Sufinama

हज़रत शैख़ जमालुद्दीन कोल्हवी

निज़ाम उल मशायख़

हज़रत शैख़ जमालुद्दीन कोल्हवी

निज़ाम उल मशायख़

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    (मुहिब्ब-ए-मोह्तरम मौलाना-ओ-हकीम सय्यिद नासिर नज़ीर साहिब फ़िराक़ देहलवी के एक ख़त का ख़ुलासा)

    वुफ़ूर-ए-रहमत-ए-बारी ने मय-ख़्वारों पर उन रोज़ों

    जिधर से अब्र उठता है सू-ए-मय-ख़ाना आता है

    साढे़ तीन महीना में इ’लाज के मदारिज तय हो लिए और नाज़िरुद्दीन अहमद ख़ान साहिब का मिज़ाज ए’तिदाल पर गया और उन्होंने दिल्ली जाने की इजाज़त दे दी। 21 मार्च हफ़्ता का दिन रवानगी के लिए मुक़र्रर हो गया। रख़्त-ए-सफ़र बाँध रहा था कि ना-गहाँ अ’ज़ीज़ुउल्लाह ख़ान साहिब पठान जो ख़ानवादा-ए-सियादत के एक सच्चे अ’कीदत-मंद हैं नानों से वारिद हुए और कहने लगे कि मेरे घर के सब ज़न-ओ-मर्द आर्ज़ू-मंद हैं कि आप दो तीन घंटा के लिए नानों आएं और अह्ल-ए-अ’क़ीदत मुस्तफ़ीद हों।

    मैंने अभी इसका कुछ जवाब दिया था कि शैख़ नूरुल-हसन साहिब एक हिंदू रईस-ज़ादा को साथ लेकर तशरीफ़ लाए। फ़रमाया पंद्रह मील रस्ता घोड़ा-गाड़ी से तय कर के आया हूँ और ठाकुर ज्ञान सिंह साहिब रईस को इस वास्ते साथ लाया हूँ कि इनकी नब्ज़ देखकर, हाल सुनकर इनके मरज़ को तश्ख़ीस कर दें और वहाँ चल कर महीना दो महीना ठहर कर इनकी शिकायात के इंसिदाद की तदबीर करें। रास्ता नानों से ही अ’लीगढ़ का और अ’लीगढ़ से इनके घर का है। शैख़ नूरुल-हसन साहिब अ’ज़ीज़ुल्लाह ख़ान साहिब और ठाकुर ज्ञान सिंह साहिब के इस्रार ने मजबूर कर दिया।दिल्ली का इरादा मुल्तवी कर के उनके साथ चल दिया। 22 मार्च हफ़्ता का दिन सुब्ह का वक़्त था। एक गाड़ी में ये फ़क़ीर और अ’ज़ीज़ुल्लाह ख़ान साहिब, दूसरी गाड़ी में नाज़िरुद्दीन अहमद ख़ान साहिब, मोहम्मद शरीफ़ ख़ान साहिब जो मुझे पहुंचाते सवार थे।

    तीन मील रास्ता तय किया होगा जो बिलार आया (गाँव का नाम है।) और सती का मठ दिखाई देने लगा। ये मठ मेरी याद-दाश्त में मरक़ूम था इसलिए मैंने इशारा किया और गाड़ी रोक ली गई। मैं और सब हम-राही मठ देखने के लिए चल दिए। ये मठ ईंट का बना हुआ है। मगर इसकी इ’मारत और इ’मारत की सनअ’त देखने से तअ’ल्लुक़ रखती है। ख़ान साहिब मौसूफ़ मुझसे रुख़्सत हो कर सिकंदरा को वापस तशरीफ़ ले गए और मैं अ’ज़ीज़ुल्लाह ख़ान साहिब को साथ लेकर चल दिया।

