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कदर पिया- श्री गोपालचंद्र सिंह, एम. ए., एल. एल. बी., विशारद

नागरी प्रचारिणी पत्रिका

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    हिंदी-संसार अपने मुसलमान कवियों का सदा ऋणी रहेगा। उन अनेक मुसलमान कवियों में, जिन्होंने अपनी सरस रचनाओं से हिंदी का उपकार किया है, लखनऊ के सुविख्यात मिर्जा वाला कदर साहब का भी नाम उल्लेखनीय है। आप का निजी नाम वज़ीर मिर्जा था, पर अपनी समस्त उपाधियों सहित आप मिर्ज़ा वाला क़दर जंग नवाब वज़ीर मिर्ज़ा था, पर अपनी समस्त उपाधियों सहित आप मिर्ज़ा वाला क़दर जंग नवाब वज़ीर मिर्ज़ा बहादुर के नाम से विख्यात थे। कविता आप कदर पिया अथवा केवल कदर के नाम से करते थे।

    कवि के पिता मिर्जा कैवाँ जाह बहादुर अवध के द्वितीय सम्राट् अथवा चतुर्थ शासक बादशाह नासिरुद्दीन हैदर के घोषित किंतु कृत्रिम पुत्र थे तथा आपकी पितामही नवाब मलिका जमानिया उक्त सम्राट् की सबसे प्रियतमा महिषी थीं। कहा जाता है कि मिर्जा कैवाँ जाह साहब का जन्म उनकी माता के बादशाही हरम में दाखिल होने के पूर्व ही किसी फीलवान, कुली अथवा अन्य ही किसी व्यक्ति से हुआ था। मलिका जमानिया का, जिनका कि नामा पहिले बी हुसैनी तथा उसके पूर्व दुलारी था, पूर्व चरित इतिहास-प्रेमियों के लिये एक मनोरंजक विषय है। पर इस स्थान पर उसके वर्णन की आवश्यकता नहीं। बादशाह नासिरुद्दीन हैदर बी हुसैनी से इतने अधिक प्रसन्न थे कि उन्होंने उसे मलिका ज़मानिया का पद प्रदान किया तथा उसके साथ आए हुए उसके पुत्र जैनब को, जिसका नाम शायद मोहम्मद अली भी था, 30 लाख रुपए की जागीर तथा आसिफुद्दौला की माता बहू बेगम का वह सारा धन, जो कि फैजाबाद से अपहृत होकर लखनऊ गया था, देकर कैंवाँ जाह की उपाधि प्रदान की तथा उसे अपना औरस पुत्र और उत्तराधिकारी भी घोषित किया। पर कैवाँ जाह की वास्तविक उत्पत्ति इतनी अधिक लोक प्रसिद्ध थी कि नासिरुद्दीन हैदर की पूर्ण इच्छा होते हुए भी उनकी मृत्यु के पश्चात् कैवाँ जाह को ईस्ट इंडिया कंपनी की सहायता मिल सकी और वे गद्दी पा सके। उन दिनों अवध के सम्राट् का पद लगभग सोलहों आने ईस्ट इंडिया कंपनी ही के हाथ में था। इसलिये मिर्जा कैवाँ जाह साहब ने यहाँ से लेकर विलायत तक बड़ी लिख-पढञी की। पर सब निष्फल रहा और नासिरुद्दीन हैदर के पश्चात् अवध के सिंहासन पर मोहम्मद अली शाह के नाम से नसीरुद्दौला आसीन हुए। इस प्रकार यदि दैव उनके पिता के प्रतिकूल हो गया होता तो अवध के इतिहास में निश्चय ही एक ऐसा समय आया होता जब कि कवि मिर्जा वाला कदर साहब ने भी बादशाह नासिरुद्दीन हैदर के पौत्र के नाते उसके राजसिंहासन को सुभोभित किया होता।

    कवि की पितामही नवाब मलिका ज़मानिया साहिबा लखनऊ में मोतीमहल में रहा करती थीं और वहीं 8 अक्टूबर सन् 1836 को कवि ने जन्म ग्रहण किया। उस समय नासिरुद्दीन हैदर जीवित थे और मलिका जमानिया तथा कैवाँ जाह साहब का भाग्यसूर्य्य मध्याह्न में था। कहा जाता है कि उस समय बादशाह ने जैसा कुछ उत्सव मनाया वह अकथनीय है।

