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पदमावत की लिपि तथा रचना-काल- श्रीचंद्रबली पांडेय, एम. ए., काशी

नागरी प्रचारिणी पत्रिका

पदमावत की लिपि तथा रचना-काल- श्रीचंद्रबली पांडेय, एम. ए., काशी

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    पदमावत का अध्याय करते करते जब हम उसकी कथा के उपसंहार में पहुँचते हैं तब हमारी कुछ विचित्र स्थिति हो जाती है। उस समय हम एक ऐसी परिस्थिति में पड़ जाते हैं जिसकी हमें संभावना भी नहीं हुई थी। हम यह नहीं कहते कि जायसी ने उस स्थल पर जो कुछ लिख दिया है वह अनुचित अथवा असंगत है। पर इतना कहने का साहस तो अवश्य ही करते हैं कि उन्होंने अपने आशय इस प्रकार प्रकट कर हमको बंधन में डाल दिया है। हमारे कहने का तात्पर्य यह कदाचित नहीं है कि उन्होंने अपनी कथा को अन्योक्ति कहकर हमको चकित कर दिया है अथवा हमारे सम्मुख एक नया प्रश्न उपस्थित कर हमको विस्मय में डाल दिया है। हमारे कथन का सीधा-सादा अर्थ यह है कि उन्होंने उस स्थल पर अपनी एक ऐसी मनोवृत्ति का परिचय दे दिया है जिसकी संभावना हमको नहीं थी।

    जायसी का कथन यह है, “केइ जगत जस बेंचा, केइ लीन्ह जस मोल? जो यह पढ़ै कहानी हम्ह सँवरै दुइ बोल।” जाने कहाँ से यह बार-बार प्रतिध्वनि होता है, “जो यह पढ़ै कहानी हम्ह सँवरै दुइ बोल।” हमारा विश्वास है कि यदि यह ध्वनित होता तो भी हम जायसी को स्मरण करने से चूकते। हाँ, इसका प्रभाव यह अवश्य ही हो रहा है कि हम इस चेतावनी से सावधान होकर उनको स्मरण करना अपना धर्म समझने लगे हैं। अब हमारे हृदय में यह बात घर करती जा रही है कि यदि हम इन कवियों की कृतियों का रसास्वादन कर वाह-वाह करके ही रह गए तो हमने अपने उस कर्तव्य का पालन नाममात्र को भी नहीं किया जिसकी आशा किसी भी कृतज्ञ प्राणी से की जा सकती है। भला हमसे बढ़कर कृतघ्न और कौन होगा जो इन कवियों की ओर आँख उठाकर भी देखने का कष्ट सहन कर सके, जिनकी कविता के कलनिनाद में हम स्वर्ग-सुख का अनुभव कर रहे हैं। अस्तु, हम जायसी के इस वाक्य के कारण अपने को अब एक महान् बंधन में पाते हैं। हम जायसी की इस अंतिम शिक्षा को शिरोधार्य कर अपने कर्तव्य के पालन में दत्तचित्त होने को लालायित हो उठे हैं। हम यह जानते हैं कि इस बंधन से मुक्त होना सुगम नहीं है, पर हमारा विश्वास हमें ललकारता है कि हम कभी कभी इन कवियों की कृपा से इस कार्य में अवश्य सफल होंगे।

    जायसी की ओर ध्यान जाते ही उनसे परिचित होने की कामना हृदय में हलचल मचा देती है। पर बुद्धि ठिठककर कहती है कि जायसी से पूर्णतः परिचित होना टेढ़ी खीर है। अतः हम भी उचित समझते है कि जायसी से मिलने के पहले हम उस सहायक या पथ-प्रदर्शक को ही भली भाँति समझ लें जिसकी सहायता से उन्होंने हमारे हृदय में घर कर लिया है और जो हम लोगों का मध्यस्थ है। हमारी तो धारणा यह है कि पदमावत जायसी की कृति ही नहीं, प्रतिनिधि भी है। पदमावत को समझ लेना जायसी को स्मरण करना ही है। अतः जायसी की जीवनी की ओर अग्रसर होने के पहले पदमावत के देश-काल से परिचत प्राप्त कर लेना परम आवश्यक जान पड़ता है। अस्तु, यहाँ पर हमारा मंतव्य केवल इतना ही है कि हम पदमावत के रचना-काल से भली भाँति परिचित हो लें। कारण यह है कि जायसी के जीवन की व्याख्या एक प्रकास से उसी में निहित है। उसके एक अंश पर प्रकाश पड़ते ही सारा जीवन चमक उठेगा।

    पदमावत भी रामचरित-मानस की भाँति ही हिंदी-साहित्य का चक्षु है। चक्षु का काम केवल पथ-प्रदर्शन ही नहीं है, प्रत्युत हृदयगत भावों को व्यक्त करना भी है। वह अपने हृदय की एक एक बात कहने को जी खोलकर लालायित है, पर उधर ध्यान ही किसका जाता है। यह देखकर हर्ष होता है कि डाकृर ग्रियर्सन तथा पंडित सुधाकर जी ने उसकी पुकार सुन उसके उद्धार में हाथ लगाया और शुक्लजी ने उसकी दुर्गति देख उसका एक स्वच्छ तथा शुद्ध संस्करण निकाल उसके गौरव को बढ़ाया। किंतु खेद यह देखकर होता है कि हमारे विद्वानों ने इसी को पर्याप्त समझा। संतोष की उपासना किसी अन्य मंदिर में होती है। समीक्षा के क्षेत्र में तो जिज्ञासा का अंत ही विनाश है। यही कारण है कि हम शुक्लजी के निर्धारित मार्ग पर चलकर उसकी पूर्ण समीक्षा करना चाहते है।

    लोग कहते हैं कि पदमावत के रचना-काल में गहरा मतभेद है। पर हमारी दृष्टि में उसमें मतभेद नहीं है। यदि है तो केवल दो और चार का भेद। इस भेद का कारण खोजने के लिये भी गंभीर विवेचन की आवश्यकता नहीं है। यह तो पाठ-भेद का परिणाम है। जिसकी पुस्तक में जो पाठ मिल गया उसने उसी को प्रमाण मान उसका रचनाकाल स्थापित कर दिया। इस दृष्टि से, हम इतना कहने का साहस अवश्य करते हैं कि सन् 946 हि. को पदमावत का निर्माण-काल मानना अधिक संगत जान पड़ता है, क्योंकि उसी समय में शेरशाह दिल्ली का बादशाह था। परंतु उसी पद्य का भूतकाल एक विचित्र बाधा उपस्थित कर देता है। उपर्युक्त पाठ-भेद का कारण यह कहा जाता है कि उर्दू-लिपि में सत्ताईस और सैंतालीस में कुछ विशेष अंतर नहीं रह जाता। अतः यह संभव है कि लेखकों ने भूलकर सैंतालीस को सत्ताईस पढ़ लिया हो। इसी को बाबू श्यामसुंदरदास जी के शब्दों में इस प्रकार कह सकते है- “पदमावत की प्रतियाँ अधिकतर उर्दू-लिपि में मिलती हैं। संभव है, और अधिक संभव है, कि जायसी ने स्वयं उसे उर्दू-लिपि में लिखा हो। उर्दू में सत्ताईस और सैंतालीस लिखने पर उनमें अधिक अंतर नहीं होता। थोड़े से भ्रम में सैंतालीस का सत्ताईस पढ़ा जा सकता है। उर्दू लिपि की यह कठिनाई जगत्प्रसिद्ध है।”

    बाबू साहब का अवतरण देखकर पदमावत का रचना-काल भूल जाता है और एक दूसरी बात पर ध्यान सहसा चला जाता है। हमारी समझ में उस बात पर विचार करना रचना-काल पर विचार करने से अधिक आवश्यक प्रतीत होता है। यदि यह बात ठीक ठीक हमारी समझ में गई तो यह प्रश्न स्वतः ही हल हो जायगा। अतः हम अब उसी पर विचार करना उचित समझते हैं।

    जायसी के समय में उर्दू का तो नाम भी नहीं था। अतः उर्दू-लिपि से संभवतः फारसी-लिपि का अर्थ लिया गया है। बाबू साहब के कथन पर विचार करने से यह ज्ञात होता है कि यह उनका अनुमान ही है। पर जन-समाज में तो बड़े लोगों का अनुमान भी प्रमाण का काम करता है। अतः इस अनुमान पर विशेष ध्यान देना उचित जान पड़ता है। यही बाबू साहब अपने संक्षिप्त पदमावत में एक स्थल पर लिखते है, “मुसलमान लेखक प्रायः सूफी संप्रदाय के अनुयायी थे जिनका उद्देश्य मनोरंजक प्रेमगाथाओ-द्वारा अपने उदार आध्यात्मिक भावों को हिंदू जनता के कानों तक पहुँचाना था।” यहि हम बाबू साहब की बात को मान लेते हैं तो जायसी का भी उद्देश्य अपने उदार आध्यात्मिक भावों को हिंदू-जनता में प्रचलित करने का था। अब यह बात समझ में नहीं आती कि जायसी ने हिंदू-जनता में प्रचार करने के लिये फारसी या उर्दू-लिपि को क्यों चुना? वह भी उस समय जब उर्दू का नाम भी था। यदि हम सुगमता का नाम लेकर इस प्रश्न का समाधान करने बढ़ते हैं तो उर्दू-लिपि की यह कठिनाई जगत्प्रसिद्ध है, हमको छेंक लेता है और हम विवश होकर मुँह ताकने लगते हैं। अस्तु, यदि जायसी का संबंध हिंदू जनता से था, वे पदमावत की रचना हिंदुओं की हित-कामना से प्रेरित होकर कर रहे थे, तो उन्होंने उसकी रचना हिंदी-लिपि में ही की होगी, फारसी-लिपि में कदापि नहीं।

    हम कह ही चुके हैं कि पदमावत की लिपि का प्रश्न बहुत ही जटिल है। अतः उस पर जमकर विचार करना ही समीचीन है। शुक्लजी प्रसंगवश एक स्थल पर लिखते है कि “झंझट का एक बड़ा कारण यह भी था कि जायसी के ग्रंथ फारसी लिपि में लिखे गए थे। हिंदी-लिपि में उन्हें पीछे से लोगों ने उतारा है।” यह तो स्पष्ट ही है कि शुक्लजी का यह कथन या तो बाबू साहब के अनुमान को प्रमाणित करता है या तटस्थ रह जाता है, हमारे पक्ष में तो भूलकर भी नहीं आता। यदि जायसी के ग्रंथ से उनका अभिप्राय जायसी के स्वलिखित ग्रंथ से है तो उनके कहने का तात्पर्य यही है कि जायसी ने अपने ग्रंथों को फारसी-लिपि ही में लिखा। यदि यह ठीक है तो शुक्लजी सरीखे विद्वान की बात को असंगत ठहराने का साहस नहींहोता। पर विचार करने से यह स्पष्ट अवगत हो जाता है कि शुक्लजी ने प्रकृत प्रश्न पर कुछ विशेष ध्यान नहीं दिया। उन्होंने तो झंझट के कारण का उग्र रूप दिखा दिया। संभवतः लिखते समय उनके ध्यान में जायसी के ग्रंथों की उपलब्ध प्राचीन फारसी-लिपि की प्रतियाँ थी जो हिंदी प्रतियों से प्राचीन थीं। कुछ भी हो, हम इस प्रश्न को यहीं छोड़े देते हैं, और आगे बढ़कर डाकृर ग्रियर्सन साहब की बातें सुनना चाहते हैं। हमारी समझ में इस विचार के उत्पादक यही महानुभाव हैं। इन्हीं का कथन अन्य विद्वानों को भी मान्य है। अतः हम उनके विषय में कुछ कहना व्यर्थ ही समझते हैं।

    ग्रियर्सन साहब साहित्य-संसार के एक प्रसिद्ध विद्वान् हैं। हिंदी के तो वे कर्णधार ही समझे जाते हैं। उनकी साधारण बातें भी प्रमाण की कोटि में जाती हैं। अतः उनके कथन पर उचित ध्यान देना ही समीचीन है। उनका कथन यह है---- “He wrote his poem in what was evidently the actual vernacular of his time, tinged with an admisture of a few Persian words and idioms due to his Muslman predilections. It is also due to his religion that he originally wrote it in the Persian character, and hence discarded all the favorite devices of Pandits, who tried to make their language correct by spelling (while they did not pronounce) vernacular words in the Sanskrit fashion. He had no temptation to do this. The Persian character did not lend itself to any such false antiquarianism. He spelled each word rigorously as it was pronounced. His work is hence a valuable witness to the actual condition of the vernacular language of Northern India in the 16th Century. It is, so far as it goes, and with the exceptions of a few hints in Alberuni’s Indica, the only trustworthy witness which we have. It is trustworthy, however, only to a certain extent, for it often merely gives the consonantal framework of the words, the vowels, as is usual in Persian manuscripts is generally omitted. Fortunately, the vowels can generally be inserted with the help of a few Devanagari manuscripts of the poem which are in our possession.”

