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औघट शाह वारसी और उनका कलाम

सुमन मिश्रा

औघट शाह वारसी और उनका कलाम

सुमन मिश्रा

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    हिन्दुस्तान की सूफ़ी भक्ति परम्परा कई मायनों में इसे ख़ास बनाती है.सूफ़ियों और भक्ति कवियों ने अपने अपने क्षेत्र के प्रचलित प्रतीकों का अपने काव्य में प्रयोग किया और प्रेम और सद्भावना के सन्देश को आ’म किया. यही कारण है कि हिन्दुस्तान में तसव्वुफ़ और भक्ति आन्दोलन के विविध रूप मिल जाते हैं और हर क्षेत्र का अपना एक विशिष्ट सूफ़ी साहित्य है जो इसे क्षेत्र विशेष के अलग अलग रंगों की संस्कृति में रंगा होने के कारण एक ही सन्देश को रोचक तथा लोकप्रिय बनाता है. दकनी सूफ़ी कलाम में जहाँ चक्की-नामा जैसे काव्य मिल जाते हैं वहीं पंजाबी सूफ़ी कलाम में वही सन्देश पंजाबी संस्कृति की चाशनी में लिपटा हुआ मिलता है. दकनी, सिन्धी, पंजाबी और गूजरी की ही तरह अवधी सूफ़ी साहित्य की भी अपनी एक अलग धज है. अवधी सूफ़ी साहित्य अवध में प्रचलित प्रतीकों और शब्दावलियों का एक ऐसा समन्वय प्रस्तुत करता है कि पूरा अवध सूफ़ियों के कलाम में चलता फिरता, रक्स करता नज़र आता है. शायर सिर्फ़ शाइ’री के ज़रिये अपनी बात कहता है बल्कि वह अपने समय के रीति रिवाजों, प्रचलित मान्यताओं और परिघटनाओं का भी साक्षी होता है और उसकी शाइ’री में भविष्य के लिए यह वर्तमान सुरक्षित हो जाता है. अवधी सूफ़ी साहित्य बहुत विशाल है. यहाँ एक तरफ़ शाह काज़िम क़लन्दर, और शाह तुराब अ’ली क़लन्दर जहाँ कृष्ण भक्ति पदों द्वारा अपने अविनाशी महबूब की चिरौरी करते मिल जाते हैं वहीं वारसी सूफ़ी संतों का पूरा कलाम अवध और अवध की गंगा जमुनी तहज़ीब की अगुआई करता हुआ प्रतीत होता है. सूफ़ीवाद के इस बाग़ में सारी एक सी आत्माएं रहती हैं. विभिन्न रंगों के फूल एक ही ख़ुशबू लुटाते प्रतीत होते हैं. हज़रत औघट शाह वारसी अवध के एक ऐसे सूफ़ी थे जिन्होंने सूफ़ी परंपरा को अवध की सूफ़ी परम्परा बना दिया. औघट शाह वारसी के दोहे आज भी जन मानस के ह्रदय पर अंकित हैं.

    जनकवि का अध्ययन करने में जो सबसे बड़ी परेशानी होती है वह है उसके प्रामाणिक जीवन चरित्र की खोज.एक जनकवि लोगों के बीच इस तरह फ़ना हो जाता है कि हर किसी को वह अपना लगने लगता है और हर किसी की कहानी उसकी कहानी बन जाती है. इतनी कहानियों के बीच कई कहानियाँ तर्क की सीमा को भी लांघ जाती हैं.

    औघट शाह वारसी ने अपनी किताब रश्हातुल-उन्स में स्वयं अपने विषय में थोड़ा बहुत लिखा है जिस से उनके जीवन पर पड़ी धुंध थोड़ी साफ़ होती है .इस के अ’लावा कुछ अन्य पुस्तकें भी औघट शाह साहब के जीवन पर प्रकाश डालती हैं हज़रत शाह विलायत साहब के ख़लीफ़ा मौलवी फज़ल हुसैन वारसी ने अपनी किताब मिश्क़ात-ए- हक्क़ानिया में इनके बैअ’त की घटना का पूर्ण विवरण दिया है तथा सूफ़ी कवि अ’ज़ीज़ वारसी बछरायूनी ने अपनी किताब हदीस- ए- मा’रिफ़त में इनका संक्षिप्त जीवन चरित्र दिया है . सूफ़ी महताब शाह वारसी साहब ने भी अपनी किताब कलीद- ए- मा’रिफ़त में इनके जन्म, विसाल तथा इनके मुरीदों पर थोड़ा प्रकाश डाला है .

