बीसलदेव रासो- शालिग्राम उपाध्याय
डा. तारकनाथ अग्रवाल द्वारा संपादित यह कृति कलकत्ता विश्वविद्यालय से डी. फिल. उपाधि के हेतु स्वीकृत शोधप्रबंध है। इससे पहले यह सर्वप्रथम नागरीप्रचारिणी सभा, काशी से भी सत्यजीव वर्मा द्वारा संपादित होकर सं. 1982 में इसी नाम से, तथा हिंदी परिषद विश्वविद्यालय, प्रयाग से डा. माताप्रसाद गुप्त तथा श्री अगरचंद नाहटा द्वारा सन् 1953 में, संपादित होकर ‘बीसलदेव रास’ नाम से दूसरी बार प्रकाशित हो चुकी है।
श्री सत्यजीवन वर्मा के संमुख दो प्रतियाँ थीं और डा. माताप्रसाद गुप्त के संमुख पाँच वर्ग की 16 प्रतियाँ। डा. तारकनाथ अग्रवाल के संमुख 27 प्रतियाँ थी जिन्हें उन्होंने चार समूहों में विभक्त किया है। डा. गुप्त ने जहाँ पाठ के आधार पर वर्गभेद किया है वहाँ डा. अग्रवाल ने ज्ञाताज्ञात समय (ई. सन्) के आधार पर। डा. अग्रवाल ने खंडों में विभाजित और अविभाजित प्रतियों की भी तुलना की है। श्री वर्मा ने सं. 1669 की प्रति को आधार बनाया था। डा. गुप्त ने विभिन्न प्रतियों की तुलना से जो पाठ सभी अखंडित प्रतियों में मिलते हैं ऐसे 108 और शेष 20 में से 10 ‘पं.’ और ‘स.’ समूह की प्रतियों में तथा 10 अन्य तीन समूहों की प्राप्त प्रतियों के आधार पर ग्रहण किया। इस प्रकार डा. गुप्त ने किसी एक निश्चित प्रति को अपना आधार बनाया है। डा. अग्रवाल ने सर्वप्राचीन 1633 की प्रति को अपना आधार बनाया है। साथ ही खंडों में विभाजित सं. 1669 वाली प्रति को भी सहायतार्थ ले लिया है।
डा. गुप्त द्वारा संपादित मूल प्रति छंदसंख्या की दृष्टि से जितनी अधिक प्रामाणिक है, डा. अग्रवाल द्वारा संपादित यह कृति इस संबंध में समीक्षा सापेक्ष है। निश्चय ही डा. अग्रवाल ने 128 के बाद 118 छंद और जोड़कर साहस का कार्य किया है।
प्राप्त सभी प्रतियों को मिलाने पर जो छंद सभी प्रतियों में पाए जाते हैं उन्हें मूल में स्थान देना तो सरल है किंतु उनमें अधिक छंदों को छोड़ना साहस का कार्य है। डा. गुप्त ने 118 छंदों में ‘प.’ तथा ‘स.’ समूह के 10 छंदों को जोड़कर जो साहस किया है डा. अग्रवाल ने भी डा. गुप्त द्वारा स्वीकृत 128 छंदों में 118 छंद और जोड़कर वही साहस किया है।
डा. गुप्त और डा. अग्रवाल द्वारा सूचित प्रतियाँ दो प्रकार की है। प्रथम- जिनमें पुष्पिका पूर्ण है, द्वितीय जिनमे या तो पुष्पिका है ही नहीं अतवा अपूर्ण है। डा. अग्रवाल ने प्रथम प्रकार की प्रतियों को सत्रहवीं, अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के भेद से तीन समूहों (‘अ’, ‘आ’ और ‘क’) में रखा है। दूसरे प्रकार की प्रतियों का जिसका समय अज्ञात है, उन्हें ‘ख’ नामक चौथे समूह में रखा है। डा. गुप्त के समूहों के साथ स्व विभाजित समूहों का तुलनात्मक अध्ययन करके उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला है कि बीसल देव रासो के दो रूपांतर हैं। एक तो वह जो चार खंडों में विभक्त है दूसरा वह जिसमें खंडों का विभाजन नहीं है। डा. अग्रवाल ने खंडों में विभाजित दो प्रतियों का उल्लेख किया है। इनमें प्रथम प्रति उनके ‘अ’ समूह की 2 संख्यक प्रति है, जो सत्रहवीं शताब्दी (सं. 