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रामावत संप्रदाय- बाबू श्यामसुंदर दास, काशी

नागरी प्रचारिणी पत्रिका

रामावत संप्रदाय- बाबू श्यामसुंदर दास, काशी

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    हिंदी साहित्य का इतिहास तीन मुख्य कालों में विभक्त किया जा सकता है- प्रारंभ काल, मध्य काल और उत्तर काल।

    प्रारंभ काल का आरंभ विक्रम संवत् 800 के लगभग होता है, जब इस देश पर मुसलमानों के आक्रमण आरंभ हो गए थे पर वे स्थायी रूप से यहाँ बसे नहीं थे। यह युग घोर संघर्षण और संग्राम का था और इसमें वीर-गाथाओं ही की प्रधानता रही। शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी के समय में मुसलमानों के पैर इस देश में जमने लगे और उनका शासन नियमित रूप से आरंभ हो गया। चौदहवीं शताब्दी के आरंभ में मुसलमानी शासन ने दृढ़ता प्राप्त की। इसी के साथ हिंदी साहित्य के इतिहास का मध्य काल आरंभ होता है जो संवत् 1400 से 1700 तक रहा। यह तीन सौ वर्शों का समय मुसलमानों के पूर्ण अभ्युदय का था। इन तीन शताब्दियों में वे अपने वैभव और शक्ति के शिखर पर चढ़ गए। परंतु मुसलमानी राज्य की नींव धर्मांधता पर स्थित थी। उसका मुख्य उद्देश्य इस्लाम धर्म का प्रचार और प्रसार करना था। इस कारण इस राज्य-काल में अन्य धर्मवालों पर घोर अत्याचार और अन्याय होते थे। धर्मांधता के कारण मुसमलान समझते थे कि हमारी एकता, शक्ति और संपत्ति का स्थायित्व हमारे धर्म पर ही निर्भर है। अतएव जितना ही हम उसका अनुकरण और प्रसारन करेंगे, उतनी ही हमारी उन्नति होगी। उनकी समझ में यह नहीं आता था कि घात से ही प्रतिघात भी होता है। छोटे से छोटे जीव भी दबाने से, अधिक दबाने से, सीमा से अधिक दबाने से अपनी रक्षा के लिये और अपने पीड़क पर अपना क्रोध प्रदर्शित करने तथा उन्हें दंड देने के लिये सिर उठाते हैं। हिंदुओं के लिये यह समय बड़ी विपत्ति का था। वे निरालंब, निराधार ओर निराश्रय हो रहे थे, उन्हें चारों ओर निराशा और अंधकार देख पड़ता था, कहीं से भी आशा और अवलंब की झलक नहीं देख पड़ती थी। ऐसे समय में भक्ति मार्ग के प्रतिपादक महात्माओं ने हिंदू भारतवर्ष की रक्षा की, उसे सहारा दिया और उसमें आशा का संचार कर उसे बचा लिया। इनमें से कुछ महात्माओं ने हिंदुओं और मुसलमानों में एकता स्थापित करने, उन्हें एक सूत्र में बाँधकर उनमें भ्रातृत्व स्थापित करने का उद्योग किया, पर इसमें उन्हें सफलता नहीं प्राप्त हुई। विजेता होने के कारण मुसलमान अहंमन्यता से मदांध हो रहे थे। हिंदुओं के लिये किसी ऐसे ईश्वर की आवश्यकता थी जो दुओं का दामन करेवाला, सुजनों की रक्षा करनेवाला, लोक-मर्यादा का स्थापित करनेवाला तथा मनुष्यों के लिये अनुकरणीय आदर्श चिरत्रों का भांडार हो और जिसके चरित्र उसके गुणों के प्रत्यक्ष प्रदर्शक हों। पीछे के महात्माओं ने इस भाव की पूर्ति की और उनके धार्मिक विचारों तथा आदेशों ने हिंदुओं के हृदयों पर स्थायी स्थान प्राप्त कर लिया जो अब तक ज्यों का त्यों बना हुआ है। अतएव मध्य काल के हिंदी साहित्य का इतिहास विशेष कर भक्ति मार्ग के प्रतिपादक महात्माओं की कृतियों का इतिहास हैं। एकश्वरवादी, रामभक्त और कृष्णभक्त इन तीन संप्रदायों ने भारतवर्ष की रक्षा ही नहीं की वरन् उत्तर भारत के साधारण जीवन के प्रतिबिंब स्वरूप उसके साहित्य का अभ्युदय भी किया। इस काल में अलंकारी कवियों का भी अभ्युदय भी हुआ। फल्पित कथाओं से हिंदी साहित्य शरीर की श्रीबद्धि तथा पुष्टि करनेवाले मुसलमान कवि भी इसी समय में हुए। परंतु यह विदेशीय पौथा भारतवर्ष की प्रतिकूल भाप-वायु में परिपोषित और पल्लवित हो सका। वह इसी डाल में लगा और इसी में मुरझा भी गया। जाहँ इस आस में मुसलमानी राज्य का अभ्युदय हुआ, वहीं साथ ही साथे उसकी जड़ में घुन भी लग गया और अंत में उत्तर काल में उसका समूल नाश भी हो गया, वहाँ हिंदी साहित्य भी उन्नति के शिखर पर पहुँचकर अंलकार के माया जाल में ऐसा फँसा कि वह अपना सच्चा स्वरूप ही भूलकर अपनी आत्मा का तिरस्कार कर बाहरी ठाट बाट और शारीरिक सजावट बनावट में औरंगजेब के समय के मुसलमानी राज्य की भाँति लग गया। सच्ची कविता अपने उच्च आसन से नीचे गिर पड़ी और अंत में उत्तर काल में एक प्रकार से विलीन हो गई। उत्तर काल में ब्रिटिश शासन की जड़ जमी, मुसलमानी अत्याचारों से साँस लेने का समय मिला, पूर्व और पश्चिम का सम्मेलन हुआ, आध्यात्मिक और भौतिकता में घोर संग्राम आरंभ हुआ। इन सब बातों का यह परिणाम हुआ कि भाव विचारादि में परिवर्तन होने लगा। कविता-युग की समाप्ति होकर गद्य-युग का आरंभ हुआ। इस काल में साहित्य-सरिता नए वेग और नए जल से पूरित हो बहने लगी।