    हज़रत औघट शाह वारसी का जन्म उत्तर प्रदेश के जिला मुरादाबाद के बछरायूँ नामक गाँव में एक प्रतिष्ठित चौधरी परिवार में सन 1872 ई. में हुआ था.

    हाजी औघट शाह वारसी साहब का परिवार क़ादरिया, चिश्तिया, साबरिया सिलसिले से वाबस्ता था. आप के पिता का नाम हज़रत शम्सुद्दीन क़ादरी, चिश्ती साबरी था. वह एक सरकारी कर्मचारी होने के साथ साथ बछरायूँ के जमींदार भी थे. अपने समय के प्रसिद्ध सूफ़ी संतों में उनका नाम शुमार होता था.

    आप की माता ने आप का नाम बदरुद्दीन रखा था पर प्रसिद्द नाम असग़र था. अपने मुर्शिद हज़रत वारिस पाक से एहराम प्राप्त करने के पश्चात आप का नाम औघट शाह वारसी प्रसिद्द हुआ. आप की आरंभिक शिक्षा अपनी माँ से संरक्षण में हुई और उसके बा’द मदरसा अशर्फ़िया तथा दूसरे मदरसों से शिक्षा ग्रहण की. मीलाद शरीफ़ की शिक्षा आप ने अपने पिता के गुरु चौधरी मुहम्मद अहसन खां साहब से प्राप्त की . आप को बचपन से ही पहलवानी का शौक़ था इसलिए आप ने बुद्ध अहनर (लोहार ) को अपना गुरु बनाया.

    औघट शाह वारसी साहब अपने पिता के आदेश पर क़रीब बारह वर्षों तक भ्रमण करते रहे . इस अवधि में उन्होंने कई सूफ़ी संतों और योगियों के साथ समय बिताया .औघट साहब चार भई बहन थे. हाफ़िज़ ज़फ़रुद्दीन साहब, बदरुद्दीन साहब (औघट शाह ), डॉ. क़मरुद्दीन साहब और बहन साबिरह शाह साहिबा थी.हज़रत औघट शाह साहब ने अपने पिता की आज्ञा पर विवाह नहीं किया और जीवन पर्यंत वैरागी और सन्यासी जीवन व्यतीत किया .

    औघट शाह साहब के पिता की जब अंतिम बेला आई तब बदरुद्दीन साहब (औघट साहब) ने अपने पिता से बैअ’ होने की इच्छा प्रकट की. पिता ने फ़रमाया- मेरे पास जो तुम्हारा हिस्सा है वह तुम्हें ज़रूर मिलेगा मगर मैं तुम्हें बैअ’त नहीं करूँगा. मेरी वसिय्यत है कि तुम सैय्यद हज़रत वारिस पाक के मुरीद बनो . उन के जैसा कोई संत अभी नहीं है . यह कहकर उन्होंने इस जहान- ए- फ़ानी को अलविदाअ’ कह दिया.

    पिता के देहांत के लगभग पांच महीने बाद ही सन 1899 ई. में आप की माता का भी देहांत हो गया.अपने माता- पिता की मृत्यु के पश्चात आप अपने परिवार में इतने अधिक व्यस्त हो गए कि धीरे धीरे अपने पिता के कथन भूल गए. उन्होंने स्वयं लिखा है कि एक दिन स्वप्न में उन्होंने देखा कि कोई कह रहा है कि तुम्हारे पिता तुम्हें पूरब की ओर बाग़ में बुला रहे हैं. यह सुनकर जब वह उसी ओर जाने लगे तो उन्हें मार्ग के बीचो बीच एक सांप दिखाई पड़ा. उन्होंने सांप को हटाना चाहा पर वह नहीं हटा . तभी एक व्यक्ति आया और उसने उन्हें चाक़ू देकर कहा इसे बीच से काटो यह कट जाएगा. उन्होंने सांप को काट दिया. आगे बढ़ने पर बाग़ और उनके बीच एक नदी प्रकट हो गयी.वह नदी को पार करना चाह रहे थे और उन्हें अपने पिता की तपस्या के स्वर सुनाई पड़ रहे थे. उन्होंने घबराकर कहा यह नदी मैं कैसे पार करूँ ?कोई नाव भी नहीं दिखाई पड़ रही ! तभी पिता का स्वर सुनाई पड़ा पूरब के रास्ते से जाओगे तभी मुझ तक पहुंचोगे ! यह सुनकर उनकी आँखें खुल गयी .

