नवाब-ख़ानख़ाना-चरितम्- ले. श्री विनायक वामन करंबेलकर
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एक सद्यःप्राप्त अज्ञात ग्रंथ
संस्कृत के विद्वान राष्ट्रौढवंश-महाकाव्य के रचयिता रुद्र कवि के नाम से परिचित है। इस महाकाव्य के संपादक का मत है कि रुद्र कवि ही जहाँगीरचरितम् के भी रचियता थे। परंतु उनकी इस तृतीय कृति का अभी तक किसी को पता भी नहीं था। नवाब-ख़ानख़ाना-चरितम् की शैली गद्य-पद्य-मय, अर्थात् पंचू-काव्य के ढंग की है। नागपुर-विद्यापीठ ने यह ग्रंथ नासिक से सन् 1946 में अपने प्राचीन-हस्तलिखित-ग्रंथ-विभाग के लिये खरीदा था। डा. यशवंत खुशाल देशपांडे (यवतमाल, विदर्भ) की कृपा से इसकी एक दूसरी प्रति भी प्राप्त हुई थी। उन्हें यह पूने में मिली थी। इन दोनों प्रतियों से ख़ानख़ाना-चरितम् ग्रंथ पूर्णांग रूप से प्राप्त हुआ। आफ्रेक्ट ने अपनी बृहद् ग्रंथ-सूची में जो बाब-ख़ान-चरित निर्देशित किया है वह (न) बाब-ख़ान-चरित ही जान पड़ता है।
पूर्व-परिचित ग्रंथद्वय
इन तीनों कृतियों में राष्ट्रौढवंश-महाकाव्य बीस सर्गों का एक विशाल प्रबंध-काव्य है, जिसकी रचना रुद्र कवि ने लक्ष्मण पंडित से सुनने के पश्चात् की थी। यह काव्य राष्ट्रौढ (राठौर) वंश के नारायणशाह और प्रतापशाह नामी राजाओं के आज्ञानुसार रचा गया था। नारायणशाह और प्रतापशाह बंबई प्रांत के नासिक जिले (प्राचीन बागुलान) में राज्य करते थे। काव्य का विषय राठौर-वंश का पौराणिक काल से लेकर कथा-नायक के समय तक का इतिहास है। इसमें प्रमुख वर्णन नारायणशाह के पराक्रमों का है। इस प्रकार राष्ट्रौढवंश-महाकाव्य का रचना-काल शकाब्द 1518 (ई. 1596) और रचना-स्थान शालामयूराद्रि निर्दिष्ट किया गया है।
ऐसा कहा गया है कि ‘जहाँगीरचरितम्’ खंडितप्राय ग्रंथ है। यह भी नासिक में मिला था। इसमें कुछ ऐसे छंद हैं जो राष्ट्रौढवंश महाकाव्य के छंदो से मिलते-जुलते हैं। इसका वर्ण्य विषय है अकबर-पुत्र जहाँगीर का चरित। इस ग्रंथ का अभी तक प्रकाशन नहीं हुआ। नवाब-ख़ानख़ाना-चरित भी शालामयूराद्रि में शकाब्द 1531 (ई. 1609) में लिखा गया था---
शाके क्ष्माग्नितिथौ सौम्ये वैशाखे शुक्लपक्षतौ।
चरित्रं खानखानस्य वर्णितं रुद्रसूरिणा।। (3।6)
उल्लास-समाप्ति में लिखा है-
इति श्रीमन्महाराजाधिराज श्रीनवाब-ख़ानख़ाना-चरिते श्रीशालामयूराद्रिपुरन्दरप्रताप शाहोद्योजित रुद्र कवीन्द्र विरचिते.........। (तृतीय उल्लास)
‘नबाब-ख़ानख़ाना-चरित’ गद्यमय ग्रंथ है, जिसमें कहीं-कहीं अनियमित रूप से पद्य भी दिखाई पड़ता है। कवि के कथनानुसार यह चंपू-काव्य ही है। ग्रंथ तीन उल्लासों में पूरा हुआ है और अत्यंत ही मँजी हुई भाषा में लिखा गया है। लंबी संधियो, पौराणिक उल्लेखों, क्लिष्ट छंदों और अतिशयोक्तिपूर्ण उक्तियों को देखने से महाकवि बाणभट्ट के हर्षचरित का स्मरण हो आता है। पंरतु यह बात अवश्य है कि नवाब-खानखाना-चिरत का ऐतिहासिक महत्व उतना नहीं है। गद्य-भाग को छोड़कर प्रथम उल्लास में 9, दूसरे में 20 और तीसरे में 12 छंद हैं। ग्रंथ समाप्त होने पर पुष्पिका में ऐतिहासिक महत्व के छंद आते हैं।
