क़व्वालों के क़िस्से
संगीतकार अपने पहले और बाद के युगों के बीच एक पुल का कार्य करते हैं। आने वाली पीढ़ी को अज्ञात के ऐसे पक्ष से भी अवगत करवाते हैं जो हमें कभी याद था पर आज हम उसे भूल चुके हैं। क़व्वालों का काम इस मामले में और भी अहम् यूँ हो जाता है क्यूंकि वह ऐसे लोगों के कलाम पढ़ते हैं जो खल्वत पसंद थे और जिनके लिए लिखना एक प्रवाह की तरह था जो हर पल नित्यता के अनंत सागर से अपने कलाम के ख़ुम भर-भर कर आशिक़ों के दिलों में गहरे कहीं छुपा कर रख देते थे।
हामिद अली बेला का योगदान इस तरह और बड़ा हो जाता है कि उन्होंने हज़रत शाह हुसैन के कलाम न सिर्फ़ पढ़े बल्कि उन्हें अपनी गायकी से इतना रसलीन किया कि हामिद अली बेला का नाम हज़रत शाह हुसैन में फ़ना होकर बक़ा रह गया। क़व्वालों की गौरवमयी परंपरा में ऐसा ही एक और बड़ा नाम है पठाना ख़ान का जिन्होंने ख्व़ाजा ग़ुलाम फ़रीद के कलाम की रूहानियत को न सिर्फ़ समझा बल्कि उसे अपनी गायकी में बखूबी निभा कर उस रूहानियत को सुनने वालों के कानों में भी मिश्री की तरह घोल दिया।
ख्व़ाजा ग़ुलाम फ़रीद अपनी तरह के एक अलबेले सूफ़ी थे. कहते हैं कि ख्व़ाजा साहेब के एक मुरीद थे। उनकी पत्नी का देहांत निकाह के कुछ ही दिनों बाद हो गया. अपनी पत्नी के विरह से परेशान वह मुरीद एक रात ख्व़ाजा साहेब के हुज़ूर पेश हुआ. उसने अर्ज़ किया – हुज़ूर अब नहीं रहा जाता. ख्व़ाजा साहब से अपने मुरीद का यह हाल देखा नहीं गया. उन्होंने उस से फ़रमाया कि तू रोज़ रात को अपनी बीबी की कब्र पर चले जाना. वह तुम्हें वहीँ बैठी मिलेगी.उस से बात करना मगर खबरदार ! उसे हाथ लगाने की चेष्टा मत करना. मुरीद रोज़ ऐसा ही करने लगा. एक दिन मुरीद बातें करते करते भावुक हो गया और उस ने अपनी बीबी को हाथ लगाना चाहा. जैसे ही उसने हाथ आगे बढ़ाया बीवी ने अपना नकाब ऊपर उठाया और चाँद की रौशनी में मुरीद ने देखा – वहां ख्व़ाजा साहब बैठे थे – हँस कर फ़रमाया – मियां कुछ तो शर्म करो ! ख्व़ाजा साहब अपने मुरीदों के लिए यह तक कर गए. ख्व़ाजा साहब के कई क़िस्से लोक में प्रसिद्द है. ख्व़ाजा साहेब ने वक़्त की ज़रुरत को ध्यान में रखते हुए ऐलान किया था कि उनका मुरीद होने के लिए अंग्रेज़ी आनी ज़रूरी है। ख्व़ाजा साहब के कलाम में हज़रत शाह हुसैन द्वारा शुरू की गयी परंपरा और भी सहज दिखती है. इतनी सहज कि पढ़ने वाले को रूह की यह पूरी विकास यात्रा न सिर्फ़ समझ आती है बल्कि इस पूरी यात्रा पर स्वयं सहयात्री होने का भी आभास होने लगता है।
पठाना ख़ान का जन्म 1926 में तम्बू वाली बस्ती में हुआ था जो कोट अद्दू ,पंजाब (तत्कालीन भारत, अब पाकिस्तान) से कुछ मील की दूरी पर स्थित है. जब वह छोटे थे तब एक असाध्य बीमारी से ग्रस्त हुए और एक सय्यद की सलाह पर उनका नाम ग़ुलाम मुहम्मद से बदलकर पठाना ख़ान कर दिया गया. यह वक़्त पठाना ख़ान के परिवार पर बड़ा भारी था. उनके पिता ने तीसरी शादी कर ली और जब वह घर आये तो पठाना ख़ान की माँ ने यह सम्बन्ध तोड़ देना ही उचित समझा और एक बड़ा फैसला लेते हुए उन्होंने अपने पति का घर स्वेच्छा से त्याग दिया और और अपने बच्चे के साथ वह पिता के घर आ गयी. वहां उन्होंने तंदूर का काम संभाल लिया और गाँव वालों के लिए रोटियां बनाने लगी. पठाने ख़ान अपनी माता के बड़े करीब थे. वह जंगल से लकड़ियाँ लाते थे और अपनी माँ की मदद करते थे। उनकी माँ ने प्रयास किया कि उन्हें अच्छी तालीम दी जाए परन्तु सातवी तक पढ़ने के बाद पठाने ने पढाई छोड़ दी.