Sufinama

कबीर साहब और विभिन्न धार्मिक मत- श्री परशुराम चतुर्वेदी

नागरी प्रचारिणी पत्रिका

कबीर साहब और विभिन्न धार्मिक मत- श्री परशुराम चतुर्वेदी

नागरी प्रचारिणी पत्रिका

MORE BYनागरी प्रचारिणी पत्रिका

    कबीर साहब का आविर्भाव विक्रम की पंद्रहवी शताब्दी में हुआ था। उस समय भारत में अनेक मत-मतांतर प्रचलित थे और विभिन्न संप्रदायों के जटिल विधानों तथा उनके अनुयायियों के परस्पर-विरोधी आचरणों की अंधाधुंध में वास्तविक धर्म का रहस्य जानना कठिन हो रहा था। फलतः केवल बाहरी बातों में ही सदा व्यस्त रहने के कारण, एक दूसरे को मनुष्य होने के नाते भी भाई स्वीकार करना भूल जाता था। सभी अपनी-अपनी डेढ़ चावल की खिचड़ी अलग-अलग पकाना चाहते थे और अपने सांप्रदायिक नियमों के सामने दूसरों की ओर दृष्टिपात तक नहीं करते थे। दंभ, पाखंड और अहंकार का प्रायः सर्वत्र बोलबाला था और धर्म वस्तुतः व्यक्तिगत आध्यात्मिक विश्रृंखलता का एक बहुत बड़ा कारण बन गया था। कबीर साहब ने इस प्रकार की धार्मिक परिस्थिति को उस काल के व्यक्तिगत पतन एवं सामाजिक अधोगति का मूल सूचक माना और उसकी खरी आलोचना कर उसे उन्होने सुधारने की भी चेष्टा की। उनकी रचनाओं के अंतर्गत ऐसे अनेक स्थल मिलेंगे जहाँ उन्होंने इस दुर्दशा की ओर संकेत किया है तथा जहाँ विभिन्न संप्रदायों के अनुयायियों के विचित्र आचरणों का वर्णन कर उन्हें उन्होंने अनुचित एवं निरर्थक भी ठहराने का प्रयत्न किया है। वे वहाँ उनके शब्द-चित्र प्रस्तुत करते हैं, उनपर अपनी टीका-टिप्पणी देते हैं तथा कभी-कभी वैसे व्यक्तियों के लिये कोई कोई सुंदर आदर्श भी उपस्थित करने लग जाते हैं।

    कबीर साहब के समय में प्रचलित मतों की संख्या केवल उत्तरी भारत में भी बहुत बड़ी रही होगी, क्योंकि उस समय तक प्रायः प्रत्येक धर्म के अंतर्गत अनेक छोटे-बड़े संप्रदाय बन गए थे, जो अपने को एक दूसरे से भिन्न समझा करते थे। कबीर साहब ने अपने एक पद में बतलाया है कि जहाँ-कहीं भी जाँच-पड़ताल करके देखिए, ऐसा कोई भी नहीं दिखाई पड़ता जो हरि के वास्तविक रहस्य से परिचित हो, ‘छह दरसन’ और ‘छयानवे पाषंड’ इसके लिये सदा व्यग्र जान पड़ते हैं, किंतु वे भी अज्ञान के गर्त में हैं। जैसे,

    आलम दुनी सबै फिरि खोजी, हरि बिन सकल अयाना।

    छह दरसन छयानवै पाषंड, आकुल किनहूँ जाना।।

    यहाँ ‘छह दरसन’ से कबीर साहब का अभिप्राय उन षड्दर्शनों से नहीं जान पड़ता जो न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा एवं उत्तरमीमांसा अथाव वेदांत के नाम से प्रसिद्ध हैं और जिनका प्रमुख उद्देश्य दार्शनिक सिद्धांतों का प्रतिपादन बतलाया जाता है। ‘दरसन’ शब्द का अर्थ यहाँ कदाचित् कोई ‘भेष’ वा संप्रदाय है जिसे प्रधानतः छः कहने की परंपरा कबीर साहब के पीछे तक चली आई है। उदाहरण के लिये संत दादूदयाल (सं. 1601-166...) ने ‘भेष कौ अंग’ की अपनी एक साखी में इसका प्रयोग संभवतः इसी अर्थ में किया है और छः दरसनों के नाम भी दिए हैं। वे कहते हैं-

