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कबीर जीवन-खण्ड- लेखक पं. शिवमंगल पाण्डेय, बी. ए., विशारद

नागरी प्रचारिणी पत्रिका

कबीर जीवन-खण्ड- लेखक पं. शिवमंगल पाण्डेय, बी. ए., विशारद

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    कबीर की जीवन-घटना साधारण नहीं है। वह पद पद पर आलौकिकता से पूर्ण है। आरम्भ से अन्त तक आश्चर्यमय है। जिती ही उनकी उत्पत्ति संदिग्ध और अज्ञात है, उतना ही उनका मरण और उनकी जीवन-व्यवस्था भी। सत्यतः उनके जीवन की कोई ऐसी घटना नहीं है, जिसमें दैविकता और पारलौकिकता के कुछ अंश पाए जाते हों। भक्तमाल में उनकी उत्पत्ति का ठीक इसी तरह उल्लेख है।

    जब रामानन्द स्वामी पवित्र नगरी काशी में रहते थे, उस समय एक अकिंचन ब्राह्मण उनकी सेवा करता था और सदा उनकी सुख-सामग्रियों के संचित करने में रत रहता था। दास स्वामी जी पर इतनी श्रद्धा-भक्ति रखता था कि वह उनको अपना गुरु मानता था। स्वामी जी उसके लिये देव-तुल्य थे। उस ब्राह्मण के एक विधवा कन्या थी। वही उसकी इकलौती बेटी थी। उस पर पिता का अगाध वात्सल्य-प्रेम था। ऐसी कन्या ऐसे पिता की योग्य सन्तति थी। वह सर्वदा धर्मपरायण थी।

    उसकी प्रवृति केवल पूजा और धार्मिक कार्यों में रहती थी। वह ऋषि के दर्शनार्थ बहुत उत्कण्ठित रहा करती थी। एक दिन पिता से उसने इसके लिये निवेदन किया। ब्राह्मण भी इस पर सहमत हो गया औऱ उसको उस पवित्रत्मा के चरण-कमलों के समीप ले गया। कन्या का चरित्र धर्मपरायण था ही। उसने बड़े नम्र भाव से उस शुद्ध-बुद्ध पुरुष को सिर नवाया। स्वामी जी उसके ऐसे बर्ताव से बहुत प्रसन्न हुए, और कह पड़े- ‘जा तेरे पुत्र हो।’ ऐसी दशा में सिद्ध फ़कीर ऐसा ही आशीर्वाद दिया करते हैं। स्वामी जी को क्या पता था कि कन्या किशोरावस्था से ही विधवा है। पिता समीप ही खड़ा था। उस पर एकाएक वज्रपात सा हुआ। वह बहुत घबराया और ऋषि से बाला- “पूज्यपाद! आपने क्या कहा! मेरी कन्या विधवा है। उसकी पुत्र कैसे हो सकता है?” ऋषि कुछ भी क्षुब्ध नहीं हुए और धैर्यपूर्वक उन्होंने उत्तर दिया- “मेरा वचन असत्य नहीं हो सकता। उसको पुत्र अवश्य होगा। परंतु गर्भधारण कर चिन्ह उस पर लक्षित नहीं होगा, और कोई अपमानपूर्ण किम्वदन्ती जनता में फैलेगी।” ब्राह्मण भौचक्का हो गया। उसके मुँह से बात तक निकलती थी। कन्या को धीरे से साथ लेकर घर चला गया। उसने यह बात किसी से नहीं कही और भविष्य की प्रतीक्षा करने लगा। दस महीने बीत गए, और बिना किसी गर्भधारण के चिन्ह के, कन्या को एक पुत्र उत्पन्न हुआ। कन्या इस बात पर बहुत दुःखित हुई कि इसका समाचार किसी तरह छिपा नहीं रह सकता। वह किंकर्तव्यविमूढ़ा सी हो गई। घबराहट में उसने पैदा होते ही पुत्र को गोद में उठा लिया और एक नदी पार करके उस पार उगे हुए झाऊ और नरकल के नीचे कलेजे पर पत्थर रखकर पुत्र को फेंक दिया। उसने सोचा कि शायद किसी बटोही की नज़र इस पर पड़ जाय और दया के वशीभूत होकर इसके प्राण की रक्षा हो जाय। तदनन्तर ऐसा हुआ कि अली नाम एक जोलाहा उसी रास्ते से गुजर रहा था। बालक को ऐसी असहाय दशा में देखकर जोलाहे को उश पर दया गई। उसने पुत्र को उठा लिया और घर ले आया। जोलाहा बालक को पुत्रवत् रखने लगा। बालक पर उशका प्रेम इस कारण से अधिक था कि वह सन्तान-हीन था। उसी बालक को वह स्वपुत्र मानने लगा। काल के गाल से अलौकिक रीति से बचा हुआ यही बालक आज के इस छोटे से लेख का पवित्र और उज्जल नायक है।

    बालक धीरे-धीरे बड़ा हुआ। जब उसके नामकरण का समय आया, तब धर्मपिता ने उसका नाम कबीर रक्खा। अली का जीवन-निर्वाह कपड़ा बुनने से होता था। पुत्र को भी उसने बुनने का काम सिखाया। होते होते कबीर बुनने के काम में ऐसे पारंगत हो गए कि उनकी कमाई पिता की कमाई से कहीं अधिक होने लगी। ऐसा होना स्वाभाविक ही था, क्योंकि अली बहुत वृद्ध हो गया था और एक प्राणघातक रोग से ग्रस्त था। उससे काम अच्छी तरह होता था। यद्यपि कबीर बुनाई के काम में सिद्धहस्त हो गए, तथापि उनके जीवन का वही एक मात्र उद्देश्य था। ताना तनने के साथ ही साथ वे सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर की प्रशंसा में भिन्न-भिन्न प्रकार के गाने गाया करते थे। नवयुवक कबीर बड़े परिश्रम से कार्य करते औऱ अपने माता-पिता का जीवन-निर्वाह कराने में सदा संलग्न रहते थे। इस प्रकार वे अपने कुटुम्ब का भली भाँति पालन पोषण में समर्थ हुए।

