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जायसी का जीवन-वृत्त- श्री चंद्रबली पांडेय एम. ए., काशी

नागरी प्रचारिणी पत्रिका

जायसी का जीवन-वृत्त- श्री चंद्रबली पांडेय एम. ए., काशी

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    उपोद्धात

    ग्रियर्सन साहब एवं पंडित सुधाकर द्विवेदी ने मलिक मुहम्मद जायसी के उद्धार की जो चेष्टा की थी उसके विषय में श्रद्धेय शुक्लजी का कथन है- “इसी प्रकार की भूलों से टीका भरी हुई हैं। टीका का नाम रखा गया है सुधाकर-चंद्रिका। पर यह चंद्रिका हैं कि घोर अंधकार। अच्छा हुआ कि एशियाटिक सोसाइटी ने थोड़ा सा नाकलकर ही छोड़ दिया।“ इस घोर अंधकार से प्रकाश में लाने के लिये “प्रत्येक पृष्ठ में असाधारण या कठिन शब्दों, वाक्यों और कहीं कहीं चरणों के अर्थ फुटनोट में बराबर दिए गए हैं जिससे पाठकों को बहुत सुभीता होगा। इसके अतिरिक्त, मलिक मौहम्मद जायसी पर एक विस्तृत निबंध भी ग्रंथारंभ के पहले लगा दिया गया है जिसमें मैंने कवि की विशेषताओं के अन्वेषण और गुण-दोषों के विवेचन का प्रयत्न अपनी अल्प बुद्धि के अनुसार किया है।” प्रस्तुत अवतरण से स्पष्ट है कि शुक्लजी ने पाठकों को, जायसी के जीवन-वृत्त के लिये, उसी घोर अंधकार में छोड़कर केवल कवि की विशेषताओं के अन्वेषण और गुण-दोषों के विवेचन का प्रयत्न किया है। शुक्ल जी की उस उपेक्षा की पूर्ति आज तक हो सकी। कुछ दिन पहले यह बात रायबहादुर लाला सीताराम को सूझी। उन्होंने जायसी के जीवन-वृत्त का अनुसंधान सरकारी ढंग पर आरंभ किया। उनके संशोधन की दामिनी दमककर फिर उसी घोर अंधकार में लुप्त हो गई। उक्त विद्वानों के अतिरिक्त जायसी के संबंध में जिन विद्वानों ने जो कुछ लिखा है उसका विशेष महत्व नहीं है। उनके प्रयत्न अनुसंधान नहीं, परिचय मात्र है।

    हमारा प्रयत्न

    पदमावत तथा अखरावट के परितः परिशीलन से जायसी के जीवन के विषय में जो कुछ पता चला वह प्रचलित जीवन-वृत्त से इतना भिन्न था कि हमें उसकी साधुता में सर्वथा संदेह होने लगा। पदमावत की लिपि तथा रचना-काल नामक लेख में, प्रसंगवश कहीं कहीं हमने इस ओर संकेत भी कर दिया था। अपने विचारों की साधुता को पुष्ट करने तथा जायसी के जीवन से परिचित होने की लालसा से हमें अमेठी, जायस आधि उन स्थानों पर जाना पड़ा जिनसे मलिक मुहम्मद साहब का संबंध कहा जाता था। इसका परिणाम हमारे लिये बहुत ही सुखद हुआ। हमें विश्वास हो गया कि एक दिन हम जायसी की जीवनी लिखने में समर्थ हो सकते हैं। फिर भी, यह तभी संभव है जब हिंदी के दिग्गज इस ओर उचित ध्यान दें। उनके उद्धोधन के लिये ही यह हमारा अल्प प्रयत्न है। यदि इससे सुधाकर-चंद्रिका के घोर अंधकार पर कुछ भी प्रकाश पड़ा, जायसी के जीवन-वृत्त का कुछ भी यथार्थ परिचय मिला तो यह फलवती होगी।

    विद्वानों के मत

    परंपरा से मलिक मुहम्मद को जायसी कहा जाता है, जिसका अर्थ है कि वे जायस के निवासी थे। इस सहज प्रतिज्ञा में एक कठिन अड़चन हैं जिसके कारण हिंदी के मर्मज्ञ इसको ठीक नहीं समझते। उनका कथन है कि “जायस नगर धरम अस्थानू। तहाँ आइ कवि कीन्ह बखानू” से स्पष्ट है कि मलिक मुहम्मद कहीं बाहर से आकर जायस में बस गए थे। सुधाकरजी का कथन है- “इन्होंने कहीं बाहर से जायस में आकर पदुमावती को बनाया। बहुत लोग कहते हैं कि इनका जन्म-स्थान गाजीपुर है।” मिश्रबंधुओं ने इस विषय में सुधाकरजी का साथ दिया है। पंडित रामनरेश त्रिपाठी भी इसी मत से सहमत हैं। शुक्लजी भी जनश्रुति के आधार पर एक प्रकार से इसी मत का प्रतिपादन करते हैं। रायबहादुर बाबू श्यामसुंदरदासजी की भी यही राय है। कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी-संसार ने यह मान लिया है कि जायसी का जन्म-स्थान जायस नहीं था, वे अन्यत्र, संभवतः गाजीपुर, से आकर वहाँ बस गए थे। जायस में आने का कारण तथा समय यह है- “परंपरा से प्रसिद्ध है कि एक इनका चेला अमेठी (अवध) में जाकर इनका नागमती का बारहमासा गा गाकर भीख माँगा करता था। एक दिन अमेठी के राजा ने इस बारहमासे को सुना। उन्हें वह बहुत अच्छा लगा।...... उन्होंने फकीर से पूछा- शाहजी! यह दोहा किसका बनाया है? उस फकीर से मलिक मुहम्मद का नाम सुनकर राजा ने बड़े सम्मान और विनय के साथ उन्हें अपने यहाँ बुलाया। तब से मलिक मुहम्मद जायस में आकर रहने लगे और वहीं पर इन्होंने पदमावत समाप्त की।”

    जायस

    उपर्युक्त अवतरणों से स्पष्ट अवगत होता है कि जायसी को अजायसी सिद्ध करने का मुख्य आधार तहाँ आइ पद्यांश ही है। उक्त जनश्रुति तो उसके पुष्टीकरण में प्रमाण ठहरती हैं। अस्तु, हमको इस पद्य की परितः परीक्षा करनी चाहिए। जायसी स्वयं जायस को धर्मस्थान कहते हैं, अपने बसने का कारण नहीं उपस्थित करते। इसमें भी कुछ रहस्य है। जायस आजकल एक मनहूस शहर माना जाता है। कहा तो यहाँ तक जाता है कि स्वयं सैयद अशरफ साहब ने भी जायस को इसी कारण त्याग दिया कि वहाँ रहने से उनके भाव-भजन में विघ्न पड़ता था। कुछ भी हो, आजकल जायस के विषय में यह कहा जाता है कि “जायस जाइस ना, जाइस तो रहिस ना, रहिस तो खाइस ना, खाइस तो सोइस ना, सोइस तो रोइस ना।“ यही नहीं, उसको लोग बड़का शहर के नाम से ही याद करते हैं, उसका नाम लेना उचित नहीं समझते। इसके संबंध में दंत-कथाएँ भी बहुत सी है। प्रचलित प्रवादों की उपेक्षा कर यदि हम जायस की व्याख्या पर ध्यान देते हैं तो भी उसमें किसी प्रकार की धर्म-भावना नहीं मिलती। यदि हम इसका वास्तविक रूप जैस मानते हैं तो इसका अर्थ पड़ाव या छाबनी ठहरता है, यदि जा-ऐश तो विलास भवन और यदि जा-अस्त मानते हैं तो भी इसमें किसी प्रकार रमणीयता तो जाती है, पर पवित्रता का बोध नहीं होता। जहाँ तक हम समझ सके हैं जायस शब्द जायस को धर्मस्थान नहीं बना सकता। इसका रहस्य इसके इतिहास में छिपा है।

    जायस का इतिहास

    जायस एक अति प्रचलित नगर है। मुगलसराय-लखनऊ-रेलवे का एक स्टेशन भी इसी नाम से ख्यात है। शहर स्टेशन से तीन मील की दूरी पर है। मुसलमानों के आगमन के पहले यह रजभरों का एक मुख्य गढ़ था। इसकी परिस्थिति और रंग-ढंग इसके प्राचीन गौरव के सूचक हैं। कहा जाता है कि अति प्राचीन काल में यह उद्दालक मुनि का निवास-स्थान था। उद्दालक मुनि उपनिषदों के एक प्रसिद्ध ऋषि हैं। उन्हीं के नाम पर इस नगर का प्राचीन नाम उद्दानगर था। यहाँ पर विद्या का बहुत प्रचार था, अतः इसको कुछ लोग विद्यानगर भी कहते थे। इस प्रकार इस शहर के प्राचीन नाम उद्यानगर, विद्यानगर, उद्यानगर एवं उज्जालिक नगर भी मिलते हैं। यह नगर ठीक रामनवमी को महमूद गजनवी के शासन में आया। उसकी सेना यहाँ पर ठहरी रही और उसमें के बहुत से सिपाही यहीं बस गए। इस शहर के मुहल्लों का नाम भी यही सिद्ध करता है। कंचाना मुहल्ले से जायसी का विशेष संबंध हैं। हकीम अहमद अशरफ का कहना है कि फारस में इस नाम की एक जगह है। कुछ भी हो, जायस इसी दृष्टि से धर्मस्थान कहा जा सकता है कि उसकी प्रतिष्ठा हिंदूकाल में धर्मरूप से थी। इस शहर में अब भी कुछ जैन बसते हैं, उनका मंदिर भी हैं। प्रतीत यह होता है कि मुसलमानों के बस जाने के कारण तथा उनके कुशल से रह पाने कारण भी इस शहर को उक्त बदनामी मिली। जायस की महत्ता का घोतक उसका इतिहास है। जायस अवश्य ही धर्म-स्थान था। उसमें अब भी एक आध हिंदू मंदिर हैं।

