ख़्वाजा शम्सुद्दीन मुहम्मद ‘हाफ़िज़’ शीराज़ी
लिसानुल-ग़ैब(‘अज्ञात का स्वर’ या स्वार्गिक रहस्यों के व्याख्याता) ख़्वाजा शमसुद्दीन मुहम्मद हाफ़िज़(1315-1390 ई.) ने आठवीं सदी हिजरों में अपनी ग़ज़लों से तसव्वुफ़ के एक बिल्कुल नए रहस्यमयी संसार का दरवाज़ा सबके लिए खोल दिया।
हाफ़िज़ के जीवन के संबंध में बहुत कम जानकारी मिलती है। उनके समकालीन लोगों ने भी उनके विषय में कम ही लिखा है। उनके विषय में जो थोड़ी बहुत जानकारी मिलती है वह उनकी स्वयं के विषय में कही गयी उक्तियों पर ही आधारित हैं-
आँ कस कि गुफ़्त क़िस्स:-ए-मा ज़े मा शनीद
(अर्थात-जिसने भी हमारी जीवन कथा सुनाई, वह हमीं से सुनी।)
हाफ़िज़ का जन्म सन 1320 ई० के आस पास शीराज़ में हुआ। इनके पिता पहले इस्फ़हान में रहते थे। सलग़री अताबकों के समय वह शीराज़ आए और यहीं बस गए। शीराज़ के विषय में हाफ़िज़ ने अपने ‘दीवान’ में ख़ूब लिखा है। प्रसिद्ध है कि यहाँ की जलवायु की शाइरी से ओत-प्रोत है। यहाँ का प्रत्येक व्यक्ति या तो शाइर होता है या काव्य-प्रेमी।
ख़्वाजा हाफ़िज़ के पिता ख़्वाजा बहाउद्दीन एक सफल व्यापारी थे। हाफ़िज़ की बाल्यावस्था में ही उनके सर से पिता का साया उठ गया। ख़्वाजा हाफ़िज़ के अन्य दो भाई व्यापार में कुशल नहीं थे। धीरे-धीरे व्यापार घटने लगा और पिता की संचित पूंजी समाप्त हो गयी। भुखमरी की हालत आ गई। घर की परेशानी देखकर हाफ़िज़ ने ख़मीर बनाने का व्यवसाय शुरू किया। घर के पास ही एक मदरसा था। हाफ़िज़ ने वहीं दाख़िला ले लिया। ख़मीर के व्यवसाय से जो धन उन्हें प्राप्त होता था उसमें से एक तिहाई अपनी माता को, एक तिहाई अपने अध्यापक को और बाक़ी ग़रीबों को दान कर देते थे।
ख़्वाजा हाफ़िज़ ने अपने समय के बड़े-बड़े आ’लिमो से ता’लीम हासिल की। उनमें से शैख़ क़िवामुद्दीन अब्दुल्लाह (मृ० सन 772 हिजरी) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
हाफ़िज़ ने क़ुरआन का अध्ययन किया और उसे कंठस्थ किया इसी वजह से उन्होंने अपना तख़ल्लुस ‘हाफ़िज़’ रखा। उनके हाफ़िज़ होने का प्रमाण उनके ही एक शे`र में मिलता है-
न-दीदम ख़ुशतर अज़ शे’र-ए-तू हाफ़िज़
ब-क़ुरआने कि अन्दर सीन: दारी॥
(अर्थात-हाफ़िज़ तुझे क़ुरआन की क़सम जो तूने कंठस्थ किया है! मैंने तेरे शे’र से बढ़िया शे’र नहीं देखा!)
शीराज़ में वह समय शाइ’री के उत्थान का समय था। हर दूसरा व्यक्ति शाइ’री में हाथ आज़मा रहा था। ख़्वाज़ा हाफ़िज़ ने भी कुछ शे’र कहे,जिन्हें बेतुका कह कर खिल्ली उड़ाई गई। दो सालों तक यही हाल रहा। एक दिन जब दुख बर्दाश्त के बाहर हो गया तो कोही-बाबा की मज़ार पर ख़ूब फूट-फूट कर रोए।रात को ख़्वाब में देखा कि एक बुज़ुर्ग उन्हें खाने का एक कौर खिलाते हुए फ़रमा रहे हैं- जा! अब से सारी विधाओं के द्वार तुम्हारे लिए खुल गए।नाम पूछा तो मा’लूम पड़ा कि बुज़ुर्ग पैग़म्बर ख़िज़्र हैं।सुब्ह उठकर उन्होंने अपनी प्रसिद्ध ग़ज़ल कही जिसका पहला शे’र था।
दोश वक़्त-ए-सहर अज़ ग़ुस्स: नजातम दादन्द
वंदर आँ ज़ुल्मत-ए-शब आब-ए-हयातम दादन्द॥
अर्थात-कल सुब्ह मुझे पीड़ा से मुक्ति दी गई और रात्रि के इस घने अन्धकार में मुझे आब-ए-हयात (अमृत) प्रदान किया गया।
कुछ विद्वान इस घटना में हज़रत ख़िज्र की जगह हज़रत अ’ली का नाम लिखते हैं .
