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पदमावत के कुछ विशेष स्थल- श्री वासुदेवशरण

नागरी प्रचारिणी पत्रिका

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    मलिक मुहम्मद जायसी कृत पदमावत की भाषा ऊपर से देखने पर बोलचाल की देहाती अवधी कही जाती है, किंतु वस्तुतः वह अत्यंत प्रौढ़, अर्थ-संपत्ति से समर्थ शैली है। अनेक स्थानों पर जायसी ने ऐसी ऐसी श्लेषात्मक भाषा का प्रयोग किया है जिसके अर्थ लगातार कई दोहों तक एक से अधिक पक्षों में पूरे उतरते हैं। इस प्रकार के पाँच उदाहरण यहाँ दिए जाते हैं। पहले उदाहरण में दो दोहों की अठारह पंक्तियों में ऊपर से देखने पर चौपड़ के खेल का वर्णन जा पड़ता है, किंतु साथ ही प्रेम-पक्ष और योग-पक्ष में भी दोनों दोहों के अर्थ उन्हीं शब्दों से सटीक बैठते हैं। कवि की इस प्रकार की श्लेषात्मक शैली आश्चर्यकारिणी है। सरव अवधी के शब्दों में जायसी ने अर्थों का चमत्कार उत्पन्न किया है। उससे उनकी भाषा की असाधारण शक्ति ज्ञात होती है।

    ‘किऔ जोग आएउ कबिलासा’- इन सरल शब्दों में भी ‘जोग’ और ‘कबिलासा’ के तीन अर्थ उन-उन पक्षों में घटित होते हैं। प्रेम-पक्ष में जोग का अर्थ जोड़ा और कबिलासा का अर्थ राजमंदिर का वह विशेष भाग था, जहाँ सातवें खंड के ऊपर रनिवास में राज-रानी रहते थे। जायसी ने कई बार इस पारिभाषिक शब्द का प्रयोग किया है। जैसे ‘सात खंड ऊपर कबिलासू, तहँ सोवनारि सेज सुखवासू’ (291।1), अथवा ‘साजा राज मँदिर कबिलासू, सोनेकर सब पुहुमि अकासू’ (48।1)। इन दो अवतरणों से ज्ञात होता है कि सतखंडे राजमहल के ऊपरी भाग में राज-रानी के निवास का निजी स्थान ‘कबिलास’ कहलाता था और उसी में ‘सुखवासी’ नामक गर्भगृह में सोने की सेज बिछी रहती थी। इस कमरे में ऊपर नीचे और भीतों पर सुनहला काम बना रहता था। दिल्ली के किले में जो राजमहल है उसके ख्वाबगाह नामक हिस्से में इस प्रकार का सुनहला काम छत और दीवारों पर बना हुआ है। ज्ञात होता है कि इस प्रकार की रचना जायसी के समकालीन वास्तु का सत्य थी। शाही महलों में ‘कबिलास’ की कल्पना हिंदू स्थापत्य-कला से ली गई। उसकी परंपरा जायसी से भी कई सौ वर्ष पूर्व से चली रही थी। बीसलदेव रासो में भी राजमहल के विविध भागों का वर्णन करते हुए ‘कबिलास’ का उल्लेख आया है- “आसोजइ धण मंडिया आस। मंडिया मंदिर घर कबिलास। धउलिया चउवारा चउषंडी। गउष चडी हरषी फिरइ। जउ घर आविस्सइ मंध भरतार।।” (बीसलदेव रास, डा. माताप्रसाद संस्करण, छंद 78)। विद्यापति ने ‘कीर्तिलता’ में महल का वर्णन करते हुए खुर्रमगाह का उल्लेख किया है, जो ‘सुखवासी’ का ही पर्याय है। इसे ही ‘वर्णरत्नाकर’ में ‘षोरमपुर’ कहा है।

    इस प्रकार ‘कबिलास’ शब्द का एक विशिष्ट अर्थ जायसी की भाषा में आया है। उसकी परंपरा उससे पूर्वकालीन और उत्तरकालीन भाषाओं में थी। उसमान की ‘चित्रावली’ में भी यह शब्द इसी अर्थ में है। किंतु हिंदी कोशों में ‘कबिलास’ शब्द के इस अर्थ और इन उदाहरणों का सन्निवेश करना अभी बाकी है। इस दृष्टि से जायसी की भाषा का गौरव अति विशिष्ट जान पड़ता है, जिसके समुचित अध्ययन की आवश्यकता है। यहाँ प्रदर्शित कुछ उदाहरणों के समानांतर अर्थ इस विषय का संकेत करने के लिये पर्याप्त है।

    दूसरा उदाहरण छाजन या छप्पर की शब्दावली को लेकर की हुई कविता है। छाजनि, तिनुवर, आगरि, सांठि, बात, बंध, कंध, बाक, टेक, थंभ, थूनी, नैन, कोरे- ये शब्द एक ओर छप्पर का सचित्र रूप खड़ा करते हैं, दूसरी ओर होते हैं। विशेष रूप से बात, बाक, नैन और कोरे शब्द ध्यान देने योग्य है। छाजन के अर्थ में ‘बात’ का अर्थ ‘बत्ता’ है। छप्पर के अगले सिरे पर सरकंडे के मुट्ठे बाँधे जाते हैं, उन्हें ‘बत्ता’ कहते हैं। आड़ी लगी हुई छोटी लकड़ियाँ या कैंची ‘बाक’ कहलाती है। पूरे अर्थात् बिना चिरे हुए बाँस जिनसे टट्टर या ठाट बनाया जाता है, ‘कोरे’ कहलाते हैं। नैन शब्द का सीधा अर्थ नेत्र स्पष्ट है, किंतु छप्पर के पक्ष में धुआँ निकलने का छेद ‘नैन’ कहलाता है, जिसे पाली भाषा में ‘धूमनेत्त’ (सं. धूम्रनेत्र) कहते थे। इस प्रकार जायसी अपनी सरल शैली द्वारा भी हिंदी के शब्दों में अर्थ की गहराई ले आने में सफल होते हैं। ‘बरसहिं नैन चुवहिं घर माहाँ’- एकदम सीधे-साधे शब्द हैं। साधारणतः छप्पर की ओली बाहर की ओर गिरती है, किंतु टूटे छप्पर में धमाले के रास्ते पानी घर के भीतर ही टपकता है, यही कवि का अभिप्राय है।

    तीसरे उदाहरण में पक्षियों के विविध नामों से श्लेषात्मक शैली का विधान किया गया है, जिससे समानांतर अर्थों की प्रतीति होती है। ‘कोइलि भई पुकारत रही, महरि पुकारि लेहु रे दही’ (358।6)- इस सरल चौपाई के कोइलि और महरि, ये दोनों शब्द श्लेषात्मक अर्थ के चमत्कार से युक्त है। कोइलि का अर्थ कोयल तो विदित ही है, किंतु कोइलि आम की गुठली को भी कहते हैं जिसके भईतर की बिजुली को घिसकर बच्चे बजाने का पपैया बनाते हैं। यह अर्थ यहाँ एकदम ठीक बैठता है। महरि का सामान्य अर्थ ग्वालिन चिड़िया है, किंतु जायसी ने स्वयं ही ससुर के लिये ‘महरा’ शब्द प्रयुक्त किया है- ‘दसों दाउ कै गा जु दसहरा, पलटा सोइ नाँउ लै महरा’ (424।3), अतएव महरि का अर्थ सास है।

    चौथे उदाहरण में फूलों के नामों का आधार लेकर उसी प्रकार श्लिष्टार्थमयी भाषा का चमत्कार उत्पन्न किया गया है। ‘हौं पिय कँवल सो कुंद नेवारी’ (377।1)- इस पंक्ति में कमल, कुंद और निवारी प्रसिद्ध फूल हैं। साथ ही तीनों का दूसरा अर्थ भी चौकस बैठता है। कमल का अर्थ है पद्मिनी जाति की स्त्री। कुंद का अर्थ है खराद। जायसी ने खराद का काम करनेवाले के लिये ‘कुंदेरा’ कहा है। ‘कुंदै फेरि जानु गिव काढ़ी’ (111।2), अर्थात् ग्रीवा मानो खराद पर चढ़ाकर काढ़ी गई थी। ‘कुंद नेवारी’ का दूसरा अर्थ खराद पर बनाई हुई, अर्थात् कठपुतली है। ‘सरना’ और ‘करना’ जैसे सरल फूलवाची शब्दों के भी तीन-तीन अर्थ हैं, जिन्हें पाठक आगे देख सकते हैं। सरना, करना बाजों के नाम थे, इसका पता आईन-अकबरी से लगता है, जो लगभग जायसी ही के समय का ग्रंथ है। ‘बकचुन’ एक पुष्प का नाम भी है, और उसका दूसरा अर्थ है वाक्य चुन-चुनकर। इन श्लेषात्मक अर्थों का ध्यान करते हुए पाठक को पचासों शब्द ऐसे मिलते हैं जो फारसी लिपि में लिखे जाने पर ही दो प्रकार से पढ़े जा सकते थे। यथा- बार, बारि, जोग, जुग, सार, सारि, पपिहा (एक पक्षी), पपहा (एक प्रकार का घुन), पलही, पलुही (पाला खाई हुई, पल्लवित हुई), जिया, ज्या (डोरी), जूही, जोही, पियरी, पियरे, आठ, आठि, नागमती, नागिमती (नागी, नागिनी, नागमती, मती=मृता, मर गई) इत्यादि। पदमावत की मूल लिपि का प्रश्न स्वतंत्र हैं, यहाँ केवल संकेत मात्र किया गया है।

    पाँचवे उदाहरण में पद्मावती नागमती की वाटिका देखकर अपनी प्रतिक्रिया कहती है। प्रत्यक्ष में तो यह उसकी प्रशंसा है, किंतु दूसरा अर्थ सौत नागमती की वाटिका के लिये निंदापरक है। इसमें पाठक देखेंगे कि पलुही, पपिहा, महोख, बेरास, नागमती, फूल चुनइ, इन सरल शब्दों में भी कवि ने श्लेषात्मक अर्थ का कैसा चमत्कार रक्खा है। सचमुच इससे जायसी की असामान्य शक्ति का पता चलता है। ‘रहसत आइ पपीहा मिला’ इस सरल पंक्ति का पहला अर्थ तो यह है कि रहस्यता हुआ पक्षी बाटिका में मिला। दूसरे अर्थ में ‘पपिहा’ को ‘पपहा’ (एक प्रकार का घुन) पढ़ना आवश्यक है। सत का अर्थ है सत्य और मींगी या सत। अर्थात् जब घुन लग गया हो तो सत कहाँ रह सकता है? ‘महोख’ शब्द भी द्वर्थक है- (1) महोख नामक पक्षी, (2) महोक्ष अर्थात् वृष जाति का पुरुष। ‘सोआवा’ और ‘सोहावा’ जैसे सरल शब्द भी द्ववर्थख ही हैं- सोआवा= (1) वह आया, (2) पास में सुलाया, सुहावा=(1) सुंदर, (2) करहिं सो हावा=वह हाथों से हाव करती है अर्थात् श्रृंगार-चेष्टा करती है। इन उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि पद्मावत की जिस भाषा को हम गाँव की सरल अवधी मान लेते हैं, वह एक महाकवि की चमत्कारी भाषा है, जो अर्थ-संपत्ति और व्यंजना-शक्ति से भरी है। वस्तुतः जायसी के अर्थ-समूह और भाषा के नवीन अध्ययन की आवश्यकता बनी हुई है। अंततोगत्वा बृहज्जायसी कोश के निर्माण में इसका पूरा निखार होना चाहिए।