    जोगी जंगम सेवड़े, बोध सन्यासी सेष।

    षट् दर्सन दादू राम बिन, सबै कपट के भेष।।

    जिसे प्रसिद्ध कबीरपंथी रामरहसदास (सं. 1782-1866) ने दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी बतलाया है-

    योगी, जंगम, शेवडा, सन्यासी दरवेश।

    छठवां कहिये ब्राह्मणहि, छौ घर छौ उपदेश।।

    इसके सिवा स्वयं कबीर साहब भी ‘षट् दरसन’ का तात्पर्य अन्यत्र यही समझते जान पड़ते हैं और उक्त ‘छह दरसन’ की ही भाँति ‘छयानबे पाषंड’ का भी विवरण इस प्रकार दे दिया जाता है—

    दश संन्यासी बारह योगी, चौदह शेख बखान।

    अठार ब्राह्मण अठारह जंगम, चुविश शेवड़ा जान।।

    जिसके आधार पर अनुमान किया जा सकता है कि उक्त छहों दर्शनों अथवा संप्रदायों के अंतर्गत अनेक उपसंप्रदाय भी प्रचलित रहे होंगे।

    परंतु उपर्युक्त ‘जोगी,’ ‘जंगम’ आदि शब्द किन्हीं स्वतंत्र प्रमुख धर्मों के सूचक होकर उनकी ओर केवल निर्देशमात्र करनेवाले भी समझे जा सकते हैं। जैसे, ‘जोगी’ से नाथपंथ, ‘जंगम’ से शैव संप्रदाय, ‘शेवड़ा’ से जैन धर्म, ‘संन्यासी’ से बौद्ध धर्म ‘दरवेश’ से इस्लाम एवं ‘ब्राह्मण’ से हिंदू धर्म की ओर इंगित किया गया भी माना जा सकता है और यह बात स्वयं कबीर साहब की रचनाओं द्वारा भी सिद्ध की जा सकती है। संत दादूदायल वाली उपर्युक्त साखी के ‘बोध’ शब्द का पाठांतर अन्यत्र ‘बुध’ भी मिलता है जो, ‘पंडित’ का वाचक होने के कारण, ब्राह्मण-धर्म को सूचित कर सकता है। इस प्रकार कबीर साहब के ‘छयानवै पाषंड’ का भी तात्पर्य इन धर्मों के छोटे-छोटे संप्रदायों वा उपसंप्रदायों से ही रहा होगा। यों तो उनके ऐसे संख्यावाचक शब्दों के प्रयोगों द्वारा हम यह भी अनुमान कर सकते हैं कि ऐसा उन्होंने प्रचलित संप्रदायों की केवल ‘अनेकता’ अथवा ‘विविधता’ सूचित करने के लिये भी किया गया होगा और उनका अभिप्राय उनकी किसी निश्चित संख्या का प्रदर्शन मात्र होगा। फिर भी इतिहास से पता चलता है कि कबीर साहब के समय में उत्तरी भारत में हिंदू धर्म के वैष्णव संप्रदाय, शैव संप्रदाय, शाक्त संप्रदाय, स्मार्त धर्म, नाथपंथ आदि प्रधान रूप में प्रचलित थे और इसी प्रकार जैन-धर्म एवं इस्लाम का भी प्रचार था और इनमें से प्रायः प्रत्येक में अनेक वर्ग वा फिरके बन गए थे। इन सभी के अनुयायियों के आचरण, वेशभूषा, साधना अथवा पूजा-पद्धतियों में अंतर प्रतीत होता था और ये अपने को भिन्न-भिन्न भी समझते थे।

