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खुसरो की हिंदी कविता - बाबू ब्रजरत्नदास, काशी

नागरी प्रचारिणी पत्रिका

खुसरो की हिंदी कविता - बाबू ब्रजरत्नदास, काशी

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    तेहरवीं शताब्दी के आरंभ में, जब दिल्ली का राजसिंहासन गुलाम वंश के सुल्तानों के अधीन हो रहा था, अमीर सैफुद्दीन नामक एक सरदार बल्ख़ हज़ारा से मुग़लों के अत्याचार के कारण भागकर भारत आया और एटा के पटियाली नामक ग्राम में रहने लगा। सौभाग्य से सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमश के दरबार में उसकी पहुँच जल्दी हो गई और अपने गुणों के कारण वह उस का सरदार बन गया। भारत में उसने नवाब एमादुल्मुल्क की पुत्री से विवाह किया जिससे प्रथम पुत्र इज्जुद्दीन अलीशाह, द्वितीय पुत्र हिसामुद्दीन अहमद और सन् 1255 ई. में पटियाली ग्राम में तीसरे पुत्र अमीर खुसरो का जन्म हुआ। इनके पिता ने इनका नाम अबुलहसन रखा था पर इनका उपनाम खुसरो इतना प्रसिद्ध हुआ कि असली नाम लुप्तप्राय हो गया और वे अमीर खुसरो कहे जाने लगे।

    चार वर्ष की अवस्था में वे माता के साथ दिल्ली गए और आठ वर्ष की अवस्था तक अपने पिता और भाइयों से शिक्षा प्राप्त करते रहे। सन् 1264 ई. में इनके पिता 85 वर्ष की अवस्था में किसी लड़ाई में मारे गए तब इनकी शिक्षा का भार इनके नाना नवाब एमादुल्मुल्क ने अपने ऊपर ले लिया। कहते है कि उनकी अवस्था उस समय 13 वर्ष की थी। नाना ने थोड़े ही दिनों में इन्हें ऐसी शिक्षा दी कि ये कई विद्याओं से विभूषित हो गए। खुसरों अपनी पुस्तक तुहफ़तुस्सग्र की भूमिका में लिखते है कि ईश्वर की कृपा से मैं 12 वर्ष की अवस्था में शे ‘र और रुबाई कहने लगा जिसे सुनकर विद्वान् आश्चर्य करते थे और उनके आश्चर्य से मेरा उत्साह बढ़ता था। उस समय तक मुझे कोई काव्यगुरु नहीं मिला था जो कविता की उचित शिक्षा देकर मेरी लेखनी को बेचाल चलने से रोकता। मैं प्राचीन और नवीन कवियों के काव्यों का मनन करके उन्हीं से शिक्षा ग्रहण करता रहा।

    ख्वाजाः शम्शुद्दीन ख़्वारिज्मी इनके काव्यगुरु इस कारण कहे जाते हैं कि उन्होंने इनके प्रसिद्ध ग्रंथ पंजगंज को शुद्ध किया था। इसी समय खुसरो का झुकाव धर्म की ओर बढ़ा और उस समय दिल्ली में निज़ामुद्दीन मुहम्मद बदायूनी सुल्तानुलमशायख़ औलिया की बड़ी धूम थी। इससे ये उन्हीं के शिष्य हो गए। इनके शुद्ध व्यवहार और परिश्रम से इनके गुरु इनसे बड़े प्रसन्न रहते थे और इन्हें तुर्के-अल्लाह के नाम से पुकारते थे।

    खुसरो ने पहले पहल सुल्तान ग़ियासुद्दीन बल्बन के बड़े पुत्र मुहम्मद सुल्तान की नौकरी की, जो मुल्तान का सूबेदार था। यह बहुत ही योग्य, कविता का प्रेमी और उदार था और इसने एक संग्रह तैयार किया था जिसमें बीस सहस्र शैर थे। इसके यहां ये बड़े आराम से पाँच वर्ष तक रहे। जब सन् 1248 ई. में मुग़लों ने पंजाब पर आक्रमण किया तब शाहज़ादे ने मुग़लों को दिपालपुर के युद्ध में परास्त कर भगा दिया पर युद्ध में वह स्वयं मारा गया। खुसरों जो युद्ध में साथ गए थे मुग़लों के हाथ पकड़े जाकर हिरात और बलख़ गए जहाँ से दो वर्ष के अनंतर इन्हें छुटकारा मिला। तब यह पटियाली लौटे और अपने संबंधियों से मिले। इसके उपरांत ग़यासुद्दीन बल्बन के दरबार में जाकर इन्होंने शे ‘र पढ़े जो मुहम्मद सुल्तान के शोक पर बनाए गए थे। बल्बन पर इसका ऐसा असर पड़ा कि रोने से उसे ज्वर चढ़ आया और तीसरे दिन उसकी मृत्यु हो गई।

    इस घटना के अनंतर खुसरो अमीर अली मीरजामदार के साथ रहने लगे। इसके लिए इन्होंने अस्पनामा लिखा था और जब वह अवध का सूबेदार नियुक्त हुआ तब वे भी वहां दो वर्ष तक रहे। सन् 1288 ई. में ये दिल्ली लौटे और कैकुबाद के दर्बार में बुलाए गए। उसके आज्ञानुसार सन् 1289 ई. में क़िरानुस्सादैन नामक काव्य इन्होंने छः महीने में तैयार किया। सन् 1290 ई. में कैकुबाद के मारे जाने पर गुलाम वंश का अंत हो गया और सत्तर वर्ष की अवस्था में जलालुद्दीन ख़िलजी ने दिल्ली के तख्त पर अधिकार कर लिया। इसने ख़ुसरो की प्रतिष्ठा बढ़ाई और अमीर की पदवी देकर 1200 तन का वेतन कर दिया।

    जलालुद्दीन ने कई बार निज़ामुद्दीन औलिया से भेंट करने की इच्छा प्रकट की पर उन्होंने नहीं माना। तब इसने खुसरो से कहा कि इस बार बिना आज्ञा लिए हुए हम उनसे जाकर भेंट करेंगे, तुम उनसे कुछ मत कहना। ये बड़े असमंजस में पड़े कि यदि उनसे जाकर कह दें तो प्राण का भय है और नहीं कहते तो वे हमारे धर्मगुरु हैं उनके क्रोधित होने से धर्म नाश होता है। अंत में जाकर उन्होंने सब वृत्तांत उनसे कह दिया जिसे सुनकर वे अपने पीर फ़रीदुद्दीन शकरगंज के यहाँ अजोधन अर्थात् पाटन चले गए। सुल्तान ने यह समाचार सुनकर इनपर शंका की और इन्हें बुलाकर पूछा। इस पर इन्होंने सत्य सत्य बात कह दी।

    सन् 1296 ई. में अपने चाचा को मारकर अलाउद्दीन सुल्तान हुआ और उसने इन्हें खुसरुए-शाअरां की पदवी दी और इनका वेतन एक सहस्र तन का कर दिया। खुसरो ने इसके नाम पर कई पुस्तकें लिखी हैं जिनमें एक इतिहास भी है जिसका नाम तारीख़े अलाई है। सन् 1317 ई. में कुतुबुद्दीन मुबारक शाह सुल्तान हुआ और उसने खुसरो के क़सीदे पर प्रसन्न होकर हाथी के तौल इतना सोना और रत्न पुरुस्कार दिए। सन् 1320 ई. में इसके वज़ीर खुसरो ख़ाँ ने उसे मार डाला और इसके साथ ख़िलजी वंश का अंत हो गया।

    पंजाब से आकर ग़ाज़ी ख़ां ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया और ग़िआसुद्दीन तुग़लक के नाम से वह गद्दी पर बैठा। खुसरो ने इसके नाम पर अपनी अंतिम पुस्तक तुग़लकनामा लिखा था। इसीके साथ ये बंगाल गए और लखनौती में ठहर गए। सन् 1324 ई. में जब निज़ामुद्दीन औलिया की मृत्यु का समाचार मिला तब ये वहाँ से झट चल दिए। कहा जाता है कि जब ये उनकी क़ब्र के पास पहुँचे तब यह दोहा पढ़कर बेहोश हो गिर पड़े—–

    गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस।

    चल खुसरू घर आपने रैन भई चहुँ देस।।

    इनके पास जो कुछ था सब इन्होंने लुटा दिया और वे स्वयं उनके मज़ार पर जा बैठे। अंत में कुछ ही दिनों में उसी वर्ष (18 शव्वाल, बुधवार) इनकी मृत्यु हो गई। ये अपने गुरु की क़ब्र के नीचे की ओर पास ही गाड़े गए। सन् 1605 ई. में ताहिरबेग नामक अमीर ने वहाँ पर मक़बरा बनवा दिया। खुसरो ने अपने आँखों से गुलमावंश का पतन, ख़िलजी वंश का उत्थान और पतन तथा तुग़लक वंश का आरंभ देखा। इनके समय में दिल्ली के तख्त पर 11 सुल्तान बैठे जिनमें सात की इन्होंने सेवा की थी। ये बड़े प्रसन्न चित्त, मिलनसार और उदार थे। सुल्तानों और सरदारों से जो कुछ धन आदि मिलता था वे उसे बाँट देते थे। सल्तनत के अमीर होने पर और कविसम्राट् की पदवी मिलने पर भी ये अमीर और दरिद्र सभी से बारबर मिलते थे। इनमें धार्मिक कट्टरपन नाम मात्र को भी नहीं था।

    इनके ग्रंथों से जाना जाता है कि इनके एक पुत्री और तीन पुत्र थे जिनका नाम ग़िआसुद्दीन अहमद, ऐनुद्दीन अहमद और यमीनुद्दीन मुबारक था। इन लोगों के बारे में और कुछ वृत्तांत किसी पुस्तक में नहीं मिलता।

    मनुष्य के साथ ही उसका नाम भी संसार से उठ जाता है पर उन कार्यकुशल व्यक्तियों और कवि-समाज का जीवन और मृत्यु भी आश्चर्यजनक है कि जो मर जाने पर भी जीवित कहलाते हैं और जिनका नाम सर्वदा के लिये अमिट और अमर हो जाता है। इनका कार्य और रचना ही अमृत है जो उन्हें अमर बना देता है, नहीं तो अमृत कल्पना मात्र है। इन्हीं में अमीर खुसरों भी हैं कि जिनके शरीर को इस संसार से गए हुए आज सौ वर्ष हो गए पर वे अब भी जीवित हैं और बोलते चालते हैं। इनके मुख से जो कुछ निकल गया वह संसार को भाया। इनके गीत, पहेलियाँ आदि छ्ह शताब्दी बीतने पर भी आज तक उसी प्रकार प्रचलित है।