    एक दिन कबीर पास के बाज़ार को जा रहते थे कि इतने में आकाशवाणी हुई- “ऐ कबीर! रामानन्द स्वामी से मंत्र लो और माला पहन और तिलक लगाकर वैष्णव हो जाओ।” कबीर ने इन शब्दों को नितान्त ऐश्वरीय जाना और तुरन्त ही ऋषि के आश्रम की ओर चल पड़े। रास्ते में उनको मालूम हुआ कि रामानन्द स्वामी ब्राह्मण को छोड़कर इतर किसी जातिवाले को मंत्र नहीं देते। कबीर तो मुसलमान थे। उनसे मंत्र पाना तो स्वप्न में भी नहीं देखा जा सकताथा। यह समझकर कबीर बहुत ही दुःखई होकर धीरे-धीरे घर की ओर लौटे। परन्तु कबीर ऐसे थे कि जिन पर प्रतिकूल घटना का भयपूर्ण प्रभाव पड़े। वे अपने विचार के पक्के थे। उसी समय से कोई रास्ता निकालने के सोच विचार में लग गए। अन्त में उन्होंने एक ऐसा ढंग सोच निकाला जिससे वे अपना अभीष्ट सफल कर सकें।

    रामानन्द स्वामी बड़े प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त के पहले ही सोकर उठते थे और उशी समय गंगा स्नान के लिये जाते थे। एक दिन कबीर अपने झोंपड़े से उस समय उठे, जब प्रकाश अंधकार पर विजय-प्राप्ति के हेतु घोर युद्ध में प्रवृत्त होता है। कबीर घाट पर पहुँचकर सबसे अंतिम सीढ़ी पर लेट गए। संयोगवश ऐसा हुआ कि जब रामानन्द स्वामी नीचे उतर रहे थे, तब उनक खड़ाऊँ कबीर के सिर से टक्कर खा गया। स्वामी बिना कुछ सोचे समझे बोल उठे- “राम कह, राम कह।” कबीर, जिन्होंने मर जाने का बहाना किया था, तत्काल वहाँ से उठकर घर आए। उसी समय से माला पहन और तिलक लगाकर कबीर वैष्णव हो गए। ऐसे वेष में वे अपनी झोंपड़े के दरवाजे पर बैठे बैठे “राम” “राम” का मंत्र जपा करते थे। कबीर को ऐसे अजनबी ढंग में पाकर उनकी माँ ने कुछ हँसी में कहा- “कबीर! किसने ऐसा पागल बना दिया?” माता का यह कथन कुछ अंशों में ठीक था। धार्मिक दृष्टि से कोई मुसलमान वैष्णव तभी कहा जा सकता है, जब उसके मस्तिष्क में कुछ विकृति गई हो। हिन्दू-शास्त्रानुसार भी कोई मुसलमान हिन्दू नहीं हो सकता। कबीर ने माँ को उत्तर दिया- “नहीं माँ! मैं विक्षिप्त नहीं हूँ, बल्कि रामानंद स्वामी का शिष्य हो गया हूँ।” सभी जानते थे कि स्वामी जी मुसलमान का मुख देखना तक नहीं चाहते। उन्होंने कबीर को चेला कैसे बनाया? गाँववालों के कानों में यह खबर पड़ी कि ऋषि तक पहुँच गई। ऋषि को विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने तत्काल ही कबीर को बुला भेजा। कबीर के आते ही वे परदे के पीछे हो गए, क्योंकि वे किसी मुसलमान के समक्ष बोलते थे। आढ़ से ही उन्होंने कबीर से पूछा- “तू मेरा चेला कैसे हुआ?” कबीर ने कहा- “स्वामी जी! क्या राम नाम के अतिरिक्त अन्य भी कोई मंत्र है?” स्वामी जी के नहीं कहने पर कबीर ने फिर पूछा- “क्या ‘राम कह, राम कह’ को छोड़कर दूसरा भी कोई मंत्र देने का ढंग है? और क्या स्वामी जी! आपने गंगा के तट पर, जब आपका खड़ाऊँ मेरे सिर से टकराया था, मुझ को यही मंत्र नहीं दिया था?” कबीर के इस यथोचित उत्तर ने रामानन्द स्वामी के अन्तःकरण से मुसलमानों के प्रति उनके वैमवस्य-बाव को निकाल दिया। वे परदे के बाहर निकल आए और आनन्दमय तथा आश्चर्यपूर्ण भाव से कबीर को गले लगा लिया। कबीर के म्लेच्छ होते हुए भी स्वामी जी ने उन्हें अपनी पंगति में ले लिया।

    जब कबीर ने देखा कि आकाशवामी पूर्णतया चरितार्थ हुई, तब उनका उत्साह और भी बढ़ा और अब बराबर ईश्वर-प्राप्ति के प्रयत्न में रहने लगे। एक दिन हरि ने उनकी परीक्षा लेनी चाही। जब कि कबीर बाज़ार में एक थान लेकर बेचने गए, एक वैष्णव ने आकर उनसे कपड़ा माँगा। वैष्णव हरि के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं था। कबीर वैष्णवों के भक्त थे। वे इनकार कर सके। कपड़े का आधआ भाग वैष्णव को दे डाला। वैष्णव ने कहा- “आधे से मेरा काम नहीं चलेगा।” इस पर उन्होंने अवशिष्ट आधा भाग भी दान कर दिया। कबीर के माँ-बाप धनी थे। कपड़े बेचने से ही उनकी रोज़ी चलती थी। उस दिन बिना मूल्य के कपड़ा वैष्णव को दे डाला, इसलिये कबीर के घर में कुछ नहीं दे सकते थे। उन्होंने यह भी सोचा कि घर पर कुछ झिड़कियाँ भी मिलेंगी। इसलिये उस दिन शाम को घर जाना उन्होंने अच्छा नहीं समझा। वे बाजार ही में एक स्थान पर सो रहे और यह सोचा कि माँ बाप किसी तरह से गुजर कर ही लेंगे।