    कबीर साहब ने अपनी रचनाओं के अंतर्गत एकाध स्थलों पर हिंदू धर्म एवं इस्लाम की कुछ बातों में अंतर दिखलाया है और कहा है कि वे तो मौलिक हैं और किन्हीं व्यापक सिद्धांतों पर ही आश्रित हैं, किंतु उन्हीं बाह्य भेदों के कारण दोनों अनुयायियों में वैमनस्य दिखाई पड़ता है। यदि हिंदू धर्म के अनुयायी देवों तथा द्विजों की पूजा करते हैं, पूर्व दिशा को महत्व देते हैं, गंगा-स्नान करते हैं और एकादशी का व्रत रखते हैं तो इस्लाम धर्म वाले इसके विपरीत काजी, मुल्ला, पीर और पैगंबर को मानते हैं, रोजा रखते हैं और पश्चिम की ओर मुँह करके नमाज पढ़ा करते हैं। इसी प्रकार यदि हिंदुओं की उपासना के लिये कोई मंदिर पवित्र स्थान माना जाता है तो मुस्लिम अपनी मस्जिदों में जाकर उपासना करते हैं। इन दोनों में से कदाचित् किसी को भी पता नहीं कि यदि अल्लाह मस्जिद में ही निवास करता हैं और भगवान् का स्थान मंदिर मात्र है तो अन्य स्थल किसके हैं? इसी प्रकार ब्राह्मण चौबीस एकादशी का व्रत रखते हैं और काजी रमजान के पूरे एक मास तक रोजा रहते हैं, किंतु ये दोनों शेष ग्यारह महीनों को क्यों बचा देते हैं? इसके सिवा दोनों क्रमशः वेद एवं कोरान को पृथक्-पृथक् अपना धर्मग्रंथ मानकर उनपर आस्था रखते हैं और यज्ञोपवीत एवं सुन्नत के कृत्रिम संस्कार भी करते हैं। इन दोनों प्रकार के धर्मावलंबियों में व्यर्थ का भेद है और दोनों का, केवल ऐसी ही बातों के आधार पर, एक दूसरे के प्रति, घृणा प्रदर्शित करना निरी मूर्खता है। अतएव कबीर साहब ने इन दोनों धर्मों की प्रचलित मान्यताओं तथा पूजा-पद्धतियों की आलोचना पृथक्-पृथक् भी की है और उन्हें चेतावनी दी है।

    कबीर साहब के समय में हिंदू धर्म के अंतर्गत अनेक प्रकार की साधनाएँ दिखाई पड़ती थीं जिन्हें प्रयोग में लानेवाले अपनी-अपनी धुन में ही मस्त जान पड़ते थे और जिनमें से किसी एक के लिये दूसरे की ओर सद्भाव प्रदर्शित करना कदाचित् आवश्यक भी नहीं समझा जाता था। कबीर साहब ने इनमें से कई-एक का परिचय दिया है और उनके विचित्र आचरणों तथा उपासनाओं का उल्लेख किया है। वे कहते हैं-