    आज हम मध्य काल के हिंदी साहित्य का एक अंक उपस्थित करते हैं। इन तीन सौ वर्षों में जिस साहित्य-नाटक का अभिनय हुआ है, उसके और अंकों को भी यथा समय उपस्थित करने का विचार है।

    मध्य काल में हिंदी-साहित्य-सरिता कई धाराओं में प्रवाहित हुई। उसकी पहली धारा रामावत संप्रदाय की चर्चा को आरंभ करने के पहले उसकी परिस्थिति और पूर्वपीठइका का भी कुछ परिचय दे देना आवश्यक है। यद्यपि इस संप्रदाय का वास्तविक आरंभ कबीरदास जी से होता है, परंतु घटना श्रृंखला का सूत्रपात रामानुज से ही होता है। अतएव हम इस प्रकरण को उन्हीं से आरंभ करते हैं।

    (1) रामानुजाचार्य

    परंपरागत कथनों के अनुसार स्वामी रामानुजाचार्य का जन्म शक संवत् 936 (वि. सं. 1073) में हुआ था। इनकी पूर्वावस्था कांजीवरम् में बीती, जहाँ वे स्वामी शंकराचार्य के अद्वैतवाद के समर्थक यादवप्रकाश के शिष्य हुए। परंतु उन दिनों तामिल देश में वैष्णव धऱ्म का बहुत प्रचार हो रहा था। इसका प्रभाव रामानुज जी पर भी पड़ा। इस कारण वे अपने गुरु यादवप्रकाश को छोड़ यामुनमुनि के अनुयायी बने। यथा समय वे इन्हीं यामुनमुनि की गद्दी के उत्तराधिकारी हुए और त्रिचनापली के पास श्रीरंगम् में रहने लगे। इस समय चोलवंशीय राजाओं का प्रतापादित्य प्रखर प्रकाश से प्रकाशमान हो रहा था। इस वंश के राजा स्वामी शंकराचार्य के अद्वैत मत के अनुयायी थे। इस वंश के एक प्रसिद्ध राजा अधिराजेंद्र से, जिसकी हत्या वि. सं. 1131 में हुई थी, रामानुज जी की धार्मिक विचारों में विभेद के कारण अनबन हो गई। इसके उत्तराधिकारी राजेंद्र कुलोत्तुंग से भी रामानुज जी की बनी। अतएव वे वि. सं. 1153 में श्रीरंगम् छोड़कर होयसल वंशीय राजाओं के राज्य (आधुनिक मैसूर) में जा बसे। इश होयसल वंश का एक प्रतापी राजा वित्तिदेव या वित्तिंगदेव था जो इतिहास में विष्णु वर्धन नाम से प्रसिद्ध हुआ है। इसकी मृत्यु वि. सं. 1198 में हुई। इसने 30 वर्ष से अधिक राज्य किया था। यह विष्णुवर्धन पहले जैनमतावलंबी था। जब रामानुज जी इसके राज्य में रहने लगे, तब उनका प्रभाव इस पर पड़ने लगा और समय पाकर वह इनका अनुयायी हो गया। इसी समय इसने अपना नाम वित्तिंगदेव से बदल कर विष्णुवर्धन रख लिया। इसके समय में अनेक अच्छे मंदिर बने और वैष्णव धर्म की बहुत कुछ श्रीवृद्धि हुई। इसी के राज्य में रहकर वि. सं. 1194 में 121 वर्ष की अवस्था में रामानुज जी का स्वर्गवास हुआ। प्रपन्नामृत ग्रंथ के अनुसार रामानुज जी ने वि. सं. 1144 में यादवाचल पर नारावण की मूर्ति स्थापित की थी। इनके बनाए हुए बहुत से ग्रंथ बतलाए जाते हैं जिनमें मुख्य वेदांतदीप, वेदांतसार, वेदार्थसंग्रह तथा ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता पर भाष्य हैं। ये सब ग्रंथ संस्कृत में हैं।

