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चतुर्भुजदास की मधुमालती- श्री माताप्रसाद गुप्त

नागरी प्रचारिणी पत्रिका

चतुर्भुजदास की मधुमालती- श्री माताप्रसाद गुप्त

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    चतुर्भुजदास कृत मधुमालती हिंदी की एक प्राचीन प्रेम-कथा है जो विशुद्ध भारतीय शैली में लिखी गई है। चतुर्भुजदास नाम के एक से अधिक साहित्यकार हुए हैं, जिनमें से एक तो अष्टछाप के प्रसिद्ध भक्त थे, और मधुमालती नाम की भी एक से अधिक रचनाएँ मिलती है, इसलिये हमारे साहित्य के इतिहास-लेखकों ने इस रचना के लेखक और इसकी कथा के संबंध में प्रायः भूलें की है। उदाहरण के ले हिंदी साहित्य के सबसे पुराने इतिहास लेखक गार्सा तासी ने सं. 1896 तथा पुनः सं. 1927-28 (द्वितीय संस्करण) में प्रकाशित अपने इतिहास-ग्रंथ ‘इस्त्वार ला तिलरात्यूर एँदूई एँदूस्तानी’ में लिखा है कि इसके लेखक चतुर्भुजदास मिश्र है और इनके नायक-नायिका वे ही हैं जो दखिनी के प्रसिद्ध कवि नुसरती के गुलशन-ए-इश्क़ के हैं। इसी प्रकार मिश्रबंधुओं ने अफने मिश्रबंधुविनोद में इस विट्ठलनाथ जी के शिष्य चतुर्भुजदास गोरवा की रचना बताया है।

    किंतु वास्तविकता यह है कि यह चतुर्भुजदास की रचना है और चतुर्भुजदास गोरवा की। रचयिता ने ग्रंथ को समाप्त करते हुए अपना परिचय इस प्रकार दिया है-

    कायथ निगम जु कुल इहै, नाथ सुत भया राम।

    तनय चतुर्भुज तासके, कथा प्रकासी ताम।।

    इससे यह स्पष्ट है कि लेखक निगम कायस्थ था और चतुर्भुजदास मिश्र तथा चतुर्भुजदास गोरवा से भिन्न था।

    इसी प्रकार इस ग्रंथ की कथा भी नुसरती के ‘गुलशन-ए-इश्क़’ तथा मंझन की ‘मधुमालती’ की कथाओं से सर्वथा भिन्न है।

    ‘गुलशन-ए-इश्क़’ से कुछ अंश अपने प्रसिद्ध ‘शहपारा’ में देते हुए श्री कादरी ने उक्त अंश की भूमिका में जो कथा दी है, वह इस प्रकार है-

    “शाहजादा मनोहर शाहजादी चंपावती को दुश्मनों की कैद से छुड़ाकर उसके माँ-बाप से मिलाता है, जिससे चंपावती उससे प्रेम करने लगती है। चंपावती की माँ को मालूम होता है कि मनोहर उसके अधीन एक राजा की लड़की मधुमालती को चाहता है, इसलिये वह मधुमालती और मनोहर का मिलन कराकर मनोहर के उपकार का बदला चुकाने की सोचती है। वह इसी उद्देश्य से मधुमालती की माँ को न्योतती है और उसकी खूब खातिर करती है। जब चंपावती मधुमालती की माँ से बातें करती रहती है, उसी समय चंपावती की माँ मधुमालती को अपना बाग दिखाने के बहाने बाहर ले जाती है। दोनों में बातें होने लगती है। मधुमालती चंपावती की माँ से चंपावती के वापस मिलने का ब्यौरा पूछती है तो चंपावती की माँ कहती है कि उस (मधुमालती) के प्रेमी मनोहर ने ही चंपावती की जान बचाई। मधुमालती इस उत्तर से जब लज्जित होती है तो चंपावती की माँ उसे विश्वास दिलाती है कि वह उसका भला चाहती है और उसके प्रेम की बात प्रकट होने देगी। इसके बाद वह उसे मनोहर की अँगूठी भी दिखाती है, जिसे देखते ही मधुमालती की विरह-वेदना तीव्र हो उठती है और वह उस वेदना को जी खोलकर व्यक्त करनेलगती है। (भूमिका यहीं समाप्त होती हैं और इसके अनंतर मधुमालती के विरह-निवेदन का अंश ‘शहपारा’ में उद्धृत किया गया है।)”