    हरि को कबीर के भूखे कुटुब पर दया और वे अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थ लेकर कबीर के घर गए। माता भौचकी रह गई और बोली- “हे कबीर। तुमने आज किस को लूटा है? अगर न्यायाधीश को इसका पता चल गया, तो हथकड़ी बेड़ी डालकर बन्दीगृह में रख दिए जाओगे।“ तदनन्तर हरि ने, जिसने कि अभी कबीर का रूप धारण किया था, फिर वैष्णव का बाना बनाया, और तुरन्त बाज़ार में कबीर के पास आए और उनसे घर जाने को कहा। कबीर घर लौट आए और सब हाल सुनकर बहुत चकित हुए। कबीर को पूर्ण विश्वास हो गया कि यह सब करतूत हरि की ही है। यह समझकर कि ईश्वर मुझ पर इतना दयालु है, कबीर ने सब सांसारिक विषयों का त्याग कर दिया और केवल ईश्वर-ज्ञान की ओर झुके। उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति वैष्णों में बाँट दी और एक निस्पृह वैरागी की तरह रहने लगे। ब्राह्मणों को कबीर का दान बहुत बुरा लगा। उन्होंने कबीर के प्रतिकूल कुछ कपट-प्रबंध रचने का विचार किया। क्रोध में उन्होंने कबीर से पूछा- “ऐ जोलाहे! तुमने सब कुछ वैष्णवों को लुटा दिया और हम लोगों को कुछ भी दिया। क्या यह न्याय संगत है? हम लोग तुम्हारी दानशीलता से बाहर क्यों रहें?” परन्तु कबीर विवश थे। उन्होंने सब कुछ समाप्त कर दिया। उन्होंने अन्त में ब्राह्मणों से कहा- “कुछ देर ठहरिए, मुझे एक जगह से लौट आने दीजिए।” इतना कह कबीर बाजार चले गए और उसी स्थान पर लेट गए। इसी बीच में हरि ने कबीर का बाना बनाकर, बैलों पर रुपए लाद कर और उन ब्राह्मणों के पास आकर उनको भरपूर धन दिया। फिर उसी तरह कबीर के पास जाकर उनको घर लौट जाने को कहा। तदनुसार कबीर घर आकर क्या देखते हैं कि सब ब्राह्मण दान से तृप्त हैं और उनका घर धन से भरा है। कबीर ने सब धन उसी दम दान कर दिया। लोगों को आशआतीत सम्पत्ति प्राप्त हुई। अब क्या था! कबीर का नाम कर्ण की तरह प्रसिद्ध हुआ। प्रति दिन भिखमंगों की भीड़ उनके दरवाज़े पर लगी रहती। उनका सब समय दान देने ही में लग जाता। इससे उनके भजन भाव में बड़ी बाधा उपस्थित हुई। उन्होंने इस जंजाल से छुटकारा पाने की कोशिश में कुछ रख नहीं छोड़ा। अन्त में एक ऐसा ढंग ढूँढ़ निकाला, जिससे कि वे कार्य-सिद्धि में सफल हुए। यद्यपि ऐसा ढंग एक त्यागी वैष्णव के चरित्र के नितांत अयोग्य था, तथापि और कुछ दूसरी बात उनको उस समय सूझी।

    एक दिन प्रातःकाल कबीर ने एक वेश्या को बुलाया और अपने साथ उसको शहर में घूमने को कहा। रास्ते में उसको बहुत बड़े बड़े इनाम देते जाते थे। कबीर ने एक हाथ उसके कंधे पर रख लिया था और दूसरे हाथ से कमंडलु लिए हुए थे। इसी वेष में जनपथ और राजपथ पर वे घूम रहे थे। यह अत्यंत कलुषित दृश्य सज्जनों की नज़र में इतना चुमता था कि वे कबीर के घर से सदा के लिये नौ दो ग्यारह हुए। उनके लिये यह पाप-पूर्ण धृष्टता की पराकाष्ठा थी। दुष्ट लोग इस पर प्रसन्न हुए कि कबीर भी, जिनकी प्रख्याति दाक्षिण्य और धार्मिकता में बहुत बढ़ी चढ़ी थी, अब हमीं लोगों में से एक हो गए। इसी बाने से कबीर राजा के सम्मुख जा पहुँचे। राजा ने, जैसी कि आशा थी, इससे बहुत बुरा माना। वह असभ्य और अशिष्ट व्यवहार देखकर कबीर ने कमंडलु से कुछ जल पृथ्वी पर छिड़का। राजा ने समझा, शायद बारा मेरे ऊपर नाराज़ हो गए हों। उन्होंने मर्म-भेदी स्वर में कहा- “क्या आपने क्रोध में मुझे शाप दिया है?” बाबा जी ने कहा- “नहीं महाराज! जनगन्नाथ जी का पण्डा गर्म गर्म प्रसाद थाली में लिए जा रहा था। कुछ प्रसाद उसके पैर पर गिर पड़ा, जिससे कि वह जल गया। उसी का कष्ट शांत करने के लिये मैंने जल फेंका है।” राजा को उस समय इस बात पर विश्वास नहीं हुआ, परंतु पुरी से जब समाचार मँगाया गया, तब कबीर का कथन अक्षरशः सत्य निकला। राजा बहुत लज्जित और भयभीत होकर क्षमा-प्रार्थना के लिये कबीर के पास आया। अब कबीर का नाम राजा के यहाँ भी प्रख्यात हो गया और उनके भाग्य में महान् परिवर्तन हो चला।

    तत्पश्चात् राजा साहब का देहांत हो गया। उनके लड़के सिकंदर ने राजगद्दी पाई। पास के ब्राह्मणों ने, जो जोलाहे कबीर के वैष्णव हो जाने से बुरा मानते थे, उनकी माँ को बहका कर महाराजाधिराज सिकंदर के पास भेज दिया। दिन ही को माँ के हाथ में एक दीपक दे दिया और सिकंदर से उससे कहलवाया- “आप के राज्य में दिन ही रात हो गया है, नहीं तो एक मुसलमान हिन्दू कैसे हो सकता था?” राजा ने शिकायत सुन ली और कबीर को दरबार में दण्ड देने के लिये बुलाया। उनके आते ही एक दरबारी ने कहा- “राजा का आधिपत्य स्वीकृत करके उनका अभिनंदन करो।” अपने विश्वास में दृढ़ कबीर ने निडर होकर कहा- “मैंने केवल राम को ही जाना है। मैं उसी का अधिकार मानने को तैयार हूँ, दूसरे किसी का नहीं।” इस निर्भीक और अनम्र उत्तर से सिकंदर बहुत क्रुद्ध हुआ। उसने फौरन ही हुक्म दिया कि इसके हाथ पैर बाँधकर गंगा में फेंक दो। राजकीय शासन ज्यों का त्यों पूरा किया गया। परंतु कुछ काल के बाद जब सब लोग यह सोच रहे थे कि कबीर अब परलोग को सिधारेगा, वे हथकड़ी बेड़ी से मुक्त होकर पानी से बाहर खड़े हुए। यह सत्यतः एक आश्चर्यमयी घटना थी, परंतु राजा का क्रोध तनिक भी शांत नहीं हुआ। उसने फिर कबीर को प्रज्जवलित अग्नि में फेंक देने का हुक्म दिया। वैसा किए जाने पर भी कबीर का एक बाल भी बाँका हुआ- उनका शरीर बिल्कुल सुरक्षित बना रहा। इस पर भई राजा के सिर से भूत नहीं उतरा। उसने फिर भई कबीर को हाथी के नीचे कुचलवाने का हुक्म दिया। यह प्रयोग भी विफल रहा, क्योंकि हाथी कबीर को दूर ही से देखकर बेतहाश भागा। इसका कारण जानने के लिये राजा ने स्वयं हाथी पर सवार होकर कबीर को कुचलवाना चाहा। परंतु राजा और हाथी दोनों को कबीर व्याप्त-वत् लक्षित होते थे। हाथी कबीर को बाघ समझकर चिंघाड़ मारकर भाग निकला। अब जाकर राजा की आँखें खुलीं। उसके अंतःकरण पर इसका बड़ा प्रभाव पड़ा। उसने बहुत विनयपूर्वक कबीर के पास आकर उनको साष्टाङ्ग प्रणाम किया और क्षमा की प्रार्थना करता हुआ हाथ जोड़कर बोला- “कबीर साहब! कृपाकर मुझे क्षमा कीजिए। मुझे दैविक क्रोध से बचाइए। मैं आप को धन दौलत, जितना आप चाहें, देने को तैयार हूँ।” संसार-त्यागी कबीर ने उत्तर दिया- “मैं ऐसी सम्पत्ति को क्या करूँ, जिसके पाने से बाप बेटे में और भाई भाई में बैर-भाव पैदा होता है? पर इतना मैं कहे देता हूँ कि दयालु राम तुम्हारा अपराध क्षमा करेंगे।”