    रामानुज जी के दार्शनिक सिद्धांतों के आधार पर उपनिषद् हैं। रामानुज जी के अनुसार अंतर्यामी ब्रह्म समस्त सृष्टि का कर्ता है। वही भोक्ता, भोग्य और प्रवर्तक है। वह ब्रह्म सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और करुणामय है। समस्त संसार ब्रह्ममय है, उससे बाहर कुछ भी नहीं है। परंतु इस अद्वैतवाद में, इस एकत्व में अनेकत्व की मात्रा वर्तमान है। इस संसार की जीवात्माएँ भिन्न भिन्न श्रेणी तथा चेतन की है, तथा संसार में अचेतन पदार्थ भी विद्यमान हैं जिनका ब्रह्मा से वैसा ही संबंध है जैसा शरीर का आत्मा से है। अतएव आत्माएँ तथा समस्त भौतिक पदार्थ उसी के अंतर्गत हैं, उससे अलग उनका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। इसी लिये उनका आदि है और अंत। कल्पांत में जब प्रलय होता है, तब भौतिक पदार्थ सूक्ष्म रूप में वर्तमान रहते हैं। उस समय उनमें वे गुण नहीं रहते जिनके कारण हमें उनका अनुभव हो सकता है। उस समय आत्माएँ शरीर से भिन्न हो जाती हैं और यद्यपि उनमें ज्ञान की शक्ति अंतर्हित रहती है, पर वे उसे प्रत्यक्ष करने में असमर्थ होती हैं। इस अवस्था से पुनः ब्रह्म की इच्छा से सृष्टि की उत्पत्ति होती है, सूक्ष्म पदार्थ स्थूल रूप धारण करते हैं और आत्माएँ अपनी ज्ञानशक्ति को प्रत्यक्ष करने लगती हैं तथा अपने अपने कर्म के अनुसार शरीर धारण करती हैं। प्रलय की अवस्था में ब्रह्म कारण-अवस्था में था, अब सृष्टि के पुनः उत्पन्न होने पर वह कार्य-अवस्था में हो गया।

    यही रामानुज जी के मुख्य दार्शनिक सिद्धांत हैं जिनके आधार पर उन्होंने अपने वैष्णव मत का मंदिर खड़ा किया। उनका कहना है कि ब्रह्म मुख्य रूपों में आविर्भूत होता है। पहला रूप “पर” है जिसमें वह वैकुंठ में शेषनाग पर विराजता है और लक्ष्मी, भू तथा लीला से घिरा हुआ और शंक चक्रादि धारण किए हुए है। प्रपत्ति मार्ग के मुख्य अंग शरणागत होने का भाव, अविरोध, त्राण में विश्वास, ब्रह्म की दया पर भरोसा आदि हैं। भक्ति मार्ग अथवा प्रपत्ति मार्ग से ही ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है। जब एक मार्ग से यह हो सके, तब दूसरे मार्ग का अवलंबन करना चाहिए।