    कवि का प्रारंभिक जीवन अत्यंत दुःखपूर्ण रहा। जब आप दो ही मास के थे तभी आप की माता का देहांत हो गया और आप के जन्म से 9 मास पूर्ण होते होते बादशाह नासिरुद्दीन हैदर का भी देहावसान हो गया। बादशाह की मृत्यु से आप को अकथनीय क्षति पहुँची, क्योंकि उनके सामने आप का जैसा कुछ लालन-पालन तथा सम्मान था वह उनके बाद असंभव था। बादशाह की मृत्यु के पश्चात् ही आपके पिता राजसिंहासन के झगड़े में पड़ गए और उनके लिये उन्हें विलायत तक लड़ना पड़ा, फिर भी निष्फल रहे और धन भी बहुत खर्च हो गया। इस निष्फलता का उनके दिल पर ऐसा धक्का लगा कि बादशाह की मृत्यु के दस मास बाद ही 16 मई सन् 1838 ई. को, जब कि कवि कदर केवल डेढ़ ही वर्ष के थे, वे भी इस संसार से कूच कर गए। हमारे कवि के पिता की कोठी मौज़ा भदेवाँ में, जो कि अब लखनऊ शहर का एक मोहल्ला है, थी, पर आप का जन्म अपनी पितामही के घर मोतीमहल में हुआ और जन्म के थोड़े ही दिनों बाद आपके माता-पिता दोनों जाते रहे, इसलिये जब तक आप की पितामही जीवित रहीं तब तक आप उन्हीं के पास मोतीमहल में रह कर लालन-पालन पाते रहे। पर जब आप 8 वर्ष के थे तभी वह पितामही भी इस संसार से चल बसीं। पितामही की मृत्यु के पश्चात् आप को मोतीमहल छोड़ देना पड़ा और तब से आप अपनी फूफी नवाब सुल्तान आलिया बेगम के पास, जो कि बादशाह मोहम्मद अलीशाह के पौत्र नवाब मुम्ताजुद्दौला की स्त्री थी, रहने लगे। आप की बहुत कुछ शिक्षा-दीक्षा वहीं हुई, क्योंकि अवध के अपहरण तक अर्थात् जब तक आप नाबालिग रहे तब तक आप वहीं रहते रहे। तत्पश्चात् आप अपने पिता की भदेवें वाली कोठी में चले गए। भदेवें वाली कोठी में आप लगभग सन् 1874 तक रहे और उसके पश्चात् चौलक्खी भवन में चले गए और मृत्यु-पर्यंत वहीं रहें। चौलक्खी भवन बिल्कुल उसी स्थान पर था जहाँ कि अब जस्टिस विश्वेश्वरनाथ श्रीवास्तव साहेब की नई कोठी, निशात टाकी हाउस तथा पुराने म्युनिसिपल ऑफिस की इमारत विद्यमान है। कहते हैं कि चौलक्खी भवन को अजीमुल्ला नामक एक नाई ने बनवाया था और फिर कुछ काल बाद वाजिद अली शाह साहेब ने चार लाख रूपये में मोल ले लिया था। इसी से उसका नाम चौलक्खी पड़ा।

    हमारे कवि ने लगभग 66 वर्ष तक जीवित रहकर 29 जनवरी सन् 1902 को स्वर्गारोहण किया और वे भदेवें में अपने पिता की कोठी में दफन किए गए। आपकी कब्र वहाँ विद्यमान है। आप वेषभूषा, रहन-सहन में हर प्रकार से नवाब और राजवंशीय थे और सी के अनुसार आपने अनेक मुताही विवाहों के अतिरिक्त 7 महल किए और 12 पुत्र तथा 13 कन्याएँ छोड़ीं। इनमें से कुछ पुत्र अब भी जीवित हैं और लखनऊ में नितांत गरीबी का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। गवर्नमेंट से जो थोड़ा बहुत मिलता है उसी पर उनकी गुजर बसर है।