    जब उपर्युक्त ब्राह्मणों ने देखा कि हमारे सब उपाय मिट्टी में मिल गए, तो उन्होंने फिर और अधिक प्रभावशाली उपाय निकालना चाहा। वे जानते थे कि हिंदू और मुसलमान दोनों ने कबीर को छोड़ दिया है। केवल वैष्णवों में उनकी प्रतिष्ठा और सर्वप्रियता है। यदि केवल वैष्णवों से और उनसे अनबन हो जाय, तो हमारा मतलब निकल आवे। तदनुसार उन लोगों में से चार मनुष्यों ने वैष्णवों के रूप बनाए। उन्होंने कबीर के नाम का एक झूठा पत्र बनाया और उसे लेकर तमाम मुल्क के वैष्णवों को कबीर के यहाँ एक नियत दिन को भोज के लिये निमंत्रित किया। उस दिन हजारों वैष्णव कबीर के दरवाजे पर उपस्थित हुए। कबीर ने समझ लिया कि हमारे साथ कूट-व्यवहार किया गया है। वे कुछ घबराए भी, कि साधारण जन-समाज में तोमेरा अपमान था ही, अब वैष्णवों से भी मुझसे बिगड़ेगी। अंत में उन्होंने ईश्वरीय शक्ति ही का आश्रय लेना सब से अच्छा समझा। प्रार्थना करते ही हरि ने कबीर को अनेक प्रकार की सामग्रियों से भरपूर कर दिया। अतिथि-समाज खूब खा पीकर निमंत्रक से बहुत प्रसन्न हुआ और हृदय से आशीर्वाद देता हुआ अपने घर को चला गया।

    परंतु कबीर की विघ्न-बाधाओं और कठिन परिस्थितियों का यहीं अंत नहीं है। शायद उपर्युक्त ब्राह्मणों के ही प्रोत्साहन से एक वेश्या ने फिर भी कबीर को अपने लावण्यमय मनोहारी रूप के फँदे में फँसाना चाहा। परंतु यहाँ भी धार्मिकता की अधर्म पर और सदाचार की व्यभिचार पर विजय हुई। वेश्या के हृदयप्राही और मनोमुग्धकारी रूप को देखकर कबीर ने भक्ति का एक बहुत अच्छा भजन गाया, जिसका प्रभाव उस पर अटल रीति से पड़ा। वह बहुत लज्जित हुई और सदाचार और धार्मिकता के भाव से अपने पर लौट गई। शायद उसी दिन से उसने वेश्या का कार्य छोड़ दिया। उपर्युक्त भजन इस आशय का थाः- “उसी राम ने, जिसने मुझे बनाया है, तुमको भी बनाया है- हम लोगों का निर्माणकर्ता एक ही है। तुम सचमुच मेरी माँ की बहन हो। तुम में और मुझ में माँ बेटे का संबंध है। मेरी शिक्षा मानकर घर लौट जाओ, और एकनिष्ठ होकर राम की भक्ति में रत हो जाओ। तुम को विश्वास रहे कि ऐसा करने पर राम तुम्हारी कलुपित पापमय आत्मा को अधोगति से उद्धार कर देंगे।” इस प्रकार कबीर ने अपने शत्रुओं से संग्राम में विजय पाई। अब कोई शत्रु उनका सामना कर सकता था। बल, कपट, प्रलोभन सब कबीर पर प्रयुक्त किए गए, परंतु सदाचार और धार्मिकता की प्रज्जवलित अग्नि के सामने ये सब ऐसे नष्ट हो गए, जैसे प्रातःकाल का कोहरा सूर्यादय से छिन्न भिन्न हो जाता है।

    आलोचना-खण्ड

    ऐसा जान पड़ता है कि कबीर बहुत दिनों तक जीवित रहे, परन्तु निस्सन्देह उनकी अवस्था इतनी अधिक रही होगी, जितनी कि उनके अनुयायी कहते हैं। वे कहते हैं कि कबीर का जन्म-काल 1200 सं. और मरण-काल 1500 सं. है। कलियुग में 300 वर्ष जीना नितान्त असंभव है। हिंदू-शास्त्रानुसार मनुष्य-जीवन लगभग 100 वर्ष से अधिक नहीं हो सकता। परंतु अनुभव से प्रतीत होता है कि यह सीमा कभी कभई उल्लंघित की गई है। यूरोप के सबसे बड़े दीर्घ-जीवी मि. पीर का मरण 154 वें वर्ष में हुआ था। मृत्यु के बाद उसके मस्तिष्क के अनुसंधान (Postmortem Examination) से ज्ञात हुआ कि यदि वे प्राकृतिक साधारण व्यवस्था से रहते, तो कुछ और दिनों तक जीवित रहते। इसके अतिरिक्त भारतवर्ष में भी 100 वर्ष से ऊपर तक के मनुष्य हो गए हैं और होते हैं। अभी गत वर्ष में मेरे ही गाँव का एक लोनिया 115 वर्ष में मरा है। इस प्रकार और भी अनेक उदाहरण हैं। इन उदाहरणों से पता चलता है कि इस कलियुग में मनुष्य-जीवन 160 या 170 वर्षों से अधिक का नहीं हो सकता। इस विचार से कबीर का 300 वर्ष जीना असंभव नहीं तो और क्या हो सकता है? यदि यह भी मान लिया जाय कि कबीर भारतवर्ष के सब से बड़े दीर्घजीवी थे, तो भी उनकी अवस्था 160 या 170 वर्ष से अधिक नहीं हो सकती।