    इन दो सिद्धांतों के कारण रामानुज जी के अनुयायियों में बड़ा मतभेद हुआ। कुछ लोगों का कहना था कि प्रपत्ति मार्ग से ईश्वर की प्राप्ति अवश्य हो सकती है, पर इसका अवलंबन तभी करना चाहिए जब जीव भक्ति-मार्ग का आश्रय लेने में असमर्थ हो। दूसरा दल कहता था कि ईश्वर-प्राप्ति का एक मात्र उपाय प्रपत्ति मार्ग है। भक्ति मार्ग में भक्त के कार्यशील होने की आवश्यकता मानी गई है और प्रपत्ति मार्ग में वह ईश्वर के शरणागत होकर अपने को उसकी इच्छा और दया पर छोड़ देता है। उदाहरण के लिये यह बताया गया है कि बंदर का बच्चा अपनी माता के शरीर से चिपटा रहता है और वह जहाँ चाहती है, उसे ले जाती है तथा उसकी रक्षा करती है। परंतु फिर भी बच्चे को अपनी माँ से चिपटा रहना पड़ता है। यही अवस्था भक्ति मार्ग के अनुयायियों की है। वे ईश्वर के शरणागत रहते हैं, परंतु स्वयं उनको भी मर्कटवत् उद्योगशील रहना पड़ता है। प्रपत्ति मार्ग के अनुयायी बिल्ली के बच्चे की भाँति होते हैं। उनकी माँ उन्हें मुँह में दबाकर जहाँ चाहती है, ले जाती है। इस पथ के पथिकों की अवस्था मार्जारवत् होती है। वे अपने को ईश्वर की अनुकंपा पर छोड़ देते हैं और उसी पर अवलंबित रहते हैं। अतएव यह सिद्धांत निकला कि भक्ति मार्ग जटिल और प्रपत्ति मार्ग सरल है।

    इस विभेद के कारण इस संप्रदाय के लोगों में और भी अनेक भेद उत्पन्न हो गए। भक्ति मार्ग के अनुयायियों का आग्रह था कि परम मंत्र के अधिकारी केवल ब्राह्मण हैं, दूसरे वर्णवालों को ‘ॐ’ रहित मंत्र का ही उपदेश दिया जा सकता है। प्रपत्ति मार्ग के अनुयायी इस सिद्धांत के विरुद्ध थे। वे सब से सम व्यवहार करना चाहते थे। ऐसा जान पड़ता है कि स्वयं रामानुज जी भक्ति मार्ग के अनुयायियों के पक्ष में थे। इसी लिये ब्रह्मणेतर वर्णवालों के लिये उन्हें एक तीसरे मार्ग का आश्रय लेना पड़ा था। इसका नाम उन्होंने “आचार्यभिमान योग” रखा था। इसका अनुयायी अपने आचार्य पर मुक्ति के लिये निर्भर रहता था और आचार्य उसके तिये सब कृत्यों का प्रतिपालन स्वयं करता था। इससे स्पष्ट है कि रामानुज जी के समय में ही इस संप्रदाय में जाति-पाँति के बंधन लगने लग गए थे और धर्म का प्रचार संस्कृत द्वारा हो अथवा देशभाषाओं द्वारा, इस संबंध में भी मतभेद हो चला था। इससे एक बात और प्रकट होती है। वह यह कि दक्षिण भारत में ब्राह्मण और ब्राह्मणेतर जातियों का झगड़ा कई शताब्दी पुराना है। रामानुज जी इन झगड़ों को शांत कर हिंदुओं को भक्ति के भक्ति के सूत्र में बाँधकर एकता स्थापित करने में समर्थ नहीं हुए थे, वरन् उनके कारण विभेद की मात्रा अधिक हो गई थी। यह उनके अनुयायियों के भाग्य में था कि वे इन बंधनों से उत्तरीय भारतवर्ष के हिंदुओं को मुक्त कर उन्हें एकता के सूत्र में बाँध सके थे। कदाचित् वे घटनाएँ, विशेषतः राजनैतिक घटनाएँ, उनके अनुयायियों के समय में हुई थी। उस समय वे उनका अनुमान करने में भी असमर्थ थे, अथवा उत्तर भारत की अवस्था तथा मुसलमानों के बढ़ते हुए अत्याचारों से भी परिचित थे।

