो लाघव हुआ है- मज़मून में जो चुस्ती आई है- वह तो है ही, साथ ही प्रेम के अन्तर्भूत एक मानसिक दशा के चित्र का रंग कैसा चटकीला हो गया है। शब्द-साम्य को उपयोग में लानेवाला सच्चा कवि कौशल यही है।

    यदि केशवदास के ढंग पर सूर भी यहाँ उक्त शब्द-साम्य को लेकर कृष्ण और पत्री की तुलना पर ज़ोर देने लगते-कहते कि पत्री मानो कृष्ण ही है, क्योंकि वह भी श्याम है और उसके भी अंक (वक्षस्थल) है- तो काव्य की रमणीयता कुछ भी आती। राधा को वह पत्री जो कृष्ण के समान लग रही है, वह सादृश्य या साधर्म्य के कारण नहीं, बल्कि सम्बन्ध-भावना के कारण, कृष्ण के हाथ की लिखी होने के कारण। केवल शब्दात्मक साम्य को लेकर यदि हम किसी पहाड़ को कहे कि यह बैल है, क्योंकि इसे भी श्रृंग है, तो यह काव्य-कला तो होगी, और कोई कला हो तो हो। क्या ज़रूरत है कि शब्दो की जितनी कलाबाज़ियाँ हों, सब काव्य की कहलावें?

    गोपियाँ कहती हैं कि हम ने इतने सँदेसे भेजे हैं कि शायद उनसे मथुरा के कूएँ भी भर गए होंगे, पर जो सँदेसा लेकर जाता हैं, वह लौटता नहीं----

    सँदेसनि मधुबन कूप भरे।

    जो कोउ पथिक गए हैं ह्याँ तें फिरि नहिं गवन करे।।

    कै वै श्याम सिखाय समोधे, कै वै बीच मरे?

    अपने नहिं पठवत नँदनंदन हमरेउ फेरि धरे।।

    मसि खूँटी, कागर जल भीजे, शर दव लागि जरे।

    प्रिय से सम्बन्ध रखनेवाले व्यक्तियों या वस्तुओं का प्रिय लगना ऊपर दिखा आए हैं। इस पद में प्रेमाभिलाष की पूर्ति में जो वस्तुएँ बाधक होती हैं, सहायक नही होतीं या उपयोग में नहीं आतीं, उनके ऊपर बड़ी सुन्दर भल्लाहट स्त्रियों की स्वाभाविक बोली में प्रकट की गई है। पथिक सँदेसा लेकर गए, पर लौटे, जाने कहाँ मर गए! कोई चिट्ठी भी नहीं आती है। मथुरा भर में स्याही ही चुक गई, या कागज़ भींगकर गल गए अथवा सरकंडों में (जिनकी कलम बनती है) आग लग गई, वे जल गए?

    जो कोई पथिक उधर से होकर निकलता है, उसे रोककर गोपियाँ अपना सँदेसा कहने लगती है। अब तो यह दशा है कि इसी डर से पथिकों ने उधर से होकर जाना ही छोड़ दिया है---

    सूरदास सँदेसन के डर पथिक वा मग जात।

    ज्यों ही उद्धव अपना ज्ञान-संदेश सुनाना आरंभ करते हैं, त्यों ही गोपियाँ चकपकाकर पूछने लगती हैं----

    हम सों कहत कौन को बातें?

    सुनि, ऊधो! हम समझति नाहीं फिरि बूझति हैं तातें।

    को नृप भयो, कंस किन मारगे, को बसुयौ सुत आहि।

    यहाँ हमारे परम मनोहर जीजत है मुख चाहि।।

    गापियों को यह चकपकाहट उद्धव की बात की असंगति पर होती है। जिसने ऐसा सँदेसा भेजा है, वह जाने कौन है। परम प्रेमी कृष्ण तो हो नहीं सकते। इसका तात्पर्य्य यह नहीं कि वे सचमुच उद्धव को कृष्ण का दूत नहीं समझ रही हैं। वे केवल विश्वास करने की अपनी अतत्परता और आश्चर्य्य मात्र व्यंजित कर रही हैं। कृष्ण के सम्बन्ध से उद्धव भी गोपियों को प्रिय और अनोखे लग रहे हैं। इसी से बीच बीच में वे उन्हें बनाने और उनसे परिहास करने लगती हैं। वे कृष्ण पर भी फबती छोड़ती हैं और उद्धव को भी बनाती हैं----

    ऊधो! जान्यो ज्ञान तिहारो।

    जानै कहा राजगति लीला अंत अहीर बेचारो।।

    आवत नाहिं लाज के मारे, मानहु कान्ह खिसान्यो।

    हम सबै अयानी, एक सयानी कुबजा सों मन मान्यो।।

    ऊधो जाहु बाहँ धरि ल्याओ सुंदर श्याम पियारो।

    ब्याहौ लाख, धरौ दस कुबरी, अंतहि कान्ह हमारो।।

    परिहास के अतिरिक्त अंतिम चरण मे प्रेम की उच्च दशा के औदार्य्य की कैसी साफ झलक है।

    उद्धव कहते जाते हैं, पर गोपियों के मन में यह बात समाती ही नहीं कि यह कृष्ण का सँदेसा है। कभी वे कहती हैं- “ऊधो! जाय बहुरि सुनि आवहु कहा कह्यो है नंदकुमार,” कभी कहती हैं- “श्याम तुम्हैं ह्याँ नाहिं पठाए, तुम हौ बीच भुलाने।” जब उद्धव बकते ही जाते है, तब वे और भी बनाती हैं, कहती हैं कि जरा अपने होश की दवा करो----