    तहाँ-आइ की समीक्षा

    इस प्रकार जायस नगर को धर्म-स्थान सिद्ध करने के उपरांत अब यह विचार करना है कि तहाँ आइ कवि कीन्ह बखानू का क्या अर्थ है। हिंदी के विद्वानों ने इस आइ के आधार पर यह सिद्ध मान लिया है कि जायसी जास के निवासी नहीं थे। कुछ दिन पहले हमारी भी यही धारण थी। जायस में जाने पर, जायसी के जन्म-स्थान का पता चल जाने पर, इस पर विशेष ध्यान देना स्वाभाविक ही था। जायस के कतिपय विद्वानों ने हमारा समाधान किया, अथवा करने की चेष्टा की। उनका कहना था कि आइ का अर्थ जन्म लेकर है, सूफी लोग प्रायः इस प्रकार का प्रयोग करते हैं। उनकी दृष्टि में यह संतों के प्रकट होने के समान हैं। जहाँ तक समझने की हममें क्षमता है, और सूफी साहित्य का जो कुछ अध्ययन हमने किया है, उसके आधार पर हम यह कहने का साहस कर सकते हैं कि उक्ति दोनों अर्थ यथार्थ नहीं हैं। प्रथम अर्थ में आपत्ति यह है कि आइ से सिद्ध यह किया जाता है कि जायसी जायस के रहने वाले ही नहीं थे। जान पड़ता है कि किसी व्यक्ति के लिये अपने जन्म-स्थान से जाने-आने का प्रश्न ही नहीं रहता। कोई भी व्यक्ति अपने किसी कार्य के लिये यह कह सकता है कि अमुक स्थान, चाहे वह जन्म-स्थान ही क्यों हो, पर आकर मैंने यह किया, वह किया। इस कथन से केवल यही निष्कर्ष। निकालना उचित होता है कि उक्त कथन उसका उसी स्थान का है। निदान उक्त पद्य से ध्वनित यही होता है कि उसकी रचना तथा बखान, चाहे जिस किसी का हो, जायसी जायस नगर में कर रहे हैं, अन्यत्र नहीं। जायसी कहीं यात्रा में गए थे, वहाँ से आकर उन्होंने जायस में बखान किया। क्या बखान किया? यह भी एक प्रश्न है जिस पर उचित ध्यान नहीं दिया गया है।

    कीन्ह बखानू का संबंध

    पंडित सुधाकर द्विवेदी का मत है “तहाँ आइ कवि कीन्ह बखानू” से स्पष्ट है कि “इन्होंने कहीं बाहर से जायस में आकर पदुमावती को बनाया।“ पंडित रामनरेश त्रिपाठी कहते हैं-“स्पष्ट है कि ये कहीं बाहर से जायस में आए और वहाँ इन्होंने पद्मावत लिखी।” कहने का आशय यह है कि हिंदी में यह मान्य हो गया है कि जायसी ने पदमावत का ही बखान किया। हमारी अल्प बुद्धि में इस बखान का संबंध समूचे पदमावत से नहीं है। कारण यह है कि जायसी ने प्रस्तुत पद्य के अनंतर आगे चलकर लिखा है- “आदि अंत जस गाथा अहै। लिखि भाखा चौपाई कहै।” जायसी पहले कहते हैं- “तहाँ आइ कवि कीन्ह बखानू” फिर बाद में कहते हैं- लिखी भाखा चौपाई कहै। जायसी के इस कीन्ह और कहै के, भूत और वर्तमान के विरोध पर विद्वानों ने ध्यान ही नहीं दिया, फिर वे बखान का संबंध पदमावत से क्यों जोड़ लेते। पदमावत के स्तुति-खंड के इस विरोध की मीमांसा हमने पदमावत की लिपि तथा रचना-काल नामक लेख में यथाशक्य की है। यहाँ पर हमको केवल यही कहना है कि इस बखान का संबंध पदमावत से कदापि नहीं है। बखान का सामान्य अर्थ वर्णन करना है, किंतु यह वर्णन प्रशंसात्मक ही होता है। जायसी ने इस स्तुति-खंड में शेरशाह, सैयद अशरफ जहाँगीर तथा उनके वंश, मानिकपुर-वंश, अपना तथा अपने मित्रों का बखान किया है। जायसी अपने मित्रों के विषय में कहते हैं- “मुहमद चारिउ मीत मिलि, भए जो एकै चित। एहि जग साथ जो निबहा, ओहि जग बिछुरन कित्त।“ ठीक इसी दोहे के उपरांत प्रस्तुत पद्य जायस नगर धरम अस्थानू। तहाँ आइ कवि कीन्ह बखानू है। फिर, हमारी समझ में नहीं आता कि इसका संबंध संपूर्ण पदमावत से किस न्याय से संगत है? उपर्युक्त विवेचन से विदित होता है कि तहाँ आइ का अर्थ तो जायसी के जन्मस्थान पर प्रकाश डालता है, और उनके बाहर से आकर जायस में बस जाने पर।

    तहाँ आइ का रहस्य

    इतना निवेदन करने के उपरांत हम यह आवश्यक समझते हैं कि तहाँ आइ के रहस्य का उद्धाघटन करें। जायसी के दोहे दीन्ह असीस मुहम्मद, करहु जुगहि जुग राज। बादशाह तुम जगत के, जग तुम्हारा मुहताज। पर विचार करते समय हमने लिखा था- जान पड़ता है कि जायसी हमारी आँखों के सामने हा शेरशाह को हाथ उठाकर आशीर्वाद दे रहे हैं। इस दीन्ह तथा तुम पर ध्यान दीजिए। कहा जाता है कि जायसी दिल्ली गए थे और वहीं पर, शेरशाह के दरबार में, उन्होंने अपने प्रसिद्ध वचन मटियहिं हँसेसि कि कोहरहि का उद्धोष किया था। हमारा अनुमान यह है कि इस राज्याभिषेक (ता. 7 शव्वाल सन् 948 हि.) के उपरांत ही जायसी ने शेरशाह की वंदना की और उसको पदमावत में स्थान दिया। इस दृष्टि से विचार करने पर यह निश्चित हो जाता है कि तहाँ आइ का अर्थ क्या है। सच बात तो यह जान पड़ती है कि जायसी ने दिल्ली से जायस में आकर उक्त बखान किया, जो किसी प्रकार से परंपरा के प्रतिकूल नहीं कहे जा सकते। आज भी इस ढंग की बातें देखने में आती हैं। प्रस्तावना ग्रंथ के समाप्त होने पर भी लिखी जाती है, उसमें हेर-फेर होते ही रहते हैं।

    गाजीपुर, जन्म-स्थान

    हमने यह अच्छी तरह देख लिया कि तहाँ आइ कवि कीन्ह बखानू के आधार पर हम यह नहीं सिद्ध कर सकते कि जायसी का जन्म-स्थान जायस नहीं था। यदि यह बात यहाँ तक होती तो कुछ हानि नहीं थी। कहा तो यहाँ तक गया है कि जायसी का जन्म-स्थान गाजीपुर था। इस कथन को पुष्ट करने के लिये यह प्रमाण दिया जाता है कि जायसी के मित्रों में दो ऐसे थे जिनका संबंध भोजपुर और गाजीपुर के महाराज जगतदेव से था। मियाँ सलोने को सलोनेसिह भी कर दिया गया है। ग्रियर्सन साहब का तो यहाँ तक कहना है कि उक्त महाशयों की जीवन-लीला गोरखपुर में विषैले आम के अति-भक्षण के कारण समाप्त हो गई, किंतु मलिक मुहम्मद किसी प्रकार बच गए। चटगाँव की ओर ठीक इसी ढंग की एक मनोरंजक कथा प्रचलित हैं, जिसको प्रायः सत्यपीर के उपासक गाते हैं। इस कथा में मृत्यु का कारण कटहल है, जो अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। संभवतः ग्रियर्सन साहब के इस भ्रम का आधार उक्त कथा ही हो। जायसी ने अपने मित्रों का परिचय अथवा उनका बखान इस प्रकार किया है------