    भक्तों के लिये रामानुज जी ने ये नियम बनाए थे कि वे शरीर पर शंख-चंक्र की छाप तथा मस्तक पर तिलक धारण करें, महामंत्र का जप करें, भक्तों की सेवा करें, एकादशी का व्रत रखें, चरणामृत ग्रहण करें, देवमूर्ति पर तुलसी चढ़ावें और केवल भोग लगाकर ही भोजन ग्रहण करे। कुछ लोगों का कहना है कि इन बातों को इन लोगों ने क्रिस्तानों से सीखा था। परंतु इसका कोई स्पष्ट और दृढ़ प्रमाण नहीं मिलता कि ये बातें यहाँ पहले से वर्तमान थीं और दक्षिण भारत में प्रचलित क्रिस्तान धर्म के संसर्ग से ही वैष्णव धर्म में उनका आयोजन हुआ था। केवल समानता ही इस बात का एकमात्र प्रमाण नहीं हो सकता कि एक मत में अनेक बातों एक प्रचार दूसरे मत के आधार पर ही हुआ है। जो कुछ हो, इस विवाद में कुछ विशेष महत्व नहीं है। यहाँ अब केवल इतना और जान लेना आवश्यक है कि रामानुज जी ने अपने संप्रदाय में कृष्णपूजा और रामपूजा का कोई आयोजन आरंभ किया था। उनके आराध्य देव केवल नारायण थे। रामपूजा का आरंभ आगे चलकर उनकी शिष्य-परंपरा ने आरंभ किया था।

    रामानुज जी के शिष्य देवाचार्य, उनके हरियानंद, उनके राघवानंद और राघवानंद के रामानंद हुए। इस शिष्य परंपरा में रामानंद ही परम प्रसिद्ध हुए। राघवानंद जी रामानुज जी के मत के पूर्ण रूप से प्रतिपादक थे। समस्त भारतवर्ष की यात्रा करके वे काशी में बसे थे और यहीं उन्होंने रामानंद को अपना शिष्य बनाया था।

    (2) रामानंद जी

    रामानुज जी के स्वर्गवासी होने के 162 वर्ष पीछे वि. सं. 1356 में रामानंद जी का जन्म प्रमाण में हुआ था। इनके पिता पुण्यसदन (या भूरिकर्मा या देवल) कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे और इनकी माता का नाम सुशीला था। रामानंद जी का पहला नाम रामदत्त था। कहते हैं कि इनकी बुद्धि बड़ी तीव्र थी और बारह वर्ष की अवस्था में ही ये सब शास्त्रों को पढ़कर पूर्ण पंडित हो गए थे। प्रयाग में अपनी शिक्षा समाप्त कर दर्शन शास्त्र का विशेष अध्ययन करने के लिये वे काशी चले आए थे। यहाँ वे एक स्मार्त अध्यापक से, जो स्वामी शंकराचार्य जी के अद्वैत मत का अनुयायी था, पढ़ने लगे। एक दिन अकस्मात् इनकी राघवानंद जी से भेंट हो गई। राघवानंद ने इन्हें देखते ही इस बात पर दुःख प्रकट किया कि रामानंद को अब इस पृथ्वी पर थोड़े ही दिन और रहना है और वह अभी तक हरि की शरण में नहीं आया है। रामानंद ने जाकर अपने गुरु से यह बात कही। गुरु ने कहा कि यह भविष्यवाणी सच्ची है और मैं कोई ऐसा उपाय नहीं बता सकता जिससे तुम्हारी अल्पायु दूर हो और यह भावी संकट टल जाय। तुम राघवानंद की ही शरण में जाओ, कदाचित् वे तुम्हारी रक्षा कर सकें। रामानंद ने इस उपदेश के अनुसार राघवानंद से मंत्र ग्रहण किया। उसी समय इनका नाम रामदत्त से बदलकर रामानंद रखा गया। राघवानंद ने इन्हें योगाभ्यास करना और समाधिस्थ होना सिखाया। जब मृत्यु का समय आया तब रामानंद समाधिस्थ हो गए। उस घड़ी के टल जाने पर वे उठ बैठे। तब से उनकी श्रद्धा राघवानंद पर बहुत बढ़ गई और वे उनकी सेवा शुत्रूषा करने तथा उनसे उपदेश ग्रहण करने में दत्तचित्त हुए। गुरु ने भी प्रसन्न होकर उन्हें दीर्घजीवी होने का आशीर्वाद दिया। बहुत दिनों तक गुरु की सेवा कर रामानंद यात्रा करने के निमित्त बाहर निकले। इसके अनंतर वे पुनः काशी लौट आये और पंचगंगा घाट पर रहने लगे। यहाँ उनकी पादुका अब तक दिखाई जाती है।