1669) की है। डा. गुप्त की 15 संख्यक ‘स.’ समूह की यह प्रति है। दोनों ने बताया है कि नागरीप्रचारिणी सभा वाली प्रति की आधार प्रति यही है। किंतु डा. अग्रवाल ने इसके 624 पद्यों की सूचना दी है जब कि सभा, वाली प्रति में 315 ही छंद मिलते हैं। खंडों में विभाजित दूसरी प्रति डा. अग्रवाल की 6 संख्यक ‘आ’ समूह की प्रति है जो अठारहवीं शताब्दी की है। इस प्रति में कुल कितने छंद हैं इसकी चर्चा न तो डा. गुप्त ने की है और न तो डा. अग्रवाल ने। डा. गुप्त की यह 16 संख्यक ‘प्र.’ प्रति है। उन्नीसवीं शताब्दी में कोई ऐसी प्रति नहीं मिलती जो खंडों में विभाजित हो। डा. अग्रवाल को खंडों में अविभाजित प्रतियों में सर्वप्राचीन सं. 1633 की आगरा में लिखित प्रति मिली, जिसे डा. गुप्त ने ‘सं.’ समूह में रखा है। इस प्रति में 246 पद्य मिलते हैं। डा. अग्रवाल ने इसी को आधार प्रति बनाया है और स्वसंपादित ‘बीसलदेव रासो’ में 246 छंद ही रखे हैं। किंतु उन्होंने यह भी कहा है कि 1669 वाली (खंडों में विभाजित 624 पद्यों वाली) प्रति को भी प्रतिनिधि प्रति मानकर संपादन किया गया है।
विचारणीय विषय है कि बीसलदेव रासो के छंद कितने मान्य हैं। श्री वर्मा की प्रति (जो डा. प्राप्त और डा. अग्रवाल के अनुसार 1669 वाली है) में 316 छंद है। यह खंडों में विभाजित अब तक की प्राप्त प्रतियों में सर्वप्राचीन है। डा. गुप्त ने कुल मिलाकर 128 छंदों को स्वीकार किया। डा. अग्रवाल ने 1669 वाली से 36 वर्ष पहले की लिखी प्रति के आधार पर 246 छंदों को स्वीकार किया है।
यद्यपि 36 वर्ष पहले वाली प्रति के समान अधिक प्रतियाँ खंडों में अविभाजित ही मिलती हैं फिर भी खंडों में विभाजित प्रति के इतने छंद 36 वर्ष के अंदर बने और खंडों में विभाजित भी हो गए यह विश्वसनीय नहीं। निश्चय ही 1663 वाली प्रति 1669 की आधारप्रति नहीं है। ऐसी स्थिति में प्राचीनता के नाते 246 छंद जो 1669 वाली प्रति में भी मिल जाते हैं। मान लेना सत्य के पास पहुँचना प्रतीत होता है किंतु यही सत्य है ऐसा नहीं कहा जा सकता। खंडों में विभाजन और छंदों की इतनी अधिक संख्या बाद में जोड़ दी गई यही कहकर सत्य का उद्घाटन नहीं किया जा सकता। खंडों में विभाजित और अविभाजित प्रतियों का आधार जब तक नहीं मिल जाता तब तक बीसलदेव रासो के छंदों की संख्या में विवाद का स्थान यथावत् है।
पुस्तक की भूमिका में अब तक की प्राप्त सामग्री का विद्वत्तापूर्ण ढंग से उपयोग किया गया है। काव्यात्मक समीक्षा तथा परिशिष्टों से इसका महत्व बढ़ गया है।
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