Indian Sufism
हिंदुस्तान सदियों से सांस्कृतिक चेतना एवं वैचारिक चिंतन की उर्वर भूमि रहा है. कोस कोस पर बदलती भाषाएं, पहनावे एवं मौसम इस संस्कृति की विविधता को जाने किस रंग में रंगते हैं कि दिलों में एकता और सद्भाव का रंग गाढ़ा और गाढ़ा होता चला जाता है. हिंदुस्तान में सूफियों का आगमन एक खुशबू की तरह हुआ था जो यहाँ की आवो हवा और इसकी संस्कृति में ऐसी घुली कि पूरा हिंदुस्तान आज भी इस साझी संस्कृति की खुशबू से महक रहा है .सुल्ह ए कुल और भाईचारे का सन्देश देते ये सूफी हिंदुस्तान में नफरत की तलवार नहीं बल्कि प्रेम का सुई धागा लेकर दाखिल हुए थे .
बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब भारत में पहला सूफी सिलसिला ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती द्वारा पहली दफा स्थापित हुआ वह काल हिंदुस्तान में वीरगाथा कवियों और नाथ सिद्धों का था. रासो काव्य अपने चरम पर था. एक तरफ जहाँ चंदवरदाई जैसे कवि पृथ्वीराज रासो जैसे महाकाव्य लिख रहे थे वहीं दूसरी तरफ जयदेव जैसे कवि गीतगोविन्द जैसे अमर महाकाव्य लिख रहे थे. सूफी संतों के भारत में पदार्पण से पहले ही तसव्वुफ़ आम जन में लोकप्रिय हो चुका था और लोग इन्हें बेहद सम्मान की दृष्टि से देखते थे. हालाँकि तब तक तसव्वुफ़ के सारे बड़े नाम अरब, फारस, मध्य एशिया एवं स्पेन से थे .
भारत अपने आप में एक अनोखा मुल्क रहा है. यह वो वाहिद खित्ता है जहाँ अलग अलग संस्कृतियां आकर आपस में यूँ घुल मिल गयीं कि एक साझी संस्कृति का खमीर तैयार हो गया जिससे हमारी मौजूदा जंगा जमुनी तहज़ीब का निर्माण हुआ. सूफी भारत में फ़ारसी, तुर्की और अरबी बोलते हुए आये थे पर हिंदुस्तान में आकर बसने के बाद सूफियों ने कई भारतीय भाषाओँ में कलाम कहे और ग्रन्थ लिखे. इनकी रचनाओं में तसव्वुफ़ के सिद्धांतो के साथ साथ भारतीय रंग भी इतना दिखा कि इस पूरी यात्रा को हिंदुस्तानी तसव्वुफ़ कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी .
तसव्वुफ़ के इतिहास और इसकी शिक्षाओं पर हज़ारों किताबें लिखी जा चुकी हैं और लिखी जा रही हैं. हम इस यात्रा के कुछ दिल छू लेने वाले पड़ावों का ज़िक्र करते हैं जिन पड़ावों को हम हिंदुस्तानी तसव्वुफ़ कह सकते है और जिसका रंग पूरी दुनियां में और कहीं नहीं मिलता.
हिंदुस्तान में सूफियों ने आपसी सद्भाव और भाईचारे का न सिर्फ सन्देश दिया बल्कि अपने जीवन की सादगी से भी हज़ारों को प्रभावित किया .हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियों का आपस में मेल जोल भी सूफियों के प्रयासों की ही देन है .बाबा फरीद और हज़रत निजामुद्दीन औलिया की ख़ानक़ाहों में योगियों और पंडितों का आना जाना लगा रहा था हज़रत अमीर खुसरौ ने हिन्दवी और फ़ारसी में कलाम लिखे जो आज भी जनमानस की बीच प्रचलित हैं और गाये जाते हैं . सूफी खानकाहें शायद एक मात्र ऐसी जगह थी जहाँ जाति, धर्म और संप्रदाय से पृथक एक साथ बैठकर स्वछन्द चर्चाएं होती थी .तेरहवी शताब्दी की पूर्वार्ध में शेख हमीदुद्दीन नागौरी ने राजस्थानी किसान का जीवन चुना . वो आम लोगों की तरह शाकाहारी खाना खाते थे और हिन्दवी बोलते थे . उन्होंने बादशाह द्वारा एक गाँव का फतूह अस्वीकार कर दिया और एक बीघे पर खुद खेती करके जीवनयापन करते थे .उनकी पत्नी आम राजस्थानी औरतों की तरह गाय का दूध निकालती थीं और कपड़े सीती थीं .उनकी इस मानवीय सरल जीवन शैली ने काफी लोगों को आकर्षित किया.
