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मैकश अकबराबादी

शशि टंडन

मैकश अकबराबादी

शशि टंडन

MORE BYशशि टंडन

    मेरी निगाह ने हस्ती को दी है ज़ौ मैकश

    मैं देख लूं तो ये मोती है वर्ना शबनम है

    (मैकश अकबराबादी)

    हज़रत सय्यद मोहम्मद अ’ली मैकश अकबराबादी दास्तान-ए-अदब आगरा के वो आख़िरी ज़ी-इ’ल्म-ओ-नज़र अदीब शाइ’र थे जिनके विसाल के साथ ही ऐवान-ए-अदब आगरा एक शम्अ’ जो बाक़ी रह गई थी वो भी ख़ामोश हो गई। हज़रत मैकश अकबराबादी रहमतुल्लाहि अ’लैह की ज़ात-ए-गिरामी के दम ही से आगरा के अदबी मक़ाम-ओ-मर्तबा का भरम क़ायम था।

    आपके इंतिक़ाल के बा’द यूँ महसूस होता है:

    ‘जो हम हों तो ये दुनिया मक़ाम-ए-हू सी है

    ख़ानदान-ए-अस्हाब-ए-रुश्द-ओ-हिदायत के चश्म-ओ-चराग़ हज़रत मैकश अकबराबादी उ’लूम-ए-बातिनी-ओ-ज़ाहरी से आरास्ता थे। आपने दीनी ता’लीम आगरा की शाही जामे’ मस्जिद के मदरसा आ’लिया में मुकम्मल की और मदरसा आ’लिया से दर्स-ए-निज़ामिया की सनद हासिल कर के फ़ारिग़ुत्तहसील क़रार पाए। जहाँ तक उ’लूम-ए-बातिनी का सवाल है तो अस्लाफ़ के शेवा-ए-शरीअ’त-ओ-तरीक़त पर अवाइल-ए-उ’मरी ही से अ’मल-पैरा थे। बा’द-अज़ाँ ख़ानक़ाह-ए-नियाज़िया बरेली शरीफ़ के साहिब-ए-कश्फ़-ओ-करामात बुज़ुर्ग हज़रत शाह मुहीउद्दीन सिराजुस्सालिकीन रहमतुल्लाहि अ’लैह से शरफ़-ए-बैअ’त हासिल हुआ। हज़रत सिराजुस्सालिकीन की क़ुर्बत ने आपके सीना को इ’ल्म-ए-बातिन से मुनव्वर कर दिया। इस ज़िम्न में हज़रत मैकश अकबराबादी साहिब फ़रमाते हैं ‘उनकी’ (हज़रत सिराजुस्सालिकीन) की ज़ियारत के बा’द मुझे जुनैद-ओ-बायज़ीद की ज़ियारत की तमन्ना रही। हज़रत से तसव्वुफ़ के रिसाले सबक़न सबक़न पढ़े हैं और तक़रीरें सुनी हैं ।वही मेरे इ’ल्म-ए-तसव्वुफ़ का सरमाया है’।

    हज़रत मैकश अकरबराबादी सिर्फ़ वो सूफ़ी नहीं थे जिनके ज़िम्न में हज़रत अ’ल्लामा इक़बाल ने फ़रमाया था :

    ‘मीरास में आई है उन्हें मस्नद-ए-इर्शाद’

    हज़रत मैकश के बुज़ुर्गों में सय्यिद अमजद अ’ली साहिब असग़र, सय्यद मुनव्वर अ’ली शाह साहिब, सय्यद मुज़फ़्फ़र अ’ली शाह साहिब इलाही और सय्यद असग़र अली शाह साहिब वो मोहतरम हस्तियाँ थीं जिन्हों ने अपने इ’ल्म-ओ-फ़ज़्ल और इ’बादत-ओ-रियाज़त से आगरा और बैरून-ए-आगरा के अ’वाम को गर्वीदा बना लिया था। उन सुफ़िया-ए-किराम के अ’क़ीदत-मंदों का वसी’अ हल्क़ा था। हज़रत मैकश को बुज़ुर्गों की सनद-ए-इर्शाद तो विर्सा में मिली लेकिन मुख़्तलिफ़ तरीक़ा से आपके वालिद-ए-माजिद हज़रत असग़र अ’ली शाह साहिब आपके अ’हद-ए-तिफ़्ली ही में इंतिक़ाल फ़रमा गए।