    कबीर रामानन्द स्वामी के शिष्य थे। रामानन्द जी रामानुज के (जो कि वैष्णव संप्रदाय के प्रवर्तक थे) शिष्य थे। इतिहास से ज्ञात होता है कि धारासमुद्र के राजा विष्णुवर्धन (1117ई.- 1137ई.) ने वैष्णव होकर रामानुज को अपना गुरु माना। इससे उक्त प्रसिद्ध धर्मोपदेशक का बारहवीं शताब्दी में होना सिद्ध है। यह भी निर्विवाद है कि रामानन्द रामानुज के ठीक बाद के शिष्य थे। सत्यतः रामानन्द रामानजु से चौथी पीढ़ी में थे। वे राघवानन्द के अनुलोग शिष्य थे। ये सब उपदेशक दीर्घजीवी थे। यदि रामानुज के बाद रामानन्द तक तीनों ऋषि 100-100 वर्ष के लगभग जीवित रहे हों, तो भी रामानन्द का काल चौदहवीं शताब्दी का अन्तिम भाग आता है। प्रोफे. एच. एच. विलसन ने भी ऋषि का यही समय बतलाया है। कबीर के मंत्र लेने के समय रामानन्द अवश्य बहुत बृद्ध हो गए थे। उनकी भी अवस्था 100 वर्ष के लगभग रही होगी। इसलिये यदि हम कबीर का काल 15वीं शताब्दी मानें, तो कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

    इस कथन का समर्थन एक और बात से भी होता है। यह कहा जा चुका है कि कबीर की माँ ने कुछ दुष्ट ब्राह्मणों के कहने पर सिकंदर से अपने लड़के की शिकायत की थी। यह सिकंदर, लोदी ख़ानदान का दूसरा बादशाह और बहलोल लोदी का लड़का था। सिकंदर 1488 ई. से 1517 ई. तक राजगद्दी पर रहा। बहलोल बड़ा पराक्रमी शासनकर्ता था। उसने उत्तरीय भारत का एक बहुत बड़ा भाग, पंजाब से बनारस तक, जीतकर अपने राज्य में मिलाया था। सिकंदर ने अपने बाप के जीते हुए सब मुल्कों पर अधिकार ज्यों का त्यों रक्खा और बिहार को भी अपने साम्राज्य में मिलाया। इसलिये बहुत संभव है कि सिकंदर बनारस में कुछ दिनों तक रहा हो और अतः कबीर की माँ को शिकायत करने का अच्छा मौका मिला हो। इस प्रकार कबीर के अनुयायियों का उनके मरण के विषय में कथन अधिक असत्य नहीं प्रतीत होता। उनके अनुसार भी कबीर की मृत्यु 1500 सं. (1443 ई.) में हुई। 1443 ई. और 1488 ई. में बहुत अंतर नहीं है। अतः कबीर का मृत्यु-काल लगभघ 1490 ई. मानने पर उनका जन्म लगभग 1320 ई. में हुआ होगा।

    कबीर की मृत्य भी उतनी ही आश्चर्य-जनक है, जितना कि उनका जन्म। जब कबीर को ब्रह्म-ज्ञान के बल से मालूम हुआ कि अब हमारे मरने का समय समीप है, तब उन्होंने अपने अपने अनुयायियों और शिष्यों से अपनी अन्त्येष्टि-क्रिया के विषय में कहा। उनके शव का क्या किया जाय, इसके विषय में उन्होंने दो असंगत आदेश दिए। हिंदुओं से जलाने को कहा और मुसलमानों से कब्र में गाड़ने को कहा। उस समय इसका पूर्ण आशय कोई समझ सका। यह असंभव सा प्रतीत होता है और आदेशकर्ता की बुद्धि में कुछ विकार जाना बतलाता है। परंतु कबीर को सत् असत् का अच्छा ज्ञान था, उनका कथन असत्य तथा विकारयुक्त नहीं हो सकता था। अंत में, कहा जाता है कि, जिस दिन कबीर का प्राणांत हुआ, अथवा वे अंतर्द्धान हुए, वे पृथ्वी पर लेट गए और अपने शरीर को एक बड़े कपड़े से ढक लिया। थोड़ी देर में अतं हो जाने पर उनके शिष्य झगड़ने लगे। हिंदू कहते थे कि शव जलाया जायगा और मुसलमान कब्र में गाड़ने पर तुले थे। जब झगड़ा खूब ज़ोरों से हो रहा था, दोनों ओर की भलाई चाहनेवाला कोई आकर कहने लगा कि कपड़ा उठाकर देथो तो सही। वैसा किए जान पर कपड़े के नीचे केवल फूलों का ढेर मिला। अब झगड़ा शांत हुआ। आधे फूल हिंदू राजा वीरसिंह के आदेशानुसार हिंदू लोग ले जाकर जलाकर प्रसन्न हुए और आधे मुसलमानों ने कब्र में गाड़कर खुशी मनाई। हिंदुओं ने काशी में कबीरचौरा नामक स्थान पर अंत्येष्टि-क्रिया की थी। मुसलमानों ने मगहर में दफन किया था। ये दोनों स्थान कबीर के अनुयायियों के लिये बहुत पवित्र और महत्वपूर्ण हैं। वर्ष में एक बार दूर दूर से यात्री इन स्थानों के दर्शनार्थ आते हैं। कबीर-पंथी कहते हैं कि कबीर का मरण अगहन की एकादशी को हुआ था।

    कबीर के बहुत चेले थे जिनमें से मुख्य बारह थे- गोपाल, भोगादास, नारायणदास, धर्मणदास, ओगादास, कमलदास, जीवनदास, लक्षलि, ज्ञानी, साहबदास, नित्यानंदनदास और रैनालदास। ये सब शिष्य बड़े पढ़े लिखे और बुद्धि-संपन्न थे। प्रत्येक ने समाज के लिये एक एक ग्रंथ लिख छोड़ा है। कबीर-पंथी इस ग्रंथों का बड़े आदर से अनुशीलन करते हैं। इस समय कबीर संप्रदाय उनके बारहों शिष्यों के अनुसार बारह शाखाओं में विभक्त है- एक एक शिष्य ने एक एक मार्ग निकाला था।

    कबीर संप्रदाय का सब से बड़ा सिद्धान्त ईश्वर की एकात्मवादिता है। वही केवल अखिल विश्व का निर्माणकर्ता, अनादि और अनंत है। इसने किसी एक धर्म-मार्ग को नहीं अपनाया है, प्रकटतः सब धर्मो में समान-रूपेण विद्यमान है। इस विचार से एक धर्म से दूसरे में कोई विशेष अंतर नहीं। तदनुसार कबीर ने इस बात पर बड़ा जोर दिया था कि हिंदुओ और मुसलमानों का ईश्वर एक ही है। भाग्यवश वह समय ऐसा था कि हिंन्दुओं और मुसलमानों का वैर-भाव कुछ दूर हो गया था- वे एक दूसरे, से मैत्री-भाव रखने लगे थे। यही कारण है कि कबीर के इस सिद्धांत का लोगों ने समर्थन किया और इससे वे प्रभावान्वित हुए।