    खुसरो अरबी, फ़ारसी, तुर्की और हिंदी भाषाओं के पूरे विद्वान थे और संस्कृत का भी कुछ ज्ञान रखते थे। यह फ़ारसी के प्रतिभाशाली कवि थे। इन्होंने कविता की 99 पुस्तकें लिखी हैं जिनमें कई लाख के लगभग शैर थे पर अब उन ग्रंथों में से केवल बीस बाईस ग्रंथ प्राप्य है। उन ग्रंथों की सूची यह है—-

    (1) मसनवी किरानुस्सादैन। (2) मसनवी मतलउल्अनवार। (3) मसनवी शीरीं खुसरू। (4) मसनवी लैली मजनूँ। (5) मसनवी आईना इस्कंदरी या सिंकदरनामा। (6) मसनवी हश्त बिहिश्त। (7) मसनवी ख़िज्रनामः या ख़िज्र ख़ां देवल रानी या इश्किया। (8) मसनवी नुह सिपहर। (9) मसनवी तुग़लकनामा। (10) ख़ज़ायनुल्फुतूह या तारीख़े अलाई। (11) इंशाए खुसरू या ख़्यालाते ख़ुसरू। (12) रसायलुलएजाज़ या एजाज़े खुसरवी। (13) अफ़ज़लुल्फ़वायद। (14) राहतुल्मुजीं। (15) ख़ालिकबारी। (16) जवाहिरुलबह। (17) मुक़ालः। (18) क़िस्सा चहार दर्वेश। (19) दीवान तुहफ़तुस्सिग़ार। (20) दीवान वस्तुलहयात। (21) दीवान गुर्रतुल्कमाल। (22) दीवान बक़ीयः नक़ीयः।

    इनके फ़ारसी ग्रंथ, जो प्राप्य हैं, यदि एकत्र किए जायँ तो और कवियों से इनकी कविता अधिक हो जायगी। इनके ग्रंथों की सूची देखने ही से मालूम हो जाता है कि इनकी काव्य-शक्ति कहाँ तक बढ़ी चढ़ी थी। इनकी कविता में श्रृंगार, शांति, वीर और भक्ति रसों की ऐसी मिलावट है कि वह सर्वप्रिय हो गई है। सब प्रकार से विचार करने पर यही कहा जा सकता है कि खुसरो फ़ारसी कवियों के सिरमौर थे। खुसरो के कुछ फ़ारसी ग्रंथों की व्याख्या इस कारण यहाँ करना आवश्यक है कि उनमें इन्होंने अपने समय की ऐतिहासिक घटनाओं का समावेश किया है और वह वर्णन ऐसा है जो अन्य समसामयिक इतिहास लेखकों के ग्रंथों में नहीं मिलता।

    खुसरों की मसनवियों में कोरा इतिहास नहीं है। उस सहृदय कवि ने इस रूखे सूखे विषय को सरस बनाने में अच्छी सफलता पाई है और उस समय के सुल्तानों के भोग विलास, ऐश्वर्य, यात्रा, युद्ध आदि का ऐसा उत्तम चित्र खींचा है कि पढ़ते ही वह दृश्य आँखों के सामने जाता है। इन मसनवियों में क़िरानुस्सादैन मुख्य हैं। इस शब्द का अर्थ दो शुभ तारों का मिलन है। बलबन की मृत्यु पर उसका पौत्र कैकुबाद जब दिल्ली की गद्दी पर बैठा तब कैकुबाद का पिता नसीरुद्दीन बुग़रा ख़ाँ जो अपने पिता के आगे ही से बंगाल का सुल्तान कहलाता था इस समाचार को सुनकर ससैन्य दिल्ली की ओर चला। पुत्र भी यह समाचार सुनकर बड़ी भारी सेना सहित पिता से मिलने चला और अवध में सरयू नदी के किनारे पर दोनों सेनाओं का सामना हुआ। परंतु पहले कुछ पत्रव्यवहार होने से आपस में संधि हो गई और पिता का पुत्र का मिलाप हो गया। बुग़रा खाँ ने अपने पुत्र को गद्दी पर बिठा दिया और वह स्वयं बंगाल लौट गया। क़िरानुस्सादैन में इसी घटना का 3944 शैरों में वर्णन है।

    मसनवी ख़िज्रनामः में सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी के पुत्र ख़िज्र ख़ाँ और देवल देवी के प्रेम का वर्णन है। खिज्र ख़ाँ की आज्ञा से यह मसनवी लिखी गई थी। ग़ोरी और गुलाम वंश का संक्षेप में कुछ वर्णन आरंभ में देकर अलाउद्दीन खिलजी के विजयों का, जो उसने मुग़लों पर प्राप्त की थी, विवरण दिया है। इसके अनंतर खुसरो ने क्रमशः गुजरात, चित्तौर, मालवा, सिवाना, तेलिंगाना, मलाबार आदि पर की चढ़ाइयों का हाल दिया है। गुजरात के रायकर्ण की स्त्री कमलादेवी युद्ध में पकड़ी जाकर अलाउद्दीन के हरम में रखी गई। इसी की छोटी पुत्री देवल रानी थी जिसके प्रेम का वर्णन इस पुस्तक में है। दोनों का विवाह हुआ पर कुछ दिनों में अलाउद्दीन की मृत्यु हो जाने पर काफ़ूर ने ख़िज्र खाँ को अंधा कर डाला। इसके अनंतर मुबारकशाह ने काफ़ूर को मारकर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। जो कुछ रक्तपात इसने शाही घराने में किया था उसका हृदयग्राही वर्णन पढ़ने योग्य है।

    खुसरो ने इस ग्रंथ में हिंदुस्तान के फूलो, कपड़ों और सौंदर्य को फ़ारस, रूम और रूस आदि के फूलों कपड़ों और सौंदर्य से बढ़कर निश्चित किया है और अंत में लिखा है कि यह देश स्वर्ग है, नहीं तो हज़रत आदम और मोर यहाँ क्यों आते। खुरासानियों की हँसी करते हुए लिखा है कि वे पान को घास समझते हैं। हिंदी भाषा के बारे में इन्होंने जो कुछ लिखा है वह उल्लेखनीय है।

    “मैं भूल में था पर अच्छी तरह सोचने पर हिंदी भाषा फ़ारसी से कम नहीं ज्ञात हुई। सिवाय अरबी के जो प्रत्येक भाषा की मीर और सबों में मुख्य है, रूम की प्रचलित भाषाएँ समझने पर हिंदी से कम मालूम हुई। अरबी अपनी बोली में दूसरी भाषा को नहीं मिलने देती पर फ़ारसी में यह एक कमी है कि वह बिना मेल के काम में आने योग्य नहीं है। इस कारण कि वह शुद्ध है और यह मिली हुई है, उसे प्राण और इसे शरीर कह सकते हैं। शरीर से सभी वस्तु का मेल हो सकता है पर प्राण से किसी का नहीं हो सकता। यमन के मूँगे से दरी के मोती की उपमा देना शोभा नहीं देता। सब से अच्छा धन वह है जो अपने कोष में बिना मिलावट के हो और रहने पर माँगकर पूँजी बनाना भी अच्छा है। हिंदी भाषा भी अरबी के समान है क्योंकि उसमें भी मिलावट का स्थान नहीं है।“

    इससे मालूम पड़ता है कि उस समय हिंदी में फ़ारसी शब्दों का मेल नहीं था या नाम मात्र को रहा हो। हिंदी भाषा के व्याकरण और अर्थ पर भी लिखा है- ‘यदि अरबी का व्याकरण नियमबद्ध है तो हिंदी में भी उससे एक अक्षर कम नहीं है। जो इन तीनों (भाषाओं) का ज्ञान रखता है वह जानता है कि मैं भूल कर रहा हूँ और बढ़ाकर लिख रहा हूँ और यदि पूछो कि उसमें अर्थ होगा तो समझ लो कि उसमें दूसरों से कम नहीं है। यदि मैं सचाई और न्याय के साथ हिंदी की प्रशंसा करूँ तब तुम शंका करोगे और यदि मैं सौगंध खाऊँ तब कौन जानता है कि तुम विश्वास करोगे या नहीं? ठीक है कि मैं इतना कम जानता हूँ कि वह नदी की एक बूँद के समान है पर उसे चखने से मालूम हुआ कि जंगली पक्षी को दजलः नदी (टाइग्रीस) का जल अप्राप्य है। जो हिंदुस्तान की गंगा से दूर है वह नील और दजलः के बारे में बहकता है। जिसने बाग़ के बुलबुल को चीन में देखा है वह हिंदुस्तानी तूती को क्या जानेगा।‘

    नुह सिपहर (नौ आकाश) नामक मसनवी में अलाउद्दीन ख़िलजी के रँगीले उत्तराधिकारी कुतुबुद्दीन मुबारक शाह की गद्दी नशीनी के अनंतर की घटनाओं का हाल है। इस पुस्तक में नौ परिच्छेद है। इसका तीसरा परिच्छेद हिंदुस्तान, उसके जलवायु, पशुविद्या और भाषाओं पर लिखा गया है। हिंदुओं का दस बातों में और देशवालों से बढ़कर होना दिखलाया है। इसमें उस समय के सुल्तानों के अहेर और चौगान खेलने का अच्छा दृश्य खींचा है। यह ग्रंथ अभी छपा नहीं है।

    तुग़लकनामः में ख़िलजियों के पतन और तुग़लकों के उत्थान का पूरा ऐतिहासिक वर्णन दिया गया है। दीवान तुहफ़तुस्सिग्र (यौवन की भेंट) में बलबन के समय की घटनाओं पर छोटी छोटी मसनवियाँ है। इसे खुसरों ने 16वें से 19वें वर्ष तक की अवस्था में लिखा था। दूसरा दीवान वस्तुलहयात (जीवन का मध्य) है जिसमें निज़ामुद्दीन औलिया, मुहम्मद सुल्तान सूबेदार मुलतान, दिपालपुर के युद्ध आदि पर मसनवियाँ है जो 24 से 42 वर्ष की वय में लिखा गया है। आरंभ में अपने जीवनचरित्र का कुछ हाल लिखा है। छोटी-छोटी मसनवियाँ ऐतिहासिक घटनाओं पर, जो इनके समय में हुई थीं, लिखी हैं। चौथा दीवान बक़ीयः नक़ीयः (बची हुई बातें) 50 से 64 वर्ष की अवस्था तक में लिखा गया है जिसमें भी समसामयिक घटनाओं पर मसनवियाँ है।