    हज़रत सय्यद अहमदुल्लाह शाह क़ादरी

    हज़रत सय्यद मुनव्वर अ’ली शाह क़ादरी

    हज़रत सय्यद अमजद अ’ली शाह क़ादरी

    हज़रत सय्यद असग़र अ’ली शाह क़ादरी

    लिहाज़ा वालिद-ए-मोहतरम के विसाल के बा’द हज़रत मैकश अकबराबादी ने जो इ’ल्म-ए-ज़ाहिरी-ओ-बातिनी हासिल किया वो आपके मुतालिआ’, मेहनत-ए-शाक़्क़ा, इ’बादत-ओ-रियाज़त और हज़रत क़िब्ला शाह मुहीउद्दीन सिराजुस्सालिकीन की क़ुर्बत और दस्त-ए-करम का नतीजा था कि सिर्फ़ ‘मीरास’ में आई हुई सनद-ए-इर्शाद का फल।

    हज़रत मैकश ने अह्ल-ए-ख़िर्क़ा और अह्ल-ए-ख़ामा दोनों के हल्क़ा में यकसाँ पज़ीराई और इ’ज़्ज़त हासिल की जो इस दुनिया में बहुत कम लोगों को नसीब हुई है।हज़रत मैकश अकबराबादी जहाँ गुफ़्तार-ओ-किर्दार के ए’तबार से यक्सानियत रखते थे वहीं फ़िक्र-ओ-नक़्द के मुआ’मले में भी आपके यहाँ कोई तज़ाद नहीं था। आप पुर-शुकूह-ओ-पुर-कशिश शख़्सिय्यत के मालिक थे। ख़ानदानी शराफ़त-ओ-नजाबत के साथ आपकी आ’लिमाना-ओ-मुदल्लल गुफ़्तुगू आपकी मक़नातीसी शख़्सिय्यत को और ज़्यादा पुर-कशिश बना देती थी। ख़ानदानी सियादत और अ’क़ीदत-मंदों और परस्तारों के वसीअ’ हल्क़ा के बावजूद आप क़नाअ’त-पसंद, कम-सुख़न और मुनकसिरुल-मिज़ाज वाक़े’ हुए थे। आपके इ’ल्मी तबह्हुर की इंतिहा ये थी कि किसी भी पेचीदा दीनी और रुहानी मस्अला या अदबी नुक्ता पर आप निहायत इज्माल-ओ-इख़्तिसार के साथ सैर-हासिल गुफ़्तुगू फ़रमाते थे। हज़रत अ’ल्लामा सीमाब अकबराबादी हज़रत मैकश अकबराबादी के अदबी-ओ-रुहानी मक़ाम-ओ-मर्तबा का ए’तराफ़ करते हुए फ़रमाते हैं

