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मंझनकृत मधुमालती - श्री चंद्रबली पाँडे एम. ए.

नागरी प्रचारिणी पत्रिका

मंझनकृत मधुमालती - श्री चंद्रबली पाँडे एम. ए.

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    जहाँ तक हमें पता है, मंझन की मधुमालती का परिचय पहले पहल हिंदी संसार को स्वर्गीय श्री जगन्मोहन वर्म्मा ने सन् 1912 ई. में स्वसंपादित चित्रावली की भूमिका में लिखा- “जायसी ने पद्मावती में एक जगह अपने पूर्व के रचे हुए कितने ही ग्रंथों का उल्लेख किया है। आप लिखते हैं-----

    विक्रम धँसा पेम के बारा। सपनावति लग गयो पतारा।।

    सिरीभोज खँडरावति लागी। गगनपूर होइगा बैरागी।।

    राजकुँअर कंचनपुर गैऊ। मिरगावति लगि जोगी भैऊ।।

    साधा कुँअर मनोहर जोगू। मधुमालति कहँ कीन्ह वियोगू।।

    इससे अनुमान होता है कि जायसी के पहिले भी कवि लोग सपनावति, खँडरावति, मिरगावति, मधुमालति आदि ग्रंथ लिख चुके थे। इनमें मिरगावति का पता तो सभा को सन् 1900 में लग चुका है। इसका विवरण भी सभा की खोज की रिपोर्ट पृष्ठ 17,18 में लिखा है। उसके देखने से मालूम होता है कि मिरगावती को कुतुबन ने सन् 909 हिजरी में अर्थात् सन् 1502 ईस्वी में लिखा था। शेष अन्य ग्रंथों का पता आज तक सभा को नहीं लगा।

    मधुमालती की एक अपूर्ण प्रति मुझे इस वर्ष काशी के गुदड़ी बाजार में मिली। यह ग्रंथ 17 पन्ने से 133 पन्ने तक है। पुस्तक उर्दू लिपि में अत्यंत शुद्ध और सुंदर अक्षरों में लिखी हुई है। भाषा मधुर और पाँच पाँच चौपाई के बाद एक एक दोहा है। आदि और अंत के पृष्ठ होने से ग्रंथकर्ता के ठीक नाम ( सिवाय मंझन के जो उसका उपनाम है) और उसके निर्माण काल आदि का पता नहीं चलता। ग्रंथ के आदि के 39 पन्नों तक बायें पृष्ठ पर के किनारे पर दो-दो पंक्तियों में फ़ारसी भाषा में कुछ याददाश्त लिखे हैं जिसके अंत में 11 रबिउस्सानी सन् 1069 हिजरी (सन् 1658) की मिती है। याददाश्त में उसी समय की घटना का वर्णन है। इससे अनुमान होता है कि यह प्रति उस समय के पहिले की लिखी हुई है।“

    स्वर्गीय वर्माजी के उपरांत उनके आत्मज श्री सत्यजीवन वर्मा एम. ए. ने मंझन तथा मधुमालती की खोज की और अपने आख्यानक काव्य नामक निबंध में लिखा

    “मधुमालती की प्राप्त प्रति के अपूर्ण होने के कारण उसके ग्रंथ (ग्रंथकर्ता) के विषय मंं हमारा ज्ञान परिमित हो जाता है। केवल मधुमालती में दो स्थानों पर कवि ने मंझन शब्द का प्रयोग किया है, जिससे अनुमान होता है कि कवि का उपनाम मंझन था। यथा---

    (1) मंझन अमर मूरि जग बिरहा जनम जु पावै पास।

    निहचै अमर होइ जुग जुग सो, काल आवै पास।।

    (2) मंझन ने जग जनम लै बिरह कीया चाव।

    सूने घर का पाहुना ज्यों आया त्यों जाव।।

    कवि मंझन ने मधुमालती में एक स्थल पर लिखा है----

    देखिहिं सेन मलिक जी आई।

    इससे अनुमान होता है कि संभव है, किव मंझन अपने को मलिक भी लिखता रहा हो, जैसे मुहम्मद जायसी अपने को मलिक लिखते थे। कवि मंझन मुसलमान था और सूफ़ीमत का अनुयायी था, यह मधुमालती से भली भाँति प्रकट होता है।“

    यह तो हुई ग्रंथकर्ता की बात। अब निर्माणकाल का हाल सुनिए। वर्माजी उसी निबंध में आगे लिखते हैं-----