    जो कुछ भी उनकी कृतियाँ मुझे उपलब्ध हो सकी हैं उन्हें देखते नवाब बाला कदर साहेब काफ़ी अच्छे कवि ज्ञात होते हैं। हिंदी-कवि होने के अतिरिक्त आप फ़ारसी के अच्छे विद्वान, एक उच्च श्रेणी के चित्रकार तथा संगीत-शास्त्र के मर्मज्ञ और विशारद भी थे। आप का बनाया कोई चित्र अभी तक मेरे देखने में नहीं आया। संगीत के विषय में तो आप को जितनी ख्याति है उतनी बहुत कम संगीतज्ञों की हुई होगी, क्योंकि आप की प्रतिभा काव्य-क्षेत्र की अपेक्षा संगीत हो के प्रांगण में विशेष चमकी। कदर पिया की ठुमरियाँ तो अब भी संगीतज्ञों में प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि आप के संगीत-शिक्षक उस समय के प्रसिद्ध संगीतज्ञ मिर्जा सादिक अली खां साहब थे। संगीतज्ञ अब भी उनको आचार्य्य मानते हैं।

    यद्यपि आप फारसी और उर्दू के अच्छे विद्वान थे, तथापि उर्दू में कविता कभी नहीं करते थे। कहते हैं कि एक बार किसी ने आप से पूछा कि आप अपनी शायरी उर्दू में क्यों नहीं करते, तो आपने उत्तर दिया कि नाशिक और आतिश के सामने उर्दू शायरी करूँगा, सिर्फ भाका ही में लिखूँगा।

    आपने जितनी कुछ काव्य-रचना की है वह हिंदी में, जिसे आप भाका कहते थे, की है। यह भाका लखनऊ तथा उसके आसपास के देहातों के हिंदुओं के घरों में बोली जाने वाली साधारण भाषा थी। जितने भी शब्दों का आपने अपनी कविता में प्रयोग किया है वे ठेठ हिंदी शब्द है और यदि कहीं किसी फारसी शब्द का प्रयोग करना पड़ा है तो उसे बिना हिंदी के साँचे में ढाले आपने कभी नहीं अपनाया। उदाहरणार्थ, आप का यह पद लीजिए-

    तारीख कहिन कदर, सम्मत में भरपूर।

    मिर्जा कैवाँ जाह बहादुर, भए मगफूर।।

    इस पद में कवि ने अपने पिता की मृत्यु का वर्ष वर्णित किया है। जैसे संस्कृत और हिंदी में संख्या द्योतित कनरे के लिये कुछ निर्धारित शब्दों और अक्षरों का प्रयोग होता है वैसे ही फारसी और उर्दू में संख्या द्योतित करने के लिए भिन्न भिन्न अक्षरों के भिन्न भिन्न अंक निश्चित है। मिर्जा कैवाँ जाह बहादुर भए मगफूर इस पंक्ति के समस्त अक्षरों के अंकों को जोड़ने से 1894 निकलता है। यही उनके पिता की मृत्यु का संवत् है। आप देखेंगे कि इश पद में तारीख, मिर्जा, मगफूर आदि फारसी शब्द अपने ठेठ हिंदी रूप में आए हैं तथा हिजरी सन् के बजाय विक्रम संवत् का प्रयोग हुआ है।

    अवध के अंतिम सम्राट वाजिदअली शाह ने यहाँ का शासन 13 फरवरी सन् 1847 से 13 फरवरी सन् 1856 तक किया। इस प्रकार कवि की किशोरावस्था तथा प्रारंभिक यौवनकाल उन्हीं के शासनकाल में व्यतीत हुआ। वाजिदअली शाह स्वयं एक कलाप्रेमी, हिंदी और उर्दू के कवि तथा बड़े ही गुणग्राहक शासक थे। उनसे कवि को काफी प्रोत्साहन मिला तथा इनपर उनकी पूरी छाप पड़ी।

    कदर की अभी तक हमें कोई पुस्तक नहीं उपलब्ध हुई है, केवल कुछ फुटकर कविताएँ ही मिली हैं। उनमें से कुछ कहाँ प्रस्तुत हैं।

    श्रृंगारोक्तियाँ

    (1) दिल के जलने पर अंदर से जो धुआँ निकलता है वह गरम नहीं ठंढा होता है। कदर पिया कहते हैं-