    प्रस्तुत अवतरण से यह तो स्पष्ट ही है कि जायसी ने पदमावत को फारसी-लिपि में लिखा था। वस्तुतः बाबू साहब और डाकृर ग्रियर्सन के आधार भिन्न-भिन्न हैं। उनमें जो अंतर लक्षित होता है उसका कारण यह नहीं है कि डाक्टर ग्रियर्सन ने बहुत सोच-समझकर अपनी व्यवस्था दी है, प्रत्युत यह है कि उन्होंने अपने को एक द्रष्टा के रूप में अंकित करने का प्रयत्न किया है और अपने अनुमान को प्रमाण के अभाव में भी सत्य दिखा देने की चेष्टा की है। यही कारण है कि उन्होंने अपने कथन में इस विषय पर इस ढंग से प्रकाश डाला है कि साधारण दृष्टि उसकी चकाचौंध में फँस जाती है और तथ्यातथ्य का विचार नहीं कर पाती। उनके कथन से ऐसा जान पड़ता है कि उनकी लेखनी से जायसी की आत्मा ने स्वयं आकर ऐसा लिखा दिया है। जायसी के विषय में ये ही ग्रियर्सन साहब कहते हैं, “He studied Sanskrit Prosody and Rhetoric from Hindu Pandits at Jayas.” और “हौं पंडितन केर पछलागा। किछु कहि चला तबल देइ डागा” के पंडितन का अर्थ भी वे Hindu Scholars करते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि पंडितो, संस्कृत के उन पंडितों, को क्या पड़ी थी कि वे जायसी के पास अपना डेपुटेशन इस विचार से ले जाते कि वे कृपया फारसी-लिपि में धर्म-भावना से लिखी गई पुस्तक में संस्कृत के शब्द घुसेड़कर उनको परम लाभ पहुँचावें। संस्कृत के जिन पंडितों की दृष्टि मानस से बचनाचाहती थी वह पदमावत की फारसी-लिपि पर टूट पड़ी हो, इसकी कल्पना ग्रियर्सन साहब ही को शोभा देती है। हम तो “औ बिनती पंडितन सन भजा। टूट सँवारहु मेरवहु सजा” “एक नयन कबि मुहमद गुनी। सोइ बिमोहा जेइ कबि सुनी” तथा प्रमदामोद आदि के आधार पर अधिक से अधिक इतना ही कह सकते हैं कि जायसी ने भाषा-पंडितों से प्रार्थना की। वस्तुतः ग्रियर्सन साहब के Sanskrit Pandits उनके विषय में साक्ष्य देते हैं।

    ग्रियर्सन साहब की एक बात और भी बेढ़ब जान पड़ती है। आप स्वयं स्वीकार करते हैं कि ग्रंथ के संपादन में आपको उस पुस्तक से अधिक सहायता मिली है जो हिंदी लिपि में थी, पर यह नहीं मानते कि जायसी ने भी उसी सुगम लिपि का पल्ला पकड़ा होगा जिसका दामन आप पकड़ते हैं। यह क्यों? यही कि जायसी मुसलमान थे! इस विषय में हम केवल इतना ही कह देना पर्याप्त समझते हैं कि उस समय में मुसलमान राजा होने पर भी एक साधारण मुसलमान को महात्मा गाँधी से अच्छा नहीं समझते थे। जायसी के विचार में तो “मातु के रकत पिता के बिंदू। उपने दुवौ तुरुक हिंदू”, यही नहीं है वर्न उनका तो यहाँ तक कहना है कि “बिधिना के मारग हैं तेते। सरग नखत तन-रोवाँ जेते।।” हमको तो यह देखकर मार्मिक दुःख होता है कि जायसी की पदुमावती के भक्त ग्रियर्सन साहब फारसी-लिपि का कारण धर्म की प्रेरणा बतलाते हैं। जाने उनकी लेखनी से यह कैसे निकल पड़ा- “It is also due to his religion that he originally wrote it in the Persian character.” विचित्र एवं पते की बात तो यह है कि डाक्टर ग्रियर्सन साहब “भँवर आई बनखँड सन लेइ कँवल कै बास। दादुर बास पावई भलहि जो आछै पास” की व्याख्या करते हुए लिखते हैं- “The author means that he is aware that his own country-folk, and his own people (the Musalmans) will not care for his poem, for it is in Hindu dialect and not in Urdu, but, on the other hand men of distant lands and of other religions (the Hindu) will be attracted by the distant lotus.”

    इस अवस्था में भी जायसी फारसी-लिपि ही में लिखते हैं- यह आश्चर्य की बात है।

    ग्रियर्सन साहब के इस शुद्ध भ्रम का निवारण करने के पहले ही इसके कारण पर विचार कर लेना असंगत नहीं कहा जा सकता। संस्कारण के कारण भयंकर भूलें सभी कर जाते हैं। ग्रियर्सन साहब उसके अपवाद नहीं कहे जा सकते। अतः हमारी समझ में इस भ्रम का मुख्य कारण वह वातारण है जिसमें हिंदू और मुसलमानों का विरोध वैमनस्य के रूप में बढ़ाया जाता है। जायसी इस वातावरण के मित्र तो कदापि थे, यदि थे तो कट्टर शत्रु। उनके जीवन का प्रयत्न राम-रहीम की एकता से भिन्न नहीं था। वे अलाउद्दीन को माया कहते भी हैं। अपने ग्रंथो में वे फारसीपन लाना नहीं चाहते थे, संस्कार के कारण वह घुस पड़ा है। द्वितीय कारण संभवतः यह हो सकता है कि ग्रियर्सन साहब को जो पुस्तकें मिली हैं उनकी प्राचीन प्रतियाँ फारसी-लिपि में ही अधिक है। सब से प्राचीन प्रति सन् 1107 हि. (सन् 1695 ई.) की फारसी-लिपि ही में है। इस आधार पर यदि फारसी-लिपि की कल्पना ग्रियर्सन साहब अथवा अन्य किसी के मस्तिष्क में उठे तो स्वाभाविक ही है। हम देखते भी हैं कि अभी उस दिन इंशा ने “रानी केतकी की कहानी” को इसी लिपि में लिखा। यदि समय का फेर का होता तो कदाचित हम इस अनुमान को ठीक समझ लेते।

    अधिकतर लोगों की यह धारणा है कि मुसलमान सदा से ही उर्दू-प्रेमी रहे हैं। उनकी समझ में खुसरो, जायसी तथा रहीम आदि हिंदी-कवि भी फारसी-लिपि के ही भक्त थे। अतः हम यह उचित समझते हैं कि इस प्रश्न पर कुछ और अधिक विविचेन कर लिया जाय। प्रातः यह देखा जाता है कि आज-कल के ग्रामीण भी हिंदी या खड़ी बोली की बात-चीत को “फारसी बूकना” कहते हैं, कहीं कहीं मुसलमानी बोलना का भी प्रयोग करत हैं। हमारी दृष्टि में ग्रियर्सन साहब तथा अन्य विद्वानों के उपर्युक्त कथन के मूल में यही व्यापक अध्यास काम कर रहा है। इसके फेर में पड़ जाना दोष नहीं है। हाँ, इससे बचकर तथ्यातथ्य का विचार करना गुण अवश्य है। हमारी तो समझ में नहीं आता कि धर्म के प्रचार की दृष्टि से फारसी-लिपि को अपनाने का प्रतिपादन किस विवेक से किया जाता है? आजकल के पादरी भी तो जनता में प्रचलित लिपि ही की शरण लेते है। अब अँगरेज तब मुसलमान विदेशी थे। उन्होंने इस दृष्टि से हिंदी-लिपि ही को अपनाया होगा। कहते हैं कि खालिकबारी की लाखों प्रतियाँ ऊँटों पर लदवाकर देश में बाँटी गई थीं।

    जायसी के समय में कुछ ऐसी स्थिति थी कि जनता तो बोल-चाल की कविता को ध्यान से सुन लेती थी, परंतु पंडित-मंडली उसका आदर नहीं करती थी। पंडितों तथा मुल्लाओं की इस उपेक्षा का पता जायसी, तुलसी और केशव आदि सभी कवियों से चल जाता है। तुलसीदास को तो यहाँ तक कहना पड़ा, “का भाषा का संस्कृत प्रेम चाहिए साँच। काम जो आवै कामरी, का लै करै कमाँच।” जायसी भी यदि पंडित होते तो पंडितों से इसी प्रकार कहते। परंतु वे मौलवी थे। अतः मुसलमानों से कहते हैं कि “तुरकी, अरबी, हिंदुई भाषा जेती आहिं। जेहि महँ मारग प्रेम कर सबै सराहैं ताहि।” यहाँ पर हम इस विवाद में पड़ना नहीं चाहते कि जायसी का तात्पर्य इस तुर्की से फारसी, रेखता या मुख्य तुर्की में किससे है। साधारणतः तो उसका अर्थ तुरकों की मुख्य भाषा तुरकी से है जिसमें, उसी समय में, बाबर की तुजुक-बाबरी लिखी गई थी। यह तो कहना व्यर्थ ही है कि जायसी की दृष्टि इसी हिंदुई पर है।

    कुछ दिनों से हिंदी, हिंदुई, हिंदवी, रेखता और उर्दू आदि शब्दों तथा भाषाओं को लेकर एक प्रकार का खिलवाड़ सा हो रहा है। जिसके जी में जो आता है वह उसी का प्रचार करने लगता है। देखिए सर ग्रियर्सन का कथन क्या है—“You are quie right in stating हिंद is a Persian word, and is the Persian equivalent of सिंधु. The Persian, called the whole of India by this name. The old form of हिंदू was हिंदी, which is derived from an older from हैंदव which is the equivalent of the Sanskrit सैंधव, not of सिंधु. The word हिंदी means a native of हिंद, that is a native of India, an Indian. But, in Persian, हिंदू or हिंदी means a person of the Hindu religion. Thus Amir Khusro says of Sultan Firoz Shah Khilzi, in his Ghurratal kanae, “whatever like fell into the king’s hands was pounded into bits under the feet of elephants. The Muslmans, who, were Hindis, had their lives spared.” You will thus see that, when applied to a language, Hindi properly means any Indian language. Bengali and Marathi are as much Hindi as the language we now call Hindi. The use of the word Hindi in its modern sense, is quite late. Its proper name is हिंदुई i. e. the language of Hindus, as opposed to Urdu, the language of Muslmans.”