    ऊधो! तुम अपनो जतन करौ।

    हित की कहत फुहित की लागै, किन बेकाज ररौ।।

    जाय करो उपचार आपनो हम जो कहत हैं जी की।

    कछू बीच में वे खिझला भी उठती हैं, और कहती हैं कि तुम्हारे मुँह कौन लगे, तुम तो सनक गए हो। वहाँ सिर खाने लगे थे, तभी तुम्हें यहाँ भेजकर श्रीकृष्ण ने अपना पल्ला छुड़ाया---

    साधु होय तेहि उत्तर दीजै तुमसों मानौ हारि।

    याही तें तुम्हें नँदनदन जू यहाँ पठाए टारि।।

    फिर चित में कुछ विनोद वृत्ति के जाने पर वे कहती हैं- “भाई! सृब आए। इस दुख दशा में भी अपनी बेढ़ब बातों से एक बार लागों को हँसा दिया----

    ऊधो! भली करी तुम आए।

    ये बातें कहि कहि या दुख में ब्रज के लोग हँसाए।।

    प्रेम के जिस हास क्रीड़ामय स्वरूप को सूर ने लिया है, विप्रलग्भ दशा के अश्रु और दीर्घ निश्वास के बीच बीच में भी बराबर उसकी क्षणिक और क्षीण रेखा झलक जाती है। श्याम गोपियों के पास नहीं हैं, उनके सखा ही संयोग से उनके बीच फँसे हैं, जो सदा उनके पास रहते हैं। बस यही सम्बन्ध भावना कृष्णा के संदेश की विलक्षणता की भावना के साथ मिलते ही रह रहकर थोड़ी देर के लिये वृत्ति को विनोदमयी कर देती हैं----

    ऊधो हम आज भई बड़ भागी।

    विसरे सब दुख देखत तुमका श्यामसुंदर हम लागीं।।

    ज्यों दर्पन मथि दृग निरखत जहँ हाय तहाँ नहिं जाई।

    त्योंही सूर हम मिली साँवरे विरह बिथा बिसराई।।

    मध्यस्थ द्वारा संयोग-सूत्र का कैसा सुंदर स्पष्टीकरण सूर ने किया है। जो सम्बन्ध भावना बीच बीच में गोपियों की वृत्ति विनोदमयी कर देती हैं, वह कभी कभई स्पष्ट शब्दों में निर्दिष्ट होकर सामने जाती है। और पाठक उसे पहचान सकते हैं, जैसे---

    मधुकर! जानत है सब कोऊ।

    जैसे तुम मीत तुम्हारे, गुननि निपुन हौ दोऊ।।

    पाके चोर, हृदय के कपटी तुम कारे वोऊ।

    उद्धव को जो पक्के चोर और कपटी प्रेम के ये संबोधन मिल रहें हैं, वह कृष्ण के संसर्ग के प्रसाद से।

    ऐसेई जन दूत कहावत।

    ऐसी परकृति परति छाहँ की जुवतिन जोग बुझावत।।

    गोपियाँ कहती हैं कि बैठे बैठे योग और ज्ञान का सँदेसा भेजनेवाले हैं, यह हम अच्छी तरह जानती हैं----

    हम तौ निपट अहीरि बावरी जोग दीजिए ज्ञानिन।

    कहा कथत मामी के आगे जानत नानी नानन।।

    कृष्ण की सम्बन्ध-भावना स्थान को भी कुछ अनुरंजक रूप प्रदान करती है---

    बिलग जनि मानहु, ऊधो प्यारे!

    वह मथुरा काजर की कोठरि जे आवहि ते कारे।।

    तुम वारे सुफ्लक-सुत कारे, कारे मधुप भँवारे।

    गोपियाँ कहती है- ‘तुम्हारा दोष नहीं। वह स्थान ही ऐसा हो रहा है जहाँ से तुम रहे हो। एक कृष्ण से वहाँ ऐसी कृष्णता छा रही है कि तुम काले हो, अक्रूर जो आए थे, वे भी ऐसे ही काले थे, और यह घूमता हुआ भौरा भी (जो बहुत दिन वहाँ रहा होगा, घूमता फिरता कभी जा पड़ा होगा) वैसा ही काला है।’

    उद्धव अपने ज्ञानोपदेश की भूमिका ही बाँध रहे थे कि गोपियों के मन में कुछ कुछ शंका होने लगी---

    मधुकर! देखि श्याम तन तेरो।

    हरिमुख की सुनि मीठी बातैं डरपत है मन मेरो।।

    अब लौं कौन हेतु गावत है हम्ह आगे यह गीत।

    सूर इते सों गारि कहा है जौ पै बिगुन अतीत।।

    त्रिगुणातीत होंगे, हमे इससे क्या? तू क्यों बार बार यह कहता है? कुछ भेद जान नहीं पड़ता।

    उद्धव को कभी एक भोला भाला आदमी ठहराकर गोपियाँ अनुमान करती हैं कि कहीं श्रीकृष्ण ने यह सँदेसा इनके हाथ भेजकर हँसी की हो और ये इसे ठीक मानकर बक बक कर रहे हो। यही पता लगाने के लिये वे उद्धव से पूछती है- ‘अच्छा, यह तो बताओ कि जब वे तुम्हे सन्देश कहकर भेजने लगे थे, तब कुछ मुस्कराए भी थे?’

    ऊधो! जाहु तुम्हैं हम जाने।

    साँच कहो तुमकौ अपनी सौं, बूझत बात निदाने।

    सूर श्याम जब तुम्हैं पठाए तब नेकहु मुसकाने?