    खुसरों ने गद्य में एक इतिहास तारीख़े अलाई लिखा है जिसमें सन् 1296 ई. में अलाउद्दीन की गद्दी से सन् 1310 ई. में मलावार विजय तक 15 वर्ष का हाल दिया गया है। कुछ इतिहासज्ञों ने इस पुस्तक का नाम तारीख़े अलाउद्दीन ख़िलजी लिखा है। इलियट साहब लिखते है कि इस पुस्तक में ख़ुसरो ने कई हिंदी शब्द काम में लाए हैं जैसे काठगढ़, परधान, बरगद, मारामार आदि। इस प्रकार खुसरो के ग्रंथों से ग़ियासुद्दीन बल्बन के समय से ग़ियासुद्दीन तुग़लक़ के समय तक का इतिहास लिखा जा सकता है।

    ख़ुसरो का वर्णन अधिक विश्वसनीय है क्योंकि वह केवल उन घटनाओं के समसामयिक ही नहीं थे बल्कि कई में उन्होंने योगदान भी दिया था। ज़िया अल दीन बर्नी ने अपने इतिहास में समर्थन के लिए कई स्थानों पर इनके ग्रंथों का उल्लेख किया है।

    खुसरो प्रसिद्ध गवैए भी थे और नायक गोपाल और जस सावंत से विख्यात गवैए इन्हें गुरुवत् समझते थे। इन्होंने कुछ गीत भी बनाए थे जिनमे से एक को आज तक झूले के दिनों में स्त्रियाँ गाती हैं। वह यों है—

    जो पिया आवन कह गए, अजहुं आए स्वामी हो।

    (ऐ) जो पिया आवन कह गए।

    आवन आवन कह गए आए बारह मास।

    (ए हो) जो पिया आवन कह गए।।

    बरवा राग में लय भी इन्होंने रखी है। यह गीत तो युवा स्त्रियों के लिए बनाया था पर छोटी छोटी लड़कियों के लिए स्वामी और पिया की याद में गाना अनुचित होता इससे उनके योग्य एक गीत बनाया है जो संग्रह में दिया गया है। इनका हृदय क्या था एक बीन थी जो बिन बजाए हुए बजा करती थी। ध्रुपद के स्थान पर कौल या कव्वाली बनाकर उन्होंने बहुत से नए राग निकाले थे जो अब तक प्रचलित है। कहा जाता है कि बीन को घटाकर इन्होंने सितार बनाया था। इन्हीं के समय से दिल्ली के आस पास के सूफ़ी मुसलमानों में बसंत का मेला चल निकला है और इन्होंने बसंत पर भी कई गीत लिखे हैं। नए बेल बूटे बनाने का इन्हें जन्म ही से स्वभाव था।

    खुसरो ने पद्य में अरबी, फ़ारसी और हिंदी का एक बड़ा कोष लिखा ता जो पूर्णरूप में अब अप्राप्य है पर उसका कुछ संक्षिप्त अंश मिलता है जो ख़ालिकबारी नाम से प्रसिद्ध है। इसके कुछ नमूने दिए जाते हैं जिससे ज्ञात हो जायगा कि इन्होंने इन बेमेल भाषाओं को इस प्रकार मिलाया है कि वे कहीं पढ़ने में कर्णकटु नहीं मालूम होतीं।

    ख़ालिक़ बारी सिरजनहार।

    वाहिद एक बिदा कर्तार।।

    मुश्क काफूर अस्त कस्तूरी कपूर।

    हिंदवी आनंद शादी और सरूर।।

    मूश चूहा गुर्बः बिल्ली मार नाग।

    सोज़नो रिश्तः बहिंदी सूई ताग।।

    गंदुम गेहूँ नखद चना शाली है धान।

    जरत जोन्हरी अदस मसूर बर्ग है पान।।

    कहा जाता है कि खुसरो ने फ़ारसी से कहीं अधिक हिंदी भाषा में कविता की थी पर अब कुछ पहेलियों, मुकरियों और फुटकर गीतों आदि को छोड़कर और सब अप्राप्य हो रही है। फ़ारसी और हिंदी मिश्रित ग़ज़ल पहले पहल इन्हीं ने बनाना आरंभ किया था जिसमें से केवल एक ग़ज़ल जो प्राप्त हुआ है वह संग्रह में दे दिया गया है। उसे पढ़ने से चित्त प्रफुल्लित होता है पर साथ ही यह दुःख अवश्य होता है कि केवल यही एक ग़ज़ल प्राप्य है।

    ख़ुसरो को हुए छः सौ वर्ष व्यतीत हो गए किंतु उनकी कविता की भाषा इतनी सजी सँवारी और कटी छँटी हुई है कि वह वर्तमान भाषा से बहुत दूर नहीं अर्थात् उतनी प्राचीन नहीं जान पड़ती। भाटों और चारणों की कविता एक विशेष प्रकार के ढाँचे में ढाली जाती थी। चाहे वह खुसरो के पहले की अथवा पीछे की हो तो भी वह वर्तमान भाषा से दूर और, ख़ुसरो की भाषा से भिन्न और कठिन जान पड़ती है। इसका कारण साहित्य के संप्रदाय की रूढ़ि का अनुकरण ही है। चारणों की भाषा कविता की भाषा है, बोलचाल की भाषा नहीं। ब्रजभाषा के अष्टछाप, आदि कवियों की भाषा भी साहित्य, अलंकार और परंपरा के बंधन से खुसरो के पीछे की होने पर भी उससे कठिन और भिन्न है। कारण केवल इतना ही है कि खुसरो ने सरल और स्वाभाविक भाषा को ही अपनाया है, बोलचाल की भाषा में लिखा है, किसी सांप्रदायिक बंधन में पड़कर नहीं। अब कुछ वर्षों से खड़ी बोली की कविता का आंदोलन मचकर हिंदी गद्य और पद्य की भाषा एक हुई है, नहीं तो, पद्य की भाषा पश्चिमी (राजस्थानी), ब्रजी और पूरबी (अवधी) ही थी। सर्वसाधारण की भाषा- सरल व्यवहार का वाहन-कैसा था यह तो खुसरो की कविता से जान पड़ता है या कबीर के पदों से। इतना कहने पर भी इस कविता के आधुनिक रूप का समाधान नहीं होता। ये पहेलियाँ, मुकरियाँ आदि प्रचलित साहित्य की सामग्री है, लिखित कम, वाचिक अधिक, इसलिए मुँह से कान तक चलते चलते इनमें बहुत कुछ परिवर्तन हो गया है जैसा कि प्राचीन प्रचलित कविता में होता आया है। यह कहना कि यह कुल रचना ज्यों की त्यों खुसरो की है कठिन है। हस्तलिखित पुरानी पुस्तकों से मिलान आदि के साधन दुर्लभ है। पिछले संग्रहकार आजकल के खोजियों की तरह छान बीन करने के प्रेमी नहीं थे। पहेली में पहेली का खुसरो के नाम और कहानी में कहानी का बीरबल या विक्रमादित्य या भोज के नाम से मिल जाना असंभव नहीं। कई लोग अपने नए सिक्के को चलाने के लिए उन्हें पुराने सिक्कों के ढेर में मिला देते हैं, किसी बुरी नीअत से नहीं, कौतुक से, विद्या के प्रेम से या पहले की अपूर्णता मिटाने के सद्भाव से। प्राचीन वस्तु में हस्तक्षेप करना बुरा है यह उन्हें नहीं सूझता। कई जान बूझ कर भी अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिये ऐसा किया करते हैं। पुराणों के भविष्य वर्णन के एक आध पद पृथ्वीराज रासो में और वैसे ही कुछ पद सूरदास या तुलसीदास की छाप से उन कई भोले मनुष्यों को पागल बनाए हुए हैं जो अपनी जन्म-भूमि को संभल और अपने ही को भविष्य कल्की समझे हुए हैं। अभी अभी चरखे की महिमा के कई गीत “कहै कबीर सुनो भाई साधो” की चाल के चल पड़े हैं। जब राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिक संसाधन या परिवर्तन या स्वार्थ के लिये श्रुति, स्मृति और पुराण में या उनके अर्थों में वर्द्धन और परिवर्तन होता आया है तब केवल मौखिक, बहुधा अलिखित, लोकप्रिय प्रचलित साहित्य में अछूतपन रहना असंभव है। यदि अकबर और बीरबल की सब कहानियाँ प्रामाणिक हों तो खुसरो के नाम की सब रचना भी उसी की हो सकती है। इस संग्रह में जो अवतरण दिए गए हैं वे प्रामाणिक पुस्तकों से लिए गए हैं और अधिकतर जवाहिर खुसरवी से लिए गए हैं पर जो दूसरी पुस्तकों से मिले हैं यथासंभव उनके पते दिए गए हैं, जैसे आबे-हयात का

    इनके जो फुटकर छंद मिले हैं उनमें इनका सांख्य भाव ही अधिक प्रतीत होता है। इनकी पहेलियाँ दो प्रकार की है। कुछ पहेलियाँ ऐसी है जिनमें उनका बूझ छिपाकर रख दिया है और वह झट वहीं मालूम हो जाता है। कुछ ऐसी हैं जिनका बूझ उनमें नहीं दिया हुआ है। मुकरी भी एक प्रकार की पहेली ही है पर उसमें उसका बूझ प्रश्नोत्तर के रूप में दिया रहता है। ‘ऐ सखी साजन ना सखी’ इस प्रकार एक बार मुकर कर उत्तर देने के कारण इन अपन्हुति का नाम कह-मुकरी पड़ गया है। दो-सख़ुने वे हैं जिनमें दो या तीन प्रश्नों के एक ही उत्तर हों।

    इस संग्रह और खुसरों के जीवनचरित्र के लिखने में निम्नलिखित पुस्तकों से सहायता ली गई है——

    (1) जवाहिरे खुसरवी- जिसका संपादन मौलाना मुहम्मद अमीन साहिब अब्बासी चिरियाकोटी ने किया है और जिसे सन् 1918 ई. में अलीगढ़ कौलेन ने प्रकाशित किया है।

    (2) नक़ले मजलिस- संग्रहकर्ता हाजी शेख़ रजब अली। सन् 1871 ई. में ईसवी प्रेस, लखनऊ, में छपा।

    (3) आबे-हयात- शम्सुलउल्मा मौलवी मुहम्मद हुसेन साहब आज़ाद लिखित, सन् 1917 ई. का नवाँ संस्करण, इस्लामिया स्टीम प्रेस, लाहौर, द्वारा प्रकाशित।

    (4) हयाते-खुसरवी- मुहम्मद सईद अहमद साहिब मारहरवी लिखित, नवलकिशोर स्टीम प्रेस, लखनऊ, द्वारा सन् 1909 ई. में प्रकाशित, दूसरा संस्करण।