नवाब-ख़ानख़ाना-चरित के द्वितीय और तृतीय उल्लासों में जहाँगीर के उल्लेख आते हैं। यद्यपि वे ऐतिहासिक दृष्टि से नगण्य हैं तथापि साहित्यिक दृष्टिकोण से इस ग्रंथ की पूर्वकालीनता निश्चित करते हैं। इन छुट-फुट उल्लेखों से यह ज्ञात होता है कि जहाँगीर उसी समय दिल्ली के राजसिंहासन पर आसीन हुआ था और इसलिये वह स्वतंत्र प्रशस्ति-काव्य के योग्य था, जिसके कारण बाद में “जहाँ-गीरचरितम्” नाम का ग्रंथ लिखा गया। इससे यह पता चलता है कि कवि ने ई. सन् 1609 में अपनी कलम ‘जहाँगीरचरितम्’ लिखने के लिये उठाई होगी, परंतु वृद्धावस्था के कारण वह कार्य पूरा न हो सका होगा, अथवा रुद्र कवि की मृत्यु ही उसके अपूर्ण रह जाने का कारण रही होगी। इस प्रकार राष्ट्रौढवंश-महाकाव्य के बाद नवाब-ख़ानख़ाना-चरित लिखा गया होगा। जहाँगीरचरितम् रुद्र कवि की अंतिम कृति होगी। इस विचार पर पहुँचने के और भी अनेक कारण हैं, जिनका आगे यथास्थान उल्लेख किया जायगा।
कवि का व्यक्तिगत परिचय
कवि के व्यक्तिगत जीवन के विषय में उनकी कृतियों से या अन्य मार्गों से बहुत ही थोड़ा ज्ञात होता है। राष्ट्रौढवंश-महाकाव्य से रुद्र कवि के पिता का नाम अनंत और पितामह का नाम केशव विदित होता है। यहाँ इस बात पर जोर देना आवश्यक है कि वे एक प्रकांड विद्वान् ब्राह्मण थे और देवी भगवती अंबिका के कृपापात्र एवं कवित्व-शक्ति-संपन्न थे (जगदम्बिकांघ्निकमलद्वंद्वार्चनाप्राप्तधीः)। रुद्र कवि के विषय में निश्चयपूर्वक इतना ही कहा जा सकता है कि वे नारायणशाह एवं उनके सुपुत्र प्रतापशाह, इन दोनों के सभा-कवि थे। कवि इसका बारबार संकेत करता है। राष्ट्रौढवंश-महाकाव्य नारायण शाह की आज्ञा से लिखा गया था, और नवाब-खानखाना-चरित प्रतापशाह की प्रेरणा से-
महाराजप्रतापशाहोद्योजित (प्रथमोल्लास के अंत में)।
श्रीमत्प्रतापशाहोद्योजित (द्वितीयोल्लास के अंत में)।
शाला-मयूराद्रि-पुरन्दर-प्रतापशाहोद्योजित (तृतीयोल्लास के अंत में)।
इनसे हम यह अर्थ लगे हैं कि जहाँगीर-चरित भी प्रतापशाह की आज्ञा से लिखा गया होगा। बागुलान या शालामयूराद्रि के राठौर राजपूत राना प्रतापशाह की छत्रछाया में ये तीनों ग्रंथ नासिक के पास कहीं लिखे गए होंगे। उनकी रचना ई. 1596 और 1609 के बीच की मालूम पड़ती है। अतः उनका कार्यकाल सोलहवीं शताब्दी के अंत और सत्रहवीं शताब्दी के आदि में रहा होगा।
नारायणशाह और प्रतापशाह