    यह अनुमान या वितर्के रागात्मिका वृत्ति से सर्वथा निर्लिप्त शुद्ध बुद्धि की क्रिया नहीं है। संचारी मति के समान यह भी भाव प्रेरित है, हृदय की रागद्वेष वृत्ति से सम्बन्ध रखता है। किसी बात को मानने मानने की भी रुचि हुआ करती है। कृष्ण के प्रेम को गोपियाँ छोड़ना नहीं चाहतीं, अतः यह बात मानने को उनका जी नहीं करता कि कृष्ण ने ऐसा अप्रिय सन्देश भेजा होगा। जिस बात को कोई मानना नहीं चाहता, उसको मानने के वह अनेक रास्ते ढूँढ़ता है। बस, गोपियों के अंत करण की यही स्थिति ऊपर के पद में दिखाई गई है।

    उद्धव के ज्ञान-योग की गोपियाँ कितनी कद्र करती हैं, अब थोड़ा यह भी देखिए। जो ऐसी चीज ढोए फिरता है, जिसे बहुत से लोग बिल्कुल निकम्मी समझ रहे हैं, उसेवे बेवकूफ समझकर ही नहीं रह जाते, बल्कि उसे बनाने में भी कभी कभई पूरी कल्पना खर्च करते हैं। बेवकूफी पर हँसने का रवाज बहुत पुराना है। लोग बना बनाया बेवकूफ पाकर हँसते भी हैं और हँसने के लिये बेवकूफ बनाते भी हैं। हास की प्रेरणा ही कल्पना को मूर्ख का स्वरूप जोड़ने और वाणी को कुछ शब्द-रचना करने में तत्पर करती है। गोपियाँ कुछ कुछ इसी प्रेरणावश उद्धव से नीचे लिखी बात उस समय कहती हैं, जब वे घबराकर उठने को तैयार होते हैं----

    उद्धव! जोग बिसरी जनि जाहु।

    बाँधहु गाँठ कहूँ जनि छूटै, फिरि पाछे पछिताहू।।

    ऐसी वस्तु अनूपम, मधुकर! मरम जानै और।

    ब्रजवासिन के नाहिं काम की, तुम्हारे ही है ठौर।।

    “देखना, अपना योग कहीं भूल जाना। गाँठ में बाँध रखो, कहीं छूट जाय, तो फिर पीछे पछताओ। ऐसी वस्तु जिसका मर्म सिवा तुम्हारे या तुम्हारे ऐसे दो चार फालतू दिमाग़वालों के और कोई जान ही नहीं सकता, वह ब्रजवासियों के किसी काम की नहीं। ऐसी फालतू चीज़ के लिये तुम्हारे ही यहाँ जगह होगी, यहाँ नहीं है”। जिसके सखा के दर्शन से विरह से मुरझाई हुई गोपियों में इतनी चपलता गई कि वे लड़को की तरह चिढ़ाने को तैयार हो गई, उसके दर्शन से उनमे कितनी सजीवता आती, यह समझने की बात है। ज्ञानयोग पर भी कैसी मीठी चुटकी है। जिसे केवल एक आध आदमी समझते हैं, वह वस्तु सब के काम की नहीं हो सकती। उद्धव जब उसे गले लगाते हैं, तब गोपियों का भाव बदलता है और वे उन्हें सीधे सादे बेवकूफ नहीं लगते, बल्कि एक ठग या धूर्त्त के रूप में दिखाई पड़ते हैं। यह भावान्तर उनकी कल्पना को कैसा चित्र खड़ा करने में लगाता है, देखिए--- ........................

    पेज नं. 80 उपलब्ध नहीं है।

    अँगरेजी पुस्तक Civilization, its Canses and Cure में वर्तमान समय की उस वैज्ञानिक प्रवृत्ति का विरोध किया है, जिसमें बुद्धि क्रिया ही सब कुछ मानी गई है, मनुष्य के हृदय-पक्ष तथा स्वानुभूति-पक्ष का एक दम तिरस्कार कर दिया गया है। उसने शब्दबोध की प्रणाली को अज्ञान प्रणाली कहा है। यही पक्ष तुलसी, सूर आदि भक्तों का भी रहा है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने स्पष्ट कह दिया है कि अज्ञान ही के द्वारा- शब्दबोध के ही सहारे- तो ज्ञान की बातें कही जाती हैं। वे ललकारकर कहते हैं- “ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, सो गुरु, तुलसी दास।”

    जब उद्धव की बकवाद बंद नहीं होती, वे ऐसी बातें बकते ही जाते हैं जो गोपियों को बे सिर पैर की लगती हैं, जिनका कुछ स्पष्ट अर्थ नहीं जान पड़ता, तब वे ऊबकर झुँझला उठती हैं। कहती हैं- “तुझसे कौन सिरपंच्ची करे- “ऐसी को ठाली बैठी हैतोसों मूड़ खपावै” कह दिया कि तोरा सिर पटकना व्यर्थ है।”

    कत श्रम करत, सुनत को ह्याँ है? होत ज्यों बन को रोयो।

    सूर इते पै समझत नाही, निपट दई को खोयो।।“

    “निपट दई को खोयो”- स्त्रियों की झुँझलाहट के कैसे स्वाभाविक बचन है! अंत में वे उद्धव पर इस प्रकार झल्ला उठती हैं----

    (क) ऊधो! राखति हौं पति तेरी।

    ह्याँ ते जाहु, दुरहु आगे तें, देखति आँखि बरति हैं मेरी।।

    ते तौ तैसेइ दोउ बनें हैं, वै अहीर, वह कंस की चेरी।

    (ख) रहु रे मधुकर मधु-मतवारे!

    कहा करौं निर्गुन लैकै हौं? जीवहु कान्ह हमारे।।

    क्या यह कहने की आवश्यकता है कि इस सारी झुँझलाहट और झल्लाहट (उग्रता) की तह में प्रेम की एक अखंड धारा बह रही है?

