Font by Mehr Nastaliq Web
Sufinama

हाफ़िज़ की कविता - शालिग्राम श्रीवास्तव

सरस्वती पत्रिका

हाफ़िज़ की कविता - शालिग्राम श्रीवास्तव

सरस्वती पत्रिका

MORE BYसरस्वती पत्रिका

    हिन्दी जाननेवालों को फ़ारसी-किवता के रसास्वादन के लिए पहले दो-एक मोटी मोटी बातों की हृदयस्थ कर लेना चाहिए। फ़ारस या ईरान में मुसलमानों के आगमन से पहले आमोद-प्रमोद को सामग्री में शराब का विशेष स्थान था। जगह जगह बड़े-बड़े शराबखाने खुले हुए थे, जिनको मैक़दा वा ख़राबात, उनके अध्यक्ष को पीरेमुग़ाँ, और उनमें काम करनेवाले लड़कों को मुग़बचा कहते थे। लोगों को शराब पिलाने का काम एक विशेष पुरुष के सुपुर्द होता था, जो साक़ी कहलाता था। शराब बड़े बड़े मटको में भरी रहती थी, जिसको खुम कहते थे। बोतलों का नाम शोशा, मीना और पीने के पात्र का नाम प्याला, साग़र या जाम था। लाल रंग की शराब बड़ी उत्तम समझी जाती थी, जो मये अर्ग़वानों, मये गुलग़ूँ या मये गुलरंग कहलाती थी। मुसलमानों के आक्रमण से सारा देश मुसलमान हो गया और मुसलमान-धर्म में सुरापान का घोर निषेध था। परन्तु जनता को परम्परागत संस्कारों का बल-पूर्वक एकदम से मिटा देना असम्भव था। इसलिए कुछ लोग लुक-छिप कर पीते रहे और जो नहीं पी सकते थे वे अपनी कविता के द्वारा ख़यालों कल्पित शराब के प्याले पर प्याले ही नहीं, खुम के खुम उड़ाते रहे। इतना ही नहीं, किंतु मस्जिद में बैठकर पीने और मुसल्ला (नमाज़ के आसन) को शराब में रँगने तथा यदि मुल्ला, ज़ाहिद अथवा इस्लामी धर्मशास्त्र का कट्टर पक्षपाती जाय तो शराब से उसकी दाढ़ी रँगने और उसको शराब पिलाने के लिए तत्पर रहे। वहाँ के कवियो में इस प्रणाली का इतना प्रचार हुआ कि श्रृंगार रस की कविता के अतिरिक्त आध्यात्मिक काव्य अथवा संतबानी में भी शराब का ही रूपक बँधता रहा, जैसे शराब से इश्क हक़ीक़ी (परमात्मा को भक्ति या उसका प्रेम) और साक़ी से पीर मुर्शिद (सत-गुरु) का तात्पर्य माना गया।

    इस प्रकार की सबसे श्रेष्ठ कविता उमर ख़ैयाम की है। उनके पीछे यदि किसी प्रसिद्ध कवि ने उक्त प्रणाली का अनुसरण करके शराब के छींटे उड़ाये हैं तो वे हाफ़िज़ शीराजी हैं। यहाँ हम उन्हीं कवि-शिरोमणि की कविता की कुछ छटा इस लेख में दिखलाना चाहते हैं।

    हाफ़िज़ का पूरा नाम शम्सउद्दीन महम्मद ख़्वाजा था, जिनकी मृत्यु सन् 791 हिजरी (ई. 1388) में ईरान के प्रसिद्ध नगर शीराज़ में हुई थी। यद्यपि इनकी कविता शराब से इतनी सराबोर नहीं हैं, जितनी उमर खैय्याम की है, फिर भी जहाँ-तहाँ बहुत हैं।

    (1)

    पहले हम हाफ़िज़ को शराब-सम्बन्धी कविता के कुछ नमूने दिखलाते हैं और साथ ही अन्य कवियों से उसकी तुलना भी करते जावेंगे। देखिए वे शराब को अमृत बतलाते हैः

    (1) यदि तुमको अमृत की खोज है तो राग-रंग के साथ शराब को ढूँढ़ों।

    (2) शराब पियो कि इसी से अमर होना है, अन्यथा संसार तो नश्वर है ही।

    इसी से मिलता-जुलता उमर खैय्याम के एक शेर का अर्थ इस प्रकार हैः—

    शराब पियो कि वह अमृत है तथा यौवन-काल के आनन्द का भाण्डार है।

    (3) फिर हाफ़िज़ कहते हैः—

    यही उत्तम है कि पिछली वासनाओं को भूलकर शराब से चित्त प्रसन्न करे।

    खैय्याम इसी को इस प्रकार कहते हैं—-

    साक़ी कल के प्रतिद्वंदियों के लिए तू क्या चिन्ता कर रहा है? प्याला ला क्योंकि रात बीती जाती है।

    (4) हाफ़िज का कथन है—-

    मित्र के साथ बैठकर शराब और प्याला मँगाओ।

    खैय्याम कहते हैः—-

    मित्र के साथ शराब का प्याला सबसे उत्तम है।

    इस प्रसंग को हाफ़िज़ के दो शेरों का अर्थ देकर समाप्त करते हैः—–

    मैक़दा में शराब पीकर मुँह लाल करो। कुटिया में जाओ। वहाँ तो पाखण्डीं रहते हैं।

    (5) लोग प्रायः शाम को सूर्यास्त के पश्चात् शराब पीकर आनन्द मनाते हैं, क्योंकि दिन काम-काज करने के लिए है। इस भाव को कवि ने इस प्रकार व्यक्त किया है—–

    जैसे हो सोने का प्याला-रूपी सूर्य छिपा, साक़ी की भौं ने जो नये चन्द्रमा के सदृश थी, शराब की ओर संकेत किया।

    फ़ारसी के कवि प्रायः भौं को उपमा द्वितीय के चन्द्रमा के साथ देते हैं। सूर्यास्त के पश्चात् भेय चन्द्र का दर्शन स्वाभाविक है।

    हाफ़िज़ की इस प्रकार की बहुत-सी कविता है। उन्होंने साक़ीनामें लिखे हैं, कजो शराब-सम्बन्धी कविता से भरे हुए है। टीकाकारों ने इन सबको आध्यात्मिक अर्थ में घटाने का उद्योग किया है, पर वे इसमें कहाँ तक सफल हुए हैं, इसको राम ही जाने।

    हिन्दी की सन्तबानी में भी कबीर के बीजक में थोड़ी-सी ऐसी छटा देख पड़ती है। कबीर कहते हैः—–

    संतो मते मात जन रंगी।

    पीवत प्याला प्रेम सुधारस, मतवाले सतसंगी।।

    अर्द्ध अर्द्ध लै भाठो रीपी, ब्रह्म अगिनि उदगारी।

    मूँद मदन कर्म कटि कसमल संतन चुवै अगारी।।

    कबीर भाटी कलाल की बहुतक बैठे आय।

    सिर सौंपे सोई पियै, नहिं तो पिया जाय।।

    हरि रस पीया जानिये कबहुँ जाय खुमारा।

    नीझर झरै अमीरस निकसै, तिहि मदिरा बलि छाका।।

    (2)

    जब हम हफीज़ के कुछ ऐसे पद्यों के अनुवाद देते है जिनमें, उन्होंने ईरानी शैलीली के अनुसार कवित्व का दर्शन होता है

    (1) रात को जब चित्त एकाग्र होता है, प्रियतम की सुन्दर अलक और कपोल याद आते हैं, जिससे रात भर हृदय विकल रहता है, मानो उसका सुख और चैन कोई लूट लै जाता है। इस भाव की व्यंजना कवि ने इस प्रकार की हैः—–

    “तेरी अलक तेरे कपोल के प्रकाश को सहायता से रात भर हमारे हृदय को लूटती रहती है। देखो तो यह कैसा (ढीठ) चोर है कि हाथ में दीपक लेकर अपना काम करता है।“

    अलको का दिव्य कपोल के निकट होना मानो उसका हाथ में दीपक लेना है।

    (2) पक्षी को जाल में फँसाने के लिए लोग दाने बखेरते हैं। कवि प्रियतम के मिलन को पक्षी मानकर कहता है——

    “हे हाफ़िज! नेत्रों से आँसू के दाने बिखेरते जाओ। शायद मिलन-रूपी पक्षी (उन दानों के लालच से) तुम्हारे फँदे में जाय।” अर्थात् सम्भव है, तुम्हारे रोते रोते प्रियतम का हृदय पसीजे और वह तुमसे मिले।

    (3) वास्तविक अग्नि क्या है, इसकी विवेचना सुनिए—–

    “आग वह नहीं है जिसकी शिखा पर दीपक हँसता हैं, अर्थात् जिससे दीपक जलता है, बल्कि वास्तविक अग्नि वह है जो पत्तों के खलियान-रूपी समूह पर टूट कर गिरती है और उसको जलाकर भस्म कर देती है,” क्योंकि वह प्रेम की अग्नि है, जिस पर पतंगे को दौड़कर गिरना है। दीपक निर्जीव है। उसको अग्नि से कोई कष्ट नहीं होता। पतंगा जीवधारी है, अग्नि की ज्वाला से तड़पकर मर जाता है। इसलिए जिसके व्यापार से पतंगा को ऐसी दशा हो जाती है वही तो सच्ची अग्नि ठहरी।

    (4) फ़ारसी के शायर प्रियतम के मुख को सूर्य से भी उपमा देते है। हाफ़िज माशूक़ के मुँह को असली सूर्य इस प्रकार बतलाते हैं——-

    “सूर्य उसके मुख के सामने से आड़ में हो गया। सच है, सूर्य के सम्मुख छाया आड़ में हो जाया करती ही है।” मानो प्रियतम का मुख असली सूर्य ठहरा और यह मालूमी सूर्य उसके आगे छाया-मात्र है।

    (5) ईरानी शायरी में बुलबुल और गुल (गुलाब के फूल) का वही सम्बन्ध है, जो यहाँ भ्रमर और कमल का है। वहाँ के शायर फूल के खिलने को प्रायः उसका हँसना कहते हैं। हाफ़िज कहते हैं——-

    “इधर तो बेचारा बुलबुल प्रेम से पीड़ित होकर हाय-हाय कर रहा है, उधर फूल खिलखिला कर हँसता है। भला क्योंकर प्रेमी का दिल जले, जब कि दिलबर (हृदय ले जानेवाला-प्रियतम) स्वयं उसमें (व्यंग्य रूपी) आग लगा रहा है।”

    (6) केवल मनुष्य ही एक ऐसी जाति है जो बुद्धि और ज्ञान के द्वारा परमात्मा के प्रेम और भक्ति को अपने अन्तःकरण में धारण कर सकती है। हाफ़िज़ इस भाव को इस प्रकार वर्णन करते हैं——-

    “आकाश उसके बोझे को नहीं सँभाल सका तब हम मनुष्यों के सिर मढा गया।”

    इसी को एक दूसरे कवि ने जो लिखा है उसका पद्यबद्ध अनुवाद सुनिए—–

    “तीन लोक माँ नाहिं समानो, जोती अखंड अपार तुम्हारी।

    भक्तन हृदय वास किंहिं कीन्ही, महिमा अपरम्पार तुम्हारी।।”

    एक उर्दू शायर ने भी ऐसा ही कहा है—-

    अर्ज़-ओ-समा कहाँ तिरी वुसअ’त को पा सके

    मेरा ही दिल है वो कि जहाँ तू समा सके

    -ख़्वाजा मीर ‘दर्द’

    अर्थात् आकाश-पाताल तेरे विस्तार को कहाँ पा सकते हैं, यह तो मेरा ही हृदय है जहाँ तू समा सकता है।

    (3)

    (क) मृत्यु अनिवार्य है, उससे कोई बच नहीं सकता। हाफ़िज़ कहते हैं—–

    चाहे फ़ौलाद और लोहे के चूर्ण से क़िला बनाकर रहो, पर जब समय जायगा, मृत्यु पहुँचकर उसका दरवाजा खटखटायेगी।

    उमर खैय्याम कहते हैं—–

    चाहे मक्का के ज़मज़म नामक कुएँ का पवित्र जल और चाहे अमृत पी लो, पर अन्त में यही होता है कि मिट्टी के नीचे छिप जाओगे।

    (ख) हाफ़िज़ कहते हैं——

    जिसका शयनागार अन्त में दो मुट्ठी मिट्टी (कब्र) है, उससे कह दो कि क्यों गगनस्पर्शी भवन बनवाते हो।

    खैय्याम इसी भाव को इस प्रकार वर्णन करते हैं——

    वह अट्टालिका जो आकाश की बराबरी करती थी और जिसकी डयोढ़ी पर बादशाह लोग अपना मत्था टेकते थे, उसी के कँगूरे पर मैंने देखा कि एक फ़ाखता पक्षी बैठकर कू-कू कू-कू रट रहा था।

    इसमें एक अर्थालंकार भी है। कू का अर्थ कौन है। अर्थात् वह पक्षी पूछता है कि बतलाओ तो वह कौन है जिसका यह ऊँचा महल है।

    (ग) हाफ़िज़ का कथन है—–

    जो इस शब्दमय संसार में आया है उसको अन्त में एक दिन क़ब्र में जाना होगा।

    कबीर ने इसी को इस प्रकार कहा है—–

    जो उय्या सो आथवै, फूल्या सो कुम्हलाइ।

    जो चिणियाँ सो ढहि पड़े, जो आया सो जाइ।।

    (घ) शरीर नश्वर है, इस पर हाफ़िज़ की यह चेतावनी है——

    चेत करो! आयु का धागा बाल के सदृश सूक्ष्म है। दुनिया की चिन्ता क्या है? अपनी चिन्ता करो।

    रहीम ने इसी को इस प्रकार कहा है—-

    रहिमन गठरी धरि कै, रही पवन ते पूरि।

    गाँठ युक्ति कै खुल गई, अन्त घूरि कै धूरि।।

    मुसलमान लोग शरीर को स्थूल होने से खाकी- मिट्टी का अथवा पार्थिव कहते हैं। इसी से रहीम ने शरीर को धूल की गठरी बतलाया है।

    उस्मान कवि कहते हैं—–

    कौन भरोसा देह का, छाड़हु जतन उपाय।

    कागद की जस पूतरी, पानि परे धुल जाय।।

    (च) संसार की असारता पर हाफ़िज़ का कहना है—

    इस संसार में क्या आनन्द मनाया जाय जब प्रतिक्षण कूच का घंटा बजकर सचेत कर रहा है कि चलने के लिए तैयार रहो!

    रहीम ने ठीक इसी को इस प्रकार कहा है—–

    सदा नगारा कूच का, बाजत आठों जाम।

    रहिमन या जग आइ के, को कर रहा मुकाम।।

    (छ) संसार क्या है, हम लोग कहाँ से आये और कहाँ जायेंगे, इत्यादि ऐसी गूढ़ बातें हैं जिनका रहस्य अब तक सामान्यतया किसी को मालूम नहीं हुआ। इसके विषय में हाफ़िज़ कहते हैं—–

    आनन्द मनाओ और संसार का भेद जानने का उद्योग करो, क्योंकि आज तक किसी ने विज्ञान द्वारा इस रहस्य का उद्घाटन नहीं किया और कोई अब करता है।

    खैय्याम ने भी यही बात कही है——

    आयु व्यतीत हो गई, पर कुछ पता लगा।

    रहीम कहते है—-

    रहिमन बात अगम्य है कहन-सुनन की नाहि।

    (ज) संसार कंटकमय है, इस विषय में हाफ़िज़ कहते हैं——

    (1) वह मनुष्य बिलकुल मूढ़ है, जो संसार में आनन्द ढूँढ़ता है।

    (2) फूल की मुस्कान में विशुद्ध प्रेम और स्नेह लेशमात्र नहीं है। हे बुलबुल, तू चिल्ला कि यह दुहाई देने की बात है।

    (3) तेरे मार्ग में तमाम कुँऐ खुदे हुए है, अतः सिर झुकाकर (बिना देखे) चल। तेरे प्याले में विष है, बिना चखे (परीक्षा) पी।

    कबीर ने भी ऐसा ही कहा है—–

    दुनिया भाड़ा दुःख का भरी मुहामुँह मूष।।

    (झ) इसलिए जहाँ तक हो सके हँसी-खुशी के साथ जीवन व्यतीत करो। हाफ़िज कहते हैं——

    (1) सोच करो, आनन्द से जियो, क्योंकि संसार परिवर्तनशील है।

    (2) संसार का व्यापार कभी एक अवस्था में नहीं रहता, कोई मार्ग ऐसा नहीं है जिसका अन्त हो, अतः (वर्तमान अवस्था यदि दुखमय है तो) चिन्ता करो।

    (3) आनन्द का सन्देश मिला कि सोच करो, संसार की व्यथा स्थिर रहेगी, क्योंकि जब वह (सुख को) व्यवस्था रही तब यह (वर्तमान दुःख की) अवस्था क्योंकर स्थिर रहेगी? अर्थात् जैसे वह दशा व्यतीत हो गई, वैसे ही यह भी व्यतीत हो जायेगी।

    फ़ारसी-भाषा के आदि कवि रोदको ने भी ऐसा ही कहा है—

    काली नेत्रवाली सुन्दरियों के साथ आनन्द से जीवन व्यतीत करो, क्योंकि संसार नश्वर है, जीवन का कोई ठिकाना नहीं है।

    उमर खैय्याम ने भी ऐसा ही कहां है—-

    उठी और जगत् को चिन्ता करो, खुश रहो और एक क्षण आनन्द के साथ व्यतीत करो।

    ख़ैयाम ने और भी कहा है—–

    अपने दिन-रात आनन्द के साथ बिताओ, क्योंकि तुम तो रहोगे, पर ऐसे दिन-रात बहुतेरे होते रहेंगे।

    (4)

    जान पड़ता है, दुनिया में सदा से यह अन्देशा रहा है कि सामान्यतया भले आदमियों को तो कोई पूछता नहीं और बुरे आदमियों का आदर होता है। हाफ़िज़ इसकी शिकायते इस प्रकार करते हैं——

    मूर्ख लोग तो गुलाब और मिश्री का शर्बत उड़ाते हैं और बेचारे विद्वान अपने कलेजे का लहू पीते हैं। अरबी घोड़ा तो पालान के नीचे घायल हो रहा है औऱ गदहा सोने का कंठा पहनता है।

    गोस्वामी तुलसीदास भी ऐसा ही कहते है—–

    तुलसी पावस के समय, धरी कोकिलन मौन।

    अब तो दादुर बोलि है, हमें पूछिहैं कौन।।

    रहीम ने भी कुछ शब्दों के परिवर्तन के साथ बिलकुल यही कहा है—

    पावस देखि, रहीम, मन, कोइल साधो मौन।

    अब दादुर वक्ता भये, हम कँह पूछत कौन।।

    (5)

    जो परमात्मा की भक्ति में लीन हो जाते हैं वे साधारण लौकिक मर्यादा की परवा नहीं करते। हाफ़िज कहते हैं——

    यद्यपि बुद्धिमानों के निकट यह बदनामी की बात है, पर हम सांसारिक नेकनामी नहीं चाहते।

    मीराबाई का एक पद्य कुछ इसी से मिलता-जुलता है——

    सन्तन् सँग बैठ बैठ लोक-लाज खोई।

    अब तो बात फैल गई जानत सब कोई।।

    मेरे तो गिरधर गोपाल…….

    (6)

    अब हम हाफ़िज़ की कुछ साधारण नैतिक उक्तियाँ और उद्धृत करना चाहते हैं——

    (क) जीवन थोड़े दिनो का है, अतः बहती गंगा में हाथ धो लो। इसकी हाफ़िज़ इस तरह कहते हैं—–

    संसार का दस दिन का मोह निर्मूल और मिथ्या है, अतः है मित्र! लोगों के साथ नेकी करना ग़नीमत जानो।

    इसको रहीम ने इस प्रकार कहा है—-

    सौदा करने सो कर चलो, रहिमन याही हाट।

    फिर सौदा पैहो नहीं, दूर जान है बाट।

    (ख) तृष्णा कभी पूरी नहीं होती, इस पर हाफ़िज़ कहते हैं——

    प्राण होंठों पर आगये, पर वासना पूरी हुई। आशा का अन्त हो गया परन्तु तृष्णा का अन्त हुआ।

    खैय्याम का वचन है——

    कपाल-रूपी प्याला (मस्तिष्क) कभी कामनाओं से नहीं भरता। भला जो पात्र औंधा हो वह कैसे भर सकता है?

    अलीहज़ीं ने कहा है—-

    संसार में तेरी तृष्णा का दाँत इतना तीक्ष्ण है, यद्यपि मृत्यु तेरे पीछे मुँह बाये खड़ी है।

    (ग) विद्या बिना बुद्धि और निरीक्षण के व्यर्थ है। हाफ़िज़ कहते हैं—–

    पाठशाला तथा विद्या-सम्बन्धी तर्क-वितर्क इत्यादि सब व्यर्थ है, यदि मनुष्य में बुद्धि नहीं है और उसकी दृष्टि निरीक्षण करनेवालो नहीं है।

    इसी की सादी ने इस प्रकार कहा है—–

    यदि विद्या के अनुसार कार्य करोगे तो उससे क्या लाभ है? आखिर आँखें इसीलिए तो हैं कि उनसे देखा जाय।

    (घ) सत्संग के लाभ के सम्बन्ध में हाफ़िज़ कहते हैं-

    जिसके प्रतिबिम्ब मात्र से कलुषित हृदय स्वर्ण के समान दिव्य हो जाता है वह रसायन साधुओं का सत्संग है।

    कबीर कहते हैं——

    कबीर संगत साध की कहे निरफल होइ।

    चन्दन होसो बावना, नींब कहासी होइ।।

    (च) इसलिए अच्छे आदमियों की संगत् करनी चाहिए और बुरे लोगों से दूर रहना चाहिए। हाफ़िज़ कहते हैं—–

    सज्जनों के पास जाओ और (यदि वे कहें तो) गला खोलकर उनके सामने कर दो, पर दुर्जनों से बचकर रहो।

    खैय्याम ने कहा है—-

    पवित्र आचरणवालों तथा बुद्धिमानों से संसर्ग करो और नालायकों से हज़ार कोस भागो।

    सादी कहते है—-

    मूर्ख से तीर के समान दूर भागो, उसके साथ दूध और खांड की तरह मिलो।

    हाफ़िज़ कहते हैं-

    मूर्ख के साथ क्षण भर रहने की अपेक्षा सौ वर्ष तक बन्दी-गृह में रहना अच्छा है।

    अलीहज़ीं ने कहा है—–

    इससे बढ़कर कोई यंत्रणा नहीं हो सकती कि एक मूर्ख के बराबर एक विद्वान बिठा दिया जाय।

    (छ) सन्तोष पर हाफ़िज ने लिखा है—–

    स्वतंत्रता से एक कोने में सन्तोष से बैठ रहना ऐसी निधि है जो तलवार के बल से भी बादशाहों को प्राप्त नहीं होती।

    सादी कहते हैं—

    हे सन्तोष, तू मुझे धनवान् कर क्योंकि तुझसे बढ़कर कोई पदार्थ नहीं है।

    (ज) बगुला भगतों और पाखण्डियों की खबर हाफ़िज ने इस प्रकार की है—–

    ये पाखंडी उपदेशक जो मस्जिद की वेदी पर विराजमान होते है जब एकान्त में जाते हैं तब कुछ और ही (विपरीत) काम करते हैं।

    खैय्याम ने कहा है—–

    तुम डींग मारते हो कि हम शराब नहीं पीते, पर सैकड़ों ऐसे कर्म करते हो जो शराब पीने से बदतर है।

    मोलाना रूम ने भी ठीक यही बात कही है—

    हाथ में तो माला है और मन में इधर-उधर की ऊटपटाँग तरंगे उठ रही है तो इस प्रकार माला जपने में क्या लाभ है?

    (झ) मनुष्य को पहले अपने ही गुप्त-दोष का निरीक्षण करना चाहिए, इस विषय में हाफ़िज़ ने कहा है-

    तुम अच्छे हो या बुरे, यह अपनी अन्तरात्मा से पूछो। क्यों दूसरा तुम्हारी परीक्षा करे।

    ऐसा ही कबीर ने भी कहा है—-

    सो ज्ञानी आप विचारै।

    कहाँ तक बढाया जाय। हाफ़िज़ की ऐसी अनेक उक्तियाँ है। दो-एक औऱ ज्ञातव्य बातें लिखकर इस लेख को समाप्त करेंगे।

    (7)

    (1) यह एक विलक्षण बात है कि हाफ़िज़ की एक रुबाई (चतुष्पदी) कुछ शब्दों के हेर-फेर के साथ उमर खैय्याम की रुबाई से बिलकुल मिल जाती है। इस्लाम-धर्म के अनुसार स्वर्ग का जो चित्र है उस पर हाफ़िज़ व्यंग्य के साथ कहते हैं——

    कहते हैं, ऐसा स्वर्ग होगा जहाँ शराब और हूरें (अप्सराएं) होंगी। फिर यदि हम यहाँ शराब और माशूक़ (प्रियतम) को ग्रहण करें तो क्या बुरा है, क्योंकि अन्त में यही तो होना है?

    उमर खैय्याम ने भी बहुत पहले बिलकुल यहीं कहा था-

    कहते हैं, बिहिश्त में हूरें मिलेंगी और वहां निर्मल शराब और शहद मिलेगा। यदि हम मदिरा और माशूक का सेवन करे तो ठीक ही है, क्योंकि अन्त में यही तो मिलना है।

    (2) एक बात और ध्यान देने योग्य है। जैसे संस्कृत में शाहूत शाहि का शब्द मिलता है (देखो प्रयाग के अशोक-स्तम्भ पर समुद्रगुप्त के लेख की 23वीं पंक्ति), वैसे ही हाफ़िज़ यद्यपि ईरान के शायर थे और कभी हिन्दुस्तान में क़दम तक नहीं रक्खा था, तो भी उन्होंने एक संस्कृत-शब्द का प्रयोग बड़ी सफ़ाई के साथ किया है। अपने बादशाह को प्रशंसा में वे लिखते हैं—–

    केवल योरपवाले तुझे कर देते हैं, बल्कि अफ़्रीका के महराज भी तुझे कर देते हैं।

    यह महराज शब्द ईरान में क्योंकर पहुँचा, इसका ठीक पता नहीं चलता, पर हम देखते है कि हाफ़िज़ से बहुत पहले हकीम असदी तूती ने भी इस शब्द का प्रयोग किया है। उन्होंने लिखा है—-

    भारत में महराज नाम का एक बादशाह था, जो प्रत्येक कार्य में निपुण था।

    कुछ भी हो, इससे इतना अवश्य मालूम होता है कि भारत और ईरान का सम्बन्ध बहुत पुराना है।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY
    बोलिए