नारायणशाह और प्रतापशाह (उसका पुत्र, जो रुद्र कवि का आश्रयदाता था) राठौर वंश के थे। हमारे कवि की कृति राष्ट्रौढवंश-महाकाव्य में इस वंश के विषय में अनेक ऐतिहासिक और पौराणिक बातें दी हुई हैं। नारायणशाह भैरव-सेन का पुत्र और वीर (म) सेन का छोटा भाई था। जब बीरसेन मयूरगिरि पर शासन कर रहा था तब नारायण की ख्याति सुनकर बादशाह ने वीरसेन को दिल्ली बुलाकर उसका सम्मान किया, और इसी कारण वीरसेन की रानी दुर्गावती ने दोनों भाइयों में द्वेष-भावना का बीज बो दिया। जब इस कलहाग्नि का रूप भयंकर सा हो गया तब नारायण को मयूरगिरि छोड़ देने की आज्ञा हुई। इसपर नायारणशाह ने वहाँ से निकलकर शालागिरि पर अधिकार कर लिया। कुछ ही दिनों में सारे गढ़ नारायण के अधीन हो गए। इसके उपरांत वह अपने ज्येष्ठ पुत्र प्रताप को शालागिरि की रक्षा के हेतु छोड़ आप मयूरगिरि की ओर बढ़ा। वीरसेन का पक्ष त्यागकर लोगों ने नारायण की छत्रछाया ग्रहण की और उसे राजा एवं रक्षक घोषित किया।
नारायणशाह जैसे अनेक युद्धों का विजेता था वैसे ही धार्मिक भी था। उसने अनेक पवित्र तीर्थों की यात्रा की थी और ब्राह्मणों को दान दिया था। उसने देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित की थीं, तुलादान किया था और अग्निष्टोम आदि अनेक यज्ञ भी किए थे।
नारायणशाह का व्यवहार दिल्ली के बादशाहों के प्रति मैत्रीपूर्ण था और दक्षिणी राज्यों में उसका आदर और आतंक था। अहमदनगर के बुरानशाह ने दक्षिणी प्रदेशों को जीतने के लिये उसकी सहायता ली थी। जब अकबर ने ई. 1599 में खानदेश जीता था तब उसने बागुलान को लेने की कोशिश की थी, प्रतापशाह के विरुद्ध उस समय सात वर्ष तक घेरा पड़ा रहा, पर अंत में अकबर को उससे संधि करनी पड़ी।
प्रतापशाह का संबंध जहाँगीर से अच्छा था। जहाँगीरनामा में भी बागुलान देश की प्रशंसा की गई है, पुराने संबंधों की स्मृति स्पष्ट हो गई है और जहाँगीर ने अंत में यह भी कहा है कि उसने प्रतापशाह को तीन अंगूठियाँ, याकूत, हीरा और लाल दिए थे। जहाँगीर के संबंध में दो साधारण उल्लेख नवाब-ख़ानख़ाना-चरित में आते हैं-----
(1) मनोहर-छत्र-चामर-मेघ-डम्बर-सुन्दर-भू-पुरंदर-साहि-जहाँगीर-नुरदीन-मुहमद-रत्नाकर...। (द्वितीयोल्लास)
(2) तत्तदाकर्ण्याकब्बर-श्रीसुरचाण-सुत्राम-पुत्राग्र्य-नुर्दीजहाँगीर-शाह- द्वितीय-प्रिय-प्राण-गीर्वाणनाथो....।
(तृतीयोल्लास)
राष्ट्रौढवंश-महाकाव्य में जहाँगीर का नाम आता ही नहीं और नवाब-ख़ानख़ाना-चरित में दो बार आता है तथा पूरा जहाँगीर-चरित अंत में आता है- यह बात का दिग्दर्शन है कि किस तरह प्रताप धीरे-धीरे जहाँगीर के संपर्क में आया और सुपरिचित बना। यह विचार अंत में अधिक स्पष्ट होगा।
नवाब ख़ानख़ाना
रुद्र कवि की यह कृति नवाब-ख़ानख़ाना-चरित बैरम खाँ के सुपुत्र ख़ानख़ाना मिर्जा खाँ अब्दुर्रहीम की वीरगाथा है। ख़ानख़ाना एक प्रकार से अकबर के संबंधी थे। उनका जन्म ई. 1554 के लगभग हुआ था और लालन-पालन राजकुमार की भाँति हुआ था। बड़े होने पर वे एक बड़े विद्वान् कवि और बहुभाषाविद् हुए। फारसी उनकी मातृभाषा थी, परंतु उर्दू और अरबी पर भी उनका प्रभुत्व था। वे हिंदी और संस्कृत भी अच्छी जानते थे।