    1- चौपड़ का खेल

    (पद्मावती-रतनसेन भेंट खंड, 27।33, क्रमांक दोहा 312)

    ऐसें राजकुँवर नहिं मानौं। खेलु सारि पाँसा तौ जानौं।

    कच्चे बारह बार फिरासी। पक्के तौ फिरि थिर रहासी।

    रहे आठ अठारह भाखा। सोरह सतरह रहै सो राखा।

    सतएँ ढरैं सो खेलनिहारा। ढारु इग्यारह जासि मारा।

    तूँ लीन्हें मन आछसि दुवा। जुग सारि चइसि पुनि छुवा।

    हौं नव नेह रचौं तोहिं पाहाँ। दसौं दाँउ तोरे हिय माहाँ।

    पुनि चौपर खेलौं कै हिया। जो तिरहेल रहै सो तिया।

    जेहि मिलि बिछुरन तपनि अंत तंत तेहि निंत।

    तेहि मिलि बिछुरन को सहै बरु बिनु मिलें निचिंत।।

    क- चौपड़परक अर्थ

    1- हे राजकुँवर, मैं ऐसे नहीं मान सकती। मेरे साथ गोट और पाँसा (चौपड़) खेल तो जानूँ। (2) कच्चे बारह का दाँव आने से तू केबल बारह घर चल सकेगा। पक्के बारह पड़ गए तो फिर स्थिर रहेगा (रुकेगा नहीं)। (3) तू आठ पर नहीं जमता, (आठ आने पर) अठारह कहता है। सोलह, सत्रह का दाँव पड़ जाव तो वह (खिलाड़ी को) बचाता है। (4) सात पाँसे पड़ें तो खोलनेवाला हारता है। ग्यारह का दाँव अगर तू ले तो गोट नहीं मर सकती। (5) पर मन में चाव रखकर भी तेरे पास केवल दुआ है और उतने से ही तू दो गोटें चलना चाहता है। (6) मैं तो तेरे लिये नौ का दाँव चाहती हूँ पर तेरे मन में दस का दाँव है। (7) फिर हिम्मत करके तेरे साथ चौपड़ खेलना चाहती हूँ। जो तीन बाजी खेले वही तीन-तीन का दाँव लेनेवाला (तिया) होगा।

    (8) जुग बाँधने के बाद जुग से फूटना दुःखकारक है। फिर खेल के अंत तक उसी की इच्छा बनी रहती है। (9) जुग बाँधकर बिछुड़ने से यह अच्छा है कि जुग मिलाया ही जाय और प्रत्येक गोट निश्चिंतता से चली जाय।

    चौपड़ के खेल का संक्षिप्त परिचय- चौपड़ के खेल में तीन पाँसे और चार रंगों की सोलह ‘गोटें’ होती हैं। प्रत्येक पाँसा हाथीदाँत का बना चार-पाँच अंगुल लंबा चौपहल टुकड़ा होता है। उसके एक पहल में एक बिंदी (इक्का) और दूसरे में दो (दुआ) तीसरे में पाँच (पंजा) और चौथे पहल में छः (छक्का) बिंदियाँ होती हैं। ऐसे ही तीनों पाँसों पर बिंदियों के एक-से निशान होते हैं। तीनों पाँसों को हाथ में लेकर ढरकाते हैं। जो बिंदियाँ तीनों पाँसों के ऊपर के पहल में दिखाई पड़ती हैं उन्हीं का जोड़ दाँव कहलाता है। सबसे छोटा दाँव 1+1+1=तीन दिखाई पड़ती है। इस दाँव को तीन काने भी कहते हैं। सबसे बड़ा दाँव 6+6, इस प्रकार अठारह है। तीन और अठारह के बीच में संभव दांव इस प्रकार हैं- 4(1+1+2), 5(1+2+2), 6(2+2+2), 7(1+1+5), 8(1+2+5 और 1+1+6), 9(2+2+5 और 1+2+6), 10 (2+2+6), 11(1+5+5), 12(1+5+6, यह कच्चे बारह कहलाता है, इसमें एक गोटी केवल 12 घर चल सकती है), 2+2+5 दूसरी प्रकार का 12 का दाँव है जिसमें जुग गोटें 10 घर और 2 घर चलती हैं, तीसरा पौ बारह दाँव 6+6+2 कहलाता है जिसमें जुग गोटें 12 घर और 2 घर चलती हैं), 13(2+3+5, 1+6+6 जिसे ऊपर पौ बारह कहा जा चुका है), 14(2+6+6), 15(5+5+5), 16(5+5+6) 17(5+6+6), 18(6+6+6)।

    चौपड़ के कपड़े में चार ‘फड़े’ होती हैं। प्रत्येक ‘फड़’ पर तीन पंक्तियों में ‘घर’ बने रहते हैं। प्रत्येक पंक्ति में आठ घर होते हैं। इस प्रकार एक फड़ में चौबीस और कुल चौपड़ में 96 घर होते हैं। ‘घर’ को संस्कृत में ‘पद’ कहते हैं। चारों फड़ों के बीच में एक बड़ा घर होता है जिसे कोठा कहते हैं। इसी बीच के कोठे में चारों फड़ों की गोटें ‘बैठती’ या ‘पुगती’ हैं, तब उन्हें ‘पक्की गोटे’ कहा जाता है।

    चार रंग की सोलह गोटों में प्रत्येक रंग की चार-चार गोटें होती हैं। काली-पीली गोटों का जोड़ा और लाल-हरी गोटों का जोड़ा प्रायः माना जाता है। जब चार व्यक्ति खेलते हैं, तो काली-पीली वाले आमने-सामने बैठते हैं और एक दूसरे के ‘गुइयाँ’ होते हैं। इसी प्रकार लाल-हरी गोटों के भी। गुइयाँ एक दूसरे की गोटें नहीं मारते बल्कि एक की चार गोटें पहले पुग जाने पर गुइयाँ अपना दाँव साथी को दे देता है, तब वे ‘दुपाँसिया’ अर्थात् दोनों पाँसों का साझा करके खेलनेवाले कहे जाते हैं।

    चौपड़ का खेल दो प्रकार का है- सादा, जिसमें चार व्यक्ति खेलते हैं, और रंगबाजी- जिसमें दो व्यक्ति, प्रायः स्त्री और पुरुष खेलते हैं। रंगबाजी का खेल कठिन है और उसमें प्रतिबंध अधिक है। जायसी ने यहाँ रंगबाजी के खेल का ही वर्णन किया है।

    टिप्पणी- (1) सारि=गोट, सं. शारि। पाँसा=सं. पाशक, हाथीदाँत के बिंदीदार चौपहल शकरपारेनुमा लंबे तीन टुकड़े।

    (2) कच्चे बारह=6+5+1। इस दाँव में एक गोट केवल बारह घर चलती है। पक्के बारह=5+5+2। इसमें दो गोटें एक साथ दस घर और फिर दो घर चलती है।

    (3) रहै आठ अठारह भाखा- चौपड़ के खिलाड़ियों के विषय में प्रसिद्ध है ‘चौपड़ के चार लबार’। खिलाड़ी ‘चार बुलाए चौदह आए’ कहकर पाँच के दाँव को पंद्रह और आठ को अठारह कहकर झूठ बोलते हैं। उसी पर जायसी का कथन है कि आठ तो आवें नहीं कहे अठारह। सोरह सतरह=ऊपर दिए हुए ब्यौरे के अनुसार ये दोनों बड़े दाँव हैं, जब पड़ते हैं तब खिलाड़ी की रक्षा करते हैं।

    (4) सतएँ ढ़रे=चौपड़ के खिलाड़ी सात (1+1+5) के दाँव को अशुभ मानते हैं। कहा है- हारी बाजी जानिए परे पाँच दो सात। और भी- सत्ता सार ऊपजे, वेश्या होय राँड़ (अर्थात् सात के पाँसे से कुछ काम नहीं बनता)। खेलनिहारा=खेलने में हार गया। ग्यारह=5+5+1 का दाँव। इसमें जुग गोट दस घर चलेगी। जासि मारा=रंगबाजी के खेल में जुग गोटें (एक घर में एक साथ रखी हुई दो गोटें जुग कहलाती हैं और साथ चली जाती हैं) नहीं मारी जा सकतीं और उनके घर में अन्य गोट नहीं घुस सकती।

    (5) दुवा=वह दाँव जिसमें तीनों पाँसों की दो बिंदियाँ ऊपर-ऊपर रहें 2+2+2। इस दाँव से दो गोटें केवल दो घर चल सकती हैं। जायसी का कथन है कि दुवा जैसा कम पाँसा पड़ने पर जुग गोटों के चलने की विशेष महत्व नहीं।

    जुगसारि=दो गोटें, जिन्हें केवल जुग भी कहते हैं। ये एक घर में बैठतीं, एक साथ उठतीं और एक साथ पकती हैं और मौका पड़ने पर एक साथ ही फिर कच्ची होती है। जुग बाँधकर खेलने से खिलाड़ी के मन में बड़ा उत्साह होता है। जुग का साथ पकना अच्छा माना जाता है। जुग-गोट कभी पिट नहीं सकती। कभी-कभी जुग को अलग करना पड़ता है तो खिलाड़ी दुःख मानता है। कहा है ‘कहै बैजू बावरे सुनो हो मियाँ तानसेन जुग सैं फूटी तो कैसे बचैगी नरद।’ इसके विपरीत यह भी कहा है- ‘दो जुग बाँधे होय बिनास,’ क्योंकि उसमें खिलाड़ी अधिक बंधन में पड़ जाता है, अथवा ‘जुग लटै तो काज सरै।’

    (6) नव नेह=नौ के दाँव का प्रेम (5+2+2 अथवा 6+2+1)। दसौं दाँव=6+2+2 का दाँव।

    (7) पुनि चौपर खेलो=एक बार हार जाने पर भी फिर हिम्मत करके खेलती हूँ। तिरहेल=तीन बाजी।

    सो तिया=जो तीन बाजी खेलेगा वह तीन-तीन का दाँव जीतेगा। तीनों पाँसों का एक ही प्रकार से पड़ना तिया (सं. त्रिक) कहलाता है। जैसे 1+1+1, 2+2+2, 5+5+5, 6+6+6। इन चार दाँवों में जुग क्रमशः 2,4,10 और 12 घर चलती है और यदि तीसरी गोट भी उसी घर में साथ हो तो वह भी जुग के साथ चलती है। जायसी का तात्पर्य है कि जो हारने पर भी इतनी हिम्मत रक्खे कि तीन बाजी तक खेलता रहे, कभी कभी उसके पक्ष में भी तिया दाँव पड़ेगा और वह खेल जीतेगा।

    (8-9) जुग बाँधने के बाद जुग के फूटने से खिलाड़ी को दुःख होता है और अंत तक जुग बाँधने की लालसा बनी रहती है। मिलकर बिछुड़ने से कुछ खिलाड़ियों की राय में यह अच्छा है कि प्रत्येक गोट को अकेले ही निद्वंद्व चला जाय।

    ख- अध्यात्मपरक अर्थ

    (1) हे राजकुँवर, मैं ऐसे नहीं स्वीकार करूँगी। यदि तू जोग के मार्ग में चले (खेलु) तब मैं यह जानूँगी कि तुझमें कुछ सार है या तू निस्सार है।

    (2) साधना में तू कथा रहेगा तो द्वार-द्वार भटकेगा। पर यदि पक्का होगा तो तू उस मार्ग में टिक रहेगा।

    (3) जोगी के लिये उचित आठ (चक्रों) में तू मन को नहीं लगाता, अठारह की चिंता करता है। सोलह का सत किस प्रकार रहता है? उसके यहाँ रहता है जो उसकी रक्षा करता है।

