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मीरा से संबंधित विभिन्न मंदिर- पद्मावती शबनम

नागरी प्रचारिणी पत्रिका

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    राजस्थान की भक्तिमती नारी मीराबाई की ख्याति देश के कोने कोने में व्याप्त है। जितनी ही अधिक इनकी प्रशस्ति है उतना ही उलझा हुआ इनका जीवनवृत्त है। इतना ही नहीं, इस अपूर्व प्रशस्ति के ही कारण प्राप्त सामग्री में किंवदंतियों की संख्या विशेष है। मीरा बाई द्वारा पूजित मूर्ति एवं उनकी साधनावस्थली को लेकर भी अनेक विवाद चल पड़े है।

    मीरा बाई का मंदिर जैसी ख्याकि के कई मंदिर प्रसिद्ध है। मेडता में चतुर्भुज जी का मंदिर, चित्तौड़गढ़ में कुंभश्याम के मंदिर के पास स्थापित एक अन्य मंदिर, आमेर में जगतशिरोमणि जी का मंदिर, नरपुर के किले में गिरधरलाल जी का मंदिर, डाकोर और द्वारिका में रणछोड़ जी का मंदिर, एवं वृंदावन में सूदन्ना बिहारी जी का मंदिर, सभी मीरा बाई द्वारा स्थापित होने का दावा करते हैं। इन मंदिरों में स्थापित विभिन्न प्रतिमाएँ भी मीरा बाई द्वारा पूजित मानी जाती है। उपर्युक्त सभी मंदिर एवं उनमें स्थापित विभिन्न मूर्तियों का मीरा बाई से संबंधित होना संभव नहीं प्रतीत होता।

    मंदिर एवं मूर्तियों के विषय में इस भ्रमात्मक धारणा का मुख्य कारण वही प्रतीत होता है कि मीरा नाम के कई व्यक्ति कई है। केवल स्त्रियों ने अपितु कई पुरुषों ने भी मीरा नाम को अपनाया है। एक मीरा बाई बॉसवाडा के पास किसी गॉव की निवासिनी थीं, वे आजन्म कुँवारी रहीं। इनकी रचनाओं का संग्रह बॉसवाडे के प्रणामी पंथ के मंदिर में सुरक्षित है। दूसरी मीरा बाई मारवाड़ नरेश राठौड मालदेव की पुत्री थीं। तीसरी मीरा वृंदावन के गुसांई तुलसीदास की पुत्री थीं। गुजरात में मीरा जी नाम के एक ब्राह्मण थे। कहा जाता है कि वे चैतन्य महाप्रभु से प्रसिद्ध हुए। मीरादास नामक एक रामानंदी साधु भी हुए हैं जिन्होंने नरसी रो माहेरो लिखा। स्पष्ट ही नाम के इस ऐक्य के कारण ही उपर्युक्त गड़बड़ी हुई है।

    कानूनी दस्तावेजों के आधार पर वृंदावन में स्थित सूरजबिहारी जी के मंदिर के विषय में तो वह निश्चयपूर्व ही कहा जा सकता है कि केवल नाम सामजस्य के कारण ही इसका संबंध राजस्थान की प्रसिद्ध भक्तिमती नारी मीरा के साथ जुड़ गया है। मंदिर के वर्तमान मुतवल्ली श्री ठाकुर मंगलसिंह जी के पास मंदिर का जो पट्टानामा है उसके आधार पर यह मालूम होता है कि लक्ष्मी ठाकुरानी साहिबा बीकानेर ने सन् 1885 में इस पुराने मंदिर को मय जायदाद के गोविंद जी से लिया। ठाकुर मंगलसिंह जी के पास इस मंदिर से संबंधित एक फारकती भी है। इस फारकती के अनुसार लक्ष्मी ठकुरानी साहिबा बीकानेर ने मंदिर को किसी रामानंदी वैष्णव गोसांई तुलसीदास की पुत्री मीरा बाई के हक में दान कर दिया। बाद में ठकुरानी साहिब की आज्ञा से ही मंदिर में विराजित सूरजबिहारी जी के वर्तमान विग्रह की स्थापना सन् 1898 में की गई। आजकल यही मंदिर मीरा बाई के राधामोहन जी का मंदिर कहलाता है। इस मंदिर को कबीर के गुरु रामानन्द का भी स्थान माना जाता है। इसके पास ही रूप गोस्वामी एवं जीव गोस्वामी की समाधियाँ भी हैं। कहा जाता है कि यह स्थान कभी इन गोस्वामियों का निवास रहा है। वृंदावन के अन्य प्रतिष्ठित सज्जना की मौखिक साक्षियाँ भी इस फारकती का समर्थन करती हैं। बहुत संभव है कि राजरानी भक्तिमती मीरा बाई से इसका संबंध जोड़ने का अनुचित प्रयास किसी स्वार्थवश किया गया हो।