    यह झल्लाहट बराबर नहीं रहती। थोड़ी देर में शान्त भाव जाता है और मति का उदय दिखाई पड़ता है----

    (क) ऊधो! जो तुम हमहिं सुनायो।

    सो हम निपट कठिनाई करिकै या मनै को समझायौ।।

    जुगुति जतन करि हमहुँ ताहि गहि सुपथ पथ लौं लायो।

    भटकि फिरयो बोहित के स्वग ज्यों, पुनि किरि हरि पै आयो।।

    (ख) मधुकर! हम जो कहौ करैं।

    पठयो है गोपाल कृपा कै, आयसु तें टरैं।।

    रसना वारि फेरि नव खँड कै दैं निर्गुन के साथ।

    इतनी तनक विलग जनि मानहु, अँखियाँ नाहीं हाथ।।

    ध्यान रखना चाहिए कि यह मति संचारी भाव है, बुद्धि की स्वतंत्र निर्लिप्त क्रिया नहीं है। यह कृष्ण के प्रेम का आधार लिए हुए है। उद्धव का उपदेश गोपियों के मन में बैठा हो, यह बात नहीं है। वे बड़ी मुश्किल से उसे मानने का जो प्रयत्न कर रही हैं, वह केवल इस ख़याल से कि कृष्ण ने कहलाया है और उनके खास दोस्त कह रहे हैं। यह ख़याल आते ही फिर तो वे अपनी विवशता का अनुभव मात्र सामने रखती है। वे कहती हैं कि ज़बान तो कहो हम अभी निर्गुण के हवाले कर दे, तुम्हारी तरह मुँह से निर्गुण निर्गुण बका करें, या ज़बान ही कटा डालें- सब दिन के लिये मौन हो जायँ। पर आँखों से हम लाचार हैं, वे दर्शन की लालसा नहीं छोड़ सकतीं। कभी कभी उनकी वृत्ति अत्यन्त दीन और नम्र हो जाती है और उन के मुँह से ऐसे वचन निकलते हैं---

    (क) ऊधो! हम हैं तुम्हारी दासी।

    काहे को कटु वचन कहत हौ, करत आपनी हाँसी।

    (ख) अपने मन सुरति करत रहिबी।

    ऊधो! इतनी बात श्यमा सों समय पाय कहिबी।

    घोष बसत की चूक हमारी कछू जिय गहिबी।।

    कहाँ वह उग्रता और कहाँ यह अदब से भरी दीनता!

    ऐसी ही दशा के बीच राधा अपनी सखी से अपनी उस विह्वलता वा मोह की बात कहती हैं जिसके कारण उद्धव के आगे कुछ कहते नहीं बनता---

    सँदेसो कैसे कै अब कहौं?

    इत नैनन्ह या तनको पहरो कब लौं देति रहौ?

    जो कछु विचार होय उर अंतर रचि पचि सोचि गहौ।

    मुख आनत, ऊधो तन चितवत सो विचार, हौ।।

    इस प्रकार वे अपनी दुःख-दशा कहते कहते थक जाती हैं। फिर वे सोचती हैं कि हमारी दशा पर कृष्ण कदाचित् उतना ध्यान दें, इससे वे नंद और यशोदा की व्याकुलता का वर्णन करती हैं, गायों का दुःख सुनाती हैं कि कदाचित् उन्हीं का खयाल करके वे एक बार जायँ---

    ऊधो! इतनी कहियो जाय।

    अति कृश गात भई हैं तुम बिनु बहुत दुखारी गाय।।

    जल-समूह बरसत अँखियन तें, हूँकति लीन्हें नावँ।

    जहाँ-जहाँ गोदोहन करते ढूँढ़ति सोइ सोइ ठावँ।।

    कृष्ण किसी प्रकार आवें, बस यही अभिलाष सब के ऊपर है। वे किसी के खयाल से आवे, आवें तो सही। बदले में कृष्ण भी वैसा ही प्रेम रखें, इतनी बड़ी बात की आशा गोपियों से अब नहीं करते बनती। अब तो वे बहुत थोड़े में सन्तुष्ट होने को तैयार हैं। केवल उनका दर्शन पा जायँ, बस। यह तोप-वृत्ति नैराश्य-जन्म है। नीचे के पद में जो क्षमा या उदारता है, वह भी अभाव के दुःख की ही ओर से आती हुई जान पड़ती है---

    ऊधो! कहियो यह संदेस।

    लोग कहत कुब्जा-रस माते, तातें तुम सकुचौ जनि लेस।।

    जिसके रहने से जीवन की धारा ही खंड़ित जान पड़ती है, उसके दोषो का ध्यान कैसा? वह आवे, चाहे दो चार और दोष भी साध लगाता आवे। यह चीज़ की वह कदर है जो उसके रहने पर मालूम होती है। वियोग के अन्तरग्त यह हृदय की बड़ी ही उधार दशा है। इसमें दृष्टि दोषों की ओर जाती ही नहीं। यह दशा दूसरे के दोषों को ही आँख के सामने से नहीं हटाती, बल्कि स्वयं अपने में भी दोष सुझाने लगती है। प्रेम द्वारा आत्म-शुद्धि का यह विधान कैसा अचूक है! राधा अपनी एक एक त्रुटि का स्मरण या कल्पना करती हैं और व्याकुल होती हैं----

    मेरे मन इतनी सूल रही।

    वै बतियाँ छतियाँ लिखि राखो जे नँदलाल कहीं।।

    एद दिवस मेरे गृह आए, मैं ही मयति दही।

    देखि तिन्हैं हौं मान कियो सो हरि गुसा गही।।

    कभी कभी उन्हें अपने प्रेम की ही कमी पर पछतावा होता है---

    कहाँ लगि मानिए अपनी चूक।

    बिनु गोपाल, ऊधो! मेरी छाती ह्वै गई द्वै टूक।।

    वियोग गोपियों के हृदय को कभी कभी कैसा कोमल, उदार और सहिष्णु कर देता है, इसकी कैसी अनुताप मिश्रित सूचना इस पद में है---