    इक जंगम इक जटाधार, इक अंग विभूति करै अपार।।

    इक मुनियर इक मन हूँ लीन, ऐसैं होत होत जग जात खीन।।

    इक आराधै सकति सीव, इक पड़दा दे दे बंधे जीव।।

    इक कुल देव्यां कौ जपहि जाप, त्रिभवनपति भूले त्रिविध ताप।।

    अंनहि छाड़ि इक पीवहि दूध, इत्यादि।

    इक पढ़हि पाठ इक भ्रमै उदास, इक नगन निरंतर रहैं निवास।।

    इक जोग जुगति तन हूंहिं खीन, ऐसौं राम नाम संगि रहैं लीन।।

    इक हूंहिं दीन इक देहि दांन, इक करैं कलापी सुरा पान।।

    इक तंत मंत ओषद बान, इक सकल सिध राखैं अपान।।

    इक तीर्थ व्रत करि काया जीति, ऐसैं रामनाम सूं करैं प्रीति।।

    इक धोम घोटि तन हूंहि स्याम, यूं मुकति नहीं बिन रांम नाम।।

    पंडित जन माते पढ़ि पुरान, जोगी गाते घरि घियान।।

    संन्यासी माते अहंभेव, तपा जु माते तप कै भेव।।

    सब मद माते कोऊ जाग, संग ही चोरे घर मुसन लाग।।

    सारांश यह कि कबीर साहब के जीवन-काल में प्रत्येक हिंदू साधक, चाहे उसका संबंध शैव संप्रदाय से रहा हो अथवा शाक्त संप्रदाय से, चाहे वह आचारी रहा हो अथवा उदासी, जैन हो या नाथपंथी अथवा तांत्रिक, वह सदा मतवाले की भाँति अपने-आपमें मग्न रहा करता था और उसे यह भी पता था कि मेरे घर में चोर लगा हुआ है। कबीर साहब ने ऐसे लोगों को निद्रितावस्था में पड़ा-सा माना है और उन्हें जगाने तथा सचेत करने का प्रयत्न किया हैः-

    कबीर साहब ने हिंदू धर्म संबंधी पौराणिक सिद्धांतों के आधारभूत ग्रंथ वेद-चतुष्टय तथा स्मृति आदि की भी चर्चा की है और उन्हें भ्रमात्मक ठहराया है। वे कहते हैं कि चारों वेदों के मतों का निर्णय करते-करते संसार धोखे में पड़ जाता है और श्रुति-स्मृति पर की गई आस्था उन्हें बंधन में डाल देती है। स्मृति तो वेद की पुत्री ही है और वह सभी को बाँधने के लिये साँकल एवं रस्सी लिए पहुँच जाती है। ये धर्मग्रंथ सच्चे मार्गप्रदर्शक नहीं कहे जा सकते। इसी प्रकार धर्म-शास्त्रों के आधार पर प्रस्तुत की गई वर्ण-व्यवस्था भी उनके अनुसार स्वाभाविक नहीं। उनका कहना है कि यदि सृष्टिकर्ता को भी वर्ण-व्यवस्था स्वीकृत थी तो उसने ब्राह्मणों की पहिचान के लिये उनके ललाट पर कोई तिलक का चिन्ह क्यों बना दिया? उनके जन्म का भी कोई दूसरा उपाय क्यों किया, जिससे वे शूद्रादि से स्वभावतः भिन्न समझ लिए जाते। कबीर साहब ने इस संबंध में ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों की तत्कालीन दुरवस्था की ओर भी विशेष ध्यान दिलाया है और कहा है कि ब्राह्मण लोग जहाँ बेदादि के केवल अध्ययन मात्र में भूले रहते अथवा संध्या, तर्पण, षट्कर्म आदि के झमेले में पड़े रहते हैं और उनके वास्तविक रहस्यों को नहीं जान पाते, वहाँ क्षत्रिय भी क्षत्रियोचित कर्मों की उपेक्षा करते हुए जीवों की निरर्थक हत्या किया करते हैं और जीव-रक्षा का नाम भी लिया करते है। इसके सिवा कबीर साहब उन शास्त्रविहित नियमों की भी आलोचना करते हैं जिनके अनुसार अस्पृश्यता तथा अपवित्रता के भाव जाग्रत् होते हैं। उनका कहना है कि यदि जल में छूत है, स्थल में छूत है, जन्म में छूत है, मरण में छूत है तो फिर पवित्रता कहाँ रह जाती है? कुछ लोग अस्पृश्य समझ लिए जाते हैं और उनकी दृष्टि में, वाणी में और कानों तक में छूत की कल्पना कर ली जाती है, उनके साथ उठना-बैठना छूत माना जाता है और उनके कारण भोजन तक में छूत पहुँच जाती है, जिस कारण कर्म-बंधन में पड़ने के अनेक ढंग तैयार हो जाते हैं। इस प्रकार विचार करने पर तो हम प्रत्येक वस्तु एवं प्रत्येक व्यापार पर ही अपवित्रता का अर्थ आरोप कर सकते हैं।