    रामानुज नारायण के उपासक थे और उनकी धर्मष्यवस्था में वर्ण-धर्म का स्थान पूर्ववत् ही था। रामानंद के दार्शनिक विचार तो रामानुज के अनुसार ही थे, पर आचार-विचार की व्यवस्था में कुछ परिवर्तन अवश्य हो गया था। यह नहीं कहा जा सकता कि रामानंद ने वर्णाश्रम के बंधनों को बिल्कुल तोड़ दिया था, क्योंकि इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता। परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि शिष्य बनाने में उन्होंने जाति-पाँति का कोई विचार नहीं किया था। इस संबध में उनका यही सिद्धांत जान पड़ता है कि- “जाति पाँति पूछै नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि को होई।” चाहे रामानंद ने स्वयं जाति-पाँति के बंधनों को तोड़ हो या तोड़ा हो, पर इसमें संदेह नहीं है कि वे रामानुज के श्री वैष्णव संप्रदाय से खानपान के अपवाद के कारण ही अलग किए गए थे और इनके शिष्यों ने खान पान और जाति-पाँति के बंधनों को बिल्कुल तोड़ डाला था। इन बातों से यह निष्कर्ष निकलता है कि रामानंद इन बंधनों के संबंध में कम से कम दृढ़ नहीं थे। इनके रामावत संप्रदाय में मनुष्य सांसारिक संकटों तथा आवागमन के कष्टों से ईश्वर की भक्ति करके बच सकता है। यह भक्ति राम की उपासना से प्राप्त हो सकती है और इस उपासना के अधिकारी मनुष्य मात्र है। जाति-पाँति का भेद उसमें किसी प्रकार का अवरोध उपस्थित नहीं कर सकता। सारांश यह है कि रामानुज का संप्रदाय बहुत संकुचित था, रामानंद ने उसकी सीमा बढ़ाकर उसे अधिक उदार बनाया, और उनके शिष्यों ने तो उसे पूर्णतया उदार कर दिया।

    कहते हैं कि रामानंद ने 111 वर्ष की आयु भोगी। इनका गो-लोक वास वि. सं. 1467 में हुआ। हमें कई कारणों से इस संवत् की सत्यता में संदेह होता है। यदि यह घटना 10-15 वर्ष पहले हुई हो तो कोई आश्चर्य नहीं।