    मंझन की मधुमालती की कथा हमारे साहित्य के इतिहास-ग्रंथों में दी हुई है, अतः उसे यहाँ देने की आवश्यकता नहीं है। चुतुर्भुजदास की मधुमालती की मुख्य कथा अत्यंत संक्षेप में इस प्रकार है-

    “लीलावती देश का राजा चतुरसेन था, जिसका मंत्री तारणसाह था। राजा की एक कन्या थी जिसका नाम मालती था और मंत्री का एक पुत्र था जिसका नाम था मनोहर, किंतु जिसे वह मधु कहा करता था। मधु को पढ़ाने के लिये मंत्री ने एक पंडित नियुक्त किया। राजा ने भी मालती को पढ़ाने की बात सोची, और उसी पंडित से पढ़वाने का निश्चय किया। पंडित दनों को साथ-साथ पढ़ाने लगा, केवल मालती को परदे के पीछे बैठना होता था। परदे की ओट से मालती मधु को देखा करती थी। एक दिन पंडित थोड़ी देर के लिये उठकर अरण्य चला गया तो मालती ने परदा हटा दिया और दोनों की आँखें चार हो गईं। मालती का प्रेम बढ़ने लगा। मधु को उसने बहुतेरा अपनी ओर आकृष्ट करना चाहा, किंतु मधु आगे बढ़ने से हिचकता रहा। मालती के प्रेमानुरोध के उत्तर में उसने कहा भी कि एक तो वे दोनों एक ही गुरु के शिष्य हैं, दूसरे वह राजकुमारी है और स्वतः वह मंत्री-पुत्र है, इसलिये दोनों का प्रेम-संबंध उचित होगा। इसके अनंतर मधु ने वहाँ पढ़ना छोड़ दिया। अब वह रामसरोवर जाकर गुलेल खेलने लगा। मालती भी खेलने के बहाने सखियों के साथ रामसरोवर आने लगी। मालती की एक अंतरंग सखी बैतमाल थी, जो ब्राह्मण-कन्या थी। अपने प्रण्य-व्यापार में उसने जैतमाल की सहायता चाही। जैतमाल कुछ सखियों को लेकर मधु के पास गई और उससे उसके पूर्व-जन्म की कथा कहने लगी। उसने कहा कि शंकर ने जब काम को भस्म किया तो उशकी राख से पाटलि (मालती) और भ्रमर (मधु) उत्पन्न हुए। पास में एक सेवती का वृक्ष था, उसी से जैतमाल का अवतार हुआ। एक बार हेमंत के तुषारपात के कारण पाटलि जल गई। सेवती ने किसी प्रकार उसकी सेवा-शुश्रूषा करके उसे पुनर्जीवित किया। तब तक निष्ठुर मधुकर उड़कर कहीं अन्यत्र जा चुका था। पाटलि ने उसके विरह में प्राण त्याग दिए। अब वही भ्रमर और पाटलि पुनः मधु और मालती के रूप अवतरित हुए है, इसलिये दोनों का विवाह होना चाहिए। जैतमाल के आग्रह से मधु मान गया और जैतमाल ने दोनों का विवाह करा दिया।