    (4) जो जोगी सत से ढुलक गया वह अपने जोग-मार्ग में (खेलनि) हार गया। यदि दस इंद्रियों और ग्यारहवें मन को साध लिया तो जोगी मृत्यु के वश में नहीं होता।

    (5) तेरे मन में तो अभी द्वैत भरा है (मन एकाग्र नहीं हुआ) फिर भी (अनवस्थित मन से) तू दो सार वस्तुओं को छूना चहता है (प्राण और शुक्र को वश में करना चाहता है)।

    (6) मैं तेरे मन में नवों चक्रों के लिये प्रेम उत्पन करना चाहती हूँ पर तेरे मन में दसों इंद्रिय-द्वारों के लिये आसक्ति भरी है।

    (7) फिर तू हिम्मत करके उन्मुक्त भाव से जोग धारण कर। जो इडा-पिंगला-सुषुम्ण का खेल जानता है, वही त्रिक साधना में पूरा है।

    (1) टिप्पणी- (1) सारि (फारसी लिपि में सार भी पढ़ा जायगा)=तत्व, बल, सत।

    पासा=पाँस या खाद की तरह निस्सार, कूड़ा। खेलु, धा. खेलना=जोग के मार्ग में गमन कर। जायसी ने इस अर्थ में बहुधा इसका प्रयोग किया है।

    (2) कच्चे-पक्के=जोग के मार्ग में अनुभवहीन और अनुभवी साधक।

    (3) आठ=अष्ट चक्र, गोरखनाथ के योग में चक्र-साधना मुख्य थी।

    अठारह=दुनिया का धंधा, जैसा शंकराचार्य ने लिखा है- का तेअष्टादशदेशे चिंता। वातुल किं तव नास्ति नियंता। (दूवादश पंजरिका स्तोत्र 11)

    (4) सतएँ ढरै- जो सत में निर्बल हुआ वह जोग के मार्ग में हार जाता है। इग्यारह= दस इंद्रियाँ और एक मन।

    (5) दुआ=द्वैत भाव, एकाग्रता का उल्टा, संसार में भी आसक्ति, आत्मतत्व के साथ तल्लीनता का अभाव।

    जुगसारि-गोरखनाथ के उपदिष्ट मार्ग के अनुसार साधना में तीन वस्तुएँ परम शक्तिशाली और सार हैं, उनकी साधना से ही योगसिद्धि मिलती है। वे हैं मन, वायु या प्राण और बिंदु या शुक्र। यदि एक को वश में कर लिया जाय तो अन्य दो भी स्थिर हो जाते हैं (श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी, ‘नाथ-संप्रदाय’ पृ. 124)। जायसी का आशय है कि अभी तक तेरा मन एकाग्र नहीं हुआ और तू प्राण और रेत को वश में करना चहता है।

    (6) नव-नव चक्र।

    दसौं दाउं- दस इंद्रिय-द्वार।

    (7) चौपर-चतुष्पट्ट, चारों किवाड़ उघड़े हुए, बिल्कुल फकड़ बनकर खेलो, अर्थात् जोग के पथ पर चलो।

    तिरहेल-इड़ा-पिंगाल-सुषुम्णा की साधना जोग-मार्ग में तिरहेल ((गोरख-धंधा) है। जो इसमें पूरा है वही त्रिक में सिद्ध है।

    (8-9) निर्गुण-संप्रदाय में बहुतों का मत ऐसा था कि प्रेम का मार्ग अच्छा नहीं, जिसमें प्रियतम से मिलन और फिर वियोग सहना पड़ता है। इससे तो यह अच्छा कि कभी प्रिय का मेल ही हो। पर प्रेम-मार्गी मत इससे उल्टा है।

    ग- प्रेमपरक अर्थ

    (1) हे राजकुँवर, मैं यों नहीं मान सकती। मेरी चित्तरसारी में साथ क्रीड़ा करो, तो जानूँगी (अथवा क्रीड़ा करो तो जानूँगी कि तुममें शक्ति है या खाद की तरह निस्सार हो)।

    (2) यदि तुम कच्चे होगे तो द्वार पर ही घूमते रहोगे (मेरे शयनगृह में प्रवेश पा सकोगे)। यदि पक्के (कामकला में चतुर) होगे तो फिर मन को स्थिर रख सकोगे।

    (3) आठ नहीं रहते, तुम ‘अट्ठारह’ की बात करते हो। सोलह श्रृंगारों के सामने कौन सत से रह सकता है? वही रहता है जिसे भगवान् रखता है। अथवा, सोलह सुरतों के सम्मुख जिसके सत्रह का समूह (पाँच कमेंद्रियाँ, पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच तन्मात्राएँ, मन, प्राण) रह जाय, वही यथार्थ रक्षक है।

    (4) जिसका सत आलिंगन में ढरता या स्खलित होता है, वही काम-केलि का जाननेवाला है। दस इँद्रियाँ और एक मन, ग्यारह को तुम केलि में ढालोगे तो मृत्यु-दुःख को प्राप्त होगे।

    (5) तुम्हारे मन में यदि कोई दूसरी बसी है तो जुग गोटियों के सदृश मेरे स्तनों को नहीं छू सकते।

    (6) मैं तो तेरे साथ नया प्रेम रचती हूँ, पर तेरे मन में मेरे प्रति दस दाँव हैं।

    (7) फिर मन करके तेरे साथ चौपड़ (चार प्रकार की सुरत-केलि) खेलती हूँ। जो तीन प्रकार की केशाकर्षण रूप क्रीड़ा में पूरी उतरती है, वही स्त्री है।

    (8) जिस प्रिय के साथ मिलने के बाद वियोग और दुःख मिलता है, फिर भी उसी की अंत तक अभिलाषा बनी रहती है उससे मिलकर वियोग का कष्ट कौन सहे? बिना मिले ही निश्चिंत रहना अच्छा है।

    टिप्पणी-(1) खेलु=क्रीड़ा करो। सारि=चित्तरसारी। पांसा=पास में।

    (2) कच्चे=कामक्रीड़ा में अथवा वय में अपरिपक।

    बारह बार (फारसी लिपि में बारहि बार भी पढ़ा जायगा)= दरवाजे पर ही, चित्तरसारी से बाहर।

    पक्के=रस में परिपक।

    (3) रहे आठ अठारह भाखा। (1) जब आठ वर्ष की आयु (बालपन) नहीं रही तो अठारह (यौवन) के रहने की क्या बात कहते हो? (2) आठ<सं. अर्थ, प्रा. अट्ठ, कामना, इंद्रियार्थ, विषय, फल, लाभ। काम-क्रीड़ा करने पर रति-अभिलाषा नहीं रह जाती, फिर भी कहते हो इच्छा (आठि<अट्ठा<आस्था) रह गई। (3) अथवा, अष्टवर्षा के साथ नहीं रहता, अठारह वर्ष की चाहता है। (4) अथवा, नायक आयु में आठ वर्ष का भी हो पर अठारह वर्ष की युवती की चर्चा करता है। अथवा अठारह तरह की भाषाएँ बोलता (भाँति-भाँति की बातें बनाता) है। (मध्यकाल में अठारह तरह की भाषाओं की मान्यता थी, देखिए ‘कुवलयमाला कहा’ से उद्धृत, अपभ्रंश-काव्यत्रयी, भूमिका पृ. 91)

    सोरह- वर्णरत्नाकर के अनुसार सोलह प्रकार का उत्तान सुरत (वर्ण., पृ.29) अथवा जायसी के अनुसार सोलह प्रकार का श्रृंगार (296।8, 300।1 अस बारह सोरह धनि साजै, 467।1-9, रामचरितमानस, बाल. 322।10 नवसत्त साजें सुंदरीं, उसमान कृत चित्रावली, बारह सोलह साज बनाए, 403।2)।

    सतरह- सत रहना। षोडश श्रृंगारवती नायिका के सान्निध्य में जो कोई सत रख सके वही पूरा है। अथवा सतरह=पाँच कमेंद्रियाँ, पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच तन्मात्राएँ, मन, प्राण।

    (4) सतएं- सात प्रकार के कठिनालिंगन में (वृक्षारूढ़, लतावेष्ठित, जघनोपरिगूढ़, तिलतंडुल, क्षीण, नीवला, नाटिका, वर्ण., पृ. 28), (2) सत में या बल में।

    ढारु इग्यारह- दस इंद्रियाँ और एक मन, इन ग्यारह के वशीभूत हो इन्हें विषय के साँचे में ढाल। इस प्रकार तू मृत्यु के वशीभूत होगा। यह उन लोगों का मत था जो कौल साधना के अनुसार पंच मकार से सिद्धि मानते थे।

    (5) दुवा- दूसरी स्त्री, या द्वैतभाव। जुगसारि=जुग गोटों की भाँति के युगस्तन। जायसी ने अन्यत्र भी स्तनों की उपमा गोटों से दी है (कुच कंचुक जानहुँ जुगसारी, 38।6)।

    (6) नवनेह- मुग्धा नवोढ़ा का स्नेह, उसमें पति-पत्नी के बीच लज्जा का भाव रहता है।

    दसौं दाँउ- पाँच प्रकार के नखक्षत (अर्धचंद्र, मंडल, मयूरपद, दशप्लुत, उत्पलपत्र), और पाँच प्रकार के दशनक्षत (तिलक, प्रवाल, बिंदुक, खंडाभ्र, कोल, वर्ण., पृ. 29), ये मिलाकर नायिका के शरीर पर नायक द्वारा होनेवाले दस दाँव हैं। पद्मावती का आशय यह है कि मैंने तो मुग्ध नवोढ़ा की भाँति तुझसे नया प्रेम किया है पर तू ढीठ नायक की भाँति प्रौढ़ रति के दस दाँव करता है। अथवा नयन, कंठ, कपोल, अधर, स्तन, ललाट, जघन, नाभि, कक्षा, इन दस स्थानों में चुंबन भी धृष्ठ केलि के दाँव है (वर्णरत्नाकर, पृ. 28)। जायसी ने 424।3 में भी दसौं दाँउ का उल्लेख किया है।

    (7) चौपर-पद्मासन, नागरकरेणु, विदारित, स्कंधपाद्र नामक चार प्रकार का सामान्य सुरत (वर्णरत्नाकर पृ. 29)। चौपर खेलौं- नायक-नायिका का परस्पर विगताकांक्ष होना। जायसी से दो शती पूर्व वर्णरत्नाकर में सुरत का जो आदर्श वर्णन किया गया था उसी ज्ञान को जायसी ने संख्याओं के संकेत देकर रख लिया है।

    तिरहेल= तीन प्रकार की केशाकर्षण-क्रीडा (समहस्त, भुजंगवलि, कामावतंस, वर्ण. पृ. 29)।

    (8) तंत=इच्छा, प्रबल कामना, वश, अधीनता।

    (पद्मावती-रत्नसेन भेंट खंड 27।24, क्रमांक दोहा 313)

    बोलौं बचन नारि सुनु साँचा। पुरुख के बोल सपत बाचा।

    यह मन तोहि अस लावा नारी। दिन तोहि पास और निसि सारी।।

    पौ परि बारह बार मनावौ। सिर सौं खेलि पैत जिउ लावौ।

    मारि सारि सहि हौं अस राँचा। तेहि बिच कोठा बोल बाँचा।

    पाकि गहे पै आस करीता। हौं जीतेहुँ हारा तुम्ह जीता।

    मिलि कै जुग नहिं होउँ निनारा। कहाँ बीच दुतिया देनिहारा।

    अब जिउ जरम जरम तोहि पासा। किएउँ जोग आएउँ कबिलासा।

    जाकर जीउ बसै जेहि सेतें तेहि पुनि ताकरि टेक।

    कनक सोहाग बिछुरै अवटि मिलैं जौ एक।।

    क- चौपड़परक अर्थ

    (1) रत्नसेन- हे बाला, मैं सच बात कहता हूँ, सुनो। पुरुष का मुँह से कह देना ही शपथ और तिरबाचा के बराबर है।