    आप ने इस स्वप्न का अर्थ लगाया कि उन्हें बैअ’त होने का यह एक इशारा था. वह अब देवा शरीफ़ जाना चाहते थे मगर उनके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि वह देवा जा सकें. कुछ दिनों तक यूँ ही चलता रहा और फिर एक दिन एक बूढी महिला उनके घर आई और उसने कहा मैं आप के पिता की मुरीद हूँ और उनका आदेश था कि अब तुम हाजी वारिस पाक की सेवा में उपस्थित हो जाओ. उस बूढी महिला ने उन्हें पचास रुपये दिए और कहा कि यह भी तुम्हारे पिता के हुक्म से ही मैं तुम्हें दे रही हूँ . औघट शाह साहब सरल व्यक्ति थे उन्होंने पचास रुपयों को अपने खर्च से अधिक जानकर महिला को पचीस रूपये वापस कर दिए.

    इस के बा’द उन्होंने यह पद गाते हुए बछरायूँ से देवा की और प्रस्थान किया

    जाते हैं अब तो कू-ए- बुत-ए-लाला फ़ाम को

    अपना तो बस सलाम है दारुस्सलाम को

    अर्थात अब हम अपने महबूब के घर की ओर जाते हैं ! पूरे संसार को हमारा सलाम है !

    देवा शरीफ़ पहुँच कर आप वहां के वातावरण से बड़े प्रभावित हुए. आप ने हज़रत वारिस पाक के ख़ास सेवक फैजू शाह साहब से निवेदन किया कि आप ग़ुलामान -ए -वारसी में शामिल होना चाहते हैं. उनकी यह दिली ख़्वाहिश हज़रत वारिस पाक जान चुके थे इसलिए उन्होंने उन्हें बुला कर दुनियावी चीज़ों से तौबा करवाई और उन्हें ठहरने का हुक्म दिया.

    औघट शाह साहब के मन में शंका हुई कि शायद हज़रत उन्हें बैअ’ नहीं करना चाहते हैं क्योंकि उन्होंने मुझे सब के सामने मुरीद किया है जबकि प्रक्रिया एकांत में होती है . तभी मकान के चबूतरे पर बैठे हुए शाह फ़ज़ल हुसैन साहब ने उन्हें बुलाकर कहा तुमने फ़क़ीर देखे कहाँ हैं ? तुम्हारे पिता फ़क़ीर थे जिन्होंने तुम्हें यहाँ भेजा है. क्या तुम्हें वह स्वप्न याद नहीं है ? तुम्हारा यही विचार वह सांप है और चाक़ू हमारी शिक्षाएं. यह सुनकर औघट शाह साहब के मन से रहा सहा संशय भी जाता रहा . लेकिन अब उन में पेशवा -ए -बरहक़ के सामने आने का साहस नहीं था. मौलवी फ़ज़ल हुसैन साहब ने फ़रमाया वह कुछ नहीं कहेंगे. वह अथाह समुद्र हैं और हम ओछे लोग ! आप हज़रत की सेवा में उपस्थित हुए और आप को देखकर हज़रत वारिस पाक ने मुस्कुराकर फ़रमाया जाओ ! बछरायूँ में बहुत चेले हैं !

    हज़रत औघट शाह वारसी बैअ’त होने के पश्चात बछरायूँ चले आये मगर वहां अपने मुर्शिद से मिलने की व्याकुलता ने उन्हें घेर लिया. व्याकुलता की स्थिति जब असह्य हो चली तब वह शाह उवैस के मेले में देवा शरीफ़ पहुँच गए जो हज़रत वारिस पाक के आस्ताने के समीप ही स्थित था. वहां से जब उन्होंने हज़ारों मुरीदों को हज़रत वारिस पाक के दर्शन हेतु जाते देखा तो आप भी उस भीड़ में शामिल हो गए . आप ने अपने मुर्शिद के सम्मान में अपने जूते और टोपी को फेंक दिया और ख़ाली सर और ख़ाली पैर आप हज़रत के दर्शन को पहुंचे .

