उमर खैयाम की रुबाइयाँ (समीक्षा)- श्री रघुवंशलाल गुप्त आइ. सी. एस.
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जिस दिन इंगलैंड के रसज्ञ कवि रोजेटी ने रुबाइयात् आव् उमर खैयाम उसके विक्रेता से- दूकान के बाहर डाली हुई, न बिकनेवाली पुस्तकों के ढेर में से- एक पेनी (एक आने) में बड़े कौतूहल से खरीदी और फिर रसाप्लुत हो अपने सभी मित्रों को खरिदवाई, उस दिन विश्व में उमर खैयाम का और साथ ही एडवर्ड फिट्जजेराल्ड का कवित्व बड़े चमत्कार से प्रसिद्ध हुआ। उसके आठ सौ वर्ष पूर्व फारस में उमर खैयाम एक बहुत मनीषी, विशेषतः एक ज्योतिषी के रूप मं ही प्रसिद्ध हुए थे। उनकी मुक्तक कविताएँ, रुबाइयाँ (चौपदे), जो उन्होंने स्वांतःसुखाय तथा अपनी मित्रगोष्ठी के विनोद के लिये लिखी थीं, यथेष्ट प्रसिद्ध न हुई। धीरे धीरे उन्हें सुनकर रिंद मत्त हुए और सूफी भी झऊम पड़े। जहाँ-तहाँ रुबाइयाँ संगृहीत हुईं, संग्रहकर्ताओं की रुचि और मति के अनुसार प्रायः सम्मिश्रित और संवर्द्धित होकर। पर उनकी काफी परख न हुई, खैयाम को काव्य-साहित्य में प्रतिष्ठा न मिली। पंरतु खैयाम की रुबाइयों में काल, नियति, जीवन की क्षणभंगुरता, जीवन-तत्व की दुर्बोधता और क्षणिक सुखों की बहुमूल्यता आदि से संबद्ध मानव-उर की वे चिरंतन वेदनाएँ व्यक्त हुई थीं, जिनमें सारे दर्शन विज्ञान को विडंबना बताकर मानव को अपनी ओर बरबस आकृष्ट करने की शक्ति थी। उन्हें विश्वप्रसिद्ध करने का श्रेय रुबाइयतात आव् उमर खैयाम (उमर खैयाम की रुबाइयाँ) के पारखी और कुशल कवि फिट्जजेराल्ड ने संपादित किया।
रुबाइयात् आव् उमर खैयाम ने कितने ही सहृदयों को आकृष्ट किया, उमर खैयाम क्या थे और उनकी रुबाइयाँ कैसी थीं, वे नास्तिक थे या आस्तिक, उनकी रुबाइयों में एक रिंद की ध्वनि थी या एक सूफी की, उनका प्रामाणिक संग्रह कौन है- इन तर्क-वितर्कों में प्रवृत्त किया और अनुवाद के लिये भी प्रेरित किया। फिट्जजेराल्ड ने खैयाम को विचारशील अधार्मिक और रिंद मानकर ही उनकी चुनी हुई रुबाइयों का अपनी भाषा में, पर उनके से ही छंद में, स्वतंत्र अनुवाद या छायानुवाद किया।
फिट्जजेराल्ड ने प्रायः स्वतंत्र अनुवाद या छायानुवाद ही किया, कोरा अनुवाद कहीं नहीं। तुलनात्मक दृष्टि से उनकी रुबाइयात् को देखने से यह प्रकट होता है कि उन्होंने खैयाम के भावों में रमकर बहुत कुछ नई काव्य-रचना की। इसमें खैयाम के काव्य का बहुत कुछ कायाकल्प या रूपांतर अवश्य हो गया। परंतु इस काव्य-रचना से, इस अनुवाद कला से, खैयाम का काव्य खिल उठा। कितनी ही भाषाओं में रुबाइयात् के, मूल रुबाइयों के भी, अनुवाद हुए और इनके संबंध में अनुसंधान और विचार हुए।
