कुतुबनकृत मृगावती के तीन संस्करण- परशुराम चतुर्वेदी
कुतुबनकृत मृगावती के तीन संस्करण- परशुराम चतुर्वेदी
नागरी प्रचारिणी पत्रिका
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हिंदी के सूफी कवियों की अभी तक उपलब्ध प्रेमगाथात्मक रचनाओं में कुतुबनकृत मृगावती को, कालक्रमानुसार, द्वितीय स्थान दिया जाता आया है और मुल्ला दाऊद की चंदायन को भी, इस तरह की प्रथम कृति होने का श्रेय परदान किया गया है। इन दोनों के रचनाकाल में लगभग सवासौ वर्षों का अंतर लक्षित होता है, किंतु इस दीर्घ काल के बीच लिखी गई किसी अन्य ऐसी प्रेमगाथा का आजतक पता भी नहीं चल सका है और न इन दोनोंमें सेक सी की सर्वथा पूर्ण एवं प्रामाणिक प्रति ही अभी मिल सकी है। फिर भी हिंदी में अपने ढंग की प्रारंभिक रचना होने के नाते, ये दोनों ही हमारा ध्यान प्रायः एक समान आकृष्ट करती आ रही हैं, जिस कारण इन्हें, इनसे संबंधित अधूरी सामग्री के आधार पर भी संपादन कर प्रकाशित कर देने का लोभ संवरण करना हमारे लिये अत्यंत कठिन बन गया सा प्रतीत होता आया है। फलतः उक्त चंदायन के एक से अधिक संस्करण पहले, सन् 1962 ई. से लेकर सन् 1967 ई. तक के भीतर, क्रमशः आगरा, बंबई और फिर आगरा से, निकाले गए थे तथा अब उसी प्रकार क्रमशः प्रयाग, वाराणसी एवं आगरा से, सन् 1963 ई. से लेकर सन् 1968 ई. की जनवरी तक, मृगावती का भी प्रकाशन तीन बार कर दिया गया है जो कम उल्लेखनीय नहीं ठहराया जा सकता तथा इस बात की ओर भी हमारे ध्यान का चला जाना स्वाभाविक है। वास्तव में इस प्रकार के प्रयत्नों द्वारा एक ओर जहाँ हमारे किसी चिरकालीन कुनूहल की कुछ न कुछ शांति मात्र हो जाती है, वहीं दूसरी ओर हमारे लिये यह भी आवश्यक हो गया जान पड़ता है कि हिंदी वाङ्मय विषयक अनुसंधान कार्य के इस क्षेत्र में भी यथेष्ठ प्रगतिल लाने के विचार से, हम, यदाकदा अपने से प्रयत्नों का कोई न कोई लेखा जोखा भी प्रस्तुत करते चलें जिससे हमें न केवल अपनी वर्तमान स्थिति का बोध हो जा सके, अपितु अपनी उपलब्धियों के संबंध में निर्णय करते समय, हमें कदाचित् कुछ सहायता भी मिल जाय। उक्त तीनों संस्करणों पर विचार करते समय हमारा अध्ययन कोई तुलनात्मक रूप भई ग्रहण कर ले सकता है जो स्वयं कम रोचक न होगा तथा, इसके साथ ही अब तक इस ओर किए गए अपने क्रमिक विकास की एक रूपरेखा तक भी हमारे सामने आ जा सकेगी।
कुतुबन कृत मृगावती के उपर्युक्त तीनों ही संस्करण, स्वभावतः दो दो प्रमुख भागों में विभक्त हैं जिनमें से प्रथम को ‘भूमिका भाग’ तथा द्वितीय को ‘प्रतिस्थ मूल पाठ भाग’- जैसे दो पृथक् पृथक् नाम दिए जा सकते हैं और इसी प्रकार उनसे बच गए अंशो को भी, किसी एक ‘परिशिष्ट भाग’ के अंतर्गत, स्थान देकर, उसपर अपना विचार प्रकट कर सकते हैं। प्रयाग एवं आगरावाले संस्करणों में उक्त प्रथम भाग को वस्तुतः ‘भूमिका’ कहा गया भी दीख पड़ता है, किंतु वाराणसीवाले संस्करण में उसको ‘अनुशीलन’ जैसा एक भिन्न नाम दिया गया पाया जाता है जिसके लिये किसी स्पष्ट कारण का कोई संकेत भी वहाँ नहीं मिलता। इसी प्रकार प्रयागवाले संस्करण के इस भाग के अंत में, जहाँ एक अंश ‘आभार’ को जोड़ दिया गया है तथा वाराणसीवाले संस्करण ने भी आरंभ में, उसे, ‘कृतज्ञता ज्ञापन’ के रूप में, लगा दिया गया है वहाँ इस प्रकार के किसी पृथक शीर्षक की आवश्यकता, आगरावाले संस्करण को प्रकाशित करते समय, कदाचित नहीं समझी गई है। इसके सिवाय, वाराणसी संस्करण के अंतर्गत, सर्वप्रथम, एक ‘वार्तिक’ नाम का अंश मिलता है तथा, इसी प्रकार, आगरावाले संस्करण के भी अंत में, उसे, इससे कहीं अधिक स्पष्ट शब्द ‘संशोधन’ द्वारा, अभिहित किया गया दीख पड़ता है और ये दोनों ‘भूल सुधार’ के परिचायक माने जा सकते हैं, किंतु प्रयाग वाले संस्करण में ऐसा कुछ भी नहीं पाया जाता। इन तीनों संस्करणों का ‘भूमिका भाग’ वस्तुतः मृगावती तथा तत्संबंधित कतिय अन्य विषयों की चर्चा छेड़ने अथवा उन पर कुछ न कुछ आलोचनात्मक टीका टिप्पणी कर देने मात्र से ही उद्देश्य से, लिखा गया है जिससे हमें उस रचना की थोड़ी बहुत जानकारी हो जाय और तदनुसार हमारे लिये वह आगे नितांत अपरिचित सी न लगने पाए। अतएव, तीनों के अंतर्गत उसे विभिन्न शीर्षकों में विभाजित भी कर दिया गया है किंतु इन्हें सर्वत्र एक सा ही क्रम प्रदान किया गया नहीं दीख पड़ता। फिर भी हम, उसका विवेचन प्रस्तुत करते समय, इन्हें अपनी सुविधा के अनुसार, सात विभिन्न शीर्षकों में रख सकते हैं और इन्हें क्रमशः 1. प्रासंगिक उल्लेख, 2. उपलब्ध प्रतियाँ, 3. रचयिता तथा रचना काल, 4. मृगावती का कथानक, 5. इसके वर्ण्यविषय, 6. इसकी भाषा एवं रचना शैली तथा 7. इसकी विशेषताएँ जैसे नाम भी दे सकते हैं और इनमें से दूसरे अर्थात् उपलब्ध प्रतियों वाले अंश को ‘मूल पाठभाग’ वाले द्वितीय खंड में स्थान दे सकते हैं। इस प्रकार इस रचनावाले वास्तविक पाठ से संबंधित बातों की चर्चा, उपर्युक्त प्रति एवं मूल पाठभाग के अंतरग्त, की जा सकती है। यहाँ पर इतना और भी उल्लेखनीय है कि ‘भूमिका भाग’ की अधिकांश बातें, इन तीनों संस्करणों में, किन्हीं न किन्हीं पूर्वपरिचित एवं सामान्य तथ्यों पर ही आधारित जान पड़ती हैं जिस कारण, उनकी ओर विशेष स्थान न देकर यहाँ केवल कुछ प्रमुख नवीन प्रश्नों पर ही विचार हो सकेगा।
1. भूमिका भाग मृगावती संबंधी प्रासंगिक उल्लेखों की चर्चा करते समय, प्रयाग संस्करण के अंतर्गत, जायसी की पद्मावत, उसमान की चित्रावली एवं जैन कवि बनारसी दास की अर्द्धकथानक नामक आत्म कथा की ओर संकेत किया गया मिलता है तथा वाराणसीवाले संस्करण में, इन तीनों के अतिरिक्त, किसी रूपावती का भी नाम लिया गया है जिसके रचयिता का नाम नहीं दिया है, किंतु जहाँ तक आगरावाले संस्करण के विषय में कहा जा सकता है, वहाँ पर इनमें से केवल पद्मावत एवं अर्द्धकथानक की ओर ही हमारा ध्यान आकृष्ट किया गया है जिसका एक प्रमुख कारण यह भी हो सकता है कि इस संस्करण में उक्त प्रकार के उल्लेखों को उतना महत्व ही नहीं दिया गया होगा। वास्तव में वहाँ पर कुतुबन कृत मृगावती की प्रसिद्धि मात्र का प्रश्न उतना उल्लेखनीय नहीं समझा जा सकता जितना वह, जो इसके मूलस्त्र्त विषयक अनुसंधान से संबंध रखता है और इस दृष्टि से विचार करने पर यहाँ उक्त दोनों का प्रसंग लाना तक भी अनावश्यक प्रतीत हो सकता है, जिस कारण, अन्य दो संस्करणों में, इन दोनों बातों की पृथक् पृथक् चर्चा की गई तथा इन पर अपने अपने विचार भी प्रकट किए गए दीख पड़ते हैं। कथा का मूलस्त्रोत अथवा आधार कृति विषयक उक्त शीर्षकों में वस्तुतः मृगावती वाले कथानक की प्राचीनता अथवा इसके किसी पूर्ववर्ती प्रेमगाथात्मक रचना पर आधारित होने के संबंध में, निर्णय करने के प्रयास का ही परिणाम आना चाहिए जिस प्रसंग में प्रथम दो संस्करण जैन साहित्य में उपलब्ध सती मृगावती संबंधी रचनाओं का भी नामोल्लेख करते पाए जाते हैं तथा उक्त प्रसंग में ‘एकादश अंगसूत्र’ जैसे प्राचीन जैन ग्रंथ तक का नाम लिया गया है जो यहाँ उपयुक्त नहीं जान पड़ता। इसके सिवाय प्रयाग संस्करण में जो जैन कवि समयसुंदर की कृति ‘मृगावती रास’ को मृगावती चौपाई जैसे नाम द्वारा अभिहित किया गया है वह भूल सुधार की भी अपेक्षा करता है। सती मृगावती संबंधी जैन कथावाली पुरानी रचनाओं का उपयोग यहाँ पर, अधिक से अधिक इसकी कथा से उसकी भिन्नता प्रदर्शित करने अथवा कतिपय परंपरागत रूढ़ियों या अभिप्रायों को उदाहृत करने के लिये, भले ही किया जा सकता था जैसा यहाँ पर कुछ अंशों में किया गया भी पाया जाता है, किंतु इस प्रेमगाथात्मक रचना की आधार कृति का पता लगाते समय भी, उन पर विशेष ध्यान देना कदाचित् निरर्थक तक भी कहला सकता है।