    अस्तु जायसी की हिंदुई का अर्थ हिंदुओं की भाषा है, मुसलमानों की उर्दू या ग्रियर्सन साहब की हिंदुस्तानी नहीं। प्रसंगवश यहाँ पर हम यह कह देना अपना धर्म समझते हैं कि ग्रियर्सन साहब की सम्मतियाँ प्रायः अनुमान पर ही टिकी है, वस्तुतः उनका कुछ आधार नहीं है। विश्वास हो तो विचार करने का कष्ट कीजिए।

    आपका कथन है कि हिंद शब्द सिंधु का रूपांतर है परंतु हिंदु शब्द सिंधु का रूपांतर नहीं है। हिंदु शब्द विषयांतर है। अतः उसके विषय में इतना ही कह देना पर्याप्त है कि उसका संबंध हिंदी से कुछ भी नहीं है।

    ग्रियर्सन साहब के विचार में हिंदी शब्द की निष्पत्ति सैंधव से होती है। सैंधव से हैंदव तो सहज में बन जाता है, पर हैंदव से हिंदी का सिद्ध होना द्रविड़-प्राणायाम से कुछ कम नहीं है। यदि हिंदी की उत्पत्ति सैंधव से होती तो उसका अर्थ भी कुछ घोड़ी ला या नमकीन सा ही होता- सैंधवमानय की दृष्टि से। हिंदी का अर्थ ‘Indian’ किस भाषा में होता है, इसका पता आप नहीं देते हैं। यदि आपका ध्यान कुछ भी उस ओर मुड़ा होता तो व्यर्थ का घपला होता। हिंदुस्तानी का अर्थ आजकल भी Indian नहीं होता- कभी कभी कुछ लोग कर देते हैं। हिंदुस्तान का क्रमागत अर्थ मध्य देश है। पंजाबी तथा बंगाली यहाँ के निवासियों को ही हिंदुस्तानी कहते हैं। परंतु अब यह हिंदुस्तान शब्द India के लिये व्यवहृत होने लगा है। कुछ भी हो, हिंदी शब्द का प्रयोग हिंदुई से प्राचीन है और उसका अर्थ भी वही है जो आजकल समझा जाता है। बंगाली (बँगला) और मराठई को कुछ ही लोग हिंदी समझ सकते हैं। हमारी समझ में तो हिंदी शब्द उसी प्रकार से बना है जिस प्रकार से स्वयं ग्रियर्सन साहब बंगाल से बंगाली बनाने का कष्ट करत हैं- बँगला का प्रयोग नहीं करते। वास्तविक बात यह है कि सिंधु का परिवर्त्तित रूप हिंद है और उसमें निस्बती है। उसका अर्थ होता है हिंद के निवासी अथवा हिंद की भाषा। जिस प्रकार पंजाबी का अर्थ पंजाबियों तथा उनकी भाषा दोनों ही के लिये होता है उसी प्रकार हिंदी का प्रयोग भी दोनों के लिये फारसी में होता था। दूर की बात जाने दीजिए, स्वयं अमीर खुसरो इसका प्रयोग करत हैं। निवासियों के विषय में हिंदी का प्रयोग ग्रियर्सन साहब को भी मान्य है, अतः भाषा का ही प्रमाण देना हमको अभीष्ट है।

    अमीर खुसरो ने अपनी प्रसिद्ध मसनवी “देवलरानी-खिज्र खाँ” में हिंदी के विषय में जो कुछ लिखा है उसके निदर्शन की कुछ विशेष आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। वस्तुतः हिंदी, हिंदुई तथा हिंदवी में कुछ भी अंतर नहीं है। यहाँ पर इस प्रश्न को छेड़ना कुछ असंगत जान पड़ता है, अतः इस पर कभी स्वतंत्र रूप से विचार किया जायगा। इस समय हम केवल इतना ही कह देना उचित समझते हैं कि यदि ग्रियर्सन साहब के कथनानुसार हिंदुई का अर्थ हिंदुओं ही की भाषा मानें तो मुसलमानों की भाषा का नाम- यदि विलक्षण रही हो- मुसलमानी को छोड़कर उर्दू क्यों माने, हिंदुई का प्रयोग उस समय मिलता है जब उर्दू का अर्थ छावनी या लश्कर होता था, भाषा-विशेष नहीं। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से तो हिंदुई का हिंदवी बनते विलंब भी नहीं लगता। स्वयं अमीर खुसरो ने हिंदवी का प्रयोग किया है- “मुश्क काफर अस्त कस्तूरी कपूर। हिंदवी आनंद शादी सरूर”। इस प्रकार अमीर खुसरो की दृष्टि से हिंदी तथा हिंदवी एक ही सिद्ध होती है। हिंदी फारसी शब्द है और हिंदुई या हिंदवी, हिंदी- मूलतः नहीं अंशतः तो सही।

    जायसी ने पदमावत में एक ओर तो भाषा का प्रयोग- “आदि अंत जस गाथा अहै। लिखि भाषा चौपाई कहै”- किया है और दूसरी ओर हिंदुई- “तुरकी, अरबी, हिंदुई भाषा जेती आहिं”- का किया है। इससे स्पष्ट है कि उनकी समझ में भाषा और हिंदुई एक ही है। अस्तु, हमारी समझ में मुसलमानों की साक्षी से ही हमारा अर्थ सिद्ध हो जाता है और ग्रियर्सन साहब का कथन कल्पनामात्र शेष रह जाता है। यदि ग्रियर्सन साहब तथा उनके सदृश विवेचकों को हमारे कथन में आपत्ति हो और धर्म की बाधा बीच में उत्पात मचाती हो तो अमीर खुसरो के पद्यों का अध्ययन करें और कृपया देखें कि उनका प्रेम और धर्म कितना उदार था। अब भी जिसकी धारणा यह हो कि अमीर खुसरो ने फारसी लिपि में हिंदी कविता लिखी होगी उसको इस विषय पर विचार करना चाहिए कि उस समय फारसी लिपि में कितने अक्षर थे और वह कहाँ तक हिंदी उच्चारण को अपनाने में समर्थ थी। यदि आप खुसरो का पिंड छोड़कर जायसी के पीछे पड़ते हैं तो वे डंके की चोट कह बैठते हैं “लिखि भाषा चौपाई कहौं” अथवा “कहौं सो ज्ञान ककहरा सब आखर मँह लेखि। पंडित पढ़ि अखरावटी टूटा जोरेहू देखि”। जायसी के अक्षरों का लेखा यह है- न, न, न, न, म, न।

    जायसी के अक्षरों पर विचार करने के पहले ही हम यह कह देना अत्यंत आवश्यक समझते हैं कि हमारी दृष्टि में पदमावत जायसी का अंतिम ग्रंथ है। हमने अखरावट का रचनाकाल नामक लेख मं यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि उसकी रचना पदमावत के उपरांत नहीं हो सकती। अतः यहाँ पर केवल एक ही प्रमाण देकर हम छुट्टी लेना चाहते हैं। जायसी अखरावट के शैतान नारद के विषय में कहते हैं- “ना नारद तब रोइ पुकारा। एक जुलाहै सौं मैं हारा।। प्रेम तंतु नित ताना तनई। जप तप साधि सैकरा भरई।।...... ना ओहि लेखे राति दिना। करगह बैठि साट सो बिना।।” यह कहने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती कि उक्त जुलाहा महात्मा कबीरदास ही हैं। कबीरदास की निधन-तिथि के विषय में कुछ मतभेद हैं। पर सब से अंतिम तिथि सं. 1575 में मानी जाती है जो सन् 1518 ई. में पड़ती है- “संवत पंद्रह सौ पछत्तरा, कियो मगहर को गवन। माघ सुदी एकादशी रलो पवन में पवन।” पदमावत का रचनाकाल किसी भी दृष्टि से सन् 927 हि. अथवा सन् 1520 ई. के पहले नहीं जा सकता। अब तो यह स्पष्ट ही है कि अखरावट की रचना कबीर के जीवन-काल ही में हो रही थी। निश्चय ही यह समय पदमावत के पहले का समय है। अतः पदमावत तथा अखरावट की लिपि को एक ही मान लेने में किसी प्रकार की भी अड़चन या क्षति नहीं है।

    जायसी ने अखरावट की रचना कबीरदास के ज्ञानचौतीसा के ढंग पर की है। कबीरदास के अक्षर ये हैं- ङ, ञ, ण, न, म, ख। यह अंतिम संस्कृत का क्ष है जो बोल-चाल में और का रूप धारण कर लेता है। यह बात समझ में नहीं आती कि क्ष के स्थान पर का प्रयोग कबीर से कैसे हो गया, जब कि प्रत्येक अक्षर का शुद्ध रूप ही ज्ञानचौतीसा में लिया गया है। कुछ भी कारण हो, इससे हमारा प्रजोयन नहीं। हम तो केवल यही कहकर आगे बढ़ना चाहते हैं कि कबीर ने उन्हीं 34 व्यंजनों को अपनाया है जिनको बौद्ध तथा जैन प्राकृत में मानते थे। परंतु जायसी ने अपने व्यंजनों की संख्या बढ़ाकर 36 कर दी है। इसका कारण यह है कि वे क्ष के दोनों रूप और लेते हैं और ज्ञ को भी अपने व्यंजनों में जोड़ लेते हैं। इस प्रकार जायसी का वर्णमाला में 36+12 (व्यंजन स्वर) अर्थात 48 अक्षर हो जाते हैं। जायसी का यह ज्ञ भी प्राचीन काल से चला आता है। प्राचीन लिपिमाला में पूज्य ओझा जी लिखते हैं “हुएनसंग अक्षऱों की संख्या 47 बतलाता है जो से तक के 45 अक्षर हैं तो ऊपर लिखे अनासर और बाकी दो अक्षर क्ष और ज्ञ होने चाहिएँ। बौद्ध और जैनों के प्राकृत ग्रंथों में ऋ, ऋ, लृ, लृ इन चार स्वरों का प्रयोग नहीं होता है।” ध्यान देने की बात यही है कि जायसी भी उन्हीं व्यंजनों का प्रयोग करत हैं जो परंपरा से चले आते हैं। आजकल एक अक्षर त्र और बढ़ गया है, जिसका प्रयोग जायसी ने नहीं किया है। इसके विषय में ओझा जी का कथन है- “वर्तमान त्र में मूल घटक दोनों अक्षरों में से एक अर्थात् का चिन्ह तो पहिचाना जाता है, पंरतु त् का नहीं, किंतु क्ष और ज्ञ में दोनों ही के मूल अक्षरों का पता नहीं रहा। इतना ही नहीं, ज्ञ में तो वास्तविक उच्चारण भी नष्ट हो गया।” ओझा जी के कथन में हम इतना और जोड़ सकते हैं कि अब क्ष की भी कहीं कहीं कुछ वही दशा है। संभवतः जायसी के समय में त्र एक स्वतंत्र व्यंजन नहीं, तू और का संयोग (संयुक्ताक्षर) ही समझा जाता था।