    कबीर साहब ने हिंदुओं के अवतारवाद संबंधी मत को भी निराधार बतलाया है और उनकी मूर्ति-पूजा की व्यर्थता की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। कृष्णावतार के संबंध में वे कहते हैं कि यदि कृष्ण को नंद-नंदन कहा जाता है तो फिर नंद को भी तो किसी का नंदन (पुत्र) होना चाहिए? ये नंद सृष्टि के आदि में कहाँ थे? और यदि ये उस समय वर्तमान नहीं थे तो ये सृष्टिकर्ता परमात्मा के पिता कैसे कहे जा सकते हैं? ये नंद तो चौरासी योनियों में भ्रमण करनेवाले जीव है। वास्तव में परमात्मा ने तो दशरथ के घर जन्म लिया और उसने लंका के राजा की दुर्गति की। इसी प्रकार उसके अन्य अवतारों की कथाएँ भी अविश्वसनीय हैं। वस्तुतः वह तो निरंजन है जिसकी मूर्ति का होना भी तर्क-संगत नहीं। फिर भी हिंदू लोग मंदिरों में जाकर उसके सामने अपना सिर पटकते हैं, उसे भोग लगाते हैं तथा द्वार पर खड़े होकर उसे पुकारते हैं। मूर्ति-पूजा के उद्देश्य से पत्रादि तोड़े जाते हैं और यह विचार नहीं किया जाता कि जहाँ उन पत्तियों में जीवन है वहाँ उस निर्जीव पत्थर की मूर्ति को गढ़ते समय कभी उसके ऊपर पैर रखे गए होंगे तथा वह पूजन की किसी भी सामग्री को अपने उपभोग में नहीं ला सकती।

    कबीर साहब ने इसी प्रकार हिंदुओं के, उपवास करने के उद्देश्य से अन्न छोड़ने को ‘पाखंड’ की संज्ञा दी है और उनके माला फेरने अथवा अंगुलियों के भी सहारे जप करने को निरर्थक बतलाकर अपने मन की ओर अधिक ध्यान देने का परामर्श दिया है। ये उनके पवित्र माने जानेवाले प्रसिद्ध तीर्थों को भी महत्व देते यहाँ तक कहते हैं कि वास्तविक तीर्थस्थल तो हमारे घट के ही भीतर हैं। भगवान् हमारे हृदय में सदा निवास करता है, और यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो हमारा अपना मन ही मथुरा है तथा हमारी काया भी काशी से कम नहीं है। उनका कहना है कि यदि उक्त प्रकार से तीर्थस्थानों में स्नान करना वस्तुतः महत्व रखता है तो वहाँ के जल में सदा निवास करनेवाले मेढक आदि भी मुक्त हो सकते हैं। सच तो यह है कि किसी कडुई लौकी को यदि ‘अठसठि तीर्थो’ के जल में डाला जाय तो भी उसका कडुवापन नहीं जायगा। कबीर साहब हिंदू लोगों के मृतकों की दाह-क्रिया तथा उनके निमित्त किए जानेवाले श्राद्ध-कर्म को भी निरर्थक एवं केवल ढोंग मात्र बतलाते हैं। वे कहते हैं कि ‘दाहकर्म’ द्वारा मृतक के शरीर को जला देते हैं और जिस पिता के प्रति उसके जीते-जी कभी श्रद्धा प्रदर्शित की होगी उसकी श्राद्धक्रिया करते हैं। श्राद्ध द्वारा भी मृतक बेचारे को निर्जीव हो जाने के कारण कुछ भी लाभ नहीं पहुँचता और इधर उसके लिये दिए गए पिंडदान को कौए और कुत्ते खा जाते हैं। जिस पिता को जीते-जी डंडे से मारते रहे और जिसे खाने को अन्न नहीं देते थे, प्रत्युत गाली तक सुना देते थे, उसे मर जाने पर गंगालाभ कराने अथवा पिंड देने से क्या लाभ?