    शुक्रवार को रात के आठ बजे हज़रत वारिस पाक के आदेशानुसार शाह फ़ज़ल हुसैन वारसी साहब ने आप से फ़रमाया कि तहबन्द, लंगोट और रुमाल लेकर हज़रत के पास जाओ ! हज़रत वारिस पाक ने वह तहबन्द अपने शरीर पर पहले धारण किया और फिर अपना लंगोट और तहबन्द उन्हें देकर फ़रमाया इसे बाँध लो ! फिर नूर मुहम्मद जी को तहबन्द की गिरह बाँधने का आदेश दिया. इसी रात आप का नाम औघट शाह रखा गया. फ़क़ीरी का लिबास देते समय हज़रत ने उन्हें कुछ हिदायतें और शिक्षाएँ दी

    –किसी से सवाल करना

    -चाहे दम निकल जाए, अपने पिता की समाधि पर ही रहना

    -मोढ़े, कुर्सी, तख़्त आदि पर बैठना

    जाओ मुहब्बत करो ! तुम्हारा बाप फ़क़ीर है . उसकी दरगाह पर रहो. तुम्हें शिक्षा की आवश्यकता नहीं है ! अब तुम जाओ !

    वारिस पाक ने वहां उपस्थित मुरीदों से फ़रमाया यह ख़ानदानी फ़क़ीर हुए ! और इसका नाम औघट शाह रखा है !

    औघट शाह वारसी साहब ने स्वयं लिखा है

    घट घाटी पर औघट जाने, जाने कौनो राह

    कृपा भई गुरु वारिस की, जो हो गए औघट शाह .

    हज़रत वारिस पाक ने औघट शाह साहब को यात्रा की आज्ञा दी थी इस लिए आप ने अपने जीवन काल में कई यात्राएं की. आप अनेक सूफ़ी बुजुर्गों के उ’र्स में सम्मिलित होते थे. वहां आने वाले सूफ़ी संतों की सेवा करते थे . आप का विश्वास था कि सभी बुज़ुर्गों का दर्शन हज़रत वारिस पाक का ही दर्शन है !

    आप पंजाब एवं अम्बाला में साईं तवक्कुल शाह साहब से मिलने पहुंचे और वहां पर कई सूफ़ी संतों की ज़ियारत की. अम्बाला से आप लाहौर पहुंचे और वहां हज़रत दाता गंज बख़्श की दरगाह पर भी जियारत की . लाहौर से अमृतसर, सहारनपुर, हरिद्वार, और ऋषिकेश की भी आप ने यात्राएं की .

    सूफ़ी संतों में गुरु का मिल जाना मक़ाम का मिलना कहलाता है . एक बार जब मुर्शिद का रंग चढ़ गया फिर और कोई रंग नहीं चढ़ता. हज़रत अमीर ख़ुसरौ ने भी फ़रमाया है

    देस बिदेस मैं घूम फ़िरी हूँ

    तोरा रंग मन भायो निजामुद्दीन

    हज़रत औघट शाह वारसी को भी अपनी पूरी यात्रा में वारसी रंग और कहीं नहीं दिखा

    देखा पंडित साधू जोगी संत साध मलंग

    प्रेम का भगती एक पाया औघट चार अलंग

    ऋषिकेश से ज्वालापुर होते हुए औघट शाह वारसी कलियर शरीफ़ जाकर उ’र्स में सम्मिलित हुए और वहीँ अपने पिता से मिलने वाले हज़रत छंगाशाह साहब, हज़रत मीरान शाह साहब और हज़रत ज़फ़र शाह साहब से उनकी मेंट हुई जिनसे उन्होंने राह –ए- तरीक़त में रियाज़त और मुजाहिदा का ज्ञान प्राप्त किया.

    उनकी यात्राएँ अध्यात्मिक विकास के लिए बड़ी लाभप्रद रहीं. वह जगह जगह के विभिन्न धर्मों के लोकाचार से परिचित हुए. वास्तव में उनकी यात्रा का उद्देश्य धार्मिक सौहार्द का अनुभव करना था .

    यात्राओं से लौटकर औघट शाह का सूफ़ी ह्रदय फिर अपने मुर्शिद के लिए धड़कने लगा और दिन पर दिन अपने मुर्शिद से मिलने की इच्छा बलवती होने लगी.उन्ही दिनों उन्हें हज़रत फ़ज़ल शाह वारसी साहब से मा’लूम पड़ा कि हज़रत वारिस पाक धर्मपुर में अ’ब्दुल शकूर साहब के मकान पर ठहरे हुए हैं . वह तुरंत धर्मपुर पहुंचे . धर्मपुर से जाते समय वारिस पाक ने फ़रमाया बछरायूँ में ‘नोक’ से रहना ! . औघट शाह साहब ने जब पूछा कि नोक से रहने का क्या अर्थ है तो हज़रत ने फ़रमाया –निर्मल हृदय और निःस्वार्थ भाव से आन- बान से रहना. किसी से दब कर नहीं रहना.