    (5) मुंत्तख़बुत्तवारीख़- अब्दुलक़ादिर बदायूनी द्वारा लिखित। एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल ने सन् 1898 ई. में इस ग्रंथ को जौर्ज एस. ए. रैंकिंग, एम. डी., द्वारा अंग्रजी में अनुवादित और संपादित कराकर छपाया। बदायूनी अकबर के समसामयिक थे।

    (6) हिंदी भाषा- बाबू बालमुकुंद गुप्त लिखित। संवत् 1964 में भारतमित्र प्रेस ने अमृतलाल चक्रवर्ती से संपादित कराके छपाया।

    (a) बूझ पहेलियाँ

    (1) एक नार वह दाँत दँतीली। पतली दुबली छैल छबीली।।

    जब वा तिरियहिं लागै भूख। सूखे हरे चबावे रूख।।

    जो बताय वाही बलिहारी। खुसरो कहे वरे को आरी।।

    -आरी

    (2) इधर को आवे उधर को जावे। हर हर फेर काट वह खावे।।

    ठहर रहे जिस दम वह नारी। खुसरो कहे वरे को आरी।।

    -आरी

    (3) श्याम बरन और दाँत अनेक। लचकत जैसी नारी।।

    दोनों हाथ से खुसरो खींचे। और कहे तू आरी।।

    -आरी

    (4) एक बुढ़िया शैतान की ख़ाला। सिर सफ़ेद मुँह है काला।।

    लुंडों घेरे है वह नार। लड़के रखे हैं उससे प्यार।।

    उछले कूदे नाचे वो। आग लगे उस बुढ़िभुस को।।

    -आख की बुढ़िया

    (5) पौन चलत वह देह बढ़ावे। जल पीवत वह जीव गँवावे।।

    है वह प्यारी सुंदर नार। नार नहीं पर है वह नार।।

    -आग

    (6) ऐन मैन है सीप की सूरत आँखें देखी कहती है।

    अन खावे ना पानी पीवे देखे से वह जीती है।।

    दौड़ दौड़ जमी पर दौड़े आसमान पर उड़ती है।

    एक तमाशा हमने देखा हाथ पाँव नहिं रखती है।।

    -आँख

    (7) फ़ारसी बोली आई ना। तुर्की ढूँढी पाई ना।।

    हिंदी बोली आरसी आए। खुसरो कहे कोइ बताए।।

    -आरसी

    (8) टूटी टूट के धूप में पड़ी। जों जों सूखी हुई-बड़ी।।

    बड़ी

    (9) एक नार जब बन कर आवे। मालिक अपने उपर बुलावे।

    है वह नारी सब के गौं की। खुसरो नाम लिए तो चौंकी।।

    -चौकी

    (10) घूम घुमेला लहँगा पहिने एक पाँव से रहे खड़ी।

    आठ हाथ हैं उस नारी के सूरत उसकी लगे परी।।

    सब कोइ उसकी चाह करे हैं मुसलमान हिंदू स्त्री।

    खुसरू ने यह कही पहेली दिल में अपने सोच ज़री।।

    छाता

    (11) बाला था जब सबको भाया। बढ़ा हुआ कछु काम आया।।

    खुसरू कह दिया उसका नाव। अर्थ करो नहि छोड़ो गाँव।।

    दीया

    (12) नारी से तू नर भई श्याम बरन भइ सोय।

    गली गली कूकत फिरे कोइलो कोइलो लोय।।

    कोयला

    (13) सरकंडो के ठट्ट बँधे और बद लगे हैं भारी।

    देखी है पर चाखी नाहीं लोग कहे हैं खारी।।

    खारी

    (14) घूम घाम के आई है मेरे मन को भाई है।

    देखी है पर चाखी नाहीं, अल्ला की कस्म खाई है।।

    -खाई

    (15) पान फूल वाके सर माँ है। लड़ करे जब मद पर आहैं।।

    चिट्टे काले वार्क बाल। बूझ पहेली मेरे लाल।।

    -लाल चिड़िया

    (16) गोल मटोल और छोटा मोटा। हरदम वह जमी पर लोटा।।

    खुसरो कहे नहीं है झूटा। जो ना बूझे अकिल का खोटा।।

    -लोटा

    (17) खड़ा भी लोटा पड़ा भी लोटा। है बैठा और कहें है लोटा।।

    खुसरो कहें समझ का टोटा।।

    -लोटा

    (18) एक नार हाथे पर खासी। जनवर बैठा बीच ख़वासी।

    अता पता मत पूछो हमसे। कुछ तो महरम होगी उससे।।

    -अंगिया

    (19) एक नार चरन वाके चार। स्याम बरन सूरत बदकार।।

    बूझो तो मुश्क है बूझे तो गँवार।।

    मुश्क

    (20) सावन भादों बहुत चलत है माघ पूस में थोरी।

    अमीर खुसरो यों कहे तू बूझ पहेली मोरी।।

    मोरी

    (21) अंदर है और बाहर वहे। जो देखे सो मोरी कहे।।

    मोरी

    (22) मुझको आवे यही परंख। पैर गर्दन मोढ़ा एक।।

    मोढ़ा

    (23) एक मंदिर के सहस्र दर। हर दर में तिरिया का घर।।

    बीच बीच वाके अमृत ताल। बूझ है इसकी बड़ी महाल।।

    शहद का छत्ता

    (24) एक नार तरवर से उतरी सर पर वाके पाँव।

    ऐसी नार कुनार को मैं ना देखन जॉव।।

    मैना

    (25) हाड़ की देही उज्जल रंग। लिपटा रहे नारि के संग।।

    चोरी की ना खून किया। वाका सिर क्यों काट लिया।।

    नाखून

    (26) बीसों का सिर काट लिया। ना मारा ना खून किया।।

    नाखून

    (27) जल जल चलता बसता गाँव। बस्ती में ना वाका ठाँव।।

    खुसरू ने दिया वाका नाँव। बूझ अरघ नहिं छोड़ो गाँव।।

    नाव

    (28) एक नार तरवर से उतरी मा सो जनम ना पायो।

    बाप को नाँव जो बासे पूछओ आधो नाँव बतायो।।

    आधो नाँव बतायो खुसरू कौन देस की बोली।

    वाको नाँव जो पूछयो मैंने अपने नाँव बोली।।

    निबोली

    (29) नर नारी की जोड़ी दीठी। जब बोले तब लागै मीठी।।

    एक नहाय एक तापनहारा। चल खुसरो कर कूँच नक़ारा।।

    नक़ारः

    (b) बिन बूझ पहेलियाँ

    (30) बिधना ने एक परख बनाया। तिरिया दी और नीर लगाया।।

    चूक भई कुछ वासे ऐसी। देश छोड़ भयो परदेसी।।

    आदमी

    (31) एक नार पिया को भानी। तन वाको सगरा जों पानी।।

    आब रखे पर पानी नहि। पिया को राखे हिर्दय मांह।।

    जब पी को वह सुख दिखलावे। आपहि सगरी पी हो जावे।।

    दर्पण

    (32) झिलमिल का कुंआ रतन की क्यारी।

    बताओ तो बताओ नहीं तो दूंगी गारी।।

    दर्पण

    (33) आना जाना उसका भाए। जिस घर जाए लकड़ी खाए।।

    आरी

    (34) एक थाल मोती से भरा। सबके सिर पर औंधा धरा।।

    चारों ओर वह थाली फिरे। मोती उससे एक गिरे।।

    -आकाश

    (35) एक पेड़ रेती में होवे। बिन पानी दिए हरा रहे।।

    पानी दिए से वह जल जाय। आँख लगे अंध हो जाय।।

    आँख

    (36) जा घर लाल बलैया जाय। तार्क घर में दुंद मचाय।।

    लाखन मन पानी पी जाय। धरा ढका सब घर का खाय।।

    आटा

    (37) एक पुरुख जब मद पर आय। लाखों नारी सँग लपटाया।।

    जब वह नारी मद पर आय। तब वह नारी नर कहलाय।।

    -आम

    (38) आवे तो अंधेरी लावे। जावे तो सब सुख लेजावे।।

    क्या जानूं वह कैसा है। जैसा देखो वैसा है।।

    आँख

    (39) अरथ तो इसका बूझेगा। मुँह देखो तो सूझेगा।।

    दर्पण

    (40) हाथ में लीजे देखा कीजे।।

    दर्पण

    (41) सामने आए कर दे दो। मारा जाय ज़ख्मी होय।।

    दर्पण

    (42) स्याम बरन की है एक नारी। माथे ऊपर लागै प्यारी।।

    जो मानुस इस अरथ को खोले। कुत्ते की वह बोली बोले।।

    भौं

    (43) गोरी सुंदर पातली, केसर काले रंग।

    ग्यारह देवर छोड़ के, चली जेठ के संग।।

    अरहर

    (44) एक नार जाके मुँह सात। सो हम देखी बेंडी जात।।

    आधा मानुस निगले रहे। आँखों देखी खुसरू कहे।।

    पैजामा

    (45) एक नार हो को ले बैठो। टेढ़ी होके बिल में पैठी।।

    जिसके बैठे उसे सुहाय। खुसरू उसके बल बल जाय।।

    पैजामा

    (46) आग लगे फूले फले, सींचत जावे सूख।

    मैं तोहि पूछौं सखी, फूल के भीतर रूख।।

    अनार (आतिशबाजी)

    (47) रात समय एक सूहा आया। फूलों पातों सबको भाया।।

    आग दिए वह होए रूख। पानी दिए वह जावे सूख।।

    अनार (आतिशबाजी)