    रामसरोवर के पास की वाटिका में नव दंपति रहने लगे। वहाँ एक माली था, जो छिप छिपकर दोनों के प्रेम-व्यवहार को देखा करता था। उसने राजा को यह सब समाचार सुनाया। राजा ने महल में जाकर रानी से सारी कथा कही और कहा कि दोनों को यथाशीघ्र मरवा डालना ही ठीक होगा। यह सुनते ही रानी ने चुपचाप मधु और मालती के पास संदेश भेजा कि वे दोनों देश छोड़कर अन्यत्र चले जायँ क्योंकि वहाँ रहने पर उनके प्राणों का भय है। मालती इससे सहमत हुई, किंतु मधु को अपनी गुलेल पर विश्वास था, उसने वहाँ से हटना आवश्यक नहीं समझा। राजा ने दोनों को मारने के लिये पायक भेजे। मधु ने अपनी गुलेल से मार-मारकर उन्हें विचलित कर दिया। दूसरी बार राजा ने एक हजार सवार भेजे। इस बार भी उसकी गुलेल की मार से सारी सेना हार गई। तीसरी बार राजा ने पाँच हजार सैनिक भेजे। यह जानकर जैतमाल ने मधु को अपने भ्रमर-कुल का विस्तार करने परामर्श दिया। मधु ने तदनुसार किया। इसी समय राजा की सेना ने मधु पर चढ़ाई की। जैतमाल ने वह भ्रमर-सेना राजा की सेना के विरुद्ध चला दी। भ्रमर राजा के सैनिकों से चिमट गए और राजा की वह सेना भी हारकर भाग निकली। चौथी बार राजा ने स्वतः युद्ध-क्षेत्र में जाने का निश्चय किया। उसने दस हजार घुड़सवारों तथा पाँच हजार हाथियों की सेना तैयार की और आक्रमण कर दिया। इस बार सारी सेना सनाह से सुसज्जित थी, इस कारण भ्रमर उसको विचलित कर पाए। किंतु मधु हाथियों पर अपनी गुलेल से प्रहार करने लगा। इधर जैतमाल के परमार्श पर मालती ने केशव का स्मरण किया और केशव ने उसकी प्रार्थना पर दो दीर्घाकार मारंड पक्षी भेज दिए। शिव ने भी कृपा करके एक सिंह भेज दिया। इन सबके सम्मिलित प्रहार से राजा की सेना इस बार भी भाग निकली। राजा ने अपने को असहाय पाकर अंत में अपने विश्वस्त मंत्री तारण ताह को बुलाया। तारण ने भारंडों को हरि की दुहाई तथा सिंह को शिव-गौरी की दुहाई देकर रोक दिया। तब शक्ति ने तारण की प्रार्थना सुनीः वह बोल उठी- “राजा, तुमने मधु को वणिक-कुल में जन्म लेने के कारण वणिक ही समझ लिया है, सो तुम्हारी भूल है। अविनाशी राम-कृष्ण ने भी गोप-बंध में अवतार लिया था। इशी प्रकार मधु भी देवांश है और मधु, मालती और जैतमाल तीनों अभिन्न है।” राजा ने क्षमा माँगी। उसने तीनों को नगर में लाकर मधु के साथ मालती तथा जैतमाल का विवाह कर दिया। विवाह के अनंतर राजा ने मधु से, उसको राजपाट देकर अपने विरक्त होने की आकांक्षा प्रकट की। इसपर मधु ने उसे बताया कि उसे राजपाट से कोई प्रयोजन नहीं है- वह तो काम का अवतार है, और वे तीनों काम की विभिन्न कलाएँ है। वह राजपाट ग्रहण नहीं करेगा। (यहाँ पर मधु काम-निरूपण करता है और कथा समाप्त होती है।)”

    नुसरती और मंझन की कथाओं से इस कथा की तुलना करने पर ज्ञात होगा कि उन दोनों के साथ इसका कोई संबंध नहीं है और यह एक सर्वथा भिन्न कथा है। और उपर्युक्त केवल मुख्य कथा है, इसके साथ दर्जनों साक्षी-कथाएँ भी स्थान-स्थान पर विभिन्न कथनों को उदाहृत करने के लिये ही हुई हैं, किंतु इन साक्षी-कथाओं में से भी कोई उक्त दोनों के ज्ञात अंशों में नहीं पाई जाती। अतः यह प्रकट है कि प्रस्तुत कथा उक्त दोनों से एक नितांत स्वतंत्र कृति है।

    प्रश्न यह हो सकता है कि प्रस्तुत कृति का रचना-काल क्या है। इसमें रचना तिथि का उल्लेख नहीं किया गया है, और किसी ऐसे व्यक्ति अथवा ऐसी घटना का ही उल्लेख किया गया है कि उससे इसके रचना-काल के निर्धारण में सहायता मिल सकें।

    कुछ अन्य ग्रंथों में मधु-मालती की प्रेम-कथा के संकेत अवश्य मिलते हैं। मलिक मुहम्मद जायसी के पद्मावत (सं. 1597) में आता है-

    साधा कुँवर मनोहर जोगू। मधु लति कहँ कीन्ह वियोगू।

    बनारसीदास जैन की आत्मकथा ‘अर्द्धकथा’ में सं. 1660 की घटनाओं का उल्लेख जहाँ होता है, वहाँ मिलता है-