    कबीर के अनुसार ईश्वर केवल सर्वधर्मगत ही नहीं है, प्रत्युत वह अखिल-विश्व-व्यापक भी है। संसार में कोई ऐसा पदार्थ नहीं है, जिसमें ईश्वर का अंश पाया जाता हो, अतः प्रकृति के किसी अंग की अवहेलना भी नितांत घृणित और अनुपयुक्त है। सब पदार्थों को आदरपूर्वक, अनुराग से देखना चाहिए। परन्तु कबीर तो विश्वदेव-वादी ही थे और अनेकदेववादी। वे केवल आस्तिक अर्थात् ईश्वरवादी थे। इस प्रकार वे आधुनिक ब्राह्म-समाज (ब्रह्मो-समाज) के अग्रसर कहे जा सकते हैं। ब्राह्म-समाज के सब से बड़े नेता केशवचंद्र सेन कहते हैं- “मनुष्यता पहले प्रकृति ही में ईश्वर का अन्वेषण करती है। उसका सब से पहला ईश्वर-ज्ञान प्रकृति-ज्ञान से भिन्न नहीं है। उसकी सबसे पहली पूजा प्रकृति-पूजा ही है। वह प्रत्येक पदार्थ का पूजन करती है, जो उसमें आश्चर्य और कृतज्ञता का संचार करे।” वे फिर कहते हैं- “यह प्रकृति का नैसर्गिक पूजन तो विश्वदेववाद है और अनेकदेववाद। यह तो केवल अपरिमित शक्ति का पूजन है, अर्थात् साधारण ईश्वरवाद तथा आस्तिकता है।” नीतिज्ञ कवि पोप का कथन है- “हम केवल प्रकृति ही के द्वारा प्राकृतिक ईश्वर का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।” सत्यतः प्रकृति-पूजन ईश्वर-पूजन की प्रथम श्रेणी है, अथवा परोक्ष अपरोक्ष में प्रतिभासित होता है। कबीर का धार्मिक सिद्धान्त ठीक ऐसा ही मालूम होता है।

    कबीर मूर्ति-पूजा के कट्टर विरोधी थे। वे कहते हैं कि ईश्वर परोक्ष और अद्रष्टव्य है, और इसलिये उसकी प्रतिमा बनाना मूर्खता है। मूर्ति में जीवन का कुछ भी अंश नहीं रहता, अतः मिष्टान्न, फल तथा अन्य खाद्य द्रव्यों का उसको भोग लगाना हास्यास्पद है। मूर्ति ईश्वर नहीं है, अतः उसका पूजन निरर्थक और व्यर्थ है। जब एक निराकर परब्रह्म की सत्ता निर्विवाद है, तो पत्थर और मूर्ति की पूजा करने से क्या लाभ? थाली-भर मिठाई का भोग लगाने से क्या मूर्ति उसका कुछ भी भाग खा सकती है? मूर्ति को खाद्य द्रव्य के स्वाद का क्या ज्ञान? अज्ञानता में मनुष्य चंदन से उसके शरीर का लेपन करता है, जिसके कान हैं, जीभ है, और जो स्पर्श-शख्ति का यथोचित ज्ञान प्राप्त कर सकता है। जो लोग तुलसी के पत्ते से पत्थर की पूजा करते हैं, वे स्वयं पत्थर से अच्छे नहीं है। वे बने हुए भक्त हैं। जिसको अखिल-विश्वात्मा परमेश्वर का कुछ भी ज्ञान नहीं है, वह चौरासी योनि में भटकता हुआ सर्वदा नरक का ही सेवन करता है। सच्चा पूजन जीवात्मा का होता है। पूजन से और बाह्य आडम्बर से कुछ भी संबंध नहीं। हिंदू-धर्मानुसार जो कर्मकाण्ड और आडम्बर हैं, वे सत्य आध्यात्मिक पूजन का लघु अंश भी नहीं है। ईश्वर-प्राप्ति में मुख्य वस्तु भक्ति है। ईश्वर में मनसा, वाचा, कर्मणा भक्ति रखना ही उस तक पहुँचने का द्वार है।

    पक्के हिंदू और मुसलमान की तरह माला जपने में कबीर को तनिक भी विश्वास था। रोमन कैथलिक-वाले भी माला को बहुत महत्व देते हैं। कबीर कहते हैं कि भक्ति का आंडबर निरर्थक है। ईश्वर-प्रार्थना करनेवाले को कबीर शिक्षा देते हैः---

    कर का मनका छाँड़िकै, मन का मनका फेर।

    इस प्रकार कबीर का धार्मिक विचार नितांत विशुद्ध है, उसमें ऊपरी सजावट और बाह्याडंबर का लेशमात्र भी नहीं है।

    मृत पूर्वजों का जल से तर्पण करना हिंदुओं में एक साधारण बात है। कबीर को इस पर भी विश्वास था, और वे इसकी हँसी उड़ाना चाहते थे। एक दिन जब कि वे नदी में स्नान कर रहे थे, कुछ हिंदू अपने मरे हुए पुरखों का तर्पण कर रहे थें। इसे देखकर उन्होंने भी पश्चिम की ओर पानी डालना आरंभ किया। उन हिंदुओं में से एक ने यह देख कर कबीर से पूछा- “ऐ जोलाहे! यह तू क्या कर रहा है?” कबीर ने उत्तर दिया- “मैं एक खेत को सींच रहा हूँ, जो यहाँ से कुछ दूर है।” इस पर हिंदू ने उनको मूर्ख बनाया, क्योंकि दूर के खेत को इस प्रकार सींचना असंभव था। कबीर ने भी बड़े मार्के का उत्तर दिया। उन्होंने कहा- “तुम मुझसे बढ़कर मूर्ख हो, क्योंकि तुम तो बैकुंठवासी पूर्वजो को जल पहुँचाना चाहते हो।” इस तरह कबीर ने हिंदुओं की इस प्रणाली की हँसी उड़ाई।

    कबीर की शिक्षा है कि आत्म-ज्ञान प्राप्त करना आत्मा के परमानंद के लिये बहुत आवश्यक है। बिना आत्म-ज्ञान के आत्मा की गति ईश्वर तक नहीं हो सकती और बिना ऐसी गति के निर्वाण प्राप्त नहीं हो सकता, जो कि आत्मा के परमानंद से भिन्न नहीं है। कबीर बडेस जोरदार शब्दों में कहते हैं- “अपने महल को जाओ, सदा शांति और आनंद से रहो। साधु! स्वयं अपना घर जानो, और यम-पाश से मुक्त हो। यदि तुमको अपना ही घर नहीं मालूम है, तो संसार त्यागने पर तुम कहाँ जाओगे?”

