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संत रोहल की बानी- दशरथ राय

नागरी प्रचारिणी पत्रिका

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    हिंदी सब कालों में समस्त भारत में समान रूप से अपना स्थान बनाए जनसंपर्क की भाषा बनी रही हैं और भारत के समस्त प्रदेशों ने हिंदी के विकास में अपना पूर्ण योगदान दिया है। राजनीतिक मंच ने आज हिंदी के प्रति उदासीनता ग्रहण कर ली है और प्रांतीयता की भावना के पुनः पल्लवित हो उठने के कारण हिंदी अपना पूर्व प्रतिष्ठित स्थान तक खोने लगी है। इसका कुछ उत्तरदायित्व हम हिंदी के ठेकेदारों पर भी है कि हम भारत के विभिन्न प्रदेशों में होनेवाले हिंदी कार्य के प्रति आदर भाव रखें और उदारता पूर्वक उसको गले लगाएँ। अहिंदी भाषी क्षेत्र के व्यक्ति की रचना के प्रति उदासीनता का भाव त्याग कर हमें उको और अधिक आदर और समान देना चाहिए जिससे हिंदी के विकास में सहयोग मिले। दुर्भाग्य की बात है कि हम यही नहीं कर पा रहे हैं।

    पंजाब प्रांतीय हिंदी साहित्य के इतिहास ने तथा दक्खिनी हिंदी के साहित्यिक परिचय ने भी इस दिशा में सराहनीय कार्य किया है जिससे हम हिंदी जगत्वालों के सामने इन प्रदेशों में हुई हिंदी सेवाओं का परिचय आया है। दक्खिन में तो हिंदी का गद्य का विकसित स्वरूप उन दिनों मिलता है जब कि उत्तर भारत में गद्य का श्रीगणेश तक नहीं हुआ था। यही हिंदी जहाँ विभिन्न प्रांतों में विभिन्न नामों से विकसित हो रही थी, वहाँ वह साहित्य की अधिष्ठात्री देवी भी बनी हुई थी और प्रदेशों के अनुरूप उसने अपना नाम भी बदल लिया था और अपने में प्रदेश-विशेष के शब्दों को आत्मसात् करती हुई, वह अभिन्नता का सजीव उदाहरण बनी हुई थी। यही कारण है कि उसके अनेक नाम आज भी मिलते हैं- ब्रज, अवधी, छत्तीसगढ़ी, बुंदेली, भोजपुरी, राजस्थानी तथा दक्खिन में दक्खिनी और गुजरात में गूजरी।

    7वीं सदी में मुसलमानों का सिंध प्रदेश पर शासन स्थापित हो गया था और वहाँ अरबी फारसी का प्रचार आरंभ हो गया था और यहाँ तक कि सिंधी भाषा तक अपनी लिपि त्याग कर अरबी लिपि को अपना कर आगे बढ़ी। भारत में जहाँ जहाँ मुसलमान आक्रमणकारी ने प्रवेश किया, वहाँ वहाँ उनके साथ ही सूफी फकीर भी अपने धर्म का प्रचार करने के लिये फैलने लगे। यही कारण है कि सिंध में सूफियों के अनेक महत्वपूर्ण केंद्र बने हुए हैं। उन दिनों भारत में सर्वत्र हठयोग और नाथ संप्रदाय का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। भारत और सिंध में आज अनेक स्थान ऐसे पाए जाते हैं जहाँ पहले तो हमारे नाथ संप्रदाय के केंद्र थे किंतु मुसलमानों ने उनपर भी अपना अधिकार जमा कर उन्हें अपना धार्मिक केंद्र बना लिया। इसके पीछे राजनीतिक बात भी हो सकती है कि हम अपने उन पूर्व प्रतिष्ठा प्राप्त स्थानों की पूजा भी रहेंगे और इस तरह धीरे धीरे हम इस्लाम के भी समीप आते जाएँगे। सेवहण (सिंध) में जहाँ आज लाल शहबाज का मकबरा बना हुआ है, वह वास्तव में राजा भर्तृहरि का समाधिस्थल बताया जाता है। सिंध में कराची जिले में पीर पठो नामक स्थल मुसलमानों का ज्यारत स्थान माना जाता है पर वह भी वास्तव में राजा गोपीचंद का समाधिस्थल बताया जाता है। भारत में भी ऐसे अनेक स्थल बताए जाते हैं। मुसलमानों का यह कार्य कोई नया कार्य नहीं है। इसका ज्वलंत प्रमाण तो मुसलमानों की सबसे अधिक प्रतिष्ठित जगह मक्का मदीना है जो वास्तव में बौद्ध धर्म का विहारस्थल था जिसे इस्लाम के प्रचारकों ने सबसे पहले अपने आधीन बनाकर हमेशा के लिये उस पर अपने धर्म की छाप लगा दी।