    तब घर में बैठे रहैं, जाहिं हाट बजार।

    मधुमालति मिरगावति, पोथी दोइ उदार।।

    ते बाँचहिं रजनी सभै, आवहिं नर दस बीस।

    गावैं अरु बातें करहिं, नित उठि देहिं असीस।।

    दुखहरनदास की ‘पुहुपावती’ (सं. 1726) में आता है-

    भई बार दूती अकुलानी।

    गई जहाँ पुहुपावती रही। कै जोहार बिनती अस कही।

    पुहुपावति भई बड़ि बेरा। माइ तुम्हारि करहिं सर फेरा।

    जौ नहाइ आवहिं एहि ठाईं। होइ बात मधु मालति नाईं।

    अज्ञा लेइ चलहु अब गेहा। मिलिहौ बहुरि भयौ जो नेहा।

    इस प्रसंग में यह जान लेना आवश्यक होगा कि मंझन की रचना का समय 952 हिजरी (सं. 1602 है), और नुसरती की रचना का समय 1068 हिजरी (सं. 1714)।

    जायसी मंझन और नुसरती की रचनाओं की ओर संकेत नहीं कर सकते थे- यह बताने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि वे दोनों पूर्ववर्ती थे। किंतु उन्होंने चतुर्भुजदास की मधुमालती का भी उल्लेख नहीं किया है, यह इससे प्रकट है कि चतुर्भुजदास की रचना ने नायक-नायिका कथा भर में कहीं वियुक्त वर्णित नहीं हैं, और नायक कहीं भी योग-साधना करता है।

    बनारसीदास जैन ने चतुर्भुजदास की रचना का उल्लेख किया है या इसी नाम की किसी अन्य रचना का, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उनके उल्लेख में कथा-संबंधी कोई ऐसे विस्तार नहीं हैं जिनसे इस संबंध में कोई निश्चित परिणाम निकाला जा सके।

    दुखहरनदास ने कदाचित् मंझन की रचना की ओर संकेत किया है, और चतुर्भुजदास की रचना की ओर संकेत नहीं किया है, क्योंकि माता से जिस प्रकार का भय पुहुपावती को मधु-मालती की कथा की ओर संकेत करके दिलाया गया है उस प्रकार का भय मंझन की कथा में ही उपस्थित हुआ है, चतुर्भुजदास की कथा में नहीं, उलटे मालती की माँ ने चतुर्भुजदास की कथा में उसकी सभी प्रकार से रक्षा की है, और मालती के पिता ने जब उसकी माँ की उपस्थिति में मधु मालती को मरवा डालने का संकल्प प्रकट किया तो माँ ने मालती को इसकी सूचना तत्काल भेजकर अन्यत्र चले जाने के लिये कहला दिया है।

    फलतः इन अन्य ग्रंथों में पाए जानेवाले मधु-मालती संबंधी उल्लेखों से भी चतुर्भुजदास की रचना के समय पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता। चतुर्भुजदास की मधुमालती की ज्ञात प्रतियों में सबसे प्राचीन सं. 1777 की है। इसके पूर्व ही इसका रचना-काल होना चाहिए। दूसरी ओर यह बहुत प्राचीन रचना भी नहीं हो सकती, क्योंकि इसमें ऐसे शब्दों का उल्लेखनीय मात्रा में प्रयोग हुआ है जो अपने तद्भव रूप में फारसी से आकर तत्कालीन लोकभाषा में प्रचलित हो गए थे। यह अवश्य है कि इस रचना पर फारसी की उस समय की शैली का प्रभाव एकदम नहीं है जिसने हिंदी-प्रेम कथा धारा को प्रभावित किया था। इन समस्त बातों पर सम्मिलित रूप से विचार करने पर रचना विक्रमीय सोलहवीं शताब्दी की ज्ञात होती है।

    इस दृष्टि से हिंदी के प्रेम-कथा-साहित्य में इस रचना का एक महत्वपूर्ण स्थान है। किंतु अब तक यह रचना हिंदी में अप्रकाशित है। इसके दो गुजराती संस्करणों का पता लग चुका है, किंतु वे अब सर्वथा अप्राप्य है। इस ग्रंथ की प्रतियाँ बहुतायत से मिलती है, किंतु उनकी छंद-संख्याओं में बड़ा वैषम्य है, विभिन्न प्रतियों में छंद-संख्या 851 से लेकर 2004 तक मिलती है। ऐसी दशा में इस ग्रंथ के वैज्ञानिक पाठ-निर्धारण की आवश्यक्ता प्रकट है।

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