    कबीर साहब हिंदुओं के वैष्णव संप्रदाय को कदाचित् कुछ विशेष आदर की दृष्टि से देखते थे और उसकी प्रशंसा भी खुले शब्दों में किया करते थे। परंतु फिर भी उनमें प्रचलित बुराइयों अथवा उनकी त्रुटियों की आलोचना करने से वे नहीं चूकते थे। वे उनके ‘भेष धारण’ की व्यर्थता बतलाते हुए कहते थे कि सच्चा वैष्णव केवल छापा एवं तिलक से नहीं बन सकता। उसे अपने आचरण से वैष्णव होना चाहिए। वैष्णव को विवेक से काम लेना चाहिए, प्रपंच में नहीं पड़ना चाहिए और अहंकार का परित्याग करके भगवद्भक्ति करनी चाहिए। वैष्णवजन साधारणतः केवल भक्तिपरक पदों के भजन गाते फिरते हैं और अंधो की भाँति सिर ऊपर किए हुए कीर्तन करते हैं, जो सब दिखावा मातर् हैं। इन वैष्णवों की बैकुंठ-विषयक कल्पना भी निराधार है। इसी प्रकार वे हिंदुओं के शैव एवं शाक्त संप्रदायों की भी आलोचना करते हैं और उनके बाह्याडंबरों और बिडंबनाओं को हेय ठहराते हैं। शैवों के भस्म धारण करने तथा जटा बढ़ाने आदि की चर्चा उन्होंने की है। किंतु शाक्तों के प्रति तो उन्होंने विशेष रूप से घृणा प्रदर्शित की है और लोगो को परामर्श दिया है कि वे उनसे किसी प्रकार का भी संपर्क रखें। उनकी दृष्टि में,

    सापित तुनहा दोऊ भाई। वो नींदै वौ भौंकत जाई।।

    सापत ते सूकर भला, सूचना राखे गाँव।।

    और इन्हीं जैसे कारणों से वे वैष्णवों और शाक्तों में महान् अंतर का अनुभव करते हैं। वे कहते हैं-

    वैश्नौं की छपरी भली, ना साषत का बड़ गांउ।।

    साषत बांभण मति मिलै, सनौ मिलै चँडाल।।

    इन शाक्तों के प्रति इतनी दुर्भावना प्रदर्शित करने का कारण उन्हें उनका हिंसात्मक आचरण जान पड़ता है, क्योंकि वे अन्यत्र इस प्रकार भी कहते हैं-

    पापी पूजा बैसि करि, भषैं मांस मद दोइ।

    सकल बरण इकत्र ह्वै, सकति पूजि मिलि खांहि।।

    कबीर साहब ने इसीलिये स्पष्ट शब्दों में कहा है-

    कबीर साषत की सभा, तूँ मत बैठे जाइ।

    एकै बाडै क्यूँ बडै, रोझ गदहड़ा गाई।।

    साषत संगु कीजियै, दूरहि जइये भागि।

    बासन करो परसियै, तउ कछु लागै दागु।।

    वे हिंदुओं के कतिपय अन्य वर्गों के प्रति भी इसी प्रकार कुछ कुछ कहते हैं। उदाहरणतः अतीतों को ‘भेष’ की आड़ में अपराध करनेवाले और वैरागियों को भी अपने कर्तव्य-पालन से चूकनेवाले ठहराते हैं।

    कबीर साहब ने जितने विस्तार के साथ हिंदुओं के संप्रदायों और उपसंप्रदायों की चर्चा की है उतने विस्तार से इस्लाम धर्म की नहीं। इस धर्म के अनुयायियों को उन्होंने अधिकतर ‘तुर्क’ नाम से अभिहित किया है और काजी, मुल्ला, शेख, दरवेश, आदि नामों द्वारा भी सूचित किया है। शेख को वे संतोष रहते हुए भी हज की यात्रा करनेवाला बतलाते हैं और काजी को झूठी बंदगी और पाँच बार नमाज पढ़ कर सत्य को छिपानेवाला तथा मस्जिद पर चढ़कर एकेश्वरवाद का समर्थन करनेवाला, किंतु साथ ही अपनी जिह्वा के स्वाद के लिये छुरी लेकर गोहत्या करनेवाला भी ठहराते हैं। इसी प्रकार वे मुल्ला अथवा मौलवी को भी व्यर्थ का रोजा रखनेवाला और मीनार पर चढ़कर ‘अज़ां’ देनेवाला कहते हैं और बतलाते हैं कि ये दोनों ही भ्रम में पड़कर संसार के साथ चला करते हैं और अपने हाथों में छुरी लेते ही ‘दीन’ वा धर्म के वास्तविक उद्देश्य को विस्मृत कर देते है। इन लोगों की समझ में नहीं आता कि जिस माता का दूध हम दौड़कर पिया करते हैं उसका वध क्यों करना चाहिए। ये दूध भी पीते हैं और उसका मांस भी खाते हैं, किंतु फिर भी इन्हें अपने ‘दीन’ के अच्छे अनुयायी होने का सदा गर्व रहा करता है। ये ‘अकल’ नहीं रखते और भूलते-भटकते रहते हैं।