    चारि मीत कवि मुहमद पाए। जोरि मिताई सिर पहुँचाए।।

    युसुफ मलिक पंडित बहु ज्ञानी। पहिलै भेद बात वै जानी।।

    पुनि सलार कादिम मतिमाहाँ। खाँडंदान उभै निति बाहाँ।।

    मियॉ सलोने सिँह बरियारू। बीर खेत-रन खड़ग जुझाऊ।।

    सेख बड़े, बड़ सिद्ध बखाना। किए आदेस सिद्ध बड़ माना।।

    चारिउ चतुरदसा गुन पढ़े। संजोग गोसाईं गढ़े।।

    मुहमद चारिउ मीत मिलि, भए जो एकै चित्त।

    एहि जग साथ जो निबहा, ओहि जग बिछुरन कित्त।।

    इस अवतरण से जो कुछ पता चलता है वह उक्त साहब का विरोधी है। ग्रियर्सन साहब के कथन से सिद्ध होता है कि जायसी के मित्र सलार कादिम और सलोनेसिह उनके सामने ही मर चुके थे। संभवतः जायसी का संबंध अभी तक जगतदेव से ही था, अमेठी के राजा से नहीं। यदि यह ठीक है तो पदमावत के, अथवा उक्त बखान के पहले ही उक्त मित्रों का स्वर्गवास हो चुका था, क्योंकि प्रस्तुत पद्यों से पता लगता है कि उस समय सभी मित्र जीवित थे। जायसी को उनकी मित्रता में इतना संतोष था कि वे परलोक में भी उनके वियोग की कल्पना नहीं कर सकते थे। प्रसंगवश इतना कह दिया। इतिहास की बात तो यह है कि उक्त सभी महानुभावों का निवास-स्थान जायस ही था। मियॉ सलोने मियाँ ही थे, सिंह नहीं। उनके भाई अथवा भतीजे सैयद प्यारे जायस के प्रथम जागीरदार थे। जायस के सभी जानकार आदमी उक्त व्यक्तियों से परिचित हैं, परिचय देने में कुछ भूल अवश्य करते हैं।

    जायस तथा अमेठी

    जायसी के गाजीपुरी होने का प्रबल प्रमाण अभी तक नहीं मिला। जो कुछ उसके पक्ष में कहा जाता है उसकी गति हमने देख ली। जायसी की भाषा क्या, पदमावत अखरावट आदि जायसी के किसी भी ग्रंथ से यह नहीं झलकता कि जायसी गाजीपुरी थे, जायसी नहीं। जिन लोगों ने मलिक मुहम्मद को अजायसी माना है उनका कथन है कि अमेठी के राजा के अनुरोध से वे जायस में जाकर रहने लगे। सुधाकरजी का कथन है- “निदान उस फकीर के कहने पर राजा ने अपने कई एक योग्य सरदारों को उसके साथ भेजकर बहुत विनय के साथ मलिक मुहम्मद को अपने यहाँ बुलाया, तब से यह जायस में रहने लगे और वहीं पर इन्होंने पदुमावती की रचना की।“ अमेठी के तृतीय महाराजकुमार श्री रणंजयसिहजी से पता लगा कि जायस कभी अमेठी राज्य में नहीं था। स्वाभाविक तो यह था कि जायसी इस अवसर के उपरांत कहीं अमेठी राज्य या गढ़ के पास रहते कि अन्य स्थान जायस में, जहाँ रजभरों का उपद्रव होता ही रहता था और जो मुसलमानों के हाथ में बहुत दिनों से था।

    जायसी की जन्मभूमि

    जी तो नहीं चाहता, पर बुद्धि यही कहती है कि जायसी के विषय में, उनके जीवन के संबंध में हिंदी-संसार में जो कुछ प्रचलित है वह निराधार अथवा मनगढ़ंत ही है। स्वयं सुधाकरजी का आदेश है- “साची राह सुधारिए, इतिहासन के मीत। काहे आग्रह करि वृथा, थापत कठिन कुरीत।“ अस्तु, हमें निस्संकोच सत्य का प्रतिपादन करना धर्म्य है। हम साहस के साथ पुष्ट प्रमाणों के आधार पर कह सकते हैं कि मलिक मुहम्मद जायसी का जन्म-स्थान जायस ही था, गाजीपुर या अन्यत्र नहीं। जायस के कंचाना मुहल्ले का नाम ऊपर लिया जा चुका है, जायसी की जन्मभूमि यही मुहल्ला है। उनके घर का चिन्ह अब भी आदरणीय है। उनके वंश में एक वहीद नामक सज्जन हैं जिनका कहना है कि उनके पास उनका वंशवृक्ष हैं। उन्होंने उसकी प्रतिलिपि देने का वचन भी दिया था। खेद है कि वे उन संतानों में हैं जिनके विषय में रहीम ने कहा था- “बारे उजियारो करै, बढ़े अँधेरो होय।” जायस के एक सज्जन ने खेद के साथ कहा था,- “जिस तरह मलिक साहब का खानदान बरबाद हुआ उस तरह खुदा करे दुश्मन का भी हो।”

    जायसी के पूर्वज

    मलिक शब्द भी जायसी शब्द की तरह ही पेचीदा है। लाला सीताराम ने उसकी विशद व्याख्या की है। इस व्याख् का परिणाम भयंकर है। आपका कथन है- “He was evidently the descendant of a Hindu convert and had received, as will be shown afterwards, s Sufi training.” लाला साहब ने मिलक मुहम्मद जायसी के किसी पूर्वज को हिंदू कहा है। उन्होंने इस बात को स्पष्ट नहीं किया है कि उनके कथन का आशय क्या है। संभवतः जायसी के बाप-दादा से ही उनका तात्पर्य है। यदि ऐसा मानें तो इसका कुछ अर्थ ही नहीं रह जाता। भारत के बाहर से आनेवाले मुसलमानों के पूर्वज भी हिंदू, बौद्ध तथा अन्यधर्मावलंबी थे। लाला जी की कल्पना कहाँ तक ठीक है यह कहना कठिन है। लालाजी इसको सिद्ध सा समझते हैं। उनके समझने का कारण पर्याप्त नही है। जिन दो व्यक्तियों को उन्होंने जायसी के विषय में धानबीन करने के लिए तैनात किया था, उनके विवरण में भी इस बात का संकेत नहीं है कि जायसी के बाप-दादा क्या थे, कब मुसलमान हुए। लोगों का तो यहाँ तक कहना है कि जायसी के पूर्वज बाहर से भारत में आए। इस विषय की समुचित मीमांसा इस सम नहीं हो सकती। मुसलमानों में यह बात विशेष रूप से देखी जाती है कि वे अपना संबंध अन्य देशों से ही स्थापित करना चाहते हैं। जो वस्तुतः हिंदू से मुसलमान हुए हैं- भारतीय वंश-परंपरा मे हैं- वे भी अपने को अरब और तुर्क ही सिद्ध करते हैं। इस संबंध में हमे केवल इतना ही कहना है कि केवल मलिक शब्द के आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि मलिक मुहम्मद जायसी के पूर्व-पुरूष हिंदू से मुसलमान हुए थे। लाला साहब स्वयं स्वीकार करते हैं कि गोंडा तथा फैजाबाद में मलिक उपाधिधारी अहीर हैं। मलिक शब्द का प्रयोग अन्यत्र किसी भी अर्थ में रहा हो, उससे हमारा विशेष संबध नहीं, भारत में तो उसका प्रयोग 12 या 1200 सिपाहियों के मालिक के लिये ही होता था। मलकाना मलिक शब्द से भिन्न है। उसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि मलिक उपाधिदारी मुसलमान कभी हिंदू थे। आज भी बहुत से हिंदू मलिक कहलाते हैं। इस शब्द को चौधरी शब्द की भाँति उभयनिष्ठ या खाँ शब्द का समकक्ष समझना चाहिए, जिसका प्रयोग कभी कभी हिंदुओं के लिये भी परंपरागत है। मलिक उपाधि जायसी के सम्मान के लिये नहीं है, जैसा कि विनोदकार मानते हैं, यह उनकी बपौती है, उनके वंश के लोग सदा से मिलक कहे जाते हैं।

