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लिसानुल-ग़ैब हाफ़िज़ शीराज़ी - मोहम्मद अ’ब्दुलहकीम ख़ान हकीम।

निज़ाम उल मशायख़

लिसानुल-ग़ैब हाफ़िज़ शीराज़ी - मोहम्मद अ’ब्दुलहकीम ख़ान हकीम।

निज़ाम उल मशायख़

MORE BYनिज़ाम उल मशायख़

    दफ़्तर-ए-शो’रा में जिस पसंदीदा निगाह से लिसानुल-ग़ैब शम्सुद्दीन मोहम्मद हाफ़िज़ शीराज़ी अ’लैहिर्रहमा का कलाम देखा जाता है उसका उ’श्र-ए-अ’शीर भी किसी बड़े से बड़े सुख़नवर के कलाम को नसीब नहीं हुआ। लारैब आपके दीवान का एक एक शे’र ख़ुम-ख़ाना-ए-फ़साहत और मयकदा-ए-बलाग़त की किलीद है। अल्लाह तआ’ला की मा’रिफ़त और तौहीद की झलक जो आपके कलाम में पाई जाती है वो जल्वा-ए-तूर का करिश्मा है ।हज़रत रऊफ़ अहमद साहिब नक़्शबंदी मुजद्दिदी देहलवी अलै’हिर्रहमा दुर्रुल-मआ’रिफ़ में तहरीर फ़रमाते हैं कि आपका कलाम शुहूदी मज़्हब की ताईद करता है। आप अपने वक़्त के सूफ़ी-ए-अजल होते हैं। आपका कलाम हक़ाइक़ और मआ’रिफ़ की शराब का सर-चश्मा है। शाह शुजाअ’ के वक़्त में आप शीराज़ के मुफ़्ती-ज़ादा पर आ’शिक़ हो गए। उस नौजवान का आईना-ए-हुस्न ऐसा रौशन था कि हाफ़िज़ बावजूद हज़ार दास्तानी और लिसानुल-वक़्ती के उस के हुस्न की ता’रीफ़ में हैरान थे। एक रोज़ हाफ़िज़ और आपका मा’शूक़ ख़ल्वत में ‘इन्नल्लाहा-जमीलुन-व-युहिब्बुल-जमाल’ की क़िराअत में मस्रूफ़ थे कि मुख़ालिफ़ीन ने बादशाह से जाकर कहा कि इस वक़्त हाफ़िज़ ख़ल्वत में अपने मा’शूक़ के साथ शाहिद-बाज़ी में मश्ग़ूल हैं।बादशाह ने बाला-ख़ाना का दरीचा खोल कर जो देखा तो वाक़िई’ हाफ़िज़ को इस शुग़्ल में पाया कि मुफ़्ती-ज़ादा को शराब का पियाला दे रहे हैं और वो ले रहा है। क़ब्ल-अज़ीं बादशाह को इसकी इत्तिलाअ’ थी। अब तो अपनी आँख से देख लिया। फिर क्या था फ़िल-बदीह मिस्रा-ए’-ज़ैल नज़्म कर के सुबहानल्लाह।

    ‘हाफ़िज़ क़राबा-कश शुद-ओ-मुफ़्ती पियाला नोश’

    हाफ़िज़ ने सुल्तान की आवाज़ पहचान कर झट जवाब दिया।

    ‘दर अ’ह्द-ए-पादशाह-ए-ख़ता-बख़्श-ओ-जुर्म-पोश’

    हज़रत शैख़ रऊफ़ अहमद दुर्रुल-मआ’रिफ़ में तहरीर फ़रमाते हैं कि हाफ़िज़ के बा’ज़ अश्आ’र हदीस शरीफ़ के मुताबिक़ हैं जैसा कि:

    साक़िया इ’श्रत-ए-इमरोज़ ब-फ़र्दा म-फ़िगन

    बाज़-दीवान-ए-क़ज़ा ख़त्त-ए-अमानी ब-मन आर

    ये हदीस “इज़ा मसैता-फ़ला-तन्ज़ुर सबाह-क-व-इज़ा अस्बहता फ़ला तन्ज़ुज़ुर मसाअ-क’’ का मफ़्हूम है शम्सुल-उ’लमा मौलवी मोहम्मद हुसैन आज़ाद नैरंग-ए-ख़याल में हाफ़िज़ का फ़ोटो यूँ उतारते हैं कि इसी अस्ना में देखते हैं कि एक बुज़ुर्ग आज़ाद वज़ा’ क़ता’ तअ’ल्लुक़ का लिबास बर में, ख़ाक-सारी का अ’मामा सर पर आहिस्ता-आहिस्ता चले आते हैं। तमाम उ’लमा-ओ-सुलहा मुवर्रिख़ और शाइ’र सर झुकाए उनके साथ हैं। वो दरवाज़ा पर आकर ठहरे। सबने आगे बढ़ने की इल्तिजा की। कहा कि मा’ज़ूर रखो मेरा ऐसे मुक़द्दसों में क्या काम है और फ़िल-हक़ीक़त वो मा’ज़ूर रखे जाते अगर तमाम अह्ल-ए-दरबार का शौक़-ए-तलब उनके इन्कार पर ग़ालिब आता। वो अंदर आए और एक तिल्सिमात का शीशा-ए-मीनाई उन के हाथ में था कि उस में किसी को दूध, किसी को शराब-ए-शीराज़ी, किसी को शर्बत नज़र आता था ।हर एक कुर्सी-नशीं उन्हें अपने पास बिठाना चाहता था। मगर वो अपनी वज़ा’ के ख़िलाफ़ समझ कर कहीं बैठे। फ़क़त इस सिरे से उस सिरे तक एक गर्दिश की और चले गए ।वो हाफ़िज़ शीराज़ी थे और शीशा-ए-मीनाई उनका दीवान था जो फ़लक-ए-मीनाई के दामन से दामन बाँधे है। जिन अय्याम में आप मुफ़्ती-ज़ादा का मुस्हफ़-ए-रुख़्सार देखकर सूरा-ए-नूर का विर्द किया करते थे उन्हीं दिनों में मुफ़्ती-ज़ादा ने एक आहंगर-ज़ादा का इ’श्क़ मबाह कर रखा था। एक दिन आप उन दोनों के दर्मियान बैठे थे कि मुफ़्ती-ज़ादा ने फ़र्माइश की कि मुझे एक ग़ज़ल मा’शूक़ के मुतअ’ल्लिक़ कह दीजिए। आपने फ़िल-बदीह ग़ज़ल-ए-ज़ैल कही।

    दिलम रमीद: लूली-ओ-शीसत-ए-शोर-अंगेज़

    दरोग़ वा’दा-ओ-क़िताल-वज़्अ’-ओ-रंग-आमेज़

    फ़िदा-ए-पैरहन-ए-चाक-ए-माहरूयाँ बाद

    हज़ार जामा-ए-तक़्वा-ओ-खिर्क़ा-ए-परहेज़

    फ़रिश्त:-ए-इ’श्क़ न-दानद कि चीस्त साक़ी

    ब-ख़्वाह जाम-ओ-शराबे ब-ख़ाक-ए-आदम-रेज़

    मियान-ए-आ’शिक़-ओ-मा’शूक़ हेच हाइल नीस्त

    तू ख़ुद हिजाब ख़ुदी हाफ़िज़ अज़ मियाँ बर-ख़ेज़

    देखिए तसव्वुफ़ के मस्अला का मक़्ता’ में क्या उ’म्दा हल किया है। मक़्ता’ ज़ू-मा’नी है। एक तो ये बात कि इन दोनों के माबैन सिर्फ़ मैं ही हाइल हूँ। दूसरे ब-मूजिब-ए-मज़्हब-ए- फ़ुक़रा हस्ती से गुज़रना, फ़ना-फ़िश्शैख़, फ़ना-फ़िर्रसूल ,फ़ना-फ़िल्लाह, बक़ा बिल्लाह पर अ’मल करने की तर्ग़ीब है। इस मस्अला पर सूफ़िया मुत्तफ़िक़ हैं।