कुतुबनकृत मृगावती की कथावस्तु के साथ किसी न किसी रूप में साम्य रखनेवाली कथाओं पर आधारित प्रेमगाथात्मक रचनाओं की भी एक से अधिक परंपराएं हो सकती हैं जिनके अनुसार लिखी गई प्रायः सभी कृतियों का विवेचन करना यहाँ पर न केवल उपयुक्त प्रत्युत कुछ दृष्टियों से अभीष्ट वा अनिवार्यत तक भी समझा जा सकता है। अतएव, इन तीनों ही संस्करणों के अंतर्गत, वैसी कई प्रेमगाथाओं का भी नामोल्लेख किया गया मिलता है तथा कहीं कहीं पर उनमें से कुछ के साथ इसके कथानक आदि का एक तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया गया पाया जाता है। परंतु इस प्रकार की रचनाओं में से बहुत सी इसकी परवर्ती भी जान पड़ती हैं जिस कारण, इसके मूलस्रोत का निर्धारण करते समय, उनसे हमें उतनी सहायता नहीं मिलती तथा, इसके साथ ही, हमारे सामने यह प्रश्न भी उठ जाता है कि उनके द्वारा सूचित होने वाली उपर्युक्त परंपराओंमें से किसे सर्वाधिक प्राचीन माना जाय तथा जिस परंपरा विशेष का अनुसरण इस कृति के अंतर्गत किया गया जान पड़ता है उस वर्ग में इसे कहाँ तक मौलिक ठहराने का श्रेय भी दिया जाय। इसके सिवाय, ऐसे प्रश्नों पर विचार करते समय, हमारा ध्यान एक अन्य बात की ओर भी जा सकता है जो इसके नायक-नायिकादि वाले नामों अथवा इसके कतिपय प्रसंगों से कुछ न कुछ भिन्न दीख पड़ने वाले विषयों के कारण, उठाई जा सकती है, क्योंकि, यह बहुत संभव है कि, कई वैसी प्रेमगाथाओं में, नामसाम्य का बाहुल्य न रहते हुए भी, उनकी बहुत सी घटनाएँ ही एक समान कहला सकती हों अथवा इसके विपरीत, नामसाम्य के होते हुए भी, उनमें वर्णित घटनाओं में बहुत सी भिन्नता दीख पड़ने लगे। स्वयं कुतुबन के कथनानुसार हमें ऐसा लगा है कि उसकी इस रचना की कथावस्तु पहले कभी ‘हिंदुई’ में रही होगी जिसके अनंतर फिर इसे ‘तुरकी’ में भी ‘कह दिया गया’ होगा और, अंत में, उसके मर्म का उद्घाटन करते हुए, उस कवि ने उसे वर्तमान रूप दे दिया होगा। किंतु इस रचना द्वारा उसके उक्त कथन का यथेष्ट स्पष्टीकरण होता कहीं नहीं दीख पड़ता और न यही समझ पड़ता है कि उनमें से किसके कितने अंश को उस कवि ने अपनाया होगा अथवा कहाँ तक इसमें नवीन बातों का समावेश कर दिया होगा। प्रयाग संस्करण के अंतर्गत इस बातकी ओर पूरा ध्यान दिया गया नहीं दीख पड़ता तथा वाराणसी संस्करण में भी, इसकी कुछ चर्चा परंपरागत कथा रूढ़ियों या अभिप्रायदि पर विचार करते समय, विस्तार के साथ की गई कहीं जा सकती है जो इस संबंध में यथेष्ट नहीं कहला सकता, यद्यपि इसके द्वारा कतिपय अन्य प्रासंगित प्रश्नों पर प्रकाश अवश्य पड़ जाता है। आगरेवाले संस्करण के अंतर्गत इस विषय पर विचार करते समय, कहीं अधिक सावधानी से काम लिया गया प्रतीत होता है। विभिन्न कथानकों की पारस्परिक तुलना के सहारे तथा कतिपय उपर्युक्त उद्धरणों के संदर्भ मंह भी, इस ओर यहाँ, एक अच्छा प्रयास किया गया है और यहाँ पर किए गए एकाध संकेतों का सूत्र पकड़ कर उसे आगे भी बढ़ाया जा सकता है। उदाहरण के लिये मुल्ला दाऊद की ‘चंदायन’ में वाजिर द्वारा पाए गए गीत (गीति चंदरावलि) को ध्यान में रखते हे, तथा बंगला कवि द्विज पशुपति की रचना चंद्रावलि का आधार लेकर कथासाम्य के सहारे कुछ काम करने की ओर, यहाँ पर एक दिशा निर्देश मिल जाता है जो कम उल्लेखनीय नहीं कहला सकता।
कुतुबन कृत मृगावती वाली कथावस्तु का परिचय, इसके वर्तमान पाठों के उपलब्ध होने के पूर्व, केवल थोड़े में ही दे दिया जाता रहा और वह नागरी-प्रचारिणी सभा (काशी) की सन् 1900 ई. वाली ‘खोज रिपोर्ट’ पर आधारित रहा। परंतु इन तीनों संस्करणों के अंतर्गत, उसका सार, अपनी अपनी आदर्श हस्तलिखित प्रतियों के अनुसार, दिया गया पाया जाता है तथा, जैसा हम इसके पहले भी कह आए हैं, इसके साथ कभी कभी कुछ अन्य इस प्रकार की रचनाओं के कथानकों के सारांश भी यहाँ पर उसकी तुलना के लिये, दे दिए गए दीख पड़ते हैं। तद्नुसार, प्रयाग एवं वाराणसी वाले संस्करणों में, जहाँ केवल इसकी कथा मात्र का ही परिचय दे देने की चेष्टा की गई हैं जो कहीं कहीं परस्पर भिन्न जान पड़ती है वहाँ आगरावाले में इसे, उतने ही तक सीमित न रखते हुए, वस्तुतः ग्रंथ के पूरे वर्ण्य विषय का सार दे दिया गया है जो यहाँ पर, ‘कथासार’ मात्र की दृष्टि से, उतना उचित या आवश्यक नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार, उक्त प्रथम दो सस्करणों में, जहाँ इस रचना के भीतर आगई अंतर्कथाओं की भी चर्चा की गई मिलती हैं तथा वाराणसी वाले में उसे कुछ विस्तार तक भी दे दिया गया दीख पड़ता है वहाँ आगरा वाले संस्करण में उसकी ओर कोई विशेष ध्यान दिया गया नहीं पाया जाता और न यहाँ पर उन ‘देश काल’ एवं ‘पात्र’ अथवा ‘जीवनचरित्र’ एवं ‘भौगोलिक परिचय’ जैसे विषयों का ही समावेश किया गया मिलता है जिनका यहाँ अनावश्यक होना भी नहीं जान पड़ता। हाँ, जहाँ तक इस रचना के निर्माण संबंधी ‘उद्देश्य’ अतवा इसके ‘संदेश’ की भी बात कही जा सकती हैं, आगरावाले संस्करण में, इसके संबंध में अधिक विस्तार के साथ, विवेचन किया गया है जो विचारणीय है। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रयाग संस्करण जहाँ ऐसे उद्देश्य का ‘जोग साधना’ के द्वारा प्रेमप्रीप्ति की ‘व्यंजना’ मात्र होना कहा गया है तथा, वाराणसी संस्करण में इसे ही, ‘रसभरी’ बातों के माध्यम से कुछ रहस्य भरी बातों का कहा जाना बतलाया गया है वहाँ आगरा वाले संस्करण के अंतर्गत, इस रचना के ‘संदेश’ के रूप में, ‘अमरत्व लाभ के लिए मरणमार्ग का उपदेश’ जैसे वाक्यांश की क विस्तृत व्याख्या की गई है तथा उसके साथ ही संसार का उपभोग करते हुए, ‘धरम’ (अर्थात् उपकार) करने एवं ‘सृष्टिकर्ता का चिंतन करने का उपदेश’ जैसी बात की ओर एक संकेत भी कर दिया गया है। वास्तव में, सूफी कवि कुतुबन की इस रचना के अंतर्गत, उक्त सभी कथन यत्र तत्र, केवल प्रसंगवश किए गए भी, हो सकते हैं, किंतु इनका महत्व, इसी कारण,क्रम नहीं हो जाता और न उक्त प्रकार की विविध कल्पनाओं को हम सहसा असंगत ही ठहरा सकते हैं।