    फिरि ब्रज बसहु, गोकुलनाथ।

    बहुरि तुमहिं जगाम पठवौं गोधनन के साथ।।

    बरजौं माखन खात कबहूँ, देहुँ देन लुटाय।

    कबहूँ दैहौं उराहनो जसुमति के आगे जाय।।

    दौरि दाम देहुँगी, लकुटी जसुमति पानि।

    चोरी देहुँ उघारि, किए अवगुनन कहिहौं आनि।।

    करिहौं तुमसों मान हठ, हठिहौं माँगत दान।

    कहिहौंन मृदु मुरली बजावन, करन तुमसों गान।।

    कहिहौं चरनन देन जावक, गुहन बेनी फूल।

    कहिहौं करन सिंगार बट तर बसन जमुना-कूल।।

    भुज भूषनन जुत कंध धरि कै रास नाहिं कराउँ।

    हौं सँकेत निकुंज बसि कै दूति मुख बुलाउँ।।

    एक बार जो देहु दरसन प्रीति-पंथ बसाय।

    करौं चौंर चढ़ाय आसन नैन अँग अँग लाय।।

    देहु दरसन, नंदनंदन! मिलन ही की आस।

    सूर प्रभु की कुँवर छबि को मरत लोचन प्यास।।

    इन मर्म भरी भोली-भाली प्रतिज्ञाओं में जो अनुताप, अधीनता और त्याग के उग्दार हैं, उनका यह प्रेम-गर्वसूचक वाक्य “कहिहौं चरनन देन जावक” स्मर्यमाण विषय होने के कारण विरोधी नहीं होता। उक्त पद में ध्यान देने की सब से बड़ी बात यह है कि प्रेम अब किस प्रकार चपल क्रीड़ा-वृत्ति छोड़ शान्त आराधना के रूप में परिणत होने को तैयार हो गया है। यह प्रेम का भक्ति में पर्य्यवसान है। सुख-क्रीड़ा-त्याग रूप विरति पक्ष दिखाकर मानो सूर ने भक्ति मार्ग के शान्त रस का स्वरूप दिखाया है।

    आत्मोत्सर्ग की पराकाष्ठा वहाँ समझनी चाहिए, जहाँ प्रेमी निराश होकर प्रिय के दर्शन का आग्रह भी छोड़ देना है। इस अवस्था में वह अपने लिये प्रिय से कुछ चाहना छोड़ देता है और उसका प्रेम इस अविचल कामना के रूप में जाता है कि प्रिय चाहे जहाँ रहे, सुख से रहे, उसका बाल भी बाँका हो---

    जहँ जहँ रहौ राज करौ तहँ तहँ, लेहु कोटि सिर भार।

    यह असीस हम देति सूर मुनु न्हात खसै जनि बार।।

    विरहोन्माद की गहरी व्याकुलता के बीच में भी यह कामना बराबर बनी रहती है। गोपियों को वियोग में चंद्रमा तपते सूर्य्य, गाय-बछड़े बाघ और भेड़िए जान पड़ रहे हैं। वे उद्धव से कहती है- ‘तुम तो यहाँ की दशा देख हो रहे हो, कह देना कि जब तक ये सब आफ़तें यहाँ से टल जायँ, तब तक वहीं रहे, ऐसी हालत में यहाँ आवें’—

    ऊधो! इतनी जाय कहौ।

    सब बल्लभी कहति हरि सों ये दिन मधुपुरी रहौ।।

    आज कालि तुमहु देखत हौ तपत तरनि सम चंद।

    सुंदर श्याम परम कोमल तनु, क्यों सहिहैं नँदनद।।

    मधुर मोर पिक पुरुष प्रबल अति बन उपवन चढ़ि बोलत।

    सिंह बृकन समगाय बच्छब्रज बीथिन बीथिन डोलत।।

    तुम तौ परम साधु कोमलचित जानत हौ सब रीति।

    सूर श्याम को क्यों बोलैं ब्रज बिन टारे यह ईति।।

    विरही घोर दुख सहता हुआ भी यह कभी मन में नहीं लाता कि यह प्रेम दूर हो जाता, तो अच्छा था। कोई मनशास्त्री आकर कहे- अच्छा, हम वह प्रेम ही मत्रबल से उड़ाए देते हैं, जो सारे बखेडे की जड़ है, तो कोई वियोगी शायद ही तैयार होगा- चाहे वह दुनिया भर से कहता फिरे कि प्रीति करि काहू सुख लह्यो।‘ और दुखो से वियोगम्दख में यही विशेषता है। वियोगी रस्सी तुड़ाकर प्रेम के बाड़े के बाहर नहीं भागना चाहता। गोपियों प्रेमक्षेत्र के बाहर की किसी वस्तु के प्रति कैसी उपेक्षा या लापरवाई प्रकट करती हैं-----

    मधुकर! कौन मनायो मानै?

    सिखवहु तिनहि समाधि की बातैं जे हैं लोग सयाने।

    हम अपने ब्रज ऐसेइ बसिहैं बिरह-बाथ बौराने।।

    वे उद्धव को उलटा समझाती हैं कि विरह से भी प्रेम की पुष्टि होती है, वह पक्का होता है—

    ऊधो! बिरहौ प्रेम करै।

    ज्यों बिनु पुट पट गहै रंगहि, पुट गहे रसहि परै।

    जौ आवों घट दहत अनल तनु तौ पुनि अमिय भरै।।

    इसे प्रेम-सिद्धान्त का उपदेश मात्र समझकर छोड़िए, भाव के स्वरूप पर भी ध्यान दीजिए। यह प्रतिकूल स्थिति की अनिवार्य्यता से उत्पन्न आत्म-समाधान की स्वाभाविक वृत्ति है। एक अफीमची घोड़ी पर सवार कहीं जा रहे थे। जिधर उन्हें जाना था, उधर का रास्ता छोड़ घोड़ी दूसरी ओर चलने लगी। जब बहुत मोड़ने पर भी वह मुड़ी, तब उन्होंने बाग ढीली करके कहा- “अच्छा, चल! इधर भी मेरा काम है।” इसी प्रकार की अन्तर्वृत्ति इस वाक्य से भी झलकती है---

    हम तौ दुहूँ भाँति फल पायो।

    जौ ब्रजनाथ मिलैं तौ नीको, नातरु जग जस गायो।।

    यह तो आत्म-समाधान हुआ। दूसरे की कोई बात मानने पर मन में कुछ खटक सी रहती है कि इसे दुख पहुँचा होगा। अपनी इस खटक को मिटाने के लिये दूसरे के समाधान की प्रवृत्ति होती है, जैसे-

    ऊधो! मनमानो की बात!