    चूँकि मोहम्मद मुज़फ़्फ़र बादशाह ख़ुश्क-मिज़ाज था।उ’लमा ,सोलहा और फ़ोसहा से उसे निस्बत थी। ये फ़िर्क़े उसके अ’ह्द में आराम से ज़िंदगी भी बसर कर सकते थे। हाफ़िज़ ने ग़ज़ल मस्तूरा-ए-ज़ैल में इसी अम्र की शिकायत की है।

    अगरचे बाद: फ़रह-बख़्श-ओ-बाद गुल-बेज़स्त

    ब-बांग-ए-चंग म-ख़ूर मय कि मोह्तसिब तेज़स्त

    सुराही-ओ-हरीफ़े गरत ब-दस्त उफ़्तद

    ब-ऐ’श कोश कि अय्याम फ़ित्न: अंग़ेज़स्त

    दर आस्तीन-ए-मुरक़्क़ा’ पियालः पिन्हाँ कुन

    कि हम-चू चश्म-ए-सुराही ज़मानः खूँ-रेज़स्त

    ज़े-रंग-ए-बादः ब-शवेद ख़िर्क़:-हा अज़ अश्क

    कि मौसम-ए-वरअ’-ओ-रोज़गार-ए-परहेज़स्त

    मजो ऐ’श-ए-ख़ुश अज़ दौर-ए-वाज़्गून-ए-सिपहर

    कि साफ़ ईं सर-ए-ख़ुम जुम्ल: दर्द आमेज़स्त

    सिपहर बर-शुद: परवेज़ नीस्त ख़ूँ-अफ़्शाँ

    कि क़तरःअश सर-ए-किसरा-ओ-ताज-ए-परवेजस्त

    इ’राक़-ओ-पारस गिरफ़्ती ब-शे’र-ए-ख़ुश हाफ़िज़

    बिया कि नौबत-ए-ब-ग़्दाद-ओ-वक़्त-ए-तबरेज़स्त

    सूफ़िया-ए-किराम का इत्तिफ़ाक़ है कि तसव्वुफ़ में कोई दीवान ख़्वाजा साहिब के दीवान से उ’म्दा नहीं।हज़रत अ’ब्दुर्रहमान साहिब जामी अ’लैहिर्रहमा फ़रमाते हैं। ‘हर-चंद कि मा’लूम नहीं कि ख़्वाजा साहिब ने किसी बुज़ुर्ग से शरफ़-ए-बैअ’त हासिल किया है लेकिन जो हक़ाइक़ और मआ’रिफ़ आपने बयान फ़रमाए हैं वो और किसी की ज़बान पर नहीं आए’। हज़रत रऊ’फ़ अहमद साहिब फ़रमाते हैं कि ख़ाक-सार हुज़ूर में हाज़िर हुआ (या’नी अपने पीर-ओ-मुर्शिद की ख़िदमत में)। हज़रत-ए-अक़्दस ने दीवान-ए-हाफ़िज़ का मत्ला’ पढ़ा।

    ‘अला या-अय्युहस्साक़ी अदिर कासन-ओ-नाविल-हा’

    ‘कि इ’श्क़ आसाँ नुमूद अव़्वल वले उफ़्ताद मुश्किल-हा’

    और फ़रमाया कि क़ल्बी निस्बत ने ज़ुहूर किया है। फिर दूसरा शे’र उसी ग़ज़ल का पढ़ा।

    ‘ब-बू-ए-नाफ़:-ए-काख़र-सबा ज़ां तुर्रः ब-कुशायद’

    ‘ज़े-ताब जा’द-ए-मुश्कीनश चे ख़ूँ उफ़्ताद दर दिल-हा’