    जायसी में द्वितीय विचारणीय बात यह है कि ये वे ङ, और के स्थान पर भी ही का उपयोग करते हैं। उनके दिए हुए अक्षरों में 5 न, 3 ख, 2 और 2 हैं। इस प्रकार वस्तुतः जायसी के व्यंजन ये हैं- घ, झ, ढ, न, म, ह। जायसी ने वस्तुतः इन्हीं 27 व्यंजनो को लेकर अखरावट की रचना की। कबीर और जायसी के चुनाव में मुख्य भेद वह है कि कबीर ने क्ष (ख) को छोड़कर शेष व्यंजनों का संस्कृत उच्चारण ही लिया है और जायसी ने उस समय का प्रचलित उच्चारण। यद्यपि पंडित-गण भी को पढ़ लिया करते हैं तथापि इसका लोप कभी भी संभव नहीं था। यह को जह अब भी नहीं कहा जाता, हाँ, यदि को जदि कह देते हैं। और का भी भेद प्रायः नहीं रह गया था- वकारो बकारो भेदो नास्ति- पर उसका व्यवहार की भाँति ही होता था। वह का बह कभी नहीं होता। जायसी ने अखरावट में के स्थान पर का प्रयोग कर दिया, पर वे को त्याग सके। कारण यह जान पड़ता है कि ककहरा पढ़ते या पढ़ाते समय अब भी कुछ लोग को कह जाते हैं परंतु को नहीं कहते। निदान हम देखते हैं कि जायसी के 36 व्यंजनों के केवल 27 ही रूप हैं।

    जायसी के व्यंजनों का परिशीलन हो चुका। अब उनके स्वरों की पड़ताल आवश्यक जान पड़ती है। स्वरों का प्रयोग तो जायसी ने अवश्य ही किया होगा। विचार करने पर यह अवगत होता है कि स्वरों को लेकर कविता करने की परिपाटी थी। कबीर ने भी व्यंजनों को ही पकड़ा है। अवधी अथवा हिंदी के स्वर संभवतः ये ही हैं- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ। अनुस्वार और विसर्ग को लेकर जो अं तथा अः निकल पड़े थे उनकी गणना प्राचीन काल ही से स्वरों में चली आती है। अस्तु, जायसी के भी स्वर 12 हैं।

    बारहखड़ी की जो परिपाटी चली आती है उसकी दृष्टि से जायसी की वर्णमाला का निदर्शन हो चुका। पर जिज्ञासा की तृप्ति इतने ही से नहीं हो सकती। उसकी आँखों के सम्मुख ड़ तथा ढ़ उपस्थित हैं। उन पर भी कुछ दृष्टि डालना अनिवार्य हो रहा है। विचित्र बात तो यह है कि हमारी वर्णमाला में व्यर्थ के एवं को स्थान दिया जाता है पर ड़ और ढ़ को नहीं। इस स्थल पर एक नया प्रश्न खड़ाकर हम विवाद में पड़ना उचित नहीं समझते। हमारा मंतव्य तो केवल ड़ तथा ढ़ पर कुछ विचार करने का ही है। ड़ तथा ढ़ के नीचे के बिंदु को देखकर यह अनुमान किया जा सकता था कि ये अरबी या फारसी के प्रसाद है। परंतु विचित्र बात तो यह है कि उन भाषाओं में टवर्ग होता ही नहीं। इन अक्षरों को देशज मान लेना भी युक्तिसंगत तभी कहा जा सकता है जब हम टवर्ग को ही देशज मान ले। बाबा आदम के समय में जाकर हम इतना ही कह देना अलं समझते हैं कि ड़ तथा ढ़ स्वतंत्र व्यंजन नहीं जान पड़ते। हमारा अनुमान है कि ये क्रमशः और के रूपांतर मात्र हैं। वैदिक काल से ही इनमें कुछ ध्वनि-परिवर्तन हो चला था। प्राचीन-लिपि-माला में ओझा जी लिखते हैं- “ऋग्वेद में दो स्वरों के बीच के का उच्चारण और वैसे ही आए हुए का उच्चारण लह होता है।” हमारी दृष्टि में इसी तथा लह का क्रमागत विकास ड़ तथा ढ़ है। अस्तु, ड़ तथा ढ़ वस्तुतः स्वतंत्र अक्षर नहीं थे, प्रत्युत धीरे-धीरे मुख-सुख के कारण स्वतंत्र वर्ण बन गए। अब भी इनका प्रयोग दो स्वरों के मध्य ही में प्रायः पाया जाता है।

    उपर्युक्त विवेचन से यह तो स्पष्ट ही हो गया होता कि जायसी की लिपि हिंदी थी और उसके अक्षर ये थे- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः (नाममात्र) घ, झ, (ड़, ढ़), न, म, ह। निस्संदेह, इन अक्षरों की रूप-रेखा उस समय यह थी जो यहाँ पर देख रहे हैं। संभवतः उनके रूप का दर्शन आधुनिक कैथी लिपि में ही गोचर हो सकता है, नागरी (हिंदी) में नहीं। हमारी समझ में यही कैथी लिपि उस समय की प्रचलित लिपि थी, जिसको आज कल भी लोग हिंदी ही कहते हैं। ग्रामीणों की दृष्टि में हिंदी तथा नागरी लिपि में भेद है। वे कैथी लिपि को ही हिंदी कहते हैं। उनका कथन अनुचित नहीं कहा जा सकता। कैथी नाम तो उस समय का ज्ञात होता है जिस समय कायस्थ लोग मुंशी और दीवानजी बन गए थे। लिखने का काम अधिकतर कायस्थ ही करते थे, अतः इस लिपि का नाम कैथी पड़ गया। वस्तुतः यह हिंदी के अंतर्गत ही है।

    जायसी के समय में हिंदी का प्रचार था। उस समय में हिंदी-उर्दू का झगड़ा खड़ा कर मनमाना मुल्लापन का प्रदर्शन नहीं किया जाता था। होता भी कैसे, उर्दू का तो नाम भी था। हाँ, यदि लाग-डाँट थी तो फारसी और हिंदी में। फारसी बेगम थी और हिंदी दासी। दोनों की पट सकी। अंत में, अकबर के शासन-काल में हिंदी का हिंदू राजा टोडरमल के अनुरोध से सरकारी दफ्तर छोड़ना ही पड़ा। इसका कारण धर्म नहीं कहा जा सकता, यह तो पद की लोलुपता थी। अपने कथन के पुष्टीकरण में हम श्रीयुत् राबाबू सेक्सेना का यह वाक्य- “The public accounts formely kept in Persian, were now written in Hindoy (Hindi) under the management of the Brahmin, who soon acquired great influence in his (Ibrahim Adil Shah 1580-1626) Government.” दे देना अनुचित नहीं समझते हैं। यह देखकर हर्ष होता है कि जिस समय में उत्तरापथ के हिंदू लोभ के कारण फारसी के भक्त हो रहे थे उसी समय में दक्षिण के बहमनी राज्य में हिंदी को फारसी का स्थान मिल रहा था। वहाँ का दफ्तर फारसी से हिंदी में हो गया। जायसी के समय में हिंदी का आदर था। शेरशाह के शासन-का में “Each Pargana had a Shiqdar, an Amin, a Trasurer, a Munsif, a Hindi writer and a Persian writer, to write accounts.” यहीं नहीं, शेरशाह की मुद्राओं पर भी उसको स्थान मिला था- “His silver rupees often have the king’s name in Nagri characters, in addition to the usual Arabic inscription.” और “The name of the King was variously spelt. E. g. Sri Ser Sahi (Agra), Sri Sar Sah (Gwalior); Sri Siri Sah.” अब तो स्पष्ट ही है कि उस समय धर्म का अर्थ अंधापन था। मुसलमान दिल खोलकर हिंदी को अपनाते थे। उन्हें हिंदी से प्रेम था, घृणा नहीं।

    विचरणीय प्रश्न यह है कि शेष हिंदी के अक्षरों का समावेश जायसी ने किस प्रकार किया? जहाँ तक हमारी पहुँच है वहाँ तक तो डाक्टर ग्रियर्सन का कथन कोरी कल्पना सिद्ध होता है। हमारी दृष्टि में तो ये महानुभाव प्रचलित उर्दू लिपि की शक्ति देखकर तथा मुल्लापन का कट्टर विरोध ताड़कर ही ऐसी निराधार कल्पना करने में समर्थ होते हैं। अंत में, इस प्रश्न के संबध में इतना और निवेदन कर देना हम अपना धर्म समझते हैं कि उर्दू की उत्पत्ति का कारण केवल लश्कर या छावनी ही नहीं है। हमारा तो अनुमान यह है कि शाहजहाँ के समय में इब्रानी अरबी, फारसी तथा हिंदी अक्षरों के मेस से लिखने की एक ऐसी लिपि प्रचलित हो पड़ी थी कि उसका व्यवहार प्रायः होने लगा, वह यहाँ की बोल-चाल को लिपिब्ध करने में समर्थ होने लगी रउसी समय उसका नाम उर्दू पड़ गया। उर्दू लिपि में उसके अनंतर कुछ परिवर्तन नहीं हुआ। “दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा” का समय इसके उपयुक्त ही था। वस्तु, यदि पदमावत की कुछ प्रतियाँ प्राचीन समय, सन 1695 ई. की मिल जाती हैं तो उनसे यह निष्कर्ष निकाल लेना कि जायसी ने स्वतः उसको फारसी लिपि में लिखा था, बड़े ही साहस का काम है। अब भी यदि किसी को इस विषय में संदेह हो और धर्म की बाधा उत्पात मचाती हो तो उसे टर्की के कमाल के पास जाना चाहिए। वहाँ पर अब संदेह काफूर हो जायगा।

    जायसी की हिंदी लिपि का प्रतिपादन करने के उपरांत अब हम अपने पुराने प्रश्न पदमावत के रचना काल पर आते हैं। हम कह ही चुके है कि पदमावत के रचना-काल के विषय में जो मतभेद कहा जा सकता है वह दो और चार पर अवलंबित है। हमारी समझ में तो इस मतभेद के मूल में कुछ तथ्य नहीं है, क्योंकि इसका कारण गंभीर विवेचन नहीं, शाहेवक्त की वंदना है। यद्यपि हमारी धारणा यही है कि विद्वानों ने शाहेवक्त के अनुरोध से 927 के स्थान पर 947 मान लिया है तथापि हम इस प्रश्न पर भली भाँति विचार करना उचित समझते हैं। कारण यह है कि हिंदी के धुरंधर विद्वानों ने इसी सन् को संगत ठहराया है। हमारी दृष्टि में इसके प्रचारक भी ग्रियर्सन साहब ही हैं। वे लिखते हैं- “Malik Muhammad’s poem was written in 1540 A.D.” कहने की आवश्यकता नहीं कि 1540 A. D. “सन नौ सै सैंतालीस अहा” का ही रूपांतर है, जिसका कारण “सेरसाह देहली सुलतानू” जान पड़ता है।