कश्मीर के सुल्तान जैनुल आबिदीन (१४२०-७० ) ने संस्कृत ज़ुबान को खूब बढ़ावा दिया और कई किताबों का संस्कृत से फ़ारसी और कश्मीरी में अनुवाद करवाया .उसी के काल में कश्मीरी कवि और इतिहासकार श्रीवर ने कथाकौतुक लिखी जो मुल्ला जामी के युसूफ ज़ुलेखा का संस्कृत अनुवाद है .
बंगाल के सुल्तान हुसैन (१४९३ -१५१९) और उसके पुत्र नुसरत शाह ने बंगाली वैष्णव साहित्य को आश्रय दिया और उसके ही प्रयासों के फलस्वरूप रामायण और महाभारत का बंगाली भाषा में अनुवाद हुआ .
दारा शिकोह (१६१५ -१६५९) ने खुद भागवद गीता और ५२ उपनिषदों का फ़ारसी में तर्जुमा किया .उसकी दो रचनायें रिसाला ए हकनुमा और मजमा उल बहरैन हिन्दू – मुस्लिम विचारों के आदान प्रदान की जीवंत मिसालें हैं. दारा शिकोह ने लघु योग वशिष्ठ का दोबारा फ़ारसी में तर्जुमा करवाया, उसने दलील दी कि इसके पहले के तर्जुमे सही ढंग से अनुवादित नहीं हुए हैं .इस किताब की भूमिका की अनुसार ख्वाब में दारा शिकोह ने भगवान राम और ऋषि वशिष्ठ को देखा. ऋषि वशिष्ठ ने उनसे फ़रमाया कि दारा और श्री राम दोनों भाई थे क्यूंकि दोनों ने सत्य की लिए लड़ाई लड़ी थी. उसके बाद ख्वाब में श्री राम ने दारा को गले लगाया और वशिष्ट मुनि द्वारा दी गयी मिठाइयां भी खिलाई. इस ख्वाब का दारा पर इतना प्रभाव पड़ा कि उसने पूरी किताब का अपनी निगरानी में दोबारा अनुवाद करवाया.
कृष्ण मिश्र के फ़लसफ़ियाना विषय को मौजूं बनाने वाले ड्रामे प्रबोध चंद्रोदय का अनुवाद वाली राम ने गुलज़ार ए हाल के नाम से किया .श्री शंकराचार्य लिखित आत्म विलास का फ़ारसी में अनुवाद चंद्रभान ब्राह्मण ने नाज़ुक खयालात के नाम से किया .चंद्रभान ब्राह्मण दारा शिकोह के वज़ीर थे और उन्होंने दारा शिकोह के बाबा लाल बैरागी के साथ हुए संवाद को कलमबद्ध किया है .दारा शिकोह के प्रयत्नों के फलस्वरूप अब्दुल रहमान चिश्ती ने मिररत उल हक़ायक़ लिखी जो भागवद गीता की सूफी शरह है . अल ग़ज़ाली की किताब कीमिया ए सादात का हिंदी अनुवाद पारस प्रभाग का पाठ आज भी भारतीय आश्रमों में नियमित होता है .
शेख खटटू ने गुजरती भाषा में कलाम लिखे .कश्मीर में ऋषि सिलसिला के संतों ने भी लोक व्यवहार को देखकर शाकाहार अपनाया और सब धर्मों के लोगों में अपनी बात पहुचायी.सूफी ख़ानक़ाहों में आज भी आम हिन्दवी बोलचाल के शब्द जैसे भाई, माई, बेटा, भाभी इत्यादि मिल जाते हैं. हज़रत निजामुद्दीन औलिया भी ठेठ बदायुनी ज़ुबान में लड़कों को लाला कहकर बुलाया करते थे.
सूफियों ने भारतीय साहित्य को ही उर्वर नहीं किया वरन भारत की सम्प्रभुता के लिए भी उन्होंने संघर्ष किया .जहाँ चिश्ती सूफियों ने बादशाहों के दरबार में जाने का विरोध किया वहीँ भारतीय स्वतंत्रता की पहली लड़ाई सूफियों और निर्गुणी संतों ने ही १७७६ में सन्यासी फ़क़ीर आंदोलन की अगुवाई की जिसमे सूफी संतों और एक डंडी सन्यासियों ने मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई का बिगुल छेड़ा था . इस आंदोलन का नेतृत्व मजनू शाह मलंग, टीपू शाह और भवानी पाठक जैसे नेताओं ने किया था .
सूफी भारतीय संस्कृति में आकर ऐसे रच बस गए जैसे कोई फ़ना होकर बक़ा रहता है, बक़ौल सूफी जो बंदा ए ख़ास होता है वो बंदा ए आम होता है. हिंदुस्तानी तसव्वुफ़ का सफर रंगों का सफर है और यह रंग वो रंगरेज़ है जो अपने साथ साथ तमाम दिलों को मोहब्बत के रंग से सराबोर कर देता है
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