जो भी हो,यह स्पष्ट है कि शीराज़ के लोगों ने शुरूअ’ में उनका उचित सम्मान नहीं किया।एक स्थान पर हाफ़िज़ कहते है-
सुख़न-दानी-ओ-ख़ुश-ख़्वानी नमीं-वरज़ंद दर शीराज़
बया हाफ़िज़ कि मा ख़ुद रा ब-मुल्क-ए-दीगर अन्दाज़ेम॥
(अर्थात-अच्छी शाइरी और सुंदर रचना शीराज़ में आदर नहीं पाते। हाफ़िज़ चल! किसी और देश को चलें!)
अनेकों कष्ट सहने के पश्चात भी अपनी मातृभूमि के अनुराग ने हाफ़िज़ को कहीं और नहीं जाने दिया। हाफ़िज़ को शीराज़ की आब-ओ-हवा और प्रकृति से एक पल का भी विछोह बर्दाश्त नहीं था।
ख़ुशा शीराज़-ओ-वज़्अ-ए-बे-मिसालश
खुदावन्दा!निगहदार अज़ ज़वालश॥
अर्थात-शीराज़ कैसा सुन्दर शहर है और उसका रूप कैसा अद्वितीय है। हे ईश्वर! इसे पतन से सुरक्षित रखना!
प्रसिद्ध है कि हिंदुस्तान के दो बादशाहों ने उनकी प्रसिद्धि सुनकर उन्हें यहाँ आमंत्रित किया था, मगर वह हिंदुस्तान न आ सके!
नमी-देहन्द इजाज़त मरा ब-सैर-ओ-सफ़र
नसीम-ए-ख़ाक़-ए-मुसल्ला-ओ-आब-ए-रूक्नाबाद॥
(अर्थात मुझे मुसल्ला की हवा और रूक्नाबाद का जल यात्रा और सैर की इजाज़त नहीं देते।)
*-मुसल्ला शीराज़ की एक ख़ूबसूरत जगह है। नगर के इस भाग में ख़्वाजा हाफ़िज़ अक्सर बाग़ में चहलक़दमी किया करते थे। मृत्यु के पश्चात उन्हें यहीं दफ़नाया गया।
ख़्वाजा साहब की ज़िंदगी में एक दुखद मोड़ तब आया जब भरी जवानी में उनके लड़के की अकाल मृत्यु हो गयी। शाइ’र की शाइ’री भी शोक में डूब गयी। बड़ी मनौतियों के बा’द उनके घर में कोई चिराग़ जला था परंतु नियति के थपेड़े ने उस कुल-दीपक को भी बुझा दिया। ख़्वाजा हाफ़िज़ की यह क़ितआ मानो दर्द को रोशनाई में क़लम को डुबोकर लिखी गयी है-
दिला दीदी कि आँ फ़र्ज़ान: फ़र्ज़न्द
चे दीद अन्दर ख़म-ए-आँ ताक़-ए-नीली
बजा-ए-लौह-ए-सीमीं दर कनारश
फ़लक़ बर सर निहादश लौह-ए-संगी॥
(अर्थात ऐ दिल! तूने देखा कि उस मेधावी बेटे ने नीले आसमान के नीचे क्या सुख पाया? गगन ने उसकी गोद मे चाँदी की तख़्ती तो न रखी, बल्कि उसके सिर पर पत्थर रख दिया!)
हाफ़िज़ का विसाल सन 1389 ई० में हुआ और वह अपनी मातृभूमि शीराज़ में ही ख़ाक़ के सुपुर्द किए गये। हाफ़िज़ की दरगाह एक ख़ूबसूरत बाग़ ‘हाफ़िज़िया’ में स्थित है जिसका नामकरण उनके नाम पर किया गया है .तैमूर के पोते अबुल क़ासिम बाबर ने जब शीराज़ फ़त्ह किया तो उसने इस बाग़ का सौन्दर्यीकरण करवाया. बा’द में करीम ख़ान ज़न्द ने मौजूदा कत्बा बनवाया . शीराज़ के लोग इस दरगाह को बड़ा सम्मान देते हैं . दीवान-ए-हाफ़िज़ का प्रयोग लोग फ़ाल निकालने के लिए भी करते हैं . कहते हैं हिन्दुस्तान में भी अकबर दीवान-ए-हाफ़िज़ से फ़ाल निकाला करता था .
जो लोकप्रियता हाफ़िज़ की ग़ज़लों को प्राप्त हुई है वह शायद ही किसी शाइर को प्राप्त हुई हो। उनकी शाइरी में सूफ़ियाना रंग स्पष्ट झलकता है। उन्होंने प्रतीकों द्वारा तसव्वुफ़ के गूढ विषयों को अपनी ग़ज़लों के माध्यम से समझाया है-
ब-सिर्र-ए-जाम-ए-जम आँगाह नज़र तवानी कर्द
कि ख़ाक़-ए-मैकद: कुहल-ए-बसर तवानी कर्द॥
(अर्थात-तू जमशेद के प्याले के रहस्यों पर उसी समय दृष्टि डाल सकता है, जब तू शराबख़ाने की ख़ाक को अपनी आँखों का सुर्मा बना सके)
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