    शेरशाह के विषय में कुछ निवेदन करने के पहले ही पदमावत के अथ से परिचित हो लेना आवश्यक हो रहा है। यहाँ पर हम यह स्पष्ट कर देना अनुचित नहीं समझते कि इस विषय में हम कोरे अनुमान ही से काम ले रहे हैं। अतः संभव है, अधिक संभव है कि हम भयंकर भूलें कर बैठे। पदमावत के श्रीगणेश पर विचार करने के पूर्व ही उस बाधा से सावधान हो जाना चाहिए जो प्रायः क्षेपक के कारण पड़ा करती है। हम जानते हैं कि पदमावत में क्षेपक की कल्पना बहुत कम की जाती है, पर हमारा अनुमान है कि उसमें इस कल्पना के पनपने के लिये पर्याप्त सामग्री है। शुक्लजी ने एक स्थल पर इस ओर संकेत भी कर दिया है। उनका कथन है- “अब या तो यह मानें कि समुद्र का दिया हुआ रत्न या द्रव्य सब रास्ते में खर्च या नष्ट हो गया अथवा यह मानें कि समुद्र से पाँच वस्तुओं के अतिरिक्त द्रव्य मिलने का प्रसंग प्रक्षिप्त है।” जिस विरोध के कारण शुक्लजी उक्त निष्कर्ष पर पहुँचते हैं यदि वह विरोध अन्यत्र दुर्लभ होता तो हम भी शुक्लजी की बात मान लेते। हमारी समझ में तो ऐसे विरोध जायसी में भरे प़े हैं। कदाचित्, कारण यह है कि एक तो जायसी अपनी अलौकिक भावना में प्रकृत विषय को भूल जाते हैं, दूसरे अपनी जानकारी के विज्ञापन में बहँक जाते हैं। कुछ भी हो, उदाहरणों की कमी नहीं है। वे एक ओर तो अलाउद्दीन के पक्ष में देवगिरि तथा उदयगिरि को रखते हैं और दूसरी ओर उन्हीं को रत्नसेन के पक्ष में- “कँवरु, कामता पिंडवाए। देवगिरि लेइ उदयगिरि कहँ धरा” तथा “काँप उदयगिरि, देवगिरि डरा। तब सो छपाइ आपु कहँ धरा।।” इतना ही नहीं उस कुंभलनेर के राजा को भी रत्नसेन के पक्ष में कह जाते हैं जिसके विषय में वे स्वयं कहते हैं “कुंभलनेर राय देवपालू। राजा केर शत्रु हिय सालू।। वह पै सुना कि राजा बाँधा। पाछइल बैर सँवरि छल साधा।।” समझ में नहीं आता कि यही कुंभलनेर का राजा, जो पद्मावती के पास दूती भेजता है, रत्नसेन के साथ- “चितउरगढ़ कुंभलनेरै। साजे दूनौ जैस सुमेरै”- कैसे गया है। कभी कभी तो वर्णन करते करते जायसी कहीं से कहीं चले जाते हैं। पद्मावती के रूप-वर्णन में एक स्थल पर कहते हैं- “बरनौं माँग सीस उपराहीं। सेंदुर अबहिं चढ़ा जेहि नाहीं।” तो फिर उसी वर्णन में कुछ ही पद्यों के उपरांत यह कह बैठते हैं- “खाँडै धार रुहिर जनु भरा। करवत लेइ बेनी पर धरा।” एक बार और है। पदमावत का प्रचार भी उतना नहीं हो सका कि उसमें क्षेपक की संभावना की जा सके। “सबदी, साखी, दोहरा, कहि कहनी उपखान” से चिढ़नेवाले तुलसी के मानस की बात और ही है।

    पदमावत के अध्ययन से यह स्पष्ट अवगत हो जाता है कि वह एक ही काल की रचना नहीं है। उसमें कुछ परिवर्तन अवश्य हुआ है। परंतु यह परिवर्तन, जहाँ तक हम समझ सके हैं- स्तुति खंड ही में है। यह स्तुति खंड ही हमारे विवेचन का केंद्र है। उस पर उचित ध्यान देना चाहिए। हम इस संपूर्ण खंड को ग्रंथ की इति के उपरांत की रचना मानने में असमर्थ हैं। “सिंहलद्वीप कथा अब गावौं। सो पदमिनि बरनि सुनावौं” का अब ही हमें लाचार करता है। परंतु हम इस खंड को सर्वथा आदि की रचना भी नहीं कह सकते। “जायस नगर धरम अस्थानू। तहाँ आइ कबि कीन्ह बखानू” का कीन्ह ही हमें ऐसा कहने से दृढ़तापूर्वक रोकता है।

    हाँ, तो सिंहलद्वीप के अमराउ के वर्णन में जायसी कहते हैं- “फरे आम अति सघन सुहाए। जस फरे अधिक सिर नाए।। खिरनी पाकि खाँड असि मीठी। जामुन पाकि भँवर अस दीठी।।... पुनि महुवा चुव अधिक मिठासु। मधु जस मीठ, पुहुप जस बासू।।” अब विचारणीय बात यह है कि जायसी के इस वर्णन से प्रस्तुत प्रश्न पर कहाँ तक प्रकाश पड़ता है। जायसी स्वयं कहते हैं “अस अमराउ सघन घन बरनि पारौं अंत। फूलै फरै छवौ ऋतु जानहु सदा वसंत।।” पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट जान पड़ता है कि यह ग्रीष्म ऋतु का वर्णन है। दूसरी बात यह है कि रत्नसेन का पयान भी इसी ग्रीम ऋतु में होता है- “ग्रीसम जरत छाड़ि जो जाई। सो मुख कौन दिखावै आई।” संभवतः रत्नसेन ने दशहरे को घर छोड़ा था- “दसवँ दावँ कै गा जो दशहरा। पलटा सोइ नाव लै महरा।” पर इसके आधार पर यह निष्कर्ष निकालने में कि यही ग्रंथ के आरंभ का समय है यह बाधा उपस्थित होती है कि जायसी ने प्रेमाधिक्य के कारण उसी समय में रत्नसेन से प्रस्थान करा दिया हो- “प्रेम-पंथ दिन घरी देखा। तब देखै जब होइ सरेखा।” ठीक है, पर जब हम इस प्रस्थान में क्रमशः ये वर्णन- “सघन ढाँख-वन चहुँ दिसि फूला। बहु दुख पाव उहाँ कर भूला।। चलि दस कोस ओस तन भीजा। काया मिलि तेहि भसम मलीजा।। बन अँधियार, रैनि अँधियारी। भादों बिरह भएउ अति भारी” पढ़ते हैं तब हमारे हृदय में यह बात नहीं बैठती की जायसी ने ऐसा असंबद्ध वर्णन कैसे कर दिया। हमारे विचार में इस गड़बड़ी का कारण यह है कि जायसी ने कथा का आरंभ ग्रीष्म ऋतु में कर दिया था। उन्होंने प्रसंगवश, कथा के अनुसार, भादों का वर्णन तो कर दिया पर उस समय वसंत-काल था, जिसका वर्णन जायसी झोंक में कर जाते हैं। यह उनका स्वभाव सा है। किंतु, यदि हम इस अनुमान को ठीक भी मान लें तो भी हमारा प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। कारण यह है कि यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि यह वर्णन उसी वर्ष का है। अतः हम इस प्रकार के वर्णन के विवेचन में समय नष्ट कर केवल इतना ही कहकर संतोष करते हैं कि हमारी समझ में पदमावत का आरंभ ग्रीष्म ऋतु में, संभवतः दशहरा को ही हुआ। यदि हमारा यह अनुमान ठीक है तो उस समय शेरशाह देहली सुलतानू नहीं था। वह तो अगस्त के लगभग दिल्ली में पहुँचता है। अतः इस दृष्टि से सन् 947 हि. को ठीक मानना उचित नहीं जान पड़ता।

    अब हम अपने विवेचन के मुख्य भाग स्तुति खंड में आते हैं। हम यह कह ही चुके हैं कि जायसी के जीवन तथा पदमावत के रचना-काल की दृष्टि से यही खंड मर्मस्थल है। अतः इसका बहुत ही गंभीर विवेचन अपेक्षित है।

    अब तक जो कुछ कहा गया है उसका अधिकतर आधार “सन नव सै सैंतालीस अहा” था, जो केवल एक पक्ष कहा जा सकता है। अतः अब कुछ दूसरे पक्ष “सन नव सै सत्ताईस अहा” पर भी विचार कर लेना परम आवश्यक हो गया है। मिश्रबंधु-विनोद के लेखकों का कथन है- “पदमावत में यह लिखा है कि वह सन् 927 हि. में आरंभ की गई जो संवत् 1575 में पड़ता है, परंतु उस समय के बादशाह का नाम इन्होंने यों कहा है कि “सेरसाह दिल्ली सुलतान्। चारिउ ओर तपा जस भानू।” बादशाह के नाम लिखने की यह आवश्यकता पड़ी कि फारसी-नियमानुसार ग्रंथ बनाने में खुदा रसूल और खलीफाओं की स्तुति करके उस समय के बादशाह की भी तारीफ की जाती है। शेरशाह संवत् 1596 में गद्दी पर बैठा था और संवत् 1600 में उसका देहांत हुआ। इस हिसाब से 22, 23 साल का गड़बड़ दीखता है। जान पड़ता है कि जायसी ने कथा का बनाना संवत् 1575 में आरंभ कर दिया था और फिर ग्रंथ समाप्त हो जाने पर शेरशाह के समय में उसकी वंदना बनाई। उसके प्रभाव के आधिक्य से जान पड़ता है कि यह ग्रंथ शेरशाह के अंतिम संवत् में समाप्त हुआ। खोज सन् 1903 से पदमावत का रचनाकाल 1595 आता है। कदाचित् इस अंतर का कारण सन् 927 हिजरी-विषयक पाठभेद है। हमारी प्रति में रचना-काल सन् 927 हिजरी है।” यह तो कहना व्यर्थ ही होगा कि विनोद की बातें विनोद की ही हैं। सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर यह स्वयं ही व्यक्त हो जाता है कि लेखकों ने सन् 927 हिजरी को इसी लिये माना है कि वे उसको मान चुके हैं। उस पर उठकी हुई आपत्तियों का समाधान करना तो दूर रहा, प्रत्युत उनको और भी बढ़ावा दिया गया है। उनके दिए गए संवत् भी प्रायः अशुद्ध हैं। यही नहीं, उन्होंने “सेरसाहि देहली सुलतानू। चारिउ खंड तपै जस भानू” का “सेरसाहि दिल्ली सुलतानू। चारिउ ओर तपा जस भानू” करके अपने पक्ष को- यदि कहा जा सकता है- और भी निर्बल बना दिया है। यदि उनकी दृष्टि में तपा का अर्थ तपा हुआ है, होता तो वे तपै का ही प्रयोग करते। खैर, उनकी बातें यहीं पर छोड़कर हम आगे बढ़ते हैं और इतना कह देना असंगत नहीं समझते कि स्थूल दृष्टि होने पर भी उनका तीर लग गया है।

    इधर-उधर की सामान्य बातों की तिलांजलि दे अब विवाद-ग्रस्त पद्य ही को खरी कसौटी पर कसना अनिवार्य हो गया है। वह पद्य यह है- “सन नव सै सैंतालीस अहा। कथा अरंभ बैन कवि कहा।” अहा और कहा पुकारकर कह रहे हैं कि जायसी भूतकाल की बातं कर रहे हैं, वर्तमान की नहीं। “कथा अरंभ भबैन कवि कहा” से यह स्पष्ट भी है कि यह ग्रंथ के आरंभ का समय है। अब प्रश्न यह उठ खड़ा होता है कि जब जायसी ने सन् 947 हिजरी में कथा का आरंभ कर दिया तब उन्होंने शेरशाह की वंदना किस समय में की?