हिंदी-सांसर में वे रहीम कवि नाम से विख्यात हैं और उनके दोहे अत्यंत लोकप्रिय हैं। कहा जाता है कि उनकी तुलसीदास से मित्रता थी और गंग कवि को उन्होंने बहुत बड़ा दान दिया था। स्वयं कवि होने के कारण वे सहृदय, उदार, दयालु और परोपकारी थे।
अकबर की सेना के वे एक विश्वासी सेनापति थे। मुजफ्फर गुजराती (1583-91) के विद्रहो-काल में ख़ानख़ाना ने अकबर की अमूल्य सेवा की थी। उनकी नियुक्ति गुजरात में हुई और 1584 में उन्होंने मुजफ्फर ख़ान को हराकर कच्छ में भगा दिया। इसी सेवा के फलस्वरूप उन्हें ख़ानख़ाना की उपाधि मिली थी।
अकबर द्वारा रहीम को दी गई ख़ानख़ाना की उपाधि कुछ नई नहीं थी। अहमदशाह बहमनी को भी यही उपाधि उसके चाचा द्वारा मिली थी (1422-35)। रहीम ख़ानख़ाना की उपाधि जहाँगीर द्वारा छीन ली जाने पर नूरजहाँ ने महाबत ख़ान को यही उपाधि दी थी।
ख़ानख़ाना-चरितम्
सूक्ष्म रूप से विचार करने पर ख़ानख़ाना-चरितम् को न तो कथा कहा जा सकता है न आख्यायिका। साथ ही ऐतिहासिक दृष्टि से भी इसका महत्व कम है। इसके खंड, उच्छास न कहे जाकर उल्लास कहे गए हैं। इसमें आर्या, वक्त्र और अपवक्त्र नहीं है, केवल लंबे छंद ही हैं जो कथा और आख्यायिका दोनों में पाए जाते हैं। बड़े-बड़े समास इसमें विद्यमान हैं, जो दंडी के कथनानुसार गद्य का प्राण हैं। यह तो निश्चित है कि ख़ानख़ाना-चरित बाणभट्ट के हर्षचरित के ढंग पर रचा गया है। रुद्र कवि ने इसमें पांचाली रीति का अनुसरण किया है। इस ग्रंथ में शब्दार्थालंकारों की प्रचुरता एवं श्लेष की प्रधानता है। गद्य की सुंदरता के लिये पौराणिक उल्लेखों का उपयोग किया गया है। पद-पद पर लयबद्ध ध्वनि की मधुर झंकार सुनाई पड़ती है। श्लेष और अनुप्रास (जो रुद्र कवि के प्रधान अस्त्र हैं) के अतिरिक्त विरोध, निदर्शना, सहोक्ति आदि का भी स्थान-स्थान पर प्रयोग हुआ है।
शैली इसकी अवश्य ओजपूर्ण है, परंतु कथानक वा घटना कुछ ऐसी नहीं है जिससे वीररस का उद्रेक हो। केवल शब्दाडंबर और अतिशयोक्ति की ही प्रधानता है। कवि को अब्दुर्ररहीम के विषय में अधिक ज्ञान नहीं है, इसलिये उसने कवि संकेतों का सहारा लेकर कथा-नायक का रूढ़ शब्दों में वर्णन किया है।
प्रथमोल्लास का प्रारंभ निम्नलिखित श्लोक से होता है-----
मन्ये विश्वकृता दिशामधिपता त्वय्येव संस्थापिता
वस्माज्जिप्णुरसि प्रभो शुचिरसि त्वं धर्मराजोअप्यसि।
राजन्पुण्यजनोअसि विश्वजनताधारप्रचेता जगत्-
प्राणस्त्वं धनदो महेश्वर इह श्री खानखान-प्रभो।।
तदुपरांत ख़ानख़ानाकी प्रशंसा प्रारंभ होती है। जैसे- वे राजाओं के राजा है, संसार में अपने प्रचंड बाहुबल के लिये विख्यात हैं, उनकी कीर्ति आकाश और पाताल में परिव्यास है, वे धन, सौंदर्य, सद्गुण, पवित्रता, सामर्थ्य आदि के आगार है, उन्होंने सारे भारतवर्ष को- अंग, कलिंग, कुरुजांगल, मगध, गुर्जर मालव, केरल, केकय, कामरूप, कोशल, चोल, बंगाल, पांचाल, नेपाल, कुंतल, लाट, कर्णाट, पौंड, द्राविड़, सौराष्ट्र, पांडय, काश्मीर, सौवीर, वैदर्भ, कान्यकुब्ज इत्यादि को-जीत लिया है, वे संधि-विग्रह-कला में निपुण हैं और अपना समय मृगया, क्रीड़ा, अध्ययन, अन्वेषण, गायन, चित्रकला आदि में व्यतीत करते हैं। निम्नलिखित उद्धरण से रुद्र कवि की उस गंभीर गरिमायमी शैली का पता चलता है जिसमें उन्होंने ख़ानख़ाना का वर्णन, बिना किसी ऐतिहासिक तथ्य का अभास दिए, किया है----