उन्होंने गाना सीखा। मीतन कोट के संत ख्व़ाजा फ़रीद के तो वह दीवाने थे .उनके पहले गुरु बाबा मीर ख़ान थे जिन्होंने उन्हें तसव्वुफ़ और गायकी की बारीकियां सिखायीं. पठाना ख़ान ने अपनी माता के देहांत के पश्चात गायकी को ही अपना पेशा बना लिया. उनके गाये कलाम अब लोगों के बीच प्रसिद्द होने लगे थे और उनकी गायकी हज़ारों दिलों में अपनी जगह बना रही थी .’पीलू पकियां नी वे’ में उनका अंदाज़ हमें कब ईश्वर से जोड़ देता है हमें पता ही नहीं चलता। पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने उन्हें प्राइड ऑफ़ पाकिस्तान की उपाधि से भी नवाज़ा था। पठाना ख़ान इस जगती के पालने से 9 मार्च 2000 को विदा हुए और परमात्मा में मिल गए।
उनके बेटे ने अपने पिता द्वारा स्थापित इस परंपरा को आगे ज़ारी रखा और आज इक़बाल पठाना ख़ान पाकिस्तानी क़व्वाली के जाने माने नाम हैं।
हर बड़ी कहानी का एक दुखांत-पक्ष भी होता है. पठाना ख़ान से जुड़ी एक खबर 1 मई 2007 को Dawn अखबार में छपी जिसमे यह बताया गया कि पठाना ख़ान के बेटे ग़रीबी के कारन अपने पिता की निजी वस्तुएं यथा – हारमोनियम, और 74 पुरस्कार नीलाम करना चाहते हैं. क़व्वालों की उपेक्षा का उल्लेख करती यह खबर व्यथित करने वाली है. इक़बाल हर वर्ष 28 मार्च को अपने पिता का उर्स भी मानते हैं जिसमें उनका कलाम पढ़ा जाता है और इस महान क़व्वाल को श्रधांजलि दी जाती है. क़व्वालों के क़िस्से का मूल उद्देश्य सुने अनसुने क़व्वालों की कहानियां आप तक पहुंचाने का है ताकि लोग उनकी संघर्ष यात्रा से परिचित हों. क़व्वाल बंधुओं से भी हमारा विनम्र निवेदन है कि वो आगे आयें और अपनी संगीत यात्रा हमसे साझा करें। आप की कथा यात्रा साझा कर हम गौरवान्वित होंगे।
क़व्वाली का सबसे रोचक पक्ष यह है कि हिंदुस्तान में गंगा-जमुनी तहज़ीब की जब नीव डाली जा रही थी, क़व्वाली ने उस काल को भी अपने रस से सींचा है. क़व्वाली ने हिन्दुस्तानी साझी संस्कृति को न सिर्फ़ बनते देखा है बल्कि इस अनोखी संस्कृति के पैराहन में ख़ूबसूरत बेल बूटे भी लगाये हैं और अपने कालजयी संगीत से इस संस्कृति की नीव भी मज़बूत की है। क़व्वालों को यह संस्कृति विरासत में मिली है। क़व्वालों के क़िस्से आज के दौर में इसलिए और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्यूंकि इन्हों ने हमारी इस गंगा-जमुनी तहज़ीब को अपना स्वर दिया है।