    पर एक आह-ए-दिल चश्मा-ए-फ़ैज़ से खींची ।हाज़िरीन-ए-वक़्त पर एक अ’जीब हालत तारी हुई और अह्वाल-ए-ग़रीब ज़ाहिर हुए।बा’ज़ कहते हैं कि आप हज़रत ख़्वाजा-ए-ख़्वाज-गान बहाउद्दीन नक़्शबंदी अ’लैहिर्रहमा के मुरीद हैं। इस में शक नहीं कि आपका कलाम हज़रात-ए-नक़्शबंदिया के मज़्हब के मुताबिक़ और क़ाइल-ए-वहदतुल-वजूद के बर-अ’क्स है जैसा कि रिसाला-ए-मज़्कूर की इ’बारत-ए-ज़ैल से वाज़िह है। फ़रमाते हैं कि उस के बा’द हुज़ूर-ए-पुर-नूर में तौहीद-ए-वजूदी का ज़िक्र आया।फ़रमाया कि ये एक हालत है कि सैर-ए-क़ल्बी के लतीफ़ा में ज़ाहिर होती है जिन से क़ुर्ब का दर्जा जाता है ।वो उन मक़ामात आ’लिया से कि जिन्हें हज़रत मुजद्दिद साहिब अलै’हिर्रहमा ने बयान फ़रमाया है बे-ख़बर हैं और उन्होंने दायरा-ए-ज़लाल से क़दम बाहर नहीं रखा और अस्ल तक रसाई नहीं पाई। तश्बीह को तंज़ीह समझते हैं और मख़्लूक़ को ऐ’न ख़ालिक़ और मुम्किन को ऐ’न वाजिब जैसा कि उनमें से एक कहता है।

    ‘ऐ मग़्रिबी आँ यार कि बे-नाम-ओ-निशाँ बूद

    अज़ पर्दः बुरूँ आमद-ओ-बा-नाम-ओ-निशाँ शुद’

    ये नहीं जानते कि ये एक ज़िल्ल है हक़-तआ’ला तक़द्दुस के इस्मों और सिफ़ात के साया से मसलन जब आईना में आफ़्ताब की क़ुर्स जल्वा-गर होती है तो उसमें चमक और शुआऐं’ आफ़्ताब-ए-वहदत की तमाम-तर मौजूद होती हैं मगर आफ़्ताब नहीं होता। ये आफ़्ताब का साया है और ये गिरोह वाले आफ़्ताब को देखते हुए साया को आफ़्ताब ख़याल करते हैं और आईना को भी नहीं देखते हालाँकि उस का जिस्म दर्मियान में बाक़ी है। उसमें आफ़्ताब का साया है चुनांचे हाफ़िज़ शीराज़ी कहते हैं:

    अ’क्स-ए-रू-ए-तू चू दर आईनः-ए-जाम उफ़्ताद

    आ’रिफ़ अज़ ख़ंदः-ए-मय दर तम्-ए-’ख़ाम उफ़्ताद

    किताब-ए-मज़्कूर में दूसरी जगह रक़म किया है।औलिया-ए-किराम की एक जमाअ’त वहदतुश्शुहूद की क़ाइल है और वो लोग हते हैं कि आ’लम आईना-ख़ाना के रंग पर है और मा’शूक़-ए-हक़ीक़ी के चेहरे के आफ़्ताब का नूर उस में पड़ा हुआ है।

    ‘अ’क्स-ए-रू-ए-तू चू दर…’

    हक़ीक़त में बुल्बुल-ए-शीराज़ का चकमता हुआ कलाम हमसे बे-ज़बानों की ता’रीफ़ का मुहताज नहीं।

    ‘मन चेः गोयम वस्फ़-ए-आँ आ’ली-जनाब’

    ‘नीस्त पैग़ंबर वले दारद किताब’

    आपका कलाम आप ही के मिस्रा-ए’-ता’रीफ़ का मिस्दाक़ है।

    ‘ब-आब-ओ-रंग-ओ-ख़ाल-ओ-ख़त्त चेः हाजत रूए-ज़ेबा रा’