    फ़ित्रत में इ’ल्म-ओ-फ़ज़्ल की दुनिया लिए हुए

    सीरत में जल्वा-ए-यद-ए-बैज़ा लिए हुए

    ख़िर्क़ा ब-दोश मह्फ़िल-ए-नाज़-ओ-नियाज़ में

    सज्जादा-ओ-गलीम-ओ-मुसल्ला लिए हुए

    ख़ुद मैकश और ख़ुद ही क़दह-नोश-ओ-मय-फ़रोश

    जाम-ओ-सुबू-ओ-शीशा-ओ-सह्बा लिए हुए

    मैकश अकबराबादी की शख़्सिय्यत जामे-ए’-सिफ़ात और अंजुमन की सी थी।पाक तीनत और मय-ए-तहारत से मख़्मूर हज़रत मैकश के हम-अ’स्र शो’रा-ओ-उदबा में अ’ल्लामा नियाज़ फ़तहपुरी, फ़ानी बदायूनी, मानी जानसी, जिगर मुराबादी, जोश मलीहाबादी, अहमद अकबराबादी , फ़िराक़ गोरखपुरी आपकी अदबी हैसिय्यत के क़ाइल-ओ-मोत’रिफ़ थे। अ’ल्लामा नियाज़ फ़तहपुरी फ़रमाते हैं ‘मैकश आगरे की अदब ख़ैज़ सर-ज़मीन से तअ’ल्लुक़ रखते हैं और वहाँ की तमाम फ़न्नी वज़्न रखने वाली अदबी रिवायात से वाक़िफ़ हैं इसीलिए उनके कलाम में वज़्न है, फ़िक्र है, मतानत है, संजीदगी है। और इसी के साथ शगुफ़्तगी और तरन्नुम भी। उनके जज़बात जितने सुथरे हैं उतना ही ठहराव उनके इज़हार में भी पाया जाता है।

    नियाज़ फ़तहपुरी ने जो कुछ फ़रमाया वो सदाक़त-ओ-हक़ाइक़ पर मब्नी है। कलाम-ए-मैकश में फ़न्न, फ़िक्र-ओ-फ़ल्सफ़ा का हसीन इम्तिज़ाज है। चांद अशआ’र आप भी मुलाहिज़ा फ़रमाएं।