    (2) यह मन तुझमें ऐसा लगा है कि दिन भर तेरे साथ पाँसा फेकूँ और रात भर गोटी चलूँ।

    (3) हे बाला, मैं यह मनाता हूँ कि पौ बारह दाँव पड़े। एक सिरे से खेल शुरू करके अंत के घर तक पहुँचने की मेरी इच्छा है।

    (4) गोटों की मार सहकर मैं ऐसा रंक हो गया हूँ कि बीच के बड़े कोठे का मेरे पास कोई दाँव नहीं रह गया।

    (5) कुछ गोटों के पक्की हो जाने पर भी, हाथ में पाँसा लेकर (दूसरी गोटों के लिये) दाँव की आशा करता हूँ, और यदि ठीक दाँव आया तो पक्की गोटों के कच्ची हो जाने से मैं जीता हुआ भी बाजी हार जाता हूँ और तब तुम जीत जाती हो।

    (6) गोटों का मिला हुआ जुग कभी अलग हो। यदि कोई दूवा-तीया दाँव का खिलाड़ी हो तो जुग गोटो में अंतर कहाँ पड़ सकता है। (7) अब तो जन्म-जन्म तेरे साथ पासा खेलने का मन है। मैंने कैलास पर (अंतिम कोठे में) पहुँचकर अपना जुग बाँध लिया है।

    (8) जिसका जी जिस वस्तु में रहता है उसे उसी का सहारा होता है

    (9) सोना और सुहागा औंट कर एक हो जायँ तो अलग नहीं होते।

    टिप्पणी- (1) सपत=शपथ। बाचा=तीन वचन भरकर, तिरवाचा द्वारा किसी बात को पक्के रूप में कहना।

    (2) पास और सारी= पाँसा और गोट।

    (3) पौ परि बारह= पौ बारह, अर्थात् 6+6+1 का दाँव। चौपड़ के खेल में यह बहुत अच्छा दाँव समझा जाता है।

    सिर=खेल के आरंभ में जहाँ गोटें रक्खी जाती है।

    पैंत-सं. पद+अंत>पयन्त>पइँत्त>पैंत। अंत का पद या घर। एक सिरे से शुरू करके अंतिम घर तक गोटों को पहुँचा दूँ।

    (4) मारि सारि सहि- गोट की मार सहने से खिलाड़ी हीन (रंच=स्वल्प, हीन, रंक) जो जाता है।

    कोठा=सबसे बड़ा बीच का घर जहाँ जाकर गोटें पकती हैं, चौपड़ की भाषा में कोठा कहा जाता है। उसे ही सातवीं पंक्ति में ‘कबिलासा’ कहा है।

    बोल बाँचा=बीच के कोठे में जाने का कोई दाँव नहीं बचा।

    (5) पाकि गहे पै आसा करीता=रंगीन बाजी के खेल के कई कड़े नियमों में एक यह है कि एक रंग की गोटें जब तक पककर उठ नहीं जाती तब तक दूसरे रंग की गोटें कोठे में प्रवेश नहीं पा सकतीं। कभी-कभी इस प्रतिबंध के कारण ठीक पाँसा आने पर पूरी पकी गोटों को कच्ची करके घर से बाहर कर देना पड़ता है। मान लीजिए एक खिलाड़ी की दो लाल गोटें पक्की होकर बीच के कोठे में पहुँच गई हैं। उसकी दूसरी दो लाल गोटें घर चलती हुई बीच के कोठे के निकट पहुँची है। उनके पकने के लिये पाँसे में उतने ही अंक आने चाहिएँ जितने घर गोटों को चलना शेष है। अधिक जाने से पक्की गोटें भी कच्ची कर दी जाती है। इससे खिलाड़ी को बड़ा धक्का लगता है और जीती हुई बाजी भी वह एक प्रकार से हार जाता है। जायसी का इसी ओर संकेत है।

    (6) जगु=एक रंग की दो गोटों का एक साथ एक घर में बैठना, साथ चलना और पुगना। जुग कभी मारा नहीं जाता। खिलाड़ी चाहे तो स्वयं अपने जुग को अलग कर सकता है। पर अच्छा खेल वह है जिसमें जुग बँधने पर फूटने नहीं। कहाँ बीच दुतिया देनिहारा- जुग कहाँ अलग होगा, यदि दूवा और तीया दाँव फेंकनेवाला कोई है? दूवा वह दाँव है जिसमें दोपाँसे एक-से पड़ें, जैसे 5+5+1, 6+6+1। ये बढ़िया दाँव है, मानो जुग के लिए ही बने हैं। इनमें जुग पूरे 10 या 12 घर चलती है। इनसे भी बढ़िया तीया दाँव हैं जिनमें तीनों पाँसे एक-से पड़ते हैं, जैसे 5+5+5, 6+6+6। इन बड़े दाँवों में यदि जुग के घर में एक गोट और बैठई हो तो वह भी जुग के साथ 10 या 12 घर चल सकती है। चौपड़ में जुग स्त्री-पुरुष का रूप है, तीसरी गोट उनकी सखी है जो यदि जुग के साथ है तो साथ ही जाती है।

    (7) जोग=अध्यात्म-पक्ष में योग, प्रेम-पक्ष में जोड़ा, और चौपड़-पक्ष में जुग। फारसी लिपि में जोग को जुग भी पढ़ा जा सकता है।

    ख- प्रेमपरक अर्थ

    (1) हे बाला, मैं सच कहता हूँ, तू सुन। पुरुष के बोल से ही स्त्री पतिवती और वचनबद्ध होती है।

    (2) यह मन तुझमें ऐसा अनुरक्त है कि दिन में तेरे पास है और सारी रात भी पास रहना चाहता है।

    (3) पाँव पड़कर बार बार तुझे मनाता हूँ। सिर से खेलकर (चुंबनादि केलि करके रत के लिये) तेरे पैरों में पड़ता हूँ।

    (4) हे सखि, मैं तेरे साथ मदन-गृह में ऐसा रम गया हूँ कि सभामंडप में (राजकाज के संबंध में) निर्णय या मंत्र के लिये नहीं पहुँच पाता।

    (5) आयु में पक जाने से मेरा शरीर गह गया है, पर भोगों की आशा बनी है। मैं सब प्रकार भोगों में जीतता रहा, पर अब हार गया हूँ। तुम अब भी जीतती हो।

    (6) तुम्हारे साथ जोड़ा बनाकर अब मैं अलग नहीं होना चाहता। हम दोनों के बीच में द्वैतभाव लानेवाला कौन है?

    (7) अब जन्म-पर्यंत मन तेरे वश में है। मैं तो तेरे साथ जोग मिलाने के लिये ही यहाँ कैलास (राजभवन) में आया था।

    (8) जिसका मन जिसके पास रहता है उसी के साथ उसकी ग्रंथि लगी रहती है।

    (9) कंचन (पद्मावती) अपने सौभाग्य (रत्नसेन) से वियुक्त नहीं हो सकता, जब दोनों अभिलाषपूर्वक (लिपटकर) मिले हैं।

    टिप्पणी (प्रेमपक्ष)-

    (1) पुरुख बोल- पुरुष की वाग्दत्त होकर। सपत= पतियुक्त, पतिवाली।

    (2.)बाचा= विवाह में पति के साथ वचनबद्ध होनेवाली, अथवा तिरबाचा करके पिता द्वारा प्रदत्त।

    (3) पौ=पैर। सं. पाद>पाव>पाउ>पौ। सिर सौं खेलि=केशाकर्षण, चुंबन, दशनविन्यास, नखविन्यास, ये चार क्रीड़ाएँ उर्ध्व भाग में होती हैं। पौ=सं. पादान्त>पयंत>पइंत>पैंत। ऊर्ध्व भाग में क्रीड़ा करके अधोभाग में मन लगाता हूँ।

    (4) मारि सारि- फारसी लिपि में लिखा हुआ मार सार भी पढ़ा जायगा। मार=कामदेव, सार=शाला। मारसार=रति-गृह, शयन-गृह, चित्तरसारी। सहि=सखि। रांचा=अनुरक्त। सं. रक्त> प्रा.> रच्च> राचना= आसक्त होना, अनुराग करना (पाइअसद्दमगण्णव, पृ. 873)।

    बिच कोठा- राजमहल में बीच का प्रधान भवन, सभामंडप, आस्थान मंडप, दरबार-आम, जहाँ बैठकर राजा राजकार्य करते थे। (राजप्रासाद और सभा मंडल के सचित्र वर्णन के लिये देखिए, हर्षचरिता-एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 205)। रत्नसेन कहता है कि मैं तेरे साथ अंतःपुर में ही ऐसा रम गया हूँ कि बाहर सभाभवन में व्यवहार निर्णय आदि के लिये भी नहीं जा पाता। बोल= व्यवहारासन से दिया हुआ राजा का निर्णय, फैसला। बांचा= जाना, पहुँचाना। सं. ब्रज् (जाना)>प्रा. वच्च, वच्चह (पासद्द. पृ. 916)>बांचना।

    (5) पाकि= आयु पककर। गहे= गह जाने पर। गहना=ग्रहण लग जाना, शक्ति क्षीण हो जाना।

    (6) जुग-जोड़ा। मिलिकै जुग= तुम्हारे साथ विवाह-बंधन में बँधकर। निनारा=अलग, न्यारा। सं. निर्नगर (नगर से निर्गत, पृथक्, बाहर) >प्रा. णिक्कारइ (दूर करना, निकालना, पासद्द. पृ. 485)>निकारइ निकारना, निआरा)।

    (7) जोग= 1. योग (अध्यात्मपक्ष), 2. जोड़ा, विवाह (प्रेमपक्ष), 3. जुगगोट (चौपड़ पक्ष)। कबिलासा=मध्यकालीन स्थापत्य का पारिभाषिक शब्द, महल का वह ऊपरी कमरा जहाँ राजा-रानी सोते थे (यथा, सात खंड ऊपर कबिलासू। तहं सोवनारि सेज सुखबासू।। 291।1, साजा राज मंदिर कविलासू। सोने कर सब पुहुमि अकासू।।48।1)। मानसार के अनुसार त्रिभूमिक प्रासाद या तीन खंड के महल की कैलास संज्ञा थी। गुप्त-काल से हर्ष-काल तक प्रायः मंदिर और महल तीन खंड के ही बनते थे। वहीं से राजभवन के लिये कैलास का प्रयोग आरंभ हुआ जो मध्यकाल में रूढ हो गया।

    (9) अवटि=1. अभिलाषा करके। सं. आवर्तन>प्रा. आउट्टण (आराधन, सेवा, भक्ति, अभिलाषा, इच्छा)। 2. परस्पर मिलकर सं. आवृत्>प्रा. आउट्ट (संमुख होना)> अवटि। देशी-नाममाला के अनुसार आवट्टिआ (नवोढा, दुलहिन)>आउट्टी>अउट्टी, अवटी।

    ग- योगपरक अर्थ

    (1) हे नाड़ी (सुषुम्णा), मैं सच्ची बात कहता हूँ, सुनो। आत्मपुरुष के साथ नाद में लीन होने से ही तुम्हें प्रतिष्ठा (पत) प्राप्त होगी और तुम बच सकोगी।

    (2) यह मन तुझमें ऐसा लगा हुआ है कि दिन और रात तेरा ही स्मरण करता है।

    (3) मैं बार-बार यही मनाता हूँ कि मेरे भीतर कुछ उजाला हो। योग के मार्ग में सिर देकर गुरु-चरणों में मन लगाता हूँ।

    (4) सार (प्राण, मन, बिंदु) को मारकर सुरति (सखी) में ऐला लीन हो गया हूँ कि हृदय में अनहद नाद सुन रहा हूँ (अन्य शब्द नहीं रह गया है)।

    (5) वायु और बिंदु के सिद्ध होने पर भी (मन के) एकाग्र होने के कारण (विषयों की) आशा करता हूँ। मैं जोग-मार्ग पर चलकर (प्राण शुक्र को जीत लेने पर) भी हारा हुआ ही रहा। अपने मार्ग में रहकर तुम ही जीतीं।

    (6) हे सुषुम्णा, तुमसे मिलकर मैं अलग नहीं दूँगा। दोनों को पृथक् करनेवाला कौन है?