    जायसी के अवशिष्ट

    मलिक मुहम्मद जायसी वस्तुतः जायस के रहनेवाले थे। उनका जन्म-स्थान भी जायस का कंचाना मुहल्ला ही है। जायसी का अर्थ ही इस बात का प्रमाण था, फिर भी हमने विपक्ष की समीक्षा करते समय इस बात को पुष्ट करने की चेष्टा की है कि जायसी का जन्म-स्थान अन्यत्र नहीं था, उनके मित्र भी जायस ही के रहनेवाले थे। अमेठी, जायस आदि स्थानों में प्रसिद्ध भी यही है। जायस में उनके घर का अवशिष्ट अब भी बताया जाता है। यह स्मरण रखना चाहिए कि यह बात मनगढंगत नहीं है, क्योंकि यदि आप उनसे उनके कथन की साधुता में संदेह कीजिए तो वे यही उत्तर देते हैं कि खुदा जाने हम लोग तो यही सुनते रहे हैं। उनकी ओर से किसी प्रकार का आग्रह नहीं होगा। उनके वंशज वहीद की भी यही दशा है। वे आज भी जायस में मलिक नाम से ख्यात हैं और उसी कंचाना मुहल्ले में पुराने घर के पास ही रहते भी हैं। खेद यही है कि उनसे कुछ काम नहीं निकल सकता। उनका कहना है कि मलिक मुहम्मद ने अपने वंशजों को पदमावत पढ़ने की आज्ञा नहीं दी। निदान उनके पास वंशावली को छोड़कर और कुछ भी सामग्री ऐसी नहीं है जिससे जायसी के जीवन पर प्रकाश पड़े। जायस में इस विषय के ज्ञाता अशरफ वंश के लोग ही है। उनसे मलिक मुहम्मद जायसी के विषय में जो कुछ पता चला उसी के आधार पर अब हम जायसी के जीवन-वृत्त पर प्रकाश डालना उचित समझते हैं। जायस के सज्जादानशीन नकी साहब ने जायसी के विषय में कुछ लिपिबद्ध किया है। उनकी पुस्तक फारसी में है और अभी तक प्रकाशित नहीं हो सकी है। उसकी सहायता ही इस समय प्रधान है। जायसी के संबंध में जो कुछ प्रचलित अथवा लिपिबद्ध है उसकी समुचित समीक्षा उनके ग्रंथों तथा इतिहास के आधार पर करना ही श्रेय है।

    जायसी की जन्म-तिथि

    अब तक तो कुछ निवेदन किया गया है उससे यह तो स्पष्ट अवगत हो गया होगा कि जायसी जायस के कंचाना मुहल्ले में उत्पन्न हुए थे। उनके जन्म-काल के विषय में किसी को कुछ पता नहीं है। जायस में भी इस विषय की जानकारी किसी को नहीं है। ऐसी परिस्थिति में जायसी के ग्रंथों में ही उनके जन्म की छानबीन हमने आरंभ की। जायसी का एक ग्रंथ है आखिरी कलाम। उसमें उन्होंने एक स्थल पर लिखा है- भा अवतार मोर नव सदी। तीस बरख ऊपर कवि बदी, इससे स्पष्ट है कि जायसी का जन्म सन् 830 हि. में हुआ था। उनका जन्म स्थान कहाँ था? इसके विषय में उन्होंने जो जायस नगर धरम-अस्थानू कहा था उसका विवेचन हम कर चुके हैं। अन्यत्र भी जायसी उसी का प्रतिपादन करते हैं। उनाक आग्रह है- जायस नगर मोर अस्थानू। नगर को नावँ आदि उदियानू।। तहाँ दिवस दस पहुँने आयउँ। भा बैराग बहुत सुख पायउँ।। इसमें संदेह नहीं कि जायसी अपना स्थान जायस ही स्वीकार करते हैं और उसके प्राचीन नाम का परिचय भी देते हैं, किंतु जो लोग हेतुवाद के कट्टर पक्षपाती है वे कह सकते हैं कि जायसी तो यहबाँ भी आयउँ का प्रयोग करत हैं, अतः वे कहीं अन्यत्र से आकर यहाँ बस गए थे। निवास-स्थान हो जाने पर जायस उनका स्थान बना। उनसे हमारा नम्र निवेदन है कि यहां जायसी के आने का कारण अमेठी के राजा की प्रेरणा नहीं है। यही हनीं, उनकी भावना भी इस स्थल पर सांसारिक नहीं है। वे कहते हैं-

    सुख भा सोच एक दुख मारू। वहि बिन जीवन मरन कै जानू।।

    नैन रूप सों गयऊ समाई। रहा पूर भर हिरदय छाई।।

    जहाँ वै देखौं तहँ वै सोई। और आव दिष्ट तर कोई।।

    आपन देख देख मन राखौं। दूसर नाँव सो कासों भाखौं।।

    अस्तु, उक्त आयउँ का अर्थ विचारपूर्वक लगाना चाहिए। जायसी का तात्पर्य पहुँने आयउँ से जायस में जन्म लेने का ही है। दिवस दस का अर्थ यहाँ पर वही है जो दस दिन की जिंदगी में दस दिन का। जायसी ने अपने वैराग्य तथा विरह का वर्णन स्पष्ट कर दिया है, फिर संदेह कैसा?

    जायसी के संबंध की कुछ बाते

    जायसी जायस में जनमे और वहीं फूले फले। उनके माता पिता सामान्य श्रेणी के गृहस्थ थे। कहा गया है कि उनके पिता का देहांत अल्पकाल ही में हो गया था। जायसी की एक आँख बचपन में शीतला से जाती रही। मकनपुर के मदारशाह की मनौती पूरी करने के पहले ही उनकी माता भी उनको अनाथ छोड़कर चल बसीं। जायसी सूफी फकीरों के साथ रहने लगे। यही हिंदी संसार का जायसी संबंधी संक्षिप्त परिचय है, जो केवल अनुमान पर अवलंबित है। इधर लाला सीतारामजी शीतला की कथा के साथ ही साथ उनके काने होने को भी असत्य ही समझते हैं। कारण, तो वे स्वयं पदमावत का अध्ययन करना चाहते हैं और जायस में जाकर छान-बीन करना ही। जायसी के काने होने का पदमावत में स्पष्ट उल्लेख है-“एकनयन कवि मुहमद गुनी” अथवा “मुहमद बाई दिसि तजा एकनयन अरु कान।” आँख जाने के विषय में शुक्लजी का मत मान्य है, सुधाकरजी या त्रिपाठीजी का नहीं। जायसी के काने होने में जायस या रायपुर (अमेठी) में भी किसी को संदेह नहीं है। हाँ, बहरे होने के संबंध में वे कुछ नहीं कहते। उनके कुरूप होने का प्रमाण मटियहि हँसेसि कि कोहरहिं प्रसिद्ध ही है। प्रश्न केवल यही है कि उनकी इस विशेष कुरूपता का कारण क्या है। शाह नकी साहब का कहना है कि जायसी की कुरूपता का कारण अर्द्धांग रोग है। कुछ लोगों का विचार है कि जन्म से ही वे कुरूप थे। जायसी वे बाई दिसि तजा का प्रयोग किया है। इस तजा के अनुरोध से कहा जा सकता है कि उनकी यह दशा जन्म-काल से थी। जायसी ने बड़ी चातुरी एवं चमत्कार से इसका निर्देश किया है। उनको वाममार्ग इतना अनिष्ट था कि उन्होंने बाएँ कान एवं आँख को त्याग दिया। शीतला की अपेक्षा अर्द्धांगरोग से आक्रांत व्यक्ति में हवा की सामग्री अधिक होती है। यदि यह ठीक है तो जायसी की अष्टावक-दशा का कारण उनका उक्त रोग ही है, शीतला नहीं।

    जायसी के माता-पिता

    रही जायसी के माता-पिता की बात, उनके विषय में यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि उनका देहावसान कब, किस रूप में हुआ। इतना अवश्य है कि यदि जायसी बचपन में ही अनाथ हो जाते तो अवश्य ही कहीं कहीं इसका संकेत अपने ग्रंथों में करते। उनके जो ग्रंथ उपलब्ध है, उनमें उक्त विषय का आभास भी नहीं मिलता। यही नहीं, पदमावत जैसे विशद ग्रंथ में उन्होंने अपने वंश का परिचय नहीं दिया। इसका मुख्य कारण क्या था, हम नहीं कह सकते। पदमावत के वात्सल्य का भी एक प्रकार से अभाव ही है। उनके निदर्शन के जो अवसर आए हैं, जायसी ने या तो उनकी उपेक्षा की है या उनको चलता कर दिया है। जिस स्नेह को लेकर सूर और तुलसी ने कमाल किया है, उसी का अभाव जायसी में प्रेम की पीर दृष्टि से भी खटकता है। हो सकता है कि विरक्त हो जाने पर जायसी को वात्सल्य भाव में मोह का दर्शन अधिक मिलता हो। सूफियों ने केवल माधुर्य-भाव ही को अपनाया है, अन्य भाव प्रसंगवश किसी अन्य रूप में आते हैं। पदमावत तथा अखरावट कीर चना मुरीद होने पर जायसी ने की। संभवतः इस समय वे रमता-जोगी बन चुके थे। अस्तु, उनके लिये स्वाभाविक ही था कि अपने पूर्वजो का परिचय देकर उस वंश का परिचय दें जिससे उनका उद्धार हो सका, उनको परमेश्वर का दर्शन मिला। निदान हम कह सकते हैं कि जायसी के माता-पिता के अल्प काल में स्वर्गवास होने का पर्याप्त प्रमाण नहीं मिलता। जायसी ने जहाँ कहीं अपने पीर अथवा गुरु का प्रसंग छेड़ा है वहाँ पर यही कहा है कि उनकी से वा से मुझको सद्गति मिली। तात्पर्य यह कि जान-बूझकर उन्होंने सत्संग किया। पीर की ओर से जो प्रसाद मिला वह उनके परिश्रम का फल था, गुरु की कोरी कृपा का परिणाम नहीं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जायसी उतनी अल्पावस्था में नाथ नहीं हुए थे जितनी का प्रतिपादन हिन्दी-साहित्य में होता रहा है।