    “मृगावती का रचना-काल संवत् 1566 है। मधुमालती क्रमानुसार मृगावती के बाद आती है। अतः मधुमालती संवत् 1566 के पश्चात् रची गई होगी। अब यही मानना पड़ेगा कि मधुमालती का निर्माण-काल संवत् 1566 से 1595 (पदमावत का रचनाकाल) के बीच में है।“ (नागरीप्रचारिणी पत्रिका संवत् 1982 वि., पृ. 316)

    पिता-पुत्र ने मिलकर मधुमालती तथा मंझन के विषय में जो राय कायम कर ली थी वही हिंदी साहित्य के इतिहासकारों को भी मान्य थी। पर इधर श्री ब्रजरत्नदास जी बी. ए., एल्-एल. बी. ने उसे भ्रांत सिद्ध करने की कुछ गंभीर चेष्टा की है। उनका कथन है-----

    “मंझन हिंदू थे अतः उन्होंने मुसलमानी प्रथानुसार अपने काव्य के आरंभ में अपने समय के सम्राट् का उल्लेख नहीं किया है और ग्रंथ-निर्माण का समय दिया है। मधुमालती के मंगलाचरण से यह निर्गुण निराकार के माननेवाले ज्ञात होते है। इस प्रकार मधुमालती का रचना-काल संवत् 1650 वि. के लगभग आता है और इन्हें जायसी का पूर्ववर्ती मानना भ्रामक है और उसके लिए कोई दृढ़ आधार भी नहीं है।“ (हिंदुस्तानी (हिंदी) अप्रैल 1938 ई., पृ. 212)

    क्यों नहीं है, जरा यह भी उन्हीं से सुन ले। वह कहते हैं----

    “जायसी ने उक्त सब ग्रंथों को देखा था या उन सब के विषय में निश्चयपूर्वक सुना था, ऐसा कहना कहाँ तक ठीक माना जाय यह नहीं कहा जा सकता, पर यह अवश्य निश्चय है कि वह इन आख्यानों को जानते थे। वे काव्य-रूप में जायसी के पहले थे या उनके समय में मौजूद थे, इसका निश्चय केवल उक्त उदाहरण से नहीं हो सकता। जायसी के पूर्ववर्ती कवि कुतुबन की मृगावती का उल्लेख हो चुका है। मधुमालती की एक अपूर्ण प्रति फ़ारसी लिपि में मिली है, अब उसी पर विचार किया जायगा।“ (वही, पृ. 209)

    दासजी की तर्क-प्रणाली की मीमांसा व्यर्थ है। संदेह को आपने प्रमाण मान लिया है। दासजी के सामने भी मधुमालती की वही अपूर्ण फारसी लिपि की प्रति है जो उक्त पिता-पुत्र के सामने थी। अतः उनके निष्कर्षों में जो गहरा विरोध है वह उनकी खोज या सदोष दृष्टि का ही परिणाम है, किसी अन्य दैवी कारण का नहीं।

    दासजी के समाधान के लिये इतना ही काफी होना चाहिए कि----

    “ईती स्त्री मधुमालती कथा सेष मंझन क्रीती समापति संवतु 1644 समये अगहनस सुदी पूरनमासी ब्रीहसपती बसरे लीषतं माधोदासु कोहली कासी मधे पोथी माधोदास कोहली की।” (भारत कला-भवन काशी की एक सुरक्षित हस्तलिखित अधूरी प्रति की पुष्पिका) तो भी प्रसंगवश जानकारी के लिये इतना और निवेदन कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि---- -

    “तहक़ीक से इतना मालूम होता है कि यह किस्सः इससे क़ब्ल भी तहरीर में चुका था। एक साहब शेख़ मंझन नामी ने इसे हिंदी में लिखा था। यह किताब अब तक कहीं दस्तयाब नहीं हुई। इसका हवालः एक दूसरी किताब मुसम्मा किस्सः कुँअर मनोहर मदमालती में मिलता है। यह फ़ारसी मसनवी है। मुसन्निफ़ का नाम मालूम नहीं हुआ। अलबत्तः सन् तसनीफ़ सन् 1059 हि. (सन् 1649 ई.) है। इसमें मुसन्निफ़ ने शेख़ मंझन की हिंदी किताब का ज़िक्र किया है और अपने क़िस्से की बुनियाद उसी पर रखी है। तीसरी किताब आक़िल ख़ाँ राज़ी आलमगीरी की मसनवी मेह्र माह है जो सन् 1065 (सन् 1655 ई.) की तसनीफ़ है। इसमें भी यही क़िस्सः है। नसरती की गुल्शन इश्क़ के बाद भी बाज़ शुअरा ने इस फ़साने को नज़्म किया है। इनमें से एक हसामउद्दीन हिसार का रहनेवाला आलमगीर के अहद में हुआ है। यह भी फ़ारसी मसनवी है। किताब का नाम हुस्न इश्क़ और उसका सन् तसनीफ़ 1071 हि. (सन् 1660 ई.) है।“ (उर्दू रिसालः, जनवरी सन् 1934 ई. पृ. 13, अंजुमन तरक्क़ी उर्दू, औरंगाबाद (दकन)।)