    हम पहले ही कह चुके हैं कि समूचे स्तुति-खंड को- जो एक प्रकार से वंदना ही है- हम बाद की रचना नहीं कह सकते हैं। हम अपने कथन के पुष्टीकरण में इसी खंड की सहायता लेना अधिक उपयुक्त समझते हैं। ध्यान देकर देखने से यह स्पष्ट गोचर होता है कि इस स्तुति खंड में भूतकाल तथा वर्तमानकाल दोनों ही का प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया गया है। जायसी के कुछ ही दिन बाद तुलसी का उदय होता है। वे भी अपने मानस की भूमिका में दोनों ही कालों का प्रयोग करते हैं- “संवत सोरह सै इकतीसा। करौं कथा हरिपद धरि सीसा।। नौमी भौम बार मधुमाया। अवधपुरी यह चरित प्रकासा।।” तथा “विमल कथा कर कीन्ह प्ररंभा। सुनत नसाहिं काम मद दंभा।। रामचरितमानस यदि नामा। सुनत स्रवन पाइअ विस्रामा।।” चिंतन करने के उपरांत दोनों का भेद स्वयं ही अवगत हो जाता है। तुलसीदासजी हरिपद की वंदना कर कथा का आरंभ करने के पहले ही इसका गुण-गान कर देते हैं, जिसके कारण हम कथा सुनने के लिये उत्सुक हो जाते हैं। इसी उत्सुकता की तृप्ति के लिये वे कह बैठते हैं कि मैंने उस विमल कथा का आरंभ कर दिया जिसके लिये तुम लोग लालायित हो रहे हो। अतः उनके वर्णन में क्रमिक विकास है, विरोध नहीं। पर जायसी में यह बात नहीं है। लिखने को तो वे भी कुछ इसी ढंग की बातें लिखते हैं- “सन नौ सै सैंतालिस अहा। कथा अरंभ बैन कबि कहा।। जायस नगर धरम अस्थानू। तहाँ आइ कवि कीन्ह बखानू।। आदि अंत जस गाथा अहै। लिखि भाषा चौपाई कहै।।” अवश्य ही, जायसी के अहा तथा अहै में वह संबंध नहीं है जो तुलसी के करौ और कीन्ह में है। तो क्या इसमें कुछ रहस्य है?

    यह तो स्पष्ट ही है कि इस रहस्य को समझाने में विनोद की यह सम्मति- “ग्रंथ समाप्त हो जाने पर शेरशाह के समय में उसकी वंदना बनाई”- असमर्थ है। सबसे बड़ी आपत्ति तो इस कथन में यह है कि जब लेखकगण स्वयं ही यह कहते हैं कि शाहेवक्त की प्रशंसा नियमानुसार है तब जायसी ने इस नियम का उल्लंघन क्यों किया? यदि उसकी का अर्थ ग्रंथ की लेते हैं तो उनका पक्ष और भी दुर्बल पड़ जाता है। जायसी की भूल मान लेने पर भी प्रस्तुत प्रश्न बना ही रह जाता है। सच बात तो यह है कि इसमा समुचित समाधान करना अत्यंत कठिन काम है। अतः हम विनोद को छोड़कर कुछ स्वतंत्र रूप से विचार करना चाहते हैं।

    जायसी का नियम है कि वे दो दोहों के बीच में 7 चौपाइयों का प्रयोग करते हैं, अथवा 7 चौपाइयों के उपरांत एक दोहा लिख देते हैं। जायसी कभी भी इस नियम का उल्लंघन नहीं करते। इस दृष्टि को सामने रख जब हम इस खंड की अंतिम सात चौपाइयों पर धअयान देते हैं तब कुछ विचित्र बातें सामने जाती हैं। जायसी एक स्थल पर यदि “सन नौ सै सैंतालसी अहा। कथा अरंभ बैन कवि कहा।।” कहते हैं तो दूसरे स्थल पर वे ही फिर कहते हैं- “आदि अंत जस गाथा अहै। लिखि भाषा चौपाई कहै।।” इस अहा, अहै तथा कहा, कहै की उलझन को किस प्रकार सुलझाया जाय, यही प्रश्न है। इसमें तो संदेह नहीं कि “लिखि भाषा चौपाई कहै” आदि की रचना है, बाद की कदापि नहीं। पर “कथा अरंभ बैन कवि कहा” का ठीक ठीक अर्थ व्यक्त नहीं हो पाता है। मानस में इस स्थल पर वर्तमान काल है। पदमावत में भी किसी किसी ने अहा और कहा का अहै और कहै कर दिया है। ग्रियर्सन साहब की सुधाकर-चंद्रिका में अहे और कहे का प्रयोग किया गया है, पर अर्थ था और कहा ही किया गया है। यह कथन कथा की समाप्ति तथा आरंभ दोनों ही में कहा जा सकता है। आरंभ का मान लेने में अड़चन यह पड़ती है कि आरंभ बैन से इस समय तक पर्याप्त काल व्यतीत नहीं होता, और तुलसीदास भी इसी स्थिति या अवसर पर वर्तमानकाल का प्रयोग करते हैं। दूसरी ओर जब हम इसको कथा की समाप्ति पर ही रचना मानते हैं तब चौपाइयों की संख्या में व्यतिक्रम पड़ जाता है। आशा है कि इस प्रश्न का समाधान आगे चलकर हो जायगा।

    जायसी का एक और प्रसिद्ध पद्य है, जिसका संबंध प्रस्तुत पद्य से बहुत ही गंभीर है। हम उस पर विचार करना परम आवश्यक समझते हैं। वह पद्य यह है- “जायस नगर धरम अस्थानू। तहाँ आइ कबि कीन्ह बखानू।।” जायसी की भाँति ही तुलसीदास भी अपने मानस में लिखते हैं “नौमी भौम बार मधुमासा। अवधपुरी यह चरित प्रकासा।” पर जैसा कि हम ऊपर कह आए हैं, इस कीन्ह और उस प्रकासा में बड़ा भारी अंतर है। उस प्रकासा से एक ओर तो स्वयं रामचंद्रजी का प्रकाश हो रहा है और दूसरी ओर मासा के तुक पर उसका अर्थ प्रकाशित हो रहा है। पर जायसी के यहाँ तो शुद्ध कीन्ह है। अवश्य ही यह पंक्ति बाद की रचना है। “औ विनती पंडितन सन भजा” से भी कुछ यही प्रमाणित होता है।

    यहाँ पर लगे हाथों एक और प्रश्न पर विचार कर लेना उचित जान पड़ता है। कवि कहता है “जायस नगर धरम अस्थानू। तहाँ आइ कबि कीन्ह बखानू।।” सबसे प्रथम प्रश्न तो यह उठता है कि कवि जायस को धरम अस्थानू क्यों कहता है? जब हम जायस के अर्थ पर विचार करते है तब वह विलास का घर ठहरता है। उसका रंग-ढंग भी कुछ इसी बात का पोषण करता है। आज-कल तो लोग उसका नाम लेना भी उचित नहीं समझते, बड़का शहर के नाम से उसे याद करते हैं। पर यह हमारा मुख्य विषय नहीं है। अतः केवल “तहाँ आइ कबि कीन्ह बखानू” पर ही ध्यान देना हमको अभीष्ट है। यहाँ पर स्वभावतः यह प्रश्न उठता है कि जायसी ने पदमावत का आरंभ भी जायस ने पदमावत का आरंभ भी जाययस में किया अथवा नहीं? हिंदी के विद्वानों ने इस पद्य के आधार पर यह तो निश्चिय कर लिया है कि जायसी वस्तुतः जायस के निवासी नहीं थे, वे कहीं अन्यत्र से जाकर वहाँ पर बस गए थे। पर इस विषय़ पर उन लोगों ने कुछ भी ध्यान नहीं दिया कि स्वयं पदमावत की उस समय क्या दशा थी। शुक्लजी का कथन है- “परंपरा से प्रसिद्ध है कि एक चेला अमेठी (अवध) में जाकर इनका नागमती का बारहमासा गा गाकर भीख माँगा करता था। एक दिन अमेठी के राजा ने उस बारहमासे को सुना। उन्हें वह बहुत अच्छा लगा, विशेषतः उसका यह अंश- “कँवल जो विगसा मानसर, बिनु जल गएउ सुखाइ। सूखि बेलि पुनि पलुहै, जो पिउ सींचै आइ।।” राजा उस पर मुग्ध हो गए। उन्होंने फकीर से पूछा “शाहजी! यह दोहा किसका बनाया है?” फकीर से मिलक मुहम्मद का नाम सुनकर राजा ने बड़े सम्मान और विनय के साथ उन्हें अपने यहाँ बुलाया। तब मलिक मुहम्मद जायस में आकर रहने लगे और वहीं पर इन्होंने पदमावत समाप्त की।” शुक्लजी के इस अवतरण से स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि जिस समय जायसी जायस में आए उस समय पदमावत की रचना आरंभ हो चुकी थी। आरंभ ही क्यों? कम से कम वहाँ तक बन भी चुकी थी जहाँ पर उक्त दोहा मिलता है। “तहाँ आइ कबि कीन्ह बखानू” से भई कुछ ऐसा ही ध्वनित होता है। यदि यह ठीक है तो ग्रियर्सन साहब का यह कथन “He studied Sanskrit Prosody and Rhetoric from Pandits at Jayas.” अक्षरशः असत्य है। इस प्रश्न का अधिकतर संबंध जायसी के जीवन से है, अतः हम इसको उनकी जीवनी के लिये ही छोड़े जाते हैं।

    पदमावत के रचना-काल के विषय में जो मत-भेद चल पड़ा है उसका मुख्य कारण शेरशाह की वंदना है। शेरशाह के प्रति जायसी की जो सहानुभूति है उसका कारण शाहेव्कत की प्रशंसा में नहीं छिप सकता। विद्वानों को उसकी खोज करनी ही पड़ेगी। हम यह जानते है कि कवियों ने सड़े-गले व्यक्तियों की प्रशंसा का पुल बाँधकर विधि को भी चकरा दिया है। परंतु हम यह भी कहने के लिये तत्पर हैं कि “कीन्हे प्राकृत-जन-गुन-गाना। सिर धुनि गिरा लगति पछिताना।।” हमें स्मरण है कि यह जायसी का सिद्धांत नहीं है, तुलसीदास का है। पर हमने यहाँ पर इशको उद्धृत कर इसके गौरव को कम नहीं किया है। विश्वास हो तो जायसी का कथन सुनिए- “चहै लच्छि बाउर कबि सोई। जहँ सुरसती, लच्छि कित होई!” “कबिता-संग दारिद मतिभंगी। काँटै-कूँट पुहुप के संगी।। कवि तौ चेला बिधि गुरु, सीप सेवाती-बुंद। तेहि मानुष कै आस का, जो मरजिया समुंद?” अस्तु, जायसी ने जो कुछ शेरशाह के विषय में लिखा है वह लीक पीटने के विचार से अथवा किसी लोभ विशेष से नहीं। वह तो उनके भावुक हृदय का शुद्ध उद्गार है। इतिहासज्ञों की दृष्टि में शेरशाह उस प्रसंशा का पात्र था। अतः हम जायसी के इस कथन में भी सत्य का आभास पाते हैं और उसकी विवेचन का आधार भी बनाने जा रहे हैं। शेरशाह की अंतरात्मा छटपटाकर कहती है- “Alas, that I have attained the empire only, when I have reached old age, and when the time for evening prayer has arrived. Has it been otherwise, the world would have seen what I would have accomplished. I would have made a bridge to span the ocean and have so contrived, that even a widowed and helpless woman might without difficulty perform the pilgrimage ot Mecca.” जब तुलसीदास सा महात्मा टोडर को खोकर उसकी प्रशंसा में कुछ कह बैठता है तब जायसी सा सा सूफी शेरशाह को पाकर क्यों ने झूम पड़े और उसकी प्रशंसा में कुछ कह उठे।