    क़दमबोशी के बा’द औघट शाह साहब हज़रत के साथ ही हो लिए. तीन दिन अ’लीगढ़ में रहकर हाथरस भी गए परन्तु यहाँ से हाजी वारसी साहब ने इन्हें विदाअ’ कर बछरायूँ भेज दिया.

    बछरायूँ में चैत के महीने में अपने पिता का उर्स संपन्न करके औघट साहब दोबारा देवा शरीफ़ पहुंचे. देवा शरीफ़ में हज़रत शाह विलायत साहब का उ’र्स चल रहा था. वहीं उन्हें हज़रत वारिस पाक का बुलावा आया. औघट ख़ुशी से झूम उठे. इसी बुलावे के साथ यह आदेश भी हुआ कि बिस्तर भी दर दौलत (हज़रत वारिस पाक की ड्योढ़ी) पर लागों . आप ने उसी दिन अपना बिस्तर अपने मुर्शिद की ड्योढ़ी पर लगा लिया. एक मुरीद के लिए इस से बड़ी क्या बात हो सकती थी .औघट साहब ने लिखा है

    दी जगह दर पे शाह वारिस ने

    वरना औघट का कहाँ ठिकाना था .

    जब 1918 ई. में हल्क़ा फ़ुक़रा –ए- वारसी की स्थापना हुई तो हल्क़ा के सद्र हाजी अहद शाह वारसी दरभंगवी बने और आप को सेक्रेटरी बनाया गया. हाजी अहद शाह वारसी साहब के विसाल के बाद सन 1928 ई. में आप हल्क़ा के सद्र नियुक्त हुए. बेदम शाह वारसी इटावी हल्क़ा के सेक्रेटरी चुने गए और आप जीवन पर्यंत हल्क़ा फ़ुक़रा –ए-वारसी के सद्र रहे .

    कुछ पुराने पत्रों में एक स्पेनिश पत्रकार काउंट गेलाराजा का ज़िक्र मिलता है जिस ने हज़रत वारिस पाक का साक्षात्कार किया था और वापस लौटने के बा’द उसने वारिस पाक को दो पत्र भी लिखे थे. वह अपने पत्र में बताता है कि एक दिन स्वप्न में उसे हज़रत वारिस पाक दिखाई पड़े. उन्होंने एक सेब निकाला और आधा खाकर उसे दे दिया. जब उस की नींद खुली तब वह हैरान था. कुछ ही दिनों बाद हज़रत औघट शाह वारसी साहब का पत्र आया कि हज़रत वारिस पाक का विसाल हो गया है. यह पत्र सूफ़ीनामा ब्लॉग पर उपलब्ध है.

    हज़रत औघट शाह वारसी उ’र्स और ख़ानक़ाह के प्रधान थे. आप के द्वारा हज़ारों एहराम -पोश वारसी मुरीद हुए जिनमे से कुछ प्रमुख मुरीद हैं हज़रत जमालशाह वारसी, हज़रत हाफ़िज़ अक्मल शाह वारसी पंजाबी, हज़रत मुनव्वर शाह वारसी सीतापुरी, हज़रत अनवार शाह वारसी पंजाबी, हज़रत सलमान शाह वारसी बछरायूनी, हज़रत मुबारक शाह वारसी बछरायूनी आदि .

    हज़रत औघट शाह वारसी अपने पीर के सच्चे प्रतिनिधि थे. उनकी दृष्टि में किसी के प्रति असमान भाव नहीं था. हर व्यक्ति को वह यही शिक्षा देते थे मुहब्बत करो ! जो व्यक्ति से प्रेम करेगा वह अपने मज़हब के बुजज़ुर्गों से भी प्रेम करेगा. आप के हर ढंग, हर भाव हज़रत वारिस पाक के समान ही लगता था .

    आप के जीवन की अंतिम घड़ियों में सूफ़ी महताब शाह वारसी आप की सेवा में उपस्थित थे. आप बहुत ज़्यादा दुर्बल हो चुके थे और उठने बैठने में असमर्थ थे इसलिए महताब साहब हमेशा आप के समीप ही रहते थे. अंतिम समय में आप ने 9 मार्च 1952 ई. को जगदीशपुर में अ’ली वारिस खां के यहाँ अपने हाथ से महताब शाह वारसी को एहराम प्रदान किया. महताब शाह वारसी आप के आख़िरी मुरीद थे.

    आप अपने आख़िरी दिनों में पटना में अ’ली वारिस खां जगदीशपुरी के मकान पर ठहरे थे. आप को ज्वर हुआ और धीरे धीरे तबीअ’त बिगड़ती चली गयी . 17 सितम्बर सन 1952 ई. को आप इस जगती के पालने से कूच कर गए .