    सदगुरु के सत्संग की महत्ता की कबीर ने मुक्तकंठ में प्रशंसा की है। ऐसा सत्संग बहुत लाभकारी है और मनुष्य को सर्वोच्च निर्वाण पद तक पहुँचाने में बहुत सहायता देता है। यह पीयूष-वर्षा करता है और स्वर्गीय आनंद का अनुभव कराता है। कबीर बड़ी वाकपटुता से कहते हैं- “साधु ही मेरे परिजन हैं। पदार्थ मूर्तियों के सामने रखकर साधुओं और संन्यासियों को खिलाए जायँ, तो बहुत अच्छा हो। ये लोग पृथ्वी पर ईश्वर के प्रतिनिधि हैं और इसलिये इन लोगों की उत्तम भोजन से तृप्ति करना उस स्वर्गीय परमात्मा की तृप्ति करने के बराबर है।”

    मनुष्य के विषय में कबीर के विचार बहुत उन्नत है। वे बड़ी दृढ़ता से कहते हैं- “सब मनुष्य समान है। सचमुच उनमें कुछ अंतर नहीं है। बड़े से बड़ा ब्राह्मण छोटे से छोटे चाण्डाल से जौ-भर भी छोटा नहीं है। वर्ण-विभाग समाज की कृति का फल है, ईश्वर ने ऐसा नहीं किया है।” इस सिद्धान्त के अनुसार ही कबीर ने प्रत्येक वर्ण से शिष्य बनाए थे। इस विषय में कबीर अपने गुरु रामानंद से भिन्न मत के थे, क्योंकि वे ब्राह्मणों के अतिरिक्त किसी अन्य वर्णवाले को मंत्र देते थे। कबीर को तो, जैसा कहा जा चुका है, उन्होंने भूल से चेला बना लिया था। परंतु यहाँ भी रामानंद अपने पूर्व अनुष्ठान और मार्ग से विचलित नहीं हुए थे, क्योंकि कबीर भी तो जन्म से ब्राह्मण ही थे। कबीर ने गुरुपरंपरागत इस पद्धति का खण्डन किया। वे हास्य-पूर्ण भाव से कहते हैं- “यद्यपि माता के कंध पर यज्ञोपवीत नहीं रहता, तथापि पुत्र अपने को ‘पाण्डेय ब्राह्मण’ कहता है। उसी प्रकार यद्यपि बीबी फातिमा की मुसलमानी (अग्नेन्द्रिय-कर्तन) नहीं हुई थी, तथापि उसके पुत्र को उस दयाशून्य क्रिया के कष्ट सहने पड़े थे। अतः ब्राह्मण और क़ाजी दोनों धर्मच्युत हैं।”

    गुरु-शिष्य के संबंध के विषय में कबीर का कुछ और ही मत है। सार्वजनि हिंदू मत में और उसमें बड़ा अंतर है। साधारण हिंदू अपने गुरु को ईश्वरवत् मानता है। केवल गुरु ही की सहायता से निर्वाण पद प्राप्त हो सकता है। इस संसार सागर के लिये वही नौका है। फारसी के प्रसिद्ध कवि हाफिज भी कहते हैं- “मुल्ला के आचरण पर कुछ भी आक्षेप करते हुए सब मुसलमानों को बिना किसी आपत्ति के उनका आज्ञापालन करना चाहिए।” इसके प्रतिकूल कबीर का कथन है कि आचार्य और शिष्य दोनों एक दूसरे के मित्र हैं। एक दूसरे को कैवल्य गति प्राप्त कराने में सहायता देता है। आध्यात्मिक ज्ञान-प्राप्ति में पारस्परिक साहाय्य के अतिरिक्त गुरु शिष्य के संबंध अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। कबीर के अनुसार ईश्वर ही महान् गुरु है, उसका पद किसी ऐहिक पुरुष को नहीं मिल सकता। केवल उसके सहायतार्थ हमारी आत्मा अधोगति से मुक्त होकर स्वर्गीय सुख का अनुभव कर सकती है। ऐसा सुख केवल परमात्मा ही के हाथ मिल सकता है, दूसरे किसी के द्वारा नहीं। ईश्वर ही हमारा पथ-प्रदर्शक, सहायक और अंतिम ध्येय है। उसको छोड़ देने से हम अपनी आत्मा तथा सर्वस्व छोड़े बैठेंगे।

    धर्म पर कबीर के अति उत्तम विचार हैं। उनकी विशुद्ध और निष्काम धार्मिकता पर रामानंद स्वामी भी मुग्ध हुए बिना नहीं रह सके। यहाँ तक कि कबीर के गुरु होकर भी वे उनके शिष्य बनना चाहते थे। वृद्ध ऋषि कहते है- “कबीर को जोलाहा मानना मेरी अज्ञानता थी। मैं कबीर से दीक्षा लेने में बहुत प्रसन्न हूँगा और उस ब्रह्म की उपासना करूँगा, जो सदा उनके हृदय-मंदिर में वास करता है।” इस प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में कबीर की पूर्ण विजय हुई। कबीर का नाम धर्मोपदेश तथा धर्म-प्रचार में इतना बढ़ा ब्राह्मण साधु रामानंद की भी ख्याति उनके सामने कुछ रह गई। सत्यतः कबीर का स्थान आध्यात्मिक तथा धार्मिक क्षेत्र में अति उच्च है। जीसस क्राइस्ट की तरह वे भी सर्वाधिपति परमेश्वर के पुत्र माने जाते हैं और देव-तुल्य आदर से सम्मानित होते हैं।

    ईसाइयों और मुसलमानों की तरह कबीर मनुष्य और ईश्वर के बीच किसी मध्यस्थ की सत्ता पर विश्वास नहीं रखते थे। प्रतिनिधि द्वारा परमेश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। ऐसी प्राप्ति चाहनेवाले को और ही उफाय करना होगा। हाँ, यह हो सकता है कि वह किसी अफो से बुद्धिमान से तद्विषयंक शिक्षा ग्रहण कर ले, परंतु निर्वाण-पद की प्राप्ति केवल व्यक्तिगत प्रयत्न से ही होगा। परमेश्वर में पूर्ण विश्वास और हृद्गत भक्ति ही जीव को नरक की यातनाओं से बचा सकती है। इस प्रकार कबीर का धर्म सब आदर्शो, पक्षपातों और मूढ़ विश्वासों से परे होकर उस अनादि और अनंत परब्रह्म की सत्ता के विश्वास पर अवलंबित है, जो अगोचर, निर्विकार, दुर्बोध, सर्वव्यापक, विश्वसृज, विश्वंभर और विश्वानशक हैं।