    शेरशाह के व्यक्तित्व के विषय में कुछ कहना व्यर्थ ही है। वह तिनके से पहाड़ हो गया था। उसके राज्याभिषेक के विषय में विद्वानों में मतभेद है। कानूनगो जी का निष्कर्ष है- “Thus we find that the ceremony took place at Gaur about the beginning of December, 1539 A. D.” किंतु हमारा काम इस निष्कर्ष से नहीं निकलता। हमारा शेरशाह देहली सुलतान है, केवल गौड़ का नहीं। शेरशाह ने हिमायूँ को कन्नौज में 10वीं मुहर्रम सन् 947 हिजरी या 17 वीं मई सन् 1540 ई. को हराया। विजयी शेरशाह ने हिमायूँ का पीछा किया। वह कुछ दिनों तक आगरे में रहा, फिर दिल्ली की ओर बढ़ा। पर उसी समय उसको दिल्ली की बागडोर प्राप्त हो सकी, यद्यपि वह राज करता रहा। हिमायूँ का खटका तो उसको बराबर बना रहा। अंत में जब मालदेव ने भी हिमायूँ की सहायता नहीं की और वह बचकर काबुल की ओऱ चला गया तब शेरशाह दिल्ली का पक्का सुलतान हो गया। संभवतः इसी को ध्यान में रखकर स्मिथ साहब ने शेरशाह का राज्याभिषेक-काल सन् 1542 ई. में माना है। वस्तुतः शेरशाह की राजगद्दी का समय स्मिथ साहब ने दो दिया है, पर दो दृष्टियों से। दिल्ली का बादशाह तो शेरशाह सन् 1542 ई. में हुआ है और बिहार तथा बंगाल का सन् 1539 ई. में।

    हमारा अनुमान यह है कि इस राज्यभिषेक के उपरांत ही जायसी ने शेरशाह की वंदना की और उसको पदमावत में स्थआन दिया। संभव है कि उसके उपलक्ष्य में ही यह वंदना बनी हो। हम अपने अनुमान के पुष्टीकरण में इस वंदना से ही कुछ प्रमाण संग्रह करना चाहते हैं। हमारी धारणा है कि इसमें पर्याप्त सामग्री है। हमारी समझ में तो जायसी शेरशाह के मित्र भले ही रहे हों, पर परिचित तो अवश्य ही थे। जायसी के जीवन का अधिकांश भोजपुर प्रांत ही में व्यतीत हुआ जान पड़ता है। शेरशाह के पिता मियाँ हसन ही यदि कुतुबन के हुसेनशाह हैं तो यह अनुमान और भी दृढ़ हो जाता है। इस प्रश्न का संबंध भी विशेषतः जायसी की जीवनी ही से है। अतः इसको यहीं छोड़कर मुख्य प्रश्न पर विचार करना ही अधिक संगत जान पड़ता है।

    शेरशाह की वंदना का सामान्य अवलोकन करने के उपरांत जो हृदय पर एक प्रकार की छाप पड़ जाती है वह प्रायः यही होती है कि शेरशाह उस समय का एक प्रतापी राजा था और उसकी धाक उस समय चारों ओर जम चुकी थी। इसी सामान्य प्रभाव के आधार पर मिश्रबंधु यह कल्ना करते हैं कि यह वंदना शेरशाह के अंतिम समय में बनी है। उनके विचार से शेरशाह का अंतिम संवत् 1600 है। शुद्ध समय की दृष्टि से यह संवत अशुद्ध है। शेरशाह का परलोक-गमन संवत् 1602 सिद्ध है- “He calmly yielded his life to the Giver of life on Saturday evening, 10 Rabi I. 252 A. H. (22nd May, 1545 A. D.)” अब विचारणीय विषय यह है कि यह वंदना किस समय में बनी?

    जायसी शेरशाह पर प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं- “दीन्ह असीम मुहम्मद करहु जुगहि जुग राज। बादशाह तुम जगत के जग तुम्हार मुहताज।।” जान पड़ता है कि जायसी हमारी आँखों के सामने ही शेरशाह को हाथ उठाकर आशीर्वाद दे रहे हैं। इस दीन्ह तथा तुम पर ध्यान दीजिए। आगे चलकर कवि शेरशाह की शक्ति का वर्णन बड़े ही मार्मिक शब्दों में करता है और कहता है “जो गढ़ नएउ काहुहि चलत होइ सो चूर। जब वह चढञै भूमिपति सेरसाहि जग सूर।।” हमको पता है कि शेरशाह के जीवन का अंत ही युद्ध में हुआ। अतः यह कथन उसके जीवन के अंतिम क्षण तक ठीक उतरता है। पर इसी से इस वंदना का रचना-काल उसके जीवन का अंतिम वर्ष ही नहीं माना जा सकता। “रूप सवाई दिन दिन चढ़ा। विधइ सुरूप जग ऊपर गढ़ा।।” बहुत पहले भी कहा जा सकता था। कवि शेरशाह को दानवीर भी बनाता है और एक स्थल पर कहता है “हाथ सुलेमाँ केरि अँगूठी। जग कहँ दान दीन्ह भरि मूठी।।” इस दीन्ह से हमें कुछ ऐसा भान होता है कि इसका संकेत किसी विशेष समय के दान से है। कारण यह है कि कवि इसका वर्णन “दातार” बनाने के पहले ही भूतकाल में करता है। दानवीर तो बराबर दान देते ही रहते हैं, उनकी दानशीलता का वर्णन, यदि जीवित हों, वर्तमान काल में होता है। जायसी स्वयं ही ऐसा करते हैं “सेरसाहि सरि पूज कोऊ। समुद सुमेर भँडारी दोऊ।। दान डाँक बाजै दरबारा। कीरति गई समुंदर पारा।।” इतिहास इस बात का साक्षी है कि जायसी का यह कथन सत्य से वंचित नहीं है। हमारी समझ में इस वंदना का समय सन् 1542 ई. है। इस निष्कर्ष तक पहुँछने का एक और दृढ़ आधार है। शेरशाह ने जो कुछ किया उसकी महिमा पढ़े-लिखे लोग ही जानते हैं। परंतु उसकी एक ऐसी लीक है जिसको सभी लोग देखते ही नहीं उस पर चलते भी हैं। उसकी प्रसिद्ध सड़कों को कौन नहीं जानता? कानूनगो जी का कथन है- “The most permanent among the monuments of Sher Shah’s glory are his great roads, which have kept his memory still green in the minds of his country-men.” यही नहीं “These roads and Sarais were essential to the success of Sher Shah’s administration.” क्योंकि “In every Sarai he built separate quarters both for Hindus and Musalmans, and at the gate of every Sarai he had placed pots full of water, that any one might drink, and in every Sarai he settled Brahmans for the entertainment of Hindus.” हमारा जी अब तो यही कहता है कि यदि जायसी शेरशाह की वंदना उस समय बनाते जब ये सड़कें बन चुकी थीं तो इनका वर्णन किसी किसी रूप में अवश्य ही करते। अस्तु, हमारा निष्कर्ष यह है कि जायसी ने शेरशाह की वंदना की रचना सन् 1542 ई. में की।

    हम शेरशाह की वंदना पर जितना ही अधिक विचार करते हैं उतना ही हमारा संदेह “सन नव सै सैंतालीस अहा” की साधुता पर बढ़ता जाता है। सन् 947 हिजरी का जीवन-काल 8 मई सन् 1540 ई. से 26 अप्रैल सन् 1541 ई. तक था। निस्संदेह यह वर्ष शेरशाह के जीवन का सबसे सुंदर वर्ष था। इस वर्ष के मुहर्रम ने शेरशाह को चमका दिया, हिमायूँ को भगा दिया। क्या ही अच्छा होता, यदि यही समय पदमावत के आरंभ का भी सिद्ध हो जाता। पर करें क्या, हमारे प्रमाण तो इसके प्रतिकूल पड़ जाते हैं। फिर भी यह देखकर हमको संतोष होता है कि इस समय तक पदमावत समाप्त हो गई होगी, और इसका लाभ हिंदी-साहित्य को उसी रूप में हुआ होगा जिस रूप में कि शेरशाह को दिल्ली का राज्य। कहते हैं कि यदि आदि से अंत का सुंदर होना अधिक मंगलप्रद होता है।

    अब तक जो कुछ निवेदन किया गया है उससे यह तो स्पष्ट ही हो गया होगा कि पदमावत का रचना-काल सन् 947 हिजरी या सन् 1540 ई. मानना उचित नहीं कहा जा सकता। जहाँ तक हमसे बन पड़ा है हमने इसको निराधार तथा तथ्यहीन सिद्ध करने का साहस किया है। सच बात तो यह है कि यह विशय इतना गंभीर कदापि था कि हम इस पर एक स्वतंत्र निबंध लिखने बैठ जाते। हम पहले ही कह चुके हैं कि यह दो और चार का झगड़ा व्यर्थ ही खड़ा कर दिया गया है, इसके मूल में कुछ भी तथ्य नहीं है। परंतु जब यह प्रश्न छिड़ ही गया है तब इसकी उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। अतः कुछ “सन नव सै सत्ताइस अहा” पर भी प्रकाश डालना कर्तव्य हो गया है।

    खोज के परम उपासक बाबू श्यामसुंदरदास पदमावत के निर्माण-काल पर विचार करते समय लिखते हैं कि “अराकान राज्य के वजीर मगन ठाकुर को पदमावत बहुत प्रिय थी। इन्होंने अपने आश्रित एक आलोउजालो नामक कवि से पदमावत का अनुवाद बँगला में कराया। अनुवाद बहुत ही उत्तम हुआ है। उस अनुवाद की हस्तलिखित प्रतियाँ मिली हैं जिनमें पदमावत का निर्माण-काल यों मिलता है- “शेख मुहम्मद जति, जखन रचिल ग्रंथि संखअया सप्तविंश नव शत।” इसका अर्थ होगा कि शेख मुहम्मद ने जब ग्रंथ की रचना की उस समय सन् था “नौ सौ सत्ताईस।” यह अनुवाद संवत् 1700 के लगभग हुआ था।” प्रस्तुत अवतरण से यह तो प्रकट ही है कि इस अनुवादक ने “सन नौ सौ सत्ताईस अहा” का ही अनुवाद किया है। यदि यह अनुवाद संवत् 1700 के लगभग का है तो इसका प्रमाण आधुनिक प्रतियों से अधिक मान्य है। ग्रियर्सन साहब ने इस बात का उल्लेख कुछ भी नहीं किया है कि उनकी प्राचीन फारसी-लिपिवाली पोथियों में कौन सी तिथि दी गई है। उनकी सबसे प्राचीन पुस्तक सन् 1107 हिजरी अथवा सन् 1665 ई. की है, जो इस अनुवाद-ग्रंथ के पीछे की है। अस्तु, यदि प्राचीनता को ही प्रमाण माना जाय तो भी सन् 927 हिजरी ही ठीक ठहरता है। जायसी के ठीक 100 वर्ष बाद ही यदि पदमावत का अनुवाद बँगला में हो गया तो यह कोई अनोखी बात नहीं हुई। बंगाल में इन सूफियों का बहुत आदर था। ईश्वरीप्रसाद जी का कथन है- “The Fourteenth Century was remarkable for the activity of the Muslim faqirs in Bengal……..There were several saints of reputed sanetity in Pandua, which owing to their presence, came to be called Hazarat, …….. other noted saints were Alanl Haq and his son Nur Qutb-ul-Alam. Alaul Haq was also deciple of Saikh Nizqmuddin Aulia. Husain Shah of Bengal (1493-1519 A.D.) was the founder of a new cult called satyapir, which aimed at uniting the Hindus and the Muslims. Satyapir was compounded of Satya, a Sanskrit word, and Pir which is an Arabic word.” इस अवतरण से कदाचित् उस प्रश्न पर भी कुछ प्रकाश पड़ जाता है जो अलाउद्दीन की दूती के “पटना पुरुब सो घर घर हाँड़ि फिरउँ संसार” के पुरुब शब्द को देखकर उठ पड़ता है। प्रसंगवश यहाँ पर हम इतना निवेदन कर देना अनुचित नहीं समझते कि कुतुबन के हुसेनशाह पर एक बार फिर से विचार कर लेना चाहिए। हमारी समझ में यह बात नहीं आती कि मियाँ हसन को शाह की पदवी कैसे मिल गई! उनके पुत्र फरीद (शेरखाँ) को तो मर मिटने पर नसीब हुई थी। हमारे विचार में ये ही सत्य-पीर के प्रचारक हुसेनशाह कुतुबन के हुसेनशाह हैं। जायसी तथा पदमावत को समझने के लिये इतना कह जाना आवश्यक था।