भारतीय भाषाओं में, हमारे जान में, हिंदी में ही खैयाम की रुबाइयों के सब से अधिक, छः अनुवाद हुए हैं। पूर्वोक्त सुयोग से सफल हो फिट्जजेराल्ड ने रुबाइयात् के पहले संस्करण के बाद तीन और संस्करण निकाले। 75 रुबाइयों का पहला और 101 रुबाइयों का चौथा संस्करण प्रसिद्ध है। हिंदी में रुबाइयों का पहला अनुवाद, रुबाइयात् के पहले संस्करण से, श्री मैथिलीशरण गुप्त ने प्रस्तुत किया। चुनी हुई मूल रुबाइयों का एक बड़ा अनुवाद श्री इकबाल वर्मा सेहर ने उपस्थित किया।
गुप्तजी के अनुवाद के कुछ पीछे श्री केशवप्रसाद पाठक का अनुवाद, रुबाइयात् के पहले संस्करण से ही, प्रकाशित हुआ। प्रायः इसी समय श्री बलदेवप्रसाद मिश्र का मादक प्याला प्रकाशित हुआ, जो रुबाइयात् के चौथे संस्करण और 49 मूल रुबाइयों का अनुवाद है। हाल की श्री बच्चन-कृत खैयाम की मधुशाला रुबाइयात् के पहले संस्करण का ही अनुवाद है। यहाँ किसी तारतमिक विचार का अवसर नहीं है। इनमें यह सामान्यतः लक्ष्य है कि इनके रचयिताओं ने रुबाइयों के एक एक रूप का ध्यान रखते हुए अपनी अपनी रसिकता और कुशलता के अनुसार उनका भावानुवाद किया है।
श्री रघुवंशलाल गुप्त की उमर खैयाम की रुबाइयाँ नई पुस्तक है। यह 72 पृष्ठों की एक छोटी, सुंदर पुस्तक है। पहले 28 पृष्ठों की भूमिका में विद्वान लेखक ने खैयाम की जीवन, रुबाइयाँ, रुबाइयों का अनुवाद और रुबाइयों की लोकप्रियता के विषयों पर अब तक के अनुसंधानों और विचारों के संक्षिप्त परंतु बहुत उपादेय विवेचन प्रस्तुत किए हैं और आत्म-निवेदन किया है। आगे 31 से 66 पृष्ठों में 72 रुबाइयाँ है और शेष 6 पृष्ठों के परिशिष्ठ में कुछ मूल रुबाइयों के उद्धरण हैं।
प्रस्तुत अनुवाद यथार्थतः नया है, विशेष ढंग का है। यह ढंग वही है जो फिट्जजेराल्ड का था- प्रायः स्वतंत्र अनुवाद या छायानुवाद, जिसमें बहुत कुछ नई काव्य-रचना होती है। अनुवादक ने भूमिका में कहा है कि “जो सलूक फिट्जजेराल्ड ने उमर खैयाम के साथ किया है, वही सलूक हमने फिट्जजेराल्ड के साथ करने का प्रयत्न किया है। उनके चौपदों को तोड़-मरोड़कर नए सिरे से सृष्टि करने का बीड़ा उठाया है, और फिट्जजेराल्ड की तरह मुक्तक काव्य का रूप रखते हुए भी, प्रबंधात्मक रूप को भुलाया नहीं है। जहाँ तक हो सका है, उमर खैयाम के मूल भावों को प्रधानता दी है, और कुछ ऐसी रुबाइयाँ भी जोड़ दी हैं जो फिट्जजेराल्ड के अनुवाद से संबंध नहीं रखती।“ श्री रवींद्रनाथ ठाकुर ने रुबाइयों के बँगला अनुवाद के विषय में लिखा है कि “ऐसी कविता को एक भाषा से लेकर दूसरी भाषा के ढाँचे में ढाल देना कठिन है, क्योंकि इस कविता का प्रधान गुण वस्तु नहीं गति है। फिट्जजेराल्ड ने भी इसी लिये ठीक-ठीक तर्जुमा नहीं किया, मूल के भावों की नए तौर पर सृष्टि की है। अच्छी कविता मात्र की तर्जुमा में नए तौर पर सृष्टि करना आवश्यक है।“ इस आफ्त-वचन से और फिट्जजेराल्ड के अनुवाद की सफलता से उत्साहित होकर गुप्तजी ने उसी ढंग का अनुवाद प्रस्तुत किया है।