    अब तो इसमें तनिक भी संदेह नहीं रह गया होगा कि मंझन वास्तव में शेख़ यानी मुसलमान हैं और उनकी रचना मधुमालती मुसलिम समाज की एक अत्यंत प्रिय वस्तु है। इसी लिये उसके दक्खिनी और फारसी तक में कई अनुवाद हुए हैं।

    नसरती की गुलशन इश्क़ के संबंध में मौलाना हक़ का कहना है-----

    “नसरती ने अस्ल क़िस्से में चंपावती और चंद्रसेन की दास्तान ज़मनी तौर पर बड़ी खूबी से मिलाई है। यह कहना दुशवार है कि किसने किससे इस क़िस्से को लिया है। ऐसा मालूम होता है कि एक ज़माने में यह क़िस्सा बहुत मक़बूल और मशहूर था और हर मुसन्निफ़ ने इसे उसी तरह बयान कर दिया है जैसा कि मुक़ामी तौर पर मशहूर चला रहा था। यह मुमकिन है कि नसरती की नज़र से आक़िल ख़ाँ की मसनवी मेह्र माह गुज़री हो और उसने तसर्रुफ़ करके उसे ज़्यादा पुरलुत्फ़ बना दिया हो या जिस तरह उसने अपने वतन में यह दास्तान सुनी हो उसी को किसी क़द्र दुरुस्त करके नज़्म कर दिया हो।“ (वही, पृ. 13-14)।

    मौलाना हक़ जिस चंपावती और चंद्रसेन के प्रसंग को नसरती की सूझ समझते हैं वह और कुछ नहीं, हमारी मधुमालती की देन है। मंझन की मधुमालती की प्रेमा को नसरती ने चंपावती बना लिया है और उसके ताराचंद को चंद्रसेन कर दिया है।

    अस्तु, हमें कहना पड़ता है कि मुसलिम समाज की इस ममता और इस प्रीति का मुख्य कारण है मधुमालती की प्रेम-पीर अथवा तसव्वुफ़ से उसका भरपूर रँगा होना। विचार करने की बात है कि जिस मधुमालती को दासजी संवत् 1650 के लगभग की एक हिंदू-रचना मानते हैं उसी का प्रचार मुसलिम समाज में सहसा इतना कैसे और क्यों हो गया कि उसके आधार पर कई पोथियाँ फारसी और दक्खिनी में तैयार हो गईं और सभी लोग चाव से उसको अपनाने लगे। उस समय प्रेस का दानव भी तो नहीं था कि कुछ अपना करतब दिखाता।

    स्वयं दासजी ने मधुमालती के उल्लेख का प्रमाण दिया है। उनका कहना है-----

    जैनपुर-निवासी जैन कवि बनारसीदास ने अपने आत्मचरित, स्व-रचित अर्द्धकथा में सं. 1698 तक का अपना जीवन-वृत्त किया है। इसका जन्म सं. 1643 में हुआ था। उक्त पुस्तक के पृ. 30 पर वह लिखता है कि-----

    तब घर में बैठे रहे, नाहिन हाट बाजार।

    मधुमालति मृगावती, पोथी दोय उचार।।

    “यह घटना सं. 1660 के लगभग की है, जब वह व्यापार में घाटा उठाकर घर बैठ रहे थे। इस उद्धरण से मधुमालती तथा मृगावती नामक दो पुस्तकों का उस समय तक कवि-समाज में प्रचार हो जाना निश्चित हो जाता है तथा वे उसके पहले की रचनाएँ थी, यह भी निश्चयपूर्वक माना जा सकता है।“ (वही, पृ. 211)