द्वितीयः कलंकविकलः कुमुदिनीकान्त इव, स्वतंत्रस्तृतीय नासत्य इव, जलाभिभवन-स्तुरीयः पावक इव, निरस्तभुजंगमकरः पंचमो रत्नाकर इव, अकल्पित-वितरण-निपुणः षष्ठः कल्पद्रुम इव, अपरिमितसत्वः सप्तमः शक्र इव, सर्वत्र सर्वसमयगेयो मूर्तिमानष्टमः स्वर इव, सपक्षः स्वैराचारी नवमः कुलाचल इव, सकल-जननयनानन्द-निदानं पराधीनो दशमः निधिरिव...।
इसी प्रकार की अतिशयोक्ति से पूर्ण आठ छंदों से प्रथम उल्लास का अंत होता है।
द्वितीय उल्लास निम्नलिखित श्लोक से आरंभ होता है----
श्रीमानकल्पमहीरुहः किमवनौ किंवा स चिंतामणिः
किं कर्णः किमु विक्रमः किमथवा भोजोअवतीर्णः परः।
इत्थं यत्र विलोकिते मतिमतां बुद्धिः समुज्जृम्भते
सोअयं संप्रति खानखा-नृपतिर्जीयात् सतां भूतये।।
द्वितीय श्लोक में इस आशय का वर्णन मिलता है कि यह योद्धा सिंधुदेश का रहनेवाला है। शेष प्रस्ताविक छंदों में खानखाना की वीरता की प्रशंसा है। गद्य-भाग में निम्नलिखित प्रकार के वर्णन देखकर विदित होता है कि जिस चातुर्य से प्रसिद्ध बाणभट्ट ने भाषा-भामिनी का विलास प्रकट किया है उस चातुर्य में रुद्र कवि भी कम न था----
(1) यस्य च मनसि धर्मेण, तोषे धनदेन, रोषे कृतान्तेन, प्रतापे तपनेन, रूपे मदनेन, करे दिव्यद्रुमेण, वदने सरस्वतीप्रसादेन, वले मारुतेन...।
(2) यत्र च राजनि राजनीतिचतुरे चतुरर्णवमेखलमेदिनीमण्डलखण्डं शासति विवादः षड्दर्शनेषु, सर्वमिथ्यावादो वेदान्तेषु, भेदवादस्तर्केषु, अविद्याप्राधान्यं पूर्वमीमांसायां (?), स्फोटाविर्भावो व्याकरणेषु, नास्तिकताचार्वाकेषु, महापातकोपपातकश्रवणं धर्मशास्त्रेषु, नयनाश्रूणि हरिकथाश्रवणेषु...।
(3) जय जय राजसमाजविभूषण, विदलितदूषण, गुणगणमन्दिर, मन्मथसुन्दर...।
(4) अपि च मदन इव नागरीमिः, तपन इव तपस्विभिर्दहन इव मनस्विभिः, शमन इव शत्रुभिः, पवन इव पथिकैः, स्वजन इव सुहृज्जनैः...।
इस उल्लास में ख़ानख़ाना के घोड़े का लंबा वर्णन है। अंत के आठ श्लोक, जिनमें से एक यहाँ उद्धृत है, रुद्र कवि की कवित्त शक्ति का परिचय कराते हैं-----
कलिः कृतयुगायते सुरपदायते मेदिनी
सहस्रकिरणायते भुजयुगप्रतापोदयः।
यशो हिमकरायते गुणगणोअपि तारायते
सहस्रनयनायते नृप-नवाब-वीराग्रणीः।।
चौथे और पाँचवें छंद में ख़ानख़ाना की उदारता का वर्णन मिलता है। तृतीय उल्लास छोटा है। वह इस प्रकार आरंभ होता है---
विद्वन्मण्डलकल्पपादपवनं विद्योतिवाग्देवता-
संकेतायतनं नितान्त-कमलालीला-विलासायनम्।
सर्वोधावनि चक्र-भाग्य-सदनं (?) भूमंडली-मंडनं
कीर्तेः केलिनिकेतनं विजयते श्रीखानखाना नृपः।।
और उसी प्रकार के वीरत्व और औदार्य के वर्णन से समाप्त होता है।
ऐतिहासिक महत्व
