हज़रत मीराँ जी शम्सुल-उ’श्शाक़
उर्दू ज़बान की सर-परस्ती सब से ज़ियादा सूफ़िया ने की है।इसलिए कि उनका राब्ता अ’वाम और उनके मसाइल से था जिसके लिए अ’वामी ज़रिआ’-ए-इज़हार को समझना और बरतना भी ज़रूरी था।जब कि उ’लमा का सर-ओ-कार बेशतर इ’ल्मी मसाइल की तशरीह-ओ-तावील,तफ़्सीर-ओ-ता’बीर से रहा।और इस मक़्सद के लिए उन्हों ने अक्सर फ़ारसी ज़बान को वसीला बनाया जो अ’हद-ए-वुस्ता में तस्नीफ़-ओ-तालीफ़ की ज़बान थी।कभी अ’रबी में लिखना मुनासिब नही समझा जो इस्लाम की बुन्यादी ज़बान थी।उन्नीसवीं सदी के आग़ाज़ तक इसकी कोई शहादत नहीं कि उ’लमा ने किसी मक़ामी ज़बान में तस्नीफ़-ओ-तालीफ़ की हो।अलबत्ता सूफ़िया ने इ’बादात-ओ-मुआ’मलात के ज़रूरी मसाइल को कभी नज़्म में और गाहे नस्र में लिखना शुरुअ’ कर दिया था।
नज़्म में लिखने का एक तो ये फ़ाएदा है कि वो बच्चों को भी आसानी से याद हो जाती है।दूसरे उसमें तहरीफ़ का इम्कान भी नस्र के मुक़ाबले में कम रहता है।फ़िक़्ही मसाइल और सूफ़िया के नज़रिया-ए-हायात-ओ-काएनात से मुतअ’ल्लिक़ मसाइल पर सब से पहते दकन के सूफ़िया ने क़लम उठाया।आज हमें दकनी अदब का जो सरमाया मिलता है उस का बेशतर हिस्सा सूफ़िया के क़लम का मरहून-ए-मिन्न्त है।इब्तिदा में तो ये दस्तूर रहा कि ख़ानक़ाह में अ’वाम की तर्बियत और उन से गुफ़्तुगू उनकी अपनी ज़बान में होती थी जिस के मुतअ’द्दिद शवाहिद क़दीम मल्फ़ूज़ात के मज्मूओं’ से भी मिलते हैं।मगर फ़न्न-ए-सुलूक-ओ-तसव्वुफ़ पर किताबें फ़ारसी में लिखी जाती थीं।जैसा कि हम हज़रत बुर्हानुद्दीन ग़रीब और उनके जानशीन हज़रत ज़ैनुद्दीन शीराज़ी (रहि.) की ख़ानक़ाह में देखते हैं।लेकिन रफ़्ता-रफ़्ता उस में तब्दीली होती रही।हज़रत ख़्वाज़ा सय्यिद मोहम्मद गेसू दराज़ अ’लैहिर्रहमा चिश्ती निज़ामी सिलसिले के वो जलीलुल-क़द्र बुज़ुर्ग हैं जिन्हों ने अपनी तवील ज़िंदगी तसव्वुफ़ की इ’ल्मी ख़िदमत के लिए वक़्फ़ कर दी थी।उनके यहाँ शरीअ’त-ओ-तरीक़त में कोई इम्तियाज़ या दुइ नहीं पाई जाती।उनके रूहानी फ़ैज़ान में बरकत भी ग़ैर मा’मूली हुई और बा’द के ज़माने में गुजरात,महाराष्ट्र,आंध्रा, तामिलनाड, कर्नाटक की अक्सर ख़ानक़ाहों में यही चिश्ती निज़ामी सिलसिला राइज हुआ।और उन ख़ानक़ाहों के अक्सर बुजुर्ग आ’लिम-ए-मंक़ूल-ओ-मा’क़ूल तो थे ही साहिब-ए-तसानीफ़ भी थे।तसानीफ़ में भी उन्हों ने अ’वाम की इस्लाह-ओ-तर्बियत के लिए चो कुछ लिखा वो ज़ियादा-तर दकनी उर्दू में लिखा।इस से समाज में मुफ़ाहमत पैदा हुई जो क़ौमी इत्तिहाद और सालमियत के लिए अज़ बस ज़रूरी है।