    मेरी उ’म्रें सिमट आई हैं उनके एक लम्हे में

    बड़ी मुद्दत में होती है ये उ’म्र-ए-जावेदाँ पैदा

    ये अपना अपना मस्लक है ये अपनी अपनी फ़ित्रत है

    जलाओ आशियाँ तुम हम करेंगे आशियाँ पैदा

    ये हाल किया है कि आग़ोश में तुझे लेकर

    तमाम उ’म्र तिरा इंतिज़ार मैंने किया

    बुत-ख़ाने तिरी ज़ुल्फ़ से ता’मीर किए हैं

    अब्रू को तिरी ताक़-ए-हरम हमने किया है

    गुलहा-ए-परेशाँ ये शहीदों का फ़साना

    खून-ए-दिल-ए-शब्नम से रक़म हमने किया है

    हासिल-ए-इ’श्क़ ग़म-ए-दिल के सिवा कुछ भी नहीं

    और अगर है तो सब उनका है मिरा कुछ भी नहीं

    जो ख़ुदा दे तो बड़ी चीज़ है एहसास-ए-जमाल

    लेकिन इस राह में ठोकर के सिवा कुछ भी नहीं

    वक़्त के साथ बदल जाती है दुनिया मैकश

    जिसपे हम जीते थे वो अ’हद-ए-वफ़ा कुछ भी नहीं

    इस दर्जा दुश्मनी तो मुक़द्दर की बात है

    वर्ना वो एक उ’म्र मिरे राज़-दाँ रहे

    अह्ल-ए-हरम वहाँ हैं यहाँ अह्ल-ए-दैर हैं

    अब किससे जा के पूछिए इन्सां कहाँ रहे

    है ये इन्सान ही वो क़िब्ला-ए-बर-हक़ कि जिसे

    सज्दा करने के लिए दैर-ओ-हरम आते हैं

    लोग तो और भी थे दुनिया में

    क्यों मिरे दिल को भा गए वो लोग

    हर बहाने हैं दिल को उनकी याद

    कुछ हुआ और गए वो लोग

    एक हल्का सा तबस्सुम मिरी रातों का चराग़

    वो भी तेरे लब-ए-नाज़ुक को गिराँ लगता है

    मुझे चमन में नसीम-ए-बहार लाई है

    चमन में कौन मिरे दिल की बात समझेगा

    मचा हुआ हो जहाँ रंग-ओ-बू का हँगामा

    वहाँ दिलों की कोई वारदात समझेगा

    आँखों में नमी दिलों में यादें

    हैं सुब्ह को दास्तान-ए-शब हम

    कुछ समझा किसी ने कुछ किसी ने

    हैं किसका पयाम ज़ेर-ए-लब हम

    मैकश अकबराबादी ने एक तवील मुद्दत तक अदब-ओ-अदीब दोनों के लिए अपनी उ’म्र का एक बड़ा हिस्सा वक़्फ़ किया। आप के दीवान-ख़ाना की अदबी नशिस्तों के ज़रिआ’ मजाज़, जज़बी और ताबां जैसे दरख़्शाँ अदब के सितारों को ज़िया हासिल हुई। आज के दौर के अहम नक़्क़ाद-ओ-अदीब डॉक्टर मुग़ीस फ़रीदी भी हज़रत-ए-मैकश अकबराबादी के सामने ज़ानू-ए-अदब तह कर चुके हैं। डॉक्टर मुग़ीस फ़रीदी ही की तरह दीगर अह्ल-ए-नक़्द-ओ-रक़म और अस्हाब-ए-ज़ौक़-ओ-शौक़ ने आपकी सोह्बत से फ़ैज़ हासिल किया।

    मैकश अकबराबादी ने नज़्म-ओ-नस्र दोनों पैराया में कुतुब तसनीफ़ की हैं। आपने अदब,तसव्वुफ़ और दीगर मौज़ूआ’त पर तक़रीबन70 मज़ामीन क़लम-बंद किए हैं। निगार, नुक़ूश और शाइ’र अदबी रसाइल में आपकी ज़ात-ए-गिरामी और अदब पर ख़ुसूसी शुमारे शाए’ हुए। आपको मुख़्तलिफ़ अंजुमनों और अकादमियों से अदबी ख़िदमात के लिए ए’ज़ाज़ात-ओ-इन्आ’मात हासिल हुए। हज़रत मैकश अकबराबादी आगरा की इस क़दर बुलंद मर्तबा रुहानी-ओ-अदबी शख़्सिय्यत थे कि उन्हें दुनियावी इ’नआ’म-ओ-इक्राम की कोई ख़्वाहिश थी। तसव़्वुफ से वाबस्तगी की वजह से हज़रत की नज़र में अस्ल मक़ाम-ओ-मर्तबा का तअ’य्युन करना एक मुश्किल काम है। सूफ़िया-ए-किराम के सिल्सिले में कहा जाता है कि उनके विसाल के बा’द हज़रत मैकश अकबराबादी ने दुनियावी जाह-ओ-जलाल या इन्आ’म-ओ-इक्राम की कभी कोई परवाह की।

    आप बे-लौस ख़िदमात अंजाम देते रहे। ब-क़ौल हज़रत-ए-मैकश:

    गदा-ए-ख़ल्क़ नहीं साहिबान-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र

    ज़िंदा-बाद की ख़्वाहिश ख़ौफ़-ए-मुर्दा-बाद

    हज़रत मै-कश अकबराबादी आ’लिम-ए-दीन ,सूफ़ी, अदीब-ओ-शाइ’र थे। आपने तसव्वुफ़, फ़ल्सफ़ा, अदब और दीगर मौज़ूआ’त पर आ’ला-पाए की तसानीफ़ बतौर यादगार छोड़ी हैं। नक़्द-ए-इक़बाल, मसाइल-ए-तसव्वुफ़ फ़र्ज़ंद-ए-ग़ौसुल-अ’ज़म, नग़्मा और इस्लाम, तौहीद-ओ-शिर्क कुतुब के अ’लावा हर्फ़-ए-तमन्ना, मैकदा और दास्तान-ए-शब शे’री-ओ-फ़न्नी लताफ़तों और नज़ाकतों के मज्मुए’ हैं। हज़रत मैकश अकबराबादी ने सत्तर से ज़्यादा मुख़्तलिफ़ मौज़ूआ’त पर मज़ामीन भी क़लम-बंद किए। आपकी आगरा की अदबी समाजी-ओ-ता’लीमी अंजुमनों से वाबस्तगी कम अहम थी। जामिआ’ उर्दू अ’लीगढ़ का क़ियाम आगरा ही में हुआ था और उस के क़ियाम के वक़्त जामिआ’ उर्दू को आपका भी अ’मली तआ’वुन हासिल हुआ था ।ये तआ’वुन बा’द के बरसों में भी जारी रहा। बज़्म-ए-इक़बाल, बज़्म-ए-नज़ीर की आपने ता-हयात सर-परस्ती फ़रमाई।

    आप आ’शिक़-ए-रसूल-ए-अरबी, मद्दाह-ए-मौला मुश्किल-कुशा हज़रत अ’ली मुर्तज़ा और मुहिब्ब-ए-अह्ल-ए-बैत, और औलिया-ए-किराम और उ’लमा-ए-उज़्ज़ाम की हयात-ए-मुक़द्दसा की जीती-जागती तस्वीर थे। आगरा आपका वतन था और उसी की ख़ाक में आज आप आराम फ़रमा रहे हैं

    है उस ख़ाक में मेरी उ’म्रों का रंग-ओ-बू

    मिरा वतन इलाही हमेशा जवाँ रहे

    आपके इंतक़ाल-ए-पुर-मलाल पर दिल्ली से कराची (पाकिस्तान तक मातमी-ओ-ता’ज़ियती नशिस्तें हुइं। आपके विसाल के बा’द, बहार-ए-गुल्शन-ए-अकबराबाद ख़िज़ाँ में तब्दील हो गई।

    ‘आई गुल्शन में ज़रा मौज-ए-सबा और गई’

    मैकश अकबराबादी के विसाल पर मुख़्तलिफ़ तारीखें कही गईं जो फ़न्न-ए-तारीख़-गोई का नमूना और हज़रत मैकश को बेहतरीन ख़राज-ए-अ’क़ीदत हैं।

    वासिल-ए-हक़ मोहम्मद अ’ली शाह की

    है ये तारीख़ ब-फ़ैज़-ए-शाह-ए-नजफ़

    लुत्फ़-ए-साक़ी-ए-कौसर है मख़्मूर पर

    बाग-ए-जन्नत में मैकश हैं साग़र ब-कफ़

    1991

    (तय्यब अ’ली काज़मी अकबराबादी)

    वक़्त-ए-रुख़्सत हज़रत-ए-मैकश ये कह कर चल दिए

    सू-ए-कौसर था यक़ीनी एक दिन जाना मुझे

    और फिर दा’वे से ये फ़रमा गए ख़ुल्द-आशयाँ

    याद रखेंगे सदा ख़ासान-ए-मय-ख़ाना मुझे

    1919

    (तय्यब अ’ली काज़मी अकबराबादी)

    हज़रत क़िब्ला सय्यद मोहम्मद अ’ली शाह मैकश अकबराबादी के मज़ार-ए-अक़्दस की लौह पर आपका फ़रमाया हुआ शे’र ही सब्त है। ये शे’र आपके मज्मुआ’-ए-कलाम दास्तान-ए-शब के आख़िरी सफ़हा पर कत्बा-ए-क़ब्र के उ’न्वान से शाए’ हुआ है।

    जो फ़र्श-ए-गुल पर सो सका जो हँस सका जो रो सका

    उस ख़ाक पे इस शोरीदा-सर ने आख़िर आज आराम किया

    आज दबिस्तान-ए-अकबराबाद उस मज़बूत सुतून से महरूम है जिस पर आगरा के अदबी ऐवान के बाम-ओ-दर सहारा लिए हुए थे। साहिब-ए-क़लम हज़रत मैकश अकबराबादी ने इस क़दर लतीफ़-ओ-मुतअस्सिर-कुन निगारिशात के ज़रिआ’ उर्दू अदब में बेश-बहा इज़ाफ़ा किया कि आपकी निगारिशात से नवा-ए-सरोश का एहसास होता है। हज़रत मैकश अकबराबादी को डॉक्टर सरवर अकबराबादी (कराची, पाकिस्तान) ने हज़रत मैकश के शायान-ए-शान ही ख़राज-ए-अ’क़ीदत पेश किया है।

    तिरे अफ़्कार से अंदाज़ा-ए-इल्हाम होता है

    मोहब्बत का तख़ातुब इ’शक़ का पैग़ाम होता है

    तिरे मैख़ाना-ए-इ’र्फ़ाँ का इक-इक रिंद मैकश

    सुरूर-ओ-कैफ़-ओ-मस्ती का छलकता जाम होता है

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