    यह भी संभव है कि मीरा बाई द्वारा की गई वृंदावनयात्रा एवं उस अवसर पर रूप गोस्वामी और जीव गोस्वामी से भेंट करने की जो कथा प्रचलित है उसके मूल में इस मंदिर की प्रचारित प्रशस्ति ही रही हो क्योकि बहि एवं अंत साक्ष्य के आधार पर मीरा द्वारा की गई वृंदावन की यात्रा ही सर्वथा संदिग्ध है।

    आमेर में स्थित जगतशिरोमणि जी के मंदिर में ही खुदे हुए शिलालेखों के आधार पर इस मंदिर से मीरा का संबंध संदिग्ध है। गरुड़ जी की मगमर्मर की चौकी पर ही निम्नांकित दोनों उल्लेख मिलते हैं—

    (1) संवत् 1911 फागुन सुदी साता- सब का (1) सूत्रधार दो ही थे ईसर की से।

    (2) सं. 1719 वि मानवसुदी 8- दास से बेटा- दुबे नैण।

    इन दोनों शिलालेखों से कोई भी स्पष्ट नहीं प्रकट होता। यह भी नहीं कहा जा सकेगा कि दोनों ही उल्लेख प्रामाणिक हैं या कोई एक हैं, या दोनों ही संदिग्ध है। इस विषय मं केवल यही कहा जा सकता है कि मीरा का कोई संबंध कभई आमेर से रहा हो, किंतु ऐसा कोई इंगित सबूत प्राप्त सामग्री में कहीं नहीं मिलता। सरपुर के किले में स्थित ब्रजराज स्वामी के मंदिर और शिवराजपुर (फतेहपुर) में स्थित गिरधरलाल के मिंदर के बारे में भी यही कहा जा सकता है कि उपर्युक्त स्थानों से मीरा का कोई संबंध रहा होगा, किंतु प्राप्त जीवनवृतांत के आधार पर इसका प्रमाण नहीं मिलता।

    मेडता, चित्तौड़गढ़, डाकोर एवं द्वारिका में ही मीरा का जीवन व्यतीत हुआ। मीरा का बचपन मेड़ता में, विवाहित जीवन एवं तत्कालांतर व्याप्त संघर्ष चित्तौड़गढ़ में, तथा गृहत्याग के बाद जीवन का अंतिम काल द्वारिका में व्यतीत हुआ। अतः इन शहरो में मीरा की साधनास्थली का पाया जाना बहुत ही स्वाभाविक है तथापि मंदिरों में स्थापित विभिन्न विग्रहों के कारण उपर्युक्त मंदिरों की प्रामाणिकता अमान्य होती है। तथाकथित मीरा के पदों में संतमत, नाथपंथ एवं मधुरभावप्रधान वैष्णव मत, तीनों का ही बड़ा स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। तथापि सदा ही गिरधर गोपाल मीरा के प्रभु हैं। यह एकनिष्ठ एक रूपात्मकता ही मीरा की विशेषता है। उनका जीवनप्राण है। उपर्युक्त विभिन्न मंदिरों में प्राप्त विभिन्न विग्रहों के कारण यह एकोन्मुख प्रवाहित धारा अविच्छिन्न नहीं रह पाती। अतः इसकी प्रामाणिकता में सहज ही संदेह होता है।

    इन सभी मंदिरों के कानूनी दस्तावेज एवं शिलालेखों के आधार पर गहरी खोज के बाद ही वास्तविकता का निर्णय किया जाना चाहिए।

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