    विवाह

    जायसी के जीवन का अब तक जो कुछ परिचय हमें प्राप्त था उसके आधार पर हम यही समझते थे कि जायसी एक अविवाहित फकीर थे। इस धारणा का प्रधान कारण उनकी दशा एवं अपना संस्कार था। जायसी के विषय में अनुसंधारन से जो पता चला है वह प्रकृत धारणा के परितः प्रतिकूल है। जायसी कुरूप अवश्य थे, किंतु वे निर्धन अथवा अनाथ थे। संक्षेप में, वे मजे में कमाते खाते थे। वे उस दीन के पाबंद थे जिसमें विवाह करना आधा बिहिश्त हासिल करना था। इसलाम संन्यास का कट्टर विरोधी है। पदमावत का रतनसेन भी पदमावती के लिये योगी बनता है। सारांश यह कि जायसी जैसा दीन का पाबंद अविवाहित नहीं रह सकता था। कहा जाता है कि जायसी का विवाह जायस में ही हुआ था। उनकी ससुराल के एक सज्जन, जिनका नाम संभवतः जाफर था, कह रहे थे कि जायसी अपने भाई से रुष्ट होकर ससुराल ही में रहते तथा लिखा-पढ़ा करते थे। उन्होंने तो उक्त स्थान का निर्देश भी किया था। जायसी पदमावत में कहीं कहीं कुछ ऐसा कह गए हैं जिनको आजकल का सभ्य समाज स्त्री-निंदा समझ सकता है। फिर भी उनकी यह निंदा कबीर-कोटि की नहीं है। जायसी की दृष्टि में पति-पत्नि का प्रेम भी परमात्मापरक था। पदमावत में उन्होंने इसका प्रतिपादन किया है। इस विवाह की कौन कहे, वे बहु-विवाह के पोषक थे।

    बाल-बच्चे तथा आप

    जायसी केवल विवाहित ही नहीं थे, उनके बाल-बच्चे भी थे। कहा जाता है कि उनकी कुल सात संतानें थीं। जायसी के सौभाग्य अथवा दुर्भाग्य से उन सबका निधन हो गया। कुछ लोगों का कथन है कि जायसी के पीस मुबारक शाह पोस्ता पीते थे। जायसी ने उन्हीं को लक्ष्य कर एक छोटी सी पुस्तिका लिखी, जिसका नाम पोस्तीनामा है। जब पीर साहब ने इसको सुना तो सहसा बोल उठे “अरे वे औलाद, कहीं उस्ताद की हजो करते है!” कहते हैं कि उसी दिन जायसी की सभी संतानें मकान की छत गिर जाने से मर गई। जायसी पागल की तरह रहने लगे। एक दिन उनके उस्ताद ने उनकी दीन दशा देखकर पूछा कि जायसी की चिंता का कारण क्या था। जायसी ने कहा –“आपने मेरे अपराध का दंड दिया अब मेरा नाम कैसे चलेगा।” उस्ताद ने उत्तर दिया- “जिस कविता के कारण तुम निस्संतान हुए वही कविता तुमको अमर करेगी। तुम पोथी लिखो” कुछ हेर-फेर के साथ यही कथा प्रसिद्ध है। यह कहाँ तक सत्य है? निश्चित रूप से इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि जायसी के ग्रंथों में कतिपय स्थल ऐसे हैं जिनके परिशालन से पता चलता है कि जायसी के हृदय मेंयह कामना थी कि संसार में उनका नाम रहे। पदमावत की लिपि तथा रचना काल नामक लेख में हमने इसका संकेत इस प्रकार किया था- “पदमावत का अध्ययन करते करते जब हम उसकी कथा के उपसंहार में पहुँचते हैं तब हमारी कुछ विचित्र स्थिति हो जाती है।... उन्होंने उस स्थल पर अपनी एक ऐसी मनोवृत्ति का परिचय दे दिया है जिसकी संभावना हमको नहीं थी।” वह मनोवृत्ति यह है- “औ मैं जानि गीत अस कीन्हा। मकु यह रहै जगत में चीन्हा।।... केइ जगत जस बेंचा, केइ लीन्ह जल मोल? जो यह पढ़ै कहानी, हम्ह सँवरै दुइ बोल।।” पदमावत ही में नहीं अखरावट के भी अंत में यही निवेदन है- जो मिटावै कोई लिखआ रहै बहुतै दिना।, संभव है, अधिक संभव है कि जायसी की इस लालसा का मुख्या कारण उनका निस्संतान होना ही हो, नहीं तो फकीरों को नाम से क्या काम?

    परमात्मा का साक्षात्कार

    जायसी की जीविका खेती थी। आप अपने हाथ से हल चलाते, खेत निराते थे। आपको परमात्मा का साक्षात्कार विचित्र रूप से हुआ। आपके विषय में यह कहा जाता है कि आपके गुरु की यह आज्ञा थी कि अकेले भोजन कभी मत करो। जायसी इसी नियम का पालन करते थे। इसलाम के अतिथि-सत्कार से यह अधिक व्यापक है। इसको अघं केवलं भुंक्ते, का प्रसाद समझना चाहिए। प्रसिद्ध है कि एक दिन जब जायसी हल चला रहे थे, एक लौडी उनके पास भोजन लेकर आई। संयोग कुछ ऐसा था कि उस दिन जायसी को किसी व्यक्ति का दर्शन नहीं मिला। उन्होंने लौंडो से आग्रह किया कि किसी व्यक्ति को खोज लाए। जब उसने अपनी लाचारी जाहिर करते हुए कहा कि उसको बहुत ढूँढ़ने पर भी किसी की सूरत नजर नहीं आई तब जायसी स्वयं इधर-उधर देखने लगे। निदान उनको एक व्यक्ति लकड़ी का बोझ लादे दिखाई दिया। जायसी ने उसको बुलाकर साथ भोजन करने का आग्रह किया। उसने कुष्ठ से जर्जरित हाथ दिखाकर जायसी से प्रार्थना की। जायसी ने उसकी एक भी सुनी। अंत में जब रक्त तथा पीब से आप्लावित शेषांश के पीने की बारी आई तब जायसी ने हठपूर्वक अपने आप ही पीना चाहा। ज्योंही उन्होंने उसको अपने मुँह से लगाया, उक्त कोढ़ी आँख से ओझल हो गया। जायसी विस्मय में बोल उठे- “बूँदहिं सिंधु समान, यह अचरज कासों कहौं।” अखरावट में पूरा पद्य इस प्रकार है- “बूँदहिं समुद समान, यह अचरज कासों कहौं। जो हेरा सो हेरान मुहमद आपै आप महँ।” कहा जाता है कि उसी दिन से जायसी विरक्त की भाँति रहने लगे और परमात्मा के विरह में निमग्न हो गए।

    पीर और गुरु का भेद

    जायसी के गुरु के विषय में ऊपर मुबारकशाह बोदले का नाम लिया गया है। जायस में लोग उन्हीं को जायसी का पीर मानते हैं। हमारी समझ में जायसी के पीर मुबारकशाह नहीं थे। जायसी ने अपने पीर वंश का परिचय गुरु-वंश के साथ ही साथ अखरावट तथा पदमावत में दिया है। पीर या मुरशिद का अर्थ केवल दीक्षा-गुरु होता है, उस्ताद नहीं। हमारी समझ में जायसी ने इस भेद पर ध्यान रखकर ही पीर शब्द का प्रयोग किया है। हिंदी का गुरु शब्द अधिक व्यापक है। उससे दीक्षा तथा शिक्षा- दोनों गुरुओं का बोध होता है। अब विचारणीय प्रश्न यह है कि जायसी का दीक्षा-गुरु कौन था। जायसी के इस समय तीन ग्रंथ उपलब्ध है। पदमावत तथा अखरावट से हिंदी-संसार परिचित है। आखिरी कलाम का पता संभवतः उसे अब तक नहीं है। यहाँ पर हमारा कर्तव्य है कि हम उक्त ग्रंथों के आधार पर जायसी के दीक्षा-गुरु का निश्चय करें, और देखें कि जायसी के पीर के विषय में जो मत प्रचलित है वे कहाँ तक साधु हैं।

    जायसी के पीर

    ग्रियर्सन साहब का मत है कि जायसी के पीर अथवा दीक्षा-गुरु शेख मुहीउद्दीन थे। जायसी ने सैयद अशरफ जहाँगीर का नाम केवल प्राचीन गुरुजन के नाते लिया है। आप अन्यत्र यह भी कहते हैं कि एक प्रवाद की दृष्टि से शेख मुहीउद्दीन विद्या-गुरु तथा सैयद अशरफ मंत्र गुरु थे। आप शेख मुहीउद्दीन को उनका पीर किन कारणों से मानते हैं यह आप ही जाने। हम तो यही कहेंगे कि यह भी आपका एक प्रमाद ही है। आप तो प्रचलित बातों पर ध्यान देत हैं और जायसी के कथन पर। जायसी स्वयं पदमावत में अपने पीर का नाम सैयद अशरफ बतलाते हैं और उनका बखान भी मुक्त कंठ से करते हैं। आपका कथन यह है-