    कहने की ज़रूरत नहीं कि इसी उद्धरण के कारण दासजी मधुमालती का रचना-काल सं. 1650 के लगभग मानते हैं और मंझन को लड़ाई के मैदान में घसीटकर सं. 1678 में उनके वृद्ध होने की उद्भावना करते हैं। ध्यान देने की बात है कि जो मंझन सं. 1650 में मधुमालती जैसी लोकप्रिय, परमार्थदर्शक रचना करने में सफल होते है वही बुढ़ापे में उसके ठीक 28 वर्ष बाद किसी दाराब ख़ाँ की प्रशंसा में हिमांचल पहुँचकर बेचारे शंभु की भी खबर ले लेते हैं। जवानी में निर्गुण निराकार की आराधना और बुढ़ापे में दाराब ख़ाँ की उपासना कितनी अजीब है, यह कहने की चीज नहीं है। फिर बनारसीदास के प्रसंग से भी उसका मुसलिम रचना होना ही सिद्ध होता है। जैन बनारसीदास व्यापार में घाटा लगने के बाद जैन ग्रंथों का अध्ययन नहीं करते बल्कि मधुमालती और मृगावती में दिल लगाते हैं, उन पोथियों से प्रेम करते हैं जिनमें इश्क और इस्लाम का बोलबाला है। देखिए, एक दूसरे सूफ़ी कवि हज़रत उस्मान (1022 हि., 1613 ई.) क्या कहते हैं-----

    मिरगावति मुख रूप बसेरा। राजकुँवर भयो प्रेम अहेरा।।

    सिंघल पदुमावती भो रूपा। प्रेम कियो है चतउर भूपा।।

    मधुमालती होइ रूप दिखावा। प्रेम मनोहर होइ तहँ आवा।।

    प्रेम और रूप के इस प्रसंग से प्रत्यक्ष है कि मधुमालती का प्रतिपाद्य विषय क्या है। अवश्य ही मधुमालती, पदुमावती और मृगावती के ढंग की एक प्रेम-पीर से भरी सूफी-पोथी है जिसमें तसव्वुफ़ की चर्चा है। प्रमाण के लिये इन अवतरणों पर भी ध्यान दीजिए----

    (1) यहै रूप बुत अह्यो छिपाना। यहै रूप सब सृष्टि संसारा।।

    (2) नैन बिरह अंजन जिन्ह सारा। बिरह रूप दरपन संसारा।।

    (3) भाव अनेक बिरह स्यों उपजहिं कुँवर सरीर।।

    त्रिभुवन केर जो जो दूलह। तेहि बिधि दइ यह पीर।।

    (4) कमल गुलाल भए रतनारे। फूल सबहि तन कापर फारे।।

    कहने का तात्पर्य यह कि मधुमालती में सभी मुस्लिम लक्षण मौजूद हैं जो दूर से पुकार-पुकारकर कहते हैं कि उसका लेखक मुसलमान है। हिंदू वह हो नहीं सकता।

    फिर यह कहा जाता है कि मधुमालती पदुमावती से पुरानी है। कारण, उसमें मधुमालती का उल्लेख है। दास जी का कहना है कि उससे कथा का बोध तो होता है पर उससे यह कहाँ सिद्ध हो जाता है कि वह काव्यरूप में विराजमान थी। निवेदन है कि हो जाता है। जरा ध्यान से पढ़िए और उनके भावों को समझिए। सुभीते के लिये वर्माजी का आख्यानक काव्य नामक निबंध ले लीजिए। उसमें मधुमालती का शिखनख-वर्णन कुछ दिया है। उसको सामने रखकर जायसी का अध्ययन कीजिए। पद्मावती का नखशिख देखिए। फिर गौर कर बताइए कि किसने किसके भाव को सँवारा है, कौन किसका और कितना ऋणी है।