    (48) उज्जल अति वह मोती बरनी। पाई कंत दिए मोहि धरनी।।

    जहां धरी थी वहां पाई। हाट बजार सभी ढूंढ आई।।

    सुनो सखी अब कीजिए क्या। पी मांगे तो दीजे क्या।।

    -ओला

    (49) देख सखी पी की चतुराई। हाथ लगावत चोरी आई।।

    -ओला

    (50) जल से गाढ़ो थल धरो, जल देखे कुम्हिलाय।

    लाओ बसुंदर फूँक दें, जो अमर बेल हो जाय।।

    ईंट

    (51) बांसबरेली से एक नारी। आई अपने बंद कटारी।।

    पी कुछ उसके कान में फूँके। बोली वह सुन पी के मुँह के।।

    आह पिया यह कैसी कीनी। आग बिरह की भड़का दीनी।।

    बॉसुरी

    (52) एक राजा की अनोखी रानी। नीचे से वह पीवे पानी।।

    -दीया की बत्ती

    (53) एक नार ने अचरज किया। सांप मार पिंजरे में दिया।।

    जों जों सांप ताल को खाए। ताल सूख सांप मर जाए।।

    -दीया बत्ती

    (54) है वह नारी सुंदर नार। नार नहीं पर है वह नार।।

    दूर से सब को छबि दिखलावे। हाथ किसी के कभू आवे।।

    बिजली

    (55) आगे से वह गांठ गठीला। पीछे से है टेढ़ा।।

    हाथ लगाए कहर खुदा का। बूझ पहेला मेरा।।

    बिच्छू

    (56) भांति भांति की देखी नारी। नीर भरी है गोरी काली।।

    ऊपर बसे और जग धावें। रच्छा करे जब नीर बहावे।।

    बादल

    (57) एक नार नौरंगी चंगी। वह भी नार कहावे।।

    भांति भांति के कपड़े पहिने। लोगों को तरसावे।।

    -बादल

    (58) एक अचंभा देखो चल। सूखी लकड़ी लाग फल।।

    जो कोई इस फल को खावे। पेड़ छोड़ कहि और जावे।।

    बर्छी

    (59) उज्जल बरन अधीन तन, एक चित दो ध्यान।

    देखत में तो साधु है, पर निपट पाप की खान।।

    बक

    (60) एक नार वह औषध खाए। जिसपर थूके वह मर जाए।।

    उसका पी जब छाती लाय। अंध नहि काना हो जाय।।

    बंदूक

    (61) एक तरुबर का फल है तर। पहले नारी पीछे नर।।

    वा फल की यह देखो चाल। बाहर खाल और भीतर बाल।।

    -भुट्टा

    (62) आगे आगे बहिना आई पीछे पीछे भइआ।

    दाँत निकाले बाबा आए बुरका ओढ़े मैय्या।।

    -भुट्टा

    (63) सर पर जटा गले झोली किसी गुरू का चेला है।

    भर भर झोली घर को धावे उसका नाम पहेला है।।

    -भुट्टा

    (64) एक गाँव में सदहा कूँए, कुँए कुँए पनिहार।

    मूरख तो जाने नहीं, चतुरा करे विचार।।

    -बर्रे का छाता

    (65) श्यामबरन पीतांबर काँधे, मुरली धरे होय।

    बिन मुरली वह नाद करत है, बिरला बूझै कोय।।

    -भौंरा

    (66) अचरज बंगला एक बनाया। ऊपर नींव तले घर छाया।।

    बॉस बल्ली बंधन घने। कह खुसरो घर कैसे बनै।।

    -बए का घोंसला

    (67) एक नार करतार बनाई। ना वह कारी ना वह ब्याही।।

    सूहा रंगहि वाको रहै। भाबी भाबी हर कोई कहै।।

    -बीरबहूटी

    (68) एक नार करतार बनाई। सूहा जोड़ा पहिन के आई।।

    हाथ लगाए वह शर्माय। या नारी को चतुर बताय।।

    -बीरबहूटी

    (69) एक गुनी ने यह गुन कीना। हरियल पिंजरे में दे दीना।।

    देखो जादूगर का हाल। डाले हरा निकाले लाल।।

    -पान

    (70) हरा रूप है निज वह बात। मुख में धरे दिखावे जात।

    तीन वस्तु से अधिक पिआर। जानिब है सबसे नर नार।।

    हर एक सभा का रखे मान। चतुराई की ठाट पहिचान।।

    -पान

    (71) अजब तरह की है एक नार। वाका मै क्या करूँ विचार।।

    दिन वह रहे बदी के संग। लाग रही निस वाके अंग।।

    -परछाईं

    (72) एक पुरख नौलख नारी। सेज चढ़ी वह तिरिया सारी।।

    जले पुरुख देखे संसार। इन तिरियों का यही सिंगार।।

    -हाँड़ी

    (73) एक पुरुख सहसो नार। जले पुरुख देखे संसार।।

    बहुत जले और होवे राख। तब तिरियों की होवे साख।।

    -हांड़ी

    (74) धूपों से वह पैदा होवे छाँव देख मुर्झायें।

    एरी सखी मैं तुझ से पूछूं हवा लगे मरजावे।।

    -पसीना

    (75) सोने की एक नार कहावे। बिना कसौटी बान दिखावे।।

    -पलंगड़ी

    (76) चाम मास वाके नहीं नेक। हाड़ हाड़ में वाके छेद।।

    मोहि अंचभो आवत ऐसे।वागें जीउ बसत है कैसे।।

    -पिजड़ा

    (77) खेत मैं उपजे सब कोई खाय। घर में होवे घर खा जाय।।

    -फूट

    (78) एक नार कूँए में रहे। वाका नीर खेत में बहे।।

    जो कोई वाके नीर को चाखे। फिर जीवन की आस राखे।।

    -तलवार

    (79) एक नार दर सींगों से। नित खेले उठ धीगों से।।

    जिसके द्वार जाय के अड़े। बे मानुस लिए नहीं टले।।

    -डोली

    (80) एक कन्या ने बालक जाया। वा बालक ने जगत सताया।।

    मारा मरे काटा जाय। वा बालक को नारी खाय।।

    -जाड़ा

    (81) ताना बाना जल गया जला नहीं एक तागा।

    घर का चोर पकड़ गया घर में मोरी में से भागा।।

    -जाल

    (82) बिन सिर का निकला चोरी को, बिन थन की पकड़ी जाए।

    दौड़ी या बिन पाओं के, बिन सिर का लिए जाय।।

    -जाल

    (83) क्या करूँ बिन पाओं के, तुझे लेगया बिन सिर का।

    क्या करूँ लंबी दुम के, तुझे खागया बिन चोंच का लड़का।।

    -जाल

    (84) दूध में दिया दही से लिया।

    -जोर

    (85) काजल की कजलौटी उधो, पेड़न का सिंगार।

    हरी डाल पै मैना बैठी, है कोइ बूझनहार।।

    -जामुन

    (86) डाला था सब को मन भाया। टाँग उठाकर खेल बनाया।।

    कमर पकड़ के दिया ढकेल। जब होवे वह पूरा खेल।।

    -झूला

    (87) एक पुरुख बहुत गुन भरा। लेटा जागै सोवे खड़ा।

    उलटा होकर डाले बेल। यह देखो करतार का खेल।।

    -चरखा

    (88) एक नारि के है दो बालक, दोनो एक हि रंग।

    एक फिरे एक ठाढ़ा रहे, फिर भी दोनोंसंग।।

    -चक्की।

    (89) नई की ढीली पुरानी की तंग।

    बूझो तो बूझो नहीं चलो मेरे संग।।

    -चिलम

    (90) चालीस मन की नार रखावे, सूखी जैसे तीली।

    कहन को पर्दे की बीबी, पर वह रंग रंगीली।।

    -चिलमन

    (91) मिला रहे तो नर रहे, अलग होय तो नार।

    सोने का सा रंग है, कोइ चतुरा करे विचार।।

    -चना

    (92) चटाख पटाख कब से। हाथ पकड़ा जब से।।

    आह आवे कब से। आधा गया जब से।।

    चुप चाप कब से। सारा गया जब से।।

    -चूड़ियाँ

    (93) तीनों तेरे हाथ में, मैं फिरूँ तेरे घात में।

    मैं हर फिर मारूँ तेरी, तू बुझ पहेली मेरी।।

    -चौसर

    (94) चारों दिशा की सोलह रानी। तीन पुरुख के हाथ बिकानी।।

    मरना जीना उसके हाथ। कभई सोवें वह एक साथ।।

    -चौसर

    (95) बाजों बॉधी एक छिनाल। नित वो रहवे खोले बाल।

    पी को छोड़ नफर से राजी। चतुरा हो सो जीत बाजी।।

    -चुनरी

    (96) बाल नचे कपड़े फटे, मोती लिए उतार।

    यह बिपता कैसे बनी, जो नंगी कर दई नार।।

    -भुट्टा

    (97) एक रूख में अचरज देखा डाल घनी दिखलाके।

    एक है पत्ता वाके ऊपर माथ कुछ कुम्हलावे।।

    सुंदर बाकी छाँव है सुंदर वाको रूप।

    खुला रहै नहि कुम्हलावे जों जों लागे धूप।।

    -छतरी

    (98) गोल गात सुंदर मूत, कालामुँह तिसपर खुबसूरत।

    उसको जो हो मरहम बूझे, सीना देख पिरोना सूझे।।

    -छाता

    (99) अगिन कूंड में घिर गया, जल में किया निकास।

    परदे परदे आवता, अपने पिय के पास।।

    -हुक्के का धूँआ

    (100) सुख के कारज बना एक मंदर। पौन जाने वाके अंदर।।

    इस मंदर की रीत दिवानी। बुझावे आग और ओढ़ै पानी।।

    -स्नान घर

    (101) सूली चढ़ मुसकत करे, स्याम बरन एक नार।

    दो से दस से बीस से, मिलत एकही बार।।

    -मिस्सी

    (102) स्याम बरन एक नार कहावे। तांबा अपना नाम धरावे।।

    जो कोई वाको मुख पर लावे। रती से सैर खा जावे।।

    -मिस्सी

    (103) नर से पैदा होवे नार। हर कोइ उससे रखे प्यार।।

    एक ज़मानः उसको खावे। खुसरो पेट में वह ना जावे।।

    -धूप

    (104) पीके नाम से बिकत है, कामिन गोरी गात।

    एक बेर दो बेर सती भइ, पिया पूछे बात।।

    -दीयसलाई

    (105) ऐन पहेली तीन का गुच्छा, जिसमें एक सुंदर है।

    सखी मैं तुझ से पूछूं, दो बाहर एक अंदर है।।

    -डोली

    (106) श्याम बरन सोहनी, फूलन छाई पीठ।

    सब सूरन के गले पड़त है, ऐसी बन गई ढीठ।।

    -ढाल

    (107) लोहे के चने दाँत तले पाते हैं उसको।

    खाया वह नहीं जाता है, पर खाते हैं उसको।।