    चाहत हैगी बुरी बला, करत है सब का नास।

    है अचंभा जिया जलै, निकसै ठंढी साँस।।

    (2) किसी अनोखे निशानेबाज से कवि कहते हैं-

    ऐसो तुमने कदर पिया किससे सीखा तीर लगाना।

    बिन जेह की कमान प्यारे और टेढ़े टेढ़े तीर तुम्हारे।

    मन परदे में हालै तापर चूकत नाहिं निसाना।

    (3) चंद्रमा और उसके कलंक के विषय में हमारे कवि की अनूठी उक्ति है-

    जब से देखी सुंदर नारि, तब से चाँद नहीं इतरावत।

    बढ़ के भया जु नाहीं उसने, सोच में वाके घटता जावत।

    छुपके निकसत रातन का, कदर वो नाही दिनमां आवत।

    मर मर ले हरमास जनम, पै मुख की झांईं नाहीं जावत।।

    (4) शाही काल में अवध में भिन्न-भिन्न प्रकार की लड़ाइयों का जोर था। परंतु रसिक कदर पिया का विनोद नयन और दिल की लड़ाई से ही संभव था-

    नयन-नयनों ने यह दिल से कहा, कि तुम तो बड़े हुशियार।

    तुम तो बहले याद में उनकी, हमी रहे बेकार।।

    दिल- बहला वह जो खुश रहै, याँ याद देत है दुःख।

    रयन दिनन हम तड़पत हैं, चयन कहाँ और सुख।।

    नयन-तुमरे कारन बिपत पड़ी, जो फूट फूट के रोए।

    अपने बिना काज के बैठे, अँसुअन हार पिरोए।।

    दिल- भुँइ तपै तो भाप उठै, तब बन के बरसै मेंह।

    तुमरे कारन हम जले, रोगी भया है देंह।।

    नयन-आप जले आपहि तड़पे, हमको भी रुलवाया।

    किया धरा सब करम तुम्हारा, उलटे हम पर छाया।।

    दिल- रो-धो के तुम साफ भए, और हमको जग से खोया।

    तुम्हीं बताओ नयना पहिले, किसने यह बिस बोया।।

    नयन-सबही कुछ हम देखत हैं, काहे धरत हो नाम।

    चाहत तुमहिन से है, कौन सा उसमें हमरा काम।।

    दिल- आड़ में हम तो बैठे किसने, बुरा भला बतलाया।

    तुमने पहिले छाँट लिया, तब तो हमने चाहा।।

    नयन-हम हैं इसी लिये, ऊँच नीच दिखलाने को।

    बोलो जरा धरम से पहिले, किसने कहा चाहने को।।

    दिल- तुमरे कारन बिपत पड़ी, जो भए पराये बस।

    लड़ भिड़ के तुम अलग रहे, और हमी गए हैं फँस।।

    नयन-राज तुम्हारा नगर तुम्हारा, तुम हीं हो सरदार।

    हम दोनों पहरे पर ठाढ़े, खैंचे हैं तलवार।।

    दिल- जब चाहौ फँसवाओ हमका, जब चाहौ बचवाओ।

    तुमरे कारन छुप के बैठे, उस पर खाया घाओ।।

    नयन-यों भी तुमने पीत की सपने में जो चाहा।

    हम दोनों तो बंद थे, किसने वहाँ फँसाया।।

    दिल- अपनी अपनी बीती कहौ, सारी कथा सुनाओ।

    कदर पिया के तीर चलो कि उसने होगा न्याओ।।

    आओ पिया तुम नयनन माँ, पलक ढाँप तोहे लूँ।

    ना मैं देखूँ और को, ना तोहे देखन दूँ।।

    अपनी सी की बहुत का जाने का मर्जी।

    कदर पिया परदेस गयो रहो ये पापी जी।।

    करना फला सखई, तो का करना बिन पी।

    पी मोरा कर ना गहो, तो का करना यह जी।।

    नवाब वाजिद अली शाह का यह दोहा प्रसिद्ध है- “जो मैं ऐसा जानती प्रीत किये दुःख होय।”