    अमीर सुल्तान हुसैन नबीरा-ए-साहिब-ए-क़िरान अमीर-ए-तैमूर गोरगान अपनी तालीफ़ मजालिसुल-उ’श्शाक़ में लिखते हैं कि गेया बात मा’लूम नहीं कि आपने सिल्सिला-ए-फ़क़्र में किस बुज़ुर्ग से फ़ैज़ हासिल किया है या किस के मुरीद हैं लेकिन आपका कलाम दाऊ’द-ए-तसव्वुफ़ का इलहान है। मतला’ मुलाहिज़ा हो।

    ‘दर अज़ल पर्तव-ए-हुस्नत ज़े-तजल्ली दम ज़द

    इ’श्क़ पैदा शुद-ओ-आतिश ब-हम: आ’लम ज़द

    ज़े-हर कि चेहरा बर अफ़रोख़्त दिल-बरी दानद

    हर कि आईन: साज़द सिकंदरी दानद

    चू आफ़्ताब-ए-मय अज़ मश्रिक़-ए-पियालः बर आयद

    ज़े-बाग–ए-आ’रिज़-ए-साक़ी हज़ार लाल: बर आयद

    बिया कि तुर्क-ए-फ़लक ख़्वान-ए-रोज़ः ग़ारत कर्द

    हिलाल-ए-ई’द ब-दौर-व-क़दह इशारत कर्द

    सालहा दिल तलब-ए-जाम-ए-जम अज़ मा मी-कर्द

    आँ चे ख़ुद दाश्त ज़े-बैगान: तमन्ना मी-कर्द

    दर हम: दैर-ए-मुग़ाँ नीस्त चू मन शैदाई

    ख़िर्क़ः जाए दिगर बादः-ओ-दफ़्तर जाए

    ज़ैबुननिसा की सवानिह-उ’मरी में मर्क़ूम है कि एक दिन अपने महल में बैठी हुई दीवान-ए-हाफ़िज़ देख रही थी और ये शे’र ज़ेर-ए-नज़र था।

    ‘दोश दीदम कि मलाइक दर-ए-मय-ख़ानः ज़दंद

    गिल-ए-आदम ब-सरिशतंद-ओ-ब-पैमानः ज़दंद’

    कि यकायक आ’लमगीर चला आया। उसे देखते ही ज़ैबुननिसा बा-अदब खड़ी हो गई और मुजरा बजा लाई। बादशाह बैठ गया और ज़ैबुननिसा को बैठने की इजाज़त दी और गुफ़्तुगू करते करते दीवान-ए-हाफ़िज़ का ज़िक्र भी गया। शे’र कि जे़बुननिसा पढ़ रही थी वो अपने शफ़ीक़ बाप के आगे रखा। आ’लमगीर ने शे’र देखकर दर्याफ़्त किया कि तुम इस का मतलब क्या समझी हो।ज़ैबुननिसा ने अदब और आदाब-ए-शाही की पाबंद हो कर अ’र्ज़ किया कि हुज़ूर इस शे’र के मा’नी अदक़ हैं।हाफ़िज़ ने इन्सानी फ़ितरत की तरफ़ इशारा किया है बल्कि उसकी सच्ची माहिय्यत को खोल दिया है।पैमाना एक चीज़ भी ऐसी है कि वो हमेशा गर्दिश करे। ज़मीन की शक्ल गोल है इसलिए वो भी गर्दिश करती है। आदमी की मिट्टी को पैमाना में आमेज़ करना इन्सान की अस्ली फ़ितरत का नक़्शा बताता है कि इन्सान को कभी क़रार नही ख़्वाह उसकी कोई हालत क्यों हो जाए फिर भी वो आगे तरक़्क़ी करने के लिए बे-क़रार रहता है। अगर आराम से है तो ये ख़याल है कि और भी आसाईश हो और जो तकलीफ़ में है तो सिर्फ़ आराम ही की आरज़ू में साई’ है। हुज़ूर इस के अ’लावा ये भी एक बदीही बात है कि जिस ज़मीन पर हम बसते हैं जब वो गर्दिश में है फिर हम क्यों नहीं पैमाना की तरह गर्दिश में होंगे। ये अ’क़्ल-ओ-दानिश के मा’ना सुनकर आ’लमगीर बहुत ख़ुश हुआ और शाद-शाद वापस गया।