    इससे एक ओर जहाँ मुसलमान इसलाम के प्रति लोगों के मन से द्वेष की भावना को मिटाकर, अपने धर्म-प्रचार कार्य में लगे हुए थे, वहाँ दूसरी ओर वे हमारी धार्मिक प्रथाओं, परंपराओं और संस्कृति के भी संपर्क में आए। यही कारण है कि इसलाम का प्रचार जितना तलवार की धार कर सकी उससे अधिक इन धार्मिक केंद्रों द्वारा हुआ।

    सिंध में जहाँ सिंधी भाषा और साहित्य का विकास हो रहा था, वहाँ हिंद से लोग अपरिचित नहीं थे। सिंध के सुप्रसिद्ध सूफी संत शाह अब्दुललतीफ भिटाई की रचनाओं में बीस प्रतिशत रचना हिंदी में ही है और शेष रचना में भी हिंदी भाषा के शब्दों का मुक्त रूप से प्रयोग होता हुआ मिलता है। सिंध के अन्य प्रसिद्ध सूफी कवियों में सचल सरमस्त, बेकस, बेदिल आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं जिनकी रचना से हिंदी रचना को बड़ी आसानी से अलग करके सिंध प्रांतीय हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा जा सकता है और उन रचनाओं को जनता के सामने लाकर यह सिद्ध किया जा सकता है कि हिंदी किसी प्रांत विशेष की भाषा नहीं है, वह आरंभ से ही जनप्रिय भाषा बनी रही हैं और उसने कभी अपने ओछेपन का परिचय प्रांतीयता के रूप में नहीं दिया। सिंध प्रांत के हिंदी सेवी कवियों में रोहल का विशेष महत्वपूर्ण स्थान है जिसकी रचना नब्बे प्रतिशत हिंदी में सात-आठ प्रतिशत पंजाबी में और दो-तीन प्रतिशत सिंधी में उपलब्ध है।

    रोहल (निर्वाण सन् 1782 ई.) का नाम इतिहासकारों ने स्वच्छंद वृति के सूफियों से जोड़ा है। रोहल के जीवनवृत्त पर तज्जकिरे औलियाए सिंध और तज्जकिरे सूफियाए सिंध तथा पंजाब भी मौन हैं। पंजाब प्रांतीय हिंदी साहित्य के इतिहास में भी रोहल का उल्लेख नहीं है। संभव है कि इन ग्रंथकारों ने रोहल की रचना में हिंदी भाषा की प्रधानता देखकर उन्हें अपने ग्रंथों में स्थान दिया हो। रोहल का जीवनवृत्त अपने में एक अनुसंधान का विषय है। उसका कंडड़ी नामक स्थान पर स्थित होने का संकते मिलता है। रोहल भी अपने जीवनचरित्र के विषय में आरंभिक हिंदी कवियों की तरह पूर्णतया मौन रहा है।