उपर्युक्त वर्ण्य विषयों के अतिरिक्त एकाध अन्य ऐसे प्रसंग भी इन संस्करणों के आ गए हैं जिनके शीर्षक सभी के अंतर्गत ठीक एक समान नहीं पाए जाते तथा जिन्हें इस दृष्टि से विशिष्ट कह डालने तक की प्रवृत्ति हो सकती है। उदाहरण के लिये प्रयाग संस्करण में इस प्रकार एक विषय ‘विरह की रहस्यानुभूति’ नाम से आया है तथा एक अन्य भी वहाँ पर ‘कहानी तत्व का निरूपण’ जैसे नाम के साथ पाया जाता है जिनका अन्य दोनों संस्करणों में कही अस्तित्व नहीं जान पड़ता। परंतु, यदि ध्यानपूर्वक देखा जा सके तो, इनमें से पहले का एक विवेचन आगरा संस्करण के अंतर्गत ‘रचना का संदेश’ शीर्षक द्वारा कर दिया दीख पड़ेगा। जिसकी चर्चा हम इसके पूर्व भी कर आए हैं तथा दूसरा, कुछ अधूरा सा होने के कारण, उतना महत्व भी नहीं रखता। इसी प्रकार वाराणसी एवं आगरा के संस्करणों में भी, रचना के स्वरूप तथा इसके नाम पर विचार करने के उद्देश्य से, तत्संबंधित शीर्षकों का समावेश किया गया दीख पड़ता है जिसका पता प्रयाग-संस्करण में नहीं चलता। इनमें से प्रथम के विषय में चर्चा करते हुए, उक्त दोनों ही संस्करणों के अंतर्गत, मृगावती को सर्वोशतः भारतीय अथवा पूर्ण रूप से भारतीय जैसा कहा गया है, किंतु वहाँ तक नाम के संबंध में कहा जा सकता है, वाराणसीवाले संस्करण में इसे ‘सीधे सादे ढंग पर’ ‘मिरगावती’ रूप में अधिक समीचीन समझा गया है जहाँ आगरा संस्करण में इस मिरगावती रूप मे ‘स्वीकार’ कर लिया गया है। आगरावाले संस्करण की क विशिष्टता इस बात में भी लक्षित होती है कि यहाँ पर मूल रचना की विभिन्न प्रतियों के पाठों पर समीक्षात्मक विचार करते समय, कई बातें कुछ अधिक विस्तार के साथ और व्यवस्थित ढंग से भी कही गई जान पड़ती है और यहाँ वैसे कुछ शीर्षक भी पाए जाते हैं।
कुतुबन कृत मृगावती की भाषा शैली की चर्चा करते समय, तीनों ही संस्करणों में यह प्रश्न हल करने की चेष्टा की गई दीखती है कि उसे कौन सा एक नाम देना अधिक उपर्युक्त हो सकता है। इस संबंध में, प्रयाग संस्करण के अंतर्गत, उसके स्वरूप को ‘लौकिक या बोलचाल की भाषा का सा’ बतलाकर उसे उस कालवाली ‘जनता की भाषा’ (अवधी) भी कह दिया गया जान पड़ता है जिसे संपादक के अनुसार, स्वयं कुतुबन ने भी ‘षट्भाषा’ या मिश्रित भाषा जैसा नाम दिया है। इसी प्रकार वाराणसी संस्करण में भी, तद्विषयक प्रश्न उठाते समय, उसे ‘देश भाषा’ जैसा नाम देना ही उचित समझा गया है तथा इस विचार से, उसी का बदायूनी द्वारा प्रयुक्त ‘हिंदवी नाम’ का भी उल्लेख किया गया है। वास्तव में इस संस्करण वाले संपादक को इस प्रकार की भाषा का ‘अवधी के रूपमें प्रादेशिक भाषा’ जैसे किसी नाम द्वारा अभिहित किया जाना निराधार दुराग्रह के अतिरिक्त कुछ नहीं कहा जा सकता जिसके समर्थन में यहाँ पर कई बातें भी बतलाई गई हैं। इसके विपरीत आगरा संस्करण में इस रचना की भाषा को ‘अवधी है और किंचित् पुरानी अवधी है’ जैसा कहा गया मिलता है तथा इसके अतिरिक्त यहाँ पर भी बतला दिया गया है कि चौपाइयों की भाषा तत्कालीन बोलचाल की ‘अवधी है और दोहों की भाषा सर्वत्र तो नहीं, किंतु प्रायः साहित्यिक अवधी है जिसमें उत्तरकालीन अपभ्रंश की छाया देखी जा सकती है।’ इस तीसरे संस्करण के संपादक ने भी अपने इस मत को पुष्टि में इस रचना के ही दो दर्जन दोहे उद्धृत किए हैं, ‘कुतुबशतक’ वाली ‘हिंदुई’ का हवाला दिया है तथा फिर भी उसमें इस पर अपना अंतिम शब्द नहीं कहा है जैसा, इसके लिये कुछ प्रतीक्षा करने से भी प्रतीत होता है। द्वितीय एवं तृतीय संस्करणों के अंतर्गत इस रचना की लिपि एवं भाषा का अन्यत्र कुछ विस्तृत विवेचन किया गया मिलता है जो अधिकतर उक्त दोनों संपादकों के बीच पाए जानेवाले पारस्परिक मतभेदों की ही ओर संकेत करता है। वाराणसी संस्करण में पूरी दृढ़ता के साथ कहा गया दीख पड़ता है, ‘मानना होगा कि इन काव्यों की मूल प्रतियाँ फारसी लिपि में लिखी गई थीं और इस कारण फारसी प्रतियों कोनागरी-कैथी प्रतियों की अपेक्षा प्रामाणिक स्वीकार करना होगा तथा इस बात को यहाँ पर स्वीकार भी कर लिया गया है कि मिरगावती का प्रस्तुत संस्करण भी चंदायन की तरह ही फारसी प्रतियों पर आधारित है। परंतु आगारवाले संस्करण में बतलाया गया है कि जो भूलें हमें लिपि के कारण प्रकट होती जान पड़ती है उनसे ‘इस परिणाम की पुष्टि होती है कि दोनों परंपराओं का मूलादर्श नागरी में था’ तथा इस प्रसंग में इतना और भी स्पष्ट शब्दों में कह दिया गया है कि वे (साक्ष्य) पर्याप्त रूप में दृढ़ हैं, साथ ही वे इस संभावना की ओर भी संकेत करते हैं कि उक्त मूलादर्श कवि लिखित था और इसी प्रकार ‘रचना के समस्त व्याकरणरूप निस्संदेह नहीं आ सके हैं, किंतु जितने भी आते हैं वे अवधी के हैं जिसके द्वारा यहाँ पर भई अपने मत के विषय में पूर्ण आत्मविश्वास के ही साथ कहा गया जान पड़ता है, परंतु मूल प्रश्न तो यह है कि, जिन उपलब्ध प्रतियों के सहारे हम अपने ऐसे उद्गार प्रकट करते जा रहे हैं वे क्या हमारे सामने सचमुच अंतिम रूप में वास्तविक या प्रामाणिक पाठों के उदाहरण उपस्थित करती हैं? और यदि नहीं तो हमारे लिये अपने विचारों को इतने स्पष्ट शब्दों में व्यक्त करने का निर्भ्रान्त आधार ही क्या हो सकता है? जहाँ तक प्रस्तुत रचना के रचयिता तथा इसके निर्माण काल का प्रश्न है इस विषय में तीनों ही संस्करणों के अंतर्गत, किसी न किसी अंतिम तथ्य पर पहुँचने का प्रयास किया गया जान पड़ता है तथा इस संबंध में उतना अधिक मतभेद भी नहीं है। परंतु प्रत्येक में पाई जानेवाली इस प्रसंग की बातों की कथन शैली में कुछ न कुछ अंतर आ गया सा भी जान पड़ता है। उदाहरण के लिये प्रयाग संस्करण में इसके रचयिता का कालनिर्णय करते समय, उसके पीर शेख बुरहान के आधार पर ठीक प्रमाण न मिल सकने के कारण केवल शाहे वक्त हुसेन शाह शर्की के शासनकालानुसार, अनुमान किया गया है तथा इस प्रकार उसे कभी सन् 1503-4 के भीतर, निश्चित किया गया प्रतीत होता है। परंतु वाराणसी संस्करण के अंतर्गत इस रचना के आरंभ का होना, 29 जून सन् 1503 ई. में तथा इसके अंत का 7 सितंबर सन् 1503 ई. को होना तक भी स्पष्ट रूप में कह दिया गया है तथा इसे कुतुबन के पीर उक्त शेखबुरहान (अथवा इसके अनुसार शेख बढ़न) के आधार पर निश्चित न करके हुसेन शाह शर्की के अंतिम काल को ध्यान में रखते हुए ठहराया गया है। इसी प्रकार आगरा वाले संस्करण में भी इस दूसरे मत को ही स्वीकार कर लिया गया दीख पड़ता है यहाँ पर कुतुबन के पीर को ‘बुढन’ के नाम से अभिहित किया गया है तथा उसके ‘बुधन’ तक होने का अनुमान किया गया है और यहाँ पर उस ‘अमांतमास गणना-प्रणाली’ के उन दिनों उत्तरी भारत में प्रचलित होने के विषय में किसी प्रमाण के अभाव की ओर भी संकेत किया गया है जिसे वाराणसी संस्करण ने सुझाया था। इस संबंध में इतना और भी उल्लेखनी है कि पिछले दो संस्करणों के अंतर्गत रचनाकाल की चर्चा कुछ अधिक विस्तार के साथ की जाने का कारण, संभवतः इनके द्वारा बीकानेर प्रति वाले उस पाठ को स्वीकार कर लेना हो सकता है जिसमें ‘सं. 1560’ एवं ‘भादो बदी 6’ आदि के विषय में भी चर्चा की गई मिलती है, किंतु जिसके ‘संर्वथा ग्राह्य’ न होने का अनुमान तक पहले संस्करण में किया जा चुका था। वाराणसी वाले संस्करण में कुतुबन की कब्र के ‘कुतुबन की मजार’ के रूप में, वाराणसी के ‘कुतुबन शहीद’ नामक मुहल्ले में पाए जाने तक का भी अनुमान किया गया है।