ज़्यादातर क़व्वालों को जहाँ एक सीमित क्षेत्र में ही प्रसिद्धि मिल पायी वहीँ कुछ क़व्वाल ऐसे भी थे जिन्होंने बड़े-बड़े उस्ताद गायकों को भी पीछे छोड़ दिया. 1975 में जब सोने का भाव 520 रूपये प्रति तोला हुआ करता था उस दौर में एक क़व्वाल ऐसे भी थे जिन्होंने कलकत्ता के कला मंदिर में अपने एक प्रोग्राम के लिए 1,80,000 रूपये की राशि ली थी. इनकी प्रसिद्धि का आ’लम यह था कि उनकी राँची यात्रा के दौरान लोगों ने ट्रेन रोक दी थी ताकि इनसे एक बार हाथ मिलाने का मौक़ा’ मिल सके. 1977 में दोबारा झांसी में ट्रेन रोकनी पड़ी और लोगों ने इनका इस्तिक़बाल किया. ये क़व्वाल थे अ’ज़ीज़ नाज़ाँ जिन्हें ‘बाग़ी क़व्वाल’ भी कहा जाता है।
अज़ीज़ नाज़ाँ (7 मई 1938 - 8 अक्टूबर 1992) मुंबई के एक प्रतिष्ठित मालाबारी मुस्लिम परिवार में पैदा हुए. घर में संगीत सुनने और गाने की सख्त़ मनाही थी। इस माहौल में भी उन्होंने चोरी-छिपे संगीत की शिक्षा जारी रखी. हर बार जब वह गाते-बजाते पकड़े जाते तो उनकी जम कर पिटाई होती पर कलाकार वह क्या जो समाज के विरोध से कला को छोड़ दे! उनके पिता का जब देहांत हुआ तब अ’ज़ीज़ 9 साल के थे. उस के बा’द ही वह ऑर्केस्ट्रा में शामिल हो गए और लता जी के गीत गाने लगे। कुछ ही समय बा’द वह प्रसिद्ध क़व्वाल इस्माइल आज़ाद के सानिध्य में आ गए जो अपनी क़व्वाली हमें तो लूट लिया मिल के हुस्न वालों ने से फ़िल्म जगत में अपनी धाक जमा चुके थे। धीरे धीरे अज़ीज़ नाज़ाँ की ख्याति बढ़ने लगी और उन्हें स्वतंत्र क़व्वाल के रूप में जाना जाने लगा. 1962 में उन्होंने ग्रामोफ़ोन कंपनी के साथ क़रार पर हस्ताक्षर किये।
1962 अज़ीज़ के लिए बड़ा भाग्यशाली वर्ष रहा. उन्होंने ‘जिया नहीं माना’ रिकॉर्ड किया जो लोगों के बीच बड़ा प्रसिद्ध हुआ. 1968 में उन्होंने निग़ाह-ए-करम रिकॉर्ड किया जिसे क़व्वाली पसंद करने वालों ने ख़ूब सराहा। उन्हें अस्ल मायनों में सफ़लता 1970 में मिली जब कोलंबिया म्यूज़िक कंपनी द्वारा ‘झूम बराबर झूम’ रिलीज़ किया गया और इस गाने नें सफलता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए.1973 में फ़िल्म मेरे ग़रीब-नवाज़ को इसी गाने की ब-दौलत अपार सफलता मिली. उस समय प्रचलित रेडियो प्रोग्राम बिनाका गीत माला में झूम बराबर झूम कई हफ़्तों तक पहले नंबर पर रहा था।
झूम बराबर झूम ने अज़ीज़ नाज़ाँ की गायकी को जन मानस के दिलों में सदा के लिए स्थापित कर दिया था.इस गाने के बा’द अ’ज़ीज़ नाज़ाँ ने कई फ़िल्मों में ब-तौर प्ले बैक सिंगर भी कार्य किया जिनमें रफ़ू चक्कर (1975), लैला मज्नूँ (1976), फ़कीरा (1976) और तृष्णा (1978) आदि उल्लेखनीय हैं।
जीवन के शुरूआ’ती दिनों में अ’ज़ीज़ नाज़ाँ उस्ताद बड़े ग़ुलाम अ’ली ख़ान साहब के घर पर चले जाया करते थे जो उनके घर के पास ही भिन्डी बाज़ार में स्थित था. बड़े ग़ुलाम अ’ली ख़ान साहब के यहाँ संगीत के विद्वानों का तांता लगा रहता था। अज़ीज़ उन्हें बैठ कर धंटों सुना करते थे। उन्होंने यहाँ बैठ कर शास्त्रीय संगीत की बारीकियाँ सीखीं. बा’द में वह मुहम्मद इब्राहीम ख़ान साहब के शागिर्द बन गए जो म्यूज़िक डायरेक्टर ग़ुलाम मुहम्मद साहेब के छोटे भाई और नौशाद साहब के असिस्टेंट थे. कुछ समय बा’द उन्हें प्रसिद्ध म्यूज़िक डायरेक्टर रफ़ीक़ ग़ज़नवी साहब से संगीत सीखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जो मदन मोहन, ग़ुलाम मुहम्मद और उनके पूर्व उस्ताद मोहम्मद इब्राहीम ख़ान साहब के गुरु रह चुके थे।