    जब हाफ़िज़ साहिब की ग़ज़ल का मत्ला’-ए-हाज़ा

    ‘अगर आँ तुर्क-ए-शीराज़ी ब-दस्त आरद दिल-ए-मा रा

    ब-ख़ाल-ए-हिंदूवश बख़्शम समरक़ंद-ओ-बुख़ारा रा’

    बादशाह-ए-वक़्त ने सुना तो बहुत ख़फ़ा हुआ और हाफ़िज़ साहिब को बुला कर कहा कि जिस मुल्क को मैंने बड़ी मुश्किल से हासिल किया है तुम उसे एक तुर्क के ख़ाल पर बख़्श रहे हो। ये क्या तरीक़ है। आपने जवाब दिया कि बादशाह सलामत मेरे पास बुख़ारा है समरक़ंद। मैं तो एक फ़क़ीर आदमी हूँ।ये मेरा मत्ला’ ग़लबा-ए-मोहब्बत का है वर्ना कुजा ये फ़क़ीर और कुजा समरकंद-ओ-बुख़ारा।

    आपका कलाम फ़ल्सफ़ियाना और आ’शिक़ाना होने के अ’लावा आ’रिफ़ाना भी है।

    ‘न-शवी वाक़िफ़-ए-यक नुक्तः ज़े-असरार-ए-वजूद

    ता सर-गश्तः शवी दाएरः-ए-इम्काँ रा

    वजूद वो है कि वजूद और वज्द ग़लब-ए-नूर-ए-शुहूद मौजूद में ग़ायब और ना-चीज़ हो जाए और वज्द मुह्दिस की सनअ’त है और वजूद क़दीम की (मिस्बाहुल-हिदायत तर्जुमा अ’वारिफ़ुल-मआ’रफ़ सफ़हा12)

    आ’लम-ए-अम्र वो है जो कुन से पैदा हुआ है और आ’लम-ए-ख़ल्क़ वो है जो उससे मा-बा’द हुआ और दाइरा-ए-इम्कान आ’लम-ए-अम्र और ख़ल्क़ के दस लताइफ़ का नाम है। (हिदायतुत्तालिबीन सफ़हा10 )।

    दाएरे कई हैं। दायरा-ए-इम्कान पहला दायरा है। हाफ़िज़ ने मुब्तदियान-ए-तरीक़त को उस रास्ता पर चलने की तर्ग़ीब दी है। उस अं’दलीब-ए-बलाग़त का कलाम गुलज़ार-ए-क़ुबूल में ऐसा चहका कि किसी गुल-अंदाम का कान उस से सैर होता था। क्या फ़क़ीर क्या अमीर सबकी मह्फ़िल में अरबाब-ए-निशात गाते हैं। आपके कलाम में मजाज़ और हक़ीक़त दोनों कूट-कूट कर भरे हैं। अगर शाइ’रों की जान है तो शौक़ीन लोगों के नोक-ए-ज़ुबान है। आपके ज़माना-ए-हयात में नौबत ब-ईंजा रसीद कि आपने फ़रमाया:

    ‘ग़ज़ल सराई-ए-हाफ़िज़ बदाँ रसीद कि चर्ख़

    नवा-ए-नग़्मा-ए-नाहीद रा ब-बुर्द अज़ याद’

    सुल्तानुल-अज़्कार का विर्द आपको ग़ज़लियात जमा’ करने से माने’ था। सुब्हानअल्लाह क्या शाइस्ता कलाम है।

    ‘ज़े-इ’श्क़-ए-ना-तमाम-ए-मा जमाल-ए-यार मुस्तग़नीस्त

    ब-आब-ओ-रंग-ओ-ख़ाल-ओ-ख़त्त चे हाजत रू-ए-ज़ेबा रा’