हज़रत गेसू दराज़ अ’लैहिर्रहमा के एक मुसाहिब और मुमताज़ ख़लीफ़ा मौलाना जमालुद्दीन मग़रिबी थे जिनका तज़्किरा हज़रत के मल्फ़ूज़ात “जवामिउ’लकलिम” में भी मुतअ’द्दिद मक़ामात पर आया है।हज़रत जमालुद्दीन के मुरीदों में एक नुमायाँ शख़्सिय्यत शाह कमालुद्दीन मुजर्रद बयाबानी की है जिन्हों ने दकन में सिलसिला-ए-चिश्तिया की ता’लीमात को अ’वाम की सत्ह तक पहुँचाया।उन्हीं शाह कमाल के मुरीदों में एक नुमायाँ शख़्सिय्यत हज़रत मीराँ जी शम्सुल-उ’श्शाक़ अ’लैहिर्रहमा की है जो हज़रत बुर्हानुद्दीन जानम के वालिद और हज़रत अमीनुद्दीन आ’ला बीजापुरी के दादा हैं।कहा जाता है कि हज़रत मीराँ जी मक्का मुअ’ज़्ज़मा में पैदा हुए थे।इब्तिदाई ज़माना वहीं बसर किया।फिर मदीना मुनव्वरा तशरीफ़ ले गए और बारह साल तक रौज़ा-ए-अतहर के जवार में मुक़ीम रहे।एक रात मीराँ जी ने ख़्वाब देखा कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम उन्हें हिदुस्तान जाने का हुक्म दे रहे हैं।उन्होंने अ’र्ज़ किया कि मैं तो वहाँ की ज़बान से भी वाक़िफ़ नहीं।रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि तुम वहाँ जाकर ज़बान सीख जाओगे।अब इसे करामत ही कह सकते हैं कि एक दरवेश जो मक्का में पैदा हुआ,मदीने में अपना अ’हद-ए-जवानी गुज़ारा,वो एक बिल्कुल अजनबी मुल्क में आता है तो यहाँ की ज़बान ऐसी सीख जाता है कि उस ज़माना की नज़्म-ओ-नस्र में किताबें तालीफ़ करता है,जो हमारे उर्दू के क़दीम कलासीकी अदब का गिराँ-बहा सरमाया समझी जाती हैं।
उर्दू नस्र की क़दीम-तरीन किताब जो अब तक दरयाफ़्त हुई है वो शिमाली हिंद में तो फ़ज़ली की कर्बल-कथा है जिसमें हज़रत हुसैन की शहादत का बयान है।मगर ये बहुत मुअख़्ख़र ज़माने की है या’नी तक़रीबन 1146 हिज्री 1733 ई’स्वी में लिखी गई जो मोहम्मद शाह का ज़माना है।मगर दकन में नस्री तालीफ़ का आग़ाज़ उससे बहुत क़ब्ल हो चुका था।वहाँ लिखी जाने वाली अव्वलीन नस्री तस्नीफ़ “मे’राजुल-आ’शिक़ीन” है जिसका मौज़ूअ ‘तसव्वुफ़ है।और उसे हज़रत गेसू दराज़ से मंसूब किया जाता है।आप का साल-ए-विलादत 721 हिज्री 1321 इ’स्वी और सन-ए-विसाल 825 हिज्री 1422 ई’स्वी है।बा’ज़ मुहक़्क़िक़ीन ने इस इंतिसाब को मश्कूक माना है और वो मे’राजुल-आ’शिक़ीन का मुसन्निफ़ हज़रत मीराँ जी शम्सुल-उ’श्शाक़ को बताते हैं।बहर-हाल वो भी हज़रत गेसू-दराज़ ही के रूहानी ख़ानादन से तअ’ल्ल्क़ रख़ते हैं।बीजापुर दकन का क़दीम तारीख़ी शहर है जो आ’दिल शाहों का दारुल-ख़िलाफ़ा रहा है।और आ’दिल शाही हुक्मरानों ने इ’ल्म-ओ-अदब,फ़ुनून-ए-लतीफ़ा और सनअ’त-ओ- हिरफ़त की बहुत ख़िदमत की है।बीजापुर का फ़न्न-ए-ता’अमीर हिंदुस्तान में बे-मिसाल है।इसी तरह बीजापुर के सूफ़िया का सिलसिला भी तारीख़ी अ’ज़मत का हामिल रहा है।और सूफ़िया ने दकनी ज़बान-ओ-अदब की निहायत बेश-बहा ख़िदमत अंजाम दी हैं।उस ख़ानदान-ए-आ’ली शान के बानी और मुरिस-ए-आ’ला हज़रत मीराँ जी शम्सुल-उ’श्शाक़ ही हैं। बीजापुर की सर-ज़मीन पर इ’ल्म-ओ-अदब के फ़रोग़ का जो काम भी हुआ उसका सिलसिला किसी न किसी तरह उस ख़ानदान से जा मिलाता है।हज़रत मीराँजी शम्सुल-उ’श्शाक़ का इंतिक़ाल 906 हिज्री 1496 ई’स्वी है।वो मुतअ’द्दिद किताबों के मुसन्निफ़ हैं।