    नानों दो घंटा से कम में पहुंच गए क्योंकि गाड़ी में घोड़े चालाक जुते हुए थे। नानों के शैख़-ज़ादे बड़ी अ’क़ीदत और नियाज़ से पेश आए। दोपहर तक दफ़्तर-ए-मलफ़ूज़ात खुला रहा और मुश्ताक़ों के कलेजे ठंडे हो गए। सर-ए-शाम शैख़ अकरम अ’ली साहिब ने मुझसे कहा यहाँ से दो फ़र्लांग पर दो नहरें हैं और उनके कनारों पर यूरोपियन लोगों के चंद बंगले और चमन बने हुए हैं और सब्ज़ी निहायत दिल्कश है। अगर तफ़्रीह के लिए दिल चाहे तो चलिए। मैं शैख़ साहिब के साथ पियादा नहर पर पहुंचा और मंज़र की सर-सब्ज़ी-ओ-शादाबी, पानी की रवानी, गुल्शन में लाला-ओ-कचनाल और गूलर के फूलों की बहार देखकर दिल हरा हो गया| पपीहा और कोयल की पुकार, मोरों की झंकार ने रूह को ताज़ा कर दिया। ख़ुश-रंग छोटी छोटी चिड़ियाँ तार-ए- बर्क़ी पर बैठी हुई सुरीली आवाज़ में तौहीद का नग़्मा गा रही थीं।

    मैं और शैख़ साहिब एक लोहे के बेंच पर बैठ गए और औलिया-ए-किराम का ज़िक्र छिड़ गया। मक़ाम-ए-फ़र्वानियत के बयान में मैंने अ’र्ज़ किया कि हज़रत सय्यिद जा’फ़र मक्की रहमतुल्लाहि अ’लैह ने बहरुल-मआ’नी में एक फ़ेहरिस्त अफ़राद की लिखी है उस में हज़रत शैख़ जमालुद्दीन कोल्हवी का नाम-ए-मुबारक भी दर्ज किया है। उस फ़क़ीर ने दो साल अ’लीगढ़ ठहर कर आपके मज़ार-ए-पुर अनवार से ज़ाहिरी और बातिनी फ़ाएदे हासिल किए हैं। उस पर शैख़ अकरम अ’ली साहिब ने फ़रमाया हम सब हज़रत शैख़ जमालुद्दीन कोल्हवी रहमतुल्लाहि अ’लैह की औलाद हैं और शैख़-ए-ममदूह का नसब हज़रत अबू उ’बैदा बिन जर्राह रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु तक इस तरह पहुंचता है।

    हज़रत शम्सुल-आ’रिफ़ीन शैख़ जमालुद्दीन बिन शैख़ अ’ब्दुल्लाह बिन शैख़ निज़ामुद्दीन अबुल मुवय्यिद बिन शैख़ जमालुद्दीन अबू सई’द बिन शैख़ जलालुद्दीन अबू सई’द इब्न-ए-जलालुद्दीन अबू नस्र बिन शैख़ जमालुद्दीन अबू मोहम्मद ताजुल-आ’रिफ़ीन बिन ख़्वाजा ताजुल-औलिया इब्न-ए-ख़्वाजा अ’ब्दुर्रहमान बिन ख़्वाजा अबूल-फ़जल बिन ख़्वाजा हरीक़ुल्लाह बिन ख़्वाजा अ’ज़ीक़ुल्लाह बिन ख़्वाजा यज़ीक़ुल्लाह बिन ख़्वाजा बायज़ीद बिन हज़रत अबू-उ’बैदा बिन जर्राह रज़ी अल्लाहु अ’न्हुम अज्मई’न

    शैख़ के दादा या’नी शैख़ निज़ामुद्दीन अबुल-मुवय्यिद हज़रत ख़्वाजा सय्यिद क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी ओशी चिश्ती रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु के हम-सोहबत और सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमश शहंशाह-ए-दिल्ली के हम-अ’स्र थे| आपने सबसे पहले अपने वालिद-ए-बुजु़र्ग-वार से और उस के बा’द अपने मामूँ साहिब और उस के बा’द शैख़ अ’ब्दुल-वाहिद बिन शैख़ अहमद ग़ज़्नवी से बातिनी मक़ामात और कमालात हासिल किए।

    हुज़ूर महबूब-ए-पाक ने भी हज़रत को देखा है। एक बार दिल्ली में काल पड़ा। मेंह नहीं बरसा और अल्लाह की मख़लूक़ भूकी और प्यासी मरने लगी। बहुत से आदमी चीख़ते पीटते,रोते -धोते हज़रत की ख़िदमत में आकर कहने लगे। आप अह्लुल्लाह और वलीउल्लाह कहलाते हैं। मेंह के लिए दुआ’ कीजिए। जब आपको लोगों ने तंग किया तो आप जुब्बा पहन कर जंगल में तशरीफ़ ले गए और नमाज़-ए-इस्तिस्क़ा अदा कर के मिंबर पर बैठ गए और जुब्बा की आस्तीन में से एक ओढ़नी निकाल कर उस में से एक तार पकड़ कर खींचा और आसमान की तरफ़ मुँह उठा कर अ’र्ज़ की इलाही! उस पारसा ख़ातून की ओढ़नी के इस तार की बरकत से (जिस ख़ातून की झलक भी उ’म्र-भर ना-महरम ने नहीं देखी है) और उस के राज़ और नियाज़ के तुफ़ैल से जो तेरे साथ रखती थी, बारान-ए-रहमत जल्द भेज दे नहीं तो ये फ़क़ीर कभी दिल्ली में घुसेगा जंगल को चला जाएगा और अपना मुँह किसी को दिखाएगा। अभी हज़रत की दुआ’ ख़त्म हुई थी जो

    तुंद-ओ-सरशार-ओ-सियह मस्त ज़े-कुह्सार आमद

    मय-कशाँ मुज़्द: कि अब्र आमद-ओ-बिस्यार आमद

    चारों तरफ़ से घटा उमड़ आई। मूसला-धार बरसने लगा। चारों तरफ़ पानी भर गया। जल-थल भर गए। खेत लहलहलाने लगे और बाग़-ओ-बुस्तान हरे-भरे हो गए। अह्ल-ए-अ’क़ीदत ने पूछा हुज़ूर ये ओढ़नी किस की है। आपने फ़रमाया ये ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी रहमतुल्लाहि अ’लैह का तबर्रुक है जो मेरी वालिदा माजिदा को हुज़ूर ने अ’ता फ़रमाया था। जब आप नमाज़ पढ़ती थीं तो इस ओढ़नी को सर पर डाल लेती थीं और याद-ए-इलाही में फ़ना हो जाती थीं। सौ-बार सलात और सलाम उस रहमतुल-लिल-आ’लमीन की रूह-ए-पाक पर जिसने ख्वाजगान-ए-चिश्त के लिबास के एक एक तार को फ़ैज़ और बख़्शिश का समुंद्र बना रखा है।

    हज़रत शैख़ जमालुद्दीन कोल्हवी आपके पोते हैं। आपके मक़ामात-ए-औलिया और कमालात का तज़्किरा मल्फ़ूज़ात-ए-ख़्वाजा-ए-चिश्त में जा-बजा आता है। आप अपने वक़्त के क़ुतुबुल-अक़ताब और फ़र्द-ए-कामिल और मसीह थे। एक दिन लोगों ने आकर आपकी ख़िदमत में इत्तिलाअ’ दी कि आपका हिंदू मोदी आज फ़ौत हो गया। आपने जवाब दिया भई अल्लाह की मर्ज़ी में क्या चारा है। मगर हमें उसके मरने का बड़ा क़ल्क़ है। हमारे लंगर-ख़ाना का काम बड़ी दियानत से करता था। ऐसा मोदी अब कहाँ मिलेगा। कोई जाकर उसके घर उसके वारिसों से कह आए कि लाला जी की लाश जब जलाने को ले जाएं तो इधर ही से ले जाएं हम भी उनका आख़िरी दीदार कर लेंगे। बनिए का सारा घर आपका मो’तक़िद था। अर्थी लेकर दर-ए-दौलत पर हाज़िर हुए। आपने लाश पर हाथ रख कर फ़रमाया। लाला साहिब भला ये भी कोई मरना है। अपनी कही हमारी सुनी। हमारे लंगर-ख़ाने का सारा बही-खाता तुम्हारे पास है। हिसाब कर लो। जो तुम्हारा कुछ हम पर वाजिब हो तो वो हमसे ले लो और अगर हमारा तुम पर कुछ चाहिए हो तो वो हमें दे दो। उसके बा’द इतमीनान से मरना। चलो उठ बैठो। काहे को दम साधे पड़े हो। हज़रत का ये फ़रमाना और लाला जी का कफ़न फाड़ कर जी जाना।