    (7) अब जन्म-पर्यन्त जी तेरे ही पास रहेगा। मैंने जोग लिया और अब मैं कैलास पर (शिव के सान्निध्य में) गया हूँ।

    (8) जिसका जी जिसके साथ रहता है उसको उसी का आग्रह होता है। ब्रह्मांड-स्थित बिंदु और मूलाधार में स्थित बिंदु यदि ऊर्ध्वपातन से एक हो गए हों, तो वियुक्त नहीं होते।

    टिप्पणी (योग-पक्ष)-

    (1) नारि= नाड़ी, सुषुम्णा जो योग की तीन नाड़ियो में मुख्य है। इड़ा (बाँईं नाड़ी, गंगा, चंद्रमा, शीत प्रकृति) और पिंगला (दाहिनी नाड़ी, यमुना, सूर्य, उष्ण प्रकृति) दो अन्य नाड़ियाँ हैं।

    पुरुख=आत्मा। आत्मा या शिवतत्व के साथ मिलने से ही सुषुम्णा नाडी सफल है।

    पत=प्रतिष्ठा, विश्वास। सं. प्रत्यय>प्रा. पत्तिअ>पत्त>पत, अथवा फारसी लिपि में पति भी पढ़ा जा सकता है। तथा सं. प्राप्ति> प्रा. पत्ति (पासद्द. पृ. 656)>पत (=लाभ)। शिव से मिलकर ही सुषुम्ण या कुंडलिनी का सच्चा लाभ और रक्षा है।

    (2) दिन तोहि पास और निसि सारी-इसका सामान्य अर्थ ऊपर दिया है। और भी, दिन अर्थात् सूर्य या पिंगला एवं निशि अर्थात् चंद्रमा या इडा तेरे पास है।

    (3) पौ=उजाला, ज्योति, प्रकाश। सं. प्रभा। हठयी कल्पना करते हैं कि इस देहरूपी दीपक में ज्ञान की बत्ती की लौ प्रकाशित हो, अथवा ज्ञान के सूर्य का उजाला हो, अथवा ज्ञानरूपी चंद्रमा की चाँदनी खिले (डा. बर्ध्वाल, निर्गुण स्कूल ऑव हिंदी प्रोइट्री, पृ. 270-271)। सिर सौं खेलि=योग-मार्ग में सिर अर्पित करके, मृत्यु-भय से ऊपर उठकर, जैसा जायसी ने बहुधा कहा है। अथवा कपाली या शीर्षासन करके, सिर के बल खड़े होकर। पैत=गुरु के चरणों में।

    (4) मारि सारि- फारसी लिपि में सार भी पढ़ा जायगा। हठ-योग में मन, प्राण, रेत की सिद्धि या पूर्ण वशीकरण आवश्यक है। वे ही सार वस्तु हैं (312।5)।

    सहि=सं. सखी। हठयोग की प्रतीक भाषा में सुरति को सखी कहते हैं (डा. बर्ध्वाल, वही, पृ. 272)।

    कोठा= शरीर के मध्य में हृदय-गुहा वह कोठा है जिसमें अनहद नाद सुना जाता है।

    बोल बाँचा= बाहरी शब्द नहीं रह जाता, भीतरी शब्द सुनाई पड़ने लगता है।

    (5) पाकि गहे=मन एक बार सिद्ध हो जाने पर जब पुनः योगभ्रष्ट होता (गह जाता) है, तब योगी जीतकर भी मानो हार जाता है। यहाँ जायसी हठयोग की आलोचना कर रहे हैं। उसकी कठिन साधना के पचड़े में पड़कर पुनः स्खलित होने का भय रहता है। तुम्ह जीता से तात्पर्य पद्मावती के प्रेममार्ग की अंतिम विजय से है।

    (6) इस पंक्ति में उस साधक की अच्युत स्थिति का उल्लेख है जो सुषुम्णा से मिलकर फिर स्खलित नहीं होता। उसके मन में द्वैतभाव (एकाग्रता में द्वैधीभाव) लानेवाला कौन है? अथवा जुग (इड़ा-पिंगला) से मिलकर वियुक्त रहूँगा।

    (7) किएउं जोग आएउं कबिलासा-कैलास आज्ञा-चक्र का नाम है। वहाँ शिव-पार्वती एक साथ विराजते हैं। मूलाधार में जो कुंडलिनी या सुषुम्णा है वह शिवतत्व से पृथक् है। रत्नसेन कहता है कि मैंने कैलास या ब्रह्मांड-चक्र में पहुँचकर कुंडलिनी का शिव से जोग किया है।

    (8) जाकर जीउ बसै जेहि सेतें, तेहि पुनि ताकर टेकि=जो जिस मत या साधना-मार्ग का अनुयायी है, उसे अपने विश्वास का आग्रह होता है। नाथ, शाक्त, कौल, सिद्ध, कापालिक, वामाचार, दक्षिणाचार, वैष्णव, शैव इत्यादि अनेक मत और पंथ जायसी के समय में प्रचलित थे (श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी, नाथ-संप्रदाय, पृ. 4, 11 आदि)। प्रत्येक को अपनी बात का आग्रह था। किंतु मत का आग्रह जोग की कथनी मात्र है, उससे कुछ नहीं होता। जोग की साधना से जब बिंदु सुमेरु पर्वत या ब्रह्मांड में पहुँच जाता है तब वियुक्त नहीं होता, वही सच्ची साधना है।

    कनक=मेरु पर्वत का सुवर्ण। कैलास का नाम भी अष्टापद या सुवर्ण है। ब्रह्मांड-स्थित ओज। उसके सुंदर वर्ण से जब सोह्यगा (शुक्र) मिल जाता है, तब ऊर्ध्व रेत बनकर पुनः स्खलित नहीं होगा।

    अवटि=आवर्तन, घऊमकर, मूलाधार-चक्र से सुषुम्णा-मार्ग द्वारा ऊपर उठकर। शुक्र या रेततत्व मूलाधार चक्र से ऊपर उठकर क्रमशः एक-एक चक्र में संभृत होता हुआ अंत में आज्ञा-चक्र या ब्रह्मांड में ऊर्ध्वस्थित होता है। वही उसकी ओज में अंतिम परिणति और ऊर्ध्वपासन की पूर्ण प्रक्रिया है।

    2- छाजन या छप्पर की शब्दावली

    (नागमती वियोग खंड 30।16, क्रमांक दोहा 356)

    तपै लाग अब जेठ असाढ़ी। मैं मोकहँ यह छाजनि गाढ़ी।

    तन तिनुवर भा झूरौं खरी। मै बिरहा आगरि सिर परी।

    साँठि नाहिं लगि बात को पूँछा। बिनु जिय भएउ मूँज तन छूँछा।

    बंध नाहिं कंध कोई। बाक आव कहौं केहि रोई।

    ररि दूबरि भई टेक बिहूनी। थंभ नाहिं उठि सकै थूनी।

    बरसहिं नैन चुअहिं घर माहाँ। तुम्ह बिनु कंत छाजन छाँहाँ।

    कोरे कहॉ ठाट नव साजा। तुम्ह बिनु कंत छाजन छाजा।

    अबहूँ दिस्टि मया करु छान्हिन तजु घर आउ।

    मंदिल उजार होत है नव कै आनि बसाउ।9

    पहला अर्थ (नागमती के पक्ष में)

    (1) अब मेरे शरीर में विरह की जेठ-असाढ़ी तपने लगी है। मेरे लिये यह तपन दुःखदायी छाजन (एक रोग) हो गई है। (2) शरीर पतला हो गया है, मैं खड़ी सूख रही हूँ। विरह की खान मेरे सिर पड़ी है। (3) मेरे पास कुछ पूँजी नहीं है, अब स्नेह से बात कौन पूछेगा? बिना प्राण के मेरा शरीर मूँज की तरह छूँछा हो गया है। (4) इस समय मेरा कोई बंधु नहीं है और कोई सहारा (कंध-स्कंध) नहीं है। मुँह से वाक्य नहीं निकलता, किससे रोकर अपना हाल कहूँ? (5) रो-रोकर मैं दुबली हो गई हूँ और सब आश्रय से विहीन हूँ। जब थंभ नहीं रह गया तो थूनी कहाँ उठ सकती है? (6) मेरे नेत्र आँसू बरसाते हैं जो सारे घर में टपकते हैं। हे कंत, तुम्हारे बिना शोभा है, छाँह या बचाव है। (7) अरे, कौन कहाँ अब नया साज सजाएगा? हे कंत, तुम्हारे बिना अब वस्त्र शोभा नहीं देते।

    (8) कृपा की दृष्टि करो, विजन या एकांत छोड़कर घर में आओ (अथवा बाहर कुटिया में रहना छोड़कर घर आओ)। (9) यह मंदिर उजाड़ हो रहा है, आकर नए सिरे से बसाओ।

    टिप्पणी- (1) जेठ असाढ़ी=कठिनतम गर्मी के दिन, अवधी में अब भी यह चालू शब्द है। इस सूचना के लिये मैं श्री माताप्रसाद जी गुप्त का अनुगृहीत हूँ। छाजनि=तव्चा का एक रोग, जिसमें बड़ी जलन होती है। जेठ-असाढ़ की गर्मी ऐसी लग रही है जैसे छाजन।

    गाढ़ी=कष्टदायक, दुःसह।

    (2) तिनुवर, तनुवर= पतला अथवा तिनकों का ढेर। आगरि=खान, सं. आकर।

    (3) सांठि=पूँजी, ठिकाना। सं. संस्था।

    (4) बंध=बंधु, आत्मीय। कंध=स्कंध, कंधा, टेक, सहारा।

    (5) ररि=रोकर (पद्मावत, 350।9)।

    (6) छाजन=वस्त्र।

    (7)छान्दि=(1) छान-छप्पर (2) विजन, प्रा. छण्ण (पासद्द. 419)।

    दूसरा अर्थ (छप्पर के पक्ष में)

    (1) अब जेठ और असाढ़ तपने लगा है। मेरे लिये छाजन दुःखदायी हो गई है।

    (2) इसका तान या फैलाव सिमिटकर ढेर हो गया है। मैं उसके नीचे खड़ी सूखती हूँ। वह टूट-फूट गई है, जिसके कारण ओरी सामने गिरने के बदले छप्पर के नीचे बैठनेवाले के सिर पर गिरती है।

    (3) इसमें सेंठे नहीं लगे। बत्ते का तो कहना ही क्या? डोरी के रह जाने (लपेट खुल जाने) से मूँज की तानें छूँछी हो गई हैं।

    (4) बंद भी नहीं रहे और दीवार (कंध) भी कोई नहीं है। घुड़िया (बाक) भी नहीं है, किससे रोकर व्यथा कहूँ?