    जरत पतंग दीप में जैसे फिरि फिरि लपटात।

    रहत चकोर पुहुमि पर, मधुकर! ससि अकास भरमात।

    पेज नं. 88 उपलब्ध नहीं है।

    पालागौं कहियो मोहन सों जोग कूबरी दीजै।

    सूरदास प्रभु रूप निहारैं, हमरे सम्मुख कीजै।।

    वे कृष्ण जिन्होंने इतनी गोपियों का मन चुराया, एक साधारण कुबड़ी दासी के प्रेम-जाल में फँस गए, इस पर देखिए कैसी मीठी चुटकी और कैसा कुतूहलपूर्ण कृत्रिम सन्तोष प्रकाशित किया गया है—

    बरू वै कुबजा भलो कियो।

    सुनि सुनि समाचार ऊधो! मो कछुक सिरात हियो।।

    जाको गुन, गति, नाम, रूप हरि हारयो फिरि दियो।

    तिन अपनो मन हरत जान्यो, हँसि हँसि लोग जियो।।

    क्षुब्ध हृदय की कैसी भाव-प्रेरित वचन-रचना है! इसी प्रकार की वाग्विदग्धता और वक्रता (बाँकपन) उद्धव के निराकार शब्द पर आगे गोपियों की विलक्षण उक्ति में दिखाई पड़ती है। वे राधा के सम्बोधन करके कहती हैं----

    मोहन माँग्यो अपनो रूप।

    या ब्रज बसत अँचै तुम बैठी, ता बिनु तहाँ निरूप।।

    ‘कृष्ण का रूप तो तुम पी गई हो’, वह तुम्हारे हृदय में रह गया है (तुम निरंतर उनके रूप का ध्यान करती रहती हो) इससे वे वहाँ निरूप- बिना आकार के- हो रहे हैं। उद्धव के द्वारा उन्होंने अपना वही रूप माँग भेजा है कि निराकारता मिटे। तुम जो रात दिन उनके रूप का ध्यान करती रहती हो, उसे भी उद्धव छुड़ाने आए हैं, यह बात कितने टेढ़े ढंग से, किस वक्रता के साथ, प्रकट की गई है! वाणी ने यह वक्रता हृदय की प्रेरणा से, उठते हुए भावों की लपेट में, ग्रहण की है। इसकी तह में भाव-स्रोत छिपा हुआ है।

    ऐसे ही बाँकपन के साथ वे कृष्ण के रूप का ध्यान हृदय से निकलने का कारण बताती हैं—

    उर में माखनचोर गड़े।

    अब कैसहु निकसत नहिं, ऊधो! तिरछे है जो अड़े।।

    जो लंबी चीज़ किसी बरतन में जाकर तिरछी हो जायगी, वह बड़ी मुश्किल से निकलेगी। कृष्ण की मूर्ति का राधा जब ध्यान करने लगती हैं, तब उनकी त्रिमंगी मूर्ति ही ध्यान में आती है, इसी से वह मन में अँटक सी गई है, निकलती नहीं है।

    बंधन की जो वक्रता भाव-प्रेरित होती है, वही काव्य होती है। “वक्रोक्तिः काव्य जीवितम्” से यही वक्रता अभिप्रेंत है, वक्रोक्ति अलंकार नहीं। भावोद्रेक से उक्ति में जो एक प्रकार का बाँकपन जाता है, तात्पर्य्य-कथन के सीधे मार्ग को छोड़कर वचन जो एक भिन्न प्रणाली ग्रहण करते हैं, उसी की रमणीयता काव्य की रमणीयता के भीतर सकती है। भाव-प्रसूत वचन-रचना में ही भाव या भावना तीव्र करने की क्षमता पाई जाती है। कोई मनुष्य किसी को बड़ा बहादुर कह रहा है। दूसरे से सुनकर रहा नहीं जाता, वह कहता है- “हाँ! तभी बिल्ली देखकर गिर पड़े थे।” कहनेवाला सीधी तरह से कह सकता था- “वह बहादुर नहीं, भारी डरपोक है, बिल्ली देखकर डर जाता है।” पर इस सीधे वाक्य से उसका सन्तोष नहीं हो सकता था। भीरु को वीर सुनकर जो उपहास की उमंग उस के हृदय में उठी, उसने श्रोताओं को भी उपहासोन्मुख करने के लिये बिल्ली से डरने की बहादुरी के सबूत में पेश करा दिया गया। काव्य की उक्ति का लक्ष्य किसी वस्तु या विषय का बोध कराना नहीं, बल्कि उस वस्तु या विषय के सम्बन्ध में कोई भाव वा रागात्मक स्थिति उत्पन्न करना होता है। तार्किक जिस प्रकार श्रोता को अपनी विचार-पद्धति पर लाना चाहता है, उसी प्रकार कवि अपनी भाव-पद्धति पर।

    उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि विदग्घता वहीं तक काव्योंपयोगी हो सकती है, जहाँ तक वह भाव-प्रेरित हो- जहाँ तक उसका कारण कोई भाव या कम से कम कोई रागात्मक दशा हो। विदग्धता नायिका की वचन-विदग्धंता या क्रिया-विदग्घता में काव्य की रमणीयता इसी लिये होती है कि उसकी तह में रति-भाव वर्तमान रहता है। किसी पुराने चोर या चाई की विदग्घता का ब्योरेवार वर्णन काव्य के अंतर्गत नहीं सकता, क्योंकि उसमें रसात्मकता नही। सूर ने कई स्थलों पर बालक कृष्ण की वचन विदग्धता दिखाई है, जैसे----