    -रूपया

    (108) दानाई से दांत उस पै लगाता नहि कोई।

    सब उसको भुनाते हैं पै खाता नहिं कोई।।

    -रूपया

    (109) चंद्रबदन जक़्खी तन पांव बिना वह चलता है।

    अमीर खुसरो यों कहें, वह हौले हौले चलता है।।

    -रूपया

    (110) एक राजा ने महल बनाया। एक थम पर बाने बँगला छाया।।

    भोर भई जब बाजी बम। नीचे बंगला ऊपर थम।।

    -रूई

    (111) मोटा पतला सब को भावे। दो मीठों का नाम धरावे।।

    सकरकंद

    (112) एक नारी के सर पर नार। पी के लगन में खड़ी लचार।।

    सीस धुनै चले ज़ोर। रो रो कर वह करे है भोर।।

    -दीपशिखा

    (113) जब काटो तबही बढ़े, बिन काटे कुम्हिलाए।

    ऐसी अद्भुत नार का, अंत पायो जाए।।

    -दीपशिखा

    (114) एक पुरुख का अचरज लेखा। मोती फलती आँखों देखा।।

    जहाँ से उपजे वहाँ समाय। जो फल गिरे सो जल जल जाय।।

    -फुआरा।।

    (115) जब से तरुवर उपजा एक। पात नहीं पर डाल अनेक।।

    इस तरुवर की सीतल छाया। नीचे एक बैठन पाया।।

    फुआरा।

    (116) बात की बात ठठोली की ठठोली।

    मरद की गांठ औरत ने खोली।।

    -ताला

    (117) भीतर चिलमन बाहर चिलमन, बीच कलेजा धड़के।

    अमीर खुसरो यों कहे, वह दो दो अंगुल सरके।।

    -कैंची

    (118) आदि कटे से सब को पाले। मध्य कटे से सब को मारे।।

    अंत कटे से सबको मीठा। खुसरू वाको आँखों दीठा।।

    -काजल

    (119) जल कर उपजे जल में रहे। आँखों देखा खुसरू कहे।।

    -काजल

    (120) आधा मटका सारा पानी। जो बूझे सो बड़ा गिआनी।।

    -काजल

    (121) एक नार चातुर कहलावे। मूरख को ना पास बुलावे।

    चातुर मरद जो हाथ लगावे। खोल सतर वह आप दिखावे।।

    -पुस्तक

    (122) कीली पर खेली करे, पेड़ में दे दे आग।

    रास ढोए घर में रखे, वह जाए रह राख।।

    -कुम्हार

    (123) माटी रौंदूं चक धरूँ, फेरूँ बारंबार।

    चातुर हो तो जान ले, मेरी जात गँवार।।

    -कुम्हार

    (124) एक पुरुख ने ऐसी करी। खूंटी ऊपर खेती करी।।

    खेती बारी दई जलाय। वाई के ऊपर बैठा खाय।।

    -कुम्हार

    (125) चार अंगुल का पेड़ सवा मन का पत्ता।

    फल लगे अलग अलग पक जाय इकट्ठा।।

    -चाक

    (126) अंगूठे सी जड़ चौड़ा पात। छोटे बड़े फल एकही साथ।।

    -चाक

    (127) पानी में निस दिन रहे, जाके हाड़ मास।

    काम करे तलवार का, फिर पानी में बास।।

    -कुम्हार का डोरा

    (128) एक जानवर जल में रहे, मन में वाके खींच।

    उछल वार खांडा करे, जल का जल के बीच।।

    -कुम्हार का डोरा

    (129) गाँठ गँठीला रंग रँगीला, एक पुरुख हम देखा।

    मरद इस्तरी उसको रखें, उसका क्या कहूँ लेखा।।

    -कंठा

    (130) एक हानी मैं कहूँ, सुन ले मेरे पूत।

    बिना परों वह उड़ गया, बांध गले में सूत।।

    -गुड्डी

    (131) नारी काट के नर किया सब से रहे अकेला।

    चलो सखी वां चल के देखें, नार नारी का मेला।।

    -कुआँ

    (132) अंबर चढ़े भू गिरे, धरती धरे पाँव।

    चांद सुरज ओझल बसे, वाका क्या है नांव।।

    -गूलर का भुनगा

    (133) एक नार पानी पर तरे। उसका पूरूष लटका मरे।।

    जों जों खंदी गोता खाय। दूं दूं भडुआ मारा जाय।।

    -घड़ी घंटा

    (134) अंधा बहिरा गूँगा बोले गूँगा आप कहावे।

    देख सफेदी होत अँगारा गूँगे से भिड़ जावे।।

    बाँस का मंदिर बाबा वासा बसे का वह खाजा।

    संग मिले तो सिर पर रखे वाको रानी राजा।।

    सी सी करके नाम बताया तामें बैठा एक।

    उल्टा सीधा हर फिर देखो वही एक का एक।।

    भेद पहेली में कही तू सुनले मेरे लाल।

    अरबी हिंदी फारसी तीनों करो खियाल।।

    -लाल

    (135) उकरूँ बैठ के मारन लागा, बीच कलेजा धड़के।

    अमीर खुसरो यों कहें, वह दो दो अंगुल सरके।।

    -मुठिया

    (136) एक जानवर रंग रँगीला, बिन मारे वह रोवे।

    उसकी माँ पर तीन तिलाकें, बिना बताए सोवे।।

    -मोर

    (137) सर पर जाली पेट से खाली। पसली देख एक एक निराली।।

    -मूढ़ा

    (138) बाँस काटे ठायँ ठायँ नहीं को कँगुआय।

    कँवल का सा फूल जैसे अंगुल अंगुल जाय।।

    -नाव

    (139) ऊपर से वह सूखी साखी नीचे से पनहाई।

    एक उतरे और एक चढ़े और एक ने टाँग उठाई।।

    मोटा डंडा खाने लागी यह देखो चतुराई।

    अमीर खुसरो यों कहे तुम अरथ देव बताई।।

    -नाव

    (140) मीठी मीठी बात बनावे, ऐसा पुरुख़ वह किसको भावे।

    बूढ़ा बाला जो कोई आए, उसके आगे सीस नवाए।।

    -नाई

    (141) नारी में नारी बसे, नारी में नर दोय।

    दो नर में नारी बसे, बूझे बिरला कोय।।

    -नघ

    (142) एक नार दखिन से आई। है वह नर और नार कहाई।।

    काला मुहँ कर जग दिखलावे। मोय हरे जब वाको पावे।।

    -नगीना

    (143) लाल रंग वह चिपटा चिपटा, मुहँ को करके काला।

    थूक लगाकर दाब दिया, जब खसम का नाम निकाला।।

    -नगीना

    (c) कह मुकरियाँ।

    (144) बरसा बरस वह देस में आवे। मुँह से मुँह लगा रस प्यावे।।

    वा खातिर में खरचे दाम। सखी साजन ना सखी आम।।

    (145) सोभा सदा बढ़ावन हारा। आँखों ते छिन होत न्यारा।।

    आए फिर मर मन रंजन। सखी साजन ना सखी अंजन।।

    (146) कसके छाती पकड़े रहे। मुँह से बोले बात कहे।।

    लगा है कामिनि का रँगिया। सखी साजन ना सखी अँगिया।।

    (147) बन में रहे वह निरछी खड़ी। देख सके मेरे पीछे पड़ी।।

    उन बिन मेरा कौन हवाल। सखी साजन ना सखी बाल।।

    (148) पड़ी थी मैं अचानक चढ़ आयो। जब उतरवा तो पसीनो आयो।।

    सहम गई नहि सकी पुकार। सखी साजन ना सखी बुखार।।

    (149) आँख चलावे भौं मटकावे। नाच कूद के खेल खिलावे।।

    मन में आवे ले जाऊँ अंदर। सखी साजन ना सखी बंदर।।

    (150) उछल कूद के वह जो आया। धरा ढँका वह सब कुछ खाया।।

    दौड़ झपट जा बैठा अंदर। सखी साजन ना सखी बंदर।।

    (151) छोटा छोटा अधिक सोहाना। जो देखे सो होय दिवाना।।

    कभी वह बाहर कभी वह अंदर। सखी साजन ना सखी बंदर।।

    (152) सेज रंग मेंहदी पर धावे। कर छूवत नैनन चढ़ जावे।।

    बैठत उठत मड़ोड़त अंग। सखी साजन ना सखी भंग।।

    (153) हरा रंग मोहिं लागत नीको। वा बिन जग लागत है फीको।।

    उतरत चढ़त मड़ोढ़त अंग। सखी साजन ना सखी भंग।।

    (154) वाको रगड़ा नीको लागै। चढ़े जो बन पर मजा दिखावे।।

    उतरत मुँह का फीका रंग। सखी साजन ना सखी भंग।।

    (155) मो खातिर बजार से आवे। करे सिंगार तब चूमा पावे।।

    मन बिगड़े नित राखत मान। सखी साजन ना सखी पान।।

    (156) बन ठन के सिंगार करे। धर मुँह पर मुँह प्यार करे।

    प्यार से मोपै देत है जान। सखी साजन ना सखी पान।।

    (157) वा बिन मोको चैन आवे। वह मेरी तिस आन बुझावे।।

    है वह सब गुन बारह बानी। सखी साजन ना सखी पानी।।

    (158) आप हले वह मोय हिलावे। वाका हिलना मोको भावे।।

    हिल हिल के वह हुआ नसंखा। सखी साजन ना सखी पंखा।।

    (159) छठे छमाहे मेर घर आवे। आप हले और मोय हलावे।।

    नाम लेत मोय आवे संक्खा। सखी साजन ना सखी पंखा।।

    (160) रात दिना जाको है गौन। खुले द्वार वह आवे भौन।।

    वाको हर एक बतावे कौन। सखी साजन ना सखी पौन।।

    (161) हाट चलत मैं पड़ा जो पाया। खोटा खरा मैं ना परखाया।।

    ना जानूं वह हैगा कैसा। सखी साजन ना सखी पैसा।।

    (162) रात समय वह मेरे आवे। भोर भए बत घर उठ जावे।।

    यह अचरज है सबसे न्यारा। सखी साजन ना सखी तारा।।

    (163) मद भर जोर हमे दिखलावे। मुफत मेरे छाती चढ़ आवे।।

    छूट गया सब पूजा जप। सखी साजन ना सखी तप।।

    (164) घर आवे मुख फेर धरें। दें दुहाई मन को हरे।।

    कभू करत हैं मीठे बैन। कभू करत है रूखे नैन।।

    ऐसा जग में कोऊ होता। सखी साजन ना सखी तोता।।

    (165) सबज रंग और मुख पर लाली। उस पीतम गल कंठी काली।।

    भाव सुभाव जंगल में होता। सखी साजन ना सखी तोता।।

    (166) अति सारँग है रंग रँगीलो। गुनवंत बहुत चटकीलो।।

    राम भजन बिन कभू सोता। सखी साजन ना सखी तोता।।

    (167) लौंडी भेज उसे बुलवाया। नंगी होकर मैं लगवाया।।