    हकीम फ़रीदुद्दीन जामी वारसी जगदीशपुरी, मास्टर अ’ब्दुल रऊफ़ साहब और महताब वारसी ने आप को स्नान करवा कर एहराम और लंगोट के साथ आप का पार्थिव शरीर ताबूत में रखा और नमाज़ –ए- जनाज़ा हकीम साहब ने पढ़ी. पार्थिव शरीर को पटना से लेकर कुछ लोग देवा शरीफ़ पहुंचे जहाँ पर उनके बछरायूँ और दिल्ली के मुरीद उपस्थित थे .वहां पर नमाज़ –ए- जनाज़ा दोबारा पढ़ी गयी और फिर वहां से पार्थिव शरीर को जांच के लिए लखनऊ लाया गया और आख़िरकार मंगलवार को पार्थिव शरीर बछरायूँ पहुँचा जहाँ स्थानीय लोगों के अंतिम दर्शन के पश्चात मौलाना ज़ुहूर साहब ने नमाज़ –ए- जनाज़ा पढ़ी और चौधरी हुसैन खां वारसी बन्ने मियां साहब ने पार्थिव शरीर को क़ब्र में रखा. बुधवार को रात के 9 बजकर 35 मिनट पर आप खाक़ के सुपुर्द हुए. आप की दरगाह हज़ारों दर्शनार्थियों के लिए श्रद्धा का केंद्र है.

    यहाँ सन 1952 के बा’द आप के नाम पर चैत के महीने में उ’र्स होता है .इस उ’र्स में देश भर के सूफ़ी विद्वान् एवं क़व्वाल शामिल होते हैं .आप की स्मृति में दिल्ली, बछरायूँ, लाहौर और जगदीशपुर में अंजुमन- ए- इत्तिहाद वारसिया स्थापित किया गया है.

    इस संस्था की दिल्ली शाखा की ओर से हर साल चौथी चैत को सुब्ह 10 बजे ख़ानक़ाह वारसिया बछरायूँ में निम्नलिखित पद गाकर एहराम पेश किया जाता है

    ख़िदमत-ए-अक़दस में मेहराब –ए- दिल के पेश इमाम

    लाये हैं नज़राना –ए- एहराम यह तेरे ग़ुलाम

    मेरे वारिस मेरे औघट मेरी दुनिया मेरा दीन

    यह वज़ीफ़ा है अ’ज़ीज़ –ए-वारसी का सुब्ह –ओ- शाम

    हाजी औघट शाह वारसी एक प्रसिद्द सूफ़ी संत होने के साथ साथ जनकवि थे जिनकी रचनाएँ आज भी लोक मानस के पटल पर अपनी पूरी धज के साथ ज़िन्दा हैं. आप की रचनाओं में अवध का रंग ऐसा घुला है कि आप की रचनाओं का अध्ययन अवध की संस्कृति को जानने –समझने की एक महत्वपूर्ण कड़ी है. इस कड़ी को जोड़े बिना पूरा अवध और अवध की गंगा जमुनी तहजज़ीब का अध्ययन अधूरा है.

    आप हज़रत वारिस पाक के विद्वान मुरीदों में से एक थे और उनका लेखन कार्य आप के द्वारा ही सम्पादित होता था. हज़रत इब्राहीम शैदा वारसी ने अपनी किताब ‘हयात- ए- वारिस’ में तहरीर किया है कि औघट शाह वारसी साहब हज़रत वारिस पाक को एकांत में सूफ़ी बुजज़ुर्गों का कलाम सुनाते थे. धीरे धीरे वह स्वयं भी शाइ’री करने लगे .हज़रत वारिस पाक को खाना खिलते समय औघट शाह साहब सूफ़ी संतों के जुमले सुनाया करते थे ताकि हज़रत दो चार कौर ज़्यादा खा लें . जिन सूफ़ी बुजज़ुर्गों का कलाम औघट शाह साहब हज़रत को सुनाया करते थे उनमे उनके अपने वालिद और हज़रत अमीर ख़ुसरौ के कलाम प्रमुख थे .