कुतुबन कृत मृगावती के विषय में, इन तीनों संस्करणों के अंतर्गत कुछ न कुछ बातें प्रशंसात्मक रूप में भी, कही गई दीख पड़ती है, किंतु इस प्रकार के उद्गार भी ठीक एक ही ढंग से प्रकट किए गए नहीं पाए जाते। इतना अवश्य है कि इनमें प्रायः सब कहीं उस कवि की सर्वथा ‘भारतीय’ बातों को अपनाएँ तथा उन्हें महत्व प्रदान करने की ही प्रवृत्ति देखी जाती है, किंतु उसका उल्लेख अपने अपने ढंग से किया गया है तथा तदनुसार ही उसकी विशेषताओं पर न्यूनाधिक बल भी दिया गया है। उदाहरण के लिये प्रयाग-संस्करण में कुतुबन के द्वारा दिए गए ‘अखंड भारतीयता के परिचय’ की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा गया है कि उसमें यहाँ पर ‘संतान प्रेम’ ‘काल की प्रबलता’ और ‘ईश्वर पर विश्वास’, ‘परपीड़न और परोपकार’, ‘नारी का स्वरूप’ तथा ‘लोकिक आचार व्यवहार का समावेश’ जैसे प्रमुख विषय भारतीय मान्यताओं के अनुकूल, वर्णित किए हैं तथा इस प्रकार वाले प्रसंगों को उद्धृत करते हे अपने कथन का यहाँ पर समर्थन भी किया गया है। अन्य दो संस्करणों के अंतर्गत इस बात को विशेषकर इस रचना के काव्यरूप के तत्वतः भारतीय होने की चर्चा करके ही बतलाया गया है जिसका उल्लेख इसके पहले किया जा चुका है तथा ऐसे विचारों को यहाँ पर कहीं-कहीं प्रासंगिक रूप में भी कर दिया गया दीखता है। इसके सिवाय वाराणसी वाले संस्करण में इस प्रकार की कतिपय विशेषताओं को इस रचना पर पड़े हुए कुछ पूर्ववर्ती प्रभावों तथा इसके द्वारा प्रभावित परवर्ती ग्रंथों के विषय में स्मरण दिलाकर भी हमें सूचित किया गया है। यहाँ पर इस संबंध में इस कवि द्वारा अपनाए गए ‘बारह मासा’ जैसे प्रासंगिक विषयों तथा ‘सौंदर्यवर्णन’ आदि विषयक रचना-शैलियों के उल्लेख, संस्कृत एवं अपभ्रंश साहित्यों की ओर हमारा ध्यान दिलाते हुए दिए गए हैं तथा इसी संबंध में मौलाना दाऊद के प्रति इस कवि के कुछ दूर तक ऋणी होने की चर्चा भी कर दी गई है। परवर्ती साहित्य के ऊपर पड़े हुए इस रचना के प्रभावों का प्रश्न उठाते समय मेघराज प्रधान की ‘मृगावती कथा’ तथा द्विज पशुपति कवि की ‘चंद्रावली’ की चर्चा यहाँ पर कुछ विशेष रूप से की गई जान पड़ती है, किंतु उनके पारस्परिक संबंध आदि की ओर भी हमारा ध्यान आकृष्ट नहीं किया गया है, किंतु उनके पारस्परिक संबंध आदि की ओर भी हमारा वाले संस्करण में दिया गया दीख पड़ता है जहाँ पर कुतुबनकृत मृगावती की मौलिकता पर भी निर्णय किया गया पाया जाता है तथा जहाँ पर इतना और भी बतला दिया गया है कि मेघराज प्रधान ‘मृगावती’ तथा द्विज पशुपति की ‘चंद्रावलि’ और कुतुबनकृत मृगावती में से कोई भी रचना किसी अन्य पर आधृत नहीं है बल्कि तीनों ही स्वतंत्र रूप से एक प्राचीनतर कृति पर आधृत है तथा इससे संबंधित कथाभेदों और विस्तारों पर यहाँ पर संक्षेप में विचार किया गया भी पाया जाता है। इस तीसरे संस्करण के अनुसार कुतुबन ने अपनी इस रचना को न केवल मात्र लोकरंजन के लिये प्रस्तुत किया है अपितु इसके द्वारा उसने अपना एक निश्चित जीवनदर्शन भी देने के उद्देश्य से, किसी पूर्व प्रचलित प्रेमगाथा को एक ‘नव अवतार’ और ‘नवकाया’ भी प्रदान कर दी है। निष्कर्ष यह कि, जहाँ तक इस ‘भूमिका भाग’ वाले अंश का एक संक्षिप्त पर्यालोचन कर लेने पर पता चलता है, इन तीनों ही संस्कऱणों के अंतर्गत, अपने समय तक उपलब्ध सामग्री के आधार पर अपने अपने ढंग से विचार करने तथा तदनुसार कुछ न कुछ परिणाम निकालने की न्यूनाधिक चेष्टा की गई पाई जाती है। यह दूसरी बात है कि किसी में प्रसंगवश कतिपय अनावश्यक बातों का भी समावेश कर लिया गया हो अथवा कहीं कहीं पर, किसी विषय की चर्चा करते समय, उसे कुछ अनुपयुक्त और असंगत विस्तार भी कर दिया गया हो। इसमें संदेङ नहीं कि अभी तक हमें इस विषय से संबंधित सामग्री यथेष्ट मात्रा में नहीं मिल पाई है और यह अधिक संभव भी है कि वैसा हो जाने पर, यहाँ पर किए गए कई कथनों में कुछ परिवर्तन भी करने पड़े, किंतु इतना प्रायः निश्चित सा है कि विषय की एक साधारण रूपरेखा हमारे सामने अवश्य आ गई है और जैसा, एकाध ऊपर वाले स्थलों पर किए गए कुछ संकेंतों से भी पता चलता है, इस रनचा को हमारे सामने प्रकाशित रूप में रखते समय, क्रमशः अधिक से अधिक सजगता बर्तने के प्रयत्न भी लक्षित होते हैं। अतएव, यह संभव है कि, आगे किसी दिन हम इसके विषय में अपने मतों को प्रकट करते समय और भी अधिक दृढ़ता से काम लेने लग जाँय तथा हमारे इस प्रकार के कई कथन उतने आवेशमूलक मात्र न रह जायँ जितने वे अभी तक जान पड़ रहे हैं।
प्रति एवं मूल पाठ-भाग
‘उपलब्ध प्रतियाँ’ वाले ‘भूमिका भाग’ के अंश पर विचार करते समय हम देखते हैं कि इन तीनों स्सकरणों से अंतर्गत न तो आज तक पाई गई सभी प्रतियों की एक समान चर्चा की गई और न उनका सर्वत्र एक ही प्रकार से, क्रमानुसार परिचय ही दिया गया मिलता है, प्रयाग संस्करण में, सर्वप्रथम, उस हस्तलिखित प्रति का उल्लेख किया गया है जिसका पता, ‘नागरीप्रचारिणी सभा’ (काशी) वाली सन् 1900 ई. की ‘खोज रिपोर्ट’ द्वारा चला था तथा इसके अनंतर क्रमशः (1) चौखंबा वाली प्रति (2) मारत कलाभवन (बनारस) की प्रति (3) अनूपसंस्कृत पुस्तकालय (बीकानेर) की प्रति (4) मनेरशरीफ (पटना) की प्रति एवं (5) एकडला की प्रति का परिचय दिया गया है। इनमें से (1) वाली वास्तव में वही प्रति है जिसकी सूचना हमें, ‘सभा’ वाली उक्त रिपोर्ट द्वारा मिली थी तथा जो किसी प्रकार अपने स्थान से खो गई थी और इसी प्रकार, इसकी (2) संख्यक प्रति भी केवल 7 पत्रों की ही होने के कारण, उतनी महत्वपूर्ण भी नहीं समझी जा सकती। इसके अतिरिक्त (3) वाली बीकानेर की प्रति के विषय में कहा गया है कि इसके अंतर्गत, उक्त दोनों अर्थात् (1) एवं (2) के ही पाठ उपलब्ध है और इस प्रकार उन तीनों को हम सुविधानुसार किसी एक वर्ग में भी रख सकते हैं। परंतु (4) वाली ‘मनेरशरीफ की प्रति’ जिसे, ‘नूरकचंदा’ की किसी खंडित प्रति के अवशिष्ट अंश वाले 144 वें से 177 वें पत्र तक, हाशिये पर फारसी लिपि में, लिखित पाया गया है, उसके संबंध में भी हम ठीक ऐसा ही नहीं कह सकते तथा इसके सिवाय, उपर्युक्त (5) वाली एकडला की प्रति को भी हम, उसमें विभिन्न शीर्षकों के होने तथा उसकी चित्रमयता के कारण उसके अपूर्व होते हुए भी, विशेष महत्व दे सकते हैं। इस संस्करण के आदि में ही उपर्युक्त बीकानेरवाली प्रति में एक पृष्ठ तथा एकडला वाली प्रति के दो पृष्ठों के फोटो भी दे दिए गए हैं जिससे हमें उनके विषय में कुछ धारणा बन सके तथा इसके ‘भूमिका भाग’ के अंत में ‘प्रस्तुत पाठ’ नामक एक पृथक् शीर्षक के अंतर्गत उक्त प्रतियों की लिपि परंपरा, उनके पाठ-संबंध आदि का विवेचन करते हुए, कुछ अपने संपादन सिद्धांत भी निश्चित कर लिए गए हैं जो उल्लेखनीय कहे जा सकते हैं। इस संस्करण के संपादक को उस समय तक ‘मृगावती’ की केवल 390 रचनाएँ ही उपलब्ध हो सकी थीं जिन्हें, उसके अनुसार इसका अधिक से अधिक 3/4 अंश कहा जा सकता था तथा उक्त दो प्रतियों अर्थात् बीकानेर प्रति एवं एकडला वाली प्रति को भी लिपि का ठीक ठीक पढ़ा जाना सरल नहीं था और एकडला वाली के अनेक स्थल अनलिखे भी रह गए थे इस कारण इन दोनों में से भी बीकानेर प्रति को अधिक विश्वसनीय मानना पड़ा। मनेरशरीफ वाली अधूरी प्रति फारसी लिपि में उपलब्ध है और विवृति के आधार पर उसके साथ एकडला वाली प्रति के पूर्वज के भी फारसी लिपि में ही पाए जाने का अनुमान करके यहाँ इन दोनों को एक ही वर्म में रखा गया है जिस कारण कारण बीकानेर प्रति किसी एक भिन्न वर्ग की बन जाती है। ‘भारत कलाभवन’ एवं चौखंबा वाली प्रतियों के विषय में उनके अत्यंत छोटी छोटी होने के कारण वैसा विचार नहीं किया गया है।