इस प्रकार संपूर्ण कृति अलंकारपूर्ण गद्य और पद्य का सुंदर नमूना है। जैसा पहले आए हैं, उसमें ऐतिहासिकता का अभाव है। परंतु ग्रंथ-समाप्ति के पश्चात् अंतिम पुष्पिका में जो पाँच श्लोक आते हैं उनसे कुछ दूसरी ही ध्वनि निकलती है। वे ऐतिहासिकता से परिपूर्ण हैं----
त्वद्दोर्दण्डबलोपजीविकतया त्वामेव यो नाथते
त्वत्कल्याण परंपराश्रवणता पुष्टिं परां योअश्नुते।
दूरस्थोअपि च यस्तवैव परितः प्रख्यातिमा भाषते
सोअयं नार्हतु खानखान भवतः प्रीति प्रतापः कथम्।।1।।
पूर्वी वीरपदेषु पुत्रपदवीमारोपितः श्रीमता
यद्याकब्बरसाह पार्थिवमणेरन्नं ततो मक्षितम्।
सोअयं तेन मुदा नवाब-चरणन् प्राप्तः प्रतापः पुनः
यत्ने संप्रति खानखान नृपते योग्यं तदेवाचर।।2।।
सकलगुणपरीक्षणैकसीमा। नरपतिमंडलवन्दनीयधामा।।
जगति जयति गीयमाननामा। गरिबनबाज नवाब खानखाना।।3।।
बलिनृपबन्धनविष्णुर्जिष्णुः श्री खानखानायम्।
अम्बर शम्बर मदनौ तनयौ मीरजी अली च दाराबौ।।4।।
वीर-श्रीजहंगीर-साहि-मदन-प्रौढ़-प्रतापोदय-
क्षुभ्यद्दक्षिण-दिक्कुरंगनयना-संसर्ग-सक्तात्मनि।
क्षोणीमंडल खानखान-धरणीपाले तदीयाम्बर-
व्याक्षेपाय करं वितन्वति तया सानन्दया भूयते।।5।.
ये श्लोक एक अत्यंत महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य की ओर संकेत करते हैं जो यदि सत्य प्रमाणित हुआ तो उससे इस नवाब-ख़ानख़ाना-चरित का साहित्यिक के अतिरिक्त ऐतिहासिक महत्व भी हमारे लिये कम न रहेगा।
1- पंचश्लोकी के प्रथम श्लोक से यह ज्ञात होता है कि बागुलान का राजा प्रतापशाह किसी संकट में पड़ा था और अब्दुर्रहीम ख़ानख़ानासे उसने सहायता के लिये प्रार्थना की थी- (त्वामेव यो नाथते)। प्रतापशाह ने दिल्ली अर्जी भेजी थी और उसे ख़ानख़ाना पर पूर्ण विश्वास था। प्रतापशाह उम्र में छोटा होने तथा कठिनाई बड़ी होने के कारण अब्दुर्रहीम की सहायता के योग्य पात्र था।
2- दूसरे श्लोक में मुल्हेर-दरबार और दिल्ली-दरबार की प्राचीन मित्रता के साथ इस बात का भी गुप्त संकेत है कि बागुलान का राजा दिल्ली के दरबार को कुछ कर देता था (अकब्बरसाह पार्थिवमणेरन्नं ततो भक्षितम्)। इसी प्राचीन मैत्री का विश्वास करके प्रतापशाह ने नवाब ख़ानख़ाना से सहायता की याचना की थी।
3- तीसरे श्लोक में ख़ानख़ाना को गरीबनिवाज़ कहा गया है और यह भी कहा गया है कि संसार में इसी कारण उनकी ख्याति है।
4- चौथे श्लोक में रूपक की सहायता से यह दिखलाया गया है कि राजा प्रतापशाह कैसे संकट में था। बलिनृप-बंधन-विष्णुः- बलवान् राजाओं का बंधन करनेवाला होने के कारण नवाब ख़ानख़ाना को यथार्थ रूप से विष्णु कहा है। यहाँ इस रूपक की यथार्थता इसी रूप से सफल होती है कि ख़ानख़ाना का जहाँगीर पर बहुत बड़ा प्रभाव था, और इतिहासज्ञों को यह भली भाँति ज्ञात है कि अकबर के समय से ही ख़ानख़ाना की जहाँगीर पर विशेष प्रीति थी। जहाँगीर पर ख़ानख़ाना की इस प्रीति को देखकर नूरजहाँ उनसे द्वेष करती थी। इसलिये, इस रूपक से जान पड़ता है कि जहाँगीर ने प्रतापशाह के लिये कुछ संकट खड़ा किया होगा। इसी से उसने मित्रतावश नवाब ख़ानख़ाना से मदद माँगी होगी। विष्णु का रूपक पूर्ण करने के लिये खानखाना के दो पुत्रों का नाम मीर अली और दाराब दिया है।