    मैं अपने मंदिर के कोने माखन राख्यो जानि।

    सोई जाय तुम्हारे ढोटा लीनो है पहिचानि।।

    बूझी ग्वालिन घर में आयो, नेकु संका मानी।

    सूर श्याम यह उतर बनायो ‘चीटी काढ़त पानी’।।

    इस विदग्घता में जो रमणीयता है, वह इसी कारण कि इससे बाल-प्रकृति का चित्रण होता है और यह भय-प्रेरित है।

    अब सूर ने अपने सिद्धान्त पक्ष का जो काव्यात्मक निरूपण किया है, थोड़ा उसे भी दिखाकर इस प्रबन्ध को समाप्त करते हैं। उद्धव के ज्ञान-योग का पूरा लेकचर सुनकर और उसे अपने सीधे सादे प्रेममार्ग की अपेक्षा कहीं दुर्गम और दुर्बोध देखकर गोपियाँ कहती हैं----

    काहे को रोकत मारग सूधो?

    सुनहु, मधुप! निर्गुन-कंटक तें राजपंथ क्यों रूँधो?

    ताको कहा परेखो कीजै जानत छाँछ दूधो।

    सूर मूर अक्रूर गए लै ब्याज निवेरत ऊधो।।

    हम अपने प्रेम या भक्ति के सीधे और चौड़े राजमार्ग पर जा रही हैं। उस मार्ग में तुम ये निर्गुण-रूपी काँटे क्यों बिछाते हो? हमारा रास्ता क्यों रोकते हो? जैसे तुम्हारे लिये रास्ता है, वैसे ही हमारे लिये भी है। तुम अपने रास्ते चलो, हम अपने रास्ते चलें। एक दूसरे का रास्ता रोकने क्यों जाये? भक्ति और ज्ञान के सम्बन्ध में सर का यही मत समझिए। वे ज्ञान के विरोधी नहीं, भक्ति-विरोधी ज्ञान के विरोधी है। गोपियों से वे उद्धव की बातों के अन्तिम उत्तर के रूप में कहलाते हैं---

    बार बार ये बचन निवारो।

    भक्ति-विरोधई ज्ञान तिहारो।।

    मनुष्यत की पूर्ण अभिव्यक्ति रागात्मिका वृत्ति और बोध-वृत्ति दोनों के मेल में है। अतः इन में किसी का निषेध उचित नही। कोई एक की ओर मुख्यतः प्रवृत्त रहता है, कोई दूसरे की ओर। कुछ ऐसे पूर्ण-प्रज्ञ भी होते हैं, जिन में हृदय-पक्ष और बुद्धि-पक्ष दोनों की पूर्णता रहती हैं। वल्लभाचार्य्यजी ऐसे ही थे।

    सूरदासजी वल्लभाचार्य्यजी के शिष्यों में से थे। वल्लाभाचार्य्यजी ज्ञान-मार्ग की ओर तो वेदान्त की एक शाखा के प्रवर्तक थे और भक्ति-मार्ग की ओर एक अत्यन्त-प्रेमोपासक सम्प्रदाय के। वल्लभाचार्य्यजी का अद्वैतवाद शुद्धाद्वैत कहलाता है। रामानुजाचार्य्यजी के अद्वैत दो पक्षों (चित् और अचित्) से युक्त या विशिष्ट दिखाया था। वल्लभ ने यह विशिष्टता हटाकर ब्रह्म को फिर शुद्ध किया। उन्होंने निरूपित किया कि सत्, चित् और आनन्द स्वरूप ब्रह्म अपने इच्छानुसार इन तीनों स्वरूपों का आविर्भाव (विकास) और तिरोभाव करता रहता है। जुड़ जगत् भी ब्रह्म ही है, पर अपने चित् और आनन्द स्वरूपों का पूर्ण तिरोभाव किए हुए तथा सत् स्वरूप का कुछ अंशतः आविर्भाव किए हुए। चेतन जगत् भी ब्रह्म ही है जिसमें सत्, चित् और आनंद इन तीनों स्वरूपों का कुछ आविर्भाव और कुछ तिरोभाव रहता है। इस सिद्धान्त में मायात्मक जगत् मिथ्या नहीं माना गया है। माया ब्रह्म ही की शक्ति मानी गई है जो उसी की इच्छा से विभक्त होती है। जीव अपने शुद्ध ब्रह्म स्वरूप की तभी प्राप्त करता है, जब आविर्भाव और तिरोभाव दोनो मिट जाते हैं, और यह बात केवल ईश्वर के अनुग्रह से ही, जिसे पुष्टि या पोषण कहते हैं, हो सकती है। इस अनुग्रह की प्राप्ति के लिये वल्लाभाचार्य्य ने एक विस्तृत उपासना-पद्धति भी चलाई, जिसे पुष्टि-मार्ग कहते हैं। रामानुज और वल्लभ दोनों का मोज्ञ कैवल्य से भिन्न है। रामानुज की मुक्ति सारूप या सालोक्य मुक्ति है, वल्लभ की सायुज्य। जिस प्रकार वल्लभ की मुक्ति प्रेम के चरमानन्द की दशा है, उसी प्रकार उनके उपास्य भी प्रेम-मूर्ति कृष्ण हैं।

    जगत् के नाना रूपों में ब्रह्म की जो प्रत्यक्ष सत्ता दिखाई पड़ रही है, उसका जो सगुण स्वरूप चारो ओर भासित हो रहा है, उसका बार बार निषेध और निर्गुण ब्रह्म का अत्यंत सूक्ष्म निरूपण सुनकर गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि तुम क्यों व्यर्थ तिनके की ओट में इतना भारी दमकता हुआ सुमेरु छिपाने का उद्योग कर रहे हो----

    सुनिहै कथा कौन निर्गुन की, रचि पचि बात बनावत।

    सगुन-सुमेरु प्रगट देखियत, तुम तृन की ओट दुरावत।।

    उद्धव के ब्रह्म-निरूपण का कुछ भी आशय गोपियों की समझ में नहीं आता। वे पूछती हैं कि वह बिना रूप-रेखावाला तुम्हें कभी प्रत्यक्ष भी होता है, तुम्हें आकर्षित और मोहित भी करता है-----

    रेख रूप, बरन जाके नहिं ताको हमैं बतावत।

    अपनी कहौ, दरस वैसे को तुम कबहूँ हौ पावत?