    सैयद अशरफ पीर पियारा। जेहि मोहिं पंथ दीन्ह उजियारा।।

    लेसा हिएँ प्रेम कर दिया। उठी जोति, भा निरमल हीया।।

    मारग हुँत अँधियार जो सूझा। भा अँजोर, सब जाना बूझा।।

    खार समुद्र पाप मोर मेला। बोहित-धरम लीन्ह कै चेला।।

    जहाँगीर वै चिस्ती निहकलंक जस चाँद।

    वै मखदूम जगत के हौं ओहि घर कै बाँद।।

    अखरावट में जायसी ने अपनी पीर-परंपरा का उल्लेख इस प्रकार किया है-

    कही सरीअत चिश्ती पीरू। उधरित अशरफ जहँगीरू।।

    तेही कै नाव चढ़ा हौं धाई। देखि समुद-जल जिउ डेराई।।

    राह हकीकत परै चूकी। पैठि मारफत मार बुडूकी।।

    ढूँढ़ि उठै लेउ मानिक मोती। जाइ समाइ जोति महँ जोती।।

    आखिरी कलाम में जायसी ने इस बात को इतना स्पष्ट कर दिया है कि उसमें मीन-मेष की जह नहीं। आप कहते हैं-

    मानिक यक पायउँ उजियारा। सैयद अशरफ पीर पियारा।।

    जहाँगीर चिश्ती निरमरा। कुल जग माँ दीपक विधि धरा।।

    ..............................................................................

    तिन घर हौं मुरीद सो पीरू। सँवरत बिनु गुन लावै तीरू।।

    कर गहि धरम पंथ दिखरायउ। गा भुलाय तेहि मारग लायउ।।

    जायसी और मुबारक शाह का संबंध

    उपर्युक्त अवतरणों से स्पष्ट है कि जायसी चिश्ती-वंश के सैयद अशरफ जहाँगीर के मुरीद थे। घर से तात्पर्य वंश, खानदान या सिलसिले से हैं। जो लोग जायसी को मुबारकशाह बोदले का मुरीद कहते हैं, वे भारी भूल करते हैं। इस भ्रम का एक प्रधान कारण यह है कि लोग इतिहास पर उचित ध्यान नहीं देते। नकी महोदय ने भी यही भूल की है। मुहम्मद मुबारकशाह बोदले के विषय में पदमावत में एक स्थल पर जायसी ने इस प्रकार लिखा है-

    सेख मुहम्मद पूनो करा। सेख कमाल जगत निरमरा।।

    दुऔ अचल धुव डोलहिं नाहीं। मेरु खिखिंद तिन्हहुँ उपराहीं।।

    जिसका कारण यह है कि जायसी अपने पीरवंश का पूरा परिचय देना चाहते हैं। हम यह नहीं कहते कि जायसी को मुहम्मद मुबारकशाह बोदले से किसी प्रकार की सहायता नहीं मिली। हमारे कहने का तो सीधा सादा अर्थ यह है कि जायसी ने दीक्षा सैयद अशरफ साहब से ही ली, उनके निधन होने पर शेख हाजी और उनके उपरांत शेख मुबारक से ज्ञान अर्जित करना उन्होंने अपना धर्म समझा। यही इस प्रशंसा का रहस्य है। जो लोग यह जानते हैं कि शेख मुबारक बोदले की निधन-तिथि सन् 974 हि. यानी जायसी से 25 वर्ष बाद है, वे हमारे मत से सहमत होंगे। इसमें संदेह नहीं कि जायसी ने पदमावत में जो परंपरा दी है वह अधिक स्पष्ट नहीं है। उसके स्पष्टीकरण के लिये अखरावट, विशेषकर आखिरी कलाम, की शरण वांछनीय है। अखरावट में भी जायसी ने पीर और गुरु के झगड़े को स्पष्ट नहीं किया है। इस विषय में आखिरी कलाम ही प्रमाण है। उसमें आपको केवल सैयद जहाँगीर अशरफ का ही नाम मिलेगा। वस्तुतः अशरफ जहाँगीर ही जायसी के पीर अथवा दीक्षा-गुरु थे। स्मरण रहे कि मुहम्मद मुबारकशाह बोदले का नाम केवल पदमावत में आया है।

    जायसी के शिक्षा-गुरु

    हमने यह भली भाँति देख लिय कि जायसी के दीक्षा-गुरु सैयद जहाँघीर अशरफ थे। अब हमको यह विचारना चाहिए कि जायसी के शिक्षा-गुरु अथवा उस्ताद कौन थे। इस प्रश्न पर कुछ प्रकाश डालने के पहले ही हम यह अपना परम धर्म समझते हैं कि हम इस बात को स्पष्ट रूप से कह दें कि जायसी “मधुकर सरिस संत गुणग्राही” जीव थे। उन्होंने अपनी मधुकरी वृत्ति से जो मधु-संचय किया है उसका विश्लेषण हमारा काम नहीं है। हमको तो यहाँ पर केवल इतना ही दिखाना अभीष्ट है कि जायसी ने अपने ग्रंथों में किनको गुरु के रूप में स्वीकार किया है। जायसी ने पदमावत में अपने गुरुजनों का परिचय इस प्रकार दिया है-

    गुरु मेहदी खेवक मैं सेवा। चलै उताइळ जेहिं का खेवा।।

    अगुवा भयउ शेख बुरहानू। पंथ लाइ मोहिं दीन्ह गियानू।।

    अलहदाद भल तेहि कर गुरू। दीन दुनी रोशन सुरखुरू।।

    सैयद मुहमद कै वै चेला। सिद्ध-पुरुष-संगम जेहि खेला।।

    दानियाल गुरु पंथ लखाए। हजरत ख्वाज खिजिर तेहि पाए।।

    भए प्रसन्न ओहि हजरत ख्वाजे। लिए मेरइ जहँ सैयद राजे।।

    ओहि सेवत मैं पाई करनी। उघरी जीभ, प्रेम कवि बरनी।।

    वै सुगुरु हौं चेला, निति बिनवौं भा चेर।

    उन्ह हुत देखै पायउँ, दरस गोसाईं केर।।

    जायसी की गुरु-परंपरा

    हमारी धारणा है कि पदमावत के उक्त पद्यों पर उचित ध्यान नहीं दिया गया है। ग्रियर्सन साहब जायसी की गुरु-परंपरा दी है और कहा गया है- “मुसलमानों में प्रचलित गुरु-परंपरा के अनुसार जायसी की दी हुई परंपरा में अंतर पड़ता है। उनके अनुसार सैयद राजे शेख कुतुब आलम और शेख हशामुद्दीन के पश्चात् हुए हैं। शेख आलम और सैयद अशरफ शेख अलाउल हक के चेले थे।” वस्तुतः यह परंपरा पदमावत के आधार पर रची गई है। जायसी ने पदमावत में नामों का जो क्रम दिया है और ग्रियर्सन साहब ने उसको जिस रूप में समझा है उसी के अनुसार यह परंपरा भी बनी है। अंतर केवल यह है कि इस परंपरा में दोनों का मेल कर दिया गया है। हमारी दृष्टि में यह परंपरा और भी अनिष्ट है। हम कह ही चुके हैं कि जायसी मुबारकशाह से पहले ही मर चुके थे। यही नहीं, शेख कमाल के बाद जितने लोग आए हैं उनमें भी ऐसा कदाचित् ही मिले जो शेख कमाल से नया हो। इस परंपरा के विषय में अधिक विवेचन कर, उसके संबंध हम यही कहना अलम् समझते हैं कि यह सर्वथा अशुद्ध है, किसी विचार का परिणाम नहीं। रही शुक्लजी तथा ग्रियर्सन साहब द्वारा दी गई परंपरा, उसकी समीक्षा शुक्लजी ने स्वय ही संक्षेप में कर दी है। हम उसको भी जायसी की गुरु-परंपरा समझने में असमर्थ है। अपने कथन के पुष्टीकरण में हम कुछ प्रमाण देना उचित समझते हैं।