    औघट शाह वारसी साहब की कई रचनायें उपलब्ध हैं जिनमे कुछ प्रमुख रचनाओं का विवरण निम्न है

    फैज़ान -ए- वारिस (ज़मज़मा-ए- क़व्वाली )

    हज़रत औघट शाह वारसी जो कलाम अपने पीर साहब को उनकी रुचि के अनुसार सुनाया करते थे उन्ही कलाम का संग्रह यह किताब है .इस किताब का प्रकाशन प्रिंटिंग प्रेस लाहौर से हुआ है . इसका प्रथम प्रकाशन सन 1947 ई. में ज़मज़मा- ए- क़व्वाली के नाम से किया गया. दूसरा प्रकाशन सन 1960 ई. में सलीमुद्दीन अहमद वारसी के संपादन में कूचा आज्ञा राम संत नगर लाहौर से किया गया .बा’द में यही किताब दिल्ली के जय्यद बर्क़ी प्रेस से भी प्रकाशित हुई .

    यह किताब नौ खण्डों में विभाजित है. पहले खंड को तस्लीम शीर्षक दिया गया है और इसमें हम्द, ना’त और मनक़बत का संग्रह है

    दुसरे खंड में हज़रत वारिस पाक की शान में क़ितआ और ग़ज़लें संगृहीत हैं

    ख़याल कर के जो मैं ने देखा उसी की सूरत चमक रही है

    उसी का नक़्शा है चार-जानिब उसी की रंगत दमक रही है

    तुम्हारे फ़ैज़-ए-क़दम से जाना, हुआ है सरसब्ज़ बाग़-ए-आ’लम

    तमाम इस गुलशन-ए-जहाँ में तुम्हारी ख़ुश्बू महक रही है

    दर्द जाएगा चारा-साज़ो अ’बस तुम्हारी है फ़िक्र-ओ-कोशिश

    किसी हसीं की ये नोक-ए-मिज़्गाँ हमारे दिल में खटक रही है

    ये बाग़-ए-आ’लम में रंग देखा कोई है ग़मगीं कोई है ख़ंदाँ

    कहीं है शोर-ओ-फ़ुग़ान-ए-क़ुमरी कहीं पे बुलबुल चहक रही है

    अ’जब तरह की ये कश्मकश है कि हम को है इंतिज़ार-ए-जानाँ

    कमर को बाँधो उठाओ बिस्तर अजल सिरहाने ये बक रही है

    बसी गुलों में उसी की बू है परी-वशों में उसी की ख़ू है

    बुतों के पर्दे में देख ‘औघट’ उसी की सूरत झलक रही है

    तीसरे खंड में साक़ी-नामा के नाम से 21 मिसरों’ में सुन्दर कविता कही गयी है .औघट साहब अपने मुर्शिद हज़रत वारिस पाक को साक़ी का नाम देकर उनसे प्रेमरूपी मदिरा का पान कराने के लिए अनुनय विनय करते हैं

    फिर फ़स्ल-ए-बहार आई साक़ी, फिरती है तेरी दुहाई साक़ी

    पाए दिल-ए-बेक़रार आराम, लिल्लाह दे उस शराब का जाम

    उस मय को पिला दे साक़ी

    औघट का बना दे काम साक़ी .

    चौथे खंड में अवधी भाषा में 75 दोहों का संकलन है. कुछ दोहे हम यहाँ पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. हज़रत औघट शाह वारसी के दोहे सूफ़ीनामा वेबसाइट पर पढ़े जा सकते हैं

    दया बराबर धर्म नहीं प्रपंच बराबर पाप

    प्रेम बराबर जोग नहीं गुरु-मंत्र बराबर जाप

    साधू ‘औघट’ सबद को साधे जोगी करे सब जोग

    इस डगरिया मिलें गोसाईं नदी नाव संजोग

    जाप जोग तप तीर्थ से निर्गुण हुआ कोई

    ‘औघट’ गुरु दया करें तो पल में निर्गुण होई

    कान खोल ‘औघट’ सुनो पिया मिलन की लाग

    तन तम्बूरा साँस के तारों बाजे हर का राग

    पांचवे खंड में हाफ़िज़ शीराज़ी की सात ग़ज़लों का उल्लेख मुख़म्मस(पांच मिसरों’ वाली कविता ) में किया गया है.