    मुरली अधर धरत है सो, पुनि गोधन धन बन चारत?

    नैंन बिसाल, भौंह बंकट करि देख्यो कबहुँ निहारत?

    तन त्रिभंग करि, नटवर वपु घरि पीतांबर तेहि सोहत?

    सूरश्याम ज्यों देत हमैं मुख त्यों तुमको सोउ मोहत?

    बतावत पद में असंगतता किस प्रकार व्यंग्य है! जिसकी कोई रूप-रेखा वर्ण, उसे बताना या बताने का प्रयत्न करना असंगत ही है। बताई वह वस्तु जाती है जिसका कुछ विशिष्ट स्वरूप होता है। पूर्णतया स्पष्ट और निर्दिष्ट अर्थ व्यक्त होने पर कुछ शब्दों और वाक्यों को बार बार दुहारना ही तो किसी वस्तु का सम्यक् साक्षात्कार नहीं है। यदि किसी प्रकार मान भी ले कि तुमने उस निर्गुण ब्रह्म के स्वरूप को समझा है तो यह बताओ कि वह स्वरूप तुम्हारे मन को मोहता भी है, तुम्हे कुछ आकर्षित भी करता है? यदि नहीं, तो वह व्यवहार या वयासना के योग्य नहीं, केवल तर्क-वितर्क के लिये ही है।

    गोपियाँ आग्रह के साथ कहती हैं कि जिसमें तुम मन लगाने को कहते हो, उसकी कोई ऐसी बात या ऐसा लक्षण तो बताओ, जिस पर मन ठहराया जा सके। पहले तो देश और काल के बीच उसका कोई स्थान हमारे लिये निर्दिष्ट कर दो---

    निर्गुन कौन देस की बासी?

    मधुकर! हँसि समझाय, सौंह दै बूझति साँच, हाँसी।।

    स्त्रियों के कैसे स्वाभाविक हाव-भाव भरे ये वचन हैं- “कसम है, हम ठीक ठीक पूछती है, हँसी नहीं, कि तुम्हारा निर्गुन कहाँ का रहनेवाला है।” कुछ विनोद, कुछ चपलता, कुछ भोलापन, कुछ घनिष्टता- कितनी बातें इस छोटे से वाक्य से टपकती हैं!

    ज्ञान-मार्गी वेदान्ति में और दार्शनिकों के सिद्धान्तों की लोक में अव्यवहार्यता तथा उनके बेडौल और भड़कीले शब्दों के अर्थों की अस्पष्टता और दुर्बोधता आदि को और गोपियों की यह झुँझलाहट कैसा संकेत कर रही है----

    याकी सीख सुनै ब्रज को, रे!

    जाकी रहनि कहनि अनमिल अति, कहत समुझि अति थोरे।।

    ‘उसकी बात कौन सुने, जो कहता कुछ है और करता कुछ है, तथा जो ऐसी बातें मुँह से निकलता है जिनको खुद बहुत ही क्रम समझना है।’ पिछले कथन से सब के नहीं तो अधिकांश ब्रह्मज्ञान छाँटनेवालों के स्वरूप का चित्रण हो जाती है। वे बहुत से ऐसे बँधे हुए वाक्यों और शब्दों की झड़ी बाँधा करने है, जिनके अर्थ की स्पष्ट धारणा उन्हें कुछ भी नहीं रहती। बिना समझी हुई बातें बक्कर वे लोगों के बीच बड़े समझदार बना करते हैं।

    निर्गुण की नीरसता और सगुण की सरसता किस प्रकार अपने हृदय के सच्चे अनुभव के रूप में गोपियाँ उद्धव के सामने क्या, जगत के सामने रखती हैं—

    उधो कर्म कियो मातुल बधि मदिरा-मत्त प्रमाद।

    सूरश्याम एते अवगुन में निर्गुन तें अति स्वाद।।

    ज्ञान मार्ग का गोपियों ने तिरस्कार तो किया, पर यह सोचकर कि कहीं उद्धव का जी दुखा हो, वे उनका समाधान भी करती हैं। वे समझाती हैं कि ज्ञान मार्ग को हम बुरा नहीं कहती हैं, वह अत्यन्त श्रेष्ठ मार्ग हैं, पर अपनी रुचि को हम क्या करें? वह हमारे अनुकूल नहीं पड़ता। रुचि-भिन्नता दो समान वस्तुओं में भी भेद करके एक की ओर आकर्षित करती है और दूसरी से दूर रखती है----

    ऊधो! तुम अति चतुर सुजान।

    द्वै लोचन जो विरद किए श्रुति गावत एक समान।

    भेद चकोर कियो तिनहू में बिधू प्रीतम, रिपु भान।।

    उद्धव अपनी सी कहते जा रहे हैं कि बीच में कोयल बोल उठती है। गोपियाँ चट उद्धव का ध्यान ले जाती हैं-----

    ऊधो! कोकिल कूजत कानन।

    तुम हमको उपदेस करंत हौ भस्म लगावन आनन।।

    वह सुनो! कोयल कूक रही है। तुम तो हमें राख मलने को कह रहे हो, उधर प्रकृति क्या कह रही है, वह भी सुनो।

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