मैं उनकी ता’लीम और हिदायत के लिए ये बातें हिंदी में लिख रहा हूँ चूँकि उस।ज़माने की रविश के मुताबिक़ आ’मियाना ज़बान में तस्नीफ-ओ-तालीफ़ करना कुछ बाइ’स-ए-फ़ख़्र न था।इसलिए ये भी फ़रमाते हैं कि ज़ाहिर को मत देखो बातिन पर नज़र रखो या’नी इस का ख़याल मत करो।मैं ने अ’रबी या फ़ारसी में नहीं लिखा जिससे मेरी इ’ल्मियत की धाक भी जमती बल्की इस पर नज़र रखो कि उसमें क्या क्या निकात बयान किए हैं।आख़िर सोना भी मिट्टी में मिला हुआ होता है और उसे अच्छा फटक कर निकाला जाता है।किसी को कोई हीरा घोड़े पर पड़ा हुआ मिल जाए तो वो उसको फेंक नहीं देगा।उन्हों ने अक्सर फिक़्ही मसाइल या तसव्वुफ़ के निकात सवाल-ओ-जवाबा की सूरत में बयान किए।नज़्म में कहीं दोहों का फ़ोरम इख़्तियार कियाहै।कभी क़दीम हिंदुस्तानी रिवायत के मुताबिक़ औ’रत से ख़िताब करते हैं।ऐसी तल्मीहात स़ूफ़िया के यहाँ बहुत आ’म हैं कि दुनिया को मैके से और आ’लम-ए-आख़िरत को ससुराल से तशबीह देते हैं।मीराँ जी की तस्नीफ़ ‘ख़ुश-नामा’ में ऐसी ही तल्मीहात आती हैं।
उर्दू नस्र में उनका एक रिसाला ‘मर्ग़ूबुल-क़ुलूब’ है।उसमें फ़िक़्ह-ओ-तसव्वुफ़ की मबादियात को आ’म फ़हम उस्लूब में बयान किया गया है।
मीराँ जी के कलाम का ज़रा सा नमूना मुलाहिज़ा फ़रमाईएः
बिस्मिल्लाहिर्रहमान
अर्रहीम तू सुब्हान
ये सब आ’लम तेरा
रज़्ज़ाक़ सभूँ कीरा-ओ-कीरा का
तुझ बिन और न कोई
ना ख़ालिक़ दूजावे
जे तेरा होए करम
तो टूटे सभी भरम
है तेरा अंत न पार
किम मुखों करूँ उचार
यहाँ उनके कलाम से ज़ियादा मिसालें पेश करने का महल नहीं है लेकिन इन चंद अश्आ’र से ही अंदाज़ा हो गया होगा कि ये अ’वामी बोली से कितनी क़रीब है। उन्हों ने मक़ामी हिंदी लफ़्ज़ों का बे-तकल्लुफ़ इस्ति’माल किया है।अल्फ़ाज़ ही नहीं तल्मीहें और तशबीहात भी हिंदी रिवायत से आती हैं।
इन तसानीफ़ का मवाद आज के अदबी मज़ाक़ की तस्कीन कर सकता है न ये अब अ’वामी ज़रूरत की तकमील कर रहा है।मगर ये हमारा बेश-क़ीमत कलासीकी सरमाया है जिससे दकनी उर्दू का इर्तिक़ा और नशो-ओ-नुमा तो मा’लूम होता ही है।ये भी समझ में आता है कि अगर हमारे सूफ़िया ने अ’वामी बोली की ऐसी सर-परस्ती न की होती तो इब्लाग़-औ-तर्सील का ऐसा ख़ला बाक़ी रहता जो कभी तहज़ीब-ओ-वहदत की तस्वीर बनने न देता।आज पैदाइश से वफ़ात तक हमारे मसाइल-ओ-मुआ’मलात एक हैं।जज़्बात-ओ-महसूसात में इश्तिराक़ है। फ़ुनून-ए-लतीफ़ा,शाइ’री और मज़ाहिर-ए-जमालियात से लुत्फ़-अंदोज़ी के मे’यार एक से हैं तो ये सब सूफ़िया की उस दरवेशी की बदौलत ही मुम्किन हो सका है।और देखा जाए तो हमारी बज़्म-ए-मुआ’शरत में तहज़ीबी वहदत की ये बूक़लमूनी और ये उजयारा उन्हीं बुज़ुर्गों के दम से है।
(प्रोफ़ेसर सय्यिद अ’ली मोहम्मद ख़ुसरो वाइस चांसलर अ’लीगढ मुस्लिम यूनीवर्सिटी भी हज़रत मीराँ जी शम्सुल-उ’श्शाक़ की औलाद हैं।)
- पुस्तक : Monthly Munadi
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