    हमसे उससे हो गया मेल। सखी साजन ना सखी तेल।।

    (168) सुरूख सफेद है वाका रंग। सांझ फिरि मैं वाके संग।।

    गले में कंठा स्याह थे गेसू। सखी साजन ना सखी टेसू।।

    (169) जोर भरो है ज्वानि दिखावत। हुमुकि हुमुकि मो पै चढ़ि आवत।।

    पेट में पाऊँ दे दे मारा। सखी साजन ना सखी जारा।।

    (170) लपट लपट के वाके सोई। छाती से पांव लगा के रोई।।

    दाँत से दाँत बजे तो ताड़ा। सखी साजन ना सखी जाड़ा।।

    (171) टप टप चूसत तन को रस। वासे नाहीं मेरा बस।।

    लट लट के मैं हो गई पिजरा। सखी साजन ना सखी जरा।।

    (172) नंगे पाँव फिरन नहिं देत। पावँ से मिट्टी लगन नहिं देत।।

    पावँ का चूमा लेत निपूता। सखी साजन ना सखी जूता।।

    (173) द्वारे मोरे अलस्व जगावे। भभूत बिरह के अंग लगावे।।

    भिंगी फूंकत फिरै वियोगी। सखी साजन ना सखी जोगी।।

    (174) ऊँची अटारी पलंग बिछायो। मैं सोई मेरे सिर पर आयो।।

    खुल गई अँखियां भई अनंद। सखी साजन ना सखी चंद।।

    (175) नित मेरे घर वह आवत है। रात गए फिर वह जावत है।।

    फँसत अमावस गोरि के फंदा। सखी साजन ना सखी चंदा।।

    (176) आधि रात गए आयो दइमारो। सब आभरन मेरे तन से उतारो।।

    इतने में सखी हो गई भोर। सखी साजन ना सखी चोर।।

    (177) मेरे घर में दोनो सेंध। ढुलकत आवे जैसे गेंद।।

    वाके आए पड़त है सोर। सखी साजन ना सखी चोर।।

    (178) मोको तो हाथी को भावे। घटे बढ़े पर मोय सुहावे।।

    ढूँढ़ ढाँढ़ के लाई पुरा। क्यों सखि साजन ना सखी चूड़ा।।

    (179) अंगाँ मेरे लिपटा रहे, रंग रूप का सब रस पिए।।

    मैं भर जनम वाको छोड़ा। सखी साजन ना सखी चूड़ा।।

    (180) सोलह मुद्दर या सेज लावै। हड्डी से हड्डी खटकावै।।

    खेलत खेल है बाजी बद कर। सखी साजन ना सखी चौसर।।

    (181) न्हाय धोय सेज मेरी आयो। ले चूमा मुँह मुँहहिं लगायो।।

    इतनि बात पै थुक्कम थुक्का। सखी साजन ना सखी हुक्का।।

    (182) आप जले मोय जलावे। पी पी कर मोरे मुँह आवे।।

    एक मैं अब मारूँगी मुक्का। सखी साजन ना सखी हुक्का।।

    (183) बड़ी सयानी दम दे जाय। मुँह को मेरे मिट्टी ले जाय।।

    हरदम बाजे थुक्कम थुक्का। सखी साजन ना सखी हुक्का।।

    (184) रैन पड़े जब घर आवे। वाका आना को भावे।।

    कर पर्दा मैं घर में लिया। सखी साजन ना सखी दिया।।

    (185) एक सजन बह गहरा प्यारा। जा से घर मेरा उजियारा।।

    भोर भई तब विदा मैं किया। सखी साजन ना सखी दिया।।

    (186) सारि रैन मोरे संग जागा। भोर भए तब बिछुड़न लागा।।

    वाके बिछुड़त फाटे हिया। सखी साजन ना सखी दिया।।

    (187) वह आवे तब शादी होय। उस बिन दूजा और कोय।।

    मीठे लागैं वाके बोल। सखी साजन ना सखी ढोल।।

    (188) एक सजन मेरे मन को भावे। जासे मजलिस खड़ी सुहावे।।

    सूत सुनूँ उठ दौड़ूँ जाग। सखी साजन ना सखी राग।।

    (189) बखत बे बखत मोयँ वाकी आस। रात दिना वह रहवत पास।।

    मेरे मन को सब करत है काम। सखी साजन ना सखी राम।।

    (190) तन मन धन का है वह मालिक। बाने दिया मेरे गोद में बालक।।

    वासे निकसत नीको काम। सखी साजन ना सखी राम।।

    (191) द्वारे मोरे खड़ा रहे। धूप छाव सब सर पर सहे।।

    जब देखो मोरी जाए भूख। सखी साजन ना सखी रूख़।।

    (192) मेरा मुँह पोंछे मोको प्यार करे। गरमी लगे तो बयार करे।।

    ऐसा चाहत सुन यह हाल। सखी साजन ना सखी रूमाल।।

    (193) सेज पड़ी मेरे आँखों आया। डाल सेज मोहि मजा दिखाया।।

    किस से कहूँ मजा मैं अपना। सखी साजन ना सखी सपना।।

    (194) उकडू बैठ के माँपत है। सौ सौ चकर देके घुमावत है।।

    तब वाके रस की क्या देत बहार। सखी साजन ना सखी सुनार।।

    (195) अति सुंदर जग चाहै जाको। मैं भी दुख भुलानी वाको।।

    देख रूप भाया जो टोना। सखी साजन ना सखी सोना।।

    (196) मेरो मोसे सिंगार करावत। आगे बैठ के मान बढ़ावत।।

    वासे चिकन ना कोइ दीसा। सखी साजन ना सखी सीसा।।

    (197) बाट चलत मोरा अचरा गहे। मेरी सुनै अपनी कहे।।

    ना कुछ मोसो झगड़ा झाँटा। सखी साजन ना सखी काँटा।।

    (198) दुर दुर करूँ तो दौड़ा आए। छन आँगन छन बाहर जाए।।

    दीहल छोड़ कहीं नहीं सुवता। सखी साजन ना सखी कुत्ता।।

    (199) टट्टी तोड़ के घर में आया। अरतन बरतन सब सरकाया।।

    खा गया पी गया दे गया बुत्ता। सखी साजन ना सखी कुत्ता।।

    (200) वाकी मोको तनिक लाज। मेरे सब वह करत है काज।।

    मूड़ से मोको देखत नंगी। सखी साजन ना सखी कंघी।।

    (201) आठ अँगुल का है वह असली। उसके हट्टी उसके पसली।।

    लटा धारी गुरू का चेला। सखी साजन ना सखी केला।।

    (202) देखन में वह गाँठ गठीला। चाखन में वह अधिक रसीला।।

    मुख चूँमू तो रस का भांडा। सखी साजन ना सखी गाँडा।।

    (203) बैसाख में मेरे ढिग आवत। मोको नंगी सेज पर डारत।।

    ना सोवे ना सोवन देत अधरमी। सखी साजन ना सखी गरमी।।

    (204) चढ़ छाती मोको लचकावत। धोय हाथ मो पर चढ़ि आवत।

    सरम लगत देखत सब नारी। सखी साजन ना सखी गगरी।।

    (205) धमक चढ़ै सुध बुध बिसरावे। दाबत जाँघ बहुत सुख पावै।।

    अति बलवंत दिनन का थोड़ा। सखी साजन ना सखी घोड़ा।।

    (206) हुमक हुमक पकड़े मेरी छाती। हँस हँस मैं वा खेल खेलाती।।

    चौंक पड़ी जो पायो खड़का। सखी साजन ना सखी लड़का।।

    (207) जब माँगू तब जल भर लावे। मेरे मन की बिपत बुझावे।।

    मन का भारी तन का छोटा। सखी साजन ना सखी लोटा।।

    (208) उठा दोनो टाँगन बिच डाला। नाप तौल में देखा भाला।।

    मोल तौल में है वह मँहगा। सखी साजन ना सखी लहँगा।।

    (209) जब मोरे मंदिर में आवे। सोते मुझको आन जगावे।।

    पढ़त फिरत वह बिरह के अच्छर। सखी साजन ना सखी मच्छर।।

    (210) बेर बेर सोवतहिं जगावे। ना जागूं तो काटे खावे।।

    व्याकुल हुई मैं हक्की बक्की। सखी साजन ना सखी मक्खी।।

    (211) देखत के दो घड़ी उजियारी। सब संगर से आती प्यारी।।

    सगरी रैन मैं संग ले सोती। सखी साजन ना सखी मोती।।

    (212) नीला कंठ और पहिरे हरा। सीस मुकुट नाचे वह खड़ा।।

    देखत घटा अलापै चोर। सखी साजन ना सखी मोर।।

    (213) आठ पहर मेरे ढिग रहे। मीठी प्यारी बातें करै।।

    स्याम बरन और राती नैना। सखी साजन ना सखी मैना।।

    (214) उमड़ घुमड़ कर वह जो आया। अंदर मैंने पलंग बिछाया।।

    मेरा वाका लागा नेह। सखी साजन ना सखी मेह।।

    (215) अपने आए देत जमाना। है सोते को यहाँ जगाना।।

    रंग रस का फाग मचाया। आप भिजे मोहि भिजाया।।

    वाको कौन चाहे नेह। सखी साजन ना सखी मेंह।।

    (216) मुख मेरा चूमत दिन रात। होंठे लगत कहत नहीं बात।।

    जासे मेरी जगत में पत। सखी साजन ना सखी नथ।।

    (217) सरब सलोना सब गुन नीका। वा बिन सब जग लागै फीका।।

    वाके सर पर होवे कोन। सखी साजन ना सखी नोन।।

    (218) हालत झूमत नीको लागै। अपने ऊपर मोहिं चढ़ावै।।

    वै वाकी वह मेरा साथी। सखई साजन ना सखी हाथी।।

    (219) एक तो है वह देह का भारू। छोटे नैन सदा मतवारू।।

    वह पीउ मेरे सेज का साथी। सखी साजन ना सखी हाथी।।

    (220) सगरी रैन छतिअन पर राखा। रंग रूप सब वाका चाखा।।

    भोर भई जब दिया उतार। सखी साजन ना सखी हार।।

    (221) अंगों मेरे लपटा आवे। वाका खेल मोरे मन भावे।।

    कर गहि कुच गहि गहे मोरि माला। सखी साजन ना सखी बाला।।

    (222) एक सजन मोरा मन ले जावे। मुख चूमे और बात बनावे।।

    होंठन लाग सही रस खौंचा। सखी साजन ना सखी नैचा।।

    (d) दो सुखना हिंदी।

    (223) रोटी जली क्यों, घोड़ा अड़ा क्यों,

    पान सड़ा क्यों?

    उत्तर- फेरा था

    (224) अनार क्यों चक्खा,

    वज़ीर क्यों रखा?

    उत्तर- दाना था

    (225) गोश्त क्यों खाया,

    डोम क्यो गाया?

    उत्तर- गला था।

    (226) गढ़ी क्यो छिनी, रोटी क्यों मांगी?

    उत्तर- खाई थी।

    (227) संमोसा क्यों खाया,

    जूता क्यों चढ़ाया?

    उत्तर- तला था

    (228) ककड़ी क्यों छोटी,

    लकड़ी क्यों टूटी?

    उत्तर- बोदी थी

    (229) राजा प्यासा क्यों,

    गदहा उदासा क्यों?