    इस पर कदर साहेब ने निम्नलिखित पंक्तियाँ जोड़ी हैं----

    कुछ भी अब तो बन नहीं आवत बिना मोहे जी खोए।

    कदर पिया ने हमरे लिये तो कैसे ये बिस बोए।।

    बरसों से वो आए नाहीं, रही अकेली सोय।

    तड़पत रोवत बैठ रही मैं, अँसुअन से मुख धोय।।

    जो मैं ऐसा जानती कि पीत किए दुःख होय।

    नगर ढिंढोरा पीटती कि पीत करियो कोय।।

    ईशस्तुति-

    कदर पिया केवल श्रृंगारी ही कवि थे। ईश-स्तुति की ये पंक्तियाँ देखिए----

    मोती मूँगा मँहगा कीनो सस्ता कीनो नाज।

    अनदाना यह तूने किया जो सबके आया काज।।

    बाल बीका ना कर सकै जो बैरी होय जहान।

    बच के सब से यों रहै कि दाँतों बीच जबान।।

    कुदरत उसकी हिकमत उसकी उसी के सारे गुन।

    पल में जग संसार बनायो बस कहते इक कुन।।

    हक आँख से इक दिखलाया दोनों से भी एक।

    हर इक समझाया अलग कि तुम जानो हरि एक।।

    परबत आवै जंगल आवै, नयनों बीच समाय।

    तिल धरने की जगह में अपनी कुदरत यों दिखलाय।।

    चेतावनियाँ

    कदर ने चेतावनियाँ भी लिखी हैं-

    अनजानो जानो गफलत में दिन जो बीतत जावत है।

    ये नींद जो आवत है मौत की याद दिलावत है।।

    धन पर जो बल करते हैं मूरख हैं इतराते हैं।

    देखे दिन बड़े कभी के और कभी की रातैं हैं।।

    छोड़ कुटुँब अपना देस देस भेष बदल के यों परदेस।

    तंग गली अधियारा कोना सभी अकेले जाते हैं।

    यहाँ था दारा यहाँ सिकंदर सोते हैं सब भवन के अंदर।।

    ढेर पड़ा है माटी का यह कहके लोग सुनाते हैं।।

    कहाँ रहा वह चाँदी सोना याही माटी सब का बिछौना।

    राजा परजा सब हैं बराबर कहने की सब बातैं है।।

    रहा है कितना बाकी सिन, का जाने हैं कितने दिन।

    कदर जो उन पर बीत चुकी वह दिन अब हम पर आते हैं।।

    व्यंग-विनोद

    (11) आप के समय में एक सिड़िन थी जिसकी पहुँच शाही महलों तक थी। वह लोगों के मनोरंजन का विषय थी। आपने उस पर गीत सिड़न के नाम से कई अनूठी युक्तियाँ लिखी है। उनमें से एक यहाँ प्रस्तुत है-

    खाके हुई मोटी तोहफा, तोहफा मुर्ग पोलाव

    गाल दोनों बिम्कुट, चेहरा जैसे नान-पाव।

    अपनी अपनी रोटियाँ, सब छिपाओ बोटियाँ।

    लखनऊ में छूट गया, अवध का यारो बन-बिलाव।।

    मसल पर दोहा-

    जग रूख बड़ा घनेरा, जेह का कहत हैं बात।

    फूल झड़ैं काँटे गिरैं, कबहूँ सूखे पात।।

    मुकरी

    कान से लागै बात करै, पड़ा रहै वह चैन करै।

    छेद के मुझ को दुख में डाला, क्यों सखि साजन नहिं सखि बाला।।

    पहेलियाँ

    छबीली चंचल चातुर नार, घर में उसके उसकि बहार।

    उल्फत उसकी जिसको होए, अपने हक में काँटे बोए।।

    इश्क का जिसने दम मारा समझो उसने झख मारा।

    (मछली)

    सख्त बहुत खूब चमक, सूरत उसकी जैसे निभक।

    चातुर हो तो जान जाय, मूरख हो तो उसको खाय।।

    (हीरा)

    एक नार है दुबली पतली, यार हैं उसके काने।

    आग भरी आवाज़ बड़ी, चातुर हो पहिचाने।।

    (बंदूक)

    एक नार है सच्ची मातबर, करती है वह ऐसा काम।

    काला मुँह करवाती अपना और का रोशन करती नाम।।

    (मोहर)

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