    छठे खंड में नौहा शीर्षक से एक मर्सिया 16 मिसरों में संकलित है

    सातवे खंड में फ़ारसी ग़ज़ल संकलित है. औघट शाह साहब उर्दू, हिंदी, अवधी के अ’लावा फ़ारसी के भी विद्वान थे. उनकी एक फ़ारसी ग़ज़ल प्रस्तुत है

    गुफ़्ता कि क़त्ताल-ए-जहाँ गुफ़्तम ख़म-ए-अबरू-ए-तू

    गुफ़्ता चे ख़ुश-तर अज़ इरम गुफ़्तम फ़ज़ा-ए-कू-ए-तू

    गुफ़्ता नशात-ए-ज़िंदगी गुफ़्तम हवा-ए-दामनत

    गुफ़्ता शमीम-ए-जाँ-फ़िज़ा गुफ़्तम कि गुल बू-ए-तू

    गुफ़्ता चे सेह्र-ए-सामरी गुफ़्तम निगाह-ए-नाज़-ए- तू

    गुफ़्ता कि वारस्त: कुनद गुफ़्तम कि ईं जादू-ए-तू

    गुफ़्ता कि आ’ली-मर्तबत गुफ़्तम कि दरबान-ए-दरत

    गुफ़्ता कि फ़ग़्फ़ूर-ए-जहाँ गुफ़्तम गदा-ए-कू-ए-तु

    गुफ़्ता उसूल-ए-मिल्लत अस्त गुफ़्तम तरीक़-ए-आ’शिक़ी

    गुफ़्ता कि दारी सिलसिलः गुफ़्तम अज़ीं गेसू-ए-तू

    गुफ़्ता कि चे तस्बीह कुनी गुफ़्तम कि विर्द-ए-नाम-ए-तू

    गुफ़्ता चे रुक्न-ए-दीन-ए-तू गुफ़्तम क़द-ए-दिल-जू-ए-तू

    गुफ़्ता तू आई अज़ कुजा गुफ़्तम ज़े-फ़रमान-ए-शुमा

    गुफ़्ता मक़ाम-ए-रफ़्तनत गुफ़्तम कि जानाँ सू-ए-तू

    गुफ़्ता कि औराद-ए-सहर गुफ़्तम कि दीदन आ’रिज़त

    गुफ़्ता नमाज़-ए-शब तुरा गुफ़्तम ख़याल-ए-मू-ए-तू

    गुफ़्ता ब-गो मन कीस्तम गुफ़्तम कि मा’बूद-ए-मनी

    गुफ़्ता चे ईमाँ दाशती गुफ़्तम कि वल्लाह रु-ए-तू

    गुफ़्ता निको-दारी अमल गुफ़्तम गुनहगार-ए-तू-अम

    गुफ़्ता चे साज़-ए-आ’क़िबत गुफ़्तम उम्मीद अज़ ख़ू-ए-तू

    गुफ़्ता तू शैदा-ए-कसे हस्त गुफ़्तम बरीं हुस्न-ए-रुख़त

    गुफ़्ता उम्मीद-ए-ख़ातिरत गुफ़्तम कि दीदन रू-ए-तू

    आठवे खंड में दीगर शीर्षक से 17 पदों का उल्लेख किया गया है और साथ साथ विभिन्न सूफ़ी सम्प्रदायों के शजरे दिए गए हैं .

    नवें और अंतिम खंड में हज़रत वारिस पाक की ख़ानक़ाह, कुआँ, सहदरी (दरगाह ) के निर्माण का समय, वर्ष और हज़रत औघट शाह वारसी साहब के विसाल का वर्ष, और ग्रन्थ के प्रकाशन से सम्बंधित तारिख़ का वर्णन 9 क़ितओं’ में किया गया है .

    औघट शाह वारसी साहब ने सूफ़ीमत के भाव पक्ष के साथ साथ कला पक्ष को भी इस किताब में ख़ूबसूरती के साथ प्रस्तुत किया है. इस रचना में उर्दू, फ़ारसी, हिंदी और उर्दू के साथ साथ अ’रबी शब्दों का भी प्रयोग कुशलता पूर्वक किया गया है.

    हज़रत औघट शाह वारसी साहब की कुछ अन्य किताबें भी मिलती हैं जिनका वर्णन इस लेख को लेखक के अनुमान से कहीं ज़्यादा बड़ा कर देगा. इसलिए हम इन किताबों का नामोल्लेख कर इस लेख को विराम देते हैं –ज़ियाफ़तुल अहबाब (कुल्लियात- ए- मक्तुबात) पत्रों का संकलन

    रद्द- ए- कुफ़्र (शिहाब –ए- साकिब )

    रश्हातुलउन्स

    वारिस गुण प्रकाश

    तस्लीम पंचगाना

    हज़रत औघट शाह वारसी हिन्दुस्तानी सूफ़ी साहित्य के ऐसे अमर स्रोत हैं जिनकी रचनाओं से प्रेम का प्रवाह अनवरत है और यह प्रवाह इतना निर्मल है कि इसमें देखने पर हमें भारतीय संस्कृति की छटा साफ़ दृष्टिगोचर होती है .

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