जैसा कि उनकी भूमिका के उद्धरण से सूचित है, गुप्तजी ने अपनी 72 रुबाइयों की रचना फिट्जजेराल्ड की तथा खैयाम की रुबाइयों के चयन, तोड़-मरोड़ और अपनी कल्पना के आधार पर की है। उनकी 55 रुबाइयों के आधार फिट्जजेराल्ड की रुबाइयात् के चौथे संस्करण में है, यद्यपि पहले संस्करण के पाठों तथा मूल रुबाइयों के भावों और उनकी अपनी कल्पनाओं से संयुक्त ही उनके रूप हैं। शेष 17 रुबाइयाँ खैयाम की अतिरिक्त रुबाइयों के भावों और रचयिता की कल्पनाओं पर आधारित है। कहीं एक रुबाइ फिट्जजेराल्ड की एक पूरी रुबाइ का स्वतंत्र अनुवाद है, कहीं एक रुबाई में दो या तीन रुबाइयों के भाव हैं, कहीं एक में फिट्जजेराल्ड की आधी रुबाई और गुप्तजी की कल्पना का योग है, कहीं मूल खैयाम की एक पूरी रुबाई का भाव है, कहीं एक में दो या तीन हैं, कहीं खैयाम और फिट्जजेराल्ड के भावो का योग है और कहीं खैयाम और गुप्तजी का योग है- परंतु प्रायः सर्वत्र स्वतंत्र अनुवाद है। पहली ही रुबाई इसका अच्छा उदाहरण है-
जागो मित्र! भरो प्याला, लो, देखो वह सूरज की कोर
राजअटारी पर चढ़ती है फेंक अरुण किरणों की डोर।
नभ के प्याले में दिनकर की माणिक-सुधा ढालते देख
कलियाँ अधरपुटों को खोले ललक रही हैं उसकी ओर।
इसका पूर्वार्ध फिट्जजेराल्ड की रुबाइयात् के पहले संस्करण की पहली रुबाई के उत्तरार्ध का स्वतंत्र अनुवाद है और शेष अनुवादक की पूर्ति है। खैयाम की मूल रुबाई में सुबह के, अटारी पर, कमंद डालने की बात है, इस ओर अनुवादक ने ध्यान दिया है। दूसरी पंक्ति में इसका निर्वाह सुंदर है। परंतु सूरज की कोर के डोर फेंककर चढ़ने में रूपक ठीक बनता नहीं। पूर्ति का अंश जागो मित्र! भरो प्याला, इस पुकार के आगे माणिक-सुधा में अखिल प्रकृति की लीनता की सार्थक व्यंजना उपस्थित करता है।
14वीं रुबाई रुबाइयात् के पहले संस्करण की 11वीं, चौथे की 12वीं रुबाई का अनुवाद है—
दो मधूकरी हो खाने को, मदिरा हो मनमानी जो,
पास धरी हो मर्मकाव्य की पुस्तक फटी-पुरानी जो,
बैठ समीप तान छेड़े, प्रिय, तेरी वीणा-वाणी जो,
तो इस विजन विपिन पर वारूँ मिले स्वर्ग सुखदानी जो।
गुप्तजी की सरस रचना का यह एक उदाहरण है। पाठक तुलना करें । a Loaf of Bread के स्थान पर दो मधूकरी ने जो कुछ मिल जाय की ध्वनि ला दी है। A flask of wine या jug of wine से मदिरा हो मनमानी विशेष भावमय है। फिर वीणा-वाणी के तान छेड़ने पर Oh, Wilderness were Paradise, से इस विजन विपिन पर वारूँ मिले स्वर्ग सुखदानी जो का भाव कहीं उत्कृष्ट है।