    पदमावत का रचना-काल सन् 927 हिजरी मान लेने में एक ही बाधा मुख्य है। यद्यपि वह बाधा सन् 947 हिजरी में भी घुस पड़ती है तथापि उसके प्रतिकूल नहीं पड़ती। वह बाधा शाहेवक्त की वंदना है। इसके विषय में कुछ विशेष कहने-सुनने की आवश्यकता नहीं है। यह तो सभी लोग जानते हैं कि मसनवियों में शाहेवक्त की वंदना अनिवार्य नहीं होती। किसी भी मंगलकार्य में परमात्मा के नाम का स्मरण करना, उसी के नाम से अपना काम आरंभ करना, एक ऐसी प्रथा है जिसका आदर बहुत दिनों से होता आया है। अतः फारसी की मसनवियों में वंदना या स्तुति का वही स्थान है जो हमारे यहाँ महाकाव्यों में मंगलाचरण का। यह बात दूसरी है कि वे लोग परिचय-प्रियता के कारण बहुतों का परिचय दे जाते हैं। इस बात को ध्यान में रखकर जब हम सन् 927 हिजरी की ओर बढ़ते हैं तब हमारे सम्मुख जो चित्र उपस्थित होता है वह बहुत ही दुःखद होता है। सन् 927 हि. का जीवन-काल 12 दिसंबर सन् 1520 ई. से 30 नवंबर सन् 1521 ई. तक था। यह वह समय था जब सिंहासन के लियै लड़ रहे थे जो सिकंदर के नाम पर रो रहा था। अब मथुरा के हिंदु यमुना में स्नान करने का साहस कर लेते थे, बाल बनवा सकते थे और अपनी मूर्तियों को बूचरखाने में जाने से रोक सकते थे। सिकंदर का आंतक इब्राहीम भोग रहा था। जनता उसके प्रतिकूल पड़ती जाती थी। अनादर, अपमान एवं अन्याय में वह सिकंदर का चचा निकला। बंगला का हुसेनशाह भी सत्यपीर की उपासना कर सदा के लिए सो गया था। जौनपुर की स्थिति भी ठीक थी। सारांश यह कि एक भी बादशाह उस समय ऐसा था जो जायसी का शाहेवक्त होता। संभव है कि जायसी ने पवित्र पदमावत को इन शासकों के शासन से बचाकर रखना ही उचित समझा हो, और उसकी वंदना में शाहेवक्त को स्थान दियो हो, ग्रंथ के समाप्त होने पर शेरशाह का न्यायी तथा उपयुक्त राजा पाकर उसकी वंदना किसी के अनुरोध अथवा अपनी प्रेरणा से जोड़ दी हो। हम पहले ही कह चुके हैं कि इस समय उनको अंशतः कुछ स्तुति या वंदना में परिवर्तन तथा परिवर्द्धन भी करना पड़ा था। शेरशाह भी जायसी की भाँति ही सुन्नी था। उसकी मुद्राओं पर चारों खलीफाओं के नाम अंकित मिलते हैं- “One squared-shaped coin with dotted margin (struck at Sharifabad in 946 A.H.) bears on the obverse the name of Abu Bakar on the top, Usman at the bottom, Umar on the right and Ali on the left.”

    पदमावत के रचना-काल के विषय में हमको जो कुछ निवेदन करना था, उसकी इति हो चुकी। हमारी समझ में उसका आरंभ सन् 927 हिजरी में हो गया था। एक प्रकार से हम सिद्ध ही कर चुके हैं कि शेरशाह की वंदना सन् 1542 ई. अथवा सन् 948 हिजरी में बनी। अतः हमारे विवेचन में पदमावत का रचना-काल सन् 927 हिजरी से सन् 948 हिजरी तक ठहरता है। निस्संदेह यह एक लंबा समय है। विचारणीय प्रश्न यहाँ पर यह हो जाता है कि पदमावत की रचना में जो 20 या 22 वर्ष का समय लगा है उसका कारण क्या है अथवा वह कहाँ तक संगत है? क्या जायसी लगातार उसी का रचना में लिप्त रहे या किसी अन्य कारण से उनके उस पावन अनुष्ठान में व्यतिक्रम भी पड़ता रहा?

    प्रस्तुत प्रश्न पर कुछ गंभीर विवेचना की आवश्यकता नहीं जान पड़ती। जायसी ने स्वयं ही कहा है- मुहमद कबि यह जोरि सुनावा। सुना सो पीर प्रेम कर पावा।। जोरी लाइ रकत कै लेई। गाढ़ि प्रीति नयनन्ह जल भेई।। मैं जानि गीत अस कीन्हा। मकु यह रहै जगत महँ चीन्हा।।... कहँ सुरूप पदमावति रानी? कोइ रहा जग रही कहानी।। धनि सोई जस कीरति जासू। फूल मरै, पै मरै बासू।। केइ जगत जस बेचा, केइ लीन्ह जस मोल? जो यह पढ़ै कहानी हम सँवरै दुइ बोल।।” इस अवतरण से यह स्पष्ट अवगत हो जाता है कि जायसी पदमावत को अमर बनाने की लालसा में, अक्षय-कीर्ति की प्रेरणा से, जी-जान से लग गए थे। उन्होंने पदमावत को सर्व-सुंदर बनाने में कुछ उठा नहीं रखा था। पदमावत के अध्ययन के उपरांत यह प्रश्न स्वभावतः उठता है कि जायसी कुछ और भी कह सकते थे अथवा नहीं? ज्योतिष, हठयोग, कामशास्त्र, रसायन आदि विविध बातों का सन्निवेश हमारे कथन का स्पष्टीकरण ही नहीं, प्रतिपादक भी है। यही नहीं, जायसी की इस अमर-काना की आत्म-विज्ञापन-विधायिनी मनोवृत्ति से पदमावत के कथा-प्रवाह तथा रस के समुचित परिपाक में कहीं कहीं कुत्सित बाधा तक पड़ जाती है। किसी शब्द को लेकर जायसी तब तक उसके साथ खिलवाड़ करते जाते हैं जब तक वह आँख से ओझल नहीं हो जाता और उनकी बुद्धि गवाही नहीं दे देती। मुद्रालंकार तथा श्लेष की अधिकता भी हमारे कथन का प्रतिपादन करती है। पदमावत की रचना में अधिक समय अवश्य ही लगा होगा।

    पदमावत का रचना-काल राजनीतिक अशांति का समय था। संभवतः जायसी ने जायस में रहने का निश्चय इस अशांति के कारण भी किया हो। किंतु हमारा ध्येय जायसी पर विचार करने का नहीं है। हम तो यहाँ पर केवल इतना ही देखना चाहते हैं कि पदमावत की रचना कब तक होती रही अथवा किस समय समाप्त हुई थी। जायसी ने “राजा-बादशाह-युद्ध-खंड” में एक स्थल पर फिरंगियों का स्मरण किया है। यद्यपि फिरंगी शब्द का प्रयोग पृथ्वीराज-रासो में भी मिलता है तथापि इससे उसकी प्राचीनता सिद्ध नहीं हो पाती। अतः हमको भी शुक्लजी का यह कथन मान्य है- “फिरंगी= पुर्तगाली। (फारस में यह शब्द रूप से आया जहाँ धर्मयुद्ध के समय यूरोप से आए हुए फ्रांक लोगों के लिये पहले पहल व्यवहृत हुआ।) फारस से यह शब्द हिंदुस्तान में आया और सबसे पहले आए पुर्तगालियों के लिये प्रयुक्त हुआ।” यह तो सभी जानते हैं कि वास्को-डि-गामा ने सन् 1498 ई. में भारत में पदार्पण किया था। जायसी का कथन हैं—“हबसी, रूमी फिरंगी। बड़ बड़ गुनी और तिन्ह संगी।” अलाउद्दीन के समय में फिरंगी का वर्णन, हमारी दृष्टि में अनुचित है, कालदोष है।

    इस कालदोष का कारण यह जान पड़ता है कि जायसी ने इतिहास पर, उस दृष्टि से, अधिक ध्यान नहीं दिया। उन्होंने पदमावत में जिन रजवाड़ों का जैसा वर्णन किया है उसकी संगति प्रायः शेरशाह के समय में ही ठीक बैठती है। जायसी ने किसी मालवदेव का नाम लिया है। यह मालवदेव पद्मावती का स्मरण किया गया “तुम बल वीर जैस जगदेऊ। तुम संकर और मालवदेऊ” मालवदेव है। अतः यह वह मालदेव नहीं हो सकता जिसको अलाउद्दीन ने जीतकर चित्तौर दिया था। हमारी समझ में यह जोधपुर का मालदेव है जो शेरशाह के समय का बड़ा प्रतापी राजा था और जिसके साथ उसको छल करना पड़ा था। कहने का तात्पर्य यह कि जायसी ने फिरंगी का प्रयोग इसलिये कर दिया होगा कि फिरंगी उस समय नामी हो रहे थे। एक ओर तो फिरंगियों ने धोखा देकर गुजरात के बहादुरशाह का अंत कर दिया था और दूसरी ओर वे मुहम्मदशाह (बंगाल) की ओर से शेरशाह से भिड़ गए थे। ये घटनाएँ सन् 1537 तथा 38 के लगभग की हैं। इस प्रकार यह सिद्ध ही है कि जायसी सन् 1540ई. तक पदमावत की रचना करते रहे, और ग्रंथ के समाप्त हो जाने पर शेरशाह को उचित शाहेवक्त पाकर उसकी वंदना भी उसमें जोड़ दी। निदान, पदमावत का रचना-काल सन् 927 हिजरी से सन् 948 हिजरी तक मानना अनुचित नहीं कहा जा सकता है। हमको अपने कथन पर इतना विश्वास है कि हम इसको अधिक बढ़ाना उचित नहीं समझते। हमको आशा है कि जायसी की जीवनी पर ध्यान देने से हमारा कथन और भी स्पष्ट एवं दृढ़ हो जायगा। यदि हिंगी के विद्वानों का ध्यान इस प्रश्न की ओर मुड़े तो हमारा परिश्रम सफल हो जाय, नहीं तो, मनमोदक तो है ही।

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