    बौद्ध धर्म के अनुयायियों का कबीर साहब ने, कदाचित्, केवल एक बार नाम लिया है और उन्हें भी शाक्तों, जैनों और चार्वाकों के साथ ही पाखंडी कहा है। परंतु प्रसिद्ध चौरासी बौद्ध सिद्धों को वे संशय में पड़ा हुआ बतलाते हैं और उन्हें अन्यत्र माया में रत रहनेवाला भी कहते हैं। कबीर साहब की गुरु गोरखनाथ की प्रति बहुत बड़ी श्रद्धा जान पड़ती हैं, किंतु उनके अनुयायी योगियों को वे व्यर्थ के भ्रम में पड़कर ‘डंडा, मुंद्रा, खिंथा’ और ‘आधारी’ के भेष में रहनेवाला तथा आसन मारने और प्राणयाम करनेवाला कहते हैं। उनका कहना हैं कि ये लोग मुंड मुड़ाकर और अपने कानों में ‘मंजूसा’ पहनकर तथा शरीर में विभूति लपेट कर ‘फूले हुए’ बैठे रहते हैं और भीतर ही भीतर इनकी हानि होती रहती हैं। ये लोग रात-दिन कायाशोधन में ही लगे रहते हैं और ध्यान में मग्न रहकर अपनी मस्ती प्रदर्शित करते हैं। इस प्रकार के साधक चाहे अपने शरीर को योगी भले ही बना लें, पर मन को योगी नहीं बना सकते, जो वास्तव में बिरले लोगों द्वारा ही संभव है। जैन धर्म के अनुयायियों का भी उल्लेख, कबीर साहब ने कई स्थलों पर किया है और श्रावकों, लुंचितों आदि के कार्यों की आलोचना की है। श्रावकों के विषय में कहते हैं कि वे अपने तीर्थकरों की पूजा के लिये पत्र-पुष्प एकत्र करते हैं जिनमें अनेक जीवों को कष्ट पहुँचता है। इस हिंसात्मक कर्म के अतिरिक्त जैन धर्म के साधक मुद्रादि भी किया करते हैं जो पाखंड के सिवा कुछ नहीं है, और दिगंबरों का भेष भी इसी प्रकार का है।

    कबीर साहब का व्यक्तिगत अनुभव कदाचित् उनके लड़कपन से ही ऐसे ढंग का हो गया था जिसके कारण उनका झुकाव निरंतर विचार-स्वातंत्र्य की ही ओर होता गया था और वे स्वभावतः किसी भी प्रकार के बंधन का विरोध करने लगे थे। वे ‘लोकवेद कुल की मरजादा’ को ‘गले में पासी’ अथवा फाँसी समझते और तदनुसार प्रत्येक धर्म के बाह्याडंबरों का खुले शब्दों मंह घोर विरोध करते थे। परंतु धर्म की शाखा-प्रशाखाओं के रूप में दीख पड़नेवाले विविध संप्रदायों एवं उपसंप्रदायों के अनुयायियों के बाह्याचरणों पर आक्षेप करते हुए तथा उनकी विहित पद्धतियों को अनावश्यक ठहराते हुए भी, वे उसके मूल की रक्षा के लिये सदैव प्रयत्नशील रहे। उन्होंने धर्मतत्व के मूल की ओर सबका ध्यान आकृष्ट करना चाहा तथा उसके आदर्शानुसार आचरण करने का भी सबको उपदेश दिया। वे धार्मिक आदर्शों का अनुसरण करने के पहले विवेक से काम लेने का भी अनुरोध करते थे और इस दृष्टि से वे ‘वेद कतेब’ को भी झूठा नहीं मानते थे, प्रत्युत यहाँ तक कह डालते थे कि जो व्यक्ति इन धर्मग्रंथों को बिना उनपर विचार किए हुए ही ‘झूठा’ कह देता है वह स्वयं ‘झूठा’ है। इसके सिवा कबीर साहब सदा कटु शब्दों का ही व्यवहार करना नहीं जानते थे, और वे केवल व्यंगमयी भाषा का ही प्रयोग करते थे। ब्राह्मणों, काजियों, जैनों तथा योगियों को उन्होंने कहीं-कहीं बड़े सरल एवं सुंदर शब्दों में चेतावनी दी है और उनसे वास्तविक मार्ग पर चलने का अनुरोध किया है।