गुप्तजी ने फिट्जजेराल्ड की तरह मुक्तक काव्य का रूप रखते हुए भी प्रबंधात्मक रूप को भुलाया नहीं है। जागो मित्र! की अरुण आशा से आरंभ करके उन्होंने-
लो चंद्रोदय हुआ, आयु का बीता और एक दिन हाय।
पूर्ण हो गया और एक लो जीवन-गाथा का अध्याय।।
पात्र भरो, शशिवदन! कि यह शशि जाकर फिर आवेगा लौट,
लौटेगा न गया अवसर पर, करना चाहे कोटि उपाय।
इस कारण वेदना में जीवन-गाथा का अध्याय अवसित किया है। और आरंभ की भरो प्याला की पुकार से अवसान की पात्र भरो की टेर तक एक ही गूढ़ मत्तता की व्यंजना उन्होंने निबाही है। यह रुबाई रुबाइयात् के पहले संस्करण की 74वीं, चौथे की 100वीं रुबाई का, मूल रुबाई से मिलता स्वतंत्र अनुवाद है। पाठक इसकी सरसता देखें।
और प्रकार की बानगी अब पाठक स्वयं देखें। गुप्तजी ने ऊपर उद्धृत अपनी प्रतिज्ञा का सुंदर निर्वाह किया है, खैयाम और फिट्जजेराल्ड के भावों में रमकर बहुत कुछ नए सिरे से सृष्टि की है। कविता के अनुवाद में भाषांतर नहीं, रुपांतर ही सफल होता है। देखना यह होता है कि मूल कवि की आत्मा अंतरित न हो, उसकी व्यंजना सफल हो। साथ ही अनुवाद मूल निरूपण का जितना निर्वाह कर सके अच्छा है। गुप्तजी ने अपनी नए सिरे की सृष्टि में मूल खैयाम का भी ध्यान रखा है, इससे उन्होंने खैयाम की आत्मा को, फिट्जजेराल्ड के अनुसार ही, काफी सुंदरता से व्यक्त किया है। मूल निरूपणों का निर्वाह भी उन्होंने मार्मिकता से किया है, यद्यपि अपनी कल्पना से उन्होंने बहुत काम लिया है।
रही कुछ अकुशलता, असफलता की बात। इस संबंध में गुप्तजी ने “हम अपनी त्रुटियों को भली-भाँति जानते हैं। खड़ी बोली के पंडितों को तो हमारी भाषा कई स्थानों में खटकेगी। फिर के स्थान में फेर, जहाँ के स्थान में जँह, और नित, बहु, सँग इत्यादि शब्दों के प्रयोग में वे अवश्य अप्रसन्न होंगे। पिंगल की कसौटी पर भी हमारे छंद एक से नहीं उतरेंगे। अपनी अयोग्यता के अतिरिक्त हम इन त्रुटियों का क्या जवाब दें? किंतु संभव है कि हिंदी भाषा के वे हितैषी, जो सूर, तुलसी, कबीर और देव की स्वछंदगामिनी भाषा को व्यर्थ नियमों में जकड़ी हुई और कवि की सुधावर्षिणी जिह्वा से उतरकर विद्यार्थियों के कोषों और कुंजियों में पड़ी हुई नहीं देखना चाहते, संभव है वे हमारी उच्छृंखलता पर प्रसन्न भी हों।” यह लिखकर अपनी रचना में कुछ त्रुटियाँ स्वीकार करते हुए उनके स्वतः परिहार की आशा की है। प्रत्येक भाषा की, उसकी रचना की अपनी मर्यादा होती है, उसका अपना प्रमाण बन जाता है। उसके अनुसार ही वह चलती और जँचती है। गुप्तजी को इसका ध्यान रखना ही होगा। उनकी रचना में हमें गुणराशिनाशी दोष नहीं मिले। कुछ त्रुटियाँ और विरसताएँ जो लक्ष्य है वे उनकी बढ़ती कुशलता से जाती रहेंगी, ऐसा हमें विश्वास है।
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