    इधर हमें संत रोहल की दो संपूर्ण रचनाएँ- शास्त्र मन-प्रबोध एवं शास्त्र अद्भुत ग्रंथ-प्राप्त हुई है। इनमें दोहा छंद की प्रधानता है और कहीं कहीं पद भी मिलते हैं। इन रचनाओं का मूल स्वर उपदेशात्मक एवं आध्यात्मिक ही रहा है। संत रोहल को सूफी कवियों के अंतर्गत रखने की अपेक्षा ज्ञानाश्रयी शाखा के अंतर्गत ही रखा जा सकता है। संत रोहल की रचना पर संत कबीर की गहरी छाप दिखाई देती है। गुरु महिमा, हठयोग का प्रभाव, एकेश्वरवाद की भावना, सोअहं की भावना अथवा आत्माराम की आराधना की भावना, तथा कबीर की ही भाँति गर्वोक्तियाँ देखकर तो यही लगता है कि संत रोहल ने कबीर का गहराई से अध्ययन किया था और उस पर संत कबीर की गहरी छाप पड़ी हुई है। बिना गुरु के ज्ञान संभव नहीं और जब तक साधक अपने आपको पूर्णतया समर्पित हनीं कर देता उसकी शंकाएँ नहीं मिटतीं और ही वह ज्ञान का अधिकारी बन सकता है----

    सीस उतार धरया गुरु आगे अब कछु संसा नाहीं।

    पांचे उलट एक घर आया, अनुभव आतम माहीं।।

    संत रोहल ने भी गुरु के चरणों में अपने संपूर्ण अहं को विसर्जित करने की भावना पर बल दिया है-

    तब बुद्धि कह्यौ चित्त कूँ, जो पूछो तुम मोहि।

    बिना सत्गुरू ना मिटे, जो दुख तानो तोहि।

    और तभी कहीं-

    भई कृपा तब सौदा बनिया, भगत भेद नहीं भासे।

    रोहल रतन अमोलक मिलिया, सिर साँटे अपनासे।।

    चेतन सत्ता को एक अखंड सत्ता मानते हुए रोहल ने उस सत्ता को सर्वव्यापक माना है जो घट घट में समाई हुई है। जड़ चेतन संपूर्ण जगत् में वही सत्ता व्याप रही है। माया के कारण ही उसके अस्तित्व को नहीं पहचाना जा सकता। मायाग्रस्त जीव के लिये उसके शुद्ध स्वरूप को पाना सरल नहीं---

    चेतन एक अखंड है, सब घट रह्यो समाय।

    माया मूँ मिलि जड़ भयो, शुद्ध सरूप पाय।।

    जड़ चेतन में यह संपूर्ण विश्व विभक्त है। जड़ एवं चेतन ब्रह्म की दो प्रवृत्तियाँ हैं जिनमें से चेतन का अवलंब लेनेवाला ही ब्रह्म प्राप्ति में सफल हो सकता है-

    एक कँवल दो फूलड़ा, जड़ चेतन वह नाम।

    जड़ तजि चेतन ग्रहे, सब पावै विसराम।।

    किंतु यह बढ़ चेतन का भेद सबकी समझ में नहीं आता, कोई संत ज्ञानी ही इसे समझ सकता है----

    जड़ चेतन समझे बिना, पचि पचि मरना आग।

    समझेगा को संत जन, जाके सम्तक भाग।।

    कबीर की भाँति ही संत रोहल ने भी अहं ब्रह्मास्मि की भावना को प्रश्रय दिया है। रोहल में भी कबीर की भाँति गर्व की भावना स्पष्ट रूप में दृष्टिगत होती है जहाँ वह यह बताना चाहता है कि यह संपूर्ण जगत उसी का प्रतिबिंब है फिर भी वह उसमें समाविष्ट रहकर भी उससे विशुद्ध रूप में अलग अस्तित्व भी रखता है-

    हौं हूँ सर्व, सर्व ते न्यारा, ज्यों जल भीतर तारा।।

    कबीर ने जहाँ एकेश्वरवाद का समर्थन किया है वहाँ अनेक देवोपासना का विरोध किया है और आत्माराम की उपासना के महत्व को स्पष्ट किया है। संत रोहल ने भी उसी प्रकार आत्मसाधना पर जोर दिया है और बताया है कि बिना आत्मज्ञान अथवा आत्मोपासना के बीच पाँच तत्वों एवं तीन गुणों पाश में जकड़ा हुआ छटपटाता रहता है, मुक्ति नहीं पा सकताः—