नाज़ाँ मालाबारी थे और उनकी मातृभाषा मलयालम थी. उन्होंने औपचारिक शिक्षा गुजराती माध्यम से पूरी की थी. क़व्वाली पढ़ने के लिए उन्होने उर्दू शाए’र सादिक़ निज़ामी से उर्दू शाए’री की बारीकियां सीखीं.अ’ज़ीज़ नाज़ाँ को शाए’री का बड़ा शौक़ था. उनकी निजी लाइब्रेरी में हज़ारों किताबें थीं और वह हर महीने पाकिस्तान और भारत के प्रकाशकों से 50- 60 नयी किताबें मंगवाते थे.कई प्रसिद्ध शाए’र यथा बशीर बद्र, मख़मूर सई’दी, मे’राज फ़ैज़ाबादी, कृष्ण बिहारी नूर, वसीम बरेलवी, मुज़फ़्फ़र वारसी, मुनव्वर राणा आदि उनके ख़ास दोस्तों में से थे. हालाँकि उन्होंने ज़्यादातर कलाम क़ैसर रत्नागिरवी,हसरत रूमानी और नाज़ाँ शोलापुरी के पढ़े हैं परन्तु मंच पर उन्हें याद हज़ारों शे’र लोगों को रोमांचित कर देते थे. सूफ़ीनामा पुस्तकालय में हमें नाज़ाँ शो’लापुरी के कलाम मिले. जल्द ही उन कलाम को भी वेबसाइट पर उपलब्ध कराया जायेगा।
अ’ज़ीज़ नाज़ाँ बड़े प्रयोगधर्मी क़व्वाल थे. उन्होंने क़व्वाली में कई ऐसे प्रयोग किये जो पहले कभी नहीं हुए थे यही कारण है कि इन्हें बाग़ी क़व्वाल भी कहा जाता है.1983 में उन्होंने मुंबई के सारे क़व्वालों को एक साथ मिला कर The Bombay Qawwal Association की स्थापना की लेकिन उनकी बीमारी और तादुपरान्त मृत्यु के पश्चात यह संगठन टूट गया।
1978 में अज़ीज़ नाज़ाँ साहब की पत्नी का स्वर्गवास हो गया. 1982 में HMV रिकार्ड्स के बैनर तले उनका एक और प्रसिद्ध गाना – चढ़ता सूरज रिलीज़ हुआ जिसने सफ़लता से सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए.कुछ ही समय बा’द HMV से कुछ विवादों के फलस्वरूप उन्होंने अपना क़रार तोड़ लिया और वीनस कैसेट्स के साथ क़रार-नामे पर हस्ताक्षर किये. उन्होंने अपना पहला एल्बम इस कम्पनी के साथ ‘हंगामा’ के नाम से रिकॉर्ड किया. 1992 में रिकॉर्ड हुआ गाना ‘मैं नशे में हूँ’ उनकी आख़िरी रिकॉर्डिंग थी।
चढ़ता सूरज के बोल कुछ यूँ थे –
हुए नामवर … बे-निशां कैसे कैसे…
ज़मीं खा गयी… नौजवान कैसे कैसे…
आज जवानी पर इतरानेवाले कल पछतायेगा – ३
चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा – २
ढल जायेगा ढल जायेगा – २
तू यहाँ मुसाफ़िर है ये सराये फ़ानी है
चार रोज की मेहमां तेरी ज़िन्दगानी है
जुन ज़मीं ज़र ज़ेवर कुछ ना साथ जायेगा
खाली हाथ आया है खाली हाथ जायेगा
जानकर भी अन्जाना बन रहा है दीवाने
अपनी उम्र ए फ़ानी पर तन रहा है दीवाने
किस कदर तू खोया है इस जहान के मेले मे
तु खुदा को भूला है फंसके इस झमेले मे
आज तक ये देखा है पानेवाले खोता है
ज़िन्दगी को जो समझा ज़िन्दगी पे रोता है
मिटनेवाली दुनिया का ऐतबार करता है
क्या समझ के तू आखिर इसे प्यार करता है
अपनी अपनी फ़िक्रों में
जो भी है वो उलझा है – २
ज़िन्दगी हक़ीकत में
क्या है कौन समझा है – २
आज समझले …
आज समझले कल ये मौका हाथ न तेरे आयेगा
ओ गफ़लत की नींद में सोनेवाले धोखा खायेगा
चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा – २
ढल जायेगा ढल जायेगा – २