    अपने मत का पुष्टीकरण

    अखरावट में जायसी ने चिश्ती का नाम केवल इस दृष्टि से लिया है कि वे ही उस वंश के प्रवर्तक है। उनके उपरांत जायसी ने अन्य किसी का नाम लेकर तुरंत ही सैयद जहाँगीर अशरफ का नाम इस कारण लिया है कि जायसी उनके मुरीद है। इसका तात्पर्य यह है कि जायसी अपने को चिश्ती पंथ के जहाँगीर अशरफ का मुरीद सिद्ध करते हैं। पदमावत में वे केवल अपने पीर की प्रशंसा तथा उनके वंश के अन्य लोगों का बखान करते हैं। यदि नको अपनी गुरु-परंपरा अभीष्ट होती तो आदि-प्रवर्तक से आरंभ करते। बीच में यदि किसी व्यक्ति को चुनते तो निजामुद्दीन औलिया को, क्योंकि जलालुद्दीन चिश्ती के बाद वे ही इस योग्य थे। जायसी ने तो केवल अपने पीर का स्मरण किया है जो जायस की गद्दी के अधिष्ठाता थे। प्रश्न उठ सकता है कि फिर उनको अन्य गुरुजनों के नाम लेने की क्या आवश्यकता थी। उत्तर में हमारा नम्र निवेदन है कि जायसी अपनी प्रस्तावना में उन बुजुर्गों का ऋण स्वीकार करते हैं जिनके प्रसाद से उनमें उक्त ग्रंथ रचने की क्षमता प्राप्त हो सकी। जायसी स्पष्ट शब्दों में कहते हैं—“ओहि सेवत मैं पाई करनी। उघरी जीभ प्रेम कबि बरनी।।” अतः जायस के अतिरिक्त जो मानिकपुर तथा अन्य स्थल के गुरुजनों का वे विवरण देते हैं, उसका प्रधान कारण यह है कि जासी ने उनसे ज्ञानार्जन किया था, कविता करना सीखा था। शेख बुरहन हिंदी में कविता करते थे और जायसी के लगभग 20 वर्ष बाद तक जीवित रहे। हमारी दृष्टि में एक यही अटल प्रमाण पर्याप्त है कि किसी वंश-परंपरा में भविष्य का विवरण नहीं दिया जाता। सूफी भी अपने को शाह कहते हैं। उनकी परंपरा भी उसी ढँग से चलती है। जो सज्जादानशीन होता है वही शाहेवक्त कहा जाता है, उसी का नाम चलता है। जायसी ने जो नाम दिए हैं उनमें यह बात नहीं है। जायसी ने जो नाम दिए हैं उनमें यह बात नहीं है। हम कह ही चुके है कि जायस के मुबारकशाह जायसी से 25 वर्ष बाद सन् 974 हिजरी तथा कालपी के शेख बुरहान 21 वर्ष बाद सन् 970 हिजरी में मरे। फिर इन लोगों के बाद के गद्दीनशीनों के विषय में जायसी कैसे लिख सकते थे? जायसी ने अपने परिचय में गुरु-चेला आदि शब्दों का ही प्रयोग किया है, जिसका स्पष्ट अर्थ यह है कि जायसी उक्त सज्जनों में गुरु-भाव रखते थे, और उन्हीं का सत्संग करते थे। इस विषय की छानबीन अभी हम कर रहे हैं। आशा है, फिर कभी इस पर विस्तृत विचार किया जायगा। यहाँ पर केवल इतना ही कह देना पर्याप्त है कि जायसी उक्त महानुभावों से ही सीखे-पढ़े थे। शुक्लजी हमारे उस कथन का अनुमोदन इस प्रकार करते हैं- “अतः जायसी ने काव्य-शैली किसी पंडित से सीखकर किसी कवि से सीखी थी।”

    जायसी का अमेठी जाना

    अमेठी के साथ जायसी का इतना घना संबंध सिद्ध किया गया है कि उसके प्रतिकूल कुछ कहने का साहस नहीं होता। प्रसिद्ध है कि जायसी को अमेठी के राजा ने बुलाकर सम्मान के साथ जायस में रखा। उनके आशीर्वाद से राजा का वंश चला। राजा के यहाँ वे ईश्वर की भाँति पूजित थे। जब मरे तब “रानियों के विशेष हठ करने पर राजा ने ठीक किले के सदर फाटक के सामने इनकी कब्र बनवाई।” कह नहीं सकता, किंतु जहाँ तक पता चला है, इससे अधिक असत्य की प्रतिष्ठा हिंदी-साहित्य में अभी तक दूसरी नहीं है। जाने किस आधार पर पंडित सुधाकर द्विवेदी ने उक्त बातों का प्रचार किया। हम यह पहले ही सिद्ध कर चुके हैं कि जायसी जायस के निवासी थे, उनके जायस के निवास से अमेठी के राजा का कुछ भी संबंध नहीं था। जायसी के अमेठी जाने का कारण यह कहा जाता है- एक दिन मलिक मुहम्मद जायसी और वंदनी मियाँ अपने पीर की सेवा में लगे थे। इन लोगों के दिल में यह बात समाई कि इनके और साथी सेवा का फल प्राप्त कर अन्यत्र धर्म-प्रचार में निमग्न है। चट पीर ने आज्ञा दी कि तुम दोनों अमेठी जाओ। इन लोगों ने प्रार्थना की कि दो शाह एक जगह नहीं रहते। पीर ने कहा- “हमको जो कुछ कहना था कह दिया।” पीर के कमरे में दो दरवाजे थे। एक से बंदगी मियाँ पश्चिम की ओर, और दूसरे से मलिकजी पूरब की ओर चले। इस प्रकार मलिक मुहम्मद जायसी गढ़ अमेठी पहुँचे और बंदगी मियाँ अमेठी (लखनऊ) में। यही बात जायस तथा अमेठी में कुछ हेर-फेर के साथ प्रसिद्ध है। इस प्रवाद के आधार पर हम यह अच्छी तरह कह सकते हैं कि जायसी के गढ़ अमेठी जाने का प्रधान कारण राजा का आग्रह नहीं, जायसी की धर्म-भावना ही थी।

    आशीर्वाद से पुत्र

    अमेठी के शासक भरद्वाजगोत्र के कछवाहे राजपूत थे। रजभरों से उनको उक्त प्रांत मिला। सन् 774 हिजरी से 800 हिजरी तक यहाँ के शासक सूदी सिंहजी थे। च्यवन ऋषि के आशीर्वाद से आपके दो पुत्र उत्पन्न हुए। ऋषि की आज्ञा से इस वंश का गोत्र भरद्वाज से बंधुल हो गया। कहने का प्रयोजन यह कि अमेठी के वंश में यदि आशीर्वाद से पुत्र उत्पन्न हुए तो जासी के जन्म के पहले। जायसी जब तक जीवित रहे तब तक उक्त वंश में आशीर्वाद से पुत्र-प्राप्ति की नौबत ही आई। हाँ, हसनअली साहब के समय में इसकी आवश्यक पड़ी, किंतु उनकी दुआ से उसकी पूर्ति हो सकी। अमेठी राज के इतिहास में जायसी के विषय में कुछ भी नहीं लिखा गया है। अतः कल्पना अथवा अनुमान का पोषण सत्य के खून से नहीं हो सकता। अधिक से अधिक हम यही कह सकते हैं कि अमेठी के दरबार में जायसी का सम्मान था, वे एक सिद्ध फकीर समझे जाते थे। बस, इससे अधिक नहीं। जायस तथा अमेठी की जनता भी इससे आगे नहीं बढ़ती, हिंदी-संसार कुछ भी मानता रहे।

    राजा रामसिंह का अखरावट से संबंध

    कहा गया है कि जायसी ने अखरावट की रचना अमेठी के राजा राजसिंह के लिये की। यदि यह ठीक है तो जायसी का प्रवेश कम से कम 888 हिजरी के पहले अमेठी में हो गया था, क्योंकि इसके बाद 956 हिजरी तक इस नाम का कोई शासक वहाँ नहीं हुआ। अखरावट के- साठ बरस जो लपई झपई, के 60 वर्ष से यदि जायसी की अवस्था ध्वनित समझें तो यह किसी प्रकार ठीक कहा जा सकता है। किंतु अखरावट की रचना का जो कारण बताया जाता है वह विलक्षण है। कहा जाता है कि कृष्ण जन्माष्टमी को राजा पूजन में मग्न थे। मलिक मुहम्मद साहब फाटक पर पहुँचे। द्वारपालों ने कहा- “आप मुसलमान है पूजा में नही जा सकते।” मलिक साहब ने कहा- “राजा साहब से कहो, परसाद बँटवा दे। ब्राह्मणों ने समय बताने में भूल की है।” राजा साहब यह सुनकर तुरंत आए और क्षमा याचना की। जायसी अपने स्थान पर गए और राजा के लिये अखरावट की रचना की। यदि अखरावट का विषय ज्योतिष होता तो इस दंत-कथा में किसी को आपत्ति होती, किंतु अखरावट का विषय कुछ और ही है। अखरावट की रचना का प्रधान कारण धर्म-प्रचार मान लेने पर प्रकारांतर से यह सत्य सिद्ध हो सकता है कि जायसी ने अखरावट की रचना अमेठी के राजा के लिये ही की।

    अखरावट में एक स्थल पर जायसी ने एक जुलाहे का अखरावट का जुलाहा वर्णन इस प्रकार किया है-

    ना नारद तब रोई पुकारा। एक जुलाहे सौं मैं हारा।।

    प्रेम तंतु निति ताना तनई। जप तप साधि सैकरा भरई।।

    दरब गरब सब देइ विथारी। गनि साथी सब लेई सँभारी।।

    पाँच भूत मॉड़ी गनि मलई। ओहि सौं मोर एकौ चलई।।

    विधि कहँ सँवरि साज सो साजै। लेइ लेइ नावँ कूँच सौं माँजै।।

    मन मुर्री देइ सब अँग मोरै। तन सो बिनै दोउ कर जोरै।।

    सूत सूत सो कया मँजाई। सीझा काम बिनत सिधि पाई।।

    राउर आगे का कहै, जो सँवरै मन लाइ।

    तेहि राजा नित सँवरै, पूछै धरम बोलाइ।।

    तेहि मुख लावा लूक, समुझाए समुझैं नहीं।

    परै खरी तेहि चूक, मुहमद जेइ जाना नहीं।।

    शुक्लजी की सम्मति में उक्त जुलाहे का निर्देश कबीर की ओर ही है। अखरावट का रचना-काल नामक लेख में हमने भी यही प्रतिपादित किया था। इधर लाला सीतारामजी ने इसकी साधुता पर संदेह करते हुए यहाँ तक रहा है कि जुलाहे का तात्पर्य कबीर से कदापि नहीं है। यह शब्द प्रतीक के रूप में प्रयुक्त है। लालाजी को यह उद्भाव संभवतः विचारदासजी से मिला है, जो जुलाहे को सदा प्रतीक मानते हैं। हमारे विचार में, किसी भी विवेकशील व्यक्ति के लिये इसमें संदेह करने की सामग्री कुछ भी नहीं है, यह ठईक है कि जायसी कबीर को एक सामान्य जुलाहा नहीं समझते। उनके विचार में कबीर पारमार्थिक और व्यावहारिक दोनों पक्ष के जुलाहा है। यही नहीं, उक्त होदे तथा सोरठे में कुछ इस बात का भी संकेत है कि किस प्रकार उनका आदर-सत्कार तथा ताड़न राज-दरबारों में होता था। उनको बुलाकर राजा धर्म की पूछ-ताछ करता था और उनसे सहमत होने पर आँख दिखाता था। निदान, उक्त जुलाहे से जायसी का आशय कबीर ही से है, जिसका प्रभाव जायसी पर पड़ा और जिसको ग्रियर्सन साहब के साथ ही साथ स्वयं लाला साहब भी स्वीकार करते हैं।

    जायसी का निधन

    जायसी के निधन के विषय में बहुत कुछ कहा जाता है। जो लोग करामात में विश्वास करते हैं, उनका कहना है कि मलिक साहब ने एक दिन अमेठी के राजा से, जब वे उनके पास गए थे, कह दिया था कि मेरी मृत्यु आपके साथ के एक बहेलिये के हाथ से है। राजा साहब ने उस बहेलिये को आज्ञा दे दी कि वह कभी उनके राज्य में आए। संयोगवश एक दिन रात में वह अपने घर आया। उसे जान पड़ा कि कोई शेर जंगल में घूम रहा है। आत्मरक्षा के लिये उसने गोली चला दी। निकट जाकर देखा तो शेर के वेश में मलिक साहब थे। राजा शब्द सुनकर जायसी के पास दौड़ा गया, और अपने अपराध के लिये क्षमा मागी। मलिक साहब ने कहा- “जो होना था हो गया, मेरी समाधि यहीं बनवा देना” इसी बात को लोग अनेक रूप से कहते हैं। सारांश में हम कह सकते है कि जायसी जिस समय जिक्र असदी में लगे थे, उनके शब्द को सुनकर, एक व्यक्ति ने, जिसकी गाय को शेर एक दिन पहले खा चुका था, और जो शेर का शिकार करने गया था, शेर का शब्द समझकर गोली मार दी। जायसी उससे आहत हो गिर पड़े। उसी स्थल पर उनकी समाधि दे दी गई। हमको यह खेद के साथ कहना पड़ता है कि जायसी के जीवन-वृत्त के विवेचन में बड़ी ही असावधानी से अब तक काम लिया गया है। जायसी की समाधि का कोट से कुछ भी संबंध नहीं है। आधुनिक को टरामनगर से भी जायसी की कब्र पाँच फर्लांग के लगभग दूर है। उस समय का गढ़ रायपुर में देवीपाटन के पास था, जो जायसी की कब्र से लगभग दूर है। उस समय का गढञ रायपुर में देवीपाटन के पास था, जो जायसी की कब्र से लगभग तीन मील दूर है। जायसी की कब्र पर प्रति बृहस्पतिवार को एक छोटा सा मेला होता है। आस-पास के मुसलमान इस पर विशेष ध्यान दे रहे हैं। राजा की ओर से अब कुछ विशेष प्रबंध नहीं है। पहले चिराग-बत्ती के लिये कुछ मिलता था। जायसी की कब्र के पास ही दूधाहारी शाह की कब्र है जो जायसी की सेवा में रहते थे और केवल दूध ही पर जीवन व्यतीत करते थे। जायसी सदा मुरीद रहे, कभी मुरशिद नहीं बने। उनके चेला-चपाटी कभी थे। वे अमेठी के घने जंगल में रहते थे और वहीं स्वर्गवासी भी हुए। जायस त्यागने का एक मुख्य कारण उनकी एकांतप्रियता भी कही जा सकती है। काजी सैयद नसीरुद्दीन जायसी ने, जिनको नवाब शुजाउद्दौला ने काजी की सनद दी थी, अपनी याददाश्त में, मलिक मुहम्मद जायसी की निधन तिथि चार रज्जब सन् 949 हिजरी लिखी है, जो सर्वथा संगत जान पड़ती है।

    उपसंहार

    मलिक मुहम्मद जायसी के जीवन के संबंध में अब तक जो कुछ विवेचन किया गया है उसके आधार पर हम जिस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं उसका सिंहावलोकन कर लेना परम आवश्यक है। मलिक मुहम्मद जायसी का वास्तविक नाम मुहम्मद था। मलिक उनके वंश की उपाधि थी। जायस के निवासी होने के कारण वे जायसी कहलाए। जायस में वे मलिक के नाम से ख्यात है। जायस के कंचाना मुहल्ले में सन् 830 हिजरी में एक सामान्य परिस्थिति के माता-पिता के घर उत्पन्न हुए। आप जन्म से ही कुरूप थे। रोग-विशेष, संभवतः अर्द्धांग, से आपका स्वरूप और भी भ्रष्ट हो गया। लोग इनके रंग-रूप पर हँसा करते थे। माता-पिता ने किसी विशेष ढंग की शिक्षा का प्रबंध नहीं किया। आपका विवाह जायस में ही हुआ था। आपकी कई संताने थी जिनका स्वर्गवास अल्पकाल ही में हो गया था। आपके भाई का वंश अभी चल रहा है। सैयद अशरफ जहाँगीर आपके पीर थे। शेख मोहिदी, शेख बुरहान आदि सज्जनों से आपने शिक्षा ग्रहण की थी। विरक्त होने के पहले खेती से जीवन-निर्वाह करते थे। परमात्मा का दर्शन पाने के बाद, फकीर होकर इधर-उधर प्रेम की पीर का प्रचार करने लगे। राजदरबारों में भी कभी कभी जाते थे। अंत में एकांतप्रियता के कारण अमेठी के घने वन में रहने लगे। आपके साथ एक और फकीर दूधाहारी शाह रहते थे। उसी वन में अचानक, श्रवण कुमार की भाँति, आप शांत हुए। आपने कभी किसी को चेला नहीं किया, आजीवन मुरीद रहे। आप योग-साधना करते थे और परमात्मा के स्मरण में ही सन् 949 हिजरी में आपका स्वर्गवास गोली लगने से हो गया। इस प्रकार जायसी की आयु 119 वर्ष (949-830), हम लोगों के गणनानुसार 115 या 116 वर्ष ठहरती है, जिसको कुछ लोग असत्य समझ सकते हैं। परंतु जिन लोगों ने पदमावत का अध्ययन विचार-पूर्वक किया है उनको यह सर्वथा संगत प्रतीत होगी। जायसी बुढापे से ऊबकर यहाँ तक कह चुके थे- “बूढ़ी आयु होहु तुम केइ अस दीन्ह असीस।” जायसी की 14 प्रतीत होगी। कुछ के नाम ये हैं- पोस्तीनामा, कहारनामा, मुराईनामा, मेखरावट, चंपावत, अखरावट, पदमावत और आखिरी कलाम। कहा जाता है कि इन्होंने नमाज पर भी एक पुस्तक लिखी थी, जो एक बुढ़िया को याद थी। खेद है कि वह बुढ़िया अब नहीं है। उक्त पुस्तकों में पदमावत तथा अखरावट का संपादन पंडित रामचंद्रजी शुक्ल ने जायसी-ग्रंथावली के नाम से किया है। आखिरी कलाम हमारे पास है। शेष पुस्तकों का पता अभी नहीं चला। यह हिंगी का सौभाग्य है कि जायसी से दीन के पक्के पाबंद मुसलमान ने उसको अपनाया और उसकी श्रीवृद्धि की। जायसी को इसका फल मिला- “सब रुपवंतइ पाउँ गहि मुख जोहहिं कै चाउ।” हिंदी-साहित्य ही नहीं, मानव-जाति भी मलिक मुहम्मद जायसी की चिर ऋणी है। इनके शील और साहित्य की समीक्षा अन्यत्र ही संभव है। यहाँ पर इतना ही पर्याप्त है कि आप एक आदर्श व्यक्ति थे। आपका काव्य भी आदर्श है।

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