    उत्तर- लोटा था।

    (230) खिचड़ी क्यों पकाई,

    कबूतरी क्यों उड़ाई?

    उत्तर- छड़ी थी।

    (231) पोस्ती क्यों रोया,

    चोकीदार क्यों सोया?

    उत्तर- अमल था।

    (232) जोगी क्यों भागा,

    ढोलकी क्यों बाजी?

    उत्तर- मँढ़ी थी।

    (233) दही क्यों जमी,

    नौकर क्यों रखा?

    उत्तर- ज़ामिन था।

    (234) सितार क्यों बजा,

    औरत क्यों नहाई?

    उत्तर- परदा था।

    (235) क्यारी क्यों बनाई,

    डोमनी क्यों गाई?

    उत्तर- बेल थी

    (236) पानी क्यों भरा,

    हार क्यों पहना?

    उत्तर- गढ़ा था।

    (237) दरबार क्यों गए,

    ज़मीन पर क्यों बैठे?

    उत्तर- चौकी थी।

    (238) दीवार क्यों टूटी,

    राह क्यों लूटी?

    उत्तर- राज था

    (239) खाना क्यों खाया,

    जामा क्यों धुलवाया?

    उत्तर- मेल था

    (240) जोरू क्यों मारी,

    ईख क्यों उजाड़ी?

    उत्तर- रस था

    (241) रोटी क्यों सूखी,

    बस्ती क्यों उजड़ी?

    उत्तर- खाई थी

    (242) घर क्यों अँधियारा

    फ़क़ीर क्यों बिड़ारा?

    उत्तर- दिया था

    (e) निसबतें अर्थात् संबंध, बराबरी।

    (243) हलवाई और दबकई में क्या निसबत है? उत्तर- कंदा

    (244) हलवाई और बज़ाज़ में क्या निसबत है? उत्तर- कंद

    (245) गोटे और आफ़बात में क्या निसबत है? उत्तर- किरन

    (246) घोड़े और हरफ़ों में क्या निसबत है? उत्तर- नुक़ता

    (247) जानवर और बंदू में क्या निसबत है? उत्तर- मक्खी, घोड़ा

    (248) बंदूक और कुएँ में क्या निसबत है? उत्तर- कोठी

    (249) बज़ाज़ और फल में क्या निसबत है? उत्तर- कमरख

    (250) आम या शलजम और कपड़े में क्या निसबत है? उत्तर- जाली

    (251) गहने और दरख़्ता में क्या निसबत है? उत्तर- पत्ता

    (252) आम और ज़ेवर में क्या निसबत है? उत्तर- कीरी

    (253) मकान और अनाज में क्या निसबत है? उत्तर- कँगनी

    (254) दरया और गहने में क्या निसबत है? उत्तर- मगर

    (255) मकान और पायजामें में क्या निसबत है? उत्तर- मोरी

    (256) कपड़े और दरिया में क्या निसबत है? उत्तर- पाट

    (257) अँगरखे और पेड़ में क्या निसबत है? उत्तर- कलियॉ

    (258) आदमी और गेहूँ में क्या निसबत है? उत्तर- बाल

    (259) बादशाह और मुर्ग़ में क्या निसबत है? उत्तर- ताज

    (260) मुश्क और आदमी में क्या निसबत है? उत्तर- दहाँ

    (261) घोड़े और बज़ाज़ में क्या निसबत है? उत्तर- थान, ज़ीन

    (262) दामन और अंगरखे में क्या निसबत है? उत्तर- पर्दा

    (263) हलवाई और पायजामे में क्या निसबत है? उत्तर- कुंदा

    (264) मकान और कपड़े में क्या निसबत है? उत्तर- लट्ठा (गज़)

    (f) दो सखुना फ़ारसी और हिंदी।

    (265) सौदागर बचः रा चे मी बायद,

    बूचे को क्यो चाहिए?

    उत्तर- दोकान

    (266) कूबते रूह चीस्त, प्यारी को कब देखिए?

    उत्तर- सदा

    (267) बार बर्दारी रा चे मी बायद,

    कलावंत को क्या कहिए?

    उत्तर- गाओ

    (268) तिश्नः रा चे मी बायद,

    मिलाप को क्या चाहिए?

    उत्तर- चाह

    (269) शिकारी रा चे मी बायद,

    मुसाफ़िर को क्या चाहिए?

    उत्तर- दाम

    (270) शिकार बेह चे मी बायद कर्द,

    कूवते मग़ज़ को क्या चाहिए?

    उत्तर- बादाम

    (271) दुआ चे तौर मुस्तजाब शवद,

    लश्कर में कौन बैठे?

    उत्तर- बाज़ारी

    (272) कोह चे मी दारद,

    मुसाफ़िर को क्या चाहिए?

    उत्तर- संग

    (273) दर जहन्नुम चीस्त,

    कामी को क्या चाहिए?

    उत्तर- नार

    (274) अज़ खुदा चे बायद तलबीद,

    बिरहिन की क्या गिनती?

    उत्तर- काम

    (275) दर आईनः चे मी बीनद,

    दुखिया को क्या कहिए?

    उत्तर- रो

    (276) माशूक रा चे मी बायद कर्द,

    हिंदुओं का रख कौन है?

    उत्तर- राम

    (f) अनमेलियाँ या ढकोसला।

    (277) भादों पक्की पीपली, झड़ झड़ पड़े कपास।।

    बी मेहतरानी दाल पकाओगी या नंगा सो रहूँ।।1।।

    (278) कोठी भरी कुल्हाड़ियाँ, तू हरीरा करके पी।।

    बहुत ताउल है तो छप्पर से मुँह पोंछ।।2।।

    (279) पीपल पकी पपोलियॉ, झड़ झड़ पड़े हैं बेर।।

    सर में लगा खटाक से, वाह बे तेरी मिठास।।3।।

    (280) भैंस चढ़ी बिटोरी, और लप लप गूलर खाय।।

    उतर मेरे रॉड़ की, कहीं हूपज़ ना फट जाय।।4।।

    (281) भैंस चढ़ी बबूल पर, और लप लप गूलर खाय।।

    दुम उठा कर देखा तो पूरनमासी के तीन दिन।।5।।

    (282) गोरी के नैना ऐसे बड़े जैसे बैल के सींग।।6।।

    (283) खीर पकाई जतन से, और चरखा दिया जलाय।

    आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजाय।। ला पानी पिला।।7।।

    (284) औरों की चौपहरी बाजे, चम्मू की अठपहरी।

    बाहर का कोई आए नाहीं, आए सारे सहरी।।

    (285) साफ़ सूफ़ कर आगे राखे, जामें नाहीं तूमल।

    औरों के जहाँ सींक समाए, चम्मू के वाँ मूसल।।

    (g) बसंत और फुटकर पद्य

    (1)

    हज़रत खाजा संग खेलिए धमाल

    बाइस खाजा मिल बन बन आयो तामें।

    हज़रत रसूल साहब जमाल हज़रत….

    अरब यार तेरो बसंत मनायो

    सदा रखिए लाल गुलाल हज़रत….

    (2)

    मोरा जोबना नवेलरा भयो है गुलाल

    कैसे घर दीनी बकस मोरी माल।।

    निजामदीन औलिया को कोई समझाए।

    जों जों मनाऊँ वह तो रूसो ही जाए।।

    मोरा जोबना ….

    चूड़ियां फोडूँ पलंग पर डारूँ

    इस चोली को दूँगी मैं आग लगाए।।

    कैसे घर….

    सूनी सेज डरावन लागै,

    बिरहा अगिन

    मोहें डस डस जाए।

    मोरा जोबना नवेल रा भयो है गुलाल।।

    (3)

    सरवंता मबा- मोरा ला- सब बना।

    खेलत धमाल खाजा मुइनुद्दीन और खाजा कुतुबद्दीन।।

    शख़ फरीद शकरगंज सुल्तान मशायख नसीरुद्दीन औलिया।।

    सरवंता मबा…….

    (4)

    दइआ री मोहे भिजोया री शाह निजाम के रंग में

    कपड़े रँगन से कुछ ना होत है

    या रँग में मैंने मन को डुबोया री

    दइआ री मोहे…..

    वाही के रंग से सुन बे शोख रंग

    खूब ही मल मल के धोया री

    पीर निजाम के रंग में भिजोया री।।

    (5)

    औलिया तेरे दामन लागी।

    पढ़ियो मेरे ललना। औलिया……..

    खाजा हसन को मैं मुजरे मिली

    खाजा कुतुबुद्दीन। औलिया………

    (6) सावन के गीत

    अम्मा मेरे बाबा को भेजो जी कि सावन आया।

    बेटी तेरा बाबा तो बुड्ढा री कि सावन आया।

    अम्मा मेरे भाई को भेजो जी कि सावन आया।

    बेटी तेरा भाई तो बाला री कि सावन आया।

    अम्मा मेरे मामूँ को भेजो जी कि सावन आया।

    बेटी तेरा मामूं तो बॉका री कि सावन आया।

    (7) दोहा

    खुसरू रैन सोहाग की, जागी पी के संग।।

    तन मेरो मन पीउ को, दोऊ भए एक रंग।।

    गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस।।

    चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस।।

    8

    ज़े-हाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराय नैनाँ बनाए बतियाँ

    कि ताब-ए-हिज्राँ नदारम जाँ लेहू काहे लगाए छतियाँ

    शाबान-ए-हिज्राँ दराज़ चूँ ज़ुल्फ़ रोज़-ए-वसलत चू उम्र कोताह

    सखी पिया को जो मैं देखूँ तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ

    यकायक अज़ दिल दो चश्म जादू ब-सद-फ़रेबम ब-बुर्द तस्कीं

    किसे पड़ी है जो जा सुनावे पियारे पी को हमारी बतियाँ

    चूँ शम्म-ए-सोज़ाँ चूँ ज़र्रा हैराँ ज़े मेहर-ए-आँ-मह बगश्तम आख़िर

    नींद नैनाँ अंग चैनाँ आप आवे भेजे पतियाँ

    ब-हक़्क़-ए-आँ मह कि रोज़-ए-महशर ब-दाद मारा फ़रेब ‘ख़ुसरो’

    सपीत मन के दुराय राखूँ जो जाए पाऊँ पिया की खतियाँ

    (10) आँख का नुसख़ा

    लोध फिटकिरी मुर्दासंख। हल्दी जीरा एक एक टंक।।

    अफ़्यून चना भर मिर्चें चार। उरद बराबर थोथा डार।।

    पोस्त के पानी पुटली करे। तुरत पीड़ नैनों की हरे।।

    (11) दोहा (उपनाम रहित)

    श्याम सेत गोरी लिए, जनमत भई अनीत।

    एक पल में फिर जात हैं, जोगी काके मीत।।

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