    कबीर साहब की रचनाओं का अध्ययन करने पर यह भी पता चल सकता है कि वे विभिन्न धर्मों अथवा मतों से पूर्णतः प्रभावित भी थे। उनकी आस्था कर्मवाद एवं जनमांतर में स्पष्ट दीख पड़ती है और वे कभी-कभी भाग्यवादी जैसी भी बातें कर जाते हैं। वे सृष्टि-रचना में विश्वास करते प्रतीत होते हैं और ऐसा कथन करते हैं जिससे सूचित होता है कि अपने को वे उस सृष्टिकर्ता की ही इच्छा पर नितांत निर्भर रखना भी चाहते हैं। वे किसी ऐसे विराट् पुरुष की भी कल्पना करते हैं जिसकी सेवा में सदा चंद्र, सूर्य, वायु, ब्रह्मा, शिव, दुर्गा, वासुकि आदि निरत हैं और अन्यत्र वे उसे ही एक विष्णु के रूप में मानकर उसकी नाभि से उत्पन्न कमल की नाल के सहारे उसके ब्रह्मा द्वारा खोजे जाने की कथा का भी उल्लेख करते हैं। वे ‘रामायण’ एवं ‘महाभारत’ की कई कथाओं से भी परिचित जान पड़ते हैं और विदुर एवं प्रह्लाद जैसे भक्तों के प्रति भगवान् की कृपा की चर्चा करते हैं। इसके सिवा उन्होंने सनक-सनंदन, ध्रुव, हनुमान, विभीषण, शेषनाग, नारद एवं शुकदेव जैसे पौराणिक भक्तों के भी नाम लिए हैं। वैष्णवों को तो वे स्वयं अपने ‘राम’ की ही भाँति अपना ‘संगी’ बतलाते हैं और उन हरिजनों की पनिहारिन तक को छत्रपतियों की रानियों से बढ़कर समझते हैं। वे अपने को ‘नारदी भक्ति’ में ‘मगन’ रहनेवाला भी बतलाते हैं तथा ‘नरहरि’ ‘कृसन कृपाल’ के प्रति अपनी पूर्ण आस्था प्रकट करते हैं। वास्तव में हमें कबीर साहब के सहज धर्म वा साधारण धर्म के अंतर्गत उपर्युक्त जन्मांतर और कर्मवाद तथा भक्तिवाद के अतिरिक्त, नातपंथियों के योगवाद, जैनियों के अहिंसावाद, सहजयानियों के सहजवाद वा मुसलमानीं के एकेश्वरवाद तथा सूफियों के रहस्यवाद आदि अनेक मतों के प्रभाव स्पष्ट रूप में लक्षित होते हैं, जिनके आधार पर उन्हें कभी-कभी एक निरा समन्यवादी कहने की प्रवृत्ति होती है। फिर भी उनके लिये केवल इतना ही कह देना उचित और न्याय-संगत नहीं जान पड़ता। कबीर साहब की रचनाओं से प्रकट होता है कि इस विषय में उन्होंने सत्य के वास्तविक रूप को समझने और समझाने की चेष्टा की थी और उन्हें विश्वास था कि इसके द्वारा वे सारे धार्मिक मतभेदों को सरलता से दूर कर सकेंगे।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए