Font by Mehr Nastaliq Web
Sufinama

बिहार के प्रसिद्ध सूफ़ी : मख़दूम मुनएम पाक

रय्यान अबुलउलाई

बिहार के प्रसिद्ध सूफ़ी : मख़दूम मुनएम पाक

रय्यान अबुलउलाई

MORE BYरय्यान अबुलउलाई

    पटना हर ज़माने में सूफ़ियों और संतों का बड़ा केंद्र रहा है। यहाँ बड़े-बड़े सूफ़ियों की दरगाहें और ख़ानक़ाहें हैं। केवल हिन्दुस्तान ही नहीं बल्कि हिन्दुस्तान के बाहर से भी लोग इन सूफ़ियों की ख़ानक़ाहों में अ’क़ीदतों का सलाम पेश करने आते हैं और मुहब्बतों का फूल चढ़ा कर ख़ुशी-ख़ुशी वापस लौटते हैं। मख़दूम शहाबुद्दीन पीर-ए-जगजोत, मख़दूम मिन्हाजुद्दीन रास्ती, हज़रत पीर दमरिया, दीवान शाह अर्जां और मख़दूम शाह यासीन दानापूरी जैसे बड़े सूफ़ियों के बीच मख़दूम मुन्इ’म-ए-पाक का नाम भी आता है जिनके जीवन का उद्देश्य मानवता से प्रेम करना, नफ़रतों के बाज़ार में मुहब्बतों का चराग़ जलाना और इन्सान को इन्सान से मिलाना था ताकि पूरी दुनिया मुहब्बतों के रंग में रंग जाए।

    मख़दूम मुन्इ’म-ए-पाक का जन्म बिहार के पचना गाँव में 1671 ई’स्वी में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा के बा’द घर से बाहर निकले और बाढ़ पहुंचे उस समय यहाँ दीवान सय्यद ख़लीलुद्दीन क़ादरी के इ’ल्म का डंका बज रहा था। बड़े-छोटे सब उन्हीं के पास शिक्षा प्राप्त करने आते थे। आप भी यहीं बैठे और दुनियावी शिक्षा के अ’लावा रुहानी शिक्षा भी हासिल किया। दीवान ख़लीलुद्दीन आपको बे-हद अ’ज़ीज़ रखते थे धीरे-धीरे दीवान ख़लील की नज़र-ए-इ’नायत मख़दूम पर होने लगी और रुहानी मर्तबा मिलने लगा। इस तरह मख़दूम आपके सबसे कामयाब मुरीद बन गए और देखते ही देखते ख़िलाफ़त से सम्मानित किए गए। मख़दूम मुन्इ’म-ए-पाक के गुरु ने उनकी मेहनत,लगन और शौक़ को सराहते हुए दिल्ली जाने का आदेश दिया।वो बिहार से सीधे दिल्ली पहुंचे और यहाँ इस्लाम धर्म की उच्च शिक्षा प्राप्त की दिल्ली में आपको ख़्वाजा फ़र्हाद की महफ़िल में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और यहीं इ’श्क़ का तीर आपके सीने में चुभ गया ।फिर क्या था ख़्वाजा फ़र्हाद को मुर्शिद (गुरु) बनाया और उनसे शिक्षा लेना शुरूअ’ कर दिया। ख़्वाजा फ़र्हाद ने नक़्शबंदिया अबुल-उ’लाईया सिल्सिले की ने’मत आपको सौंपी और फिर अपने शिष्य मीर सय्यद असदुल्लाह (रहि·) के पास आपको बिठा दिया। आप उनसे सीखते रहे सीखते रहे यहाँ तक कि एक दिन आया कि मीर असदुल्लाह ने आपको अपना सबसे कामयाब शिष्य बना लिया और ऐ’लान कर दिया कि ये हमारा सबसे कामयाब शिष्य है। हमने इसे वो सब कुछ दिया जो हमें हमारे गुरु ख़्वाजा फ़र्हाद से मिला था।

    मख़दूम मुन्इ’म-ए-पाक ने पचास वर्ष तक जामा’ मस्जिद दिल्ली के पीछे एक जगह बैठ कर इस्लाम की शिक्षा दी।धीरे-धीरे सैंकड़ों लोग मख़दूम को मानने और चाहने लगे। इसी बीच एक मुरीद ने पूछा कि हज़रत ये बात मशहूर है कि अह्ल-ए-कमाल अपनी सूरत-ए-उं’सुरी (तत्व रूप) को बदलते हैं। क्या ये सच है। हम तो इसे ग़लत जानते हैं। आपने जवाब दिया कि जब अह्ल-ए-दिल का शरीर उपासना से शुद्ध और पवित्र हो जाता है तो कुछ शक नहीं कि ये बात हो। कुछ दिनों के बा’द आप ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार-ए-काकी की दरगाह पर मुरीदान के साथ गए। जिस मुरीद ने सवाल किया था वो जब दरगाह में जाने लगे तो उनको शेर नज़र आया। वह डरे और उल्टे पावँ वापस होना चाहा लेकिन अचानक शेर की जगह पर आप खड़े नज़र आए और आपने अपने इस मुरीद को इशारे से बुलाया मुरीद को तब ये बात समझ में आई कि शेर की सूरत में आप ही थे। इस तरह सूरत-ए-उं’सुरी के बदलने की हक़ीक़त सामने गई। मख़दूम मुन्इ’म-ए-पाक पर ग़ौस-ए-पाक शैख़ अ’ब्दुल क़ादिर जीलानी और मख़दूम-ए-जहाँ शैख़ शर्फ़ुद्दीन अहमद यहया मनेरी की ख़ास नज़र-ए-इ’नायत थी। हर साल इस्लामी महीने के शा’बान को बिहार शरीफ़ जाते और उ’र्स तक बराबर वहीं मख़दूम की दरगाह पर रहते।

    इसी बीच मख़दूम मुन्इ’म-ए-पाक को रुहानी इशारा (संकेत) मिला कि तुम पटना चले जाओ। वो पटना गए। मित्तन घाट में मुल्ला मित्तन की जामा’ मस्जिद के पास रहने लगे और धीरे-धीरे पटना शहर के तमाम छोटे बड़े, अमीर ग़रीब, काले गोरे, ज्ञानी अज्ञानी सब उनके चरणों में गए। कारण क्या था ?क्या उनके पास धन-दौलत थी या संपत्ती थी। नहीं उनके पास दौलत थी ज़मीन और ही संपत्ती।उनके पास मोहब्बत थी। ग़रीबों के दर्द सुनने का समय था।उनके ज़ख़्म पर मरहम लगाने का उनके पास नुस्ख़ा (पर्चा) था। उनके पास मुहब्बत को फैलाने की एक बेहतरीन तर्कीब थी उस ज़माने के छोटे बड़े सब मख़दूम मुन्इ’म-ए-पाक के शिष्यों में शामिल होते गए और दुनिया की मुहब्बत से दूर इश्वर की मुहब्बत से क़रीब होते चले गए। मख़दूम मुन्इ’म-ए-पाक के शिष्यों में बड़े-बड़े लोग शामिल हैं जो आज हिन्दुस्तान के अ’लावा अन्य देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यान्मार में मौजूद हैं।उनके शिष्यों और फिर उनके शिष्यों की बड़ी-बड़ी दरगाहे हैं जहाँ से सैंकड़ों लोग जुड़े हुए हैं।

    मख़दूम मुन्इ’म-ए-पाक चमत्कार को बिल्कुल पसंद नहीं करते थे लेकिन कभी-कभार मुरीदों की सुधार और उनकी तर्बियत के चलते कुछ चमत्कार दिखला दिया करते थे। हमें चाहिए कि हम मख़दूम की किताब मुकाशफ़ात-ए-मुन्इ’मी, इल्हामात-ए-मुन्इ’मी और मुशाहदात-ए-मुन्इ’मी को पढ़ें और उनके अच्छे विचारों को जानें ताकि हमारे जीवन में आसानियाँ पैदा हो सकें।

    आपके एक मुरीद ने सवाल किया कि गुरु सुनते हैं कि ग़ौस के हाथ पाँव अलग-अलग हो जाते हैं और फिर मिल जाते हैं। क्या आपके पूर्वजों में भी ये ताक़त पाई जाती है मेरे ख़याल से अब तो ये मुम्किन नहीं। उसी दिन-रात के वक़्त जब वो मुरीद तहज्जुद (रात के बीच हिस्सा में पढ़ी जाने वाली एक नमाज़) के लिए उठा तो आपके हाथ और पाँव को अलग अलग देखा। ये गुमान करते हुए कि किसी ने आपको शहीद कर दिया है शोर मचाना चाहा। आप फ़ौरन उठ खड़े हुए और कहा कि ये नज़ारा सिर्फ़ तुम्हारे लिए था किसी दूसरे को मत बताना।

    एक-बार एक नानक शाही जोगी आपके पास आया और कृष्ण जी को देखने की ख़्वाहिश की। आप मुस्कुराए और उसकी तरफ़ पूरा ध्यान दिया। वो जोगी भी आँख बंद करके ध्यान में गया और थोड़ी देर के बा’द झूमने लगा।जब उसको होश आया तो कहने लगा कि मैंने अभी-अभी वृन्दावन में कृष्ण जी को अपने गोपियों के साथ बाँसुरी बजाते देखा और बाँसुरी से कलिमा-ए-ला-इलाहा इल्लल्लाह की आवाज़ सुनी है। फिर क्या था वो जोगी आपका भक्त हो गया।

    जानना चाहिए कि मख़दूम ने पूरी ज़िंदगी शादी नहीं की। अकेले रहे। उनके कोई बच्चे थे ही उनके पास ज़मीन-ओ-घर था लोगों से बहुत कम मिलते। सारी ज़िंदगी कोई मकान नहीं बनाया। किसी से भेंट लेते और ही नवाबों और अमीरों से मेल-जोल रखते। अपना ज़्यादा वक़्त इश्वर के ज़िक्र-ओ-फ़िक्र में लगाते। यहाँ तक कि आँखें खोलना भी पसंद करते। कम खाते और कम बोलते। उनका ज़्यादा वक़्त लोगों की परेशानी दूर करने में जाता था। हर एक से ख़ुशी-ख़ुशी मिलते और उन्हें दुआ’एं देते। उनके पास बड़े बूढ़े, जवान, नौजवान और बच्चे सब आते और अपनी-अपनी मन की मुराद पाकर ख़ुशी-ख़ुशी वापस लौटते।

    मख़दूम मुन्इ’म-ए-पाक ने आख़िरी समय में मित्तन घाट में आकर अपनी ज़िंदगी गुज़ारी।1771 ई’स्वी में आप गुज़र गए।मित्तन घाट में आपकी दरगाह बनी जहाँ हर साल उ’र्स के समय काफ़ी लोग जम्अ’ हो कर आपको याद करते हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

    Get Tickets
    बोलिए