वाराणसी-संस्करण के अंतर्गत ‘मृगावती’ की छह उपलब्ध प्रतियों के विषय में चर्चा की गई है जिनमें से क्रमशः मनेरशरीफ प्रति, एकडला प्रति, बीकानेर प्रति, काशी प्रति एवं चौखंबा प्रतियाँ वे ही हैं जिनका उल्लेख प्रयाग संस्करण में किया गया है। परंतु यहाँ पर इन पाँचों के पहले ही, एक दिल्ली प्रति का भी परिचय दे दिया गया है जो प्रयाग संस्करण के समय तक देखने को नहीं मिल सकी थी। दिल्ली वाली यह प्रति भी मनेरशरीफ प्रति की भाँति, फारसी लिपि में ही लिखि गई है तथा इसके हाशिए पर यत्र तत्र कतिपय ऐसे अंश भी दीख पड़ते हैं जो वहाँ पर, पीछे से, और कुछ भिन्न लिखावट में, जोड़ दिए गए हैं और जिनके किसी अन्य प्रति के आधार पर समझे गए पाठांतर होने का भी अनुमान किया जा सकता है तथा इसके साथ ही, इस प्रति को दो भिन्न प्रतियों की प्रतिनिधि भी कह सकते हैं। वाराणसी संस्करण के संपादक ने इसके, सोलहवीं शती के अंत अथवा सतरहवीं के आरंभ में, लिखे गए होने का भी अनुमान किया है तथा इसके विषय में इतना और भी बतलाया है कि यह हमें ‘मूल के अतिनिकट जान पड़ती है।’ इस संस्करण में, शेष उपलब्ध प्रतियों की चर्चा करते समय, उसमें पाए जाने वाले कडवकों की संख्या तथा उनके रूपों पर भी न्यानाधिक विचार किया गया है और इसके अनंतर, ‘ग्रंथ का स्वरूप’ नामक एक पृथक् शीर्षक के नीचे पूरे ग्रंथ के आकार प्रकार की कुछ कल्पना भी प्रस्तुत कर दी गई है। दिल्ली एवं बीकानेर प्रतियों के तुलनात्मक परीक्षण के पश्चात् यहाँ पर ऐसा एक निष्कर्ष भी निकाला गया है कि न केवल दिल्ली प्रति मूल के निकट है, अपितु बीकानेर प्रतिवाले काफी अंश प्रक्षिप्त भी कहे जा सकते हैं। इसके सिवाय सारी बातों की ओर ध्यान रखते हुए संपूर्ण प्रेमगाथा के अंतर्गत कुल 432 कडवकों के होने का अनुमान किया गया है, जिनमें से केवल तीन के उपलब्ध न हो सकने के कारण, 429 को इस संस्करण में स्थान दिया गया है। जहाँ तक ‘प्रति परंपरा’ के संबंध में निर्णय करने की बात है, यहाँ पर भी उस नामवाले एक पृथक् शीर्षक के नीचे इसका एक संक्षिप्त अध्ययन प्रस्तुत किया गया मिलता है जिसके अनुसार दिल्ली, मनेरशरीफ और एकडला वाली प्रतियों को एक वर्ग में रखा गया है तथा इससे भिन्न दूसरे वर्ग में, बीकानेर एवं चौखंबा वाली प्रतियों को स्थान दिया गया है, किंतु काशीवाली प्रति के विषय में कोई स्पष्ट कथन नहीं दिया गया है। यहाँ पर यह भी स्मरणीय है कि उक्त प्रथम वर्गवाली प्रतियों में नायिका के नाम जहाँ ‘रूपमति’ पाया जाता है वहाँ द्वितीय वर्ग की प्रतियाँ उसे ‘रुकमिन’ जैसे रूप में प्रकट करती दीख पड़ती हैं जिस बात की ओर भी यहाँ पर हमारा ध्यान आकृष्ट किया गया है। यह पर अंत में ‘पाठ संपादन’ ‘पाठोद्धार’ एवं ‘संपादन विधि’ जैसे शीर्षकों में कतिपय अन्य बातें भी संक्षिप्त रूप में कही गई है जो उतनी उल्लेखनीय नहीं हैं। हाँ, इस संस्करण के सर्वप्रथम पृष्ठ पर, जो बीकानेर प्रति की लिथि के संबंध में कुछ विचार कर दिया गया दीखता है वह अवश्य ध्यान देने योग्य है जहाँ पर उस प्रति के ‘किसी भी अवस्था में अठारहवीं शती के पूर्व की न होने’ का अनुमान किया गया है तथा इसके कुछ और आगे, दिल्ली प्रति के दो पृष्ठों, मनेरशरीफ प्रति के एक पृष्ठ तथा एकडला प्रति के दो पृष्ठों के फोटों भी जोड़ दिए गए हैं।
आगरा संस्करण के अंतर्गत ‘उपलब्ध प्रतियाँ’ वाले शीर्षक की बातें रचना की ‘संपादन-सामग्री’ में आ गई दीख पड़ती है। यहाँ पर इसके आरंभ में ही कह दिया गया है कि इस रचना की केवल पाँच प्रतियाँ उपलब्ध हैं जिनमें से सभी कुछ न कुछ खंडित है तथा प्रस्तुत संपादन के लिये इन पाँचों के पाठों का उपयोग किया गया है। इन पाँचों प्रतियों में से, सर्वप्रथम, उस बीकानेर प्रति का परिचय दिया गया जान पड़ता है जिसकी चर्चा दो अन्य संस्करणों में भी कई गई दीखती है तथा जिसे यहाँ पर, ‘वी.’ के संक्षिप्त संकेत द्वारा सूचित किया गया है और इसके 250-300 वर्ष पुरानी होने का अनुमान भी किया गया है। इस प्रति की पूर्वज प्रति का फारसी लिपि में रहा होना सिद्ध करने के लिये यहाँ पर कतिपय ऐसे कारण भी दिए गए हैं जिनकी संभावना हो सकती है किंतु जिस बात की ओर प्रथम दो संस्करणों में कोई ऐसा सुझाव दिया गया नहीं जान पड़ता। इसी प्रकार जहाँ तक इसके आगे वाली दूसरी प्रति के लिये कहा जा सकता है, उसे भी यहाँ पर केवल ‘स.’ के द्वारा ही अभिहित किया गया है तथा इस विषय में, इतना और भी बतलाया गया है कि न केवल वह ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ (काशी) से प्राप्त किसी मूल प्रति को प्रतिलिपि है, अपितु वैसी ही किसी एक प्रति के ‘हिंदु विश्वविद्यालय’ वाले ‘कलाभवन’ में कहीं विद्यमान होने की संभावना भी वहाँ पर सूचित की गई है। तदनंतर दिल्ली वाली प्रति का परिचय देते हुए, उसे ‘अत्यंत स्पष्टता के साथ लिखित’ कहा गया है तथा उसे केवल ‘दि.’ द्वारा निर्दिष्ट किया गया है और इसी प्रकार आगे क्रमशः मनेरशरीफ एवं एकडला वाली प्रतियों को भी केवल ‘म.’ एवं ‘ए.’ जैसे नाम दे दिए गए हैं। यहाँ पर उक्त प्रतियों के संबंध में कोई वैसी नवीन बातें दी गई नहीं जान पड़ती तथा यहाँ पर भी हमें केवल इतना ही पता चल पाता है कि प्राप्त प्रतियों में से दिल्ली वाली लगभग पूर्णतः सुरक्षित है तथा बीकानेर, मनेरशरीफ एवं सभा वाली प्रतियों को ‘अत्यधिक त्रुटित’ भी ठहराया जा सकता है और, इसी प्रकार कडला प्रति भी ‘पूर्ण रूप से विश्वास योग्य नहीं है।’