    हज़रत शैख़ बहुत कसीरुल-औलाद हैं। अ’लीगढ, नानों, जलाली, पलखना वग़ैरा मक़ामात में हज़ारों शैख़-ज़ादे आपकी नस्ल के इस वक़्त तक मौजूद हैं। आपकी नियाज़-ए-दरगाह के लिए एक गाँव बादशाही अ’ह्द से वाक़िफ़ है जो अ’लीगढ से मुत्तसिल वाक़े’ है।

    जनाब-ए-मुस्तताब मौलाना लुत्फ़ुल्लाह साहिब मद्दज़िल्लहु भी आपके ही ख़ानदान के आफ़्ताब-ए-आ’लम-ताब हैं मगर अफ़्सोस ये है कि आपकी तमाम औलाद में से किसी को इस का ध्यान नहीं कि हज़रत रहमतुल्लाहि अ’लैह के मल्फ़ूज़ात और आपकी सवानिह-उ’मरी छाप कर ख़ुद फ़ाइदा उठाएं और सूफ़ियों को ममनून फ़रमाएं।

    आपका मज़ार-ए-अक़्दस अ’लीगढ में वली दरवाज़े के बाहर जानिब ग़र्ब-ए-शाहजनी ईंट की दो-चार दीवारियों से महफ़ूज़ है।आपके बाएं आपके जद्द-ए-अमजद शैख़ निज़ामुद्दीन अबुल-मुवय्यिद की क़ब्र शरीफ़ और आपके वालिद-ए-माजिद का मज़ार है। आपके पहलू में दो साहिब-ज़ादे तह-ए-ख़ाक आराम फ़रमा हैं

    दूसरी ख़ानक़ाह में आपके पोते साहिब आसूदा हैं जो बाबू साहिब कहलाते हैं। मुतवल्ली साहिब उ’र्स करते हैं। हर जुमे’रात को अ’क़ीदत-मंद क़व्वाल हाज़िर हो जाते हैं और आस्ताना के सामने गा-बजा कर चले जाते हैं।

    मुसलमानों से ज़्यादा आपके हिंदू मो’तक़िद हैं। हिंदू साहिबों ने आपका उ’र्स सावन के महीने में जुदा मुक़र्रर किया है। चार मंगल तक बड़ा भारी मेला होता है।अ’लीगढ और दूर-दूर के अ’कीदत-मंद हिंदू, शरीफ़ भी रज़ील भी, औ’रत भी मर्द भी, बूढ़े भी जवान भी हाज़िर होते हैं। मन्नतें पूरी करते हैं, चादरें चढ़ाते हैं, दोने लाते हैं, हस्ब-ए-हैसिय्य्त नक़द भी ख़ादिमों को दिए जाते हैं। मज़ार शरीफ़ को बहुत अदब से चूमते हैं और ख़ुश-ख़ुश बा-मुराद अपने घरों को वापस जाते हैं।

    का’बा में अज़ान तो नाक़ूस दैर में

    है तेरी दोस्ती की घर-घर लगी हुई

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