    और देव सब छाड़ि दे, पहले सुमिरो आप।

    पाँच तत्त गुन तीन के, तब मिटि जावे संताप।।

    जिसे हम परमात्मा कहते हैं उसे हमने अपनी इच्छा के अनुरूप नाम भी दिए हैं पर वह ओंकार स्वयं साधक ही तो होता है अथवा आत्मराम ही तो ब्रह्म है---

    ताँका सरूप परमात्मा, इच्छा रूपी नाम।

    ओंका ताँते प्रगटे, सो हों आतमराम।।

    कबीर ने जहाँ साहब को एक माना है, वहाँ उसे अनुभूतिजन्य बताकर उसे गूँगे केरी सरकरी भी कहा है जो केवल स्वानुभूति के अंतर्गत ही सकता है, उसकी अभिव्यक्ति संभव नहीं। रोहल ने भी ठीक इसी भावना को प्रस्तुत करते हुए उसे गूँगे का स्वप्न बताया है।

    तो बिन और दूसरा, क्या मुख सूं करिये बात।

    जिमि गूँगा सपना लहे, सुमिरि सुमिरि पछतात।।

    संत रोहल ने भी आत्म ब्रह्म के लिये ब्रह्मा पूजा उपचार को महत्वहीन बताया है। उसकी पूजा तो निरंतर बिना किसी प्रकार के बाह्मोपचार एवं साधन के होती रहती है। कबीर ने भी इसी अजपा जाप का महत्व प्रस्थापित किया था रोहल के शब्दों में-

    ओअहं सोअहं बेकथा, अजपा जाप प्रकास।

    अंतर धुन लगी आत्मा, निहचै भयो विसास।।

    रोहल का जन्म जन्मांतर एवं चौरासी लाख योनियों में जनमने की भावना में विश्वास था और वह भी कबीर की भाँति मानव जन्म को श्रमोलक मानता है----

    मिलना होवे तो मिलि लियो, संतोहँ मिलन का बेरा।

    मानख जनम फिर हाथ आवे, चोरासी लाख फेरा।।

    संतों में अनुकरण की वृत्ति नहीं होती। वे किसी भी विचारधारा को अनुभूति की कसौटी पर परख कर ग्रहण करते हैं। किसी का अनुकरण करना कभी लाभदायक नहीं हो सकता। व्यक्ति की अपनी निजी मनोभिरुचि के अनुरूप अपने प्रियतम को पाने के लिये प्रयत्न करना चाहिए। ब्रह्मानुभूति व्यक्तिगत है और ब्रह्मोपासना के पथ व्यक्तिगत साधना के पथ है। जितने व्यक्ति है, उतने पंथ और जिसे जिस मार्ग से वह मिला, उसने उसी मार्ग का गुणगान भी किया। अतः अपने पंथ का दावा करना निराधार है-

    केवल गहन गंभीर है, (जो) कहन सुनन सूं पार।

    रोहल अटल अडोल है, नर दाबा निरधार।।

    संसार के कण कण में उसे देखने वाला किसी के प्रति कठोर नहीं हो सकता। उसे तो सारे विश्व से प्यार हो जाता है और यह प्यार उसकी निगाहों में समस्त विश्व को सुंदर एवं शोभन बना देता है। संत रोहल को कीट पतंग में भी उसी प्रियतम का रूप प्रतिबिंबित होता दिखाई देता है-

    चोरासी लख जून महं, वस्तु बिराजे एक।

    जगत भूल संसे परा, बिना चिर बिवेक।।

    कबीर की भाँति संत रोहल ने भी मन शुद्धि एवं स्वच्छ जीवन यापन पर विशेष जोर दिया है, वह कथनी और करनी में समरूपता के पक्षपाती हैं। रोहल ने मन एवं चित्त के भेद को स्पष्ट करते हुए मन को माया का अंश एवं चित्त को शुद्ध आतम तत्व का अंश अथवा भक्ति का अंश माना है-