    (5) यह दुपलिया छान (दूबरि) अपने स्थान से सरक कर (ररि) टेक विहीन हो गई है, इसमें जो थंभ था वह नहीं रह गया। सहारे के लिये थूनी भी नहीं लग सकती।

    (6) इसके ऊपर धुआँ निकलने के लिये जो धमाले या धूमनेत्र बने थे वे पानी बरसने पर अब घर में ही टपकते हैं। हे कंत, तुम्हारे बिना अब छाजन छाँह नहीं करती।

    (7) पूरे बाँस (कोरे) कहाँ हैं जिनसे छान का ठाट नया बनाया जाय। हे कंत, तुम्हरे बिना छाजन नहीं छाई जा सकती।

    (8) अब भी कृपा-दृष्टि करो और विजन छोड़ो, घर में जाओ। (9) यह राजमंदिर उजाड़ हो रहा है, आकर नया बसाओ।

    टिप्पणी- (1) छाजनि=फूस का छप्पर।

    (2) तन=तान, फैलाव। तिनुवर=फूस का ढेर (351।8), सं. तृणपूर या तृणकूट>तिनऊर>तिनवर।

    बिरहा=टूट-फूट, भग्न दशा, खंडितावस्था। सं. विराधयति, प्रा. विराहइ, खंडन करना, तोड़ना, भग्न करना (पासद्द. 993)। आगरि=छप्पर के अगले सिरे पर गिरनेवाली धारावली, जिसे ओरी या ओलती एवं अगरी या आगरि भी कहते हैं (ग्रियर्सन, बिहार पेजेंट लाइफ, अनु. 1252)। ओरी साधारणतः बाहर की तरफ गिरती है, लेकिन छप्पर के टूट जाने से उसका पानी भीतर बैठनेवाले के सिरपर गिरने लगता है। सं. अग्रावली।

    (3) सांठि=सेंठा, सरकंडा, सरपत्र। इसका मुट्ठ लेकर छप्पर का बत्ता बनाते हैं। बात=बत्ता, सरकंडे काटकर उनके मुट्ठों से बत्ता बनता है, जिसे छप्पर के नीचे उसके अगले सिरे पर मजबूती के लिये बाँधते हैं (बिहार पेजेंट लाइफ, अनु 1258)।

    बिनु जिय भएउ मूँज तनु छूँछा-सरकंडे की ऊपर की फुलई का छिलका मूँज कहलाता है। उसी को अलग करके भिगोकर और कूटकर बान बनाते हैं, वही डोरी या ज्या कहलाता है, जिसे जायसी ने जिय कहा है। पुरानी पड़ जाने के कारण मूँज की डोरियों का लपेट जाता रहा, जिससे छप्पर में लगी मूँज का तान छूँछा (निर्बल, निःसक्त, रीता) पड़ गया।

    (4) बंध=बंधन या बंध। कंध=दीवार या कंधा, जिसपर छप्पर टिकता है, सं. स्कंध, प्रा. खंध। बाक=बाँक, छोटी आड़ी लगी हुई लकड़ियाँ या कैंची।

    (5) ररि= रड़ककर, खिससकर गिरी हुई। देशी. रड्ड (कुमारपाल-प्रतिबोध)= खिसककर गिरा हुआ (पासद्द. पृ. 874)। हिं. रढ़कना।

    दूबरि=दोभर, दुपलिया या दुपरती, बीच में बलेंडा रखकर रखकर दोनों तरफ ढाल देकर जो दुपल्ली छान बनती है। जायसी का आशय है कि दुपलिया छान अपने स्थान से खिसककर टेक से विचलित हो गई है।

    थंभ और थूनी-थंभ, नई छान को रोकने के लिये बनाया गया खंभा। थंभ के निकल जाने पर सहारा लगाने के लिये जो लकड़ी की बल्ली लगाई जाती है उसे थूनी कहते हैं।

    (6) नैन= छप्पर के प्रकरण में इसका अर्थ वह छेद है, जिसमें से धुआँ निकलता है। पाली धूमनेत्त=धूमनेत्र (चुल्लवग्ग 6।3।9, विनय पिटक 1।204, जातक 4।363, राईस डेविड्स, पाली डिक्शनरी, पृ. 213)।

    (7) कोरे=बिना चिरे हुए बाँस, जिनसे टट्टर या छान का ठाट बनाया जाता है (बिहार पेजेंट लाइफ, अनुच्छेद 1258)।

    नव ठाट=छप्पर को नए सिरे से बाँधने के लिये ‘नव ठट करब’ (वि. पे. ला., अनु. 1246) भोजपुरी में चालू प्रयोग है। दुपलिया छप्पर के प्रत्येक पल्ले को ठाट कहते हैं।

    (9) छान्हि=छावनी। सं. छादन> प्रा. छयणि या छायणी>छाइनि>छानि>छान्हि।

    (3) पक्षि-नामावली

    (नागमती वियोग खंड 30।18, क्रमांक दोहा 358)

    भई पुछारि लीन्ह बनबासू। बैरिनि सवति दीन्ह चिल्हवाँसू।

    कै खर बान कसै पिय लागा। जौं घर आवै अबहूँ कागा।2

    हारिल भई पंथ मैं सेवा। अब तहँ पठवौं कौनु परेवा।3

    धौरी पंडुक कहु पिय ठाऊँ। जौं चित रोख दोसर नाऊँ।4

    जाहि बया गहि पिय कँठ लवा। करै मेराउ सोई गौरवा।5

    कोइलि भई पुकारत रही। महरि पुकारि लेहु रे दही।6

    पियरि तिलोरि आव जलहंसा। बिरहा पैठि हिएँ कत नंसा।7

    जेहि पंखी कहँ अढ़वौं कहि सो बिरह कै बात।8

    सोई पंखि जाइ डहि तरिवर होइ निपात।9

    पहला अर्थ (चिड़ियों के पक्ष में)

    (1) मैंने मोरनी बनकर प्रिय के लिये बनवास लिया। पर बैरिन सौत ने फँसाने का फंदा लगा दिया।

    (2) अब भी जब कभी खरबानक के साथ कौवा घर जाता है, तो प्रिय लगता है।

    (3) हारिल मार्ग में टिक रही, अब वहाँ किस पक्षी को भेजूँ?

    (4)हे धौरी, हे पुंडक, प्रिय का स्थान बताओ। यदि चितरोख पक्षी मिले तो दूसरे का नाम लूँ।

    (5) हे बया, तू जा, मैं प्यारे कंठखवा को लेती हूँ। जो जोड़ा खाता है वही गौरवा पक्षी है।

    (6) कोयल बनकर मैं पुकारती रही। महरी (ग्वालिन) पुकार रही है- दही लो, दही लो।

    (7) हे प्रिय, तिलौरी और जलहंस आते है। कटनास पक्षी (नीलकंठ) हृदय में पैठकर उड़ गया।

    (8) विरह की वह बात कहकर जिस पक्षी को (जने के लिये) आज्ञा देती हूँ,

    (9) वही जल जाता है और उसका पेड़ भी नष्ट (निपात) हो जाता है।

    टिप्पणी-

    (1) पुछारि= (1) मोरनी (2) पूछने की शत्रु। चिलवाँसू=चिड़िया पकडने का फंदा। देशी. चिल्ला (शकुनिका, देशी नाममाला 3।9, 8।8+पाश>चिल्लवास>चिल्हवाँस।

    (2) खरबानक= एक पक्षी। सै= साथ में। पिय लागा= अच्छा लगता है।

    (3) हारिल= हरियल पक्षी। सं. हारीत। भई पंथ मैं सेवा= मार्ग की खेवा करनेवाली हुई (मार्ग में टिक जानेवाली हुई)।

    (4) धौरी= धवर पक्षी, फाख्ता की एक जाति। पंडुक= पड़की। चितरोख= चितरोख पक्षी, फाख्ता की एक जाति।

    (5) बया= बया नाम का पक्षी। कंठलवा= कंठलवा पक्षी, लवा की एक जाति। करै मेराउ= मिलाप करना, जोड़ा करना। जो जोड़ा खाता है वही भाग्यशाली है। गौरवा। सं. गौर, गौरैया का नर, चिड़ा पक्षी।

    (6) कोइलि=कोयली पक्षी। महरि=ग्वालिन चिड़िया, जो दही-दही बोलती है।

    (7) पियरि=पक्षी अर्थ में इसका परच्छेद होगा-पिय+रि=पिय+रे (उर्दू लिपि में)= हे प्रिय। तिलौरी= तेलिया मैना। जलहंस= जल में क्रीड़ा करनेवाले हंस। कतनंसा= कटनास पक्षी (नीलकंठ)। बिरहा= उड़ गया, चला गया।

    (8) अढ़वौं, धा. अढ़वना= आज्ञा देना (शब्दसागर), कार्य में नियुक्त करना, काम में लगाना (शब्दसागर)। प्रा. आढव, सं. आरंभ, शुरू करना (हेम. 4।155)।

    (9) निपात=गिर जाना, नष्ट हो जाना, बिना पत्तों के हो जाना। इस प्रकरण में आए हुए पक्षियों की पहिचान के लिये मैं कुँवर सुरेशसिंह जी के लेख “जायसी का पक्षियों का ज्ञान” (प्रेमी अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 160-161) का आभारी हूँ।

    दूसरा अर्थ (नागमती पक्ष में)

    (1) पूछनेवाली बनकर उसने बनबास लिया (कि पक्षियों से प्रिय का समाचार पूछूँगी पर कोई पक्षी वहाँ पहुँचता ही नहीं, क्योंकि) बैरिन सौत ने पक्षियों को फँसाने के लिये चिल्हबाँश लगा रखे हैं।

    (2) इतने पर भी कोई कौवा यदि घर पहुँच जाता है, तो प्रियतम (भी उसी षड्यंत्र में मिलकर) तीक्ष्ण बाण चढ़ाकर उसकी ओर खींचने लगता है। अथवा, पहली दो पंक्तियोंका अर्थ इस प्रकार होगा- (1) पूछनेवाली बनकर उसने बनबास लिया। बैरिन सौत नेपति को छल फंदे में फँसा रक्खा है (या अपने चुहल में फँसा रक्खा है)। (2) प्रियतम ने पहले अपनी कंचन-काया को तपाकर उत्तम बान किया और अब उसे कसौटी पर कसकर देख रहा है। अब भी वह घर लौट आए तो क्या बिगड़ा?

    (3) उस मार्ग पर चलती चलती मैं थक गई हूँ। अब संदेशा लाने के लिये वहाँ किस पक्षी (या किस दूसरे) को भेजूँ?

    (4) श्वेत और पीली पड़ी हुई मेरे लिये अब प्रिय का ही ठाँव है। यद्यपि चित्त में रोष है, फिर भी दूसरा नाम नहीं जानती।

    (5) जो जाकर आए, प्रिय को कंठ पकड़कर ले आए और मुझसे मिला दे, वही गौरवशाली (बड़े पदवाला) है।

    (6) आम की गुठली की कोइली (पपैया) जैसी बनकर मैं पुकारती रही। मेरी सास जी को बुलाओ। हाय मैं जली!

    (7) पियरी और तिलौरी आती है, तो मेरा जी (हंस) जलता है। विरह हृदय में घुसकर क्यों मुझे मार रहा है?