इस संस्करण के भूमिका भाग का ‘संपादनसामग्री की पाठसमीक्षा’ नामक शीर्षक, इस दृष्टि से, कहीं अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत होता है क्योंकि इसके अंतर्गत उपर्युक्त प्रतियों में उपलब्ध पाठों के ऊपर विस्तृत रूप से विचार किया गया है। तदनुसार इन सभी के पाठों की एक तुलना कर लेने के अनंतर कतिपय ऐसे निष्कर्ष भी निकाले गए हैं जो कम रोचक नहीं जान पड़ते तथा जिनके आधार पर हमारे भीतर इसके संपादक द्वारा किए गए अनेक अनुमानों में, उसके साथ सहमत होने की प्रवृत्ति आप से आप जागृत होने लग जाती है तथा हम उसके सूक्ष्म निरीक्षण की प्रशंसा किए बिना भी नहीं रह सकते। उदाहरण के लिये बीकानेर वाली प्रति के विषय में यहाँ पर कहा गया है कि इसके पाठ में वर्णित वस्तुओं और व्यक्तियों की संख्याओं को परिवर्तित कर, प्रक्षेप करने की प्रवृत्ति स्पष्ट रूप में लक्षित होती है और इस कथन के समर्थन में यहाँ पर कुछ ऐसे उद्धरण भी दिए गए हैं जिनमें ‘तिस तिस’ की जगह ‘साठि साठि’ ‘घटी एक’ की जगह ‘घटी चार,’ ‘चेरी सहस दुइ’ की जगह ‘चेरी सरस दस’, ‘सात दुइ’ की जगह ‘सातसइ’ तथा ‘एक मनुसे’ की जगह ‘दोइ मनुसे’ कर दिया गया जान पड़ता है। इसी प्रकार इस प्रति के अंतर्गत ‘नए छंद अथवा नवीन पंक्तियाँ’ जोड़कर भी प्रक्षेप करने की प्रवृत्ति देखी जाती है जिसका उदाहरण भी यहाँ पर दिया गया है। इस प्रकार की प्रवृत्ति का दिल्लीवाली प्रति में भी पाया जाना कहा गया है किंतु उसमें सके उदाहरण केवल कहीं कहीं ही मिलते हैं। हाँ, इस प्रति में एक अन्य ऐसी प्रवृत्ति, दोहों में जहाँ पर 24 मात्राएँ ही थीं वहाँ मनेरशरीफ वाली प्रति की एक ऐसी प्रवृत्ति ‘छंद वृद्धि के रूप में पाठ वृद्धि’ कर देने की पाई जाती है जिस कारण अनेक स्थलों पर ‘पूर्ववर्ती छंद में आए हुए प्रसंग का एक अनावश्यक विस्तार मात्र प्रस्तुत’ हो जाया करता है। परंतु इस प्रकार की बातें हम एकडला वाली प्रति के संबंध में भी, नहीं कह सकते और हमारा ध्यान उसमें पाए जाने वाले केवल उन त्रुटित अंशों की ओर तक ही सीमित रह जाता है जहाँ पर उसके ‘जीर्णोद्धार’ के अवसर पर कुछ ‘पाठपूर्ति’ की कर दी गई जान पड़ती है। इस ‘पाठ समीक्षा’ वाले शीर्षक के अंतर्गत अंत में कुछ ऐसे विशिष्ट पाठों के उद्धरण दिए गए हैं जिनके आधार पर उक्त विभिन्न प्रतियों के बीच पाए जानेवाले किसी संकीर्ण संबंध का भी अनुमान किया जा सकता है तथा इस बात का स्पष्टीकरण, यहाँ पर ‘संपादन सिद्धांत’ नामक अगले शीर्षक के नीचे, किया गया है जहाँ पर दि., म. तथा ए. में निश्चित संकीर्ण संबंध ठहराया गया है तथा इसी प्रकार इसके कुछ अंशों तक ए. एवं स. के बीच, होने की भी संभावना की ओर संकेत किया गया है और तदनंतर ऐसे पाठ संबंध के आधार पर कुछ संपादन सिद्धांत भी स्थिर कर दिए गए हैं।
जहाँ तक मूल रचना की लिपि के विषय में अनुमान किया जा सकता है, अथवा इस दृष्टि से, विविध उपलब्ध प्रतियों का कोई अध्ययन प्रस्तुत किया जा सकता है, प्रयाग संस्करण के अंतर्गत इस पर अधिकतर द्वितीय दृष्टिकोण से ही विचार किया गया जान पड़ता है। यहाँ पर सर्वप्रथम, एकडला एवं बीकानेर वाली प्रतियों में पाए जानेवाले प्रमुख दोषों का विवेचन किया गया है तथा फिर इसी प्रकार मनेरशरीफ वाली प्रति एवं चौखंबा वाली प्रति पर भी, पृथक् पृथक् दृष्टि डाली गई है और तदनंदर यह परिणाम निकाला गया है कि एकडला वाली प्रति का पूर्वज हस्तलेख फारसी लिपि में ही रहा होगा तथा उसका कैथी लिपि में तैयार किया गया पाठ प्रस्तुत करते समय भी कोई सावधानी नहीं वर्ती गई होगी जिस कारण इसमें पाई जानेवाली विकृतियाँ प्रायः उसी के अनुसार दीख पड़ती हैं। इसके विपरीत बीकानेर प्रति में अपेक्षाकृत अधिक सावधानी की जाने के कारण वहाँ पर उतने दोष नहीं आ पाए हैं। अतएव, इस संस्करण में बीकानेर प्रति का ही वस्तुतः ‘मूल के अधिक निकट’ होने का अनुमान भी किया गया है। परंतु वाराणसी संस्करण के अंतर्गत केवल इतने मात्र तक ही कथन करके विरत हो जाना कदाचित् यथेष्ट नहीं समझा गया है, प्रत्युत इसके ऊपर बहुत व्यापक ढंग से प्रकाश डालने के प्रयत्न में आगरा संस्करण वाले संपादक द्वारा कहीं अन्यत्र प्रकट किए गए इस प्रकार के विवेचनों की थोड़ी बहुत समीक्षा भी कर दी गई है जिस कारण यह प्रश्न यहाँ पर कुछ न कुछ गंभीर रूप भी ग्रहण कर लेता प्रतीत होता है। यहाँ पर इस मत के प्रतिपादन की चेष्टा कई प्रमाणों के आधार पर की गई दीख पड़ती है और कहा गया है कि कैथी लिपि में लिखी किसी ग्रंथ की कोई भी प्रति 17वीं शती के पूर्व की नहीं मिती जिससे स्पष्ट है कि उसका प्रचलन 17वीं के पूर्व नहीं रहा होगा, प्रत्युत उसके पहले संभवतः नागरी लिपि मात्र ही रहीं होगी। उधर उपलब्ध प्रतियों में आई हुई अनेक भूलों पर ध्यान पूर्वक विचार कर लेने पर आगरा संस्करण में कहा गया है कि उक्त प्रतियों में बीकानेर, एकडला एवं सभा वाली प्रतियाँ ‘नागरी लिपि’ में रही होगी तथा इस प्रकार यहाँ पर किसी प्रति के कैथी जैसी लिपि में होने का प्रश्न ही निराधार बन जाता है, परंतु जिन प्रतियों के कुछ फोटो उक्त प्रयाग एवं वाराणसी संस्करणों में दिए गए दीख पड़ते हैं उनमें से कम से कम एकडला वाली प्रति के पृष्ठों में हमें अधिकांश कैथी लिपि ही देखने को मिलती है और यह भी विशेषकर वहाँ पर जो प्रयाग वाले संस्करण के अंतर्गत छापे गए दीख पड़ते हैं।
मूल पाठ को देते समय तीनों संस्करणों के अंतर्गत सर्वत्र एक ही प्रकार से कार्य किया गया नहीं दीख पड़ता। प्रयाग वाले संस्करण में सर्वप्रथम कड़वकों के ऊपर विभिन्न शीर्षक दे गए पाए जाते हैं और उनमें से प्रत्येक के नीचे इनमें से कई आ जाते हैं परंतु, वाराणसी अथवा आगरा वाले संस्करणों में इस प्रकार किया गया किसी शीर्षक का प्रयोग नहीं पाया जाता। प्रयाग संस्करण वाले शीर्षक अधिकतर एकडला वाली प्रति अथवा कहीं कहीं बीकानेर वाली प्रति के भी अनुकरण में दिए गए जान पड़ते हैं और उन सभी के रूप सर्वत्र एक ही समान भी नहीं है। कहीं कहीं तो ये विभिन्न विषयों को सूचित करते हैं और अन्यत्र ये उन खंडों या भागों को ही निर्दिष्ट करते जान पड़ते हैं जिनमें इस रचना का विभाजन भी किया जा सकता है। यहाँ पर ऐसे शीर्षकों के नीचे आनेवाले कडवकों की भी संख्या स्वभावतः एक सी नहीं पाई जाती और यह वर्ण्य विषयों के विस्तार पर, निर्भर रहा करती है तथा इसे यहाँ पर तदनुसार निर्दिष्ट न करके 1 से लेकर 390 तक दिखलाया गया है। वाराणसी-संस्करण में किसी प्रकार का भी शीर्षक नहीं पाया जाता और कड़वकों की संख्या भी 432 तक पहुँच गई पाई जाती है जहाँ आगरा वाले संस्करण में, एक ओर पूरी रचना को 26 खंडों में विभक्त प्रदर्शित किया गया है, वहाँ दूसरी ओर इसमें कड़वक भी केवल 427 ही आए हैं। प्रयाग संस्करण में पाठांतर वाले अंश को पाद टिप्पणी के रूप में दिया गया है जहाँ पर कहीं-कहीं आवश्यक बातों का उल्लेख ‘नोट’ के द्वारा भी कर दिया गया पाया जाता है, किंतु वाराणसी एवं आगरा संस्करणों में पाठांतर को सर्वत्र प्रत्येक कड़वक के साथ ही स्थान दिया गया दीखता है और उसके अतिरिक्त वहाँ पर या तो कोई न कोई ‘टिप्पणी’ अतवा कोई संदर्भ भी आ गया है जिसके द्वारा मूल पाठ का भाव समझ पाने में विशेष कठिनाई का अनुभव न किया जा सके। आगरा संस्करण के अंतर्गत तो, इसके साथ ही, प्रत्येक कड़वक का अर्थ तक भी दे दिया गया है। जहाँ तक ‘नोट’ अथवा किसी कथन विशेष के संबध में कहा जा सकता है इसका प्रयोग इन दोनों संस्करणों में भी पाद टिप्पणी के ही रूप में किया गया पाया जाता है तथा आगरा संस्करण में कहीं कहीं किसी शीर्षकविशेष का उल्लेख भी मिल जाता है। वाराणसी संस्करण की यह एक विशेषता है कि इसके अंतर्गत मूल पाठ के देने के पूर्व ‘कडवक सूची’ जैसे एक शीर्षक में, उपलब्ध कड़वकों का एक विषयानुसार विभाजन करके उन्हें पृथक् रूप में दिखला दिया है। आगरे वाले संस्करण में यह अन्यत्र, ‘रचना का कथासार’ नाम से, खंडशः विभाजन करके कुछ विस्तार के साथ दिया गया मिलता है, किंतु इन दोनों में कथिक विषय ठीक एक ही प्रकार निर्धारित किए गए नहीं पाए जाते। एक ही सा शीर्षक रहने पर भी उनके विवरण दोनों जगह ठीक एक से नहीं पाए जाते- कडवकों में कमीबेशी आ गई पाई जाती है। वाराणसी संस्करण में प्रत्येक कडवक के ऊपर उन प्रतियों का नाम निर्देश भी कर दिया गया है जहाँ से वे लिए गए हैं।