मौत ने ज़माने को ये समा दिखा डाला
कैसे कैसे रुस्तम को खाक में मिला डाला
याद रख सिकन्दर के हौसले तो आली थे
जब गया था दुनिया से दोनो हाथ खाली थे
अब ना वो हलाकू है और ना उसके साथी हैं
जंग जो न कोरस है और न उसके हाथी हैं
कल जो तनके चलते थे अपनी शान–ओ–शौकत पर
शमा तक नही जलती आज उनकी क़ुरबत पर
अदना हो या आला हो
सबको लौट जाना है – २
मुफ़्हिलिसों का अन्धर का
कब्र ही ठिकाना है – २
जैसी करनी …
जैसी करनी वैसी भरनी आज किया कल पायेगा
सरको उठाकर चलनेवाले एक दिन ठोकर खायेगा
चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा – २
ढल जायेगा ढल जायेगा – २
मौत सबको आनी है कौन इससे छूटा है
तू फ़ना नही होगा ये खयाल झूठा है
साँस टूटते ही सब रिश्ते टूट जायेंगे
बाप माँ बहन बीवी बच्चे छूट जायेंगे
तेरे जितने हैं भाई वक़तका चलन देंगे
छीनकर तेरी दौलत दोही गज़ कफ़न देंगे
जिनको अपना कहता है कब ये तेरे साथी हैं
कब्र है तेरी मंज़िल और ये बराती हैं
ला के कब्र में तुझको उरदा पाक डालेंगे
अपने हाथोंसे तेरे मुँह पे खाक डालेंगे
तेरी सारी उल्फ़त को खाक में मिला देंगे
तेरे चाहनेवाले कल तुझे भुला देंगे
इस लिये ये कहता हूँ खूब सोचले दिल में
क्यूँ फंसाये बैठा है जान अपनी मुश्किल में
कर गुनाहों पे तौबा
आके बस सम्भल जायें – २
दम का क्या भरोसा है
जाने कब निकल जाये – २
मुट्ठी बाँधके आनेवाले …
मुट्ठी बाँधके आनेवाले हाथ पसारे जायेगा
धन दौलत जागीर से तूने क्या पाया क्या पायेगा
चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा – ४
1992 में उनकी तबीअ’त ख़राब हुई और इसी साल 8 अक्टूबर को अज़ीज़ नाज़ाँ इस जहान-ए-फ़ानी से कूच कर गए।
अज़ीज़ नाज़ाँ की क़व्वाली शुरुआ’त में इस्माईल आज़ाद की शैली का अनुकरण करती मा’लूम पड़ती है लेकिन बा’द में उस्ताद बड़े ग़ुलाम अ’ली और उस्ताद सलामत अ’ली साहब के सानिध्य में आने के बा’द उनकी गायकी में शास्त्रीय संगीत का गहरा प्रभाव दिखता है.अ’ज़ीज़ नाज़ाँ की को हज़ारों शे’र ज़बानी याद थे और उनका प्रयोग क़व्वाली पढ़ने के दौरान वह बड़ी ख़ूब-सूरती से किया करते थे. उनका संगीत संयोजन उस समय के हिसाब से काफ़ी आधुनिक था. 1969 में उन्होंने झूम बराबर झूम की रिकॉर्डिंग की. जहाँ उस समय तक क़व्वाल अपनी क़व्वाली में सिर्फ़ हारमोनियम और तबले का ही प्रयोग किया करते थे, अ’ज़ीज़ नाज़ाँ ने पहली बार क़व्वाली में मेंडोलिन, गिटार, कोंगो, आदि आधुनिक वाध्यों का प्रयोग किया था.1971 में उन्होंने अपने गीत ‘मस्ती में आ पिए जा’ में पहली बार इलेक्ट्रिक गिटार और इलेक्ट्रॉनिक साउंड इफ़ेक्ट्स का प्रयोग किया था, फ़िल्म इंडस्ट्री में 70 और 80 के उत्तरार्ध में कल्याण जी, R.D. बर्मन साहब और बप्पी लाहिरी ने इलेक्ट्रॉनिक धुनों का प्रयोग शुरू किया जबकि अ’ज़ीज़ नाज़ाँ यह काम 70 के दशक की शुरुआ’त में ही कर चुके थे।