    (8) विरह की वह बात सुनाकर जिस पक्षी के पास आती हूँ,

    (9) वही पक्षी जल जाता है और वह पेड़ भी नष्ट हो जाता है।

    टिप्पणी-

    (1) पुछारि= पूछनेवाली। सं. पृच्छा कारिका> पुच्छ आरिआ> पुछारिआ<पुछारी। चिल्हवाँसू, चिन्ह और चिल्ह को एक मानकर छलबाँसू पढा जायगा। अर्थ होगा छल-पाश या कपट का फंदा।

    (2) खर बान करके कसना, जायसी की यह प्रिय कल्पना और शब्दावली सोना साफ करने की प्रक्रिया से ली गई है। बनवारी नामक आईन में खरे सोने के बान करने की प्रक्रिया बताई गई है। ईरान में दस बान का सोना खरा समझा जाता था, किंतु भारत में बारह बान का (आईन अकबरी, आईन सं. 5,6)। खरा बान करते हुए सोने को हर बार कसौटी पर कसकर देखते हैं। कसे=सं. कर्षति>प्रा. कस्सइ, खींचता है। हारिल= थकी हुई। परेवा= पक्षी या अन्य कोई।

    (4) धौरी= सफेद, विरह में रंग उतरने से श्वेत पड़ी हुई। पंडुक= पांडु रंग की पीली। कहु= के लिये। चितरोख= चित्त में पति के प्रति रोष। जाहि-अया= संदेश लेकर जा और लौट आ। बया= (फा. क्रि. मध्यमपुरुष, एकवचन)।

    (5) गौरवा, गौरवयुक्त। सं. गौरववत्।

    (6) कोइली= आम की गुठली (शब्दसागर), उसके भीतर की बिजखी जिससे बच्चे बजाने का पपैया बनाते हैं। महरी= सास, पुं, महरा= ससुर (424।3, नाँउँ लै महरा)। दही= जल गई, दग्ध हुई।

    (7) पियरी= पीली रंगी हुई मांगलिक धोती या ओढ़नी (शब्दसागर) (काशी में विवाहोपरांत अब भी पियरी चढ़ाते हैं)। तिलोरी= तिलयुक्त बड़ियाँ, जो स्त्रियाँ के लिये दी जाती है।

    4- पुष्पों के नाम

    (रत्नसेन बिदाई खंड 32।4, क्रमांक दोहा 377)

    बिनौ करै पदुमावति नारी। हौं पिय कँवल सो कुंद नेवारी।1

    मोहि असि कहाँ सो मालति बेली। कदम सेवती चाँप चँबेली।2

    सिंगार हार जस ताका। पुहुप करी अस हिरदे लागा।3

    हौं सो बसंत करौं निति पूजा। कुसुम गुलाल सुंदरसन कूजा।

    बकचुन बिनवौं अवसि बिमोही। सुनि बिकाउ तजि जाही जूही।

    नागेसरि जौं है मन तोरे। पूजि सकै बोल सरि मोरैं।

    होइ सतबरग लीन्ह मैं सरना। आगें कंत करहु जो करना।7

    केत नारि समुझावै भँवर काँटे बेध।

    कहै मरौं पै चितउर करौं जग्गि असुमेध।9

    पहला अर्थ (फूलों के पक्ष में)

    (1) पद्मावती अपनी वाटिका की प्रशंसा (विज्ञप्ति) करती है (अथवा पद्मावती अपनी बाटिका में फूल बीनती है। मैं प्रिय कमल हूँ, वह नागमती, कुंद और नेवारी के समान है (या, मैंने उस कुंदरूपी नागमती का निवारण कर दिया है)।

    (2) उसके पास मेरे जैसी मालती की बेल नहीं है। वह तो कदंब की सेवा करती है या चमेली को लिए बैठी है। अथवा, उसकी बाटिका में मेरी बाटिका जैसी मालती की बेल, कदंब, सेवती, चंपा और चमेली कहाँ है?

    (3) मेरे यहाँ वह हरसिंगार जैसा दिखाई पड़ रहा है (वह अति सुंदर है)। उसके फूलों की कलियाँ हृदय को लुभाती हैं।

    (4) मैं वह वसंत हूँ जो गुलाल, सुदर्शन और कुंजक पुरुषों से सदा भरी रहती हूँ। या मैं सदा वसंत में गुलाल, सुदर्शन और कूजा के पुष्पों से शिव की पूजा करती हूँ, अथवा वसंत में मैं सदा फूल और गुलाल से शिव-पूजन करती हूँ और उनके दर्शन से आनंदित होती हूँ)।

    (5) जाही जूही के पुष्प छोड़कर बकावली पर अनुरक्त हो उसके गुच्छे चुनकर रखती हूँ। अथवा, उस बकावली को छोड़कर जाही जूही के गुच्छे चुनती हूँ।

    (6) तेरे मन में जो नागकेसर है, वह मेरी मौलसरी की बराबरी नहीं कर सकती।

    (7) स्वयं सदबरग बनकर मैंने सरना फूल का साथ पसंद किया है। हे प्रिय, तुम्हारे पास जो करना फूल (नागमती) है उसे सामने लाओ।

    (8-9) केतकी रूपी स्त्री समझाती थी, किंतु भौंरा काँटे में फँसता था। कहता था मैं चित्तौड़ में ही मरूँगा और वहीं अश्वमेध यज्ञ करूँगा।

    दूसरा अर्थ (पद्मावती पक्ष में)

    (1) पद्मावती बाला बिनती करने लगी- हे प्रिय, मैं पद्मिनी हूँ, वह (नागमती) खराद पर बनाई हुई (कठपुतली) है।

    (2) वह मेरे जैसी तीन भंगिमाओं वाली सुंदर नहीं है। मैं आपके चरणों की सेवा करती और चमेली का तेल मलती हूँ।

    (3) उसका श्रृंगार करनेवाला हार जैसा (अथवा जस्ते का) है, वह कली किए हुए पीतल की भाँति हृदय में चुभता है।

    (4) मैं आपके साथ शयन करने के लिये गुलाल सदृश पुष्प (ऋतु धर्म) से सदा भरती हूँ और आपके दर्शन से कूजती (आनंदित) होती हूँ।

    (5) आपके रूप से अपने वश में रहकर मैं मोहित हो गई हूँ और वाक्य चुन-चुनकर विनती करती हूँ। उन्हें सुनकर आप मुझे बहकाकर और त्याग कर यदि चले जायँगे तो मैं आपकी बाट जोहूँगी।

    (6) यदि आपके मन में वह सर्पिणी बसी है तो वह मोर की (अथवा मेरी) बोली के सामने नहीं ठहर सकती।

    (7) सत्य के बल की अनुयायी होकर मैंने आपकी शरण ली है। हे कंत, आगे जैसा आप करना चाहें करे।

    (8) स्त्री कितना ही समझाती थी, किंतु भौंरा काँटें में बिंधता था।

    (9) कहता था मैं चित्तौड़ में ही मरूँगा और वहीं अश्वमेघ यज्ञ करूँगा।

    टिप्पणी-

    (1) कँवल= पद्मिनी स्त्री या कमल का फूल। कुंद= खराद, एक फूल का नाम। नेवारी= बनाई गई, निवृत्त की गई, एक फूल का नाम। कुद नेवारी= खराद पर खरादी हुई कठपुतली जिसे बौली (भाउल्लिया=पुतली) भी कहते हैं।

    (2) मालति बेली= मालती की बेल। पद्मावती के पक्ष में अर्थ होगा ‘मालति बेली अर्थात् तीन मोड़ या त्रिभंग का लता-बंध नामक रतिकरण जाननेवाली, त्रिभंगी मुद्रा से लिपट जानेवाली।’ माल= चेष्टित होना, लिपटना (पासद्द. पृ. 851) अथवा, माल= सुंदर (देशी. 6।146), तिवेली= त्रिभंगी शरीर-यष्टि बाली। कदम= कदंब का पुष्प, चरण। सेवती= सेवती या शतपत्रिका नामक सफेद गुलाब का फूल। सं. शतपत्रिका >प्रा. सयदत्तिया>सइउत्तिआ>सेउतिआ>सेवती। चाँप= चंपा, चंपा का फूल, धातु चाँपना= मोड़ना, मलन्ध, दबाना। चंबेली= चेमेली।

    (3) सिंगार हार= पारिजात या हरसिंगार नामक फूल, अथवा श्रृंगार करने का हार। आईन की पुष्प-सूची में सिंगारहार का नाम है। जस ताका, जैसा उसका है, या जस्ते का बना हुआ। पुहुप= पुष्प, पीतल या फूल। करि= फूल की कली, अथवा कलई, मुलम्मा। हिरदै लागा= कंठ में पहना हुआ, हृदय में चुभता है, मनको अच्छा लगता है।

    (4) हौं सो बसंत= (फूलों के पक्ष में) मैं वह बसंत हूँ, (पद्मावती पक्ष में) मैं आपके साथ सोने के लिये (सोब+संत)। निति पूजा करौं= नित्य पूजन करती हूँ। (पद्मावती पक्ष में) ऋतु-धर्म से नित्य भरती हूँ। फारसी लिपि में सो को सिव भी पढ़ा जायगा। वसंत में शिवरात्रि के दिन फूल-गुलाल से शिव का पूजन किया जाता है।

    पूजा, धातु पूजना, सं. पर्यते>प्रा. पुज्जइ। कुसुम गुलाल= सुंदर लाल रंग का फूल, अथवा फूल के पत्तों से बनाया हुआ अबीर। कुसुम= पुष्प, (पद्मावती पक्ष में) रजोधर्म। सुदरसन= सुदर्शन नामक फूल, (पद्मावती पक्ष में) सुंदर दर्शन से। कूजा= कुब्जक नामक पुष्प, (पद्मावती पक्ष में) कूजना या प्रसन्नता से गुनगुनाना।

    (5) बकचुन= (पद्मावती पक्ष में) इस शब्द का पदच्छेद होगा बक+चुन, वाक्य या शब्द चुन-चुनकर बिनती करती हूँ। (फूलों के पक्ष में इसका पाठ बकु-चन होगा)= छोटी गठरी या गुच्छा (जाही चूही बकुचन लाबा)।

    बिनवौं= बिनती या प्रशंसा करती हूँ या फूल चुनती हूँ। बकाउ, इसका पाठ माताप्रसाद जी ने बिकाउ दिया है। फारसी लिपि के अनुसार बकाउ और बिकाउ दोनो पाठ संभव हैं। बकाउ= वाक्य अथवा बहकाना। मुझे संदेह है कि मूल पाठ सुनि विकाउ था। प्रतीत होता है कि मूल पाठ सुबकाउरि था, जिसका अर्थ होगा (पद्मावती पक्ष में) सुंदर वाक्यावली को (त्यागकर यदि तुम चले जाओगे)। (फूलों के पक्ष में) सुंदर बकावली का पुष्प, गुलबकावली, जिसे हिंदी में बकाउरि भी कहा जाता था (हिंदी शब्दसागर, पृ. 2349)। इसमें मुझे जायसी की द्वअर्थ-गर्भित शैली के सौंदर्य के लिये पाठ-संशोधन (Text emendation) की आवश्यकता जान पड़ती है। माताप्रसाद जी की एक प्रति के अनुसार ‘सो ककउर’ पाठ है जो ‘सुबकाउरि’ मूलपाठ की ओर संकेत करता है। सुबकाउरि पाठ मानकर अर्थ होगा- नागमती रूपी सुंदर गुलबकावली से विमोहित होकर क्या पद्मावतीरूपी जूही को छोड़ जाओगे?