    रामानंद के जीवन-काल के 100 वर्षों में भारतवर्ष का राजनैतिक आकाश मंडल भयानक तथा प्रलयकारी मेघों से घिरा रहा। प्रायः वज्रपात होता था और हिंदू प्रजा को असीम कष्ट भोगना पड़ता था। इसमें संदेह नहीं कि बीच बीच में थोड़ी देर के लिये सूर्य देव के सुखद दर्शन हो जाते थे, पर यह अवस्था क्षणस्थायी ही होती थी, आकाश प्रायः मेघाच्छन्न ही रहता था। रामानंद के जन्मकाल में अलाउद्दीन खिलजी (वि. सं. 1353-1373) दिल्ली के राजसिंहासन पर विराजता था। इस अत्याचारी, अन्यायी, स्वार्थी, इंद्रिय-लोलुप और धर्मांय हिंदू-विद्वेष बादशाह के समय में रणथंभौर के किले पर (वि. सं. 1357) आक्रमण किया गया था। इस युद्ध में शरणागत धर्म्म के पालन में वीर-शिरोमणि हम्मीरदेव अपना राजपाट नष्टकर स्वर्घ को सिधारे थे और उनका सारा रनिवास अग्निदेव की शरण में जाकर अपनी मान-मर्यादा की रक्षा कर सका था। अभी रामानंद चार ही वर्ष के थे, जब चित्तौर की पद्मावती रानी के रूप-लावण्य पर मुग्ध होकर इस दुराग्रही बादशाह ने चित्तौर पर आक्रमण किया था। सती-साध्वी, पतिपरायणा क्षत्राणी रानी ने अपनी जान पर खेलकर अपने पति को कारागार से मुक्त किया था, पर अंत में पति के युद्ध में मारे जाने पर रानी ने जौहर करके अपने सतीत्व की रक्षा की थी। सारे रनिवास के साथ अपने को अग्निदेव को सौंप रानी पद्मावती भारतीय देवियों की कत-कीर्ति को चिरस्थायिनी कर गई। छः सौ वर्षो के अनंतर इन घटनाओं का वर्णन पढ़कर अब भी भारतीय हृदय विह्वल हो उठता है और शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। क्या बालक रामानंद ने कुछ बड़े होने पर इन घटनाओं का वृत्तांत जाना होगा और उनके कोमल दयार्द्र हृदय पर इनका चिरस्थायी प्रभाव पड़ा होगा? पर यहीं इन रोमांचकारी हृदय-विदारक घटनाओं का अंत नहीं होता। संवत् 1367 में रामेश्वर में पहले पहल मसजिद बनवाई गई। इतिहास-लेखकों का कथन है कि अलाउद्दीन के समय में कोई सरदार बादशाह से बिना पूछे अपने बेटे या बेटी का विवाह नहीं कर सकता था। लोगों की जागीरें छीन ली गई थीं। भूमिकर बढ़कर उपज के आधे तक पहुँच गया था। प्रजा यहाँ तक दीन हीन हो गई थी कि उसे पेट भर अन्न मिलना कठिन हो गया था। हिंदू इतने धनहीन हो गए थे कि चढ़ने को घोड़ा और पहनने को अच्छा कपड़ा तक किसी के पास नहीं रह गया था। हीरे-मोती और सोने-चाँदी की कौन कहे, साधारण धातु के पात्र तक उनके घर में नहीं रहने पाते थे। कुतुबुद्दीन (वि. सं. 1373-1378) के समय में देवगिरि का राजा हरपालदेव पकड़कर दिल्ली लाया गया था और उसकी खाल खिंचवाकर उसमें भूसा भरा गया था! खुसरो ने, जो वास्तव में हिंदू था, अपने स्वामी को मारकर और राजसिंहासन पर बैठकर इन अत्याचारों का बदला लेना चाहा, पर साधारण प्रजा और उच्चवंशीय लोग मृतप्राय हो रहे थे। उनका साहस, उनका धैर्य, उनकी आशा नष्ट हो चुकी थी। किसी ने खुसरो का साथ दिया। मुहम्मद तुगलक (वि. सं. 1382-1408) के समय में मुसलमानी राजधानी दिल्ली से उठाकर दौलताबाद में स्थापित की गई। प्रजा पर घोर अत्याचार और अन्याय किए गए। एक बार दिल्ली से सारी प्रजा दौलताबाद भेजी गई, पर उसके बसने पर सबको लौटना पड़ा तथा और और प्रांतों से प्रजा को लाकर पुनः दिल्ली बसाने का उद्योग किया गया। ये सब भयानक और रोमांचकारी घटनाएँ रामानंद के बालकाल और युवावस्था की थीं। वृद्धावस्था में तैमूर का आक्रमण हुआ, दिल्ली जलाई गई, कत्ल आम हुआ, खूब लूट पाट मची, स्त्रियाँ, बच्चे और कारीगर पकड़ पकड़कर समरकंद भेजे गए। लौटते समय मेरठ, हरद्वार आदि स्थानों को नष्ट करता हुआ और प्रजा की हत्या करता हुआ तैमूर भारतवर्ष से चला गया। ये सब घटनाएँ किसका हृदय दुःखित नहीं कर सकतीं? तिस पर एक दयामय परोपकारी महात्मा पर इनका कितना प्रभाव पड़ा होगा, यह सहज ही में अनुमान किया जा सकता है। इन कष्टों का निवारण कैसे हो सकता था, इन आपदाओं से रक्षा कैसे हो सकती थी। प्रजा में उस्साह, शक्ति, सामर्थ्य, धन, सबका ह्रास हो गया था। उनका कोई सहायक नहीं देख पड़ता था, कोई उनको धैर्य दिलानेवाला तक था। ऐसे समय में रामानंद जी ने अपने इष्टदेव राम का आश्रय लिया और भारतवासियों को उस भक्तभयहारी, दुर्जनसंहारी, सुजन प्रतिपालक की शरण जाने का उपदेश दिया। यह समय जाति-पाँति पूछने का नहीं था, यह तो ‘हरि को भजै सो हरि का होई’ का समय था। रामानंद जी ने जाति-पाँति के बंधन ढीले कर दिए और राम नाम के महामंत्र का उपदेश देकर लोगों को ढारस बँधाया। पर समय अनुकूल नहीं था। अतएव उस समय उनके उपदेश का कुछ विशेष प्रभाव पड़ा। अभी हिंदुओं को और कष्ट सहना था, अभी उनके पूर्वसंचित कर्मों का प्रायश्चित पूर्णतया नहीं हो पाया था। पर बीज बो दिया गया। उसके वृक्षकी शाखाएँ काटकर रामानंद जी के शिष्यों ने नए वृक्षों में पैवंद लगाने का उद्योग किया। कुछ काल तक ये नए वृक्ष हरे भरे रहे, पर लोगों ने इनका आश्रय लिया। रामानंद जी की मृत्यु के कोई 150 वर्ष पीछे उनके शिष्य संप्रदाय में से गो. तुलसीदास ने इस वृक्ष को अपनी सुधामयी वाणी से पुनः पल्लवित, पुष्पित और कलान्वित किया।