    परम आत्म सत आतमा, आत्म इच्छा मन चित्त।

    माया को अंस मन भयो, भगति को अंस चित्त।।

    अब तक व्यक्ति अपने मन के कुटुंब- काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार का पालन पोषण करता रहता है, वह माया के जाल से विमुक्त नहीं हो सकता। उसे अपने चित्त के विकास का विचार रखना चाहिए। इतना होने पर भी संत रोहल ने ‘चित्त की माता बुद्धि है’ कहकर भक्ति पर ज्ञान को प्रश्रय दिया है और इस बात पर जोर दिया है कि भक्ति अंध-श्रद्धावश नहीं होनी चाहिए अपितु ज्ञान के सहारे निश्चल रूप से भक्ति को पल्लवित होना चाहिए।

    रोहल ने व्यक्ति के आचार विचार एवं नीतिमय जीवन को महत्वपूर्ण स्थान दिया है और रहनी के अभाव में कथनी को लाभहीन बताया है। इस सबके लिये अंतर में झाँकना अनिवार्य है-

    मानसरोवर मोती मुक्ता, गुरू गम बिनु नहिं पावे।

    पूरन पदवी प्रापत पेखे, फिर फिर गोता खावे।।

    बाह्म जगत् को जीतने की अपेक्षा आंतरिक जगत् को जीतना कठिन है। जब तक साधक अपने शरीर रूपी गढ़ पर विजय प्राप्त नहीं कर लेता, उसके संसार-विजय के सपने सपने ही रह जाते हैं। अपने ऊपर विजय प्राप्त करना ही जीवन की चरम उपलब्धि है-

    गढ़ जीतण आसान है, (पर) मुश्किल पैसण माँह।

    बिना जोत जगदीस के, अंध्यां ठहरत नाँह।।

    ब्रह्म अगम अगोचर है, कबीर के शब्दों में साधक गूँगे की भाँति सैना बैना से ही उसे अभिव्यक्त कर सकता है और अक्लमंद उस इशारे को, उस संकेत को मसझ जाता है। रोहल की ब्रह्मानुभूति भी जो गूँगे के सपने के समान है, सैना बैना से ही समझाई जा सकती है-

    निराकार अहंकार नहिं, किस विधि भाखूँ बैन।

    (जे) तुमरे भाग ललाट है, (ता) समझि लेवगा सैन।।

    संत रोहल की वाणी का अध्ययन करने पर उनपर पड़े हुए हठयोग एवं नाथ संप्रदाय के प्रभाव को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। संत रोहल ने बड़े विस्तार से षट् चक्र और उसकी क्रियाओं को समझाया है। षट्चक्र परिच्छेद के अंतर्गत प्रायः डेढ़ सौ दोहों में रोहल ने विस्तारपूर्वक हठयोग की साधना पर प्रकाश डाला है।

    संत रोहल पर सूफी भावधारा का प्रभाव भी लक्षिता होता है और कबीर की भाँति उन्होने मरजिया की भावना के महत्व को प्रतिपादित किया है-

    महादेव तब बोलिया, सुन हो साखी चित्त।

    अंभर पद सब पाइये, (जब) जीवन मरना नित्त।।

    जगत् को प्रतिबिंबवाद के अंतर्गत रखकर एकोअहम् बहुस्याम् की भावना को कबीर ने भी अभिव्यक्त किया है। रोहल ने भी इस प्रतिबिंबवाद की भावना को इस प्रकार रखा है-

    तब शिव कहियो चित्त कूँ, (इह) शक्ती बनी अनेक।

    सोई कर ले आरसी, जा मँह दरसे एक।।

    संत रोहल ने शिष्य एवं गुरु के संवाद के रूप में प्रश्नोत्तर के रूप में साधारण साधक एवं गुरु के उपदेश को प्रस्तुत करते हुए बड़ी सफलतापूर्वक शिष्य के मन की शंकाओं का समाधान किया है। इस प्रकार की शंकाएँ जनसाधारण में भी जीव, जगत् एवं के ब्रह्म संबंध में उत्पन्न होती ही रहती हैं। इस प्रश्नोत्तरी से जहाँ हम रोहल की शक्ति एवं ज्ञान का परिचय पाते है, वहाँ उनकी साधना की सरलता भी हमें अपनी ओर आकर्षित करती है।

    भाव-भाषा-शैली की दृष्टि से भी रोहल की रचना हिंदी साहित्य में अपना स्थान बना लेगी, ऐसा विश्वास है।

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