    जाही= जाति नामक पुष्प, (पद्मावती-पक्ष में) जाओगे।

    जूही= यूथिका नामक पुष्प, (पद्मावती पक्ष में) फारसी लिपि में इसका पाठ ‘जोही’ होगा= जोहना, बाट देखना, प्रतीक्षा करना या खोज लगाना।

    (6) नागेसरि, सं. नागेश्वरी, नाग की स्त्री, साँपिन, नागमती की ओर संकेत है। बोलसरि= मौलसरी का फूल। सं. बकुलश्री, (पद्मावती पक्ष में) बोल अर्थात् वाक्य के, सरि= तुलना में। मोरें= मोर या मेरे। मोरनी रूप पद्मावती के बोल सुनकर साँपिन रूपी नागमती बराबरी नहीं कर सकती।

    (7) सतवरंग= रन्दबर्ग नामक फूल, हजारा गेंदा, (पद्मावती पक्ष में) सत्य के बल से चलनेवाली (सत+बर+ग)। सरना= एक प्रकार का पौधा जिसका फूल गुलाबी रंग का होता है, बकुची, सं. सरण (मोनियर विलियम्स संस्कृत कोष, पृ. 1182), इसे प्रसरा (मोनियर. पृ. 698) और प्रसारणी भी कहते हैं (मोनियर. तथा वाट, डिक्शनरी ऑव इक्नॉमिक प्रॉडक्ट्स भाग 6 खंड 1 पृ. 2, Paederia foetida)। (पद्मावती पक्ष में) शरण।

    करना= एक पौधा, जिसके पत्ते केवड़े की तरह लंबे और बिना काँटों के होते हैं। उसमें सफेद फूल लगते हैं, सुदर्शन (हिंदी शब्दसागर), सं. कर्ण। आईन अकबरी में फूलो की सूची में करना बसंत में फूलनेवाला एक सफेद फूल है (आईन 30)। मोनियर विलियम्स संस्कृत कोश के अनुसार कर्ष दो पुष्पों का पर्यायवाची है- अमलतास (Cassia Fistula) और आक या मदार (Calotropis gigantea) का। प्रसंग के अनुसार यहाँ आक का फूल अर्थ ठीक बैठता है। पद्मावती का आशय है कि अपने नागमतीरूपी मदार के फूल को मेरे आगे करो। सतवरग.........इस चौपाई में तीन श्लेष से तीसरा भी अर्थ है। सत बरग= सात भांडे। तुरकी बैरक> हिं. बैरख>हिं बरग=झंडा। सरना= एक प्रकार का नायका बाजा जिसमें कम से कम नौ एक साथ बजाए जाते हैं।

    करना=उसी प्रकार का दूसरा बाजा, जिसमें चार एक साथ बजाए जाते हैं। अबुल फजल ने अकबर के नक्कारखाने का वर्णन करते हुए इन दोनों बाजों का वर्णन किया है (आईन. 21, पृ. 53)। जुलूस के समय कई प्रकार के शाही झंडे एक साथ चलते थे जिसका उल्लेख आईन-अकबरी में किया गया है (वही, पृ. 52)। पद्मावती का आशय यह है कि जुलूस में सात झंडो के साथ होकर मैं सरना नामक बाजा बजा रही हूँ। तुम्हारे पास जो नागमती रूपी करना नामक बाजा है, उसे हे प्रियतम, मेरे सामने आने दो। इस प्रकार श्लेष से इस वाक्य की अर्थगति कई ओर है।

    (8) केत= केतकी का फूल, (पद्मावती पक्ष में) कितना।

    5- पद्मावती द्वारा नागमती की वाटिका की प्रशंसा और निंदा

    (चित्तौर आगमन खंड 35।12, क्रमांक दोहा 432)

    पलुही नागमती कै बारी। सोन फूल फूली फुलवारी।1

    जावँत पंखि अहे सब डहे। वे बहुरे बोलत गहगहे।2

    सारौ सुवा महरि कोकिला। रहसत आइ पपीहा मिला।3

    हारिल सबद महोख सो आवा। काग कोराहर करहिं सोहावा।4

    भोग बेरास कीन्ह अब फेरा। बासहिं रहसहिं करहिं बसेरा।5

    नाचहिं पंडुक मोर परेवा। निफल जाइ काहु कै सेवा।6

    होइ उँजियार बैठि जस तपी। खूसट मुँह देखावहिं छपी।7

    नागमती सब साथ सहेलीं अपनी बारी माँह।8

    फूल चुनहिं फर चुरहिं रहस कोड सुख छांह।9

    पहला अर्थ (प्रशंसापरक)

    पद्मावती- (1) नागमती की वाटिका फिर से पल्लवित हुई है। उसमें सुनहले फूलों की फुलवारी फूली है।

    (2) जितने पक्षी थे, सब आकर उसमें उड़ने लगे हैं। वे सब लौटकर प्रफुल्लित हो बोलने लगे हैं।

    (3) मैना, सुग्गा, ग्वालिन और कोकिला के साथ रहसता हुआ पपीहा मिला है

    (4) उसमें हारिल बोल रहा है और महोख भी गया है। कौए सुंदर कोलाहल कर रहे हैं।

    (5) अब सब पक्षी फिर से भोग-विलास कर रहे हैं। वे सब उस वाटिका में बसते, रहसते और रात में बसेरा लेते हैं।

    (6) पंडुक, मोर और पारावत नाचते हैं। किसी की सेवा बिना फल के नहीं की जाती, सबको फलों का भोग मिलता है।

    (7) वह नागमती उज्जवल वेश में वहाँ तपस्विनी सी बैठी है। उसकी वाटिका में उल्लू मुँह नहीं दिखाते, कहीं छिप गए हैं।

    (8-9) अपनी बगीची में नागमती और साथ की सब सहेलियाँ फूल चुनती और फल खाती है, एवं रहसक्रीड़ा और सुख का आनंद लेती हैं।

    टिप्पणी- पलुही= पल्लवित हुई। सं. पल्लव लभ> पल्लव लह>पालो लह पलुह।

    (2) गहगहे= प्रफुल्ल या आनंदमग्न होकर। धातु. गहगहाना= आनंद और उमंग से फूलना। संभवतः सं. गद्गद से प्रा. गहगह= हर्ष से भर जाना (भविसयत्त कहा, पासद्द. 365)।

    (7) खूसट= उल्लू की एक जाति।

    दूसरा अर्थ निंदापरक

    (1) नागमती की वाटिका पाला मारी हुई है। उसकी बगीची तो नहीं फूलती पर वह फूलवाली (गर्व से) फूली हुई है।

    (2) उसमें जितने पक्षी थे, सब जल गए। वे बंधन में फँसे हुओं की भाँति बहुत टें-टें करते हैं।

    (3) किसने वहाँ से सुग्गे को मार डाला, ग्वालिन को कील दिया। उसका सत अब और कैसे बचेगा जब उसमें पपहा (घुन) लग गया है?

    (4) सब कुछ देकर भी वह हार गई है। अब किसी साँड़ को पास सुलाती है। उसकी गोद में कौआ है। ऐसी निर्लज्ज है कि हाथ के इशारे से वह श्रृंगार-चेष्टा (हाव) करती है।

    (5) भोगी और विलासी अब उसके यहाँ फेर करने लगे हैं। वे उसके साथ रहसते और उसी के यहाँ बसेरा करते हैं।

    (6) पंडुक रूपी उस नागमती को मोर जैसे पक्षी (रत्नसेन) अब नहीं चाहिएँ। अब तो किसी से भी सेवित होकर वह फल जाती है।

    (7) वह अनमनी होकर जली सी बैठी है और अपना खूसट सा मुँह नहीं दिखाती।

    (8-9) वह नागिन मर गई है साथ की सब सहेलियाँ उसकी अपनी बगीची में ही उसके फूल चुनती हैं और उसके निमित्त नारियल फोड़ती है। उसकी क्रीड़ा और उसका सुख सब समाप्त हो गया है।

    टिप्पणी

    (1) पलही= पाले से मारी हुई। फारसी-लिपि में पलुही और पलही दोनों पढ़े जा सकते हैं। सोनफूल का पदच्छेद होगा- सो फूल। फूली फुलवारी= फूलवाली घमंड में फूल गई है, अथवा शरीर से फूलकर मुटडंगी हो गई है जो बाँझ होने का लक्षण हैं।

    (2) डहे का एक अर्थ उड़ना (डहना= पंख) और दूसरा जल जाना है। ते बहुरे= (1) वे वापिस लौट आए, (2) पदच्छेद करने पर ते बहु रे (बोलत)। गहगहे= बंधन में पकड़े हुए, सं. ग्रह= बंधन, गृहीत (=पकड़े हुए) >प्रा. गहीअ। गहगहीअ>गहगहे।

    (3) सारौ, धातु सारना। सं. प्रह का धात्वादेश। प्रा. सारइ= मारता है (हेमचंद्र. 4।84)। महरि कोकिला, पदच्छेद महरि को किला= किसने ग्वालिन चिड़िया को कील दिया या उसका मुँह बंद कर दिया। रहसत का पदच्छेद रह+सत क्या उसका सत रह सकता है? पपीहा= फारसी लिपि में लिखा हुआ यह शब्द पपहा भी पढ़ा जायगा। पपहा= एक प्रकार का घुन जो जौ, गेहूँ आदि में घुसकर उनका सार खा जाता है और केवल ऊपर का छिलका ज्यों-का-त्यों रहने देता है (शभ्दसागर पृ. 1890)।

    (4) हारिल सबद= सब देकर भी हार गई। महोख= (1) एक प्रकार का पक्षी (2) साँड़। काव्यशास्त्र के अनुसार पुरुष चार जाति के होते हैं- अश्व, मृग, वृष, शश। यहाँ वृष-संज्ञक पुरुष से तात्पर्य है। महोख> सं. महोक्ष= साँड़। सो+आवा=सोआवा=सुलाती है। काग= कौआ अथवा कौए की जाति जैसा चालाक। कोराहर= (1) कोलाहल, (2) पदच्छेद-कोरा+हर= गोद में ले जाती हैं अर्थात् कौए जैसे धूर्त व्यक्ति को गोद में बैठाती है। कोरा, कोर>क्रोड़=गोद। करहिं सोहावा (पदच्छेद, करहिं सो+हावा) = वह हाथों से हाव (श्रृंगार-चेष्टा) करती है। यह अत्यंत कामुकता का सूचक है।

    (5) भोग बेरास- फारसीलिपि में इसे भोगि बेरासि भी पढ़ा जायगा, अर्थात् भोगी विलासी या जार, उसके यहाँ चक्कर काटने लगे। वे उसके साथ उठते-बैठते क्रीड़ा करते और उसी के यहाँ रहते हैं।

    (6) नाचहिं पंडुक, पदच्छेद ना+चहिं पंडुक, अर्थात् फाख्ता जैसी वह मोर जैसे तुमको नहीं चाहती। निफल जाइ काहु कै सेवा, इस वाक्य के कई व्यंग्य अर्थ हैं- (1) कोई भी उसकी सेवा करे, वह निष्फल नहीं जाती, उसी से फलवती या हरी हो जाती है, (2) वह बगीची बिना फल की है, किसी के काम नहीं आती।

    (7) उँजियार (फारसी-लिपि में यह अनजियार भी पढ़ा जा सकता है)= अन्य जी की, अनमनी। तपी= तपाई गई या जली हुई। होइ अंजियार बैठ जस तपी, इसका अर्थ यह भी हो सकता है- शरीर से काजल (अंजन) सी काली वह जली बैठी है। अंजियारी<अंजन कारिका।

    (8) नागमती, पदच्छेद नाग+मती। फारसी लिपि में नाग को नागि भी पढ़ सकते हैं= नागि= नागिंनी अर्थात् नागमती। मती, सं. मृता> आ. मत्त= मर गई। नामगती की मृत्यु होने पर उसकी अपनी बगीची में, जहाँ वह क्रीड़ा करती थी, सखियों ने उसका दाह-संस्कार कर दिया।

    (9) फूल चुनहिं= दाह-क्रिया के बाद तीसरे दिन अस्थि बीनने को फूल चुनना कहते हैं। फर चूरहिं=मृतक के अस्थि-प्रवाह के साथ नारियल आदि फल तोड़कर साथ में डाल देते हैं। रहस कोड़, पदच्छेद रह+स कोड अर्थात् वह आनंद-सुख सब रह गया। कोड प्रा., कोड्ड, कुड्ड= कौतुक, क्रीड़ा।

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