अ’ज़ीज़ नाज़ाँ ने कई महान संगीतकारों के साथ काम किया और नए नए प्रयोग किये. उन्होंने पहली बार सितार और मेंडोलिन का फ़्यूज़न अपने गीत ‘तेरी नज़र का ओ दिलदारा’ में किया और इस गाने को अमर कर दिया .उनके अंतिम एल्बम ‘मैं नशे में हूँ’ में कुछ गानों में पाश्चात्य प्रोग्रामिंग का प्रयोग किया गया था जो आगे चलकर कई संगीतकारों के लिए प्रेरणास्रोत बना. अ’ज़ीज़ नाज़ाँ को भारत में क़व्वाली के पुनरुत्थान का श्रेय जाता है. हम अपने ऐसे महान संगीतकारों के ऋणी हैं जिन्होंने कला के साथ साथ संस्कृति को भी सहेजा और उसमे नए योगदानों से उसे आने वाली पीढ़ी के लिए सुग्राह्य बनाया।
अज़ीज़ मियां मेरठी इकलौते ऐसे अनोखे क़व्वाल थे जो अपनी क़व्वालियाँ खुद लिखते थे ।साबरी ब्रदर्स और इनमें एक प्रतिद्वंदिता चलती थी।1975 में अज़ीज़ मियां का नया एल्बम ‘मैं शराबी’ आया, उसी साल साबरी ब्रदर्स का भी नया एल्बम ‘भर दो झोली मेरी या मुहम्मद’बाज़ार में आया जिसके गीत पुरनम इलाहाबादी ने लिखे थे । दोनों एल्बम बहुत प्रसिद्द हुए । 1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने अज़ीज़ मियां को अपने यहाँ आमंत्रित किया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया।साबरी ब्रदर्स ने उसी साल एक क़व्वाली पढ़ी जिसका उन्वान था – ओ शराबी ! छोड़ दे पीना ! अज़ीज़ मियां कहाँ चुप रहने वाले थे । उन्होंने भी तुरंत ही एक क़व्वाली लिख कर रिकॉर्ड करवाई जिसका उन्वान था – हाय कम्बख़्त! तूने पी ही नहीं।
अज़ीज़ मियां का अंदाज़ सबसे अनोखा था । किसी क़व्वाल घराने से न होने पर भी उन्होंने क़व्वाली को एक ऐसे मुकाम पर पहुँचाया जिसकी हदें आसमान की बुलंदियों को छूती नज़र आती हैं। इन्हें शहंशाह-ए-क़व्वाली भी कहा जाता है । इंश्क़ ए हक़ीक़ी को उन्होंने रूहानी शराब में डुबाकर आशिक़ों के लिए एक कभी न उतरने वाला नशा तैयार कर दिया जिसमे सुनने वाले का ख़ुमार कभी नहीं टूटता।
अज़ीज़ मियां पहले छोटी - मोटी महफ़िलों में गाया करते थे परन्तु उनकी ज़िन्दगी ने एक नया मोड़ तब लिया जब 1966 में उन्होंने ईरान के शाह रज़ा पहलवी के समक्ष क़व्वाली पढ़ी। शाह क़व्वाली से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अज़ीज़ मियाँ को स्वर्ण पदक से सम्मानित किया। इसके बा’द अज़ीज़ मियाँ प्रसिद्द हो गए और उन्होंने अपनी एल्बम रिकॉर्ड करवाई। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
शैख़ मंझू जौनपुर में ही पैदा हुए और वहीं उनकी मृत्यु हुई। वह बचपन से ही संगीत के बड़े प्रेमी थे। मख़्दूम शाह अढ़हन के यहाँ मजलिसों में वह रोज़ उपस्थित रहते थे। यहाँ बड़े बड़े क़व्वाल आया करते थे। मख़्दूम साहब के निर्देशानुसार मंझू ने संगीत की शिक्षा प्राप्त की।कंठ में मानो ईश्वर का का वरदान था। कुछ ही दिनों में उन्हें संगीत के बड़े विद्वानों में गिना जाने लगा। ये बादशाह अकबर के शाही गवैये तानसेन के समकालीन थे। इन्होने मख़्दूम शाह अढ़हन जौनपुरी का दरबार छोड़कर कहीं जाना पसंद नहीं किया।
मौलाना मोहम्मद हुसैन आज़ाद दरबार-ए-अकबरी में लिखते हैं कि
”मुल्ला फ़रमाते हैं कि शैख़ मंझू क़व्वाल सूफ़ियों के समान जीवन व्यतीत करते थे।उसी समय अकबर ने उन्हें हौज के किनारे बुलवाया और उनका गाना सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ। तानसेन और अपने दूसरे दरबारी गवैयों से अकबर ने कहा -तुम मियां मंझू की बराबरी कभी नहीं कर सकते। फिर उसने मंझू से कहा -जा सब पूँजी तू ही ले जा। उस से क्या उठ पाता सो मंझू ने कहा हुज़ूर आज्ञा दें की सेवक जितना ले जा सके ले जाय।अकबर ने स्वीकार किया और मंझू लगभग एक हज़ार रूपये बाँध कर ले गया।” (शार्की राज्य जौनपुर का इतिहास - सय्यद इक़बाल अहमद जौनपुरी)
हैदराबाद के सूफ़ी शैख़ एवं शाइर अब्दुल क़ादिर सिद्दीक़ी हसरत ने मौसीक़ी को एक विज्ञान की तरह सीखा न कि प्रदर्शन हेतु। अपने आध्यात्मिक मक़ाम कि वजह से वह माहिरीन-ए-फ़न के घरों या कूचा-ओ-बाज़ार के चक्कर नहीं लगा सकते थे इस कारण से उन्होंने संगीत सीखने का आधुनिक तरीक़ा इख़्तियार किया। बाज़ार में उपलब्ध तमाम संगीत की रिकॉर्डिंग वह घर ले आए और उन्हें सुन-सुन कर इस कला में महारत हासिल कर ली। हालांकि हज़रत बाहर प्रदर्शन नहीं करते थे पर उन्होंने मोहम्मद ग़ौस नामक एक क़व्वाल को अपना शागिर्द बनाया और उसे संगीत की विधिवत शिक्षा दी। मेराज अहमद निज़ामी वह दूसरे क़व्वाल थे जो उनके द्वारा क़ादरिया सिलसिले में मुरीद हुए।
मेराज अहमद निज़ामी दिल्ली के प्रसिद्ध क़व्वालों में से थे। उन्होंने न सिर्फ़ क़व्वाली पढ़ी बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए क़व्वाली को सहेजा भी। उनकी किताब ‘सुरूद ए रूहानी’ सूफ़ी क़व्वालियों का संग्रह है जो उन्होंने उर्दू में लिखी है। इसमें ज़्यादातर ग़ज़लें हैं लेकिन कुछ रुबाइयाँ और गीत भी शामिल हैं। इस किताब में उर्दू की 132, फ़ारसी की 75, हिन्दी की 56 और पंजाबी की 2 ग़ज़लें शामिल हैं।
एक बार नुसरत साहब नींद में एक घंटा गाते रहे।जब नींद खुली तो उन्होंने बताया कि ख्व़ाब में वह किसी मज़ार पर थे जहाँ उनके पिता फ़तेह अ’ली ख़ान साहब ने उन्हें कलाम पढ़ने का हुक्म दिया।इस घटना को घर के बड़े लोगों ने एक रूहानी संकेत के तौर पर लिया और नुसरत साहेब को क़व्वाल पार्टी में शामिल कर लिया गया।
जब नुसरत साहब ने मज़ार के विषय में विस्तार से बताया तो जो लोग हिंदुस्तान गए थे वो बिलकुल भी चकित नहीं हुए। उन्होंने उस दरगाह को पहचान लिया। यह अजमेर में ख्व़ाजा साहेब की दरगाह थी। सालों बा’द जब नुसरत साहब अजमेर आये और ख्व़ाजा साहब की दरगाह पर हाजिरी देने पहुंचे तो जैसे उनका ख्व़ाब सच हो गया। उन्होंने उस जगह को पहचान लिया जहाँ पर बैठ कर उनके पिता ने उन्हें क़व्वाली पढ़ने कहा था। नुसरत साहब की आँखों में आंसू आ गए। दरगाह की देखभाल करने वालों में से एक ने उन से अन्दर आकर क़व्वाली शुरू करने का आग्रह किया लेकिन नुसरत साहब वहीं बैठे रहे जहाँ वह ख़्वाब में बैठे थे।उन्होंने वहीं बैठ कर क़व्वाली पढ़ी और श्रोताओं को मुग्ध कर दिया।
शंकर शम्भू क़व्वाल का नाम आज कौन नहीं जानता । एक बार शंकर और शम्भू ख्व़ाजा मुईनुद्दीन चिश्ती के उर्स पर हाज़िरी देने पहुंचे। उन्हें वहां गाने का मौका नहीं दिया गया क्यूंकि एक तो वह नए थे और दुसरे क़व्वालों की एक लंबी फ़ेहरिश्त कतार में खड़ी थी। यह देखकर बड़े भाई शंकर ने दरगाह की सीढ़ियों पर ही उपवास शुरू कर दिया। वह तीन दिनों तक भूखे प्यासे ख्व़ाजा साहब की चौखट पर बैठे रहे ।उन्होंने अपनी अंतिम सांस तक उपवास नहीं तोड़ने का प्रण लिया। आख़िर-कार दरगाह कमिटी के लोगों ने दोनों भाइयों को उर्स के अंतिम दिन महफ़िल ख़ाना में गाने की इजाज़त दे दी। जब दोनों भाइयों ने ‘महबूब ए किब्रिया से मेरा सलाम’ गाना शुरू किया तो सारी जनता मंत्रमुग्ध थी। कई लोग वहाँ रोने लगे और इन क़व्वालों ने सबका दिल जीत लिया। उसी दिन उन्हें क़व्वाल की पदवी मिली और उस दिन से दोनों भाई शंकर शम्भू क़व्वाल के नाम से प्रसिद्द हुए।
उसी महफ़िल में कलाम सुनकर रोते हुए लोगों में से एक थे मदर इंडिया फिल्म के निर्माता महबूब ख़ान साहब। उन्होंने इन दोनों भाइयों को मुंबई आमंत्रित किया और महबूब स्टूडियो के उद्घाटन समारोह में गाने का आग्रह किया । शंकर शम्भू ने आलम आरा , तीसरी कसम, बरसात की रात, शान-ए-ख़ुदा, लैला मजनू, मंदिर मस्जिद जैसी कई प्रसिद्ध फिल्मों को अपनी सुरीली आवाज़ से सजाया है ।शंकर की म्रत्यु सड़क दुर्घटना में सन 1984 में हो गयी जबकि शम्भू क़व्वाल ने 1989 में इस संसार को अलविदा कहा। आज कल शंकर के बेटे राम शंकर और शम्भू के बेटे राकेश शम्भू अपने पिता की परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं।
भारत-चीन युद्ध के समय जब पूरा देश एकता के सूत्र में बंध गया था,उस नाज़ुक दौर में अवाम को जगाने और सैनिकों का हौसला बढ़ाने का बीड़ा क़व्वाल हबीब पेंटर ने उठाया। उनकी क़व्वालियों से तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने हबीब पेंटर को बुलबुल-ए-हिन्द की उपाधि से सम्मानित किया। हबीब अपने शुरूआती दिनों में घरों को पेंट करने का काम करते थे. यही कारण था कि उनका नाम हबीब पेंटर पड़ गया । हबीब खुद को हज़रत अमीर ख़ुसरो का मुरीद कहते थे। इन की क़व्वालियाँ बड़ी प्रसिद्ध थीं। बहुत कठिन है डगर पनघट की और नहीं मालूम जैसी क़व्वालियों की उन दिनों धूम थी ।हबीब ने कभी फिल्मों के लिए नहीं गाया ।इन की मृत्यु 22 फ़रवरी 1987 को हुई। उनके नाम पर अलीगढ़ में सिविल लाइन्स के पास एक पार्क का नामकरण किया गया है। उनके बा’द उनके बेटे अनीस पेंटर और नाती ग़ुलाम हबीब उनकी इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं।
लखनऊ के क़व्वाल कन्हैया के औलाद नहीं थी। वह अपने पीर साहब के हुज़ूर पेश हुए और उनसे अपनी यह परेशानी बताई । पीर साहब ने अर्ज़ किया – कन्हैया ! तेरे घर पर मुरली बजेगी ! और ऐसा ही हुआ । कन्हैया को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। उन्होंने अपने बेटे का नाम मुरली रखा । मुरली आगे चलकर हिंदुस्तान भर में अपनी क़व्वाली के लिए प्रसिद्ध हुए । नुसरत फ़तेह अली ख़ान साहब मुरली क़व्वाल की शैली के बहुत बड़े प्रशंसक थे । मुरली को शहंशाह-ए-क़व्वाली भी कहा जाता है ।मुरली ने क़व्वाली की प्रसिद्द तकरार शैली विकसित की ।आज कल मुरली के बेटे राजू अपने वंश की क़व्वाली परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं।
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