    मंझन लिलाट का वर्णन करते हैं-----

    “निरकलंक ससि दुइज लिलारा। नव खँड तीन भुवन उजियारा।।

    बदन पसेव बूँद चहुँ पासा। कचपचिंयन जनु चाँद गरासा।।

    मृगमद तिलक ताहि पर धरा। जानहुँ चाँद राहु बस परा।।

    गयो मयंक स्वर्ग जेहि लाजा। सो लिलाट कामिनि पहँ छाजा।।

    सहस कला देखी उजियारा। जग ऊपर जगमगत लिलारा।।“

    उधर जायसी लिखते हैं कि----

    “कहौं लिलार दुइज कै जोती। दुइजहि जोति कहाँ जग ओती।।

    सहस किरिन जो सुरुज दिपाई। देखि लिलार सोउ छपि जाई।।

    का सरवरि तेहि देउँ मयंकू। चाँद कलंकी वह निकलंकू।।

    और चाँदहि पुनि राहु गरासा। वह बिनु राहु सदा परगासा।।

    तेहि लिलार पर तिलक बईठा। दुइज-पाट जानहुँ धुव दीठा।।“

    पाठक सोचते होंगे कि जायसी ने सब तो लिया पर कचपचियों की अनूठी उक्तिको क्यों छोड़ दिया। इसे तो अवश्य लेना था। ठीक है। जायसी मंझन की सूझ तथा कमी से परिचित है। वह काव्य के मर्म से अभिज्ञ है। देखिए न, इन्हीं कचपचियों को किस ढंग से सजाते हैं। पद्मावती की रूपचर्चा है। अब उसका लिलाट एक विवाहिता देवी का लिलाट है। उस पर तिलक के साथ चुन्नी भी रची गई है जो ऐसी सोहाती है कि दुइज में मानो कचपची। कहिए, जायसी ने मंझन की सूझ को सोहागिन कर दिया अथवा नहीं। फिर देखिए-----

    “तिलक सँवारि जो चुन्नी रची। दुइज माँझ जानहुँ कचपची।“

    एक जगह प्रेमा के मनोहर से रोने के प्रसंग में मंझन ने लिखा है----

    “रकत रोय बन घुँघची, रही जो राती होय।

    मुँह काला कै बन गई, जग जानै सब कोय।।“

    जायसी को उक्ति तो अच्छी मिली पर मुँह काला करने की बात उन्हें जँची। निदान उन्होंने इसे सँवारकर कुछ और ही बना दिया। देखिए, जायसी इसी उक्ति से कैसा मनोरम काम लेते हैं। उनकी नागतमी रो रही है। उसके रोने के दुःख से दुखी होकर घुँघची को काला मुँह कर वन जाने की जरूरत नहीं पड़ती बल्कि-

    “कुहुकि कुहुकि जस कोइल रोई। रकत आँसु घुँघची बन बोई।।

    भइ करमुखी नैन तन राती। को सेराव? बिरहा-दुख ताती।।

    जहँ जहँ ठाढ़ि होइ बनबासी। तहँ तहँ होइ घुँघची कै रासी।।

    बूँद बूँद महँ अनहुँ जीऊ। गुंजा गूँजि करै पिउ पीऊ।।“

    मंझन ने कहने का काम लिया था टेसू से, जायसी ने वही काम लिया गुंचा से, मंझन की दृष्टि थी दुखसंपत पर किंतु जायसी का ध्यान है पिउ पीऊ पर। मंझन ने लिखा था-

    “टेसू आगि लागि सिर रहा। कलिएँ बदन दुख संतप कहा।।“

    जायसी ने कहने का काम गुंचा को सौंप दिया और टेसू के विषय में लिखा------

    “तेहि दुख भए परास निपाते। लोहू बूड़ि उठे होइ राते।।“

    और-

    “राते बिंब भीँजि तेहि लोहू। परवर पाक, फाट हिय गोहूँ।।“

    पाठक यह समझ लें कि निपात और फाट पर मंझन का ध्यान नहीं गया थआ। नहीं, उन्होंने भी कहा था-----

    “भँवर भुजग दोऊ दव जरे। दुःख करील पात परिहरे।।“

    तथा----

    “नारँग रकत घोंटि भई राती। खाइ खजूर फाट गइ छाती।।“

    रह गई माया, निर्गुण, निराकार की उलझन। यह आचार्य पंडित रामचंद्र शुक्लजी ने उसी हिंदी-साहित्य के इतिहास में सूफी कवियों की गणना भक्तिकाल की निर्गुण शाखा के भीतर की है जिसका आपने अपने निबंध में अवतरण दिया है। और जायसी ने तो स्पष्ट ही घोषित कर दिया है कि----

    ‘गुरू सुआ जेइ पंथ दिखावा। बिनु गुरु जगत को निर्गुन पावा।।‘

    तथा----

    ‘अलख अरूप अबरन सो कर्ता। वह सब सों सब ओहि सों बरता।।‘

    अस्तु, हमारा नम्र निवेदन है कि श्री ब्रजरत्नदासजी की खोज निराधार और कल्पित है। वस्तुतः ‘मंझन’ एक मुस्लिम सूफी कवि हैं और उनकी रचना ‘मधुमालती’ जायसी की ‘पदमावत’ या ‘पदुमावती’ से पुरानी है। समाधान के लिये इतना ही पर्याप्त है। क्या ही अच्छा हो यदि दास जी कवित्त वाले ‘मंझन’ की स्वतंत्र चिंता करे और अपनी खोज से हिंदी का भंडार भरें। सामग्री तो उनके पास है ही।

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