    रामानंद जी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। उन्होंने जो कुछ लिखा, संस्कृत ही में लिखा। यह कारण है कि उनको पूरी पूरी सफलता प्राप्त हो सकी। हिंदी में उनके लिखे दो पद मिलते हैं- एक तो सिक्ख गुरुओं के ग्रंथ साहब में दिया है और दूसरा हमें डॉ. ग्रिर्यसन साहब की कृपा से प्राप्त हुआ है। ग्रंथ साहब में जो पद दिया है, वह यह है-

    कस जाइये रे घर लागो रंग। मेरा चित चलै मन भयो पंग।।

    एक दिवस मन गई उमंग। घसि चंदन चोआ बहु सुगंध।।

    पूजन चाली ब्रह्म ठाँय। सो ब्रह्म बतायो गुरु मंत्रहि माँहि।।

    जहँ जाइये तहँ जल परवान। तूँ पूर रह्यो है सब समान।।

    वेद पुरान सब देखे जोय। उहाँ तो जाइये जो इहाँ होय।।

    सतगुरु मैं बलिहारी तोर। जिन सकल विकल भ्रम काटे मोर।।

    रामानंद स्वामी रमत ब्रह्म। गुरु का स्वाद काटै कोटि करम।।

    इस पद में ईश्वर की व्यापकता का उल्लेख है। दूसरा पद जो डॉक्टर ग्रियर्सन साहब से मुझे मिला है, हनुमान जी की आरती का है। वह इस प्रकार है-

    आरति कीजै हनुमान लाल की। दुष्ट दलन रघुनाथ कला की।।

    जाके बल गरने महि काँपे। रोग सोग जाके सिमाँ चॉपे।।

    अंजनी सुत महाबल दायक। साधु संत पर सदा सहायक।।

    बाँएँ भुजा सब असुर सँघारी। दहिन भुजा सब संत उबारी।।

    लछिमन धरनि में मूर्छि परयो। पैठि पताल जमकातर तोरयो।।

    आनि सजीवन प्रान उबारयो। मही सवन कै भुजा उपारयो।।

    गाढ़ परे कपि सुमिरा तोहीं। होहु दयाल देहु जस मोहीं।।

    लंका कोट समुंदर खाई। जात पवनसुत बार लाई।।

    लंक प्रजारि असुर सब मारयो। राजा रामजि के काज सँवारयो।।

    घंटा ताल झालरी बाजै। जगमग जोति अवधपुर छाजै।।

    जो हनुमानजी की आरति गावै। बसि बैकुठ परम पद पावै।।

    लंक बिधंस कियो रघुराई। रामानंद (स्वामी) आरती गाई।।

    सुरनर मुनि सब करही आरती। जै जे जै हनुमानलाल की।।

    इन दो पदों से दो भिन्न भिन्न प्रकार का निष्कर्ष निकाला जा सकता है। पहले पद से यह अनुमान किया जा सकता है कि रामानंद जी मूर्तिपूजा के विरोधी थे, परंतु दूसरे पद में हनुमान की वंदना करके उन्होंने इस भाव को निर्मूल कर दिया है। इन दो पदों से रामानंद के सिद्धांतों को खोज निकालना उपयुक्त होगा। इनका महत्व इतना ही है कि ये पद हिंदी में हैं और जहाँ तक मैं जानता हूँ, पहले पहले प्रकाशित हो रहे हैं। कविता की दृष्टि से भी इन पर विचार करना व्यर्थ हो। रामानंद जी कवि नहीं थे। वे रामोपसाक भक्त थे।

    रामानंद जी ने मुख्य बारह शिष्य हुए- श्रनंतानंद, सुखानंद, सुरसरानंद, नरहरियानंद, पीपा, कबीर, भावानंद, सेना, घना, रैदास, पद्मावती और सुरसरी। इनमें से अंतिम दो तो स्त्रियाँ थीं और शेष दस पुरुष थे। पद्मावती के विषय में कुछ ज्ञात नहीं है। सुरसरी सुरसरान्द की धर्मपत्नी थी। शेष दस में से कबीरदास सब से प्रसिद्ध हुए।

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