उपर्युक्त परिचयात्मक विवरण की एक संक्षिप्त रूप रेखा से भी यह स्पष्ट है कि कुतुबन कृत मृगावती की उपलब्ध प्रतियों में से कम से कम बीकानेर, एकडला, काशी, मनेरशरीफ और चौखंबा, सबके लिये एक ही रूप में मिलने पर भी, उनका उपयोग ठीक एक ही प्रकार किया गया नहीं जान पड़ता और इस प्रकार की भिन्नता हमें बहुत कुछ वहाँ पर भी लक्षित होती है जहाँ, वाराणसी एवं आगरा वाले दोनों स्स्करणों में दिल्ली प्रति के सामने लाए जाने पर वह संभवतः दूर की जा सकती थी। इसका प्रधान कारण कदाचित् वे संपादन सिद्धांत ही हो सकते हैं जिन्हें तीनों सस्करणों में पृथक् पृथक् अपनाया गया है तथा इसके मूल में कुछ अंशों तक अपना अपना वह दृष्टिकोण भी हो सकता है जिसके अनुसार काम किया गया होगा। इसके सिवाय, इसमें भी संदेह नहीं किया जा सकता कि किसी एक पूर्ववर्ती संस्करण की उपलब्धियों एवं भूलों से, उसके परवर्ती संस्करण का संपादन करते समय, बहुत कुछ लाभ भी उठाया गया होगा। अधिकाधिक सामग्रियों के मिलते जाने तथा उन पर यदाकदा प्रकट किए गए कतिपय अन्य व्यक्तियों के विचारों के कारण भी अपेक्षाकृत अधिक सजगत के साथ काम करने लगना बहुत स्वाभाविक हो जाता है और विशेष कर किसी अनुभवी को इससे और भी अधिक सहारा मिल सकता है, तदनुसार मह यहाँ पर देखते हैं कि प्रयाग वाले सर्वप्रथम संस्करण में उसके समय तक दिल्ली-प्रति के अनुपलब्ध रहने के कारण, रचना का अधिकांश मूल पाठ न केवल संदिग्ध सा बना रह जाता है प्रत्युत, उसमें पाए जानेवाले अनेक शब्दों का अर्थ स्प,ठ न हो पाने से उन्हें यहाँ पर एक पृथक् परिशिष्ट (1) में संगृहीत भी कर दिया जाता है तथा इसी प्रकार बहुत से अन्य शब्दों का अर्थ देते समय भी यथेष्ट सावधानी बर्ती गई नहीं जान पड़ती। यहाँ तक कि, वाराणसी वाले संस्करण में भी जहाँ अधिकांश कडवकों के नीचे उनके विशिष्ट शब्दों के अर्थ अथवा उनके कतिपय प्रसंगों के उल्लेख तक भी टिप्पणियों के द्वारा किए गए मिलते हैं, उसके अंत में एक लंबी ‘शब्द सूची’ (दे. पृष्ठ 426.76) भी जोड़ देने की आवश्यकता प्रतीत हुई है जो, यहाँ पर भी, कुछ अंशों में, अनिश्चयता ही सूचित करती हैं। परंतु, तीसरे अथवा आगरावाले संस्करण में, इस प्रकार की बातें अपेक्षाकृत अधिक निश्चयात्मक भाव से तथा कदाचित् कुछ अधिक सतर्कता के साथ भी प्रस्तुत की गई जान पड़ती है। यहाँ पर प्रत्येक कड़वक के नीचे दिया गया ‘संदर्भ’ अत्यंत संक्षिप्त पाया जाता है, किंतु जो कुछ अर्थ यहाँ पर प्रायः प्रत्येक पंक्ति के अनार दिया गया मिलता है उसमें लक्षित होनेवाले किसी प्रकार के संदेह की भावना बहुत कम काम करती जान पड़ती है। इसके सिवाय इस संस्करण के अंतिम भाग में जो ‘शब्दकोश’ जोड़ दिया गया है उसमें भी हम अनेक शब्दों की व्युत्पत्ति आदि के विषय में अनुमान किया गया पाते हैं जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि यहाँ पर विशेष दृढ़ता भी प्रदर्शित की गई पाई जाती है। ऐसा हो सकता है और यह अधिक संभव सी है कि कतिपय कड़वकों वाली पंक्तियों का अर्थ करते समय वर्तमान स्थिति में अनेक बार कोरी कल्पना को हीं प्रश्रय दिया गया हो अथवा केवल स्वच्छंदता से ही काम लिया गया हो, किंतु इस बात का अंतिम निर्णय भी यथेष्ट सामग्री एवं समुचित समीक्षा पर ही, निर्भर कहा जा सकता है। इस तीसरे संस्करण में तो हम यह भी पाते हैं कि यहाँ पर भी बहुत सी ऐसी बातों को कोई उतना महत्व ही नहीं दिया गया है जिनकी ओर न्यूनाधिक ध्यान देकर इसके पूर्वर्ती संस्करणों में मानो उनपर कुछ विचार किया गया है अथवा केवल उल्लेख मात्र करके भी, छोड़ दिया गया है। उदाहरण के लिये ‘छंदयोजना’ के विषय में, वाराणसी संस्करण के अंतर्गत कुछ विस्तार के साथ कहा गया है और इसी प्रकार कुछ अन्य लेखकों द्वारा व्यक्त किए गए विभिन्न मतों के दिग्दर्शन को भी उन संस्करणों में लगभग एक ही प्रकार से स्थान दिया गया पाया जाता है। इसके सिवाय यहाँ पर किसी आभार प्रदर्शन अथवा कृतज्ञता-ज्ञापन को भी महत्व नहीं दिया गया है जो उन दोनों में पाया जाता है।
परिशिष्ट भाग
‘प्रयाग संस्करण’ वाले परिशिष्ट भाग संबंधी विषयों की चर्चा प्रसंगवश इसके पहले ही की जा चुकी है और यह आ चुका है कि इसके अंतर्गत, यहाँ पर क्रमशः संदिग्ध अर्थोंवाले शब्दों की एक संक्षिप्त सूची, कतिपय विशिष्ट शब्दों के अर्थ एवं मृगावती के विभिन्न पहलुओं पर व्यक्त किए गए विभिन्न लेखकों के प्रकाशित लेखों जैसी बातों को ही स्थान दिया गया है। पंरतु वाराणसी संस्करण के अंतर्गत यहाँ पर सर्वप्रथम उन प्रक्षेपों की चर्चा स्थल निर्देश करते हुए की गई है जो विभिन्न उपलब्ध प्रतियों में पाए जा सकते हैं तथा इनमें कहीं कहीं पर उनके पाठांतर तक भी दे दिए गए दीख पड़ते हैं। इसी प्रकार इस संस्करण वाले द्वितीय परिशिष्ट में मृगावती वाले विभिन्न कड़वकों की एक तुलनात्मक ‘सारिणी’ भी दे दी गई है, जो बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती है। इसके सिवाय इस संस्करण की एक अन्य विशेषता इसके उस ‘वार्तिक’ नामक अंश के द्वारा भी प्रकट होती है जिसे, यहाँ पर इसके आरंभ में ही दे दिया गया है तथा जिसको भी वस्तुतः किसी परिशिष्ट के रूप में ही मान लिया जा सकता है। इस ‘वार्तिक’ वाले विषयों में से कुछ का उल्लेख हम प्रसंगवश पहले ही कर आए हैं उनमें से शेष तीन ‘वैरागर’, ‘अहुटवज’ एवं ‘पाठदोष’ शीर्षकोंवाले हैं जिनमें से अंतिम केवल छापे की कुछ अशुद्धियों की ओर ही हमारा ध्यान आकृष्ट करता है और प्रथम दो में शब्दार्थों पर विचार किया गया है। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि इस संस्करण को तैयार करते समय विशिष्ट शब्दों के संबंध में खोजपूर्ण विचार प्रकट करने की प्रवृत्ति, अन्यत्र कई स्थानों पर भी दीख पड़ती है जो अवश्य सराहनीय है। इसका एक तीसरा उदाहरण, ‘वार्तिक’ के अंत में भी द्रष्टव्य है। आगरा वाले संस्करण के परिशिष्ट भाग में दिए गए ‘शब्दकोश’ नामक अंश का उल्लेख इसके पहले किया जा चुका है। इसके रचना के ‘प्रक्षिप्त छंद और छंदांश’ शीर्षक अंश में, उन कड़वकों को पूर्णतः या अंशतः एक स्थल पर उद्धृत कर दिया गया है जिन्हें क्षेपक समझा गया है। आगरा संस्करण वाले इस अंश की तुलना यदि वाराणसी वाले संस्करण के उपर्युक्त ‘प्रक्षेप’ के साथ कते हैं तो हमें पता चलता हैं कि इन दोनों के अंतर्गत उल्लिखित छंदों या छंदाशों में बहुत कुश साम्य है। वाराणसी वाले संस्करण के जो 1, 2, 3, 4, 6 (द्वितीय अंश), 7, 8, 9, 10, 11, 12 एवं 13 संख्यक कड़वक हैं वे ही कतिपय पाठांतरों के साथ आगरा संस्करण के अंतर्गत यहाँ पर भी क्रमशः 95 (अ) 107 (अ), (108 अ एवं 108 आ), (109 अ एवं 109 आ), 202 (अ), 241 (अ), 244 (अ), 246(अ), (254 अ एवं 254 आ), 297 (अ), 273(अ) तथा (387 अ, 387 आ, 287 इ, 387 ई एवं 387 उ) वाले यत्किंचित् भिन्न भिन्न रूपों में पाए जाते हैं। अधिकांश अंतर केवल पाठ निर्धारण संबंधी मतभेद के कारण आ गए जान पड़ते हैं। स्थूल रूप में देखने पर वाराणसी संस्करण वाले 5 एवं 6 (प्रथमांश) आगार-संस्करण में यहाँ पर नहीं लक्षित होते, किंतु जहाँ तक इस दूसरे वाले 33अ एवं 308अ के लिये कहा जा सकता है,ये दोनों पहले वाले संस्करण के मूल पाठ (क्रमशः कडवक 35 एवं 313) में स्थान पाचुके दीखते हैं। आगरा वाले संस्करण के ‘संशोधन’ संज्ञक परिशिष्ट भाग में जो सुधार सूचक शब्द या वाक्यांश दिए गए पाए जाते हैं उनसे प्रकट होता है कि पुस्तक को यथासंभव अधिक से अधिक शुद्ध एवं प्रामाणिक रूप देने के उद्देश्य से इसको मुद्रित हो जाने के अनंतर भी एक बार देख जाने और सर्वत्र पूरी संगति बिठा लेने का प्रयास किया गया है। स्पष्ट है कि ऐसा किन्ही मुद्रण-संबंधी भूलों को यहाँ पर सुधारने मात्र के लिये नहीं किया गया जान पड़ता जैसा कि साधारणतः और कहीं पाया जाता है। वाराणसी एवं आगरा वाले संस्करणों के अंतर्गत किए गए प्रक्षिप्त अंशों के उपर्युक्त उल्लेखों के आधार, यह कहा जा सकता है कि उनमें पाए जानेवाले साम्य के ही समान इन दोनों के स्वीकृत मूल पाठों तथा उनके कड़वकों की संख्या में भी बहुत समानता होगी, किंतु इस दृष्टि से इनकी तुलना कर लेने पर हमें ऐसा नहीं दीख पड़ता। यदि हम इन दोनों में आए हुए कडवकों पर उनकी संख्या के अनुसार विचार करने लगते हैं और उनकी तुलना करते हैं तो पता चलता है कि वाराणसी वाले संस्करण के 36, 113, 175 तथा 313 और इसी प्रकार प्रयाग आगरा वाले संस्करण में ‘1’ की जगह ‘1-3’ जैसी संख्या दी गई दीख पड़ती है तथा उसके 262 में कड़वक और इसके 265 वें कड़वक के संभवतः एक ही होने पर भी उनके पाठों में महान अंतर आ गया पाया जाता है। यों तो अनेक शब्दों के रूप, वाक्यों के गठन एवं पंक्तियों के एकाध क्रम परिवर्तन के विचार से देखने पर हमें इस प्रकार के पाठ भेद अनेक स्थानों पर मिल सकते हैं और कदाचित् कोई भी एक कड़वक इन दोनों में ठीक एक समान न मिल सके। यहाँ पर हमें उक्त कड़वक वाली कम से कम प्रथम तीन पंक्तियों का पाठ तो एक दूसरे से नितांत भिन्न प्रतीत होता है। जैसे-
‘हँसत सखी घर पैठी आई। जानु चाँद चौदस आई।।
उदिनल चाँद नखतके जोती। मोंति माँझ जानहु गजमोती।।
सोरह कराँ जो सुरुज बखानी। महत सहस इंदरासन मानी।।
वाराणसी संस्करण’
‘आइ सखी घर कीत अँजोरा। चाँद चउद्दसि भए उन भयेरा।
घर आँगन भरि रहा अँजोंरा। दिनकर काज करहि निसि भोरा।
ससि तराइनि कै जोर न पावइ। जोरे पटतर म्रिगावतिहि आवइ।।
आगरा संस्करण’
इस संबंध में हमें पता चलता है कि, वाराणसी वाले संस्करण में, यहाँ पर, उपयुक्त पंक्तियों का चुनाव करते समय, दिल्ली वाली प्रति का आश्रय ग्रहण किया गया है जहाँ आगरावाले संस्करण में, इसके विपरीत एकडला एवं बीकानेर वाली प्रतियों को ही दिल्ली वाली की अपेक्षा अधिक शुद्ध और प्रामाणिक मानकर, उनके पाठों को अपना लिया गया है तथा सा करते समय संभवतः उनके द्वारा व्यक्त किए जानेवाले भाव की स्पष्टता एवं अर्थसंगति पर भी ध्यान रखा गया जान पड़ता है। वास्तव में ऐसा करना इस संस्करण के लिये अधिक स्वाभाविक भी रहा, क्योंकि इस कड़वकों के अर्थ के साथ भी प्रकाशित करना था जो केवल उसी दशा में कोई न्यूनाधिक सफल एवं शुद्ध रूप ग्रहण भी कर पाता।
अतएव, ‘कुतुबनकृत मृगावती’ के अब तक प्रकाशित उक्त तीनों ही संस्करणों पर एक साथ किसी तुलनात्मक ढंग से विचार कर लेने पर, हम कुछ ऐसे निष्कर्षों पर पहुँचते हैं जिनके आधार पर हमारे अभी तक इस संबंध में किए गए प्रयत्नों का एक मूल्यांकन किया जा सकता है तथा उसके प्रकाश में अपने भावी कार्यक्रम के निर्धारण में कुछ सहायता भी ली जा सकती है। पहले हम इस रचना की केवल एक रूपरेखा मात्र के विषय में ही, कुछ अनुमान कर लिया करते थे और इसकी किसी पूरी प्रति की प्रतीक्षा बनी रही। फिर इसका बहुत कुछ परिचय प्राप्त कर पाने का प्रयत्न किया। हमें तब तक ऐसा कोई अन्य साधन उपलब्ध न हो सका था जिसके बल पर इसके वास्तविक स्वरूप के संबंध में समुचित निर्णय किया जा सके अथवा जिससे कोई सहायता लेकर इसे अपने सम्यक् निरीक्षण योग्य रूप दे सकें। तदंनतर जब एक इस प्रकार का अवसर मिला तब भी हमने, सर्वप्रथम, केवल इसके वर्णन एवं बाह्यालोचन का अधिक प्रयास किया। इसे धरातल पर उतार कर तथा इसके ऊपर निकट से दृष्टि डालकर हम इसके प्रत्येक अंग की पूरी पहचान अभी नहीं कर पाए। इसका एक कारण यह भी हो सकता था कि अभी तक हमें इसमें दीख पड़नेवाली कुछ त्रुटियों का आभास भी हो रहा था जो हमें अवश्यक खल रहा था। परंतु जो कुछ मिल पाया था उसे देख भाल करके संचित कर लेने की ओर ध्यान देने की प्रवृत्ति भी हमारे भीतर क्रमशः जागृत होने लगी और तदनुसार हमने इस रचना को अधिक से अधिक स्वाभाविक रूप देकर इसे यथासंभव समझने का भी प्रयत्न किया। इस प्रकार जिस कार्य का आरंभ हमने कभी उसे केवल एक प्रारंभिक परिचय मात्र देकर किया था तथा जिसे हमने क्रमशः किसी वर्णन एवं बाह्मालोचन तक का रूप दे डाला था उसे हम आज व्याख्या एवं विवेचन में परिणत करने की ओर भी अग्रसर होते दीख पड़ रहे हैं। ऐसी दशा में यह संभव है कि यदि हमें आगे यथेष्ट सामग्री मिल सके तो एक दिन हमें उसमें पूर्ण सिद्धि भी प्राप्त हो जा सके। किसी भी ऐसी रचना के मर्म का सम्यक् उद्घाटन तबतक पूर्ण रूप से संभव नहीं जब तक हमें उसके प्रामाणिक पाठ का ठीक ठीक परिचय उपलब्ध न हो जाय तथा इसी प्रकार जब तक हम उसकी यथास्थिति के विषय में अपनी कोई स्पष्ट धारणा भी न बना लें। जहाँ तक इस कुतुबनकृत मृगावती के विषय में कहा जा सकता है हमें अभी तक ऐसा कोई सुअवसर प्राप्त नहीं हो सका है। इसके सिवाय अभी तक हमें इस प्रकार की भी कोई सामग्री नहीं मिल पाई है जिसके प्रकाश में हमें इसके लिये किए जाने वाले व्यापक अनुसंधान कार्य का कोई स्पष्ट मार्ग अपनी दृष्टि में आने लग जाय तथा इसका अध्ययन और अनुशीलन हम गवेषणापूर्वक भी आरंभ कर दें। यह असंभव नहीं कि जिस दिन ‘चंदायन’ एवं ‘मृगावती’ के मध्यवर्ती दीर्घ काल की कुछ वैसी रचनाएँ मिल सकेंगी उस दिन इसके संबंध की बहुत सी ऐसी समस्याएँ भी सुलझती जान पड़ेगी जो प्रायः इसके आधार, कथानक, संदेश एवं परंपरादि को लेकर, उठ जाया करती हैं।
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