5- पाँचवें श्लोक में जो रूपक है उससे यही बात और स्पष्ट हो जाती है। वीर सम्राट् जहाँगीर के बढ़ते हुए रोष ने कुरंगनयना दक्षिण-दिशा-सुंदरी को डरा-सा दिया था। क्षोणिमंडन ख़ानख़ाना का हाथ उसके अंबर तक पहुँच जाता है तो वह प्रसन्न होती है। इसका स्पष्ट अर्थ यही है कि जहाँगीर ने दक्षिण में अपनी सेना इस दक्षिणी राजा को दबाने के लिये भेजी थी और बागुलान को मुग़ल फौजों ने जीत लिया था। शायद मुल्हेर पर घेरा पड़ा था और इसी संकट में पड़ने के कारण प्रतापशाह ने ख़ानख़ाना से सहायता माँगी थी।
ख़ानख़ाना-चरित कदाचित उन्हीं के पास अर्जी (अंत की पंचश्लोकी) और उपहार के साथ भेजी गई हो। इसी लिये यह कहा जा सकता है कि ऊपर से सारहीन लगनेवाले इस प्रशस्ति-काव्य में कुछ ऐतिहासिक तथ्य अनिवार्य है। इसका एक और कारण यह हो सकता है कि ख़ानख़ाना अब्दुर्रहीम स्वयं भी एक विख्यात कवि थे।
रुद्र कवि ने ऐसे कठिन समय में इस काव्य की रचना कर अपने आश्रयदाता की बड़ी सेवा की। मुल्हेर का घेरा ई. सन् 1609 के लगभग उठा दिया गया होगा और उसके बाद प्रतापशाह ने रुद्र कवि को बादशाह जहाँगीर की प्रशस्ति लिखने का हुक्म दिया होगा, जिसके फलस्वरूप जहाँगीर-चरितम् काव्य बना।
अहमदनगर का युद्ध
ग्रंथ-समाप्ति के उपरांत जो पाँच श्लोक आए हैं उनमें दूसरा श्लोक “पूर्व वीरपदेषु पुत्रपदवीमारोपितः श्रीमता”- इस वाक्य से आरंभ होता है। इससे यह प्रश्न हमारे सामने उपस्थित होता है कि प्रतापशाह पहिले ख़ानख़ाना द्वारा वीर और फिर पुत्र क्यों कहा गया? इसके लिये हमें रुद्र कवि विरचित राष्टौढवंश-महाकाव्य में वर्णित अहमदनगर के युद्ध का संदर्भ देखना होगा। मुसलमान लेखकों के आधार पर स्मिथ ने जो वर्णन दिया है उसमें इसका उल्लेख स्पष्ट नहीं होता। अकबर की ओर से बागुलान-नृप प्रतापशाह का अहमदनगर के युद्ध में लड़ना प्रचलित इतिहासों में नहीं पाया जाता। ब्रिग्ज और अन्य इतिहासज्ञों द्वारा दिया हुआ अहमदनगर-युद्ध का वृत्त यह है-
“सन् 1593 में अकबर ने अहमदनगर के शासक बुरहानुल्मुल्क के विरुद्ध युद्ध घोषित किया, क्योंकि वह स्वाधीनता चाहता था, दिल्ली-दरबार के अधीन रहना नहीं चाहता था।
“सन् 1595 में बुरहानुल्मुल्क के बाद इब्राहीम गद्दी पर बैठा। इसके उपरांत राजधानी अहमदनगर राज्य-कलहों के संघर्ष का केंद्र बन गया। आपसी वैमनस्य इतना बढ़ गया कि एक पक्ष ने अकबर के द्वितीय पुत्र मुराद से सहायता माँगने की भयंकर भूल की। मुराद उस समय गुजरात का शासक था। इस घटना से दिल्ली के बादशाह को दक्षिणी राज्य-कलह में हाथ डालने का अवसर मिला। अकबर ने 70,000 अश्वसेना का सेनापति बनाकर ख़ानख़ाना को दक्षिण भेजा। शाहजादा मुराद को ख़ानख़ाना से मिलने का आदेश दिया गया।