    आपका कलाम आ’शिक़ाना और आ’रिफ़ाना होने के अ’लावा फ़ल्सफ़ियाना भी है। शे’र मुलाहिज़ा हो।

    ‘ब-हुस्न-ए-ख़ुल्क़ तवां कर्द सैद अह्ल-ए-नज़र

    ब-दाम-ओ-दानः ब-गीरंद मुर्ग़-ए-दाना रा’

    आज़ाद तब्ई’ और क़नाअ’त के सुबूत में ज़ैल के दो शे’र काफ़ी हैं।

    ‘मुल्क-ए-आज़ादगी-ओ-गंज-ए-क़नाअ’त गंजेस्त

    कि ब-शमशीर मुयस्सर न-शवद सुल्ताँ रा

    ग़ुलाम-ए-हिम्मत-ए-आनम कि ज़ेर-ए-चर्ख़-ए-कबूद

    ज़े हर चे रंग-ए-तअ’ल्लुक़ पज़ीरद आज़ादस्त’

    राज़-ए-दह्र के मा-ला-यन्हल उ’क़्दा की तहक़ीक़ से मन्अ’ फ़रमाते हैं।

    ‘मियान-ए-ऊ कि ख़ुदा आफ़रीदः अस्त अज़ हेच

    दक़ीक़ःईस्त कि हेच आफ़रीद: नकुशादस्त’

    ‘हदीस अज़ मुत्रिब-ओ-मय गो-ओ-राज़-ए-दह्र कम-तर जो

    कि कस न-कशूद-ओ-नकुशयद ब-हिक्मत ईं मुअ’म्मा रा’

    तंज़ीह के मुतअ’ल्लिक़ देखिए कहाँ पहुंचे हैं।

    ‘बर ज़मीने कि निशान-ए-कफ़-ए-पा-ए-तू बूद

    साल्हा सज्दः-ए-साहिब नज़रां ख़्वाहद बूद’

    ‘नाम-ए-मन रफ़्तस्त रोज़े बर-लब-ए-जानां ज़े-सह्व

    अह्ल-ए-दिल रा बू-ए-जाँ मी-आयद अज़ नामम हनूज़

    इस शे’र को बि-यादिहिल-मुल्क की तफ़सीर कहना चाहिए।

    ‘दर पस-ए-आईनः तूती-ए-सिफ़तम दाश्तः-अंद

    आंचेः उस्ताद-ए-अज़ल गुफ़्त हमाँ मी-गोयम’

    अगर कोई शख़्स तफ़व्वुल करना चाहे तो वो पहले हाफ़िज़ साहिब की रूह-ए-अत्हर पर फ़ातिहा पढ़े और फिर आपके दीवान को खोले और दाहिने सफ़्हे की पहली बैअ’त के मज़मून से जो मतलब निकले उसे फ़ाल समझे।हज़रत-ए-दाराशिकोह ने अपनी तालीफ़ सफ़ीनतुल-औलिया में रक़म किया है कि जहांगीर बादशाह अपने बाप से नाराज़ होने के बाइ’स इलाहाबाद में इक़ामत-पज़ीर था और वो ये सोचता था कि बाप की ख़िदमत में हाज़िर हो या हो। एक रोज़ दीवान-ए-हाफ़िज़ मंगवा कर ब-इराद-ए-फ़ाल खोला। ये फ़ाल निकली।

    ‘चेरा ना दर पय-ए-अ’ज़्म-ए-दियार-ए-ख़ुद बाशम

    चेरा ख़ाक-ए-रह-ए-कू-ए-यार ख़ुद बाशम’

    जहांगीर इस फ़ाल के ब-मुजिब बाप की ख़िदमत में हाज़िर हो गया और उस के बाप का छः महीने के बा’द इंतिक़ाल हो गया और जहांगीर बादशाह हुआ। दारा-शिकोह फ़रमाते हैं कि मैंने ये जहांगीर की क़लम से दीवान-ए-हाफ़िज़ के हाशिया पर लिखा हुआ देखा है। अ’ब्दुलक़ादिर बदायूनी के तज़्किरा में मर्क़ूम है कि आप ख़्वाजा-ए-ख़्वाज-गान हज़रत बहाउद्दीन नक़्श-बंदी अ’लैहिर्रहमा के मुरीद हैं।

    मख़दूमी हाफ़िज़ अनवर अ’ली साहिब अपने एक रिसाला में

    ‘साक़ी बियार बाद: कि माह-ए-सियाम रफ़्त

    दर देह क़दह कि मौसम-ए-नामूस-ओ-नाम रफ़्त’..