    गुरु नानक की तरह कबीर की भी एक धार्मिक पुस्तक थी, जिसका वे बड़ा आदर करते थे। कबीर-पंथियों के लिये यह रामायण, कुरान तथा बाइबिल है, और एक अमोध पथ-प्रदर्शक है। यह इतनी पवित्र मानी जाती है कि कबीर-पंथी को छोड़कर दूसरा इसे छू तक नहीं सकता। इसका स्थान कबीर-संप्रदाय में वही है, जो कि ग्रंथ साहब का सिक्ख-संप्रदाय में है। किसी किसी पुण्य अवसर ही पर यह निकाली जाती है। ‘चौक आरती’ के शुभ अवसर पर एक सुंदर रेशमी कपड़े से ढककर एक वेदिका बनाई जाती है और उसी पर यह पुस्तक रखी जाती है। कबीर-पंथियों के लिये चौकी आरती एक बहुत महत्वपूर्ण त्यौहार है। उनकी विवाह-व्यवस्था बहुत साधारण है। विवाह में केवल इसी पुस्तक और मालाओं के विनिमय की आवश्यकता होती है।

    प्रत्येक मनुष्य, जिसका आचरण शुद्ध और जीवन आध्यात्मिक तथा पुण्यमय हो, महंत हो सकता है। यह अधिकार केवल पुरुष ही को नहीं है। ईश्वर की अटल भक्त और शुद्ध आचार-वाली कोई सत्यभाषिणी स्त्री भी महंत हो सकती है। किसी महंत को मांस मछली खाने की आज्ञा नहीं है। परंतु यदि कोई खा ले तो उसके प्रायश्चित करके तप करना पड़ता है। ऐसा करने पर वह फिर महंत बनाया जा सकता है। कबीर पुनर्जीवन पर विश्वास रखते थे। उनका कथन है कि केवल पापात्मा ही को “पुनरपि जननं, पुनरपि मरणम्” का असह्य कष्ट सहना पड़ता है, पुण्यात्मा इससे मुक्त हो जाता है।

    ईश्वर की पूजा के लिये केवल पवित्र और पुण्य गान ही आवश्यकत है। किसी अन्य प्रकार की प्रार्थना-विधि को कोई आवश्यकता नहीं। परंतु इधर चलकर कबीर-पंथियों में कुछ धार्मिक विचार गए हैं। उनमें से कुछ एकाग्रचित होकर ध्यानावस्थित रहने लगे हैं, और कुछ माला भी फेरने लगे हैं। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, कबीर के बारह शिष्यों के अनुसार कबीर-पंथी बारह भागों में विभक्त है। इन बारहों पंथों के अलग अलग सिद्धांत और तत्व हैं, परंतु सब अद्वितीय ईश्वर की सत्ता पर विश्वास रखते हैं। इससे ज्ञात होता है कि वेदान्त का अद्वैत-वाद ही कबीर-सम्प्रदाय का मुख्याधार है। परंतु कबीर-पंथी अपने गुरु से सृष्टि-निर्माण के विषय में प्रतिकूल मत रखते हैं। कबीर कहते हैं कि केवल परमात्मा ही विश्वकर्ता हैं, परंतु उनके अनुयायी काल को भी बीच में लाते हैं। उनका कथा है- “दयालु ईश्वर ने काल की सृष्टि की, और उसको आज्ञाकारी तथा प्रतिभाशाली पाकर अपनी शक्तियों का उस पर न्यास कर दिया। इस प्रकार ईश्वर ने काल की विश्वसनाथ बना दिया। ऐसे अधिकार से आरोपित काल ने विश्व की रचना की। वह सदा से उसका पालन करता है और आवश्यकता होने पर उसका नाश कर देगा। परमेश्वर केवल पुण्यात्मा को अपने अधिकार तथा शासन में रखता है।”

    कबीर-पंथी वर्ण-विभाग-व्यवस्था को मानते हैं, यद्यपि उनके गुरु ने इसका निरादार किया था। वे कहते हैं- “प्रत्येक वर्ण का मनुष्य हमारे पंथ में सकता है, परंतु उसका वर्ण भेद पूर्ववत् ही रहेगा। परन्तु विवाहोत्सव तथा अंत्येष्टि क्रिया में वह मूर्ति-पूजन नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसा करने से वह कबीर-पंथी नहीं रह जायगा।”

    किसी अन्य धर्म-वाले के साथ विवाह करना कबीर-पंथियों में निषिद्ध नहीं है। परंतु वर और कन्या दोनों को माला पहनना आवश्यक है और तिलक-स्थापन के बिना विवाह नहीं हो सकता। परंतु यद्यपि कबीर-पंथी किसी दूसरे धर्म-वाले की कन्या से व्याह कर सकता है, तथापि स्वयं अपने धर्म में अन्तर्विवाह मना है।

    उपसंहार में कबीर के विषय में यह कहा जा सकता है कि उनकी जीवन-व्यवस्था साधारण जनता की जीवन व्यवस्था से कहीं उच्चतर है। उसमें स्वर्गीय शक्ति तथा दैविकता का पद पद पर अनुभव होता है। कबीर एक बहुत बड़े धर्मोपदेशक थे। जो कुछ वे करते थे, सब धर्म-प्रचार ही के हेतु। उनकी जितनी रचनाएँ हैं, सब उपदेशमय हैं। साधारण जनता पर प्रभाव डालने ही के लिये वे ग्राम्य भाषा का आश्रय लेते थे। इसी भाषा में उन्होंने सारीकविता की है। अधिकतर कविता द्वारा ही वे उपदेश देते थे। कारण यह है कि संगीतमय होने के कारण कविता से लोग अधिक प्रभावान्वित होते हैं। वे काव्य-गौरव तथा काव्य-सौष्ठव के लिये कविता नहीं करते थे। उनका संपूर्ण ध्येय धर्म-प्रचार ही रहता था। इसीलिये इस लेख में कबीर की कविता के गुण दोष का कुछ भी उल्लेख नहीं हुआ है। संपूर्ण ध्यान धर्मप्रवर्तक कबीर कवि नहीं थे। वे केवल धर्मोपदेशक थे- उपदेश को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिये ही वे कविता करते थे। अभी तक कबीर-पंथ की और लोगों की प्रवृत्ति नहीं हुई है। आशा है, भविष्य में इसके गुण दोष की आलोचना करते हुए विद्वन्मण्डली में इसका सम्यक अध्ययन होगा, और संसार के पवित्र पंथों में इसकी एक उपयुक्त स्थान दिया जायगा।

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