“मुराद और ख़ानख़ाना की फौजों में विवाद उपस्थित हो गया। मुराद की इच्छा थी कि हमला हुजरात की ओर से हो, परंतु ख़ानख़ाना का कहना था कि हमला करने के लिये सेना मालवा से उतरे। अंत में दक्षिण की ओर बढ़ती हुई फौजों बरार पहुँच गईं और वहाँ से राजधानी अहमदनगर पहुँचकर घेरा डाला गया।
“जिन लोगों ने शाहजादे को बुलवाया था उन्हें अब अपनी भूल मालूम हुई। कुछ दिनों तक फिर सभी दलों ने मिलकर आक्रमणकारी का मुकाबला किया। सुल्तान चाँदबीबी की बहादुरी के कारण आक्रमणकारियों को सफलता न मिल सकी और बीजापुर के नपुंसक सेनापति सुशील ने मुगल सेनापतियों को संधि-प्रस्ताव भेजने के लिए संदेश दिया। सन् 1596 में संधि हुई जिसके अनुसार अहमदनगर-राज्य से बरार का इलाका अकबर के साम्राज्य में चला गया।”
दूसरा वर्णन- राष्ट्रौढवंश-महाकाव्य के बीसवें सर्ग में हमें इसी अहमदनगर के कुछ युद्ध का कुछ दूसरा ही वर्णन मिलता है-----
“निजामशाह के राज्य को जीतने के लिये अकबर के पुत्र मुराद की सेनाओं ने प्रस्थान किया। अकबर ने नारायणशाह को एक पत्र लिखा और एक सफेद घोड़े के साथ भेजा। उसमें नारायणशाह को मुराद की सहायता करने को लिखा था। नारायण ने मुराद को साथ ले लिया। कुछ ही दिनों के बाद प्रतापशाह भी साथ हो गया। इसके बाद शत्रु की शक्ति का पता लगाने का निश्चय किया।
“वर्षा ऋतु के बाद प्रताप अपनी सेना लेकर मुराद से जा मिला। संयुक्त सैन्यदल शत्रु-मंडल (जालन इलाके में) में प्रवेश करने लगे। ख़ानख़ाना और ख़ान-देश के मीर राजा अली खाँ बाद में आ मिले। ख़ानख़ाना ने मुराद से मीर को सेनापति बनाने को कहा, परंतु मुराद ने अस्वीकार कर दिया, क्योंकि प्रताप पहिले से ही सेनापति बनाए जा चुके थे। अहमदनगर पर घेरा डाल दिया गया। प्रताप इतनी बहादुरी से लड़े कि मुगल सेनानियों के छक्के छूट गए।
“अहमदनगर के किले पर हमला किया गया। दुर्ग के रक्षकों ने आत्म-समर्पण कर दिया और विराट् (विदर्भ, वैराट) राज्य लेकर लौट जाने की प्रार्थना की। विजयी सेना ने बरार के बालापुर नगर में बरसात भर के लिये डेरा डाल दिया और ख़ानख़ाना और शाहजादा मुराद से आज्ञा लेकर प्रतापशाह मयूरगिरि आ गए। यही वह अवसर था जब प्रताप ने ख़ानख़ाना की कृपा-दृष्टि पाई थी और प्रताप की वीरता खानखाना को मुग्ध कर सकी थी।“
सारांश
(1) इस ग्रंथ का वास्तविक उद्देश्य प्रतापशाह के लिये ख़ानख़ाना का सहयोग और सैनिक सहायता प्राप्त करना था, किंतु ग्रंथकार ने एक अपूर्व कवित्वपूर्ण ढंग से इस लक्ष्य का गोपान कर सुंदर चंपूकाव्य की रचना की, अर्थात् उक्त उद्देश्य को काव्य के आवरण में उपस्थित किया।
(2) साथ ही अकबर के शासनकाल के इतिहास की रचना के लिये राष्ट्रौढवंश महाकाव्य का महत्व स्पष्ट है, क्योंकि उसमें दक्षिण को अधीन करने के विषय में अकबर के मंसूबे दिखलाए गए हैं।
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