    की तश्रीह यूँ करते हैं कि तालिब का इंतिज़ार ही एक कैफ़िय्यत और असर रखता है जो उस असर को कि मुर्शिद के क़ल्ब से उस के तसव्वुर और तवज्जोह के तार पर आता है लेता है उसे इस्तिलाह में रब्त-ए-क़ल्ब कहते हैं। जब तक तिफ़्ल-ए-जिस्मानी भी पिस्तान-ए-मादर को मुँह में नहीं पकड़ता और नहीं चूसता दूध उसके मुँह में नहीं आता। इस रब्त-ए-क़ल्ब को यूँ समझ लो कि जैसे बच्चा दूध पी रहा है या यूँ समझ लो कि सुराही के नीचे जाम रखा है और उस सुराही में से नूर उस जाम में गिर रहा है। जाम क़्लब-ए-तालिब और सुराही क़ल्ब-ए-मुर्शिद है। हाफ़िज़ साहिब अ’लैहिर्रहमा फ़र्माते हैं।

    ‘साक़ी बियार बाद: कि माह-ए-सियाम-ए-रफ़्त..’

    आपके दीवान की बा’ज़ ग़ज़लें आपके तर्ज़-ए-कलाम से नहीं मिलतीं। उस की वजह ये बयान की जाती है कि आपकी वफ़ात के बा’द बादशाह-ए-वक़्त ने ग़ज़लें जम्अ’ करने का हुक्म दिया। जब तमाम ग़ज़लें चुकीं मज़ीद जुस्तुजू के लिहाज़ से इनआ’म मुक़र्रर कर दिया। उस इनआ’म के लालच में आकर और शाइ’र ग़ज़लें कह कह कर आपके नाम से मौसूम करने लग गए और ये ग़ज़लें बहुत सी आपके दीवान में दर्ज हो गईं।

    आपका मज़ार शीराज़ में अह्ली शीराज़ी के दाहिनी तरफ़ है। तारीख़-ए-वफ़ात ये है।

    ब-साल-ए-बा-ओ-साद-ओ-ज़ाल-ए-अब्जद

    ज़े-दौर-ए-हिज्रत-ए-मैमून-ए-अहमद

    ब-सू-ए-जन्नत-ए-आ’ला रवाँ शुद

    फ़रीद-ए-अ’ह्द शम्सुद्दीं मोहम्मद

    क़ित्आ’-ए-ज़ैल भी एक शाइ’र ने आपकी वफ़ात के बा’द कहा है।

    चराग़-ए-अह्ल-ए-मा’नी ख़्वाजा हाफ़िज़

    कि शम्आ’ बूद अज़ नूर-ए-तजल्ला

    चू दर ख़ाक-ए-मुसल्ला याफ़्त मंज़िल

    ब-जो तारीख़श अज़ ख़ाक-ए-मुसल्ला

    नफ़ख़ातुल-उन्स में आपका सन-ए-वफ़ात सन794 हिज्री है।

    मुख़्बिरुल-वासिलीन में आपका सन-ए-वफ़ात 791 हिज्री है।

    चू शम्सुद्दीन हाफ़िज़ पीर-ए-शीराज़

    ब-जन्नत रफ़्त ज़ीं दुनिया-ए-पुरख़ार

    विसालश हस्त शम्सुद्दीं मुनव्वर

    दिगर हम ज़ुब्दा-ए-दीं शाह-ए-अब्रार

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